कलाओं के आपसी रिश्ते घनिष्ठ रहें हैं. संगीत से कविता का नाता आदि से अबतक अनवरत है. चित्र से कविता की यारी भी पुरानी है, भारतीय चित्रकला में इसकी पुष्ट परम्परा मध्यकाल तक चली आई थी. आधुनिक चित्रकला में इसका पुनरागमन विश्व के कुछ महत्वपूर्ण चित्रकारों में से एक माने जाने वाले सैयद हैदर रज़ा की देन है. उनके साठ से अधिक चित्रों में देवनागरी लिपि में हिंदी, उर्दू संस्कृत की कविताएँ/शब्द अंकित हैं.
‘रज़ा: जैसा मैंने देखा’ की यह आठवीं
क़िस्त विशेष है, इसमें रज़ा के सम्पूर्ण चित्रकला कर्म में शब्दों की उपस्थिति और
महत्व की पड़ताल प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश ने की है. चित्रों की दुनिया में रज़ा भारतीय
मनीषा के सच्चे वैश्विक पहचान थे.
अखिलेश का यह पेंटिंग के क्षेत्र में
एक शोध जैसा कार्य है ज़ाहिर है इसका महत्व है और रहेगा.
प्रस्तुत है.
रज़ा
: जैसा मैंने देखा (८)
कब
किसने प्रिय, तेरा रहस्य पहचाना
अखिलेश
गैलरी
लारा विंची से रज़ा का अनुबंध चल ही रहा था और सभी गैलरियों की तरह वह भी रज़ा के
चित्रों पर अपनी लग़ाम कसे हुए थी. इसी बीच बर्कले विश्वविद्यालय,
कैलिफोर्निया, अमेरिका से न्योता मिला तीन
वर्ष पढ़ाने का और रज़ा ने उसे स्वीकार कर लिया. वे तीन वर्षों के लिए वहाँ चले गए
और पीछे-पीछे गैलरी वाली वह महिला भी आ गयी. वहाँ जो हुआ उसका परिणाम यह था कि
पेरिस लौटकर वर्ष सड़सठ में रज़ा ने अनुबंध समाप्त कर लिया और अब वे एक स्वतन्त्र
चित्रकार थे. उन दिनों पेरिस में लगभग पाँच हज़ार चित्रकार अपना काम कर रहे होंगे. जिसमें पिकासो, मातिस,
डाली, शागाल आदि सभी शामिल हैं.
सत्तर
के दशक में अजित मुखर्जी की पुस्तक 'तंत्र' छपी जिसके विमोचन में रज़ा भी शामिल थे. यह पुस्तक उन्हें विशेष रूप से
पसंद आयी और रज़ा का झुकाव तंत्र की तरफ़ बढ़ने लगा. उन्हें तंत्र के यंत्रों की ज्यामिति बुनावट ने
आकर्षित किया. तंत्र के कई प्रतीकों की तरफ उनका ध्यान गया- जिसमें बिंदू भी शामिल
था, जो बचपन से उनका पीछा कर रहा था. रज़ा और तंत्र अब साथ
साथ थे. वे उसके अध्ययन में डूब गए. रज़ा ने पेरिस में रहकर चित्रकला की वैश्विक
समझ, कलाकारों के दृष्टान्त, आलेख,
कविताएँ, अन्य लेखकों के विचार आदि से ही खुद
को समृद्ध ही नहीं किया बल्कि उन्होंने अपने ऊपर भी काम किया. जिसमें खुद के लिए
लाभकारी विषयों का अध्ययन भी शामिल था. यही वो समय है जब रज़ा दृश्यचित्रण से निकल
कर शुद्ध चित्रकला के बिम्बों की तरफ़ मुड़ रहे थे, रास्ता
आसान न था और राह परिचित न थी. रज़ा का ध्यान भारतीय मिनिएचर चित्रों की तरफ भी गया
और उन्हें मालवा मिनिएचर भी याद आयें जो पढ़ाई के दौरान प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम
(अब महाराजा छत्रपति शिवाजी संग्रहालय) में देखे थे. रज़ा ने अपनी भारत यात्रा में
इन्हें एक बार फिर ध्यान से देखा.
रज़ा
के चित्रों से दृश्य-चित्रण हट रहा था और ज्यामितिक आकारों से, स्पेस विभाजन से
चित्र निर्माण की धीमी और प्रभावी प्रक्रिया इन चित्रों का आधार बन रहे थे. रंग की
प्रमुखता मालवा मिनिएचर से, ज्यामितिक अमूर्तन
का विश्वास तंत्र से और रज़ा की एकाग्र लगन इन चित्रों में प्राण फूँकने लगी.
मिनिएचर
से प्रभावित रज़ा ने चित्रों में लिखना भी शुरू किया. अपनी पसन्द की काव्य पँक्ति,
या कोई शब्द या श्लोक और कभी-कभी पूरा एक पैराग्राफ. सबसे पहला चित्र
उन्नीस सौ तिरेसठ में बनता है, जिस पर रज़ा लिखते हैं "आनो
भद्राः ऋतवो यन्तु विश्वतः" फिर लम्बे समय तक कोई उकेरन नहीं, सड़सठ में 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र
देवता' यहाँ से शुरुआत होती है, रज़ा के
नए दृश्य की, जिसमें कविता, कोई उक्ति,
संस्कृत की एक पंक्ति या अंग्रेजी का कोई कोटेशन भी चित्र में लिखा
रहता. ऐसा भी नहीं कि रज़ा सभी चित्रों में शब्द उकरने लगे या इन उक्तियों के सहारे
उनके चित्र जाने जाने लगे. रज़ा ने अपने जीवन में मात्र साठ-पैंसठ चित्रों में शब्द
उकेरे हैं, जिनमें ज्यादातर उस चित्र के विषय ही हैं जैसे
पञ्च-तत्त्व, अंकुरण, चमत्कार, सूर्य नमस्कार, प्रकृति, मानवाधिकार,
सप्त रस, सत्यमेव जयते, एकता-बन्धन,
उपशान्तो यमात्मा, जागृति, रस, स्वस्ति, अमर-कन्टक,
अमर-जीव, नाद-बिंदू, शांति,
प्रकृति-पुरुष, महाभारत, सत्यम- शिवम् सुंदरम, हे राम, भारतीय
समारोह, विस्तार, पुनरागमन आदि आदि.
ये
वे विषय हैं जो चित्र का शीर्षक भी रहे. कई कविताओं पर उर्दू शायरी के किसी शेर को
भी उन्होंने चित्र में लिखा किन्तु शीर्षक कुछ और था. 'Immanence', १९९० नामक
चित्र पर उन्होंने यह शेर उद्धृत किया:
चंद कलियाँ निशात की
चुनकर मुद्दतों महबे-आस रहता हूँ
तेरा मिलना ख़ुशी की
बात सही तुझसे मिलकर उदास रहता हूँ.
'प्रेम', २००६ शीर्षक के चित्र पर:
यार से छेड़ चली जाये असद
गर नहीं वस्ल तो
हसरत ही सही
'sans titre' (untitled) १९७५ :
रात से जाग रहा हूँ
नासिर
चाँद किस शहर में
डूबेगा
आँचल शीर्षक से जो चित्र बना २०११ में उस पर:
सिर्फ़ लहरा के रह
गया आँचल
रंग बनकर बिखर गया
कोई
ग़र्दिशे खूँ रगों
में पैदा हुई
दिल को छूकर गुजर
गया कोई
फूल सा खिल उठा
तसव्वुर में
दामने शौक भर गया
कोई
Terre Rouge १९६८ में लिखते हैं:
बुझ रहे हैं
चिरागों दहरो हरम
दिल जलाओ के रोशनी
कम है
रज़ा के दो हज़ार ग्यारह के एक रेखांकन पर यह शेर मिलता है जो भविष्य के चित्र की संकल्पना थी. यह चित्र बना या नहीं पर शेर ये है :
कुछ नहीं तो कम से
कम, ख्वाबे सहर देखा तो है
जिस तरफ देखा न था
अब उस तरफ़ देखा तो है.
यदि एक तरफ़ उर्दू
शायरी के कुछ शेर हैं तो दूसरी तरफ़ सूफ़ी-सन्त के दोहे भी लिखे गए हैं जैसे : 'सत्य-असत्य',
१९९९ शीर्षक के चित्र पर लिखा:
रहिमन या संसार से
गाढ़े हैं दो काम
साचे से जग न मिले
झूठे मिले न राम
'जो
कछु है सो तोर', २००५ के चित्र पर लिखा:
मेरा मुझमें कुछ
नहीं
जो कुछ है सो तोर
तेरा तुझको सौंपते
का लागत है मोर
'Sans Titre'
(untitled) चित्र २००४:
हद को ताके औलिया
बेहद ताके पीर
हद बेहद दोनों ताके
ताको कहे कबीर
'माला'
नामक २००० चित्र में:
इस अपूर्ण जगत में
कब किसने प्रिय तेरा रहस्य पहचाना
श्याम-दो, १९९८
में :
ज्यों ज्यों डूबत
श्याम में
त्यों त्यों उज्जवल
होय
'Adho man nahi dus
bees' १९६५ पर:
अधो मन नाहीं दस
बीस
फिर न हाथ क्यों
मेरा काँपे,
ले माला का अन्तिम दाना
इसके अलावा संस्कृत
के श्लोक की पंक्तियाँ भी कुछ रज़ा का ध्यान खींचते रहे कुछ ही यहाँ उद्धृत कर रहा
हूँ -
'il ne pas
blanck', १९६७ के चित्र पर:
न शुक्लं, न
कृष्णं, न रक्तं, न पीतं
न कुब्जं, न
पीनं, न हस्वं, ने दीर्घं
अरूपं तथा
ज्योतिराकार तत्वा
ताड़े कोवशिष्टं शिवः कवलोहं.
'jour de lisse', १९६३ में:
आनो भद्रा: ऋतवो
यन्तु विश्वतः
या १९६९ में 'Permanence' चित्र पर लिखते हैं :
स एव अद्य स उश्व:
सूर्य नमस्कार रज़ा
का प्रिय विषय रहा है जिस पर वे कई बार लौटे हैं इस पँक्ति के साथ :
सूर्य आत्मा जगतस
तस्थुषष्च
एक चित्र पर सिर्फ
यह प्रार्थना है :
असतो मा सद्गमय
तमसो मा
ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा
अमृतंगमय
रज़ा का एक चित्र है
प्रकृति. २००० में बने इस चित्र पर :
प्रकृति
स्वामवषृम्य
विष्टजामि पुनः
पुनः
उनका चित्र है 'नाद
बिंदु' १९९४ पर लिखते हैं:
कृचिदस्योति
बिन्दूनाम
एक
अन्य प्रकृति १९९२ पर उन्होंने क्षिति,जल,पावक,गगन, समीरा उकेरा. प्रकृति
शीर्षक से कई चित्र बनाये और अक्सर प्रकृति ही लिखा. यही दो उदाहरण हैं जिसमें कुछ
अलग था.
रज़ा
का भाषाओँ पर सहज अधिकार था, फ्रेंच, अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू सभी
पर समान अधिकार होने से उनको यह सुविधा मिली हुई थी कि वे इन भाषाओं में लिखे गए
से सीधा सम्बन्ध बना सकते थे. इसके लिए उन्हें ज्यादा मेहनत नहीं करती पड़ी और वे
सहज ही इन भाषाओं में लिखी कविताओं को अपने चित्रों में ले आये. उर्दू के शायरी का एक हिस्सा आप देख पढ़ चुके हैं
हिन्दी कविताओं पर रज़ा का विशेष जोर रहा. यहाँ मैं कुछ उदाहरण दे रहा हूँ :
'l'inconny', १९६८ और १९७२ में:
पंथ होने दो अपरिचित
प्राण रहने दो अकेला
'शून्य',
१९८७ में:
इस तम शून्य में
तैरती है जगत समीक्षा
'तनाव'
शीर्षक के चित्र जो २००१ में बनाया उस पर लिखा:
संसार में जो कुछ
भी है उसका कारण तनाव है
'sans titre' १९९२ में:
छोतहि ते उपजा सब
संसारा
या 'सारा
जग जलता रहा' २००५ में :
सारा जग जलता रहा अपनी-अपनी आग
रज़ा
का बचपन हमेशा उनके साथ रहा. जंगल की
स्मृति हो या पाठशाला की वे कभी न भूले और पेरिस के एकान्त में ये स्मृतियाँ ही
उनका सहारा बनी. वे अपने बचपन में भटकते हुए अनेक ऐसी जगह चले जाते जो आज के समय
का विस्मय है. एक ऐसा ही चित्र है उनका 'प्रार्थना'
दो हज़ार पाँच में बना यह चित्र पाठशाला की प्रार्थना है, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' की
यह कविता पाठशालाओं में सुबह की प्रार्थना में शामिल थी कविता इस तरह है :
वर दे, वीणावादिनी वर दे.
प्रिय
स्वतंत्र-राव-अमृत-मन्त्र नव
भारत में भर दे.
काट अन्ध-उर के
बन्धन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय
निर्झर
कलुष-भेद-तम हर
प्रकाश भर
जगमग जग कर दे.
नव-गति, नव-लय,
ताल-छन्द नव
नवल-कण्ठ, नव
जलद-मन्द्ररव,
नव नभ के नव-विहग
वृन्द को
नव पर, नव स्वर दे.
वर्ष १९७८ में पहली मुलाक़ात के बाद रज़ा और अशोक वाजपेयी की मित्रता अपने किस्म की अद्वितीय मित्रता का उदाहरण है. यह मित्रता यहाँ से शुरू होकर अन्त तक रही और जब रज़ा ने फॉउण्डेशन की शुरुआत की तो उसका अध्यक्ष जिद-जोर से अशोक वाजपेयी को बनाया. रज़ा को उनकी कवितायेँ बेहद पसन्द थीं और सांस्कृतिक सक्रियता भी. रज़ा ने उनकी दो कविताओं को अपने चित्रों में उद्धृत किया एक 'रोशनी' १९९७ के चित्र में "आओ जैसे अँधेरा आता है अँधेरे के पास, जैसे जल मिलता है, जल में, जैसे रोशनी घुलती है रोशनी से. "
दूसरा चित्र रज़ा के श्रेष्ठ चित्रों में गिना जाता है. जिस तरह
हुसैन का प्रसिद्ध चित्र "Between Spider and the Lamp" है या
अकबर पदमसी को 'Metascape' के लिए जाना जायेगा,
अम्बादास का रूपभेद,
स्वामीनाथन का चित्र flight माना जाता है या
पिकासो का गुएर्निका,
दा विन्ची की मोनालिसा
रेने माग्रेट का the Kiss, उसी तरह
रज़ा का चित्र 'माँ' जिस पर यह कविता पंक्ति लिखी है "माँ जब लौटकर आऊँगा, क्या लाऊँगा" है.
यह
चित्र इस कविता के साथ घुल-मिल नहीं गया है बल्कि कविता के बरक्स यह चित्र अपनी
अनुगूँज लिए है और यह कविता-चित्र जुगल-बंदी का अद्भुत उदाहरण है. अशोक वाजपेयी की
यह कविता उनके पहले कविता संग्रह ' शहर अब भी सम्भावना
है' की चौथी कविता है. उन्नीस सौ चौंसठ में छपा यह संग्रह एक
युवा कवि की पहली दस्तक थी. उस वक़्त अशोक जी की उम्र चौबीस वर्ष रही होगी. इस
संग्रह की शुरुआत की चारों कविताएँ माँ के लिए ही हैं ;
पहली: अपनी आसन्नप्रसवा माँ के लिए तीन गीत, दूसरी: साँझ : शिशुजन्म, तीसरी: माँ के बाद.
चौथी कविता 'लौटकर जब आऊँगा'. यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा:
माँ लौटकर जब आऊँगा
क्या लाऊँगा ?
यात्रा के बाद की
थकान
सूटकेस में घर-भर
के लिए कपड़े,
मिठाइयाँ, खिलौने,
बड़ी होती बहनों के लिए
अन्दाज़ से नयी फैशन
की चप्पलें ?
या रक्त की एक नयी
सिद्धि
और गढ़ी हुई
वीरगाथाएँ ?
क्या मैं आकर
कहूँगा
मैंने दिन काटे
हैं- एक समृद्ध आदमी की तरह
अपने परदे-ढँके
कमरे की खिड़की से
मकानों की काई रची
दीवारों पर
निर्विकार आती सुबह
देखते हुए ?
या क्षुद्रताओं की
रक्षा में
निर्जन
द्वीप-समूहों में
समुद्र से अकेले
लड़ते हुए ?
क्या मैं बताऊँगा
कि मैं आया हूँ
अँधेरी गुफाओं में
से
जहाँ भूखी क़तारें
रह-रहकर चिल्लाती
हैं
गिद्धों और चीलों
की चीत्कार के बीच
माँ, तुम्हारा
प्रिय शोकगीत
'रघुपति
राघव राजाराम...' ?
क्या मैं तुमसे
कहूँगा
ख़ुश हो माँ, अन्त
आ गया है
-जिसकी तुम्हें
प्रतीक्षा थी
क्योंकि मैंने देखा
है
नीले अश्व पर आरूढ़
भव्य अवतारी पुरुष
को ?
या मैं सिर्फ एक
किस्सा सुना पाऊँगा
नीले घोड़े पर सवार
एक पिचके निर्वीर्य चेहरे वाले
आदमी की मौत का
एक छोटे से गांव
में ?
या तुम्हारी तीखी
नज़र को बचाते हुए
दूसरे खिलौनों के
साथ
अपने छोटे भाई को
दूँगा
एक काठ का नीला
घुड़सवार ?
-क्या मैं लौटूँगा
अपनी निर्जल आँखों
में अपमान भरे
जो अब हर रास्ते पर
छाया है
आकाश की तरह
और तब
क्या तब तुम पहली
बार पहचानोगी
मेरे चेहरे में
छुपा
अपना ही ईश्वर दूषित
चेहरा ?
माँ
लौटकर जब आऊँगा
क्या लाऊँगा ?
यह कविता मनुष्य की बेचारगी और अकेलेपन के अहसास से भरी हुई है. इस कविता में आत्म-निरीक्षण के साथ-साथ संसार की विद्रूपताओं, क्षुद्रताओं और मनुष्य के स्वभाव की कमजोरियों को केन्द्र में रखते हुए उससे उपजे स्वार्थ और उसका व्यर्थता बोध सब कुछ समेटा हुआ है. परिवार के होने का अर्थ और उसके न होने का अहसास, अकेलेपन से जुझते हुए अपनी उपलब्धियों का सूनापन उस अकारण अस्तित्व की तरफ़ इशारा है जिसके होने और न होने से संसार को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. इस कविता में, मृत्यु की अमर उपस्थिति और उसके बरक्स सभी जीवनदायी अस्थायी दुनियावी क्रिया-कलाप जिसमें बहनों के लिए नए फैशन की चप्पलें, काठ का घोड़ा, घर-भर के लिए कपड़े, उपलब्धियों की वीरगाथाएँ और माँ को तसल्ली देने वाला झूठ कि समृद्ध आदमी आया है, शामिल है. या उस अकेलेपन के एकान्त में अपने कमरे में गिद्धों और चीलों के चीत्कार में महसूस की गयी मौत की उपस्थिति जिसे अब हर तरफ़ देखने की आदत हो गयी है. जिसे रघुपति राघव राजाराम की धुन में बुन लिया गया है. या माँ के लिए पिता के मौत की ख़बर में छिपी माँ की मौत जिसे लेने नीले घोड़े पर पिचके मुँह वाला निर्वीर्य सवार आता दिखाई दे रहा है. और यही नीला घोड़ा छोटे भाई के खिलौने के रूप में भी लाया गया है जिसे नज़र बचाकर दिया जा रहा है. जिसमें उस देने की निरर्थकता का बोध ग्लानि से भरे दे रहा है.
और इन सब उपलब्धियों के पीछे छुपे अपमान-बोध का ज़िक्र
करते हुए माँ से उम्मीद है कि वह ख़ुद का ईश्वर दूषित चेहरा पहचान लेगी. इस पूरी कविता में बस एक यही जगह है जहाँ माँ से
यह उम्मीद है कि वह यह सब पहचान लेगी. वह
समझ सकती है लाचारी, बेचारी, व्यर्थता,
निरर्थक और इस संसार में सिर्फ यात्री की तरह गुजर जाने का सुख. यह कविता मनुष्य के असहाय होने की कविता है. यह
कविता अकेले होने की बेचारगी और सब कुछ पा लेने के बाद भी उसके व्यर्थ होने की
कविता है. इस कविता को लिख लेने और उसके बाद भी इसके अनर्थ होने की कविता है.
चौबीस बरस के युवा मन की दुनिया में साक्षात्कार और उससे उपजी निराशा, हताशा, व्यर्थता बोध, उन्नति
की आकांक्षा और उसका निरर्थकता बोध, तथाकथित आधुनिक मनुष्य
की उपलब्धियाँ और उसके बरक्स मनुष्य होने की मजबूरी और अपनी माँ के सामने इन सब और
इस सब संसार का व्यर्थ होने का अहसास जिसमें कवि सब पा रहा है और कुछ देना भी चाह
रहा है किन्तु माँ के लिए सिर्फ उसका होना ही महत्वपूर्ण है. जिसे वह जानता है और माँ की छोटी सी ख्वाईश को
पूरा न कर पाने की मजबूरी में अपने मनुष्य को खोते जाने की पीड़ा इस कविता का जीस्त
है.
रज़ा ने जब यह पढ़ी होगी तब निश्चित ही उनका अंतर्मन हिल गया होगा. फ्रांस में इतने बरस रहना और विदेशी होने के सबब से सधे हुए पक्षपात को सहना रज़ा के लिए आसान न था. इस कविता ने उन्हें अपने अकेले होने और उसके कारण निस्सहाय रहकर भी अपने कर्म पर विश्वासपूर्वक डटे रहने का भरोसा दिलाया होगा. रज़ा के लिए माँ उनका देश था और उनके पास देने को कुछ न था. या देने की निरर्थकता का बोध ही उनकी उपलब्धि है इसे रेखांकित करती हुई कविता ने उन्हें झकझोर कर रख दिया. रज़ा को यह कविता पानी सी लगी.
श्रीकान्त वर्मा की कविता 'अवन्ति में अनाम' भी उन्हें बहुत पसन्द रही. जिसकी इन पंक्तियों से उन्हें प्रेम था कि 'मगध के माने नहीं जाओगे, अवन्ती में पहचाने नहीं जाओगे'.
रज़ा
के लिए फ्रांस और भारत दोनों ही प्रिय थे एक जगह जन्म हुआ दूसरी जगह ख़ुद को जाना. उनके
मन की दुविधाओं को दूर कर रही थी यह कविता. उन्होंने चित्र बनाया 'माँ लौटकर जब आऊँगा क्या लाऊँगा', उन्नीस सौ इक्यासी
में बना यह चित्र रज़ा की मनोदशा को व्यक्त करता सबसे उज्ज्वल चित्र है. इस चित्र
में अहसास बेचारगी का नहीं है बल्कि बेचारगी का वैभव चित्रित है. जिस तरह से कविता उस व्यर्थता के अहसास की अटूट
वैभवशाली उपस्थिति का वर्णन करती है, उसी तरह यह चित्र उसका
मनोहर चित्रण है. यह जुगलबंदी अद्वितीय है. उन्नीस सौ इक्यासी में रज़ा ने इसे रचा, जब उनकी उम्र लगभग साठ साल की थी. एक अच्छा ख़ासा अनुभव उनके साथ था,
जीवन और चित्रकला के संसार में रहने का. यह चित्र उनके तंत्र और
मालवा मिनिएचर से समृद्ध हो चुके समय का श्रेष्ठ चित्र है.
इसके साथ उन्होंने अनेक चित्र बनाये 'forms of darkness,' 'बिन्दु', 'Green landscape', 'राजस्थान', 'white flower', 'Earth', 'Water' आदि अनेक और सभी में ज्यामिति और मालवा के रंग का अनुभव चढ़ कर बोल रहा है. इस चित्र में भी बिंदु है और उसके इर्दगिर्द व्यूह-रचना है जिसमें कविता के बिम्ब नहीं दिखाई देते हैं किन्तु चित्रकार की व्यथा को तूलिका घात में लक्ष्य किया जा सकता है. पिछले तीस सालों का अकेलापन और उसकी बेकरारी चित्र में नहीं दिखती किन्तु यह चित्र रज़ा के अन्य चित्रों से इतर अपनी उज्ज्वल उपस्थिति दर्ज कराता है. रज़ा कविता का चित्रण नहीं कर रहे हैं न उसकी कोई परिपाटी रज़ा के यहाँ दिखाई देती है. रज़ा दृश्य-चित्रण में भी हू-ब-हू चित्रण कभी नहीं करते थे. न ही उनका लक्ष्य उस समय को दर्ज करना होता था, जिसके लिए अधिकांश दृश्य-चित्रण किया जाता है. रज़ा के लिए दृश्य-चित्रण अभ्यास भी नहीं दिखता. वे दृश्य चित्रण करते हैं और उस दृश्य से बाहर चले जाते हैं जिसे देखकर वे बना रहे हैं. उनके दृश्य चित्रण में कोई 'जगह' चित्रित नहीं है वे उस जगह के अनुभव को भी चित्रित नहीं करते हैं किन्तु जो चित्रित करते हैं उसकी सार्वभौमिकता पर किसी को शक नहीं हो सकता. यह दृश्य किसी दूसरी जगह का अनुभव भी हो सकता है. कहीं का भी हो सकता है. वे दृश्य में से 'जगह' बाहर निकाल कर रख देते हैं. उसका स्थानीय स्वरूप चित्रित करने के बजाय उसके सार्वभौमिक दृश्य को देख पाते थे.
उनके
कश्मीर के दृश्य-चित्र में बम्बई की उपस्थिति को दर्शक देख सकता है. 'माँ लौटकर जब आऊँगा' चित्र कविता का चित्रण नहीं है
कविता की प्रेरणा से बना चित्र है. यह प्रेरणा उन्हें पेरिस के अनुभव से बाहर खींच
लाती है और अपने देश की उस माटी-महक के बीच ले जाती है जहाँ मण्डला के घने जंगल
हैं, मालवा के रंग हैं, बनारस का तंत्र
है, देश की स्मृति है. बचपन का भय है. रज़ा के बचपन का भय जीवन भर उनका
पीछा करता है और उससे निजात उन्हें अपने चित्रों में ही मिलती है. रज़ा के लिए
पेरिस भी एक जंगल था, जिसमें वो भटक रहे थे. यह कविता उनके मगध और अवन्ती में होने और न होने
के बीच के अहसास की कविता है. वे भारत में
रहते नहीं थे और फ्रांस की नागरिकता नहीं ली थी. जिस देश के नागरिक थे वहाँ उनकी उपस्थिति नहीं
थी और जहाँ रहते थे वहाँ के नागरिक नहीं थे. हर बरस रज़ा का लौटना अपने देश की याद का पहलू न
था, बल्कि वे उसे महसूस करना चाहते थे, उसकी मिट्टी की महक से रिश्ता बनाये रखना चाहते थे. मगर वे जानते थे कि 'लौटकर आऊँगा तो क्या लाऊँगा' एक शाश्वत अवस्था है और
उनका लौटना व्यर्थ है. इतने बरस में माँ उसके बिना जीना सीख चुकी है.
देश से प्रेम और अपने गृह नगर की माटी की महक उन्हें इन कविताओं में मिली और पेरिस के एकान्त में इन कविताओं में वर्णित देश और उसकी स्मृति को उन्होंने अपने चित्रों में जगह देना शुरू किया और इस रास्ते देश से नाता बनाये रखना चाहा. रज़ा ने हिन्दी कविता के अलावा मराठी कविता को भी उकेरा इसी कविता को उन्होंने एकाधिक बार चित्रित किया:
आधी बीज एकले
बीज अंकुरले
रोप वाटले
एका बीजा पोटी
तरु कोटी-कोटी
जनम घेती
सुमने फळे
राजस्थान
भी रज़ा के चित्रों का विषय रहा जिसमें राजस्थान शीर्षक से उन्होंने कई चित्र बनाये
और दो हज़ार चार का चित्र 'शेखावटी' पर उद्धृत ये शब्द :
शेखावटी
तीर्थ स्थल
मूलाधारे कुण्डलिनी भुजाकारे रूपिणी
इसी के साथ नर्मदा नामक चित्र में रज़ा नर्मदा की यात्रा के कुछ पड़ाव उकेरते हैं. नर्मदा नदी से उनका बचपन समृद्ध हुआ था और वहाँ के लोग कभी नर्मदा को नर्मदा नहीं कहते. रज़ा भी हमेशा नर्मदा जी ही कहते रहे. इस चित्र में रज़ा ने लिखा: नर्मदा. अमरकन्टक, मण्डला, सप्तधारा, नरसिंघपुर, ओंकारेश्वर, भरुच.
रज़ा पर कविता पंक्ति, उक्तियाँ और इस तरह शेर या दोहे को इस्तेमाल करते देख बहुत आरोप लगे कि ये भारत को बेच रहे हैं. इस तरह से कि यूरोप में भारतीय संस्कृति या सभ्यता के प्रति जो जिज्ञासा है या उसे जानने की इच्छा को रज़ा भुना रहे हैं. इस तरह के आरोप लगाने वाले निश्चित ही अज्ञानी थे और उन्होंने रज़ा के चित्र नहीं देखे थे. यह भी सही है कि रज़ा इससे विचलित हुए बिना अपना काम करते रहे. जैसा कि ऊपर मैंने बतलाया ही है कि इस तरह के कवितामय चित्र मात्र पैंसठ हैं और सिर्फ एक चित्र है जिस पर अंग्रेजी में महात्मा गाँधी का विचार लिखा है. शेष सभी हिन्दी, उर्दू, और संस्कृत में हैं. यह हम सभी जानते हैं हिन्दी या किसी भी अन्य भाषा के प्रति फ्रांसीसी समाज उदासीन ही रहा है. उन्हें अपनी भाषा के समक्ष अन्य सभी भाषाएँ पढ़ने योग्य नहीं लगती रही हैं. ऐसे में किसी भी फ्रांसीसी के लिए चित्र पर उकेरे गए ये शब्द मात्र टेक्सचर हैं. वह उन्हें पढ़ने की कोशिश नहीं करेगा.
दूसरा एक वाक्य की वजह से किसी सभ्यता से कोई
प्रभावित नहीं हो सकता. इस तरह ऐसे किसी
आरोप का कारण ईर्ष्या ही हो सकता है और न देखना भी. प्रख्यात चित्रकार मक़बूल फ़िदा
हुसैन का जीवन भर का अनुभव है, जिसके आधार पर वे बता रहे थे
कि हमारे यहाँ कोई चित्र देखता नहीं. भारत
भवन में काम करते हुए मैंने इस बात को व्यावहारिक रूप से जाँचा कि क्या लोग
दीर्घाओं में चित्र देखते हैं ? वे देखने का नाटक करते हैं. उनकी
कोई रुचि नहीं होती और उन्हें यह संसार एलियन लगता है. जहाँ वे 'बेचारे' कारणवश फँस गए हैं. दूसरे इस तरह की पंक्ति
लिखे रज़ा के चित्र इतने कम हैं और फ्रांसीसी भाषा में लिखा एक भी नहीं है, कि शायद ही किसी फ्रेंच का ध्यान इस तरफ़ गया हो. अलबत्ता रज़ा के रंग जरूर
सबको आकर्षित करते रहे हैं और मेरे देखे हुए चित्रकला के संसार में मुझे ऐसा कोई
दूसरा चित्रकार नज़र नहीं आया जो रंग की इतनी गहरी समझ और उसे एक 'तत्त्व' की तरह बरतता हो.
मृणाल
पाण्डेय ने इस और ध्यान दिया है वे लिखती हैं :
"अपने सर्वाधिक उत्तेजक और मनोहारी रूपों में रज़ा के रंगाकार न सिर्फ भारतीय हैं , न फ़्रांसीसी; न केवल मध्यप्रदेश के हैं और न ही मात्र गोर्बियो के. वे ऐसे रंग हैं, जिनके पास परम्परा की पूरी अर्थमय गरिमा के साथ-साथ वैयक्तिक प्रतिभा की बेजोड़ लपकभरी कौंध भी है. और इसलिए वे बहुत कुछ और हो सकते हैं- पेड़, धरातल, शून्य, हवा, रेत, धूल के बगूले, प्रागैतिहासिक अवशेष, बीहड़ वन, तपते मकान. वे चित्र भी जिनको कोई विशेष नाम दिए गए हैं, मसलन 'ग्रीष्म आवास' या 'राजस्थान'- सिर्फ उस नाम के पर्याय ही नहीं, बल्कि उन बहुत सी नामहीन चीजों का सघन पुंज हैं, जिन्हें हम निरन्तर महसूस करते रहते हैं अपनी संवेदना के सहारे, भले ही वे हमारी ज्ञानात्मक तर्क-शक्ति के दायरे में न आते हों."
मृणाल
पाण्डेय ने कुशल कला समीक्षक की तरह उन बातों का खूबसूरती से बखान किया,
जिनका सम्बन्ध रज़ा के चित्रों से हैं. वे यदि कला-समीक्षक होती तो आज के समकालीन कला
का साफ़-सुथरा पक्ष दर्शकों के सामने होता.
रज़ा
ने आठ वर्ष की उम्र में गाँधी जी को देखा था. उस बाल मन पर पड़ी छाप जीवन भर उनके साथ रही और
बाद में रज़ा ने जाना भी बापू के त्याग, आत्मबल और
सत्याग्रह की ताकत को. एक पूरी प्रदर्शनी
रज़ा ने बापू को समर्पित की जिसके सारे चित्र बापू के सार को समेटने की सदिच्छा से
बने थे. एक चित्र "Thoughts
of Gandhi ji" में बापू के विचार ही लिखे थे :
सत्य हर इनसान के
हृदय में निवास करता है. उसे वहीं खोजना चाहिए.
सत्य जैसा किसी को
नज़र आता,
वैसे उससे संचालित होना चाहिए.
यह किसी को अधिकार
नहीं है कि वह दूसरे को मजबूर करे कि वे उसे जैसा सत्य दिखायी देता है उसके
मुताबिक चलें.
सन्तोष कोशिश करने
में है पाने में नहीं. पूरी कोशिश पूरी जीत होती है.
रास्ता जानता हूँ. वह
सीधा और सँकरा है. वह तलवार की धार सरीखा है. मुझे उस पर चलने में मजा आता है. जब
फिसलता हूँ तो रोता हूँ.
क्यों आसान है नीचे
गिरना या नीचे फिसलना.
ऊपर उठने से, सीढ़ी
दर सीढ़ी ?
वही बचेगा जो मैंने
किया,
वह नहीं जो मैंने कहा या लिखा.
जहाँ प्यार है, वहाँ ईश्वर है.
(महात्मा गांधी)
इसी प्रदर्शनी के दूसरे चित्र हैं:
'हे राम', 'सत्य', 'शान्ति', 'पीड़ पराई', 'सन्मति', 'स्वधर्म'.
स्वधर्म रज़ा के लिए हमेशा प्रेरणादायी रहा और
विदेश में रहते हुए उन्होंने 'धर्म' और
'रिलिजन' के फ़र्क़ को महसूस किया. धर्म की व्यापक परिभाषा ने उन्हें मोह लिया. एक चित्रकार का 'धर्म'
चित्र बनाना है जो रिलिजन के अर्थ से ज्यादा बड़ा और व्यापक है. धर्म का अर्थ सिर्फ धर्म तक सिमटा नहीं है इस
विचार ने उन्हें हमेशा उत्तेजित रखा और स्वधर्म उन्हें बहुत अपना सा लगा जिसमें
इसे समझने के लिए उन्होंने चित्र पर गीता-प्रवचन का वह अंश भी उकेरा जो विनोबा भावे ने अपनी गीता-भाष्य में लिखा :
रजोगुण
के प्रभाव से मनुष्य विविध धंधों कार्यों में टाँग अड़ाता रहता है.
उसे
स्वधर्म नहीं रहता. वास्तविक स्वधर्माचरण
का अर्थ है अन्य बहुतेरे कार्यों का त्याग.
गीता
का कर्मयोग रजोगुण का रामबाण उपाय है. रजोगुण में सब चञ्चल है. पर्वत के शिखर पर
से गिरने वाला पानी यदि विविध दिशाओं में बहने लगे तो वह कहीं का नहीं रहता.
सारा
का सारा बिखरकर बेकार हो जाता है. परन्तु वही यदि एक दिशा बहेगा तो आगे चलकर उसकी
एक नदी बन जाएगी. उसमें से शक्ति उत्पन्न होगी.
देश
को उससे लाभ पहुँचेगा. इसी तरह मनुष्य यदि अपनी शक्ति विविध उद्योगों में न लगाकर
उसे एकत्र करके एक ही कार्य में सुव्यवस्थित रूप से लगाये
तो
उसके हाथ से कुछ कार्य हो सकेगा. इसलिए स्वधर्म का महत्व है.
(गीता
प्रवचन : विनोबा भावे)
यह
प्रदर्शनी रज़ा के लिए महत्वपूर्ण थी और सभी चित्र विचित्र किस्म की शान्ति और
ठहराव लिए हुए थे. यह समय रज़ा के जीवन का
वह समय था जिसमें सब कुछ तय और स्थिर हो चुका था. इन चित्रों में गाँधी को याद करते हुए रज़ा
कृतज्ञ महसूस कर रहे थे. रज़ा जो फ़्रांसिसी
कविता प्रेमी भी थे, उन्होंने रेने मरिया रिल्के की
कविता भी कैटलॉग में उद्धृत की :
.... But listen
to the voice of
the wind,
and the ceaseless
message
That forms itself
out of silence.
ऐसा नहीं है कि इसके पहले गाँधी रज़ा के चित्रों में नहीं थे. रज़ा पर गाँधी का प्रभाव गहरा था और वे उनके विश्वासों पर अटल भरोसा भी करते रहे उनका एक और चित्र है Immanence, 1990 जिसमें रज़ा ने लिखा :
In the midst of death life persists
in the midst of
untruth truth persists
in the midst of
darkness light persists
: Mahatma Gandhi
रज़ा का गाँधी प्रेम ऊपरी या किताबी नहीं था बल्कि जीवन में उन्होंने अपनी आवश्यकताएँ कम कर दी थी. सुरुचि,सादगी और किफ़ायत से कैसे काम चल सकता है इसका उदाहरण रज़ा ख़ुद थे. उनके व्यवहार में सच्चाई और साफ़गोई थी. वे दूसरों की फ़िक्र में परेशान हो सकते थे. उन
उनसे कुछ 'नकली' कलाकार झूठ बोलकर बरसों पैसा लेते रहे हैं. यह जानते हुए भी रज़ा ने कभी अपना हाथ नहीं खींचा. अनजान बन उनकी लालच को पूरा करते रहे. इस विश्वास से कि शायद शर्म करें. वे गाँधी की तरह ही आत्मज्ञान, आत्मबल, आत्म शुद्धि पर बल देते रहे और अपने समय को देखते-परखते रहे. रज़ा ने जब जीवन शुरू किया, तब इतना आत्म-अँधेरा नहीं था. लोग आत्मसम्मानी थे. रज़ा के भीतर वही भावनाएँ भरी थी. उनकी दुनिया का सच छोटा लेकिन सुन्दर था.
उनका एक चित्र है नारी-शक्ति २००६ का, जिस पर उन्होंने कीर्ति, श्री, वाणी, अमृत, धृति, क्षमा लिखा है. यह चित्रित संसार रज़ा का उनसे देश से नाता जोड़े रखने का, सीधा सम्वाद करने का और पेरिस के अकेलेपन को भुलाकर एकाग्र सृजनात्मक अकेलेपन को भोगने का जतन था, ऐसा मुझे लगता है. किसी दूसरे चित्रकार का उदाहरण नहीं मिलता जिसने इस क़दर कविता, सूक्तियों को अपने चित्रों में जगह दी होगी. रज़ा अकेले हैं इस अकेलेपन का अहसास कराते हुए. अपनी यात्रा की दुविधाओं, मुश्किलों, परेशानियों को वे एक चित्र 'पनघट' में यह लिख कर बतलाते हैं ; "बड़ी कठिन है डगर पनघट की"
इस
तरह की उक्तियाँ, पँक्तियाँ, शेर,
दोहे आदि रज़ा के मन की पड़ताल के लिए ठीक हों सकते हैं. ये सब उस
परिस्थिति का भी वर्णन कर रहे हैं जब रज़ा को देश की या किसी संवेदना विशेष की याद
या अनुभव हो रहा है. ये सब रज़ा के जीवन के वे पड़ाव हैं जो उनके चित्र में रहते हुए
उनकी भावना को सम्बोधित हैं. वे उस पंक्ति के प्रभाव में कई दिन गुजार देते हैं. रज़ा कहते हैं :
"चाहे वो भगवत गीता का श्लोक हो या ॐ, या कलमा- मेरे लिए दिन भर सोचने और गुनने के लिए एक ही चीज़ काफी है."
ऐ ज़ौके नज़र शौके
नज़र खूब है लेकिन,
जो शह की हकीकत को
न समझे वह नज़र क्या.
यह रज़ा का देखना ही है जो इन पंक्तियों से भी प्रेरणा लेकर रचता है. रज़ा के लिए दृश्य इन चित्रों में शब्द हैं जो भाव-दृश्य भी हैं.
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महीने के पहले और तीसरे शनिवार को
राजा के लम्बे रचनात्मक जीवन की विविधताओं से सिर्फ़ अखिलेश ही हमारा परिचय करवा सकते थे. उन्होंने बहुत आत्मीयता से हमें राजा से परिचित करवाया. ये सिर्फ़ संस्मरण नहीं है, पुनर्जन्म है.
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