रज़ा : जैसा मैंने देखा (९) : अखिलेश


 

प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के जीवन और उनकी चित्रकला पर आधारित स्तम्भ ‘रजा: जैसा मैंने देखा’ पिछले कई महीनों से आप माह के पहले और तीसरे शनिवार को समालोचन पर पढ़ रहें हैं. आज इसकी नवीं क़िस्त प्रस्तुत है.

हिंदी में किसी चित्रकार को समझने और समझाने का यह दुर्लभ उद्यम है.   




रज़ा : जैसा मैंने देखा (9) 
मंडला के जंगलों का घना अंधेरा और चित्र की रौशनी                               
अखिलेश 

 

ज़ा के चित्र अब नई दिशा ले चुके थे. उनका सौन्दर्य अब दृश्य में नहीं, उसके ज्यामितिक विस्तार में था. इस दौरान की कई कलाकृतियाँ का उल्लेख पहले कर चुका हूँ. मजेदार बात यह है कि अब चित्र का विषय दर्शक के मन में एक दृश्य पैदा करता, जो किसी जगह विशेष का नहीं है. अब चित्र में दृश्य उसके शीर्षक में सिमट गए हैं जबकि चित्र-विस्तार चित्रात्मकता का विषय है. यही वह समय है जिसके चित्र मैंने कला परिषद की दीर्घा में वर्ष अठहत्तर में देखे थे. चित्रों का शीर्षक अब 'राजस्थान' 'सतपुड़ा', 'विंध्याचल', 'सौराष्ट्र', 'जमीन', जैसा सार्वभौमिक अर्थ लिए होता है. चित्र राजस्थान के किसी शहर या खास जगह का नहीं है, बल्कि पूरे राजस्थान की समग्रता को लिए है. यह दृश्य राजस्थान का नहीं बल्कि उस चित्र अनुभव का भी है. यह दृश्य वह नहीं, जो चित्रित है बल्कि जो दर्शक के मन में उभर रहा है. प्रसिद्ध चित्रकार रेने माग्रेत ने अपने चित्रों से शीर्षक और चित्र के ऊपरी सम्बन्धों को प्रश्नांकित किया. जिसकी एक लम्बी परम्परा चली आ रही थी. इसमें चित्र यदि ईसा मसीह का है तो उसका शीर्षक भी ईसा मसीह होगा. यानी जो दिख रहा है वही उसका शीर्षक है. यह इतना उथला भी था कि जैसे बने हुए पर शक है और शब्दों से बताया जा रहा है कि यह बना है.

रेने माग्रेत ने चित्र बनाया 'the treachery of images'. इस चित्र में एक पाइप चित्रित किया और उसके नीचे लिखा यह पाइप नहीं है. यह शीर्षक और बिम्ब के संबंधों पर करारा व्यंग था. उसने इस खोखले सम्बन्ध को उजागर किया कि शीर्षक और चित्र के बीच ऐसा कोई सम्बन्ध नहीं है. चित्र शीर्षक से बदल नहीं सकता और जो बना है उसका शीर्षक कुछ और भी हो सकता है. यह सम्बन्ध धोखा है. इस लम्बे सम्बन्ध के टूटने पर, अगले अनेक वर्षों तक बल्कि आज भी अनेक चित्रकार अपने चित्र का शीर्षक 'बिना शीर्षक' यानी अनटाइटल्ड रखते हैं. रज़ा के भी कई चित्रों का शीर्षक यही मिलता है. जबकि रज़ा इस मुद्दे पर अन्य चित्रकारों की अपेक्षा अधिक मुखर हैं. यह कहा जा सकता है कि शीर्षक न देना परम्परा बनने लगी.

हम लौटते हैं 'सौराष्ट्र' शीर्षक पर जो किसी जगह का नाम नहीं है बल्कि एक बड़े भू-भाग का है और दृश्य चित्रण के तौर-तरीकों से बाहर है. अब रज़ा एक जगह बैठकर दृश्य देखते हुए चित्रित नहीं कर रहे हैं. वे स्टूडियो में अपना चित्र बनाते हैं जिसे वे न किसी प्रतिबिम्बन से जोड़ते, न ही अपने अनुभव से, न ही उस जगह की स्मृति से. वे  चित्र को मुक्त कर देते हैं इन सारे सरोकारों से. वे उसे शुद्ध चित्र बनाने के क्षेत्र में ले आते हैं, जहाँ के नियम कैनवस और कलाकार के सम्बन्ध से संचालित हो रहे हैं. जहाँ कोई नियम नहीं है और न ही कोई व्याकरण. रज़ा का कहना है 

"मैं जब काम करता हूँ, मैं वही करता हूँ जो जरूरी है, जो आधारित है और सीधी उपलब्धि है, किन्तु जो सब ज्ञान से परे है.  इसमें सिर्फ अंतर्मन, भारतीय विचारों के अनुसार सिर्फ अंतर्मन (छठी इन्द्रिय) चित्रकार की मदद करती है चित्रकारी में. शुद्ध ज्ञान और प्रकृति की मौजूदगी पर जिसके द्वारा बहुत थोड़ी चीज़ों की मदद से हम स्वत्व को पा लेते हैं." 

यहाँ रज़ा छठी इन्द्रिय की बात कर रहे हैं जो स्वप्रेरणा है या जिसके बारे में अनभिज्ञता ही जाहिर की जा सकती है. यह प्रज्ञा जिससे चित्र बन रहे हैं. रज़ा ख़ुद कहते हैं, 'चित्र बनाये नहीं जाते, बन जाते हैं.' यह चित्र का बन जाना रज़ा के अथक परिश्रम, गहरे समर्पण और आत्मत्याग से है. वे प्रेरणा लेते अनेक स्रोत से और जिक्र करते हैं कविता का. वे कहते हैं-

"मेरा मानना है कि मुझे सबसे अधिक प्रेरणा कविता से प्राप्त हुई है. भारतीय कविता के अन्तर-गत हिन्दी तथा उर्दू कविता में तथा फ्रेंच कविता में ऐसी अद्भुत बातें कही गई हैं, जो हृदय की गहराइयों से दृढ़ विश्वास के साथ जन्म लेती हैं तथा जिन्हें केवल शब्दों के माध्यम से ही व्यक्त किया जा सकता है.  चित्रकार के लिए वे बातें कहना बहुत कठिन है, क्योंकि उसका माध्यम रंग हैं, शब्द नहीं. मैं अज्ञेय, गजानन माधव मुक्तिबोध और मीर को पढ़कर अभिभूत हो जाता हूँ." 

यह अभिभूत होना शब्दों से और दर्शक को अभिभूत करना रंग-संयोजन से, रज़ा का नित्य कर्म हो गया था. वे अपने विस्तार में जा रहे थे. प्रसिद्ध आलोचक, मित्र और प्रशंसक रुडी वान लेडन ने लम्बे समय तक रज़ा के काम को देखा है और वे उनके कला-जीवन में आए प्रत्येक परिवर्तन को संज्ञान में लेते रहे हैं. उन्होंने लिखा है--

"पेरिस में प्रारम्भिक वर्ष कठिन लेकिन अत्यधिक उत्तेजना से परिपूर्ण थे. रज़ा ने कठोर परिश्रम किया. अर्थाभावग्रस्त थे और अक्सर बहुत अकेले.  लेकिन उन्होंने स्वयं को नए जीवन के प्रति पूरी तरह से उत्सर्ग कर दिया और उन नए प्रभावों के प्रति भी, जो कि उनके ऊपर उत्तरोत्तर ऊँचे स्वर में प्रबल आरोह की तरह, हर बार शक्ति के साथ लगातार टूटे. जीवन में पहली बार वे एक ऐसी दुनिया के संपर्क में आए, जहाँ कला को पूरी तौर पर गम्भीरता से लिया जाता था और निश्चित रूप से जीवन का एक हिस्सा था. जो उन्हें चारों ओर से घेरे हुए था. पहली बार उन्होंने यह अनुभव किया कि यूरोप में कलाकार के लिए अध्ययन करने, सीखने, देखने और ख़ुद को सँवारने के हज़ारों सुविधाजनक अवसर उनकी पहुँच के दायरे में हैं. रोज़ ही अखबारों में सूचना-पृष्ठ के कॉलम स्कूलों, म्यूजियमों, गैलरियों और प्रदर्शनियों की घोषणाओं से भरे होते थे.  ऐसे किसी व्यक्ति के लिए, जो १९५० के भारत की कलाकार-एकान्तिकता की जगह से आया हो, यह प्रभाव अत्यन्त प्रबल और आन्तरिक हलचल पैदा कर देने वाला था. रज़ा ने यात्राए कीं और इटली, फ़्रांस का दक्षिणी भाग, स्पेन आदि जगहें देखीं. भूमि खण्डों, लोग और दूसरे चित्रकारों के सानिध्य में उतना ही आनन्दातिरेक में उन्हें ले गया, जितना कि पहली बार अनेक कालखण्डों और देशों की कला-कृतियों से रूबरू होने में हुआ. इन चित्रों का एक दूसरा अनोखा पहलू यह है कि वे भारतीय परम्परा, खासतौर पर राजस्थान, मेवाड़ और दक्षिण के स्कूलों के साथ स्पष्ट रूप से सम्बन्धित हैं. वे स्थापत्यपरक हृदयबंधों की स्मृति जगाते हैं और उत्तर-मुख्य युगीन मिनिएचर चित्रकला की पृष्ठभूमि के कला-सन्दर्भ भी, मात्र इस एक अन्तर के साथ कि मिनिएचर कलाकृति दृष्टांत निदर्शन करती हैं और रज़ा के चित्र बिम्बों का सृजन करते हैं. वे कोई कहानी नहीं कहते, वे स्वयं अस्तित्वमान हैं." 

रज़ा के चित्र आत्म-आलोक के चित्र हैं. वे सन्दर्भ से बाहर हैं. रज़ा का अनुशासन और चिन्तनशील मन रज़ा को उस पेरिस के भीड़-भरे एकान्त में अपने पास ले आया.

उनके मित्र और कला समीक्षक पॉल गोथिये ने बदलाव देखा और वे लिखते हैं—

"इस तरह रज़ा एक वैश्विक कृतिकार के रूप में पले-बढ़े हैं. जिनकी जड़े तो उनकी अपनी जमीन में गहराई तक जाती ही हैं लेकिन जिसके शृंगिक ब्राह्मांडकीय हैं. वे इक्कीसवीं शताब्दी के रूपनिष्ठ कलाकर्मियों की उनकी उस क्षमता का आव्हान कर रहे हैं जो कलात्मक सहजीविता और परनिषेचन के हर ढब को रच सकती है. इतना तो इस कलाकर्मी की क्रमिक परिपक्वता से ही उजागर है, उस कीमिया से जो कि उनकी बचपन की यादों से, जंगलों और इन्सानों की यादों से, जिनकी पुनर्व्याख्या की गयी है, यूरोप तथा संयुक्त राज्य अमेरिका की आधुनिक कला से सामना कर तैयार हुई हैं. इन सबसे पूर्णतः मौलिक रुपनिष्ठ सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ है.  इन बरसों के दौरान जो चीज़ एक शक्ल बन कर सामने आयी है वह उस तरह की पवित्र 'बिंबरचना' नहीं है जैसी उन (रज़ा) के अमूर्त्त शक्त्यारेखों या ध्यान के चाक्षुक छद्दमधारों में उपलब्ध है. बल्कि एक पूर्णतः रुपनिष्ठ कर्म है. 'बिंदु' वह वृहत कालबिन्दू है, जिसे शून्यता, बून्द, बीज या जीवाणु जैसा कुछ समझा जा सकता है. दरअसल रचना की उत्पत्ति ही है, ज्योति से बाहर की ओर फूटती हुई, प्रारूपों, रंगों, धड़कनों, ऊर्जा, शब्द, वयों और समय में गतिमान होती हुई. लेकिन बिंदू रज़ा के उस अनुभव का अंग नहीं है जिसे उन्होने जिया है, न ही वह तिब्बती बौद्ध धर्म के या उसके प्रतीकात्मक चिन्हों, उसके यंत्रों और मण्डलों को किसी खास जानकारी से उनके पास आया है. यहाँ यह साफ़ कर देना जरूरी है कि रज़ा का काम, जिसमें हिंदू चेतना गहराई से रची बसी है, नवतान्त्रिक कला के उस सतही छिछोरेपन से कोसो दूर है, जो पूरब और पश्चिम के कला जगतों में एक चालू फैशन के तहत जोरो से उछाला जा रहा है.  रज़ा की कला एक कलाकार और उसकी कला के ताउम्र सम्वाद की सहज परिणीत है, जिसमें कई बार प्रश्नकर्ता और उत्तर देने वाले के रोल बदलते रहे हैं. ऐसे कि पहले चितेरा प्रकृति से जूझ रहा था, होते होते अब प्रकृति की ऊर्जाएं चितेरे से जूझती मालूम देती हैं.  इन दोनों मुठभेड़ों में मिलनस्थल एक कलाकृति बनता जाता है.  रज़ा की कला के इस नए और वयस्क दौर में कला एक बेपनाह ऊर्जा से तरंगायमान उपस्थिति के रूप में उभरती है, जो कायाकल्प का चरम उदाहरण है. आकारों के परे भी और सतत परिवर्तनशील भी, जैसे प्रकृति के वे मायावी रूप, जो हमारे मानसपटल पर निरन्तर उतरते हैं."

रूडी ने कोशिश की कि एक बेहतर पाठ प्रस्तुत किया जा सके. रज़ा और प्रकृति के सम्बन्ध और उससे प्रेरित इन नए चित्रों में रज़ा अब प्रकृति से दूर जा रहे हैं किन्तु प्रकृति का एक अंश उनकी स्मृति में धँसा हुआ है, जिसका चेहरा यदा-कदा दीख जाता है.

इसी दुविधा के क्षणों को जाक लसानिया इस तरह देखते हैं--

"मुझे लगता है कि अपने अतीत की प्रेत-बाधाओं से मुक्ति पा लेने के साथ ही अब रज़ा अपने चित्रों में उग्र और दुर्दान्त वास्तु सामग्री के उपयोग की बाध्यता से भी मुक्ति पा चुके हैं. अब उनके चित्रों में एक प्रसन्न प्रवाह है, एक निठारी हुई शांति और लाघव है. अब उनकी तूलिका का खण्डित स्पर्श भी उस तरह अलग-अलग न रहकर धीरे-धीरे चित्र फलक के समूचे प्रसार में अग्रसर होता चलता है.  जब वे उसे अप्रत्याशित धरातलों के सहारे नियन्त्रित और अनुशासित करते हैं.  पहले जहाँ उनकी रंग योजना गेरुई या स्लेटी रंगों की सीमा में कैद रहती थी, वहाँ अब बीच-बीच में हरे और नारंगी रंगों के सुकुमार स्पर्श झाँकने लगे हैं. उनके तालमेल अब पहले से अधिक मूल्यवान हो गए हैं. अमूर्त्त से प्रतीत होने वाले मिश्रणों (मेल) की जगह परस्पर टकराते हुए स्वीकार मूल्यों का समावेश होने लगता है. और इस प्रकार रज़ा का काम अब एक सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण केन्द्र की ओर बढ़ रहा है- भले ही अक्सर कुछ विचित्र से लगने वाले मूर्तनों के बीच. क्योंकि इस बात में कोई सन्देह नहीं कि रूपाकारों में एक ठोसपन, एक सुनिश्चितता है. एक लगभग खनिज पहलू है इन रूपाकारों का, जो कुल मिलाकर एक ऐसी उपस्थिति को मूर्त्त करता है, जो कल्पना शक्ति के अतर्क्य और अकूत अम्बार के सामने तन कर खड़ी हो सकती है. विजेता की मुद्रा में."

आकारों में ठोसपन की बात यहाँ जाक ने लक्ष्य की, जो रज़ा के चित्रों में बड़ा बदलाव था. यह सुनिश्चित आकार ज्यामितिक हैं और उसका लयबद्ध विभाजन कल्पना के अनुसार किया गया, जो रज़ा के चित्रों का आधार बन गया था.  यह आधार अब अन्त तक रज़ा के साथ दिखाई देगा. रज़ा इससे मुक्त होने की राह नहीं खोज रहे थे. वे इस ज्यामिति के जाल-जंजाल में अभिमन्यु की तरह घुसते चले जा रहे थे. जिससे बाहर निकलने की कोई चिन्ता नहीं है. वे सब जीवन के निरन्तर युद्ध में शामिल हो चुके थे. उन्होंने यात्राए की, स्पेन, इटली, स्विटज़रलैंड, इंग्लैंड, बेल्जियम, नीदरलैण्ड के संग्रहालय छान लिए. 'पाउलो-उसेलो का युद्ध' चित्र का बारीक अध्ययन किया, रावेन्ना की पच्चीकारी पर विचार किया, सीमाबू ड्रासे ओ और बर्लियेरी के काम के प्रति मोहित हुए. पीयेता ने उन्हें उत्साह से भर दिया. कैटेलाल आदिवासियों के काम देख मुग्ध हुए, मध्ययुगीन कलाकारों के काम, रेनेसाँ के नपे-तुले चित्र देखे, बीसवीं शताब्दी के कलाकार पिकासो, गोंगा, क्ले, सेजां, शागाल, डाली सबके काम से सीधा सम्वाद किया और उन्हें समझा-जाना कि यह राह मेरी नहीं है. रज़ा का मन मण्डला के जंगलों के घने अन्धकार में उलझा था.  उसका रहस्य गहराता जा रहा था.

पॉल गोथिये ने इसे लक्ष्य किया वे लिखते हैं--

"यह कहा गया है कि गहन रात्रि के जाने का मतलब ही है, कला में आमूल परिवर्तन. कैंडिंस्की जैसे चितेरे को उन अँधेरी जड़ो के प्रति रुझान उसे सीधे प्राच्य सभ्यता से जोड़ता था और उनकी परिभाषाओं में यह बात सीधे प्रतिबिम्बित होती है. अपने हो पाने के लिए कला के लिए यह जरुरी हो जाता है कि वह सारभौमिक नियमों से जुड़ जाएं. यह सार्वभौमिक नियम सीधे प्रकृति से आते हैं, मात्र उसके चाक्षुक या भौतिक विवरणों से नहीं, वरन प्रकृति की सबसे गहरी संवेदनाओं से. यहीं से अन्तः-प्रेरणा का उद्भव होता है. अंतःप्रेरणा के उद्यबोधन के बिना कला कभी जन्म नहीं ले सकती. रज़ा के सारे चित्रों के पीछे यही असामान्य झोंक काम कर रही है और इसी से इन चित्रों में प्राच्य सभ्यता की वह सारी रहस्यमय ऊर्जा उभर आयी है जिसे सिर्फ कोई वहीँ का बाशिन्दा ही उकेर सकता है." 

यह जो आदिम अनुभूति का उल्लेख किया है गोथिये ने, उसे समझने की जरूरत है. यह इतना आसान भी नहीं है कि हम रज़ा के चित्रों में आदिम मनुष्य की उपस्थिति को महसूस कर सके. रज़ा एक ऐसे आधुनिक कलाकार हैं जिसकी अनुभूति आदिम हैं और उसे अभिव्यक्त करने के औजार आधुनिक हैं. वे संकोच नहीं करते कि उस ज्यामिति का इस्तेमाल किया जाएं, जिसके बारे में भीमबैठका में रहने वाला आदिम मनुष्य कुछ नहीं जानता था. जिसका उपयोग छठी शताब्दी से होना शुरू हुआ था. रज़ा के चित्र का अनुभव उस बालक के आश्चर्यलोक का है जो जंगल में भटक गया. उसका रोमांच जंगल का रोमांच है. उसका रहस्य जंगल का रहस्य है. वह खुला हुआ रहस्य है. जो दिख भी रहा और छुपा भी है. उसमें ढूँढने के लिए गुंजाइश भी है और सामने प्रकट भी है. अँधेरे का रंग, काला रंग अपने रहस्य को खोलता नहीं, किन्तु वह छिपा भी नहीं होता. काले रंग से रज़ा का प्रेम उनके अवचेतन से संचालित हो रहा है.

पॉल इस पर ध्यान देते हैं. वे लिखते हैं--

"सृष्टि के उस मूल चक्र के अमरत्व की पुनर्प्राप्ति, उसके उच्चरित रूप की लयगति, और उसके अनुशासन और सहज अन्तर-बंध इन कलाकृतियों के आवर्ती रूप की बुनियाद है.  यह चक्राकार गति संसार की गति का ही बिम्ब है, जिसमें (रात के) कृष्ण आकारों का व्याघात है. पर यही काला रंग 'ग्रीष्म' में अपने कुहरिल रूप समेत जीवन  दहलीज़ बन गया है. काला रंग अपनी रहस्यमयता से खींचता है, और कलाकार का ध्येय ही है रहस्य की जड़ों तक जाने और उनका अर्थ पाने का निरन्तर प्रयास. इस तरह काला रंग इन कैनवासों की गति का अन्तिम बिंदु नहीं वरन उस पूरे चक्र का रहस्यमय उद्गम स्रोत बन जाता है. रंगों के आदिम स्रोत तक पहुंचते हुए, तूलिका के हर आघात को उसकी आदिम मुद्रा प्रदान करते हुए रज़ा के कैनवास कला की गहनतम सच्चाइयाँ उजागर करते हैं. उर्जा-धाराओं के प्रवाह क्षेत्र, रंग स्वरधाराओं की अप वृद्धि के अंश, यही रूपाकार हमारे समय की सच्ची कला है. इसका साक्ष्य है इन कलाकृतियों के अनुपूरक रंगों का द्वैत, अथवा मूल रंगों का अतिरेक, उमगते लाल रंगों से लेकर अम्लीय हरित से घिरे-घिरे केसरिया रंग के उद्दीप्त सुनहलेपन तक रंगों के तनाव यहाँ मानो स्पेस में उड़ते हैं. काला रंग को उद्दीप्त करते हुए, अनुभव की चरम सीमा दर्शाते हुए यह रंग एक नया संवेदना-संसार हमारे लिए रचते हैं."

रज़ा के चित्रों पर तान्त्रिक प्रभाव को अक्सर लक्ष्य किया जाने लगा और वे इस विषय पर खुद कहते हैं :

"मेरा वृत्त या वर्ग को मूल अभिप्रायों की तरह प्रयोग करना मेरे चित्रों को तान्त्रिक नहीं बना देता, भले ही मैंने उन्हें 'बिंदु', 'सूर्य' अथवा जमीन शीर्षक दिए हों. मुझे पता है, तंत्र एक सूक्ष्म और जटिल दर्शन है. उसके विश्वासों या अनुष्ठानों के बारे में मेरा ज्ञान बहुत सीमित है.  मेरी चित्रकला का बुनियादी सरोकार रूपाकार की प्राणवत्ता है और मेरे सारे कलात्मक प्रयत्न एक सुसंगत चित्रात्मक तर्क की दिशा में ही नियोजित रहे हैं.

राजपूत और जैन चित्र कृतियाँ मुझे मुगल या पर्शियन मिनिएचर की तुलना में कहीं अधिक प्राणवन्त लगी हैं."

प्रसिद्ध कवि अशोक वाजपेयी रज़ा के साथ हुई एक लम्बी मुलाक़ात का जिक्र करते हुए उनके बारे में लिखते हैं :

"अपने अन्तिम चरण में रज़ा का शास्त्र सादगी, उत्कटता और राग का शास्त्र है. वे मानों हमेशा रंग में होने का उत्सव मना रहे हैं. आत्मविश्वास और क्षमता में बद्धमूल अचूक विनम्रता है. चाक्षुक सौंदर्य दृष्टि और रज़ा चित्र बनाने के लिए जीवित हैं और जीवित रहने के लिए चित्र बना रहे हैं.  भौतिक काया का जीवन और कैनवास का जीवन सुन्दर ढँग से एकतान है. आधुनिकतावादी प्रोजेक्ट का अंग रहने के बाद रज़ा एक स्वविकसित प्रोजेक्ट की ओर बढ़ रहे हैं जो निरन्तरता और अनन्त का है. जहाँ तक उनका सम्बन्ध है, इतिहास को अपने लिए स्थगित करते हुए. अब उन्हें अपने एक चित्रकार के रूप में पहचान की चिन्ता नहीं रही. वे पेरिस में हैं और फिर भी भारत में." 

रज़ा के चित्रों में भारतीयता नहीं है इसका अर्थ यह है कि चित्र की दुनिया में ऐसा कुछ नहीं है जो भारतीय या फ़्रांसिसी या अमरीकी कहलाया जा सके. दुनिया की कोई लाइन नहीं है जिसे हम स्थान के साथ जोड़ सकते हैं या कोई रूपाकार या कोई भी रंग. सभी रंग समस्त कलाकारों के लिए उपलब्ध हैं और उसमें कोई रंग भारतीय नहीं है या कि ब्रिटिश या चीनी. इस तरह से रज़ा या रॉथको के चित्रों को नहीं देखा जाता है. कौन कहेगा कि वैन गॉग के चित्र डच हैं या उसके रंग भारतीय हैं ? इस तरह की बातें बेकार का आरोपण है जिन्हें हम अज्ञानता समझ कर उपेक्षा कर सकते हैं.  


वर्ष उन्नीस सौ तिरेसठ में रज़ा को बर्कले विश्वविद्यालय आमंत्रित करता है तीन वर्ष के अध्यापन कार्य के लिए और रज़ा का वहाँ जाना दरअसल उनके चित्रकारी जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था. उनके पहुँचने के तीन साल पहले लिक्विटेक्स नामक कम्पनी ने ऐक्रेलिक रंगों को ईज़ाद किया था. ये रंग नए नए बाज़ार उतारे गए थे. रज़ा जब वहाँ पहुँचे, उन्होंने भी इस नयी खोज का गुणगान सुना. इन रंगों की खासियत यह थी कि वे जल्दी सूखते थे. दूसरी ख़ासियत यह थी कि उन्हें जलरंग और तैलरंग दोनों तरह से प्रयोग में लिया जा सकता है. 

रज़ा अब तक तैलचित्र ही बनाते थे और उसके सूखने का समय किसी भी कलाकार की धैर्य की परीक्षा का पैमाना आज भी है. रज़ा के चित्रण का मूल दृश्य-चित्रण है और अभी तक यह काम स्टूडियो से बाहर किया जाता रहा है. रज़ा के बाद के दृश्य-चित्र ऐसा लगता है स्टूडियो के चित्र हैं. Summer, Village इसके उदाहरण हैं. ये चित्र आम दृश्य-चित्रण से अलग हैं. यदि इन रंगों को तेजी से सूखने के कारण इस्तेमाल किया जाये, तब किसी भी कलाकार के लिए काम करने का समय अतिरिक्त बढ़ जाता है. इन ऐक्रेलिक रंगों को पहले रज़ा ने संकोच के साथ ही बरता फिर कैनवास पर लगा कर देखा और उसके सूखने के समय पर अविश्वास करते हुए उसे तैलरंग की तरह इस्तेमाल कर उन्होंने देखा. 

ऐक्रेलिक रंग आश्चर्यजनक ढँग से इन प्रयोगों पर खरे उतरे. यह रज़ा के लिए वरदान था. उनके काम करने में एक बड़ा बदलाव आया और वे अपने विचारों को परिष्कृत रूप से व्यक्त करने के लिए बर्कले विश्वविद्यालय के उस एकान्त में ख़ुद को प्रशिक्षित करने में लग गए. रज़ा की लगन और जिद ने जल्दी ही इन रंगो और इस नए माध्यम के साथ अटूट सम्बन्ध बना लिया. जिसका परिणाम सत्तर के दशक के चित्रों में साफ़ दिखाई देता है. अब रज़ा के रंग उजले, आकर्षक, चमकदार और उमगते दिखने लगे. यह बड़ा परिवर्तन था. रज़ा आखिर तक इन रंगों में ही काम करते रहे. फिर भूले से भी तैलरंगों को हाथ नहीं लगाया. इसके बाद का एक भी चित्र तैलरंग का नहीं है. इसके पहले के चित्रों में यह बात नहीं थी. उनमें रंग का गाढ़ापन साफ़ साफ़ दिखता है. सूखने में समय लेने के कारण एक तरह का अनजाना धूमिल प्रभाव दिखता है. रज़ा के समकालीनों में यह प्रतिभा न थी कि वे नए माध्यम से इस तरह दोस्ताना हो जाये कि वह उनकी दुनिया का एक अनिवार्य अंग हो सके. 

रज़ा के समकालीन रामकुमार, गायतोण्डे, अकबर पदमसी, तैयब मेहता आदि अनेक सह-कलाकार जीवनभर तैलरंग का ही इस्तेमाल करते रहे. रज़ा ने जिस तेजी से इस माध्यम को अपनाया और इस पर अधिकार जमाया, यह देखकर लगता है कि उनमें कला-कौशल किस क़दर भरा हुआ है. एक नए माध्यम को समझने और उसकी विशेषताओं से परिचय प्राप्त करने में कुछ तो समय लगता है. बिना माध्यम को जाने उसके ग़ुलाम बनकर अनेक चित्रकार काम करते हुए आज भी मिल जाते हैं. एक चित्रकार माध्यम का गुलाम नहीं हो सकता वह उसके साथ दोस्ती करता है उसके सुख-दुःख समझता है और एक जीवन्त सम्बन्ध बनाता है तभी माध्यम अपना अन्दरूनी रहस्य खोल साथ चलने के लिए तैयार होता है. रज़ा के लिए बर्कले आना और यहाँ के एकान्‍त में इस नए माध्यम को अपनाना, नयी दिशा की शुरुआत थी. यह उनके लिए ही नहीं दर्शक के लिए भी सौग़ात थी. इन नए रंगों के कारण रज़ा की रंग-समझ के नए रूप देखने को मिले. वे अब ज्यादा तेजी से काम करने लगे. उन्हें इस नए माध्यम से काम करने में मजा आने लगा.

रज़ा के इस नए माध्यम-परिवर्तन को आज तक किसी ने लक्ष्य नहीं किया जिस कारण रज़ा के चित्र संसार में उजाला फैला. रंगों में चमक आयी, रंग-संसार बदला, चित्र की साफ़गोई आकर्षक हुई, कई नए रंग पैलेट पर दिखने लगे और इन रंगों ने रज़ा को और रज़ा ने रंगों को सोख लिया. ये नए रंग चूकि किसी प्राकृतिक-वर्णक, मिनरल, या किसी अर्क से नहीं बन रहे थे, अतः इनकी विभिन्नता का अन्त न था. अनेक नए-नए रंग लगातार बन रहे थे और रज़ा की रंग-पैलेट समृद्ध हो रही थी. रंगों की इतनी विविधता प्राकृतिक रंग में न सम्भव थी न उपलब्ध. पश्चिम में अनेक कलाकार इन रंगों में काम कर रहे थे, किन्तु भारत में कोई न था. हुसैन दूसरे कलाकार हैं जिन्होंने इन रंगों से सम्बन्ध बनाया और लम्बे समय तक इसी में काम किया. मगर वे तैलरंग की तरफ़ वापस लौटे. रज़ा ने तैलरंग दोबारा इस्तेमाल नहीं किया.

उन्होंने मुझे पहली बार जब इन रंगों का डब्बा दिया था तब मेरा ध्यान इस गुण पर नहीं गया. बल्कि उन रंगों का इस्तेमाल युवा-उत्साह में बिना विचारे किया और दोस्तों को भी हाथ साफ करने का मौका मिला. इस तरह बिना समझें वो रंग जल्दी ही खर्च हो गए और मैं अपनी पुरानी रंग-व्यवस्था की ओर लौट आया. रज़ा से मुलाक़ात उसके बाद चार साल बाद होनी थी, यह मुझे पता न था. और इस बीच मैंने दूसरा ख़त लिखा जिसमें ज्यादातर वर्णन अपनी गतिविधियों का था जिसका भी कोई जवाब नहीं आया. रज़ा व्यस्त होंगे यह सोचा या ख़त पहुँचा या नहीं, इस पर सन्देह बना रहा. और पत्र का जवाब नहीं आया.

रज़ा का भारत लौटना अब हर बरस होने लगा और उनकी कई प्रदर्शनियाँ भी दिल्ली, बम्बई में होने लगी. उनकी उपस्थिति समकालीन कला जगत में अब अनिवार्य हो चुकी थी. वर्ष उन्नीस सौ बयासी भारतीय चित्रकला संसार के लिए ही नहीं, सभी कलाओं के लिए संक्षिप्त स्वर्णिम युग की शुरुआत का वर्ष था. मध्य-प्रदेश शासन के एक निर्णय से आज़ादी के बाद देश का पहला संग्रहालय खुल रहा था. भारत भवन, कलाओं का घर जिसमें ललित कलाओं के लिए रूपंकर, रंगमंच के लिए रंगमण्डल, साहित्य के लिए वागर्थ, संगीत के लिए अनहद और फिल्म के लिए छवि प्रभाग खोले गए. रूपंकर के निदेशक के रूप में प्रख्यात चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन ने समकालीनता की परिभाषा में वृद्धि करते हुए लोक-आदिवासी कलाओं को भी शामिल किया और यह दुनिया का पहला संग्रहालय था जिसमें एक ही छत के नीचे एक ही दीर्घा में शहरी, लोक और आदिवासी कला प्रदर्शित थी. 

इसी संग्रहालय में तकनीकी सहायक के पद पर मेरी नियुक्ति हुई. मुझे नहीं मालूम था कि यहाँ होना रज़ा के नज़दीक आने का सबब बनेगा. रज़ा, जो अब हर वर्ष भारत आने लगे थे, उनके लिए भारत भवन आना तीर्थ जैसा था. वे आते और ज्यादा समय युवा चित्रकारों के साथ बिताते. उनके काम देखते, उनके स्टूडियो-घर जाते और अक्सर चित्र पसन्द आने पर कुछ ख़रीद लेते. यह सब युवा चित्रकारों के लिए उत्साहवर्धक और प्रेरणायुक्त जोश था, ऊर्जा थी जो उन्हें प्रेरित करती मुक्त होकर अपने समय-संसार में विचरण का. रज़ा भी बदले में देश की माटी से सम्पर्क कर अपने रिश्ते को और मजबूत करते और ऊर्जा भरे पेरिस लौटते. अक्सर उनकी प्रदर्शनी के निमंत्रण मिलते जिन्हें वे स्नेह और आग्रह से भेजते कि जरूर आना.



ये वे दिन थे तब रज़ा अपने नए माध्यम, ऐक्रेलिक रंगों से सहज हो चुके थे और एक-के बाद एक चकित करने वाले चित्र देखने को मिलते. हम चमत्कृत होते. रज़ा 'चमत्कार' चित्रित कर रहे थे. उनका चित्र जिसका शीर्षक ही चमत्कार था जिसमें अनेक त्रिकोण थे और किसी भी त्रिकोण में एक रंग को दुबारा लगाया नहीं गया था. यह रज़ा ने जानबूझकर किया या अनायास ही हुआ यह नहीं पता. किन्तु अब रज़ा के रंग मुखर और आकर्षक हो गए थे. उनके रंगों में गहरी समझ और चौकन्नापन दिखाई देता था. वे सहज ही इसको हासिल कर लेते थे. सत्तर के दशक के चित्रों से इधर बहुत फ़र्क़ आ गया था. रज़ा अब बाहरी संसार के उलट भीतरी संसार की यात्रा कर रहे थे. वे अपने भीतर चले गए और इस अन्तर्मुखी तलाश में रंग उनके साथी, सहयोगी, सहयात्री, सहचालक, बने. 

ये रंग रज़ा की प्रेरणा भी रहे और उन्हें उकसाते भी रहे. इन भीतरी यात्राओं में वही परिचित जगहें भी मिली, जो मण्डला, राजस्थान, सौराष्ट्र, विन्ध्याचल, सतपुड़ा थीं. वे अब पूरी तरह एक घटना में बदल गए. ये अब जगह नहीं बची थीं, ये चित्र में बदल रहे हैं. रज़ा का मातृभूमि प्रेम भी दिखता है और इन चित्रों का स्वाद अब रोचक, रोमांचकारी हो गया. रज़ा के रंग-प्रभाव से कोई अछूता न था. प्रख्यात कवि विनोद कुमार शुक्ल ने अपने एक साक्षात्कार में कहा 'मैं भाषा में नहीं दृश्य में सोचता हूँ.’

यह किसी कवि द्वारा कहा जाना, जिसका माध्यम ही भाषा है, नामुमकिन लगता है. विनोदकुमार शुक्ल हिन्दी साहित्य में एक ऐसी शान्त-संकोची उपस्थिति हैं कि वे सभा में हों तब भी उनका होना दर्ज नहीं होता. विनोद जी लिखते हैं : 

कई बरस हो गए रज़ा के बनाये चित्र को मैंने देखा था
यद्धपि चित्र मेरे पास नहीं है पर उसका देखना मेरे पास है
मैंने उस देखने को अपनी बसावट के असीम में टाँग दिया है
कि दृष्टि में रहे
रेखा के फ्रेम के अन्दर
लाल संध्या के रंग के समय के बाद की रात का अन्धेरा
गोल बुझे सूर्य के काले वृत्त का काला एक बिंदु है.
प्रत्येक रात मेरे लिए खग्रास सूर्य ग्रहण का अनुभव
और प्रत्येक दिन धीरे-धीरे ग्रहण छूटने का
कि सुबह हो रही है जिसमें रंग भरा एक सूर्य वृत्त निकलता है
रज़ा का बनाया वृत्त
इस तरह अपनी दिनचर्या में रात और दिन को टाँग देता हूँ
और अपने को बुलाने चित्र के सामने खड़ा होकर आवाज़ देता हूँ. 

विनोदकुमार शुक्ल की इस कविता का तेवर अशोक जी की कविता से भिन्न है. अशोक जी ने अनेक कवितायेँ लिखी रज़ा पर और एक लम्बी कविता जिसके सात भाग हैं उसमें से छठा भाग यहाँ उल्लिखित करना चाहता हूँ जिसमें  रज़ा, रंग, ज्यामिति का 'चित्र' से सम्बन्ध बहुत ही खूबसूरत ढंग से उभर कर आया है : 

रंगों को कहाँ पता था कि उनमें प्रार्थना बसी है ?
ज्यामिति को आभास तक न था कि उसमें प्रार्थना का विन्यास है ?
चित्र कहाँ जानता था कि वह प्रार्थना-पुस्तक का एक पृष्ठ है ?
तुम अपने घुटनों के बल न भी बैठे हो,
तुम्हारा माथा विनय में न भी झुका हो,
तुम्हारी उँगलियाँ सब कुछ को भूलकर
सिर्फ रंगों से ही क्यों न उलझीं हो,
तुम हर समय प्रार्थना में हो
क्योंकि यह सारा संसार तुम्हारे लिए
एक असमाप्य प्रार्थना है.

अशोक वाजपेयी और रज़ा की दोस्ती के लम्बे अनुभव से उपजी यह कविता रज़ा के काम करने और उनके चित्र के साथ सम्बन्ध पर ध्यान दिलाती है. रज़ा की अन्दरूनी यात्राओं में बाहर के संसार का कुछ नहीं रह गया था जो उनके चित्र जगत में शामिल होने की हैसियत रखता था. अब रज़ा और डूबे नज़र आते हैं अपनी प्रार्थनाओं में और चित्र देख कर लगता है कि उनकी प्रार्थना सुनी जा रही हैं. रज़ा की प्रार्थना सुनी जा सकें, इसके पीछे उनकी लगन और जिद काम कर रही थी जो बिलकुल शुरुआती संघर्ष के दिनों से ही दिखाई देती है.

प्रसिद्ध चित्रकार और रज़ा के मित्र रामकुमार ने कुछ माह उनके साथ बम्बई में बिताये थे. वे लिखते हैं :

"इन्हीं दिनों बम्बई में लगभग एक मास के लिए रहने का अवसर मुझे मिला.  दिन में कई बार भेंट होती थी, कभी उनके राजाराम स्टूडियो में, कभी किसी ईरानी चाय-घर में.  कभी-कभी देर हो जाने पर रात को भी फर्श पर दरी बिछाकर उनके स्टूडियो में उनके कुछ मित्रों के साथ हम सो जाते थे. अपनी कला के अतिरिक्त रज़ा को उन दिनों दूसरी कोई बात नहीं सूझती थी.  चौबीस घण्टे एक वही नशा उन पर छाया रहता था. इतनी निष्ठा, इतनी एकाग्रता और इतनी धुन मैंने कभी किसी दूसरे भारतीय चित्रकार में नहीं देखी. ईमारत की नींव को मजबूत बनाने की वे पूरी चेष्टा कर रहे थे, बाद में कहीं कोई कमजोरी दिखाई न दे. इन सफलताओं (रज़ा को छबीस वर्ष की उम्र में बम्बई आर्ट सोसायटी की वार्षिक प्रदर्शनी में गोल्ड मेडल पुरस्कार मिला और पेरिस जाने की छात्र वृत्ति भी मिल चुकी थी) के बावजूद भी आर्थिक परेशानियों ने देर तक उनका साथ नहीं छोड़ा.  पेरिस जाने से पूर्व जहाज पकड़ने के लिए जब मैं बम्बई तीन चार दिन के लिए रुका तो वे कल्याण में रहते थे और सप्ताह में दो बार बम्बई आते थे. उन दिनों अपनी बीमार पत्नी (पहली पत्नी जो बाद में पाकिस्तान चली गयी) की दवा  खरीदने के पैसे कभी-कभी उनकी जेब में नहीं होते थे. मैंने उनका एक चित्र अपनी बहन की ओर से सौ रुपये में खरीद कर उन्हें भेज दिया. अपनी माँ की मृत्यु होने के बाद उनकी कब्र पर उनके नाम का पत्थर लगवाने की इच्छा को वे कई वर्ष बाद ही पूरा कर सके. पेरिस में भी छात्र वृत्ति समाप्त हो जाने के बाद उन्होंने पेरिस में ही स्थायी रूप से रहने का निश्चय किया तो आरम्भ के कुछ वर्षों तक भयानक अभावों के बीच उन्हें दिन काटने पड़े. कभी-कभी तो उन्हें केवल डबलरोटी और आलू खाकर ही गुजारा करना पड़ता था.पेरिस के कला जगत में कलाकार के रूप में अपना अस्तित्व बनाए रखना, नाम और प्रतिष्ठा के बावजूद भी आसान बात नहीं थी. जिसके कारण रज़ा बहुत सतर्क रहते थे और कभी-कभी साधारण सी बातों को भी बहुत महत्व देने लगते थे. जिससे उनके विषय में गलत धारणा बन जाती थी.  पेरिस में कला एक महत्वपूर्ण उद्योग था. जिसमें बैंकों और उद्योगपतियों के करोड़ों रुपये फँसे हुए थे. एक गैलरी के मालिक के साथ उनके सम्बन्ध प्रायः तनाव भरे रहते थे. पेरिस में उनके चित्रों की प्रदर्शनी का महत्व उनके लिए बहुत अधिक था, क्योंकि उसकी सफलता पर ही उनके आगे बढ़ने के रास्ते खुलते थे.  चित्र बनाने के अतिरिक्त इन बातों की ओर भी उन्हें बहुत सतर्क रहना पड़ता था. भारत में रहने वाले चित्रकार इन सब पेचीदगियों का सही अन्दाजा नहीं लगा सकते थे. उनके साथ रहने पर कुछ आभास मुझे मिला."

यह सब साधारण नहीं था और रज़ा के जीवन में ये संघर्ष उनके चरित्र को निखारने की कड़ी था. रज़ा उन चित्रकारों में हैं जिन्होंने भारतीय समकालीन चित्रकला जगत का चेहरा-मोहरा स्पष्ट किया. ये वह पीढ़ी है, जिसने आज़ादी का स्वाद चखा. जो भारतीय चित्रकला को  अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले गए और देश में एक सृजनात्मक माहौल तैयार किया, ताकि युवा कलाकारों को प्रेरणा और दिशा मिल सके. अमृता शेरगिल, रवीन्द्रनाथ टैगोर, यामिनी रॉय, सूजा, हुसैन, रामकुमार, अकबर पदमसी, स्वामीनाथन, तैयब मेहता, के.सी.एस. पणिक्कर, संथानराज, पारितोष सेन, के.जी. सुब्रमणियन, आरा, कृष्ण खन्ना, शंखों चौधरी, राघव कनेरिया, पीलू पोचखानवाला आदि कलाकार हैं जिन्होंने वास्तव में आज़ाद भारत के शून्य में कला की चेतना जगाने का उपक्रम किया.


इसमें सबसे अधिक श्रेय मक़बूल फ़िदा हुसैन को जाता है. जिनकी भारतीय चेतना और मानस को समझने और अकूत क्षमता ने कला और जनता के बीच रिश्ते को पक्का करने का पुख़्ता काम किया. हिन्दुस्तान आज़ाद होने के बाद जब युवा कलाकार इस उम्मीद में कि कला को समझने के लिए पेरिस, लंदन, न्यूयॉर्क के कलाकेन्द्रों में जाना चाहिए और ज्यादातर अगले तीन सालों में चले भी गए. हुसैन आंध्र-प्रदेश व देश में होने वाली रामलीलाओं को करने वाली मण्डलियों के पीछे-पीछे चलने और उनके द्वारा किये जा राम-लीला प्रसंग को जान-समझ कर उन पर चित्र बना कर रात के मंच की दीवारों पर लगा देते थे और खुद दर्शकों में बैठ देश के लोक-व्यवहार, मानस और जीवित चेतना से अपना नाता जोड़ रहे थे. 

वे अकेले ऐसे भारतीय चित्रकार थे जिन्होंने अपनी लोक परम्पराओं को समझा और चित्र में उसकी जगह बनाई. उनकी बनाई कलाकार की छवि ने देश भर के कलाकारों को एक कलाकार की आत्मछवि से समृद्ध किया. हुसैन की इसी जीवंत उपस्थिति का लाभ सभी कलाकारों को मिला और रज़ा भी लाभान्वित हुए. वे हुसैन की इस सार्वजनिक उपस्थिति और प्रतिभा का हमेशा सम्मान करते रहे और कृतज्ञ महसूस करते थे. वे अक्सर कहते थे 

"भई हुसैन की तरह नहीं कर सकता, वह मुश्किल से मुश्किल काम भी कर लेता है मुझे सोचने-समझने के लिए बहुत वक़्त लगता है."

रज़ा के लिए यह समय सबसे उज्ज्वल था जिसमें वे भरपूर ज्यामिति का इस्तेमाल कर रहे थे. इस दौरान के चित्र भी रज़ा को वह मुक़ाम देते हैं जिनकी तलाश में भारत भर में वे भटके थे. उनका यह दौर लगभग बीस साल चलता है एक के बाद एक खूबसूरत चित्र, जिसमें ज्यामिति ही प्रमुख है और उसके साथ अनेक रंग-प्रयोग चल रहे थे. 'Forms of Darkness,' 'Green Landscape,' 'Earth,' 'Water,' 'La Terre,' 'The White Flower,' 'Encounter 85 ,' 'Gestation,' 'Firtility,' 'Polarity,' 'Bindu,' 'Ma,' 'Satpura,' 'Bija,' 'Tree of Life,' 'Naga,' 'Genesis,' 'Jal Nidhi,' 'Ankuran,' 'Nidhi,' Germination,' 'Kaliyan,' आदि अनेक चित्र हैं जो इस बात का प्रमाण हैं. इसमें तन्त्र-मन्त्र की जगह भी कम रही और ये शुद्ध चित्रात्मकता के गुणों पर बने चित्र हैं. इनमें रज़ा एक चित्रकार की तरह उन सब तत्त्वों से खेल रहे हैं, जिनसे चित्र 'बन' जाते हैं.  

यहाँ हमें नहीं भूलना चाहिए कि रज़ा ने ही कहा है कि चित्र बनाये नहीं जाते, चित्र बन जाते हैं. इनमें से एक चित्र है उन्नीस सौ त्रियासी का बना हुआ White Flower. यह मुझे बहुत पसन्द है. इस दौरान के बहुत से चित्रों की रंग-योजना रज़ा की प्रकृति की नहीं थी. उन पर रंग-प्रयोग या रंग-चुनौती हावी दिखाई देती है. मुझे लगता है इस दौरान के कई चित्र हैं, जिसमें रज़ा ने अपनी रंग-पैलेट को बदला है. वाइट फ्लावर चित्र से ही सभी चित्र की बात हो सकेगी. हालाँकि encounter 85 भी उतना ही खूबसूरत चित्र है. 

वाइट फ्लॉवर चित्र में चिर-परिचित स्पेस-विभाजन तो है ही, साथ में रज़ा ने चित्र को मुख्यतः क्षैतिजी रेखाओं से बाँटा है और पूरी कलाकृति का आधार-रंग भूरा चुना है, जो यूरोपिय चित्रकला के प्रमुख रंग में माना जाता है. इसका अर्थ यह बिलकुल नहीं है कि ब्राउन कलर यूरोपिय रंग है. किन्तु चित्र प्रमाण से हम जानते हैं कि यही रंग उनकी शिक्षा से शुरू होकर अंत तक कलाकारों के साथ बँधा रहता है. तुलूस लात्रे पहला कलाकार था, जिसने कक्षा में ब्राउन रंग से ड्राइंग करने से इंकार किया था और हमने रेम्ब्रां के जलते भूरे के किस्से भी सुन रखे हैं. ब्राउन कलर यूरोप में लगभग सभी कलाकारों ने इस्तेमाल किया है और उनकी रंग-पैलेट का यह प्रमुख रंग है. पिकासो या मातीस ने भी इन रंगों के विपरीत अपना संसार खड़ा किया था. हालाँकि इनके शुरूआती काम वहीँ से जुड़े दिखते हैं. रज़ा के ब्राउन कहीं से भी उस परम्परा से जुड़ते नज़र नहीं आते. इनमें बहुत तरह के ब्राउन हैं और एक पूरी शृँखला है ब्राउन रंग की. रज़ा का होना वहां नज़र आता है, जब वे इन्हीं भूरे रंग की धुँधली या फीकी उदासी निकाल कर उसे ऊर्जा और चमक से भर देते हैं. मानो ये भूरे रंग अपना अस्तित्व छोड़ नयी सम्भावना में प्रवेश कर रहे हों. 

भले ही हम रेम्ब्रां के भूरे रंग-प्रयोग को जलाते हुए भूरे रंगों से नवाज़े, मगर उनका चित्र देखते हुए पता चलता है कि वो भूरा नहीं है जो जल रहा है वह अपने सहयोगी रंग के बीच जलने का नाट्य कर रहा है. यहाँ मैं इन दोनों कलाकारों की तुलना नहीं करना चाहूँगा और दोनों कलकारों के रंग-प्रयोग में शताब्दियों का अन्तर है, इसलिए भी और माध्यम का अन्तर भी मायने रखता है. किन्तु दर्शक पर प्रभाव डालने में कोई भी चित्र बराबर की सीढ़ी पर खड़ा दिखेगा. साथ ही मैं कलाकृति का अर्थ भी नहीं निकाल रहा हूँ. निर्मल जी की यह बात ध्यान में रखते हुए, जो उन्होंने भारत भवन के सेमीनार 'काल और सृजन' में अपने परचे में कही थी कि :

"कलाकृति से एक अर्थ निकालना -अथवा उसमें अपने विश्वासों के सबूत ढूँढना- दोनों ही बातें झूठी नैतिकता को जन्म देती हैं. कला की नैतिकता इसमें नहीं है कि वह हमारी दुनिया में जज और मौलवी की तरह हैं, जो हमें एक खास व्यवस्था में रहने और जीने की मर्यादा सिखाते हैं. क्या वैध है, क्या अवैध, हमें यह करना चाहिए, यह नहीं. कला सिखाती नहीं सिर्फ जगाती है, क्योंकि उसके पास 'परम-सत्य' की ऐसी कोई कसौटी नहीं, जिसके आधार पर वह ग़लत और सही, नैतिक और अनैतिक के बीच भेद करने का दावा कर सके."  

यह चित्र 'वाइट फ्लॉवर' इन भूरे रंगों के एक कोने में फ्लॉवर सा खड़ा है. रज़ा ने सफ़ेद फूल चित्रित नहीं किया है. मात्र कुछ सफ़ेद रंग रखा है जो आभास है उस पूरे चित्र में खिले फूल का. यह उसी तरह का प्रयत्न है जैसे 'राजस्थान' चित्र में राजस्थान चित्रित नहीं किया है. रंगों का चुनाव और उनके बीच का सम्वाद रज़ा ने कुछ इस तरह पैदा किया कि वे सब खूबसूरत लाल आकर्षण लिए हैं. मानो सभी रंगों को लाल रंग में भिगो कर लगाया गया हो. इस चित्र में रज़ा ने चटख, चमकीला लाल रंग नहीं लगाया है. मात्र दो-चार जगह लाल रंग के गहरे शेड लगे हुए हैं. वे कुछ भूरापन लिए हुए हैं. भूरे रंग के कई प्रकार हैं, टोन हैं, यहाँ तक कि हरा भी भूरा सा दिखता है. यह रज़ा की खासियत ही है कि वे रंग के आर-पार देख पाते हैं. वे भूरे के पार हरा देख सकते हैं, वे लाल के भीतर का भूरा निकाल कर ले आते हैं या काले रंग में मौजूद भूरे को सम्बोधित करते हैं. यह चित्र इतने गहरे और तथाकथित डल रंगों में बना है कि इसमें उदासी का सबब साधारणतया पाया जा सकता है, किन्तु रज़ा का यह वाइट फ्लावर वास्तव में किसी भी मन को प्रफुल्लित कर सकता है. इसका उजलापन ही इसकी खूबसूरती है और इसमें रंगों की ताज़गी साफ़ दिखाई देती है. 

यह भी हम देखते हैं कि ज्यामिति आधारित यह चित्र अपने विषय पर नहीं टिका है उसमें सफ़ेद-फूल नहीं है, उस फूल की आभा है जो दर्शक की पसन्द का फूल हो सकता है. यह आसान इसलिए हो सका कि रज़ा के मन में कोई फूल नहीं था चित्रित करने के लिए. न ही उसकी कोई स्मृति उन्हें परेशान कर रही थी. न वे फूल का आभास चित्रित करना चाह रहे थे. वे बस फूल एक ख़ुशबू की तरह देख रहे थे. जो अदृश्य है अमूर्त्त है. जिसका बखान नहीं है. जो अहसास के बाहर है जिसका इन्द्रियों से कोई लेना देना नहीं है. एक ऐसा फूल, जो सिर्फ इस चित्र का फूल हो, जिसका कोई नाम न हो और जो पहचान के परे रंगों में खिला हो. जिसकी सुगन्ध उसकी उपस्थिति हो. 

यह चित्र किसी सफ़ेद फूल का चित्रण नहीं है और यह चित्र लाजवाब चित्र है. इसी श्रृंखला के दूसरे चित्र भी उल्लेखनीय हैं, जिनकी रंग-भूमि ब्राउन रंग की ही है. रज़ा ने नयी पहचान, नया आलोक, नई चमक इन ब्राउन रंगों को दी है. संसार के किसी भी अन्य चित्रकार के चित्रों में भूरे रंग यह आलोक नहीं पाया जा सकता. पाठक यह न समझें कि मैं कलाकृति का कोई अर्थ निकाल रहा हूँ, जैसा कि ऊपर निर्मल जी कथन हम पढ़ ही चुके हैं कि कोई भी कलाकृति में किसी अर्थ को खोज निकालने की कोशिश झूठी नैतिकता ही होगी. यह कलाकृति हमारे मन में फूल के होने का अहसास 'जगाती' है. वह सफ़ेद-फूल का अर्थ नहीं बतलाती. यह दुर्लभ स्थिति है. रज़ा के चित्र इस दुर्लभता को सँवारते हैं. दर्शक के सामने उस असम्भव का चित्र प्रस्तुत करते हैं जो अचम्भा है. जो नया है. नूतन है. निष्कम्प है.

रज़ा का यह समय सबसे ज्यादा रचनात्मक और नए-नए विषयों का रहा है. यह वो समय भी है जिसमें नदी अपने वेग में बह रही है और सबको आनंदित करते हुए अनेक तरह की फसलों को पैदा कर रही है. इसमें रूकावट नहीं है. वे लगातार नए विषय चुन रहे हैं और चित्र बना रहे हैं. उन्हें चिन्ता नहीं तन्त्र की या मिनिएचर चित्रों की, सभ्यता की या संस्कृति की. वे यह सब आत्मसात कर चुके हैं. इनका आरोपण करने की जरूरत उन्हें नहीं है. वे ही तन्त्र हैं या किसी मिनिएचर में मौजूद राधा और उसका श्रृंगार. रज़ा के चित्रों में भीतरी अलंकरण है चित्र की सतह पर दिखाई नहीं देता. 

वे हाशिये को भी नहीं सजाते-सँवारते. जैसा कि सभी मिनिएचर चित्रों का चलन है. वे सिर्फ हाशिये को रखते हैं उसका अलंकरण दर्शक के दिमाग में होता है. ये समय चित्रों के दोहराव का भी नहीं है. वे विषय दोहराते दिखते हैं. 'प्रकृति' शीर्षक से कई चित्र बनाते हैं, किन्तु हर बार अलग. वे अपने को दाँव पर लगाते हैं, जोख़िम उठाते हैं. जिस कंस्ट्रक्शन की तरफ़ ब्रेसॉं ने इशारा किया था और सेजां के चित्रों को देखने को कहा था, उस संरचना-संयोजन में सेजां से आगे निकलते दिखाई देते हैं. इस दौर के उनके चित्रों में कंस्ट्रक्शन का आधार सुदृढ़ और संयोजित है. यही वह समय है, जब रज़ा 'माँ' की रचना करते हैं, जो उनके चित्रों में विशेष स्थान रखता है.   

(Akhilesh with  Rakesh Shreemal and Uday Bhawalkar)


क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

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  1. रज़ा के कला व्यक्तित्व के संघर्ष और विकास को समझने के लिए यह आलेख विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। लोक और साहित्य और रज़ा के चित्रों के अंतर्संबंध को भी यह आलेख खोलने का काम बखूबी करता है। अनेकानेक कलाकृतियों के साथ सुसज्जित होने के कारण यहां एक अतिरिक्त आकर्षण और चित्रों को समझने की अन्तर्दृष्टि पैदा हुई है। इस आयोजन के लिए लेखक और संपादक दोनों बधाई के पात्र हैं। - - हरिमोहन शर्मा

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  2. श्रृंखला की अटूट कडी। चित्र और उसके शीर्षक के द्वंद्व को सही रेखांकित किया है। रजा के रंग- प्रयोगों के माध्यम से रंगों को लेकर समझ को समृद्ध करती। रजा की कला- समीक्षा को सार्थक तरीके विन्यस्त किया है।

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