मैं और मेरी कविताएँ (दस) : बाबुषा कोहली

किताबें
 


“It is a test (that) genuine poetry can communicate before it is understood.” —

 T. S. Eliot (from the essay -Dante.)

 

समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने निम्न कवियों की कविताएं पढ़ीं और जाना कि वे कविताएं क्यों लिखते हैं.  

आशुतोष दुबे/अनिरुद्ध उमट/रुस्तम/कृष्ण कल्पित/अम्बर पाण्डेय/संजय कुंदन/तेजी ग्रोवर/लवली गोस्वामी  /अनुराधा सिंह

इस श्रृंखला में पढ़ते हैं – बाबुषा कोहली को.

बाबुषा कोहली किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. नई सदी की हिंदी कविता का जो मुहावरा बना है उसमें उनकी ख़ास उपस्थिति है. कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर उन्होंने हिंदी कविता को नया चेहरा दिया है. समालोचन उनकी यात्रा का साथी रहा है, उनकी कविताएँ प्रमुखता से यहाँ छपती रहीं हैं. उनकी प्रसिद्ध कविता ‘ब्रेक-अप’ भी यहीं छपी थी. दो संग्रह प्रका शित हैं और इधर वह लघु फ़िल्में भी बना रहीं हैं.

आइये देखते हैं बाबुषा कविता क्यों लिखती हैं और उनकी कुछ नई कविताएँ भी पढ़ते हैं.   

 

मैं कविता क्यों लिखती हूँ                               
बाबुषा कोहली  
 




कोई ढाई-तीन बरस पुरानी बात है. बरसात बीतने के बाद क्वार मास के उमस भरे दिन चल रहे थे.  मैं दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों को वॉल्ट व्हिटमैन की कृति 'लीव्स ऑफ़ ग्रास' से एक कविता पढ़ा रही थी. कक्षा समाप्त होते ही एक छात्र मेरे साथ-साथ कक्षा के बाहर तक चला आया. उसने कहा कि साइंस और मैथ्स के साथ जीना कितना कठिन होता जो कविताएँ संभाल न लेतीं.  बात हृदय को स्पर्श कर गयी. इसलिए नहीं कि विद्यालयी -पाठ्यक्रम में एक विद्यार्थी ने विज्ञान व गणित के समकक्ष साहित्य को महत्व दिया बल्कि इसलिए कि एक किशोर ने सुनिश्चित किया कि व्यावहारिक जीवन का कोई अभौतिक-सा ऐसा पक्ष अवश्य है जो लड़खड़ाए तो कविताएँ संभाल लेती हैं.

 

यह प्रसंग लिखते हुए कविता की अनगिनत कक्षाएँ मेरी आँखों के सामने घूम रही हैं.कभी टैगोर की 'द लास्ट बारगेन' से गुज़रते हुए विद्यार्थियों के मध्य सन्नाटा पसर गया तो कभी बेरीमैन की 'द बॉल पोएम' की किसी पंक्ति में कक्षा के एक बच्चे की सुबक अटक गयी. ज़ुल्फ़िकार घोष की 'द ज्यॉग्रफ़ी लेसन' विद्यार्थियों व मेरे मध्य संवाद का ईंधन है. हर सत्र में इस कविता के बाद वार्ता का जो सिलसिला प्रारंभ होता है तो फिर हफ़्तों, महीनों, बरसों तक थमता नहीं. कविता की कक्षाओं से विद्यार्थियों को मैंने प्रश्न लेकर जाते देखा है,उत्तरों के लिए भटकते और चटकते देखा है, कविता के ही गोंद से अपनी टूटी-फूटी चिप्पियों को चिपकाते-जोड़ते देखा है. विद्यार्थियों के नरम गुलाबी हृदय-परिसरों में मैंने कविता की आवश्यकता, अनिवार्यता और अपरिहार्यता को धीमे-धीमे आकार लेते देखा है.

 

बचपन के दिनों को याद करती हूँ.  गुड्डे-गुड़िया खेलने के वे दिन, जब मैं कच्चे काग़ज़ों में चिड़ियों व पेड़ों पर ढेरों पंक्तियाँ लिखा करती और लापरवाही से यहाँ-वहाँ उड़ा-बहा दिया करती. कभी कमरे के अंदर कोई हवाई जहाज़ उड़ता पाया जाता तो कभी बरसात के पानी में नाव सिरा दी जाती.  कभी टेबल पर ही काग़ज़ तितर-बितर पड़े रहते तो कभी एक विशिष्ट ढंग से काग़ज़ के फूल बना उन पर इत्र छिड़क कर तकिये के नीचे रखने की कवायद की जाती.  मेरी माँ उन काग़ज़ों को सहेजती फिरतीं और समझातीं कि इन काग़ज़ों को मुझे लापरवाही से नहीं बरतना चाहिए.  काग़ज़ के यहाँ-वहाँ पड़े इन्हीं पुर्ज़ों की बदौलत मेरे जीवन में डायरी दाख़िल हुई.  

 

इस आलेख का प्रारंभ मैंने दो प्रसंगों से किया.  इन दोनों बातों का मेरी कविता-लिखाई से प्रत्यक्ष संबंध नहीं है मगर दोनों ही बातें परोक्ष रूप से परस्पर जुड़ते हुए मेरी कविता की बुनावट में अपनी भूमिका तय करती हैं .  

 

"पेड़ों के लिए लिखी कविता-

काग़ज़ तक पहुँचती है,

पेड़ों तक नहीं.

 

शोषितों के लिए लिखी कविता-

गोष्ठियों तक पहुँचती है, 

शोषितों तक नहीं.

 

ईश्वर के लिए लिखी कविता, 

फ़साद तक पहुँचती है, 

ईश्वर तक नहीं.

 

प्रेयस के लिए लिखी कविता,

ईश्वर तक पहुँचती है, 

प्रेयस तक नहीं."

 

 

कुछ वर्षों पूर्व हताशापूर्ण चित्त की अवस्था में यह कविता घटित हुई थी. अब यूँ लगता है मानो अपने सुपात्रों की तलाश में भटकती हर कविता विद्यार्थियों तक पहुँच सकती है. माँ मुझे छुटपन में सिखाना चाहती थीं कि मैं अपनी कच्ची लिखाई को सहेजूँ. विद्यार्थी मुझे वह कारण देते हैं कि मैं अपनी कविताओं की सहेज-संभाल किया करूँ.

 

प्रिय 'समालोचन' की ओर से कुछ समय पहले यह प्रश्न मुझ तक आया था कि मैं कविता क्यों लिखती हूँ.  तब मैं उत्तर नहीं दे पाई थी.  इस प्रश्न की सीमा ही मेरी चुप्पी का कारण रही. यह बताते ही कि मैं कविता क्यों लिखती हूँ, एक या उससे कुछ अधिक कारणों से मैं सीधे-सीधे बँध जाने वाली हूँ.  जबकि सच तो यह है कि मैं असीमित कारणों से कविता लिख रही हूँ. मेरे भीतर कविता श्वास की तरह ही अनवरत चलती है.  जब कभी श्वास तीव्र या धीमा हुआ, कविता प्रकट हो गयी.  कविता से मेरा अस्तित्व पृथक नहीं है.  मगर यह भी उतना ही सत्य है कि कविता ही मेरा साध्य नहीं है, ही मेरे अस्तित्व की कोई बुनियादी शर्त.  वास्तव में मैं जीवन की पिपासु व जिज्ञासु हूँ.  यह मेरी अथक जिज्ञासा ही है जो मेरी कविताओं में ध्वनित होती है.  मेरी कविताएँ जीवन के जल की खोज और चंद झीलों, झरनों व पोखरों के तुड़े-मुड़े मानचित्र के अतिरिक्त हैं भी क्या ? मेरी अभिरुचि जीवन की उन सारभूत बातों तक जाती है जो सतह की गतिविधियों को प्रभावित करती हैं.  कविता मेरे लिए जीवन के  ऐसे तमाम पक्षों के स्पर्श या प्राकट्य का उपकरण है.  

 

"प्रेम, प्रकृति, जीवन 

या ईश्वर मेरे विषय नहीं हैं -

इनका विषय मैं हूँ"

 

पिछले बीसेक बरसों से मुझ पर घटित हो रहे जीवन को निचोड़ती ये पंक्तियाँ फ़रवरी, २०२० की मेरी डायरी में दर्ज हुईं.  वास्तव में कविता मैं उसी बल के कारण लिखती हूँ जिसके चलते धरती पर मेघ बरसते हैं या पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है.  कविता मैं उसी विधान के तहत लिखती हूँ, जिसके चलते दिवस व रात्रि घटित होते हैं व ऋतुएँ अस्तित्व में आती हैं. अंतोनियो पोर्किया का कथन है कि मैं कविताओं तक नहीं जाता, कविताएँ मुझ तक आती हैं.  पोर्किया के आत्म से अनुमति ले इस मूल्यवान कथन के नीचे मैं भी हस्ताक्षर करना चाहती हूँ.  जितनी उनकी यह बात है, उतनी ही मेरी भी.


अपनी प्रेम कविताओं के संदर्भ में भी कुछ बातें मुझे डायरी से उद्धृत करने जैसी लगती हैं.  


"लोगों ने जिन्हें मेरी प्रेम-कविता जान कर प्रशंसा-आलोचना का मान दिया, वास्तव में अब वे मुझे प्रेम-कविताएँ लगती ही नहीं. अब तो यूँ जान पड़ता है जैसे कुछ वर्षों पहले तक की अधिकतर कविताएँ प्रेम की नहीं, प्रेम तक मेरी यात्रा की कविताएँ हैं. यह यात्रा सतत है, जिसके हर स्टेशन पर स्वयं से मिलना होता है. पूर्णतः नग्न आत्म-स्वरूप का क्षणिक अवलोकन और फिर ट्रेन का चल देना.  प्रेमी की भूमिका महज़ टिकिट-चेकर की ही है जो टिकिट देखता है, पैनल्टी लगाता है, कभी साथ बैठ जाता है, हँस-बोल लेता है, उठ कर आगे बढ़ जाता है, फिर सारे डिब्बों में घूम-फिर सन्नाटा पा लौट आता है.  यह अनिवार्य नहीं कि जो इस ट्रेन में सवार हो, वह यात्रा कर ही रहा हो.  मगर जो एक बार यात्री हो गया, यह तय है कि वह बीच में चेन खींच कर उतर नहीं सकता.


प्रेम में यात्रा तभी संभव है, जब प्रेम तक की यात्रा पूरी हो जाए. "

कविता मुझ तक किस तरह आती है, इस बात की अनेक तहों के नीचे मुझे संकेत मिलते हैं कि कविता मुझ तक क्यों आती है.  पर इसे किसी रिपोर्टर की तरह न ही ज्यों का त्यों बताया जा सकेगा, न ही मैं ऐसी कुचेष्टा करती हूँ.  कभी-कभी स्वयं को प्रकट करना भी अनाधिकृत क्षेत्र में अतिक्रमण होता है.  अपना किनारा भी कहाँ पकड़ आया है कि लम्बाई-चौड़ाई नाप-जोख कर सब कुछ ठीक-ठीक बता दिया जाए.  कविता को इतना ही स्पष्ट होना होता तो फिर वह कविता होती ही क्यों, नवीं कक्षा की फ़िज़िक्स की किताब न होती ? यूँ तो फ़िज़िक्स के कण-कण में भी क्वांटम स्तर पर अमूर्त की कविता निरन्तर तरंगित हो रही है.  रहस्य से जगमग यह ब्रह्मांड अपने आप में एक महाकाव्य है जो अनंत माध्यमों से अभिव्यक्त हो रहा है, जिसका ठीक-ठीक कारण कहने में वैज्ञानिक भी हिचकते हैं.

 

निश्चित तौर पर नहीं बता सकती कि कविता कब तक मेरे पास आती रहेगी पर इतना तय है कि वह जब भी मुझ से आएगी, मुझे फोड़ कर ही आएगी ज्यों एक बीज मिट्टी की परतों को फोड़ पौध बन पनपता है.  तब बीज का अस्तित्व विलीन हो जाता है.  

 

बाशो की एक कविता है :

 

"मंदिर की घण्टियाँ बजना बंद हो चुकी हैं

पर फूलों से अब तक सुनाई पड़ती है

उन घण्टियों की ध्वनि."

 

घण्टियों के जिस नाद को बाशो ने फूलों के रूप व सुगंध में सुना है, उस महीन संगीत को ही सुनने और कुछ प्रेमी स्वभाव के लोगों को सुनाने के लिए कभी-कभी मैं कविता लिखती हूँ.

_____________________

 


 

बाबुषा कोहली की कुछ कविताएँ

 

 

१.

सुन्न सपाट समय की कविता

 

आज फिर एक तितली आ बैठी है 

नहीं, तुलसी पर नहीं

अब की पाँव के अँगूठे पर

 

तब मैं यह सोच रही थी 

कि जीवन कितने अकल्पनीय ढंग से वार करता है 

कई-एक बार तो ऐसे कि दक्षिण भारतीय फ़िल्मों के स्टंट मास्टर को भी संकोच हो जाए

(इधर

फ़्लैशबैक के इस पार

पाँव के अँगूठे पर तितली की चहलकदमी जारी है)

 

एक बार मैंने अपने एक विद्यार्थी से कहा था

कि हर दिन सुबह-सुबह सूर्य बजाता है सितार

इसे हर कोई नहीं सुन सकता

सूक्ष्मता का संगीत माँगता है सुनने का रियाज़

और इसे सीखने में देर नहीं करनी चाहिए

आने वाले वर्षों में जब कान

कोलाहल की सरगम सुनने के अभ्यस्त हो जाएंगे

तब आँखें सुन सकेंगी सूर्य का सितार

और तुम मानवता की मदद कर पाओगे

 

इन दिनों जब मेरी आँखों की पुतलियों में

कोई ख़ास हरकत नहीं होती

कोई कस्तूरी नहीं बेधती इन्द्रियों की सत्ता 

कुछ नहीं बचा जो कामना के घाव लहकाए

या कि ऊबड़-खाबड़ राहों पर दौड़ाए

इन दिनों जब लिखने के अलावा

जीवन में कोई विवशता नहीं रही

और समझ भी नहीं आता कि यह मृत्यु है 

या निर्वाण

एक गीली चुप्पी मुझ पर लगातार बरसती है

और सच तो यह है कि इसे मौन कहने में मुझे हिचक है

 

बादल तक जानते हैं सूर्य के सितार के

टूटे तार की मरम्मत करना

और बादल कहीं दूर निकल जाएँ

तो पपीहों को आता है उन्हें वापस बुलाना

ख़बरचियों को आता है

लुप्त होते पपीहे को बचाए रखना 

और कवियों को आता है कीचड़ पर चलना

फिसलना, गिरना, उठना, संभलना, फिर चलना

 

कितना अद्भुत है यह संसार 

जहाँ हर किसी को कुछ न कुछ करना आता है

(और एक मुझ नामुराद को दो कप ढंग की चाय बनाना तक नहीं आता !

यह सोच कर मुझे शर्म आई)

 

तब तक तितली मेरे कांधों तक आ पहुँची थी

मैंने पाया हर कोई ऊँचाई चढ़ रहा है

यह अद्भुत बात थी

 

( हमारे दौर में 'अद्भुत' शब्द इस क़दर घिस चुका है कि उसे दो बार और घिस देने में ज़रा भी नहीं ठिठकी मैं, जबकि बचपन में एक तितली तक देख कर मेरे रोएँ हरी दूब हो जाया करते थे )

 

वही विद्यार्थी एक बार फिर मिलने आया

मुझे समझ नहीं आया कि उसे क्या नया बताऊँ

ख़ास तौर पर तब जबकि सब अद्भुत सरीखा ही है

 

और मुझे यह तक ठीक-ठीक नहीं मालूम

कि हम दोनों में से विद्यार्थी कौन है

 

मैंने कहा,

देखो ! यह तितली कब से खेल रही है यहाँ

कुछ लोगों को मदद की ज़रूरत है

मेरी आँखें सुन्न पड़ी हैं

क्या सूर्य का सितार अब भी बजता है ?

 

उसने मुझे ध्यान से देखा.

 

उस रोज़ स्वप्न में तीन गोलियाँ लगी थीं मेरे सीने पर

मेरे इर्द-गिर्द उड़ रही थीं लाल पर वाली 

असंख्य तितलियाँ

 

और मैं

एक सुन्न पड़ी भीड़ में पता लगाने चली गई थी 

कि मैं ज़िन्दा हूँ या मृत

(अक्टूबर,२०१६)

 

 

२.

जान-ना

 

नीम का पेड़ नहीं जानता कि नीम है उसका नाम

न पीपल के पेड़ को पता कि वह पीपल है

यह तो आदमी है जो जानता है कि उसका नाम

बाँकेबिहारी दुबे है और उसके पड़ोसी का 

शेख़ रहीम.

आदमी अपने नाम के गौरव के बारे में जानता है.

 

और भी बहुत कुछ जानता है वह-

नामों की उत्पत्ति और नीति-वचनों के बारे में

इतिहास और न्याय के बारे में

तत्त्व-मीमांसा और वेदांत के बारे में

रामायण, हदीस और क़ुरआन के बारे में

रहीम की दूसरी जोरू और तीसरी सन्तान के बारे में

पर आदमी यह नहीं जानता कि रहीम के बारे में जानना;

और रहीम को जानना-

दो अलग बातें हैं

 

आदमी यह भी नहीं जानता-

कि अतिरिक्त जानना एक तरह की अश्लीलता है.

 

आदमी केवल पेड़ों के नाम  जानता है

पेड़ों को नहीं.

 

(मार्च, २०२०)

 

३.

अनसुनी

 

जनता सुनती है जिसे, 

नेता बना

नहीं सुनती जिसकी, 

तानाशाह हो गया.

समाज सुनता है जिसे, 

सरपंच बना

नहीं सुनता जिसको, 

कवि हो गया.

कविता सुनाता है जो, 

साहित्यकार बना

जिसे सुनती है कविता, 

प्रेमी हो गया.

जो हर किसी का सब कुछ सुनता है धीरज से

चर्च का कन्फ़ेशन बॉक्स बना

किसी माई के लाल की 

जो कुछ नहीं सुनता ( साल्ला ! )

ईश्वर हो गया.

(जून २०१९)

 

 

४.

शब्दों के स्तूप में अर्थ का नख

 

छाती से शिशु का शव चिपकाए 

बिलख-बिलख गिरती थी 

धरती पर बेसुध हो

किसा गौतमी

 

धरती के धीरज पर धूजती

हाय हाय करती

शोक से लिथड़ाई 

बावरी-सी फिरती थी

किसा गौतमी

 

तब किसी ग्रामीण ने कहा-

तथागत के द्वार जा !

 

आस का दीपक बाले

गोद में उठाये निष्प्राण देह 

आकाश का पता ढूँढ़ने 

पृथ्वी पर दौड़ी थी 

किसा गौतमी

 

आँखों पर अश्रुओं का पट था

कुछ भी न दिखता 

लाग के सावन की अंधी 

हरे-हरे घाव वह उघाड़ती

टूटी टहनी-सी बार-बार गिरती थी

किसा गौतमी

 

देर तक मौन रहे मारजित

फिर बोले-

पुत्र पुनर्जीवित होगा अवश्य

एक विधि से.

 

क्षण भर में नाचने लगी

बिना विधि जाने ही

किसा गौतमी

 

( तब कौतूहल-से भरी किसी बाबुषा ने 

   शोक को संबोधित किया -

             

    हे शोक ! 

             तू कितना अस्थायी 

                       व उथला है-

 

   विश्व के सबसे व्यथित प्राणी के निकट भी

              क्षण भर ही ठहरा है ?

 

    हाय ! मरने को आतुर थी अविलम्ब

        किस भ्रम के अधीन हो नाच रही-

                                 किसा गौतमी ? 

      

   तब शास्ता ने सातवें शरीर में प्रवेश कर

              अबोध बाबुषा की दुविधा का 

                                  अंत किया.

         

          लौटे वहीं-

          जहाँ सुख की आस में विहँसती थी-

          किसा गौतमी.  )

 

पुत्र पुनर्जीवित होगा अवश्य 

एक विधि से-

 

जा ! मुट्ठी भर सरसों लेती आ 

ऐसे घर से

जहाँ कभी कोई न मरा हो

पुत्र तेरा जागेगा पुनः

किसा गौतमी

 

कहते हैं,

पुत्र तो न जागा किन्तु उस दिन

प्रथम बार जागी थी

किसा गौतमी

भगवान व्यथाओं के उपवन से बोध के पुष्प चुन गाथाएँ कहते हैं.  अबोध बाबुषा की कविता स्तूप भर है, जहाँ उनका नख रखा है.  शाक्यमुनि की अनुमति ले बाबुषा ने उनके नख से लिखा- 

 

मृत्यु-

नींद का नीला फूल है

दुनिया भर में पाया जाने वाला-

 

हर आँगन उगता

ऋतुओं से निरपेक्ष वह

ऐसा प्रतीत होता कि मानो खिला अकस्मात् 

 

देखा ही नहीं कभी बीज को

गड़ा रहा माटी की देह में

श्वास में पड़ा रहा

 

नींद का वह फूल कहीं भी खिले-

सुदूर या निकट

किसी भी रुत

 

तीखी सुगन्ध से- 

आज भी जाग उठती है

किसा गौतमी

 

(अप्रैल २०२०)

 

 

५.

क्या पता 

 

कल को वहाँ किसी पीली तितली की चुहल पर 

अँगड़ाई ले कोई गुलमोहर

 

क्या पता !

 

बर्फ़ की बिन्दियों से झिलमिला उठें 

पहाड़ियों के माथे

दाग़ धुल जाएँ

 

अर्थहीन शब्दों को फूँक कर उड़ा दे कोई बच्चा 

काग़ज़ के हवाई जहाज़ों में 

 

होने को कुछ भी हो सकता है

( दिख सकता है )

स्वप्नों के मायावी दर्पण में

 

घड़ी वह झील है 

जहाँ तैरती हैं दो मछलियाँ

आँखें खोले

 

घड़ी पर टपक जाए दो बूँद पानी तो घड़ी बंद हो जाती है

 

अकूत संपदा है मेरे पास चाँदी के मोतियों की

आराम से ख़रीदी जा सकती है 

कुछ एकड़ ज़मीन वहाँ

( नहीं ख़रीदती. )

 

चन्द्रमा से चन्द्रमा दिखाई नहीं देता

(जुलाई, २०२०)

  

 

६.

मानिनी का प्रणय-गीत 

 

तब काष्ठाघातिनी ने उस कठकरेज साधक से कहा –

 

देह की दहकती सिगड़ी में

देह का कच्चा कोयला डालो

मन के रिक्त पात्र में

मन का अजूठा अन्न परोसो

 

आत्मा की तृषा के लिए

आत्मा के कुएँ से जल खींचो

अधर रखो कविता की नाभि पर

श्वास की नमी से शुष्क श्वास सींचो

 

हृदय के सरोवर में बोर कर तर्जनी

भाल पर जल का तिलक करो

 

तब मान धरो ज्ञान धरो प्राण धरो

देहरी पर सारा सामान धरो

और भीतर आओ

पृथ्वी की धड़कन पर ध्यान धरो

 

अपने अस्तित्व के चहूँ ओर

कुंडलिनी-सा लपेटो गहनता को

जोग की जोत से जोत जला कर

अपने निकट बैठो

 

कामना का विष चखा है मेघ ने

देखो ! वह नीला पड़ा है

भादो के टीले से टिका-

                   खड़ा दूर 

और ज्वर से जूझती धरती का मुख

चन्द्रमा-सा चैत के

पीला पड़ा है

 

वेदों से सज्जित सिर रखो वेदी पर

वंदना करो प्रकृति की

देवी का आह्वान करो

वाणी से

वचन से 

व्यवहार से

 

विष के विपन्न को विष के वैभव से काट दो

जो इससे कम कुछ लाए हो

कुमार !

 

तब जाओ तुम

जाकर सब वंचितों में बाँट दो

(अप्रैल, २०२०)

 

 

७.

जीवन  के शिल्प में  


कविता,

अपने सौंदर्य के लिए 

थोड़ा छद्म संभव कर लेती है-

बिना हिचकिचाहट.

 

एक सच्चे जीवन की उपमा,

एक सच्चा जीवन ही हो सकता है.

 

कविता आग का फूल है ; जीवन फूल की आग.

कविता नदियों का कोरस है ; जीवन पानी का 

एकल आलाप.

 

सरल है कविता की कठिन बनावट को अर्जित करना

जीवन की सरल बनावट कठिन है

 

कोई आता है अब मेरे यहाँ कविता से मिलने

कहती हूँ-

बैठो.  फूल की आँच चखो.

पानी पियो.  

 

कविता के शिल्प की नहीं,

मुझसे जीवन के शिल्प की बात करो.

 

(कविता में अकर्मक क्रिया हूँ / जनवरी, २०२० )

 


८.

दो टूक :  अज्ञेय से 

 

तुमने कहा-

 

"मैं मरूँगा सुखी

मैंने जीवन की धज्जियां उड़ायी हैं"

 

और मैं जीती हूँ सुखी

मृत्यु ने बार-बार मेरे अहं की धज्जियां उड़ायी हैं

(जुलाई, २०२०)




बाबुषा की कुछ कविताएँ यहाँ पढ़ें :  १// / ४/ 


 

बाबुषा कोहली
जबलपुर  
 
कविता संग्रह प्रेम गिलहरी दिल अखरोट, दसवें नवलेखन ज्ञानपीठ पुरस्कार तथा बावन चिट्ठियाँ, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’ से सम्मानित.
दो लघु फ़िल्मों का लेखन, निर्माण व निर्देशन १. जंतर २. उसकी चिट्ठियाँ
कविताओं का पंजाबी, मराठी, तेलुगु, बांगला, अंग्रेजी, फ्रेंच और स्पैनिश में अनुवाद.
baabusha@gmail.com 

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  1. बहुत अच्छी कविताएँ। हर पाठ के बाद नए अर्थ सौंदर्य से साक्षात्कार कराती। कवयित्री को हार्दिक शुभकामनाएँ

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  2. कविताएँ ध्यानाकर्षण करती हैं। आवेग इन्हें संपन्न करता है। आरंभिक कथ्य में कवियोचित व्यग्रता ने इसे आत्मीय बना दिया है।

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  3. बाबुषा जी को पढ़ना जैसे उनके कहे में खो जाना। इन्हे पढ़ना उकताहट पैदा नहीं करता। और और पढ़ने की इच्छा होती है। अपनापन जैसा।

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  4. बाँबियाँ कोहली की कविताएँ पढ़कर बहुत अच्छी हो गई यह सुबह।सूरज के बजते सितार से मौन है मन का सितार।

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  5. बहुत सुंदर प्रस्तुति। बाबुषा जानें या न जानें वे कविता क्यों लिखती हैं, वे लिखती रहें, कई और कवियों के लिए भी, उनकी ओर से भी।
    मेरी बाबुषा के साथ जो बुनियादी असहमति बनी रहेगी, उसे वह भी जानती है और मैं भी।
    धीरे धीरे हो सकता है हम दोनों किसी ऐसी जगह आन मिलें जहाँ हम समझ जाएं कि वे दोनों बातें दरअसल एक ही हैं, जिनमें कई वर्ष पहले एक फांक सी दीख पड़ी थी बाबुषा और तेजी को।
    अब मैं उस बात को उस तरह कह भी नहीं पाती जैसे पहले कहा करती थी।
    गिलहरी भी अब किसी और जगह डगारें फांद रही है। यह जगह वह नहीं है जहाँ वे बातें हुई थीं।
    आभार, कवि! मुझे इस पूरी प्रस्तुति से बहुत सुख मिला। कई जगह जहाँ भवें ज़रा सिकुड़ गईं, मैं रुकी नहीं।
    आभार, अरुण देव! (कवि कर्म को विस्तार देती शख्सियत)

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  6. समालोचन पर बाबुषा कोहली की कविताएँ--इन कविताओं को पढ़ते हुए मलार्मे की कही एक बात याद आ गई कि 'कविता आत्मा के संकट की भाषा है'। मुझे लगता है कि कविता का एक अपना आत्मसंघर्ष होता है जो सीधे जीवन के यथार्थ एवं उसके कई रूप-रंग और आयामों से नि:सृत होकर आता है। उसका एक पक्ष दर्शन भी है । वैसे,कविता अपने मूल रूप में जीवन-संघर्षों की आँच पर हीं तपती और निखरती है। लेकिन एक अलग धरातल पर कविता में दर्शन की उपस्थिति का भी एक अपना महत्व और मूल्य रहा है। दर्शन भी जीवन को देखने की एक दृष्टि है, न सिर्फ़ शाश्वत बल्कि समकालीन संदर्भों में भी। इस दृष्टि से इन कविताओं में भी एक गहरा यथार्थबोध है ।

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  7. बीती रात सपने में मैं जबलपुर में घूम रहा था। जबलपुर मैं एक ही बार गया हूँ, 1978--79 में, जब मैं शहर से बाहर पहाड़ी पर आर्मी एरिया में 11 महीने रहा था। रोज़ शाम पी.टी. ड्रेस में भागते हुए मैं पहाड़ी से नीचे उतरता था और उसी तरह भागते हुए वापिस चढ़ जाता था। और आज "समालोचन" पर बाबुषा की कविताएँ जो जबलपुर में रहती है और सम्पादक अरुण देव ने मुझे टैग भी किया है!! कैसा संयोग है !!

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  8. I welcome these poems of Babusha kohli ji . I will put my feelings here after going through the same. Since she is one of the prominent young poets, her poetry can not be summarized so simply. It portrays the sensitivity very minutely.
    Meanwhile, my congratulations for Babusha and Samalochan as well.

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  9. बाबुषा जी की सभी कविताओं में कहीं खो जाना संभव है। पल भर को लगा जैसे आप सिर्फ उनकी कविताओं की ज़मी पर विचरण करते कोई जीव हैं जो अपने बाहरी अस्तित्व को भूल सा गया हो। आंतरिक बोध से जुड़ी कविताओं की छोटी छोटी पंक्तियां बहुत बड़ा संसार रचती हैं कहीं बहुत भीतर।
    बाबुषा जी को बधाई
    समालोचन साधुवाद।।।।।।।

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  10. बेहद ख़ूबसूरत कविताएँ

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  11. अभी अधडूबा हूँ कविताओं के अलक्षित आलोक में । अभी तो केवल तन भीगा है मन नहीं; फिर फिर अपने अंक में लेने को व्यग्र ये कविताएँ जैसे माँ-सी थपकी देकर सुलान का जतन करती हों ।

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  12. इंद्रजीत सिंह30 सित॰ 2020, 8:56:00 pm

    भाव विचार शिल्प के लिहाज से बाबुषा जी की कविताओ में नयापन है ,पाठकों के मन को उद्वेलित करने की अपार क्षमता है।

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  13. विनय कुमार30 सित॰ 2020, 8:58:00 pm

    कुछ बातें सिर्फ़ कविता में कही जा सकती हैं, शर्त है कहना आए।
    सृजन में सातत्य के लिए कवि को बधाई !

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  14. सच है। हम पेडों के नाम जानते हैं, पेडों को नहीं।‌ बाबुशा की कविताएँ एक अलग तरह की प्रतीति कराती हैं। उनके वक्तव्य में सहजता और ताप है।

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  15. बाबुषा की कविताओं के बारे में शब्दों में कुछ भी कह पाना बहुत मुश्किल है, बहुत कम है. इन्हें केवल आध्यात्मिक अनुभूति के स्तर पर जाकर महसूस किया जा सकता है. बाशो की जिस कविता का ज़िक्र किया है बाबुषा ने, कुछ ऐसे ही अनुभूत होती हैं बाबुषा की कविताएँ भी.

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  16. अरुण जी, बहुत दिनों बाद आज समालोचन पर आ सका हूँ. और यह सुबह ताजगी भरी इन कविताओं से तरंगित हो उठी है.

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  17. बाबूषा कोहली की कविताएं पहली बार पढ़ीं। मुझे तो कविता से अधिक कविता तो वह गद्य लगा जिसमें वे बताती हैं कि कविता क्यों लिखती हैं। अभी और कविताएं पढूंगी तब फिर कुछ लिख पाऊंगी । कवि कैसा होता है या
    हो सकता है या होना चाहिए, यह बाबूषा के कथन को पढ़ कर मालूम हुआ। अरुणजी और समालोचन की आभारी हूँ।

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  18. बाबुषा कोहली प्रिय कवयित्री हैं। उन्हें पढ़ना हमेशा अपनी अनुभूतियों पर भी प्रकाश डालने जैसा है। ज्ञान से अपने आपको थोड़ा और समृद्ध करने जैसा भी। शुक्रिया, इस सुंदर प्रस्तुति के लिए

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  19. बहुत भावप्रवण और मार्मिक कविताएँ

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  20. आप की कविताएं पढ़कर लगा, स्वयं जीवन आपको जी रहा है।

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