सबद भेद : अनामिका की स्त्रियाँ : राजीव रंजन गिरि

पेंटिग : हुसैन












“ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह वर्ष की उमर से
उनको ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर !”  
(मरने की फुर्सत: अनामिका)


हिंदी कविता के मानचित्र में अनामिका का अपना मुकाम है, कविता को स्त्रीत्व (और ऐन इसी कारण उनकी यातनाएं भी) से जोड़ते हुए उसमें उन्होंने अंतर्वस्तु, भाषा और शिल्प का एक नया धरातल निर्मित किया है.  राजीव रंजन गिरि ने अनामिका की काव्य- संवेदना और उनकी विशिष्टता को इस आलेख में देखा-परखा है.

अनामिका की स्त्रियाँ                  
राजीव रंजन गिरि



हिन्दी कविता में जिन रचनाकारों ने स्त्री-रचनाशीलता को एक कोटि के तौर पर स्थापित किया, अनामिका उनमें अग्रणी हैं. ऐसा नहीं है कि हिन्दी में स्त्रियाँ कविताएँ नहीं रचती थीं, अथवा उनकी कविताओं को जगह नहीं मिलती थी. काव्य-रचना के इलाके में अनेक स्त्रियों ने, अपनी सृजनशीलता से, अलहदा मुकाम बनाया था. इनकी रचनाओं में स्त्री की आवाज भी थी, जो इनके समकालीनों से जुदा थी. कई दफे स्त्री रचनाकारों की रचनाओं में मुख्तलिफ स्वर भी मिलते हैं. इन तमाम किस्म के स्वरों का समुच्चय थी सृजनात्मकता. इतिहास के जिस दौर में कवि अनामिका अपनी रचनात्मक ऊर्जा के साथ सामने आयीं, उस समय तक स्त्री की रचनाशीलता को एक कैटेगरी की तरह देखने का चलन नहीं था.

अकादमिक हलकों का, अगर दो मोटे किस्म का विभाजन करें, तो कहना होगा कि समाज-शास्त्र से सम्बद्ध लोग इसे दबी जुबान से सही स्वीकार करने लगे थे. परन्तु साहित्य-संसार में वह दृष्टि विकसित नहीं हो पायी थी कि स्त्री की रचनात्मकता को अलग तरीके से देखा जाए. यहाँ इशारा पुरातनपन्थी ख्याल के लोगों की तरफ नहीं किया जा रहा है अपितु तरक्की पसन्दगी का दावा करने वाले लोगों को  इसके दायरे में रखा जा रहा है. अपनी वैचारिक समझ को प्रगतिशील समझने वाले लोग स्त्री को वर्ग के वृत्त से बाहर नहीं देख पा रहे थे. वर्ग की कैटेगरी से जुडऩे के बावजूद स्त्री की एक भिन्न कोटि होनी चाहिए, हिन्दी-साहित्य के नामवरों का ऐसा ख्याल नहीं बना था. इस दौर में सक्रिय स्त्रियों पर भी इसका असर दिखता है. वे भी खुद की रचनाओं को पृथक कर देखे जाने की हिमायती नहीं थीं. हालाँकि इनकी रचनाओं में वे चिह्न मौजूद थे, जो उन्हें रचनाकारों के सामान्य वर्ग में रहने के बावजूद एक भिन्न कोटि का बतलाते थे. कहना न होगा कि उन चिह्नों के मूल में उनकी रचनाओं में निहित विशिष्ट स्त्री-तत्त्व था.

अनामिका की पीढ़ी की स्त्री-रचनाकारों की  प्राथमिक अहमियत यही है कि इन लोगों ने अपने स्वर की खासियत को देखे जाने का इसरार किया. साहित्य की व्यापकता में शामिल होने के बावजूद निज अभिव्यक्ति की खसूसियत पर अतिरिक्त बल दिया. अनामिका द्वारा सम्पादित कहती हैं औरतें इसी इसरार का सबूत है. तब की साहित्य-समीक्षा, स्त्री-रचनात्मकता की विशिष्ट व्याख्या करने में तंग प्रतीत होती थी. ऐसे में, अनामिका ने दोनों मोर्चों पर काम किया. एक, उन कोनों-अँतरों को काव्य-स्वर प्रदान किया, जो अब तक कविता की परिधि से बाहर थे. दो, ऐसी कविताओं में अन्तर्निहित, विशिष्टता की व्याख्या भी की. इन्हें सैद्धान्तिक जामा भी पहनाया. अपने इन्हीं अवदानों से अनामिका हिन्दी स्त्री-कविता में अग्रणी बनीं.

वैचारिक विमर्श में स्त्री को एक कोटि के तौर पर स्थापित करने के लिए स्त्री-अस्मिता का अतिरिक्त रेखांकन आवश्यक है. स्त्री ही क्यों किसी भी अस्मिता की पहचान के लिए यह पहल जरूरी है. किसी भी कैटेगरी की इयत्ता को अलग समझा जाए, इसके लिए उसकी विशिष्टता को अलगाकर दिखाना अपेक्षित है. स्त्री के मामले में अपेक्षाकृत जटिल प्रत्यय है. कारण कि हर तरह की कै टेगरी में यह समाहित है और उससे अलग भी. मिसाल के तौर पर कहना होगा कि वर्ग, जाति, दलित, आदिवासी, अश्वेत (ब्लैक) आदि जितनी तरह की कोटियाँ बनायी जाएँगी, स्वाभाविक रूप से स्त्री इनमें समाहित होगी. फिर भी स्त्री की एक अलग कोटि भी बनेगी. यह जटिलता स्त्री-अस्मिता के मसले को और पेचीदा बनाती है. लिहाजा अन्य अस्मिताओं के साथ इसकी सम्बद्धता और असम्बद्धता की बारीक पहचान जरूरी है. स्त्री-अस्मिता ने अन्य अस्मिताओं के साथ ही नहीं, बल्कि अपने अन्यपुरुष व्यक्ति सत्ता के साथ भी सम्बद्धता और असम्बद्धता की तनाव भरी रस्सी पर कदम बढ़ाया है. स्त्री अन्यके साथ सम्बद्ध होकर भी असम्बद्ध रही है और असम्बद्ध में भी सम्बद्ध रही है. यह एक खास किस्म का विरागात्मक राग है और रागात्मक विराग, जो आज भी जारी है. अनामिका की कविताएँ, इस वैचारिक जटिलता में सन्तुलन स्थापित करते हुए, सार्थक हस्तक्षेप करती हैं.

यहाँ पर एक और आयाम गौरतलब है, सीधे-सीधे विचार की दुनिया में मुठभेड़ अलग बात है और साहित्य (यहाँ कविता के क्षेत्र में) रचते हुए विचार की प्रस्तावना अलग बात. कारण कि कविता महज विचार नहीं है. आखिर वे भिन्न अवयव ही होते हैं जो उसे काव्यात्मकता प्रदान करते हैं. इसके बगैर कोई विशिष्ट विचार तो सामने आ सकता है, पर उसे व्यक्त करने का अन्दाज उसे कविता की श्रेणी में शामिल नहीं होने देगा. अनामिका की पीढ़ी के रचनाकारों ने जिस तरह सपाट ढंग से विचारों को उगल भर दिया है, वे महत्त्वपूर्ण विचार होने के बावजूद, कमजोर कविता ही बन पायी हैं. कविता के शिल्प में विचार को अनुस्यूत करना जटिल कलात्मकता है. ऐसा कहने का मतलब कविता के स्थापत्य में किसी बदलाव से इनकार करना नहीं है. नितान्त भिन्न परिप्रेक्ष्य और अलहदा स्वर के आने से कविता या किसी भी विधा के स्थापत्य में नवाचार सम्भव है. पर यह नवाचार कविता की शर्त पर नहीं होगा. आशय यह है कि ऐसे किसी भी अस्मितावादी स्वर को पहले कविता होना होगा. कविता होने के बाद उसकी विशिष्टता का रेखांकन होगा. कहना न होगा कि अनामिका की कविताएँ इसकी सफल मिसाल हैं.

खुरदरी हथेलियाँ अनामिका की कविताओं का एक विशिष्ट संग्रह है. इस संग्रह की दो कविताओं के विश्लेषण के जरिये अनामिका की अभिव्यक्ति के अन्दाज और उसमें निहित विशिष्ट स्वर को इस आलेख में पेश किया जा रहा है. संग्रह की शीर्षक-कविता खुरदरी हथेलियाँमें अनामिका ने कहा है कि ‘‘हालाँकि ज्योतिषी नहीं हूँ मैं. दानवीर कर्ण भी नहीं हूँ-/ पर देखी है मैंने फैलती सिकुड़ती हथेलियाँ/ कई तरह की!’’ जाहिर है कवि ने किसी की हथेली को ज्योतिषी या दानवीर की निगाह से नहीं देखी है. यहाँ हथेलियों के फैलने और सिकुडऩेका बिम्ब काबिले गौर है. हथेलियों का फैलाव और सिकुडऩ पूरी कविता में विन्यस्त है. आखिर किसकी हथेली फैलती है और किसकी सिकुड़ जाती है? सोचने की बात यह भी है कि कवि ने कई तरह की हथेलियों को कैसे देखा है? बकौल अनामिका हाथों में हाथ लिये और दिये हैं कितनी बार!’’ हाथों में हाथ लेने और देने से एक मजबूती पैदा होती है. दो हाथों की संवेदनात्मक ऊष्मा से रिश्ता प्रगाढ़ बनता है और कोमल भी.

यह एक बड़ी सच्चाई है कि दुनिया का सबसे मजबूत और नाजुक पुल होते हैं. दो लोगों के बढक़र मिले हुए हाथ!कहना न होगा कि हाथों के जरिये दो लोगों के रिश्तों में व्यापकता आती है और गहराई भी. मजबूतऔर नाजुकको इस प्रसंग में अनामिका ने जिस तरह अभिव्यक्त किया है, वह ध्यान देने लायक है. अमूनन मजबूतऔर नाजुकको विपर्यय समझा जाता है; पर यहाँ दोनों एकाकार हो गये हैं. मजबूती के साथ नाजुक. यहाँ मजबूती न तो आक्रामक वृत्ति से जुड़ती है और न नाजुक कमजोरी के साथ.
अनामिका की यह कविता अपनी विशिष्टता के बावजूद बरबस ही हिन्दी के दो श्रेष्ठ कवियोंकेदारनाथ सिंह और अरुण कमल-की कविताओं की याद दिलाती है. खास बात यह भी है कि अनामिका की यह कविता उक्त दोनों कवियों की कविताओं से जुड़ती है और अलग भी हो जाती है. केदारनाथ सिंह अपनी कविता में किसी कोमल हाथ को अपने हाथ में लेकर सोचते हैं कि दुनिया को ऐसे ही मुलायम और नर्म होना चाहिए. यह कवि की सदिच्छा भर है. इस कविता का दायरा रोमानी भावों तक सीमित है, जबकि अनामिका की कविता में दो लोगों से बढक़र मिले हुए हाथ, दुनिया का सबसे मजबूत और नाजुक पुल होते हैं. इस पंक्ति में बढक़रशब्द, अर्थ-विस्तार करता है. हाथ बढ़ाना, रिश्ते के प्रारम्भ का सूचक है. हाथ बढ़ाने से ही हाथ बँटाने की शुरुआत होती है.

अनामिका की यह कविता का काल-बोध तीन चरणों का है. मुहम्मद रफी की आवाज के जरिये अपने बचपन को अनामिका ने समाहित किया है. जब रफी साहब गाते थे नन्हें-मुन्ने बच्चे, तेरी मुट्ठी में क्या है?’ तो अगली पंक्ति मुट्ठी में है तकदीर देश की’– सुनने के पहले बालमन भोलेपन में, अपनी नन्हीं हथेली में रखे चॉक लेट को जेब में छुपाने लगता था. दूसरा चरण, युवावस्था का है; जब हाथों के तोते उड़ गये. अनामिका लोक में प्रचलित कहावतों, मुहावरों और शब्दावली से रचनात्मकता के पाट को चौड़ा करती हैं और कलात्मक भी बनाती हैं. इस कविता के विश्लेषण के दौरान केदारनाथ सिंह के अलावा अरुण कमल को भी याद किया गया था. अरुण कमल की कविता खुशबू रचते हाथमें वर्ग-वैषम्य को उजागर किया गया है. खूशबू निर्मित करने वाले हाथ कितने अभाव और गन्दगी में जीवन बिताते हैं, इसे रचनात्मक कौशल से अरुण कमल ने चित्रित किया है. अनामिका की कविता का आखिरी हिस्सा खुशबू रचते हाथसे, भिन्न आयाम रचता है. वैचारिक बिन्दु के हिसाब से यह भी कहना होगा कि अरुण कमल ने मजदूर वर्ग को अपनी उक्त कविता में चित्रित किया है, पर अनामिका की कविता का चित्र मजदूर की कैटेगरी में शामिल होने के साथ-साथ स्त्री पर केन्द्रित है.

अनामिका की कविता का यह अंश पढ़ें– ‘‘कल एक बरतन पोंछने वाले जूने से छिदी हुई, पानी की खायी/सुन्दर-सी खुरदरी हथेली/ तपते हुए मेरे माथे पर / ठंडी पट्टी-सी उतर आयी! मारे सुख के मैं/सिहर ही गयी!’’ झाड़ू पोंछा करने वाली मजदूरनी की, पानी की खायी खुरदरी हथेली के साथ कवि ने सुन्दरविशेषण का उपयोग किया है. खुरदरापन सौन्दर्य के पारम्परिक शास्त्र का अतिक्रमण करता है. खुरदुरापन, अनगढ़पन सौन्दर्य के साथ नवाचार करता है. यह श्रम के कारण निर्मित हुआ है. इस प्रसंग में सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की तोड़ती पत्थर और संजीव की कहानी दुनिया की सबसे हसीन औरत की याद भी स्वाभाविक है. कोमल हथेली के बरअक्स कड़ी, खुरदरी हथेली को सौन्दर्य का मानक बनाना सुन्दरता के मयार को बदलने की प्रस्तावना है. जब जूने से छिदी हुई और पानी की खायी, एक सुन्दर खुरदुरी हथेलीे से तपते माथे को सहलाया तो गोया वह ठंडी पट्टी जैसी अन्दर उतर गयी. इस स्पर्श ने सुख दिया और सिहरन भी पैदा की. तपते माथे को खुरदरी हथेली अटपटी नहीं लगी. रूखड़ी भी नहीं. अनामिका का कवि-मन यहीं तक सीमित नहीं रहता. वह पानी की खायी उसकी उँगलियों को उठाकर देर तलक सोचती रहती हैं. ‘‘फिर पानी की खायी. उसकी वे उँगलियाँ उठाकर. देर तक सोचती रही. निचली सतह का तरफदार. आबदार/ सीधा-सरल होने के बावजूद. पानी खा पाता है कैसे भला. मांस-मज्जा/ दुनिया की सबसे पानीदार/नमकीन, कामगार हथेली को?’’

काम करने वाली स्त्री की सबसे पानीदार, नमकीन और कामगार हथेली की मांस-सज्जा को पानी कैसे खा जाता है, यह कवि की चिन्ता का सबब है. दुनिया की सबसे पानीदार हथेली को पानी ही खा जाता है. अनामिका ने जिस पक्ष को अपनी कविता के इस हिस्से में चित्रित किया है, वह निहायत निजी स्वर है कवि का. माथे की तपन पर हाथ ठंडी पट्टी का अहसास देती है, अगर यहीं तक सीमित होता कवि-मन तो आगे की पंक्तियाँ, जहाँ इस कविता की आत्मा है, अभिव्यक्ति पाने से वंचित रह जाती. उस मजूदर स्त्री की उँगलियाँ उठाकर कवि देर तलक सोचती है. उसे विस्मय होता है कि आखिरकार पानी कैसे खा जाता है, माँस-मज्जा को? और वह भी उस हथेली की, जो दुनिया की सबसे पानीदार नमकीन कामगार की है. विडम्बना देखिए कि पानी भी किसकी मांस-मज्जा को खाता है? ज्यादा देर तलक पानी में जो हाथ डूबा रहता है, उसी को. जो हथेलियाँ पानी के साथ अधिक वक्त बिताती हैं, उसे खा जाता है.

अनामिका ने डाक टिकट पर एक कविता लिखी है. डाक टिकट शीर्षक कविता में रचनाकार स्त्री-पुरुष के रिश्ते की जटिलता का बखान करती है. इसमें स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की कोमलता और तनाव को अनामिका ने डाक-टिकट के बिम्ब से रचा है, वह बरबस ध्यान खींचता है. स्त्री-पुरुष के मध्य अन्योन्याश्रय सम्बन्ध होता है. दोनों की परस्परता और पूरकता से परिवार की रचना होती है. इस परस्परता में सत्ता-सम्बन्ध भी निर्मित होता है और रिश्ते की कोमलता के साथ-साथ तनाव भी पनपता है. अनामिका की पंक्तियाँ देखें– ‘‘बच्चे उखाड़ते हैं/ डाक टिकट/ पुराने लिफाफों से जैसे-/ वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/ कौशल से मैं खुद को/ हर बार करती हूँ तुमसे अलग!’’

इस कविता की स्त्री खुद को समर्पित कर, पुरुष की व्यक्ति-सत्ता में लीन होकर, प्रसन्न-भाव से रहने वाली नहीं है. वह आहिस्ता-आहिस्ता खुद को अलगाती है. पूरी कुशलता के साथ. ऐसा लगता है कि यह स्त्री परम्परा प्रदत्त पितृसत्ता के प्रभाव से खुद को अलगाती है, जैसे प्यार से बच्चे पुराने लिफाफों से डाक-टिकट उखाड़ते हैं. इस प्रक्रि या में डाक-टिकट की मानिन्द ‘‘मेरे किनारे फट जाते हैं. कभी-कभी कुछ-न-कुछ मेरा तो/निश्चित ही/ सटा हुआ रह जाता है. तुमसे!’’ कविता समझाती है कि अलगाव के क्रम में किनारे जरूर फ टेंगे और व्यक्तित्व का कुछ-न-कुछ अवश्य जुड़ा रह जाएगा. यह कविता स्त्री-विमर्श के विकास का सूचक है. इससे पता चलता है कि स्त्री और पुरुष भिन्न व्यक्ति-सत्ता होते हुए भी एकमएक हैं. यह कविता स्त्री की तरफ से लिखी गयी है. कविता बताती है कि स्त्री का कुछ-न-कुछ पुरुष में सटा रह जाता है. आशय यह है कि स्त्री को अलगाना पड़ता है, खुद को पुरुष से. कारण कि स्त्री के व्यक्तित्व का विलय हुआ था पुरुष सत्ता में.

अनामिका की कविता इस विलय को बखूबी समझती है और अपने व्यक्तित्व की हिफाजत के लिए, अलगाव पर बल देती है. बगैर अलगाव के स्त्री व्यक्तित्व की स्थापना नहीं हो सकती है. अनामिका ने इस दौरान जो काव्य उपचार किया है, काबिलेगौर है. कविता में, अलग करने के दौरान जैसे कभी किनारे फट जाते हैं, डाक टिकट के; वैसे ही स्त्री का भी अलगाव के दौरान कुछ-न-कुछ छूट जाता है, चिपका रह जाता है. इसी वजह से थोड़ा-सा विरल/झीना-सा हो जाता है. मेरा कागज. धुँधली पड़ जाती हैं. मेरी तस्वीरें. पानी के छींटे से. और बाद उसके हवा मालिक. उड़ा लिये जाए मुझे, जहाँ चाहे.’’
थोड़ा विरल, थोड़ा झीना होने की हालत में हवा का झोंका उड़ा ले जाएगा, यह रचनाकार को गवारा है. परन्तु अपने व्यक्तित्व को पुरुष-सत्ता में विलय कर देना नहीं, यह खास बात है.

कविता के जरिये स्त्री-विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए अनामिका स्त्री और पुरुष को भिन्न कोटि में रखते हुए भी, दोनों को एक-दूसरे का विरोधी बनाकर नहीं रचतीं. स्त्री और पुरुष की आपसी सम्बद्धता और परस्पर तनाव को अनामिका कलात्मक तरीके से सृजित करती हैं. यही खूबी इन्हें अनन्य बनाती है.
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राजीव रंजन गिरि
दूसरी मंजिल, सी 1/3, डीएलएफ अंकुर विहार,
लोनी, गाजियाबाद-201102 उ.प्र.

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  1. ‘‘बच्चे उखाड़ते हैं/ डाक टिकट/ पुराने लिफाफों से जैसे-/ वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/ कौशल से मैं खुद को/ हर बार करती हूँ तुमसे अलग!’’
    अनामिका को पढ़ते हुए औरत कविता में अपना पैर रखती है, विमर्श की तरह नहीं; जैसे वाव की सीढ़ियों तक उतरते चले जाना है ये. डाक टिकट में औरत अकेली कहां आती है..बच्चा, बचपन, स्त्री, पुरुष और एक घर उसकी बसावट में समा जाता है. उन्हें पढ़ना और सुनना बहुत सुखद . राजीव जी शुक्रिया.

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  2. अच्‍छा अालेख। राजीव को साधुवाद।

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  3. जिस बारीकी से आपने अनामिका जी की सृजनात्मकता का विश्लेषण किया है, काबिलेगौर है, आप बधाई के पात्र हैं राजीव जी.

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  4. bahut khoob....poorane andaz me....bariki se....bahut achchha lga.....

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  5. सुन्दर
    बहुत बहुत बधाई आपको
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !
    www.manojbijnori12.blogspot.com

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  6. सचमुच अनामिका अपने समकालीनों में अलग से जानी जाती हैं,अापने उनकी काव्य चेतना का गहरी पड़ताल की है,बड़ी सूक्ष्मता से विवेचन किया है,उनकी कविताओं के माध्यम से स्त्री चेतना के विस्तार को बताया है,मुझे थोड़ा अफसोस हुआ कि शीर्षक जितना व्यापक था उसके लिए उनकी और कविताओं पर भी विचार किया जाना चाहिए था,बावजूद इसके आपने कविताओं का अदभुत विश्लेषण किया है,,,

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  7. Anamica ji ke soch aur Giri ji ke lekhan ko dhanyawad....bada prashan hai...ki na kewal isa masih...balki kisi bhi devata ya masih ko masik dharma hota...to kya ye dharma ke thekedar ...mahione me 3 se 4 din kya unhe bhi achhut mante....??????

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  8. बहुत सधा हुआ निबंध. अनामिका जी के सृजन-जगत में पैठने का रास्ता बनाता हुआ. धन्यवाद - लेखक और संपादक दोनों को.
    बजरंग बिहारी तिवारी

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  9. अनामिका की कविता के बहाने हिंदी साहित्यकारों की तंगनजरी को बताता निबंध। अनामिका की कविता की सुंदरता की सुन्दर व्याख्या के लिये मुबारकवाद........
    भारतेंदु राज भारती

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  10. Dr R giri is a very good scholar. I am highly impress ed with his work. His contribution to Hindi litrature is invaluable.

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  11. Wt an impressive and expressive article... Good job... Congratulations... Bhavishya me bhi aap behatarin aur umda Kam krte rhen.... Hmari shubhkamnayen.

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  12. सराहनीय व उत्कृष्ट विचार। आप निःसंदेह बधाई के पात्र हैं।

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  13. संतुलित और समावेशी विचार ....

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  14. बेहद खूबसूरत विश्लेषण !!! आपने बहुत बारीकी से अनामिका जी की काव्य चेतना के विस्तार को कलमबद्ध किया है ।
    साधुवाद !!!!!!

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  15. सुशीलो मातृपुण्येन , पितृपुण्येन चातुरः ।
    औदार्यं वंशपुण्येन , आत्मपुण्येन भाग्यवान ।।

    अर्थात् कोई भी संतान अपनी माता के पुण्य से सुशील होता है, पिता के पुण्य से चतुर होता है , वंश के पुण्य से उदार होता है और अपने स्वयं के पुण्य होते हैं तभी वो भाग्यवान होता है , भाग्य प्राप्ति के लिए सत्कर्म आवश्यक है |

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  16. Aur Dr.Rajiv Ranjan Giri isi prakar ke satkarmo me sanlagna hain.

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  17. Extraordinary contribution to Hindi and its analysis of literature. Thank you and Congratulations!

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  18. अनामिका जी की कवितायेँ मन में गहरे उतरती हैं।उनकी सुन्दर कविताओं को पढ़ना अद्भुत अनुभव से गुजरना है।राजीव रंजन जी ने बहुत सार्थक समीक्षा की है।बधाई स्वीकारें।

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  19. बहुत सधा हुआ और बारीकी से विश्लेषित लेख है राजीव सर :) शुक्रिया

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  20. Rajiv bhai ne Anamika ki kavitaaon ka samyak moolayakan kiya hai. Anamika ko samajhna thoda kathin hai lekin yeh vishleshan Hindi ki is mahtwapoorna kavyitri ko samajhne mai haamari madad kar sakta hai. Rajiv ne Anamika ki kavitaaon ka merm pakda hai. Anamika ki kavitaaon ki bunawat thodi different hai. Muzaffarpur ki boli baani aur uska thaath Anamika ki kavitaaon ko thoda alag roop deta hai. Lekin iske baawjud Rajiv bhai apni soojh boojha aur mihnat se Anamika ki kavitaaon ke merm ko pakad lete hain. Ek aalochak ka yahi kaam hota hai ki wo paathko ko rachnakaar ko samjhaane mai madad karen.

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  21. आपने जिस सघनता व सूक्ष्मता के साथ रचनाकार के अवचेतन मन को समझने का प्रयास किया है, वह प्रशंसनीय है.....

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  22. डा. भावना सिन्हा14 नव॰ 2015, 5:51:00 pm

    अनामिका जी की कविता की श्रेषठ्ता और विशिष्ट्ता को विस्तृत फलक देती है आपकी श्रेष्ठ लेखनी। कविता के विभिन्न आयामो का सूक्ष्म विश्लेषंण पाठ्को मे जिज्ञासा बनाए रखती है। बेहद सधी हुई टिप्प्णी के लिए राजीव रजन गिरि जी को बहुत बधाई !

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  23. Kavi Anamika ki kavitao ki samiksha jo Rajiv Ranjan Giri ne ki hai, wah behad santulit aur tarksangat pratit hoti hai."khuradari hatheliyan" kavita ke shilp aur bimb ka vishleshan umda kism ka h.Hathon se bane pul, uski ushma sare sambandho ,vyaparo, aur nitiyo ka aadhar stambh hoti hai.Lekhak ne na kewal kavi ki kavita ke marm ko ubhara hai balki un sandarbho ko v shpasht kiya hai jo kavi Nirala , Kedar nath singh aur Arun Kamal ki kavitao me aaya hai.sath hi yeh bhi dikhane ki koshish ki hai ki kaise naram aur mulayam hath, khushboo rachte hath, pathar torne wale hatho ki ahmiyat hoti hai.iske tadantar Anamika ki kavitao me iska barik antar kaha h. We sikurte failte hatho ka vishleshan bimb ke sath vakhubi karte hain.
    "Daak tiket" kavita ki samiksha ke marfat unka stri abhivyakti ki vakalat karna saaf jhalak jata hai.jisme ve kehte hain ki stri ka algav ke dauran kuchh na kuchh chhut avashya jata hai.sath hi stri ka purush satta se vilgav nhi dekhte balki stri ke swatantra stitva ke pakshdhar jan parte hain.Daak tieket ki samiksha ke bahane unhone jaha ek or kavi ko saraha h wahi stri satta ki jhuthi vakalat karne wale sahitya ke alambardaro ko nasihat bhi de dali hai.kehna na hoga unhone kavitao ka mulyankan behad sanjida tarike se kiya hai, jisme unke swayam ke bhi stri -vimarsh ka drishtikon shpshat dikhai deta hai , jo ki kafi sakaratmak hai.

    Laksman kumar Jha
    Saharasa,
    Bihar

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  24. स्त्रियों की पीड़ा न तो नई है और न ही उसकी शिकायत। हां हिंदी साहित्य पर दृष्टिपात करते हैं तो शुरू में औरतों का जो दर्द सामने आया है वह मर्दों के द्वारा महसूस किया हुआ है न कि भोगा हुआ यथार्थ। यही कारण है कि नारी मुक्ति के दौर में जो भी सामने आया वह औरत के दर्द से इतर कुछ और ही नजर आता है। ऐसा नहीं है कि औरत मर्द से मुक्ति चाहती है। वह तो बस समाज व्यवस्था में अपनी शारीरिक स्थिति के कारण हाशिए पर समेट दिए गए जीवन से मुक्ति चाहती है। उसका यह संघर्ष सनातन है।
    यदि हिंदी पट्टी में गाए जाने वाले विवाह गीतों को ध्यान से सुनेंगे तो पता चलेगा एक बेटी अपने जन्म के समय से लेकर विदा होने तक की परिस्थितियों और बेटों के मुकाबले हुए भेदभाव को करुणा के साथ रखती दिखती है। वह मर्दों की व्यवस्था से सवाल पूछती है कि एक दिन मां बनकर बेटे और बेटी को जन्म देने वाली बेटी के जन्म पर उदासी क्यों छायी? यह सवाल न केवल आज भी जिंदा है, बल्कि उससे भी बड़ा हो चुका है। तर्क दिया जाता है कि बदलती दुनिया में औरत की भूमिका बदलती है। तो सवाल यह है कि वह अब क्या बन रही है? वह साध्य है या साधन है? और यदि है तो किसका, किसके लिए? कई सवाल हैं जिसका उत्तर हम तलाशते हैं। साहित्य यही भूमिका निभाता आया है।
    अनामिका हिंदी कविता में स्त्रियों का मुखर स्वर मानी जाती हैं। उनकी कविताओं में औरत होने के यथार्थ की अभिव्यक्ति है। यही उनकी कविता की खूबी है। जिस गहराई में उतरकर राजीव रंजन गिरि ने उनकी कविता को देखा और परखा है उसके लिए वह साधुवाद के पात्र हैं और अनामिका अपनी काव्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए।
    नरेंद्र अनिकेत

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  25. anamika ki kavitaen stri vimarsh ka mukhar roop hain, jiseapne aalekh me Rajeev Ranjan Giri ne poori samagrata ke saath rakhne ki koshish ki hai.Anamika ki kavitaon ko stri asmita ki unchaiyo par mahsus evam vyakt kiya hai Rajeev jee ne. saath hi dainik jeevan se juri chhoti chhoti anubhutiyon, sukh dukh ko Anamika jis tarah se apni kavitaon me guthati hain uska bhi visleshan bahut shiddat se kiya hai.kavi dwara chitrit stri vyaktitva ko itni saghan anubhuti ke saath mahsus tatha vyakt karne ke liye Rajeev jee ko sadhuvaad.yah ek nai shuruaat bhi hai.kavi tatha samikshak ko badhai.

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  26. Sir,
    Pratham drishtaya hi is aalekh she sakhshatkaar krne PR hi isme vyakt KI gyi samvedna aur paramparik tatha vartamaan sandarbh me Kiya gya vimarsha prashansaniya hai....
    Sath hi yathasthan apne isme datshanshastra ka jo samavesh kya hai wh apki apratim lekhn pratibha ka parichayak hai...
    Asha hi nhi waran purn vishwas hai KI aage v apne samagra lekhan se ap hmara margdarshan krte rhenge...
    Dhanyawaad..

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  27. नारीवादी_पुरुषों‬ की मानवीयता, सौम्यता और संवेदनशीलता का मैं कभी अनुमान भी नहीं लगा पायी.... संभव नहीं हो पाया मेरे लिए ये कभी...।
    विपरीत लिंग की समस्याओं, विचारों, स्थितियों, आवश्यकताओं और इच्छाओं को वह उनके स्तर तक जा कर कैसे समझ पाते हैं? कितनी उच्च संवेदनशीलता होती है इनमे कि इनका पुरुष होना इनपर हावी नहीं हो पाता।
    ऐसे सभी नारीवादी पुरुषों को मेरा सलाम और शुक्रिया!!!

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  28. सुपरिचित कवयित्री अनामिका के कविताओं पर यह आलेख बहुत ही सार्थक और सटीक है। आपने अपने विश्लेषणात्मक आलेख में वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में अनामिका की कविताओं को परखा गया है। ये कविताएँ स्त्री जीवन के विभिन्न पहलुओं को बखूबी उठती हैं। इस संदर्भ में भी यह विवेचन सारगर्भित है। बधाई राजीव जी

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  29. वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में सुपरिचित कवयित्री अनामिका जी की कविताओं का विश्लेषण आपने बहुत ही सार्थक और सटीक किया है।। जिस संदर्भ में आपने इन कविताओं को परख है ये कवितायेँ उस कसौटी की मांग भी करतीं हैं।
    बधाई राजीव जी

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  30. Congrats Rajivji. All are good in contents & some are visionary

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  31. बेहतरीन लेख के लिए राजीव जी को ढेरों बधाई। सधे हुए गम्भीर विचार और भाषा की रवानगी ने लेख को बेहद प्रभावशाली बना दिया। अनामिका जी ने स्त्री लेखन को नए आयाम और ऊंचाइयां दी हैं। डाक टिकट और खुरदरी हथेलियाँ नायाब रूपक हैं।
    बहुत बहुत शुभकामनाएं

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  32. अनुराधा गुप्ता29 जन॰ 2016, 9:28:00 pm

    बेहतरीन लेख राजीव जी।

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  33. भाषा एवं विश्लेषण की बारीक़ी के स्तर पर यह लेख भी उतना ही अपना लगा, जितनी अनामिका की कविताएं लगती हैं। इस विचारवान लेख के लिए बहुत बधाई।

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  34. बहुत संवेदनशील और अनामिका की कविताओ का मर्म खोलता गंभीर आलेख।युवा आलोचक राजीवरंजन गिरी को इस आलेख के लिए बधाई।

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  35. आपने बहुत ही सटीक टिप्पणी की है. वर्तमान में स्त्रीलेखन एक अजीब से मोड़ पर है, समझ नहीं आता कि स्त्री को कब समझा जाएगा. बहुत ऊहापोह है, और ऐसे में अनामिका की कविता पर आपका यह सुन्दर आलेख. बधाई आपको. सत्य है, स्त्री और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं, वे प्रतिस्पर्धी या प्रतिद्वन्दी नहीं है. जितनी सुन्दर कवितायेँ उतनी ही सुन्दर समीक्षा, बधाई आपको.

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  36. राजीव जी का यह विवेचनात्मक लेख काफी वस्तुपरक है.अनामिका की कवितायें खूब पढ़ी हैं.उनसे परिचय भी है.पत्राचार भी है.तो उन्हैं जो और और समझने का मन था.वो आज अपनी प्यास बुझी इस लेख को पढकर पाता है.

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  37. बात इतनी-सी है कि जब स्त्री खुद को महत्व देगी तभी दूसरे उसे महत्व देंगे। अनामिका जी की कविताएं इस बात को उस दौर में समझी थी जब स्त्री को न समाज महत्व देता था न वह खुद। या कि वह खुद ही खुद को दरकिनार करती थी तो समाज भी उसे हाशिये पर रख छोड़ता था। हालांकि आज भी हालात नहीं बदले लेकिन कम से कम आज पुरुष सत्ता में स्त्री अपनी जगह बनाने तो लगी है। काबिले तारीफ़ यह है कि राजीव रंजन गिरि जी पुरुष होकर अनामिका जी की कविताओं की बारीकियों को समझते हैं, समझाते हैं…अच्छा लगा यह जानकर-पढ़कर, गुनकर, समझकर। आमीन!
    -स्वरांगी साने

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  38. बेहद गहराई से अध्ययन पश्चात् ही ऐसा लिखना सम्भव है। खुरदुरी सुन्दर हथेलियाँ सौंदर्य का नया प्रतिमान और डाक टिकट एक अलहदा सा बिम्ब। आपके बारीक़ वर्णन ने अनामिका जी की कविताओं के साथ कनेक्ट कर दिया है। साधुवाद ऐसा महीन बुनावट लेख लिखने के लिए।

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  39. धन्यवाद राजीव रंजन गिरी जी ,आपने अनामिका जी की कविताओ से परिचय करवाया |आपने उनकी जितनी भी कविताओ का तथ्यगत विश्लेषण किया है ,वो उनके विचार ,सोच और सृजन का आइना साबित हुआ है |खुरदरी हथेलियों का सोन्दर्य ,उनके सपर्श में सुख की अनुभूति ....और सुख से सिहर जाना कवी ने बहुत ही महीन मर्म उकेर दिया संवेदना का |पानी दार हथेली का ,कैसे भला पानी खा जाता है मॉस -मज्जा ....यह नहीं की स्त्री की पीड़ा समझी नहीं जाती,आज जितना लिखा और पढ़ा जा रहा है वो इसका प्रमाण है की स्त्री समाज में एक जगह हासिल करने में कामयाब हुई है ,जहा पूर्व में उसे दरकिनार करके सिर्फ वस्तू समझा जाता था वहां उसने स्वयम को व्यक्ति सत्ता से विलग करके खड़ा किया है ..इसमें उसका कुछ तो टुटा ,कुछ रह गया जुड़ा हुआ ,स्व की खातिर उसे अलगना पड़ा .....अन्य कविताओं को पढ़ते हुए भी कवि की भाषा ने आकर्षित किया और आपने उनकी विशिष्ट व्याख्या करके भाषा को सम्प्रेषनीय विस्तार दिया है |डाक टिकिट जेसे अलहदा बिम्ब कवि के विलक्षण सृजन का परिचय देते है |आपकी समीक्षा अच्छी लगी ,शुभकामनाये |

    प्रवेश सोनी

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  40. अनामिका की कविताओं को जिस तरह से राजीव जी ने विश्लेषित किया है,उनकी ये वैचारिकी मुग्ध करती है। खुरदुरी हथेलियों के बिम्ब से जिस स्पर्श को उन्होंने अनुभूत किया है,एक पुरुष की गहन संवेदनशीलता है। स्त्रियों के अस्तित्व को पुरुष द्वारा तुच्छता से देखा जाता रहा है किन्तु यहाँ पानीदार नमकीन इन हथेलियों को पानी कैसे खा जाता है और फिर भी वे खुरदुरी हथेलियाँ ठंडक ही पहुंचाती हैं,.जब पानी नही भूलता तो वे कैसे भूल जाएँ अपना गुण धर्म,किसी भी युग में स्त्री सदा दूसरों को अमृतपान करा स्वयं विषपान ही करती आई है किन्तु हौले हौले इस छवि से खुद को उसे अलगना ही पड़ा क्योंकि पुरुष ने उसके इस वैशिष्ट्य को कभी इस बारीकी से समझने का प्रयत्न ही नही किया। यहाँ राजीव रंजन गिरी जी ने उन महीन तंतुओं का एक एक अणु हमारे सामने खोलकर सबकी नज़रों में ला दिया है,.चाहे वो डाक टिकिट के बिम्ब वाली कविता हो चाहे खुरदुरी हथेलियों वाली स्त्री पुरुष के अन्तर्सम्बंध की इतनी अद्भुत व्याख्या मैंने इस लेख के पूर्व कहीं नही पढ़ी। राजीव रंजन गिरी जी आफरीन आफरीन इस आलेख के लिए आपकी लेखकीय क्षमता चकित करती है।

    आरती तिवारी

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  41. सुपरिचित और वरिष्ठ कवयित्री अनामिका की कविताओं में कवि का चेहरा दीखता है चूँकि उनकी कविताएँ कांच की तरह पारदर्शी हैं।अनामिका की कविताओं की तुलनात्मक परीक्षण और विवेचना करते हुए राजीव जी ने उनकी अद्भुत कविता डाक
    टिकट का उदाहरण भी दिया है।यह अनामिका की कविता की ताकत है कि वे लोक में प्रचलित कहावतों,मुहावरों और शब्दावली से रचनात्मकता के पाट को चौड़ा करती हैं और कलात्मक भी बनाती हैं।विश्लेषण के क्रम में यह तथ्य भी रेखांकित किया गया है।

    राजीव रंजन गिरी ने तार्किक विश्लेषण करते हुए कहा है कि अनामिका की कविताओं में स्त्री और पुरुष को भिन्न कोटि में रखते हुए भी,दोनों को एक दूसरे का विरोधी बना कर नहीं रचतीं।मेरा मानना है कि यहीं अनामिका की कविताएँ समकालीन महिला कवयित्रियों की कविताओं से अलग खड़ी होती हैं।राजीव जी की यह स्थापना महत्वपूर्ण और काबिलेगौर है।अनामिका की कविताएँ स्त्रीविमर्श के बने बनाये सांचे को तोड़ती हैं।

    अनामिका की कविताओं की सम्यक और यथार्थ मूल्यांकन के लिए राजीव रंजन गिरी बधाई के पात्र हैं।





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  42. "अनामिका की स्त्रिया "लेख बहुत ही अच्छा लगा। इस लेख में जिस कविता की भी चर्चा की गयी है वो कवियत्री के बिचार ,सोच और सृजन को प्रस्तुत करता है

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  43. बेहद बारीकी से अनामिका की कविताओं में स्त्री की विवेचना की है आपने। हर कविता में स्त्री अपने अस्तित्व के साथ मौजूद है। वह खुद को और पुरुष को पूर्ण बनाने के लिये विलीन भी होती है पर अपना अस्तित्व नहीं खोती और यही सच्चे अर्थों में स्त्री विमर्श है। आभार एक सार्थक विश्लेषण पढवाने के लिये।

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  44. अनामिका जी ने अपनी कविताओं में नारी मन के कई पक्ष उद्घाटित किये हैं। कवि की कविताओं का विश्लेषण कवि के साथ साथ साहित्य को भी नवीन आयाम देता है।जिस शिद्दत से अनामिका जी ने स्त्रियों के जीवन को अपनी कविताओं में चित्रित किया है उतनी ही सघनता से राजीव जी ने उन कविताओं को व्याख्यायित भी किया है। रचनाकार की रचना को दूसरों की दृष्टि द्वारा अवलोकन किया जाना रचना को नवीन आयाम देता है। बधाई

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  45. किसी भी कविता को देखने के तरीक़े पढ़ने और समझने वाले के भीतर उसकी अपनी अनुगूंज पर निर्भर होते हैं, वही कोण समीक्षा में व्यक्त होता है,अनामिका की कविता उनकी स्त्री और उसके बदलाव की आहट आप नज़दीक से पढ़ पाए हैं, बधाई.

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  46. किसी भी कविता को देखने के तरीक़े पढ़ने और समझने वाले के भीतर उसकी अपनी अनुगूंज पर निर्भर होते हैं, वही कोण समीक्षा में व्यक्त होता है,अनामिका की कविता उनकी स्त्री और उसके बदलाव की आहट आप नज़दीक से पढ़ पाए हैं, बधाई.

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  47. कितना सच है कि ‘दुनिया का सबसे मजबूत और नाजुक पुल होते हैं. दो लोगों के बढक़र मिले हुए हाथ!’. अनामिका जी ने जीवन को जिस तरह से देखा है उसे देखने के लिए एक संवेदनशील इंसान होना जरूरी है। नि:संदेह आपकी दृष्टि इसे पूर्णत: समझ रही है। जीवन स्वंय एक कविता है जिसमें अनेक रंग है, पर कुछ ही रंग हम सभी देख पाते हैं। अनामिका जी ने सभी रंगों को देखा है और यही इनकी खासियत है जिसे आपकी समीक्षा ने पुष्ट किया है। यूँ अनामिका जी को मैंने पढा नहीं है लेकिन आपकी समीक्षा से उनकी लेखनी का अंदाजा लग गया है। उत्कृष्ट समीक्षा के लिए आपको ढेरों बधाई। शुभकामनाएँ।

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  48. अनामिका की कविताओं का आपने बहुत सूक्ष्म विश्लेषण किया . बधाई राजीव जी .

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  49. समालोचन पर पिछले हफ्ते से आपके कुछेक आलेख पढा। आज सोचा लिखूँ। अनामिका के काव्य में प्रवेश करने में सफल निबन्ध। शैली बजी शानदार।
    -पंकज पाठक

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  50. अनामिका के काव्य में प्रवेश करने में सफल निबन्ध। शैली भी शानदार।
    -पंकज पाठक

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  51. Bahut khoob, bahut hi achha Anamika Jee ki kavitaon ka vishleshan ��

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  52. राजीव ने अनामिका जी की कविताओं में उस स्त्री को ढ़ूंढ़ने, पहचानने की, व्याख्यायित करने की कोशिश की है जो अपना स्वतंत्र व्यक्तितव रखती है।

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  53. सर अनामिका की कविता में जो दुनिया के सबसे नाजुक पुल की बात है इस पंक्ति में हमें एक दूसरे से जोडने कि कोशिश की साथ ही इससे सामाजिक असमानता भी कम होगा ।

    अनामिका जी अपने स्त्री कविता के माध्यम से समक्षा करते हुए सच्चे अर्थो के माध्यम से स्त्री विमर्श कि कल्पना की है आप अपने व्याखान से सरल और सुशोभित शब्दोंं उसे सार्थक बनाए है।
    *सादर आभार।*

    प्रश्न
    सर क्या अभी के समय में भी स्त्री को सामाजिक स्तर पर सारी स्वतंत्रा क्यों नहीं प्राप्त है?

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