कथ्य अपना शिल्प तलाश लेता है, जैसा समय है और जिन नुकीले संकटों से
हम जूझ रहें हैं, उन्हें व्यक्त करने के लिए कविता-कथा की प्रदत्त शैली में बड़े
तोड़-फोड़ की जरूरत हर जेन्यून लेखक महसूस करता है, और वह कोशिश भी कर रहा है.
नवाचार कोई प्रयोग का शौक नहीं है, यह विवशता है. आधुनिक युग ने अपने
यथार्थ की अभिव्यक्ति के लिए उपन्यास खोजा, और कविता ने छंद के घुंघरू तोड़ दिए. विश्व
कविता में भाषा से परे जाकर चित्र, गतिशील-चित्र, ध्वनि आदि का इस्तेमाल हो रहा
है.
हिंदी के वरिष्ठ कवि लाल्टू (हरजिंदर
सिंह) आईआईआईटी, हैदराबाद में सैद्धांतिक प्रकृति विज्ञान के प्रोफेसर हैं, उनके सात कविता
संग्रह आदि प्रकाशित हैं.
लाल्टू की इन कविताओं के पार्श्व में
कोरोना है, पर उससे अधिक वह डर है जो धीरे-धीरे हर जगह से रिस रहा है. ऐसा लगता
है अस्तित्व और अनिश्चित हुआ है, हिंसा और हिंसक.
कविताएँ प्रस्तुत हैं.
लाल्टू की कविताएँ
1
इंसानियत एक ऑनलाइन खेल है, जिसमें बहस और हवस की स्पर्धा है. सारी रात कोई सपने में चीखता है कि चाकू
तेज़ करवा लो.
औरत घर बैठे मर्द को देख कर खुश होना चाहती है. घर बैठा मर्द औरत को
पीटता है. सपनों के तेज़ चाकू हवा में उछलते हैं. उनकी चमक में कभी प्यार बसता था.
सड़कों पर कुत्ते भूखे घूम रहे हैं. कुत्तों से प्यार करने वाले
इंटरनेट पर चीख रहे हैं. इंसान कुत्ता नहीं है. कानूनन इंसान सड़क पर भूखा घूम नहीं
सकता. इंसान ने तय किया है कि वह कुत्ता है. अपनी टोली बनाकर पूँछ हिलाते हुए लोग
घूम रहे हैं. औरत और मर्द भूल चुके हैं कि वे औरत और मर्द हैं. कोई हिलाने के लिए
पूँछ और कोई दिखाने के लिए दाँत ढूँढ रहा है. इंसानियत एक ऑनलाइन खेल है, इंसान इस बात से नावाकिफ है कि वह महज खिलाड़ी है. खेल
में पूँछ हिलाता कुत्ता खूंखार हो सकता है.
चाकू की चौंध कब रंग दिखाएगी, यह इतिहास की किताबों में लिखा है.
2
सारा रोना आसमान रो लेता है.
जो बरस रहा है वह अवसाद है. जो बरसने से पहले था वह अवसाद था. बारिश
रुक जाती है. नदियाँ अभी भरी नहीं है. पहली बारिश में नदियाँ बह रही हैं. नदियों
में यादें बहती हैं. जिनकी यादें हैं वे एक-एक कर बह जाते हैं. बहती हुई यादें बह
कर भी रह जाती हैं. जो बह जाते हैं, उनके लिए सही लफ़्ज ढूंढते हैं, जैसे- दोस्त, प्रेमी, यार.... बचपन की यादें बहती हैं. बापू का
सीना बह जाता है. उछल कर उसके सीने पर बैठना चाहो तो बैठ नहीं सकते. रोना चाहो तो
रो नहीं सकते.
सारा रोना आसमान रो लेता है. हम सारी धरती पर अपने आंसू टपकते देखते
हैं. कोई कहता है- थोड़ी देर और. पंछी आएगा. पंख फरफराता बादलों के छींटे बिखेर
जाएगा. थोड़ी देर और.
3
मैं सोया हुआ हूँ कि जगा हूँ
कि इक साए की गिरफ्त में हूँ
कि खुद ही साया हूँ
हवा बहती है कि मैं बहता हूँ
सुबहो-शाम किसी से कुछ कहता हूँ
कि कायनात के हर कण में इक कहानी है
हर वह कहानी इक दर्द है और हर दर्द कोई शख्स है
कहीं कोई पनचक्की चल रही है
वातायन में लगातार एक आवाज़ गूंजती है
तुम किस बीमारी के खौफ़ में हो. वह आएगी
वह खड़ग-धारिणी, वह अपरुपा, वह हर किसी पर आएगी
एक दिन हर किसी की कायनात गायब हो जाएगी
मैं देखता रहूँगा सोया या कि जगा हुआ
कोई झटके दे-देकर मुझे जगाता रहेगा
कि सुबह हो गई है, सुबह हो गई है
मैं जागूँ तो क्यों जागूँ
बीमारी हर साए में घुली हुई है
हर मुस्कान में एक अँधेरा है
जो मुझसे शुरू होता है
मुझमें विलीन होता है.
4
वह मुंबई से चेन्नई जाते हुए करीमनगर में मर गया. वह लखनऊ में मरा कि
उसे जीवाणु नाशक दवा पिला दी गई. वह मरा तीन में से एक कि वह बाकी दो को गाड़ी में
बैठाकर ले जा रहा था. इन सबके हाथों में इक्कीसवीं सदी थी. किसी की आवाज़ बज रही
थी. क्या हुआ! कैसे हो! जवाब क्यों नहीं देते? नहीं, वे हवाई जहाज से नहीं जा सकते थे.
उनमें से जिनके लिए ग़रीब लफ्ज़ लागू नहीं होता, वे किस्मत के मारे थे. जो बिस्किट खरीदने गया था,
उसे मरना ही था कि वह पुलिस के हाथ आ गया मुसलमान था. पी एम को यह
कहते हुए तकलीफ हुई कि बीमारी हिन्दू-मुसलमान नहीं देखती, जैसे
किसी समीक्षक को आपत्ति थी कि कविता में हिन्दू-मुसलमान नहीं घुसना चाहिए. बहुत
सारे लोग ढोल-नगाड़ों के साथ प्रेम बाँटते हैं जब नौजवान प्रेमियों की हत्याएं होती
हैं. समांतर सच. सच के समांतर.
हर सुबह एक कबूतर और मुझमें गुफ्तगू होती है. मैं इतना खतरनाक नहीं
हूँ कि गिरफ्तार हो जाऊं. कबूतर खतरनाक है, इसलिए रोज उसे बतलाता हूँ कि कुछ दिनों तक अपने घोसले में बंद रहो. धर-पकड़
चल रही है. मैं रंगीन पर्दे पर ख़बरें पढ़ता हूँ. 12% और बीमार. सवा सौ मर गए. अभी
आँकड़ा चलेगा. हर छ: दिन में दुगुना. कबूतर खिड़की पर बैठा बोर होता रहता है. थोड़ी
देर में उड़ जाता है. मुझे नीचे दूध लेने जाना है. मास्क ढूंढता हूँ.
5
कोई भजन-कीर्तन नहीं हो सकता. घर में भगवान बुलाओ. घर में नमाज़ पढो.
बैंक डूबेंगे. नाश्ता करते हुए सोचो. हाथ में झाड़ू लेते हुए सोचो. जब अम्मा एकदिन
आएगी उसे पैसे दे दोगे. वह नहीं जानेगी कि म्युचुअल फण्ड डूब गया है. सब डूब रहे
हैं. राहत कोष को राहत पहुँचाने एक और कोष. चीन बैंकों को खरीद रहा है. कोई सब कुछ
बेच रहा है. बार-बार पेशाब आता है. बाथरूम जाते रहने से सचमुच कुछ भी खो गया वापस
नहीं आता. हिसाब लगाते रहो.
जी रहे हो. आईने के सामने खड़े होकर देखो, सचमुच जी रहे हो. जीवन की महक है. ख़ौफ़ में जीवन है.
क्या ख़ौफ़नाक है- जीना या मरना?
जो ऊपरी मंजिलों से कूदकर मर रहे हैं, उन्हें किसका ख़ौफ़ था?
जिनके लाखों डूब जाएंगे, वे भी कूदेंगे; जो सैकड़ों मील चलकर घर नहीं
पहुंचेंगे, वे बिना कूदे मर जाएंगे. कोई पुलिस की लाठी से
मरेगा, कोई भूख से मरेगा. गर्मी से मरने वालों की गिनती अभी
शुरू होनी है.
6
ऐसे वक्त में जब खुद को बचाए रखना ही सुबह है, और शाम है, खयालों में वह एक
स्वार्थी इनसान सा आती है. पोथियों, संस्कारों और डांट-डपट
से हमें बतलाया गया कि वह स्वर्ग से भी ऊपर है, पर सचमुच
उसके सपने कभी डरावने होते हैं! हमारे अपने डरों के धागे उस तक पहुँचते हैं. सोचने
लगें तो जलेबी की तरह चकराते खयाल ज़हन में फूलते हैं; अकसर
वे बेस्वाद होते हैं. यादों में उसका रोना सबसे ज्यादा दिखता है और एहसास होता है
कि कोई अंतड़ियों में रो रहा है. किसी ठंडी सुबह बासी रोटी गर्म कर दही के साथ
खिलाते हुए उसकी आँखें मेरे सीने पर टिक गई थीं और वह जल्दी से मफलर ले आई थी कि
हवाएं मेरे आर-पार न हो पाएं. किसी कहानी में जिक्र किया है कि उसने कभी गर्भ
गिराया था. वह महानायक तो नहीं पर किसी गुमनाम कथा की नायक तो है, जिसने ताज़िंदगी अपने सपनों को भूलने की कोशिश की, कि
हम सपने देख सकें.
7
कुछ दिन पहले अमलतास और पलाश के रंग मेरी नज़र में थे. इंसान हर मौसम
में उदास खिलता है, पौधे और पंछी बसंत और
वर्षा में रोते हैं. पंखुड़ियां एक-एक कर पुरजोर जय-जयंती गाते हुए जमीं पर बिखर जाती
हैं. धरती पर मिट्टी, घास और रंग बेतरतीब गश्त लगाते हैं.
कभी कोई दौड़ता दिखता है. जिस किसी को हवा छू लेती है, वह
उन्मत्त नाचता है. दूर मटमैली सड़कें दिखती हैं, नशीली,
बिछी हुईं जिन पर लोटने का मन करता है. धूप-छांव, हर सपने में बार-बार लौटते हैं. देखते-देखते जिंदगी गुजर जाती है.
इस स्टेशन पर हमेशा के लिए रुक गया हूँ. खुली या बंद आँखें मैं देखता
हूँ कि गाड़ियाँ आ-जा रही हैं. हर कोई दूसरे से अलग है, पर उनकी आत्माओं को छूता हूँ तो हर कोई एक जैसा रोता
है. मैं गाड़ी पर चढ़कर इस या उस ओर जाना चाहता हूँ; पहुँच कर
देखता हूँ कि उसी स्टेशन पर खड़ा हूँ. यहाँ खड़े होकर लोगों को बिछड़ता देखता हूँ.
नकाब पहने लोग आपस में गले मिलना चाहते हैं, पर मेरी नज़र उन
पर पड़ते ही वे सिमट जाते हैं और एक दूसरे से दूर हो जाते हैं. उनके बीच दुःख की
तरंगें आर-पार होती हैं.
अचानक दूर होते हुए किसी को कुछ याद आता है. गाड़ी वापस आती है और अपने
साथी को ढूँढती है. मैं धीरे से दोनों गाड़ियों को पास ले आता हूँ.
हमेशा यहीं रुके रहकर आंसुओं के सैलाब में बहता रहता हूँ.
8
सुबह गिनती से शुरू होती है कि रसोई की गैस का सिलिंडर देने वाला
हफ्ते पहले आया था. सब्जियां चार दिन पहले ली थीं. अभी तक सिर्फ गले की हमेशा वाली
खराश है. किस्मत पर भरोसा जैसा झूठ को सच मानकर जी रहे हैं. पुलिस की मार से जिसकी
कमर दुःख रही है, उसका भी सच है कि वह
थोड़ी दूर और निकल आया है. गठिए से सूजा बाएं पैर का अंगूठा अपने सच में जीता है कि
यह बस आज भर की कहानी है. खिड़की से जो बवंडर दिखता है, वह उड़
जाएगा, हर कोई यह सच जीना चाहता है. आखिर में हर कोई
क़ैदखाने में होगा. तानाशाह शैतान के पैरों को छूकर शपथ ले रहा होगा कि हर किसी से
झूठ को सच मनवा कर रहेगा. लोग तानाशाह की वंदना गाते हुए कतारों में खड़े रहेंगे.
अदृश्य बंद दरवाजों को पार करने के लिए खड़े हुए लोग सड़क पर लेट जाएंगे.
सड़क जिस्मों से ढंक जाएंगी. मुर्दाघरों से निकलता अशरीरी शोर हर ओर
गूँजेगा. हर सुबह गिनती करते रहेंगे कि शांत सुखी आत्माएं स्वप्न लोक का सफर कर
रही हैं.
9
दीवारों पर सीलन बढ़ती चली है
नम हवा में शाम जगमगाती है
कुछ खींचता-सा है. कोई है
कोई जो पुकारता है. कोई मेरे सभी
सच जान चुका है. मेरे डर, अकेलेपन
का कायर सुख, मेरे दुखों के रंग,
मेरी सूखी त्वचा, सब उजागर है.
हमेशा इंतजार रहा कि कुछ होने वाला है,
अब
क़ैदखाने की आवाज़ों का इंतजार है
जहाँ एक-एक कर सभी फूल दराजों में बंद हो चुके हैं.
मुझे कोई देख ले तो पूछेगा कि जब सारे दोस्त छीन लिए गए कैसे जी रहे
हो
कैसे इस श्रृंखला में उत्श्रृंखल होने के सपने देख रहे हो. यही है, गति के नियम,
भौतिकी का गणितशास्त्र. प्रलय को अब ज्यादा देर नहीं;
भले सिपाही आग बुझाने को दौड़ रहे हैं. वक्त
वैसा ही है, जैसा हमेशा था,
मैं अपने खेल
खेलता देखता रहा कि कुछ बदल रहा है. यही है,
जीवन. गुलामी और ईशान कोण से आता बवंडर.
10
सबको यह इल्म था कि एक दिन हर कोई तूफान में बह जाएगा. हर रात हम
पूछते रहे कि सुबह किसकी बारी है. करीब आती साइरेन की आवाज़ से बचने के लिए हम
कानों को चादर से ढँक लेते. सपनों में प्रार्थना करते कि जब उड़ना हो तो एक साँस
में निडर उछल सकें. हम कब सो जाते और कब नींद से वापस जागरण में आते यह लम्बी
कहानी बन सकती है. नींद और जागने के बीच हम खुद से बतियाते कि गर्मी आ रही है और
दुश्मन थक गया होगा. प्रियजन तैयार हो
रहे थे कि हम सब आखिर में नींद में ही उड़ चलेंगे.
कानों को चादर से ढंकने पर पसीना सीने से कानों तक चढ़ आता. पंखा तेज
चलता तो शैतान जैसी आवाज़ें निकालता और हमें लगता कि गिरफ्तारी का फरमान लेकर वे आ
पहुँचे हैं. हम अदालत में खड़े होकर गाना गाने का सपना देखते और वे एक-एक कर हमारे
दाँत उखाड़ते रहते कि गाना गाते हुए हम दांतों के बीच में से हवा निकालें और
बाँसुरी जैसी आवाज़ में हमें रोते हुए सुना जा सके. हम चादर के अन्दर से चाँद को
पुकारते कि गर्म रात किसी तरह चाँदनी सरीखी शीतल हो. कहीं से किसी रुदाली का
स्यापा सुनाई पड़ता और हम जान लेते कि कोई और क़ैदखाने में दाखिल हो गया है.
इस तरह वह संक्रमण काल बीतता रहा, जब हमारे बाल एक-एक कर झड़ते रहे और नाक की चमड़ी झुर्रियों से भरती रही.
बच्चे हमें देख कर डर जाते कि कहीं भूत तो नहीं.
11
खुद एक कहानी हूँ.
जब से सफर पर निकला हूँ, जहाँ जिन पड़ावों पर पहुँचा हूँ, वे दर्ज़ हो रहे हैं.
गुजर चुके मौसम कहानी में आते हैं. जो प्यार मिला, जो दिया और जो बह जाने दिया, अपनी
और किसी और की ज़िंदगी में आना और जाना. दर्ज़ हुई कहानी हमेशा वह नहीं होती जो
सचमुच घटित हुई होती है. जिन रंगों को
पहना, जिन्हें आँखों में उतरकर जलने दिया, जो सुबहें थीं, जो रातें.
हर कुछ फिर से जनमता है, हलक से निकलती हुई चीख रुक जाती है. रंग कभी वह नहीं होते जो गुजरी
ज़िंदगी के गर्भाशय में क़ैद हैं. कहानी लिखना खुद से दगाबाज़ी है. खुद को
प्रयोगशाला की बेंच पर लिटा कर जिस्म की चीरफाड़
करनी है जब रुह पास खड़ी होकर सब कुछ देखती है. जो मैं था, मैं नहीं हूँ.
हर कोई किसी का इंतज़ार कर रहा है.
कोई है, जो आएगा. कौन है, जिसका इंतज़ार हर कोई कर रहा है.
कोई है, जो आएगा. कौन है, जिसका इंतज़ार हर कोई कर रहा है.
क्या वह एक आदमी है, गोदो, या कि हर किसी के लिए अलग लोग आएँगे?
कोई नहीं जानता कि कौन आएगा. क्या तुम जानते हो कि तुम्हें किसका
इंतज़ार है? यह बचकाना सवाल है,
यह तो बहुत पहले बहुत सारे लोग पूछ चुके हैं. तो जवाब क्या है?
कोई जानता है, कि जवाब क्या है?
13
बिस्तर, छत, दीवार-खिड़कियों के बीच
हैं खबरें. जीने की लड़ाई.
हमें विराम चिह्नों के बीच पर्याप्त जगह मिल गई है.
खिड़की से धूप आती है तो कभी बंद कर लेते हैं.
बारिश के छींटों के साथ खुशी बदन गीला कर जाती है.
ज्यादा भीगने पर खिड़की बंद कर लेते हैं. एक दूसरे की ओर देखकर
फिल्मी गीत गा लेते हैं. दूसरों की मौत-बीमारी सुनकर ख़ौफ़ में न आने की
आदत है.
मौत से डर नहीं, मौत के इंतज़ार का डर है.
14
शाम देर से आती है
कभी बादल धूप से बच निकलने में मदद करते हैं
तो शाम से मिलने वक्त से पहले निकल पड़ता हूँ
सड़क पर कोई नहीं होता
कुत्ते दुम हिलाकर खबर लेते हैं
अचानक जूते का फीता बाँधने रुकता हूँ
तो भौंककर कहते हैं कि मत रुको
इस तरह मेरे और उनके पल बीत जाते हैं.
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लाल्टू ( हरजिंदर सिंह)
१० दिसंबर १९५७, कोलकाता
हरजिंदर सिंह हैदराबाद में सैद्धांतिक प्रकृति विज्ञान (computational natural sciences) के प्रोफेसर हैं.
उन्होंने उच्च शिक्षा आई आई टी (कानपुर) तथा प्रिंसटन
(अमरीका) विश्वविद्यालय से प्राप्त की है.
एक झील थी बर्फ़ की, डायरी में २३ अक्तूबर, लोग ही चुनेंगे रंग, सुंदर लोग और अन्य कविताएँ, नहा कर नहीं लौटा है
बुद्ध, कोई लकीर सच नहीं होती, चुपचाप अट्टहास कविता संग्रहों के साथ
कहानी संग्रह, नाटक और बाल साहित्य आदि प्रकाशित.
हावर्ड ज़िन की पुस्तक 'A People's
History of the United States' के बारह अध्यायों का हिंदी में अनुवाद.
जोसेफ कोनरॉड के उपन्यास 'Heart of Darkness' का 'अंधकूप' नाम से अनुवाद, अगड़म-बगड़म (आबोल-ताबोल),
ह य व र ल, गोपी गवैया बाघा बजैया (बांग्ला से
अनूदित), लोग उड़ेंगे, नकलू नडलु बुरे
फँसे, अँग्रेजी से अनूदित आदि. बांग्ला, पंजाबी, अंग्रेज़ी से हिंदी कहानियाँ, कविताएँ भी अनूदित.
सैद्धांतिक रसायन (आणविक भौतिकी) में 60 शोधपत्र अंतरराष्ट्रीय
पत्रिकाओं में प्रकाशित.
laltu10@gmail.com
laltu10@gmail.com
अरुण जी आप कविताएँ प्रकाशित ही नहीं करते, इस प्रस्तुती को भी आर्ट फ़ार्म में बदल देते हैं. इन कविताओं को पढ़कर आवाक हूँ. पूरा अनुभव ही सघन है.
जवाब देंहटाएंइस काल के संत्रास और बेचैनी को ये कविताएँ एक सामाजिक आत्मालाप में बदल रही हैं। इनमें समाहित वेदना हम सबकी है। ये कविताएँ पीछा कर सकती हैं।
जवाब देंहटाएंसमांतर सच. सच के समांतर चलते रोज़-ब-रोज़ के प्रपंच और संत्रास कथा ही 2019 से 2020 की कथा होगी. फ़िक्शन से ज़्यादा फ़िक्सिसियस, झूठ से ज़्यादा झूठ और यथार्थ के ठंडे वितान की बहुपरतीय क्रूर कथा. यह सब हमारी सामूहिक चेतना का समकालीन रोज़नामचा है. लाल्टू जी को सलाम !
जवाब देंहटाएंबेहतर मनुष्य और कवि के बारे में इसी तरह लिखा जा सकता है।बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंलाल्टू से मैं पहली बार लगभग 35 वर्ष पहले पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, में मिला था। वे अभी-अभी प्रिंस्टन से पी.एच.डी. करके आये थे और रसायन विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर थे। मैं वहाँ पी.एच.डी. कर रहा था। सत्यापाल सहगल भी उन दिनों वहीं हिन्दी विभाग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर थे। हम तीनों ने मिलकर "हमकलम" नाम की एक साइक्लोस्टाइल पत्रिका शुरू की जिसमें हम विश्व कविता के अनुवाद छापते थे। अधिकतर अनुवाद हम ख़ुद ही करते थे। लालटू लंच करने मेरे होस्टल में ही आते थे। मेरी बहुत सी शामें उनके साथ उनके विभाग के बाहर के टी स्टाल पर बीतती थीं। पत्रिका की प्लानिंग उनके दफ़्तर या होस्टल में मेरे कमरे में होती थी। हम लोगों की बहुत सी शामें उनके घर में भी बीतती थीं जहाँ कभी-कभार चंडीगढ़ के कवियों का कविता पाठ भी होता था। "जनसत्ता" के रेसीडेंट एडिटर ओम थानवी भी कई बार इन बैठकों में आते थे। तेजी ग्रोवर से मेरी मुलाकात लालटू के घर इसी तरह के एक कविता पाठ के दौरान हुई।
जवाब देंहटाएंमुझे याद है एक बार जनवादी लेखक संघ, कुरुक्षेत्र, ने हम तीनों, यानी लालटू, सहगल और मुझे, कविता पाठ के लिए बुलाया था। जब हम कुरुक्षेत्र जा रहे थे तो उस बस में लालटू के पहले कविता संग्रह का शीर्षक हम तीनों ने मिलकर तय किया।
चंडीगढ़ छोड़ने के बाद भी कभी-कभीर लालटू से मुलाकात होती रही। लेकिन उनके हैदराबाद जाने के बाद केवल एक बार मैं उनसे मिला हूँ। कुछ वर्ष पहले विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली, में बाहर एक लॉन में मैं बैठा था जब अचानक लालटू मेरे पास आकर बैठ गये। वे जल्दी में थे। थोड़ी देर बात करके वे उठकर चले गये। वह हमारी अन्तिम मुलाकात थी। जाते हुए उनकी चाल और पीठ अभी भी मुझे याद हैं
दर्ज़ हुई कहानी हमेशा वह नही होती जो हुई होती है।
जवाब देंहटाएंमौत से डर नहीं मौत के इंतज़ार से डर है।
इस बीते और बीत रहे काल की बेहद भयावह सच्चाई है इन रचनाओं में।
बहूत ही मार्मिक कविताए है,एक दम से रूह डरे हुए कबूतर की तरह उड़ने को हो रही है, आज की सच्चाई और यथार्थ को ऐसा लपेटा है कि कविता कविता न हूँ ई,दिल मे छेद करने वाली कोई ड्रिल हो गई, मुबारक अरुण जी और लालटूजी को,इन कविताओं को लिखने और पेश करने के लिये
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक कविताएँ जहाँ हिन्दी की इधर की अधिकांश कविताओं की तरह अपने शिल्प से कथ्य को नहीं खोजा गया है बल्कि यहाँ कविताओं के कथ्य ने अपना शिल्प तलाश किया है । हमारे समय की भयावहता कविता के पार्श्व में है जो कविताओं को मार्मिक बनाती हैं । लालटू की कविताओं में धीरज है और मनुष्य के दुःख का धीमा राग है । लालटू और समालोचन का आभार इतनी अच्छी कविताएँ पढ़वाने के लिए !
जवाब देंहटाएंलालटू सिर्फ कविताये नही लिखते , कविताओं के शिल्प भी तोड़ते हैं । कवि के अवलोकन के अनुभव किस तरह कविता में बदलते हैं , उन्हें उनकी कविताओं को पढ़कर जाना जा सकता है । एक गहन उदासी और करुणा के बीच से उनकी कविताएं सम्भव होती है ।
जवाब देंहटाएंहम जानते है कि हिंदी कविता एकरसता से ग्रस्त हो गयी है ,उसे इस जंजाल से निकालने के दायित्व का निर्वहन कवि को ही करना होगा ।
इतनी अच्छी कविताओं के लिए कवि को साधुवाद ।
ये नवोन्मेष की कविताएं हैं। अलग शिल्प और कथ्य। बहुत बारीक। बहुत बधाई लाल्टू जी। बहुत शुक्रिया अरुण जी।
जवाब देंहटाएंशानदार कविताएं । समालोचन का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंलालटू की इन कविताओं में कुछ आरंभिक रचनाओं से गुजरते हुए त्रिलोचन जी की गद्य कविताओं की सहज ही याद हो आई।
जवाब देंहटाएंफर्क यही है कि इन कविताओं का परिवेश त्रिलोचन की तरह गंवई नहीं है।
गहरी संवेदना और
सहज सम्प्रेषणीय भाषिक संरचना लालटू की कविताओं खासियत है।
अरुण जी को इन्हें सामने लाने के लिए धन्यवाद।
एक रेखांकन योग्य काम तो समालोचन में यह हो रहा है कि जिन पर आत्मीय फोकस होना अपेक्षित है ,वह हो रहा
जवाब देंहटाएंहै।जहाँ आलोचना चुप्पी साधती है,हम बोलते हैं।लाल्टू ने हमें अपनी आमद के साथ हमसफ़र बनाया है।हम उनकी
कविताओं के इंतज़ार में रहते आये हैं।
ये कविताएं मछलियों की तरह समय
की भयावह लहरों को सुन रही हैं।इनमें
समुद्री तलछट के स्याह अंधेरों का रुदन संकेत है।
ये वर्तमान के दृश्यों के एक्स रे हैं।सत्य की श्वेत-श्याम
गवाही।
गहरी बेचैनी से निकली,बेचैन करने वाली एक कवितामाला। अनुभव का ताप, और संताप शायद इस पर भी, कि मनुष्य एक दुब्बल--दुर्बल प्राणी है।अपनी टेक,अपना संकल्प,अपने सपने अगली पीढ़ियों को सौंप कर अलविदा कहता हुआ। मशाल कोोओ थामने हाथ बेशक आगे आते हैंं।दौड़ ,या कहें एक ज़िद हर हाल में जारी रहती है।अपने आप में भले ही हार क़बूल कर ली जाय।अवसाद और करुणा और आक्रोश...मानव इतिहास!
जवाब देंहटाएं90 के दशक में पढ़ी लालटू जी की कविताएं मुझे लंबे समय तक याद रही थीं। उनमें आक्रोश था, बेचैनी और सघन यंत्रणा थी। इन कविताओं को पढ़ते हुए अहसास हुआ कि वह बेचैनी आक्रोश और सघन यंत्रणा अब भी बरकरार है बल्कि वे और तीखी और धारदार हैं। ये बेचैन करनेवाली कविताएँ हैं। समालोचन और लालटू जी को बधाई।
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