सुप्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा (२२ फरवरी,१९२२–२३ जुलाई, २०१६)
के
चित्रों में बिंदु और वृत्त की उपस्थिति से सम्मोहक आकर्षण पैदा होता है. उनके
चित्रों और रंग-संयोजन पर चर्चा कर रहें हैं, रज़ा पर आधारित ‘रज़ा : जैसा मैंने
देखा’ के इस तीसरे हिस्से में चित्रकार अखिलेश.
प्रस्तुत है.
रज़ा : जैसा मैंने देखा (३)
सैलाब में नीले का घर
अखिलेश
रज़ा इंदौर से वापस भोपाल चले गए. और छोड़ गए उनके रंग. उनके चित्र मेरे मन-मस्तिष्क के आकाश पर फ़ैल चुके थे. मुझे रंगों की महत्ता का अहसास हो रहा था. घर पर आने वाले कलाकारों से पूछता था कि चमकदार पीला या नीला कैसे लगाया जा सकता है और उनके जवाब अलग होते थे. उन सभी का अपना अनुभव था. जिसे वे बताते किन्तु मेरे हासिल कुछ न आता. मैं रज़ा की तरह तो रंग नहीं लगा सकता था किन्तु रंग वैभव के असर को पकड़ना चाहता था. चित्र में रंग का असर मैं महसूस कर चुका था और उसके प्रभाव में था.
मेरे पिता के एक विद्यार्थी थे धवल क्लान्त, जिनके चित्र बनाने का ढंग उन दिनों इंदौर में काम कर रहे अन्य कलाकारों से अलग था. मुझे उनके चित्र पसन्द थे. मैंने उनसे भी पूछा. उनका जवाब था यदि रंग समझना चाहते हो तब छह महीने सिर्फ काले रंग में काम करो. मुझे मानो राह मिल गयी. उन्हीं दिनों मैंने ब्लैक ग्रुप बनाने की योजना पर काम शुरु किया. हम आठ चित्रकारों का यह ग्रुप रंग पर भी काम करेगा. हर वर्ष किसी एक रंग को चुन सभी सदस्य उस रंग में चित्र बनायेंगे. इस तरह रंग परिचय भी होगा. उस वर्ष काला रंग चुना गया. रंग जानने के इस सार्वजनिक जतन ने काम नहीं किया. किन्तु मेरे जुनून ने मुझे इस काले रंग के साथ अगले दस साल तक बाँधे रखा. रज़ा के चित्र याद थे और उनके रंग-वैभव का पीछा मैं काले रंग से कर रहा था.
यह रंग, यह राजसी नीला अपने शान्त स्वभाव के लिए जाना जाता है. यही नितान्त शान्त
रंग रज़ा के इस चित्र सैलाब में पारदर्शी हो जाता है. इसकी ओट में अनेक जलते हुए
क्षण की ऊष्मा को दर्शक अनुभव कर सकता है. चित्रकला के संसार में कुछ नीले उदाहरण
हमें याद आते हैं. गुएर्निका में काला और ग्रे के साथ विषण्ण, मंथर नीला, ईव्स क्ले का गहरा निमग्न नीला, सूजा, हुसैन के चित्रों का नीला, बेन्द्रे के चित्रों का नीला. अनेकश: नीला और नीला. यह रंग अनेक मन:स्थितियों
और अभिव्यक्तियों से ताल्लुक रखते हुए आपको आकर्षित करता है. राजसी वैभव के साथ
इसका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रिश्ता, इसकी ठण्डी, शमनकारी अनुशासित निषेधात्मकता,
इसका एकाकीपन, इसकी रहस्यात्मक तटस्थता और इसी
के साथ दूसरे जघन्य पक्ष भी नील की व्याप्ति में शामिल हैं. कैनवास पर नीला,
विलक्षण है, सुन्दर ढंग से विषण्ण है, मृत्यु पर्यंत अनुभूत है वहाँ बना रहता है.
रज़ा के इस चित्र में नीला का दूसरा पक्ष है जो निश्चय ही इस नीले का नया आयाम है. वे उसकी शान्त उदासी को पोंछकर एक नवजात ज्वलंत नीले का आविष्कार करते हैं.
रज़ा के पिता वन-विभाग में काम करते थे और रज़ा उनके साथ जंगल-जंगल भटका करते थे. शायद रज़ा के मन में उस जंगल के अँधेरे में रंग को खोजना रंग की कई परतों को जानना हुआ. भटकते हुए जंगल के रहस्यों में रंग के रहस्य को खोज निकालना, रज़ा की बचपन-स्मृति का अंश होगा. जिसे इतने सालों की भटकन के बाद रज़ा ने हासिल किया. सैलाब में रज़ा ने नीले रंग को जिस लापरवाह तरीके से लगाया, उसमें एक खास किस्म का चौकन्नापन है. सधे हुए ढंग से अराजक होना आसान नहीं है. रज़ा के रंग आकर्षित करते हैं और हमें सम्मोहित करते हैं. इस सम्मोहन के रास्ते हमें एक असीम अधिभौतिक अवकाश में ले जाने के लिए भी अभिप्रेरित करते हैं. यह अवकाश हमें रंग के मर्म तक पहुँचा सकता है - रंगों के उस आध्यात्मिक जगत में जहाँ वे अपनी पहचान में जीते हैं, जहाँ वे किसी भी दूसरी इयत्ता में अनूदित नहीं किये जा रहे हैं. वे यहाँ शुद्ध रंग हैं. रंग का मर्म, रंग का घर प्रतीत होता है, या यूँ भी कह सकते हैं : सैलाब में नीले रंगों को अपना घर मिल गया है. यहाँ वे आवेगशील ढंग से आकर्षक, उदास और सघन हैं, यह प्राञ्जल अवस्था है. आध्यात्मिक अवस्था.
रज़ा और रंग एक हो गए लगता है. रंग का
आचरण रज़ा की सोच से संचालित होता लगता है. यह नीला रज़ा को अपने समकालीनों से अलग
करता है. यह रंग प्रयोग किसी और चित्रकार द्वारा किया गया हो ऐसा मैंने अब तक देखा
न था. रंग अब तक मेरे लिए प्राथमिक नहीं थे उनके महत्व का अहसास इस एक प्रदर्शनी
से हुआ. इसने मेरे देखने को प्रभावित किया, बल्कि खोल दिया. हमने पढ़ा था कि बेन्द्रे रंग-बाज़ हैं किन्तु रज़ा के चित्र
देखकर मुझे लगा रज़ा रंग को समझते हैं. रंग के साथ उनका सम्वाद चलता है. रज़ा ने रंग
के पारम्परिक उपयोग से इतर अपनी पैलेट तैयार की है. इसमें रंग माध्यम नहीं बचा.
उधर बेन्द्रे के रंग लगाने में जोख़िम नज़र नहीं आता. वे एक सुन्दर चित्र कैसे बनाया जा सकता है, इसमें सिद्धहस्त थे. उनके चित्रों में रंग-शहद था. मनभावन, सजावटी रंग बेन्द्रे के चित्रों का सार है. उन रंगो में रोमांच नहीं है न देखने में कोई प्रेरणा मिलती है. मुझे कई बातें पता चली, उस एक प्रदर्शनी से. मुझे रज़ा और हुसैन, हुसैन और बेन्द्रे, बेन्द्रे और बी. प्रभा, बी. प्रभा और अमृता शेरगिल के बीच के फ़र्क़ समझ आने लगे. चित्र देखने की तमीज़ पैदा हो रही थी.
रज़ा के चित्रों में दूसरा चित्र राजस्थान था जो मुझे बहुत कुछ किसी मिनिएचर चित्र जैसा लगा. उसमें रंग प्रयोग सैलाब से अलग था. चित्र में लाल रंग की प्रमुखता उसके आकर्षण का कारण था. रज़ा ने उसका लाल कुछ इस तरह लगाया था कि वह दर्शक को अपनी तरफ खींच लेता है. रंग में विकर्षण नहीं था. इस चित्र को देखकर लगा कि रंग का व्यवहार रंग नहीं तय करता चित्रकार करता है. रज़ा ने लाल में वह चमक और चौधराहट भर दी थी कि उसके ठाठ नज़र आ रहे थे. यह सब मैं उन दिनों ही समझ गया, ऐसा न था. यह कुछ ऐसा था कि आपके विचार को कोई खोल गया. अब आप जब भी कोई रंग देख रहे हो तब सिर्फ रंग ही नहीं देख रहे हो. बल्कि उस रंग के सहारे अभिव्यक्ति की क्षमता, रंग से रंग का सम्बन्ध, रंग का दुनिया से सम्बन्ध, रंग के अन्य प्रयोग, अन्य कलाकारों द्वारा रंग प्रयोग यानी अनन्त राह पर विचार चल पड़े. हम उसी देखने को लगातार परिष्कृत करते रहते हैं. यह परिष्कार दूसरों को बाँटते भी हैं. रज़ा के इस चित्र में लाल रंग के सम्बन्ध अन्य रंगों के साथ कुछ ऐसे बने थे कि वे लाल के लाल को और उजागर कर रहे थे. इन रंग-सम्बन्ध पर मेरा ध्यान पहले कभी नहीं गया था. यहाँ देखकर मुझे लगा सिर्फ लाल रंग लगाने से लाल रंग नहीं दिखता बल्कि अन्य रंगों के सन्दर्भ में लाल रंग प्रकट होता है. यह प्रकट न का विचार पहले कभी नहीं आया था. रंग का प्रकट होना ही उसकी आभा है. और प्रकटन के लिए दूसरे रंग होना जरुरी है. दूसरे रंग का कौन सा टोन हो यह जानना जरूरी है. टोन कितना गहरा या हल्का हो यह अनुभव की बात है. रज़ा रंग के बारे में सोचते हैं. इस सोच में रंग-सम्बन्ध पैदा होते हैं. रज़ा रंग देखते हैं और यह देखना प्रकृति प्रदत्त है जिसमें प्रकृति चित्रण से यह समझ शायद बनी हो या कि बचपन में जंगल-जंगल भटकने से. कहना मुश्किल था किन्तु रंग-प्रमाण सामने थे. उसका प्रभाव था. रज़ा रंगों से प्रेम करते हैं. यह स्पष्ट था.
रज़ा के रंग आकर्षित करते हैं. वे रंग प्रबुद्ध हैं. रज़ा रंगों, रंग-सम्बन्धों, रंग-विचार से रंग को रंग के करीब ले आये. इसी प्रदर्शनी में उनकी कलाकृति 'सूर्य' प्रदर्शित थी. जिसमें सूर्य नहीं था. एक काला बिन्दु, कैनवास चार भागों में विभाजित था और सबसे नीचे वाले चौकोर में एक काला गोल सूर्य चमक रहा था. यह उस सूर्य का चित्रण नहीं था, जिससे सब परिचित हैं. यदि मैं कह रहा हूँ कि काला सूर्य चमक रहा है तो वास्तव में वह चमक नहीं रहा था.
रज़ा ने उसे काले रंग से चित्रित किया. जिसमें ज्यादा पानी डाल लेने
से रंग की चमक फीकी पड़ जाती है. इस तरह का काला रंग लगाया. एक फीका सूर्य, जिसकी चमक उस चित्र में अन्य तीन चौकोर में चित्रित रूपाकारों के सानिध्य
में सूर्य अपनी चमक हासिल कर रहा है. इस चित्र की संरचना में ज्यामिति का इस्तेमाल
किया रज़ा ने और वह चार छोटे-छोटे कैनवास में विभाजित होकर एक चित्र का हिस्सा थे.
शेष तीन विभाजित चौकोर में रज़ा के उन दृश्य चित्रण का अनुभव चित्रित था जो अब कहीं
नहीं हैं. याने वे लैंडस्केप की स्मृतियाँ नहीं थी. वे न ही लैंडस्केप का अनुभव था.
यह पूरी तरह चित्र की प्लास्टिसिटी है. चित्र की चित्रात्मकता इसी से बन रही है.
रज़ा चित्र को दृश्य, अनुभव, अहसास से
बाहर ले आये और चित्र अपनी इयत्ता में खड़ा हुआ है. इस अवसर पर एक छोटा सा कैटलॉग
बाद में प्रकाशित हुआ था जिसमें मृणाल पाण्डे ने रज़ा के चित्रों पर लिखा:
'अपनी उन्मत्त कला ऊर्जा से दमकते रज़ा के चित्रफलकों का हमारी रंग संवेदना पर तात्कालिक असर तो एक हर्षपूर्ण अचम्भे का होता है, कि कैसे यह सम्भव हुआ होगा ? कि परिचित रंगों के यह अपरिचित आयाम कहाँ छुपे रहे होंगे अब तक ? पर चैन से बैठे कर सोचने के बाद लगता है कि उनकी सारी असाधारणता के बावजूद उनका संयोजन कितना अपरिहार्य था. रंगों के इस फलकबद्ध संसार में वे रंगाकार सिर्फ़ उसी माध्यम से गढ़े जा सकते थे, अन्य प्रकारेण नहीं, और उस चित्र धरातल पर वे उसी प्रकार आ सकते थे, और किसी रूप में नहीं. हर बेहतरीन कलाकृति की तरह रज़ा की कला का मुहावरा एक साथ अद्वितीय भी है और सार्वभौम भी. बात विरोधाभासी लग सकती है, पर कला के उस संसार के परिप्रेक्ष्य में, जहाँ तर्क निरन्तर तर्कातीत से टकराता है, सत्य हमेशा विरोधाभासी ही प्रतीत होता है. रज़ा के चित्रों को हम चाहे जिस तरह देखें, हम पायेंगे कि मूर्त्त से अमूर्त्त होने की पूरी जैविक प्रक्रिया बहुत सुथराई और सहजता से उनमें अभिव्यक्त हुई है. और ज्यों-ज्यों उनकी कला प्रौढ़ होती गई है, ब्राह्य अलंकरणों, यात्रा में उपादानों के प्रति मोह खुद-ब-खुद पीछे छूटता चला गया है. पर इक हरे होते जाने की इस दुस्साध्य और जोखिम से भरी पूरी, उनके रंगाकारों की रचनात्मकता ऊर्जा बरक़रार रही है. चाहे वह फीकी आभा से चमकता धूमिल सूर्य का ज्यामितिक आकार हो, या पगलाए नीले सैलाबों का हहराता अमूर्त उफान. हर कहीं उनकी कला ऊर्जा के दुर्धर्ष आवेग में एक सुनिश्चित दिशा है, जो पिघले इस्पात सी कलाकार की माध्यमगत पकड़ का दृढ़ अहसास दर्शक को निरन्तर देती जाती है. उनके फलक देखते हुए कई बार मुझे किंग लियर के विदूषक का कथन याद आया है - 'उसके उन्माद में भी एक व्यवस्था है.'
रज़ा के रंग-प्रयोग पर मृणाल पाण्डे ने
बहुत ही भेदी नज़र से लिखा है. इसी कैटलॉग में प्रसिद्ध फ़्रांसिसी आलोचक पॉल गोथिये
लिखते हैं:
संसार का मूल, समस्त चेतन जीवों का आधार 'बिंदु' शक्ति का, ऊर्जा का आदि स्रोत है, और इस बिंदु में ही पाँच महातत्वों का समावेश हुआ है. क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर. इन पाँच महातत्वों के अनुरूप ही ज्योति के वे पाँच स्रोत हैं जो सूर्य किरणों में मूल रंग बनकर घुल-मिल गए हैं : कृष्ण (काला), पद्म (पीत), नील (नीला), तेजस (लाल), शुक्ल (श्वेत) जाहिर है रज़ा ने इन मूल परिकल्पनाओं को लेकर ही कला के क्षेत्र में पदार्पण नहीं किया, बल्कि वे अपनी कला के माध्यम से इन तक पहुँचे हैं. फ्रांस में लम्बा अरसा बिता चुकाने के बाद ही यह बात उन्होंने महसूस की है और उनका बार-बार भारत लौटना इसी का अंग है. राजपूताना कलम से निकली रागमालिका अनुकृतियों के मूल में भी यही भावना काम कर रही है. रागों में, रागमालिकाओं में, वैष्णव धर्म के विशुद्ध चिन्तनमूलक भक्ति अंग में, सब में रज़ा कला के मूल तत्वों को निरन्तर टटोलते रहे हैं-सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिवर्तनों को भी उकेर पाते है जो दिन के उगने से लेकर डूबने तक, हमारे चारों ओर निरन्तर होते रहते हैं. पाँच तत्वों, पाँच इन्द्रियों और ओढव स्वर समूह के अनेकानेक प्रकारों को लेकर यहाँ उनके विभिन्न मेलों की सृष्टि की गई है- चरम कमी, अंतिम लय यही कि आत्मा ही विशुद्धतम पदार्थ बन जाये.
इस तरह हम देखते हैं कि रज़ा के चित्रों पर बात करते हुए पूर्व और पश्चिम के लोग एक ही तरफ़ इशारा कर रहे हैं. रज़ा के चित्रों का वो रहस्यमय आकर्षण जो उनमें अचम्भा भर देता है. यह अचम्भा रज़ा द्वारा रंग के नितांत नए सम्बन्धों को उजागर करता है और इसीलिए हम इस नयी अनुभूति के समक्ष ठगे से खड़े रह जाते हैं.
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महीने के पहले और तीसरे शनिवार को
(सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)
किसी चित्र को देखते हुए निजी अवलोकन महत्वपूर्ण हो जाते हैं... अखिलेश ने अपने हृदय का ओजस्वी संवेदन, रंगों के अर्थों को सूक्ष्म रूप लेकर लिखा है... धवलक्लांत के काले रंग के विस्तार, उस रंग की गहराई... बस देखते ही बनती थी... .. या फिर किसी एक रंग को लेकर काम करने का मज़ा ही और है.... नीले रंग का जब ज़िक्र आया.... रज़ा साहब का कुशल नेतृत्व ही सामने आया... वाह... नीले रंग की सुन्दरता, ओह..क्या कमाल लिखा है... आलेख अत्यंत महत्वपूर्ण है.... बधाई हो अखिलेश��
जवाब देंहटाएंहम अखिलेश जी के साथ रजा को समझने की प्रक्रिया के साथ जुड जाते हैं। वहाँ रंग- बोध में पाते हैं कि रंग सिर्फ माध्यम नहीं, वे अपनी स्वतंत्र इयत्ता भी रखते हैं, जैसे सूर्य में काला...। और फिर रजा की कला में इंगित शून्य और पंच- तत्वों के दार्शनिक अभिप्रायों की ओर बढते हैं... कलात्मक तथापि सहज गद्य ।
जवाब देंहटाएंBahut sunder aur marmik. Raza ko dekhne ki ak thhathharati nazar. Chitra ke kareeb Jaane ka ussey mahsoos karne ka tarika. Aha. Main poora aanand le raha hoon iss lekhmala ka. Yah raagmala ki tarah rangmala hai. Iska apna aalaap aur apnee badhhat hai.
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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