सुप्रसिद्ध
चित्रकार सैयद हैदर रज़ा (२२ फरवरी,१९२२–२३ जुलाई, २०१६) के व्यक्तित्व, कृतित्व और स्मृतियों पर आधारित श्रृंखला ‘रज़ा :
जैसा मैंने देखा’ के इस
दूसरे भाग में चित्रकार अखिलेश ने रज़ा के सौम्य और आकर्षक व्यक्तित्व का
खाका खींचा है. चित्रकारों की दुनिया की दिलचस्प बातें और उनकी कला पर यह बेहद
आत्मीय अंश प्रस्तुत है.
रज़ा : जैसा मैंने देखा (२)
वह सौम्य सलीका
अखिलेश
दूसरे दिन सुबह ही मैं रेसीडेंसी कोठी जा पहुँचा. रज़ा तैयार मिले वे बाहर ही
बैठे थे. मैंने उन्हें नमस्ते कहा. वे मुझे देखकर खुश हुए और बैठने का इशारा किया. एक
बार फिर उन्होंने मुझसे चित्र के विषय में पूछा और डायरी निकाल कर कालिदास,
ऋतु संहार नोट किया. पौने छ: बज चुके थे. उन्होंने घड़ी देखी. उनका
लवाजमा अभी तक नहीं आया था इसकी चिन्ता उनके चेहरे पर दिखने लगी. उन्होंने मुझसे
पूछा ऐक्रेलिक रंगों के बारे में. जाहिर है कि मैं पहली बार सुन रहा था इस तरह के
रंग के बारे में और कुछ नहीं जानता था. उन्होंने बतलायी उसकी विशेषता और अन्दर अपने कमरे में चले गये. लौटते में उनके हाथों में
ऐक्रेलिक रंग का डब्बा था. उन्होने मुझे देते हुए कहा आप इसे इस्तेमाल कर देखें.
आपको इसमें जल रंग और ऑइल कलर दोनों का इफ़ेक्ट मिलेगा. मैंने खोल कर देखा.
ऐक्रेलिक रंग की बारह ट्यूब करीने से सजी रखी थीं. एक रोमांच नए रंग का मेरे भीतर
उठा और बैठ गया.
उन दिनों हम लोग बहुत काम किया करते थे. मैं, प्रकाश घाटोले, दरियाव आदि कुछ गंभीर विद्यार्थी थे और हमें सक्सेना सर ने छूट दे रखी थी कि देर तक रुक कर काम कर सकते हैं. कॉलेज बारह बजे बंद हो जाता था और सभी विद्यार्थी चले जाते थे. साढ़े बारह तक हम दो चार ही बचते थे जिनकी रुचि काम करने में थी. ऐसे ही एक दिन हमारे ऑफिस के मेहता बाबू ने मुझे बुलाकर कहा, आपकी इस साल की फीस जमा नहीं हुई है. उनके कहने का अर्थ था कि पिता कई दिनों से आये नहीं हैं. वे ही मेरी फीस जमा कर दिया करते थे. मैंने भी ध्यान नहीं दिया था और शाम को घर पर पिता को कहा कि मेरी फीस जमा नहीं हुई है. मेहता बाबू आपको याद कर रहे थे. पिता ने दो रुपये देते हुए कहा ये जमा कर देना. अभी तक के चार महीने की फीस बाकी मैं बाद में आकर जमा कर दूँगा. मेरे आश्चर्य का विषय था कि हमारे कॉलेज की फीस आठ आना महीना थी. इससे ज्यादा की हम लोग चाय पी जाते थे. साल भर की फीस छह रुपये.
उन दिनों रंग महँगे आते थे और रंग की कमी लगातार सताती थी. एक ट्यूब पिचहत्तर पैसे की आती थी और खरीदना सम्भव नहीं था. बहुत काम करते थे, सो रंग-संकट बना रहता था. इस रंग-कमी को दूर करने का उपाय खोजा गया. कॉलेज में ऐसी कई छात्राएँ थीं, जो शादी के इंतज़ार में कॉलेज में भर्ती हो जाती थीं और उनके लिए पैसे की कोई कमी न थी. हमनें, घाटोले, दरियाव और मैं, कॉलेज में यह बात फैला दी कि जिसे भी सेशनल वर्क कराना है तो हम लोग कर देंगे. यह काम मुफ़्त में करेंगे. सिर्फ रंग और अन्य सामग्री हमें दे दी जाये और हफ़्ते भर में अपना सेशनल ले जाये. कुछ ही दिनों में कई लड़कियों ने हमें रंग आदि लाकर दे दिए. इससे दो फ़ायदे हुए. एक हम लोगों को काम करने का ज्यादा मौका मिलता, दूसरा रंग बहुत बच जाते थे खुद के काम के लिए. जब इतने सारे रंग देखे तो मेरी बाँछे (श्रीलाल शुक्ल की स्मृति में सादर) जहाँ कहीं भी थी खिल गई.
इधर रज़ा साहेब की चिंता बढ़ रही थी. वे स्टेट गेस्ट थे और उनका कारवाँ सुबह
पौने छ: बजे आ जाना चाहिए था, जो
अभी तक नहीं आया था. बेकरारी में उन्होंने मुझसे चाय के
लिए पूछा और खानसामा को आवाज़ लगाई कि दो कप चाय बना दीजिये. उनकी बैचेनी मुझसे
छिपी नहीं. वो कॉलेज और यहाँ के कला माहौल के बारे में बात कर रहे थे और उनका
ध्यान दूसरी तरफ़ भी था. मैंने उन्हें बताया मेरी पहली प्रदर्शनी के बारे में. एक
सौ दस फ़ीट की एक ही ड्राइंग के बारे में. थोड़ी देर के लिए वे मेरी बातों में
दिलचस्पी लेने लगे. उन्होंने कहा कि वो ड्राइंग देखना चाहेंगे. जब मैंने उन्हें
बताया कि निकालते वक़्त फट गई तो उन्होंने कहा कि कलाकार की जिम्मेदारी सिर्फ चित्र बनाना ही नहीं, बल्कि
अपनी कलाकृतियों की देखभाल, रख-रखाव, फ्रेमिंग, मॉउंटिंग आदि पर भी पकड़ रखने की होती है.
यह बात बाद में जाकर खुली जब पेरिस और गोर्बियो (गोर्बियो, दक्षिणी फ्रांस में रज़ा का ग्रीष्मकालीन घर-स्टूडियो है
जहाँ वे हर वर्ष गर्मियाँ शुरू होते ही चार महीने के लिए चले जाते थे) में मैंने उनके साथ कुछ वक़्त गुजारा और देखा कि रज़ा साहेब अपना चित्र बनाने के बाद उसकी फ्रेमिंग भी खुद ही करते थे.
उसी दौरान उन्होंने बताया कि कैसे करन काटी जाती है.
कैसे उसको नब्बे के कोण पर काटकर आपस में मिलाया जाता है और कैसे ये काम ख़ुद ही
अकेले करना चाहिए, बिना किसी बढ़ई के मदद के. रेसीडेंसी कोठी
के उस एकान्त में बैठे जब रज़ा साहेब ये सब मुझे बता रहे थे तब मेरा ध्यान इस पर
कम गया. कम गम्भीरता से इन सब बातों को सुना, मेरा
आनन्दातिरेक इस बात में था कि रज़ा साहेब घर आने वाले हैं और उन्हें ले जाने के लिए
मैं आया हुआ हूँ.
अब तक रज़ा साहेब का धैर्य चुक गया था फिर भी उन्होने बताया कि ऐक्रेलिक रंगों के लिए कैनवास भी खास किस्म का होता है. यहाँ मिलाने वाले कैनवास आयल कलर के लिए बने हुए
हैं जिन पर इन रंगो को लगाया नहीं जा सकता. इन रंगो का आधार पानी है और वो कैनवास
आयल कलर के लिए बना है तो ये रंग उस पर टिकेंगे नहीं. ये मेरे लिए नई बात थी. हम
लोग एक ही कैनवास को जानते थे. वो कैनवास भी गुणवत्ता में खरा नहीं उतरता था. रज़ा
साहेब ऐक्रेलिक कैनवास के बारे में बता रहे थे. उन्होंने पूछा कि क्या यहाँ मिलता
है ये कैनवास. मैंने बताया कि सिर्फ एक ही तरह का कैनवास मिलता है. वे अन्दर चले गए और जाकर ऐक्रेलिक कैनवास का रोल
उठा लाये और मुझे देते हुए कहा, आप इस कैनवास पर इन रंगों का
इस्तेमाल कीजियेगा. ये विशेष रुप से इन्हीं रंगो के लिए बना है. मेरे पास दो चीज़ें हो गयी थीं.
रज़ा साहेब ने सीढियाँ नीचे उतर कर उस मार्ग की तरफ देखा, जहाँ से पुलिस कारवाँ आने वाला था. उसका कोई निशान न पाकर
वे लौट आये. खानसामा चाय ले आया और कप में चाय डालकर हम दोनों के सामने रख चला गया.
हम लोग चाय पीने लगे. रज़ा साहेब के चेहरे पर चिन्ता झलक रही थी. छह बज चुका था और रज़ा बैचेन हो रहे थे. इत्मीनान से चाय पी गयी. जब थोड़ा
और समय गुजरा उन्होंने मुझसे कहा कि आप कह रहे थे घर पास ही है, दो मिनट का रास्ता है. चलो चलते हैं. उन्होंने खानसामा को बुलाकर हिदायत
दी कि उनका कार-कारवाँ आये तो उन्हें यहीं रोकना. मैं वापस यहीं आऊँगा. हम दोनों
पैदल चल दिये. रेसीडेंसी कोठी के गेट तक पहुँचे ही
होंगे कि धड़धड़ाती हुई उनकी तीन कारें आकर रुकी. उनमें से कुछ पुलिस इंस्पेक्टर
उतरे और सैल्यूट मार कर बीच वाली कार का दरवाजा खोल कर खड़े हो गये. रज़ा ने पहले
उन्हें समय पर न आने पर झाड़ा फिर हम दोनों बैठे. कार चल पड़ी. मेरे लिए दूसरा
आश्चर्य घर पर इंतज़ार कर रहा था.
मेरा घर कार से और पास आ गया था और उतरते वक़्त रज़ा ने कहा- वाकई दो मिनट का
रास्ता था, नहीं तो यहाँ दो मिनट
का बोलते हैं और घण्टों में मिनट बदल जाते हैं. रज़ा साहेब ने तत्काल ही बतलाया कि
पेरिस में भारत से आने वाले मित्रगण समय का ध्यान नहीं रखते और ख़ुद का मूल्य नहीं
समझते हैं. कहते कुछ हैं करते कुछ. शाम को आने का वादा करेंगे और नहीं आयेंगे,
फ़ोन भी नहीं करेंगे. फिर चार दिन बाद मिलने पर भी नहीं बताएंगे कि
क्यों नहीं आये. पूछने पर अरे हाँ एक काम आ गया था इसलिए नहीं आ सका कहकर भूल
जायेंगे. ये बात आप ध्यान रखियेगा जो व्यक्ति अपने बोले गए शब्दों पर ख़ुद भरोसा
नहीं करता उसके शब्दों पर दूसरे लोग भरोसा क्यों करेंगे.
कार रुक चुकी थी पुलिस वाले ने दरवाजा खोला और कार से उतरने से पहले रज़ा ने घर की तरफ़ गौर से देखा.
फिर उतरे. उनका स्वागत पिता, देवेश और कादिर ने किया. कादिर
जो मेरा बचपन का मित्र था. वह कॉलेज में नहीं पढ़ता था और चित्र बनाता था. उसे रज़ा साहेब से मिलने का मौका मिल सके और अपने काम दिखा सके, इसलिए मैंने उसे घर बुला लिया था कुछ चित्र लेकर. वह सुबह ही आ गया था.
कादिर हँसमुख स्वभाव का प्यारा इंसान है. उसका परिचय
कराया, रज़ा साहेब युवा कलाकारों में रुचि रखते हैं यह तब
नहीं पता था. वे स्टेट गेस्ट थे और एक मशहूर व्यक्ति. उनके इस प्रभामण्डल से हम लोग प्रभावित थे. इसके पहले हमारे घर कोई स्टेट गेस्ट नहीं आया था.
और अब मेरे दूसरे अचम्भे की बारी थी. रज़ा घर में घुसे कुछ इस तरह से, मानो यह जगह उनकी परिचित हो. वे अन्दर आये एक नज़र भर उन्होंने दीवार पर देखी, मैंने एक तरफ़ अजन्ता का एक दृश्य चित्रित किया हुआ था दूसरे पर काँगड़ा मिनिएचर, राधा-कृष्ण का चित्र बनाया हुआ था. बने चित्रों को देखा और बीच के कमरे से होते हुए दालान में आये. फिर ख़ुद ही उस कमरे में पहुँचे, जो घर में मम्मी का कमरा नाम से जाना जाता था. हमारे घर में तीन-चार तख़्त हुआ करते थे. वे इतने बड़े और भारी थे कि सिर्फ दीवाली की सफ़ाई के वक़्त ही पुताई के लिए उन्हें खसकाया जाता था. जिसके लिए भी चार या पाँच लोग लगा करते थे. रज़ा साहेब ने कमरे को देखा. कमरे में रखे उस तख़्त की और इशारा कर रज़ा ने पिता से पूछा यहीं सोता था न मैं. पिता ने सर हिलाकर मुस्कराते हुए कहाँ, हाँ. रज़ा साहेब ने कमरे की दीवारों को छुआ. उनकी आँखों में तरलता की चमक थी. रज़ा कमरे से बाहर आए. दालान में ध्यान से देखते हुए आँगन में गए. वहाँ घुटनों के बल बैठ गए और मिट्टी उठाकर अपने माथे लगाई. फिर आँगन में लगे दो अमरूद के पेड़ देख कर बोले-ये पेड़ नहीं थे यहाँ ? पिता ने बतलाया हाँ ये नए पेड़ हैं वो ख़त्म हो गए थे. रज़ा ने आँगन ध्यान से देखा. आँगन में एक बेल का वृक्ष और दो अमरूद के पेड़ थे. गुलाब का झाड़ीनुमा पौधा था. वे पेड़ के पास गए उन्हें छुआ और वापस आए. रज़ा ने ध्यान से कवेलू वाली छतों और आँगन के दूसरे हिस्सों पर नज़र डाली, मानों अपने बिताये हुए समय को ढूंढ रहे हो. मेरे लिए यह सूचना चौंकाने वाली थी कि रज़ा इस घर में रह चुके हैं.
मैंने कादिर से अपने काम दिखाने को कहा. कादिर को मैंने दो-चार काम लाने को कहा था, वो लगभग तीन सौ काम
ले आया था. कादिर का छोटा भाई कुद्दुस भी आया हुआ था. रज़ा ने काम देखना शुरु किए.
बीच-बीच में रज़ा कुछ पूछते भी जा रहे थे. कादिर का उत्साह भी मौजूं था. जल्दी ही रज़ा ने देख कर मुझसे कहा- मुझे आपके काम देखना है. पिता उन्हें
अन्दर ले आए. जो आगे का कमरा कहलाता था और ड्राइंग-रुम था. वे अंदर आगे के कमरे में आए. वहाँ बैठ मेरे कुछ काम देखे. मुझे इस बात पर
भी आश्चर्य था कि रज़ा घर में रह चुके थे. यह बात पिता ने कभी मुझे बताई न थी. बल्कि कॉलेज में भी ऐसे ही
मिल रहे थे मानों परिचय की प्रगाढ़ता हो ही नहीं. वर्ष अड़तालीस
में जब रज़ा को हिन्दुस्तान घूमते हुए लैंडस्केप करने की छात्रवृत्ति मिली थी,
उस दौरान वे इंदौर हमारे घर तीन-चार महीने रहे थे, हमारा घर उनका बेस-कैम्प था. यहीं से वे औंकारेश्वर, महेश्वर और दूसरी जगह लैंडस्केप करने जाया करते
थे. इतने लम्बे समय रज़ा घर में रहे हैं, पिता उनके दोस्त हैं,
यह बात पिता ने कभी नहीं बताई और कॉलेज के स्वागत भाषण में भी इसका
जिक्र तक नहीं किया.
रज़ा का इस तरह से नजदीक होना मुझे समझ नहीं आ रहा था और दूरी का अहसास भी
था. रज़ा का स्नेह और उनका सरोकार साफ़ दिख रहा था. कुछ और बातें भी हुई, जिनकी तरफ से मुझे निराशा ही हुई. पिता ने हमें हर अवसर को
मनाने का सादा तरीका बतलाया हुआ था. सादगी और सुरुचि उनका विशेष गुण था. वे हमेशा इस बात के लिए चौकन्ने रहते थे कि विशेष अवसर पर कुछ खास न करो,
तो कम-से-कम साफ़-सुथरे कपड़े पहनो. उनकी सुरुचि से कोई भी प्रभावित हुए बिना
नहीं रहता था किन्तु आज उन्होंने घर में पहनने वाली लुंगी और बेतरतीब से स्वेटर पर
शाल ओढ़ रखा था. जो मुझे बिलकुल ही अच्छा नहीं लगा था. रज़ा जो सुरुचि का विशेष
ख्याल रखते थे, उनके मित्र द्वारा उनका स्वागत इतनी आत्मीयता
से हुआ कि उन्होंने रज़ा को पहले की तरह ही ट्रीट किया. रज़ा जितनी भी देर रहे, कुछ खाया नहीं. उनके लिए तरह-तरह का
नाश्ता बनाया गया था, जो उनकी सेवा में लगे पुलिस वालों की
भेंट चढ़ गया था. रज़ा ने सिर्फ काफ़ी पीने की इच्छा जाहिर की और रुचि से मेरे काम और
स्केच बुक देखते रहे. कुछ सुनते, बताते रहे. उन्होंने पिता से उनके समय की कुछ बातें शुरू की. बड़े मियाँ के कबाब से
लेकर जे. जे. की कठिन परिस्थिति पर बात चली. थोड़ी देर में वे दोनों पुराने दिनों की स्मृति में गोते लगा रहे थे.
वे सिर्फ एक घण्टे के लिए आए थे. उन्हें सात बजे किसी और से मिलने जाना था किन्तु
अब देर हो चुकी थी. उन्होंने एक पुलिस अफसर से कहा उन्हें जाकर बतला आने को कि वे
देर से आयेंगे. रज़ा ने सुबह का समय मेरे घर और अपने
दोस्त के साथ उन स्मृतियों में बिताया जो उनके समय की
थीं. मेरे लिए यह नयी सूचना थी और पिता के निरपेक्ष होने की इन्तहा भी.
रज़ा का इंदौर आना मेरे लिए ही नहीं, सभी
कलकारों के लिए उत्साह और प्रेरणा का कारण था. हम सबके मन में हुसैन की शाश्वत छवि
कलाकार की छवि थी. जिस पर हल्की सी खंरोच लग चुकी थी. हम सभी को अहसास हुआ कि
कलाकार के प्रकार कई हो सकते हैं. ऐसा नहीं है कि इसकी कोई अनुभूति मुझे न थी या
अन्य कलाकारों को न थी. मेरे पिता ख़ुद चित्रकार थे और हमारे घर शहर के सभी कलाकार
आया करते थे और वे सब एक-दूसरे से बेहिचक अलग थे. विष्णु चिंचालकर और धवल क्लांत
में जमीन-आसमान का फ़र्क था. किन्तु रज़ा जैसा कोई कलकार देखा न था. इसके पहले हुसैन,
बेन्द्रे, रामकुमार आदि से मिल चुके थे किन्तु
हुसैन के अलावा किसी की शख्सियत में यह दम न था कि प्रभाव पड़े. रज़ा इन सबसे अलग
सौम्य कलाकार की तरह मस्तिष्क में दर्ज हुए.
56akhilesh@gmail.com
पहला हिस्सा यहाँ पढ़ें _______________________
क्रमश :
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को )
(सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)
सलीकेदार लेख.. अपनत्व से भरा है... रज़ा साहब स्नेहिल तो थे ही.. हर एक बात को देखकर..आत्मसात
जवाब देंहटाएंबहुत महत्वपूर्ण आलेख है आत्मीयता से भरा हुआ।
जवाब देंहटाएंकितना आत्मीय संस्मरण। अखिलेश जी की भाषा सादी और प्रवाहमान होती है।
जवाब देंहटाएंबनते हुए कलाकारों के बीच एक सहृदय सिद्ध कलाकार की इन्वॉल्व्ड उपस्थिति का अद्भुत संस्मरण। अखिलेश जी के पिता जी की तटस्थता का रहस्य ? शायद अगली किस्त में खुले ! प्रतीक्षा है !
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