रज़ा : जैसा मैंने देखा (५ ) : अखिलेश

 

प्रख्यात चित्रकार सैयद हैदर रज़ा पर आधारित श्रृंखला ‘रज़ा: जैसा मैंने देखा’ की इस कड़ी में अखिलेश ने उनके चित्रों की मूल विशेषता ‘दृश्य चित्रण’ को बताते हुए, फ़्रांस के चित्रकारों की राय रखी है. इसके साथ ही उनके व्यक्तिगत जीवन का एक अप्रिय प्रसंग भी आ गया है.

हमेशा की तरह दिलचस्प और कला की गहरी संलग्नता से भरपूर.


रज़ा : जैसा मैंने देखा (5 )

एकाग्रता से दृश्य देखने की सीख                                                     

अखिलेश 


(रज़ा)
ज़ा ने खत का जवाब नहीं दिया या बाद में जैसा मैंने उन्हें जाना कि वे विवाद आदि से बचने का प्रबन्ध करते रहे हैं. उन्हें अपने काम से मतलब रहता था. मैं भी भूल गया कि कोई ख़त लिखा था. उसके बाद बेन्द्रे साहेब से मुलाक़ात हुई और मैंने उन्हें इस बारे में बताया कि कैसे आपने हमारी नमस्ते तक का जवाब ही नहीं दिया. वे हँसते हुए बोले, ये हो नहीं सकता. और उन्हें याद ही नहीं था कि भालू मोंढे के घर एक सुबह हम चार लोग उनसे मिलने आये थे. खैर वे शर्मिन्दा थे. उन्होंने कहा प्रदर्शनी लगाओ, मैं न सिर्फ उद्घाटन करूँगा बल्कि भाषण भी दूँगा. यह फिर कभी नहीं हुआ. कॉलेज के बाद मैं अपनी नौकरी में लग गया और दिन-रात चित्र बनाने का ख्याल और स्टूडियो और मित्र, चर्चा, कविता आदि में समय तेजी से गुजरने लगा. 


रज़ा के रंगों ने नयी दिशा, ऊर्जा का संचार किया और जिज्ञासा बढ़ गयी थी. रज़ा जो उन्नीस सौ पचास में फ़्रांसीसी छात्रवृति पर फ्रांस गए थे और फिर वही बस गए. उन्होंने वहाँ लगभग साठ साल रहकर अपनी रचनात्मकता से सभी को मुग्ध किया. उनके जीवन का महत्वपूर्ण समय शुरू होता है जब उन्नीस सौ छप्पन में उन्हें 'प्री दी ला क्रितीक' पुरस्कार मिला. इस पुरस्कार की महत्ता उनके राष्ट्रीय पुरस्कार से ज्यादा थी. इसका कारण सिर्फ यह था कि वार्षिक प्रदर्शनी में अन्य पुरस्कार के साथ इस पुरस्कार का चयन चौदह कला-समीक्षक करते थे. पेरिस के इन चौदह कला-समीक्षकों का किसी एक चित्र पर सहमत होना सामान्य-साधारण बात नहीं थी और इस पर भी कि वह एक विदेशी कलाकार को दिया जाए.

               

रज़ा के चित्रों में दृश्य चित्रण का मूल स्थान है. यदि हम शुरुआती चित्र देखें तो उनमें भी रज़ा दृश्य चित्रण ही करते मिलते हैं. उन्हें छात्रवृत्ति भी इसी काम के लिए मिलती है. मुम्बई में उनकी पहली प्रदर्शनी भी इन्हीं चित्रों की होती है, जिसमें प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की नींव रखी जाती है. प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के कर्ता-धर्ता फ्राँसिस न्यूटन सूजा थे. उन्होंने रज़ा और आरा के साथ मिलकर इस ग्रुप की योजना बनाई और यह तय किया कि हम अपनी पसन्द का एक कलाकार और ग्रुप में शामिल करेंगे इस तरह सूजा हुसैन को लाये, रज़ा गाड़े को और आरा बाकरे को लेकर आये. छह सदस्यों का यह ग्रुप उन्नीस सौ अड़तालीस में बना और उस ग्रुप की एकमात्र प्रदर्शनी भी इसी साल हुई. इस प्रदर्शनी में रज़ा साहेब ने अपने दृश्य चित्र दिखाये थे.

 

दृश्य चित्रण के लिए मिली छात्रवृत्ति के दौरान काश्मीर में उनकी मुलाकात प्रसिद्ध फोटोग्राफर कार्तिए ब्रेसां से हुई. जिन्होंने उन्हें कहा कि आपके दृश्य चित्र अच्छे हैं किन्तु इसमें संयोजन की कमी है. यह रज़ा के लिए बिलकुल नयी बात थी. उन्होंने कभी सोचा न था कि चित्र में कंस्ट्रक्शन जैसी कोई बात भी होती है. ब्रेसां ही ने कहा- 'यदि इस तरह का कंस्ट्रक्शन देखना हो तो सेजां के चित्र देखिये.'

 

रज़ा के लिए यह बिलकुल नया विचार था कि जिस तरह मकान बनाने के लिए नींव रखी जाती है फिर एक-एक ईंट से उसे उठाया जाता है कुछ ऐसा ही कंस्ट्रक्शन चित्रों में  भी किया जाता है. इस बात ने रज़ा की उत्सुकता बढ़ा दी और प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के शो के दौरान ही उनकी मुलाकात फ़्रांसिसी दूतावास के राजदूत से हुई. मुलाकात में पता चला कि फ्रांस जाकर पढ़ने के लिए छत्रवृत्ति मिलती है एक वर्ष की. मगर फ्रांसीसी भाषा आना चाहिए. रज़ा ने फ्रांसीसी भाषा सीखना शुरू किया और साक्षात्कार में अधिकार के साथ बोला. उन्हें एक की जगह दो वर्ष की छत्रवृत्ति मिली और पाँचवें दशक की शुरुआत में रज़ा फ्रांस जा पहुँचे.

                  

इसके बाद उनका जीवन एक छात्र की तरह रहा, जिसमें पैसे की किल्लत से लेकर मौसम, शहर, मिजाज, और एकोल द बोजार में संग-साथ पढ़ने वालों के साथ सम्बन्ध, सम्पर्क बनाने में रज़ा को कुछ साल लगे. लेकिन  दृश्य चित्रण जारी रहा. सेजां के चित्र देखे और कंस्ट्रक्शन का विचार समझा. जिसका परिणाम चित्रों में दिखाई देने लगा और दृश्य चित्रण में ज्यामिति का प्रभुत्व बढ़ गया. चित्र में साफ-सुथरी  चित्रकारी दिखाई देने लगी. इटेलियन गॉंव हो या सुदूर फ्रांस का कोई इलाका, सबमें सीधी रेखाओं और मकान के स्पष्ट चित्रण ने जगह ले ली थी.

 

रज़ा को यात्राओं में मजा आता था और दृश्य चित्रण के लिए फ़्रांस हो या यूरोप के अन्य देश, सभी में ज्यामितिक रूपाकार स्पष्ट दिखाई देते हैं. यह स्पष्टता रज़ा के चित्रों में उम्मीद से ज्यादा दिखाई देने लगी. अब रज़ा के चित्रों में स्पष्ट रूप और शुद्ध रंग, त्रिकोण, चौकोर, गोलाकार  चित्रों की शैली बनने लगे. शायद रज़ा को ज्यामिति के महत्व की समझ इन्हीं दिनों पैदा हुई जो आखिर तक उनके चित्रों में रही.    


(रज़ा के चित्र )
                     

रज़ा के चित्रों के रूपाकार साधारणतः प्रारम्भिक थे, जो वैश्विक भाषा को सम्बोधित थे. रज़ा की यह ख़ासियत भी थी कि वे अपने स्कूल को नहीं भूले थे. दमोह के उनकी पाठशाला के शिक्षक नन्दलाल झारिया को अक्सर याद करते रहे, जिन्होंने इस बिखरे बदमाश लड़के को एकाग्र होना सिखलाया था. उन्होंने स्कूल की दीवार पर कोयले से बिन्दु बनाकर उसे देखते रहने की सजा रज़ा को सुनाई थी और इस तरह की सजा रोज पाने से रज़ा का मन स्थिर होना सीख गया था. रज़ा का चञ्चल मन अब चाहने पर एकाग्र हो दृश्य को देखना और रचना सीख चुका था. बचपन की वह सीख रज़ा के जीवन में कभी महत्वपूर्ण स्थान लेगी यह उन्होंने कभी सोचा न था. रज़ा एक सुसंस्कृत घर से आ रहे थे और उनके पिता के संस्कार ने बच्चों की पढ़ाई लिखाई पर विशेष ध्यान दिया था. अब रज़ा की दिलचस्पी कविताओं में बढ़ने लगी. रिल्के की कवितायेँ और अन्य फ्रांसीसी कवितायें पढ़ना रज़ा के दिनचर्या में शामिल हुआ. रज़ा के लिए हिन्दी, उर्दू, फ्रांसीसी और अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार उन्हें यह सुविधा दे रहा था कि इन भाषा की कविताओं को पढ़ने के सुख और उनके साथ सम्बन्ध बनाने और कभी-कभी उनसे प्रेरित हो एक चित्र की कल्पना भी कर सकते थे. 

         

इस दौरान के उनके चित्रों पर फ्रांस के जाने-माने कला आलोचक पॉल गोथिये लिखाते हैं –

“उनके चरित्र के अभिलक्षण, बचपन के हादसे. जंगल का भय, रात्रि के अँधेरे का डर, प्रातःकालीन प्रसन्नता जिससे मिलकर वे बने हैं. एक तेज-मिजाज चिन्तनशील, दृढ़, बहुरंगी प्रभाव वाले व्यक्तित्व के लिए सब कुछ लिखा जा चुका है जो उन्हें बनाने में मदद करता रहा है. दिन और रात की लय, सूर्य की बारिश की, जो उनके आधार की सतह पर है, उनके दृश्य-चित्रों का गतिशील चक्र. 'प्रकृति' और 'होने' के बीच सम्बन्धों पर उनके चुनाव की एकाग्रता और कारणों की इस खाई के आकर्षण के लिए कोई भी अचम्भित हो सकता है. क्योंकि  इस तरह आसानी से वश में कर लिए जाने के कारण कला के नियम अपनी समस्त प्राञ्जलता के साथ उन अज्ञात अन्तःप्रज्ञा के सामने लचीले हैं." 

         

इन्हीं चित्रों के बारे में जाक लासानिये लिखते हैं-

           

"रज़ा के इन चित्रों में घर, वृक्ष और पर्वत के रूपाकार समझने योग्य हैं, किन्तु इनकी भीतरी शक्ति जानने के लिए यह समझना कि यह उनका हू-ब-हू चित्रण है यह ग़लत होगा. जाहिर है कि इटली और फ्रांस के ग्रामीण इलाकों का अपना प्रभाव उड़ता हुआ या स्थायी रज़ा पर दिखाई देता है, किन्तु ये प्रभाव कलाकार के भीतरी भू- दृश्य को, जिनका प्रलोभन वर्षों उनका पीछा करता रहा है, घनीभूत और स्पष्ट कर गये हैं उनकी युवावस्था में पहचाने हुए जटिल वास्तु के उदाहरण और वैभवशाली वनस्पति की याद दिलाते हैं. उनके पहले के चित्रों में वे पूरी तरह से धुंधले अव्यवस्थित को साफ़-सुथरे दृश्य में बदलने में रुचि रखते थे. उसके बाद से उन्हें यह विश्वास हो गया कि किसी विशेष विषय के इर्दगिर्द चित्र बनाना ही चित्र बनाना नहीं है बल्कि इस जीवित जगत से जुड़ने का एक सूत्र है, जिसकी शुरुआत और अन्त का पता नहीं है और उसे ठीक से निर्धारित नहीं किया जा सकता. और यही है जिसमें रेखाओं और रंगों  की अंतहीन श्रृंखला का मौका देती है. ये चित्र हालाँकि कुछ अलग हो सकते हैं जो सहज ही उस मौसम और जगह का चित्रण है जो उनकी खोज को पूरा करती है जो उनकी यात्राओं की प्रेरणा है."

     

इन दोनों समीक्षकों के लिए भारत जितना रहस्यमय और अबूझ था, उसे समझने की कोशिश दोनों ने रज़ा के चित्रों से की. पॉल गोथिये का यह कथन थोड़ा दुरूह रूपकों के साथ है जिसमें वे रज़ा का स्मृतियों के सहारे प्रकृति के नजदीक होने की सहज प्रवृति पर आश्चर्यचकित हैं. जाक भी उनकी यात्रा, प्रकृति प्रेम, बचपन की स्मृतियाँ को ही आधार मान कर चित्रों की विशेषता बतला रहे हैं. भारत उन दिनों यूरोप के लिए नया-नया आज़ाद हुआ देश था और उसके बारे में उत्सुकता सभी को थी. रज़ा के चित्र जिसमें लैंडस्केप ही प्रमुख थे, उसका सम्बन्ध फ्रांस के इन लैंडस्केप से विषय के अर्थ में बनता ही है और दूसरा रज़ा का देखना भी शामिल था. रज़ा में यह सहजता सिर्फ इसलिए भी आ सकी कि वे दिखावा पसन्द नहीं थे. उन्हें देकार्त का यह विचार कि 'बिल्ली को बिल्ली कहो' पसन्द था. वे सीधा सम्बन्ध बनाने में विश्वास रखते थे. इन दृश्य चित्रण के रास्ते वे उन अनजान देश-परिवेश से अपना सम्बन्ध बना रहे थे.

                     

रज़ा के पिता फॉरेस्ट रेंजर के पद पर काम करते थे और जाहिर है कि उनका सफ़र जंगलों के बीच का ही था. उनके पिता सख़्त मिजाज के थे जो रूढ़िवादी न होकर बच्चों की परवरिश पर ध्यान देते थे. पिता के साथ या अकेले ही रज़ा का इन जंगलों में भटकना उनके लिए जीवन भर प्रकृति में भटकने का सबक था. फ्रांस जाकर रज़ा ने सेजां, पिकासो, ब्रॉक, शागाल के काम देखे. उनसे अपना सम्बन्ध बनाया. उनके चित्रों में अब कंस्ट्रक्शन का विचार जन्म लेता दिख रहा था. उनके दृश्य-चित्र अब मात्र प्रभाववादी नहीं रहे. उनमें ब्रश आघात, रंग-संयोजन, आकार आधिपत्य दिखाई देने लगा. रज़ा अपने चित्रों में अधिक मुखर होने लगे. रंग-चयन की स्पष्टता दिखाई देने लगी. इस दौर के इन चित्रों में Eglise, Croix sous L'orage, Nuage blanc, सेजां का प्रभाव देखा जा सकता है. जिसमें रज़ा सीधे सेजां के चित्रो का कोई अंश उठा  उस तरह के लैंडस्केप कर रहे थे.


(रज़ा के चित्र)
 

रज़ा के लिए यूरोप नई दृश्यावली थी और उसका वास्तु-शिल्प भिन्न था. हवा साफ़ और दृश्य की स्पष्टता अधिक थी और यह सब रज़ा के लिए नया अनुभव भी था. इस नए अनुभव से तारतम्य बैठाते हुए कला के नए ढंग को समझते हुए रज़ा अपनी अभिव्यक्ति की तरफ़ बड़ी से तेजी बढ़ रहे थे. फ्रांसीसी दृश्य में भारतीय रंग- संवेदना इन चित्रों की ख़ासियत थी. इसमें चित्रित उजला आकाश, निखरा भूदृश्य दर्शक को अपनी ओर खींचने की क्षमता रखते थे. ये रंग-संस्कार फ्रांसीसियों की नहीं थे. वे कुछ नए ढंग से चित्रित अपने दृश्य को देख रहे थे. यह उनके लिए अनुभव था और रज़ा के लिए अभिव्यक्ति. इस अनुभव और अभिव्यक्ति की युति ने रज़ा के लिए स्वागत द्वार खोल लिए.

 

एकोल द बोजार में दोस्तों का साथ, जानीन से मुलाक़ात, रज़ा के लिए नए संसार में पैर फ़ैलाने जैसा था. इसी दौरान हुए एक हादसे ने रज़ा को कुछ कठोर निर्णय लेने के लिए मजबूर किया. उनकी पत्नी जो विभाजन में अपने पिता के साथ पाकिस्तान चली गयीं थी. उन्हें पेरिस आने के निमन्त्रण लगातार रज़ा भेजते रहे और पितृ प्रेम के चलते वे कभी नहीं आयीं. इस दौरान रज़ा हर महीने लंदन जाकर सूजा के मार्फ़त पत्नी को गुजारे के लिए लगातार पैसे भेजते रहे. लंदन से भेजने का सिर्फ एक कारण था कि अभी तक फ्रांस ने पाकिस्तान को मान्यता नहीं दी थी. इसलिए डाक आदि की कोई सेवाएं पाकिस्तान के लिए फ्रांस में उपलब्ध नहीं थी.


लन्दन कभी न जा पाते तो सूजा को फ़ोन कर देते, पैसे भेजने के लिए और सूजा उसकी रसीद इन्हें पोस्ट कर देते. इतने लम्बे समय से रज़ा यह काम नियमित करते रहे. इधर उनकी पत्नी ने पाकिस्तान के पुलिस थाने में रज़ा के ख़िलाफ़ शिकायत कर दी कि मेरा पति मेरा ख्याल नहीं रखते. रज़ा के लिए यह बहुत डरा देने वाला अनुभव था कि एक दिन सुबह-सुबह फ्रांसीसी पुलिस इस शिकायत की पूछताछ करने घर आ गयी और जोर-जोर से दरवाजा ठोक कर आवाज़ लगाई.  तब रज़ा ने वे सारी रसीदें दिखाई जो नियमित पैसे भेजने का प्रमाण थी और पुलिस इस बेबुनियाद शिकायत पर कार्यवाही करने के लिए माफ़ी माँग चली गयी.



उसी वक़्त रज़ा ने उन्हें फोन लगा कर मुम्बई आने को कहा और वे ख़ुद वहाँ पहुँचे. मुम्बई की मस्जिद में जाकर उन्होंने तलाक़ लिया. जिसकी लिखित में हस्ताक्षरयुक्त कॉपी फ्रांसीसी दूतावास, भारत, भारतीय दूतावास, पेरिस और घर के पास वाले पुलिस थाने में जमा कर सीधे जानीन को जाकर शादी का प्रस्ताव रखा और दो महीने के भीतर ही जानीन से ब्याह कर फ्रांस में जीवन की नयी शुरुआत की. 

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56akhilesh@gmail.com


क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

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