समालोचन
प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा (२२ फरवरी,१९२२–२३
जुलाई, २०१६) पर आधारित श्रृंखला ‘रज़ा : जैसा मैंने देखा’ शुरू
कर रहा है.
चित्रकार
और लेखक अखिलेश का यह स्तम्भ रज़ा के साथ-साथ
भारतीय आधुनिक चित्रकारी की विशिष्टताओं को भी उद्घाटित करता चलेगा. पेंटर की
दुनिया किस तरह की होती है और उसमें रज़ा कैसे रहते थे, इसे आप देखेंगे. रज़ा ने किस
तरह से एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया इसका आकलन इस अंश में है.
यह
ख़ास प्रस्तुति आपके लिए.
रज़ा
: जैसा मैंने देखा (१)
अखिलेश
उन्नीस सौ अठहत्तर मेरे जीवन में एक महत्वपूर्ण साल बन कर उभरा. यह वो साल था जब मैंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली थी और कॉलेज न छोड़ने के मोह ने प्रेरित किया कि मैं शिल्प कला में विशेषज्ञ कोर्स का अध्ययन करूं. यही वर्ष था हमारे कॉलेज की स्वर्ण-जयन्ती का. देवलालीकर साहेब के सानिध्य का. एक और घटना हुई जिसका अंदाज़ा नहीं था मुझे और जिस घटना ने मुझे देखना सिखाया.
सर्दियों
के मौसम में हम लोगों को पता चला कि इस वर्ष उत्सव कार्यक्रम में रज़ा के चित्रों
की प्रदर्शनी लगेगी. इसके पहले रज़ा के चित्र न देखे थे न कोई ख़ास जानकारी थी कि
रज़ा के चित्र किस तरह के होते हैं. उत्सव में हुसैन, बेन्द्रे
आदि महारथियों की प्रदर्शनी हो चुकी थी अतः यह अंदाज़ा तो था ही कि ख़ास चित्रकार की
प्रदर्शनी ही होगी. हमने बात शुरु की कौन चलना चाहेगा मगर ज्यादा उत्साह किसी ने
नहीं दिखाया. अंत में हम तीन ही लोग क़ादिर, हरेन शाह और मैं
रज़ा के चित्रों को देखने आये. रात की ट्रैन से भोपाल बिना टिकिट आने का भय-मिश्रित
उत्साह हम लोगों को सुबह-सुबह भोपाल ले आया और हम तीनों सीधे कला परिषद चले आये
जहाँ प्रदर्शनी का उद्घाटन होना था उस शाम. सुबह दस बजे के वक़्त जब हम कला परिषद
पहुँचे तो प्रांगण में ही रज़ा साहेब मिल गए. उन दिनों सभी के मन चित्रकार की छवि
हुसैन की छवि थी जिसमें बढ़ी दाढ़ी, अस्त-व्यस्त कपड़े, कांधे पर झोला,आदि आदि.
यह छवि इतनी आम थी कि बिना दाढ़ी के चित्रकार हो सकता है इसकी कल्पना करना मानों जुर्म हो. और हमें रज़ा साहेब मिले, सौम्य, क्लीन शेव, शानदार सूट पहने (रज़ा कपड़ों को लेकर अंत तक अपनी सुरुचि को लेकर अतिरिक्त सचेत रहे और यदि आप उनके साथ हैं तो वे आपके कपडे पहनने के चुनाव को लेकर हमेशा सजग रहेंगे) मित-भाषी और हमारी चित्रकार की छवि के ख़िलाफ़ खड़े मिले. रज़ा को जब मालूम हुआ कि हम लोग इंदौर से चित्र प्रदर्शनी देखने आये हैं तब उनके चेहरे पर आयी चमक देखने लायक थी. उन्होंने हम सबके नाम पूछे और उत्साह के साथ हमें गैलरी में ले गए. ये प्रदर्शनी मेरे जीवन में अमूर्त चित्रों की पहली प्रदर्शनी थी. दीर्घा में घुस पहली नज़र में ही समझ आ गया कि अमूर्त चित्र हैं सो सहज ही मैंने रज़ा साहेब से कहा कि समझाइये, उन्होंने उल्टा प्रश्न किया आप लोग कितने दिन हैं ? मैंने कहाँ तीन दिन. रज़ा ने कहा आप तीन दिन चित्र देखिये आख़िर में बात करेंगे. अभी पूरी प्रदर्शनी लगी नहीं थी थोड़ा कुछ काम बाकी था.
यह छवि इतनी आम थी कि बिना दाढ़ी के चित्रकार हो सकता है इसकी कल्पना करना मानों जुर्म हो. और हमें रज़ा साहेब मिले, सौम्य, क्लीन शेव, शानदार सूट पहने (रज़ा कपड़ों को लेकर अंत तक अपनी सुरुचि को लेकर अतिरिक्त सचेत रहे और यदि आप उनके साथ हैं तो वे आपके कपडे पहनने के चुनाव को लेकर हमेशा सजग रहेंगे) मित-भाषी और हमारी चित्रकार की छवि के ख़िलाफ़ खड़े मिले. रज़ा को जब मालूम हुआ कि हम लोग इंदौर से चित्र प्रदर्शनी देखने आये हैं तब उनके चेहरे पर आयी चमक देखने लायक थी. उन्होंने हम सबके नाम पूछे और उत्साह के साथ हमें गैलरी में ले गए. ये प्रदर्शनी मेरे जीवन में अमूर्त चित्रों की पहली प्रदर्शनी थी. दीर्घा में घुस पहली नज़र में ही समझ आ गया कि अमूर्त चित्र हैं सो सहज ही मैंने रज़ा साहेब से कहा कि समझाइये, उन्होंने उल्टा प्रश्न किया आप लोग कितने दिन हैं ? मैंने कहाँ तीन दिन. रज़ा ने कहा आप तीन दिन चित्र देखिये आख़िर में बात करेंगे. अभी पूरी प्रदर्शनी लगी नहीं थी थोड़ा कुछ काम बाकी था.
बढ़ई
और दूसरे लोगों के आ जाने से रज़ा साहेब उनके साथ बात करने लगे उन्हें समझाने लगे
सो हम तीनों गैलरी में अब अकेले थे चित्रों के साथ. रज़ा के चित्र रंगों की चमक से
पूरी गैलरी को आलोकित किये हुए थे रंगों का आकर्षण इतना था कि वे खींचें ले रहे थे.
यह रज़ा की स्वतंत्रता का उत्सव था. इसके पहले तक रज़ा दृश्य-चित्रण ही करते रहे थे,
पहले वे हिन्दुस्तान के दृश्य चित्रित कर रहे थे ओंकारेश्वर,
महेश्वर,काश्मीर, मुम्बई
आदि और अब फ्रांस में रहकर वहाँ के दृश्य चित्रण को विशिष्ट संरचना और विधान के
साथ जिसकी तरफ़ इशारा काख्तीये ब्रेसॉं ने काश्मीर में किया था. सत्तर का दशक उनके
लिए नयी शुरुआत थी जो उनकी अपनी शुरुआत थी, रज़ा बनने की
शुरुआत. ये चित्र गवाह थे उस दृष्टि के जो रज़ा के मण्डला के जंगलों में भटकने और
आत्म को महसूसने के थे.
यहाँ
काख्तीये ब्रेसॉं से मुलाक़ात का जिक्र करना उचित होगा. रज़ा को वर्ष उन्नीस सौ
अड़तालीस में छात्रवृत्ति मिली कि हिन्दुस्तान में वे यात्रा करें और दृश्य चित्र
बनाये. (अब पता नहीं क्यों यह छात्रवृत्ति बंद हो गयी) इसी दौरान वे ओंकारेश्वर,
महेश्वर भी गए और काश्मीर तक पहुँचे. वहाँ उनकी मुलाकात प्रसिद्ध
फ्रेंच फ़ोटोग्राफ़र काख्तीये ब्रेसॉं से हुई और उन्होंने चित्र देखने के बाद रज़ा को
कहा कि आपके चित्र बहुत अच्छे हैं, किन्तु इनमें कंस्ट्रक्शन
की कमी है. अब छब्बीस साल के लड़के के लिए यह समझना मुश्किल था कि चित्र में
कंस्ट्रक्शन क्या होता है ? ब्रेसॉं ने सिर्फ इशारा किया कि
कंस्ट्रक्शन समझना हो तो सेजां के चित्र देखो. रज़ा इस उलझन के साथ मुम्बई लौट आये
और जाहिर है सेजां के चित्रों के बारे में दरियाफ़्त शुरु कर दी. इसी दौरान
प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप का विचार सूजा और आरा के साथ मिलकर पक्का किया और तय
किया कि ग्रुप बड़ा नहीं होना चाहिए. इसमें हम अपनी पसन्द के एक एक कलाकार को
लायेंगे. सूजा हुसैन को लेकर आये, रज़ा ने गाडे और आरा ने
बाकरे को शामिल किया. इस तरह छह कलाकारों के नए ग्रुप की नींव रज़ा की ही प्रदर्शनी,
जो इस छात्रवृत्ति के दौरान किये गए दृश्य-चित्रों की थी, में रखी गयी. बाद में इसी वर्ष इस ग्रुप की एकमात्र, पहली और आख़िरी प्रदर्शनी भी हुई. रज़ा की खोज जारी रही और उन्हें पता चला
फ़्रांसिसी दूतावास हर वर्ष उच्च-अध्ययन के लिए एक साल की छात्रवृत्ति देता है मगर
छात्र को फ़्रांसिसी भाषा आना जरुरी है. रज़ा ने फ्रेंच सीखना शुरु कर दिया और जब वे
साक्षात्कार देने गए तो उनकी फ्रांसीसी भाषा सुनकर समिति ने उन्हें दो वर्ष की
छात्रवृत्ति स्वीकृत की और रज़ा वर्ष पचास की शुरुआत में फ्रांस जा पहुँचे.
कला
परिषद् में लगी यह प्रदर्शनी रज़ा के देखने का प्रमाण थी. रज़ा के चित्रकारीय जीवन
का प्रमाण इन चित्रों में धड़क रहा था. ये चित्र दृश्य-चित्रण से अलग न थे किन्तु
अब दृश्य बाहर नहीं था. यह वे दृश्य थे जिनका अस्तित्व इस चित्र के पहले नहीं था.
यह दुनिया को एक भेंट थी रज़ा की. यहाँ प्रदर्शित 'राजस्थान'
दुनिया में कहीं नहीं है यह सिर्फ एक चित्र है जो रज़ा ने रचा था.
यहाँ प्रदर्शित 'सूर्य' किसी सूर्य का
चित्रण नहीं था. यह रज़ा का सूर्य था जिसकी चमक 'सैलाब'
को उस नीले रंग में समेटे थी जिसका तूफ़ान आना बाकी था. यही वो समय
था जब रज़ा ने तैल-चित्रण छोड़कर एक्रिलिक रंगों का प्रयोग शुरु किया था, जो चित्रकला की दुनिया में बिलकुल ही नए थे. साठ के दशक में रज़ा
कैलिफोर्निया के विश्वविद्यालय में पढ़ाने तीन वर्ष के लिए गए थे और साठ के दशक की
शुरुआत में ही ऐक्रेलिक रंगों की खोज हुई, जिसे कैलिफोर्निया
के बाजार में उतारा गया. जहाँ रज़ा का परिचय इस नए माध्यम से हुआ और उसकी जलरंगीय
विशेषता देख रज़ा ने तैल-चित्रण से मुक्ति पायी.
ये नए चित्र नए माध्यम थे, उनका कलेवर भी नया था और रज़ा के लिए यह नयी शुरुआत थी. इसी दौरान रज़ा को अपनी दिशा भी मिली. अजित मुखर्जी की पुस्तक 'तंत्र' ने चित्रकला की दुनिया में नये रुपाकार, जिनका सम्बन्ध तांत्रिक साधना से था, का खुलासा किया और बहुत से आधुनिक चित्रकार इसकी तरफ आकर्षित हुए. कई ने तो हू-ब-हू चित्रण करना शुरु कर दिया और अंत तक करते रहे मगर रज़ा ने उन्हें समझने और आत्मसात करने में, इन रुपाकारों को बचपन के अनुभव के साथ सींचने में, सिझाने में, लम्बा समय लिया और चित्रकला का नया अध्याय शुरु हुआ जिसे हम रज़ा के चित्रों के नाम से पहचानते हैं. इसमें प्रदर्शित चित्र सैलाब या राजस्थान, सैलाब या राजस्थान का चित्रण नहीं है, वह इन संज्ञाओं का शाब्दिक संरचनात्मक चित्रण भी नहीं है, जिसे मेटास्केप कहा जा सके, न ही ये चित्र उन दृश्यों की कल्पना का चित्रण है. वे इन सब पारस्परिक चित्रण से दूर रंग-अहसास का चित्रण था, जिसमें मुझे पहली बार यह समझ आया कि रंग 'माध्यम' नहीं चित्रकला का प्रमुख 'तत्व' है. लाल रंग की प्रमुखता में विकर्षण नहीं है आकर्षण है उसका स्वभाव आक्रामक नहीं है वह शान्त और सुन्दर है. 'राजस्थान' चित्र में लाल रंग के साथ अन्य रंगों का सम्बन्ध विशेष है. उसमें लगाया सफ़ेद चित्र की धड़कन है. रंगों की मेरी आम समझ को झकझोर दिया इन चित्रों ने. मुझे वैन-गॉग के पत्र की स्मृति हो आयी, जिसमें वह अपने भाई थियो को लिख रहा है कि 'भविष्य का चित्रकार रंगों का चित्रकार होगा' यह मैं फलित होते देख रहा हूँ.
ये नए चित्र नए माध्यम थे, उनका कलेवर भी नया था और रज़ा के लिए यह नयी शुरुआत थी. इसी दौरान रज़ा को अपनी दिशा भी मिली. अजित मुखर्जी की पुस्तक 'तंत्र' ने चित्रकला की दुनिया में नये रुपाकार, जिनका सम्बन्ध तांत्रिक साधना से था, का खुलासा किया और बहुत से आधुनिक चित्रकार इसकी तरफ आकर्षित हुए. कई ने तो हू-ब-हू चित्रण करना शुरु कर दिया और अंत तक करते रहे मगर रज़ा ने उन्हें समझने और आत्मसात करने में, इन रुपाकारों को बचपन के अनुभव के साथ सींचने में, सिझाने में, लम्बा समय लिया और चित्रकला का नया अध्याय शुरु हुआ जिसे हम रज़ा के चित्रों के नाम से पहचानते हैं. इसमें प्रदर्शित चित्र सैलाब या राजस्थान, सैलाब या राजस्थान का चित्रण नहीं है, वह इन संज्ञाओं का शाब्दिक संरचनात्मक चित्रण भी नहीं है, जिसे मेटास्केप कहा जा सके, न ही ये चित्र उन दृश्यों की कल्पना का चित्रण है. वे इन सब पारस्परिक चित्रण से दूर रंग-अहसास का चित्रण था, जिसमें मुझे पहली बार यह समझ आया कि रंग 'माध्यम' नहीं चित्रकला का प्रमुख 'तत्व' है. लाल रंग की प्रमुखता में विकर्षण नहीं है आकर्षण है उसका स्वभाव आक्रामक नहीं है वह शान्त और सुन्दर है. 'राजस्थान' चित्र में लाल रंग के साथ अन्य रंगों का सम्बन्ध विशेष है. उसमें लगाया सफ़ेद चित्र की धड़कन है. रंगों की मेरी आम समझ को झकझोर दिया इन चित्रों ने. मुझे वैन-गॉग के पत्र की स्मृति हो आयी, जिसमें वह अपने भाई थियो को लिख रहा है कि 'भविष्य का चित्रकार रंगों का चित्रकार होगा' यह मैं फलित होते देख रहा हूँ.
पूरी
प्रदर्शनी में रंग वाचालता साफ़ झलक रही थी और इन रंगों ने मुझे अपनी गिरफ़्त में ले
लिया. तीन दिन तक मैंने लगातार इन चित्रों को ध्यान से देखा और जाना कि रज़ा के काम
करने का ढंग क्या है, उनके रंग-लगाने और
चित्र शुरु करने की प्रक्रिया क्या है. मेरे दोस्त अपनी मेल-मुलाक़ाती प्रवृति के
चलते बाकी दिन भोपाल के कलाकारों से मिलने चले जाते थे और जाने के पहले वे मुझे
कला परिषद छोड़ने जरूर आते. रज़ा ने भी देखा कि मैं लगातार गैलरी में ही उनके
चित्रों के साथ समय बिताता दिख रहा हूँ. आखिरी दिन वे मेरे पास आये और बोले आइये
मैं आपको समझाता हूँ. मैंने कहा अब मैं समझ चुका हूँ और रज़ा की प्रसन्नता का पारावार
न रहा. वे चले गए और हम लोग इंदौर चले आये.
मेरे
ऊपर रंग-भूत सवार था. मैंने अपनी पढ़ाई प्रथम श्रेणी में पास की थी (उस वर्ष बाकी
सभी द्वितीय श्रेणी में पास हुए थे) और रंग-प्रयोग भी ठीक-ठाक ही किया करता था. अब
यह रंग-प्रयोग मेरे लिए मुसीबत बन गया था और मैं इस बात की कोशिश करने लगा कि
रंगों को उनकी शुद्धता में कैसे लगाऊँ. रंग अब चुनौती बन गए थे.
भोपाल
से इंदौर लौटते हुये पूरे रास्ते सोचता रहा कि रज़ा अपने चित्र की शुरुआत कैसे करते
होंगे. अक्सर काले रंग से. हरेन और कादिर ने इस यात्रा में रज़ा के चित्रों को मेरी
नज़र से देखना शुरु किया. इंदौर पहुँच कर भी रज़ा के रंग मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे थे.
किसी एक दिन कॉलेज में सक्सेना सर ने बतलाया कि रज़ा आ रहे हैं और उनके स्वागत में
एक प्रदर्शनी लगाई जाना है जिसमें शहर के कलाकार और कॉलेज के छात्र जिन्होंने
डिप्लोमा कर लिया है सभी के चित्र शामिल हैं. यह काम जिम्मा हम सब उत्साही छात्रों
ने उठाया और दो दिन में सभी चित्र इकट्ठे कर लिए गए. सक्सेना सर के निर्देशन में शानदार
प्रदर्शनी लगाई गयी. और वह दिन भी आ गया जब रज़ा हमारे कॉलेज की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे.
मुझे नहीं पता था कि उनकी उपस्थिति में कुछ राज़ खुलने वाले हैं जिसमें से एक यही
था कि रज़ा और सक्सेना सर सहपाठी रहे हैं. हम सभी विद्यार्थी कॉलेज के हाल के बाहर
वाली जगह पर खड़े थे. रज़ा और सक्सेना सर सीढ़ियाँ चढ़कर आये. हम सबने उन्हें नमस्ते
किया और रज़ा ने उसका जवाब देते हुए सक्सेना सर से पूछा प्रदर्शनी कहाँ लगी हुई है,
मैं पहले वही देखना चाहूँगा और अकेले. सक्सेना सर ने हाल का दरवाजा
खोला और इशारा किया अंदर जाने का. हम सब यह देखते रहे रज़ा हाल में चले गए. सक्सेना
सर अपने कमरे में, जहाँ शहर के अन्य कलाकार बैठे थे. जिसमें
मेरे पिता भी थे.
कुछ देर बाद रज़ा हाल से निकले और तेजी से सक्सेना सर के कमरे में गये और सभी कलाकारों को लेकर वापस प्रदर्शनी हॉल में चले गए. हम सब विद्यार्थी इन्तज़ार कर रहे थे प्रदर्शनी के उद्घाटन और रज़ा के सम्बोधन का. थोड़ी देर बाद हॉल का दरवाजा खुला और सक्सेना सर बाहर आये मेरी तरफ देखा और कहा आप अंदर आइये. मैं हॉल का दरवाजा खोलकर अन्दर पहुँचा तो देखा रज़ा सभी लोगों के साथ मेरे चित्र के सामने खड़े हैं और मुझे आते हुए देख जोर से बोले 'This is the only painting in this hall' सभी मुझे देख रहे थे जिनमें विष्णु चिंचालकर. डी. जे. जोशी, दुबे सर, पिताजी, मिर्जा इस्माइल बैग, शान्तिलाल जैन, सासवडकर सर, सक्सेना सर, वसन्त अगाशे, डी. सी. जयन्त आदि सभी अन्य कलाकार थे और मुझे अचानक बहुत शर्म आयी कि इस प्रदर्शनी में इन सभी श्रद्धेय और वरिष्ठ कलाकारों के चित्र लगे हैं जो मेरी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं. उनके बीच मेरे चित्र की तारीफ़ रज़ा साहेब कर रहे हैं. मैंने सर झुकाया और उनके पास पहुँचा. एक बार फिर रज़ा ने वही वाक्य दोहराया और इस बार मेरे पिता ने कहा वो मेरा बेटा है. रज़ा ने उनकी तरफ देखा और फिर मुझे कहा बहुत बढ़िया काम करते हैं आप. मैं सर झुकाये सब सुन रहा था और यह ख़त्म होने के इन्तज़ार में था. रज़ा ने एक बार और तारीफ़ की. मैंने उन्हें बताया कि यह चित्र कालिदास के श्लोक पर आधारित है. ऋतु संहार उनकी रचना है जिसमें ऋतुओं का वर्णन है और यह ग्रीष्म ऋतु के वर्णन में नायिका जो गर्मी से लगभग बेसुध हो विश्राम करने की कोशिश में है और इस उपक्रम में उसका वस्त्र विन्यास अस्त-व्यस्त हो रहा है इसका भी ज्ञान उसे नहीं है. रज़ा को इतना सुनना था कि वे मुग्ध हो गए और एक बार फिर चित्र को देखा. वे देख रहे थे, मैं उन्हें नमस्कार कर बाहर निकला आया. फिर सभी कार्यक्रम शुरु हुए मंच पर बैठे और सक्सेना सर ने स्वागत करते हुए अपने भाषण में बतलाया कि वे और रज़ा साथ पढ़ते थे और मेरे पिता एक साल सीनियर थे.
मध्य-प्रदेश से परीक्षा के लिए ये तीनों मुम्बई जाया करते थे तब परीक्षा तीन महीने चला करती थी और ये तीनों एक कमरा किराये से लेकर साथ रहा करते थे. सक्सेना सर उज्जैन के थे. रज़ा नागपुर और पिता इंदौर से. उन चार पाँच वर्षों की इनकी मित्रता घनिष्ठ थी और वे परीक्षा के दिनों में छुट्टी वाले दिनों में लैंडस्केप करने मुम्बई और आस-पास की जगह घूमा करते थे. सक्सेना सर ने भावुक होते हुये रुंधे गले से कहा आज भरत और राम के मिलाप का दिन है. यह संयोग ही था कि रज़ा चौदह साल बाद अपनी जन्म-भूमि मध्य-प्रदेश आये थे. सक्सेना सर ने इन्हीं चौदह साल को अपने वक्तव्य के केन्द्र में रखा. पिता ने भी उन दिनों के कुछ संस्मरण सुनाये जिनमें से एक यह था कि किसी विद्यार्थी के पूछने पर रज़ा ने उसे सलाह दी कि चित्र में नीले आसमान की जगह गहरा पीला रंग लगा कर देखे. और उस विद्यार्थी को इस छोटे से परिवर्तन के कारण अच्छे नम्बर मिले थे.
(रज़ा) |
कुछ देर बाद रज़ा हाल से निकले और तेजी से सक्सेना सर के कमरे में गये और सभी कलाकारों को लेकर वापस प्रदर्शनी हॉल में चले गए. हम सब विद्यार्थी इन्तज़ार कर रहे थे प्रदर्शनी के उद्घाटन और रज़ा के सम्बोधन का. थोड़ी देर बाद हॉल का दरवाजा खुला और सक्सेना सर बाहर आये मेरी तरफ देखा और कहा आप अंदर आइये. मैं हॉल का दरवाजा खोलकर अन्दर पहुँचा तो देखा रज़ा सभी लोगों के साथ मेरे चित्र के सामने खड़े हैं और मुझे आते हुए देख जोर से बोले 'This is the only painting in this hall' सभी मुझे देख रहे थे जिनमें विष्णु चिंचालकर. डी. जे. जोशी, दुबे सर, पिताजी, मिर्जा इस्माइल बैग, शान्तिलाल जैन, सासवडकर सर, सक्सेना सर, वसन्त अगाशे, डी. सी. जयन्त आदि सभी अन्य कलाकार थे और मुझे अचानक बहुत शर्म आयी कि इस प्रदर्शनी में इन सभी श्रद्धेय और वरिष्ठ कलाकारों के चित्र लगे हैं जो मेरी प्रेरणा के स्रोत रहे हैं. उनके बीच मेरे चित्र की तारीफ़ रज़ा साहेब कर रहे हैं. मैंने सर झुकाया और उनके पास पहुँचा. एक बार फिर रज़ा ने वही वाक्य दोहराया और इस बार मेरे पिता ने कहा वो मेरा बेटा है. रज़ा ने उनकी तरफ देखा और फिर मुझे कहा बहुत बढ़िया काम करते हैं आप. मैं सर झुकाये सब सुन रहा था और यह ख़त्म होने के इन्तज़ार में था. रज़ा ने एक बार और तारीफ़ की. मैंने उन्हें बताया कि यह चित्र कालिदास के श्लोक पर आधारित है. ऋतु संहार उनकी रचना है जिसमें ऋतुओं का वर्णन है और यह ग्रीष्म ऋतु के वर्णन में नायिका जो गर्मी से लगभग बेसुध हो विश्राम करने की कोशिश में है और इस उपक्रम में उसका वस्त्र विन्यास अस्त-व्यस्त हो रहा है इसका भी ज्ञान उसे नहीं है. रज़ा को इतना सुनना था कि वे मुग्ध हो गए और एक बार फिर चित्र को देखा. वे देख रहे थे, मैं उन्हें नमस्कार कर बाहर निकला आया. फिर सभी कार्यक्रम शुरु हुए मंच पर बैठे और सक्सेना सर ने स्वागत करते हुए अपने भाषण में बतलाया कि वे और रज़ा साथ पढ़ते थे और मेरे पिता एक साल सीनियर थे.
मध्य-प्रदेश से परीक्षा के लिए ये तीनों मुम्बई जाया करते थे तब परीक्षा तीन महीने चला करती थी और ये तीनों एक कमरा किराये से लेकर साथ रहा करते थे. सक्सेना सर उज्जैन के थे. रज़ा नागपुर और पिता इंदौर से. उन चार पाँच वर्षों की इनकी मित्रता घनिष्ठ थी और वे परीक्षा के दिनों में छुट्टी वाले दिनों में लैंडस्केप करने मुम्बई और आस-पास की जगह घूमा करते थे. सक्सेना सर ने भावुक होते हुये रुंधे गले से कहा आज भरत और राम के मिलाप का दिन है. यह संयोग ही था कि रज़ा चौदह साल बाद अपनी जन्म-भूमि मध्य-प्रदेश आये थे. सक्सेना सर ने इन्हीं चौदह साल को अपने वक्तव्य के केन्द्र में रखा. पिता ने भी उन दिनों के कुछ संस्मरण सुनाये जिनमें से एक यह था कि किसी विद्यार्थी के पूछने पर रज़ा ने उसे सलाह दी कि चित्र में नीले आसमान की जगह गहरा पीला रंग लगा कर देखे. और उस विद्यार्थी को इस छोटे से परिवर्तन के कारण अच्छे नम्बर मिले थे.
वह
दिन मेरे लिए ही नहीं सभी विद्यार्थियों के लिए सीखने का रहा. रज़ा ने प्रदर्शनी
ध्यान से देखी और जिनके चित्र पसन्द आये उनसे बातें की. विद्यार्थियों के साथ
मिलने-बात करने में जो रस रज़ा को मिल रहा था, उसका
अंत आना ही था. इस बीच उन्होंने मुझसे कहा मैं आपके और चित्र देखना चाहता हूँ,
कभी मौका लगेगा तो जरूर देखूँगा. रज़ा कॉलेज की सभी कक्षाओं में गए
और वहाँ सभी के साथ घुल मिल गए. इस बीच मैंने पिता से कहा रज़ा साहेब मेरे और चित्र
देखना चाहते हैं आप उन्हें घर आमंत्रित कीजिये.
उन्होंने कहा तुम ही आमंत्रित कर लो, व्यस्त हैं
सरकार के मेहमान हैं, शायद ही समय हो. रज़ा स्टेट गेस्ट थे और
उनके साथ सुरक्षा के लिए पुलिस के दस लोग भी थे जो इस पूरे कार्यक्रम में एक तरफ
ही खड़े रहे. जब रज़ा चलने लगे मैंने उन्हें आमंत्रित किया. वे रुके और जेब से डायरी
निकाल कर देखने लगे. दूसरे दिन का कार्यक्रम पूरी तरह से भरा हुआ था उन्होंने कहा
सुबह सात बजे से मैं व्यस्त हूँ. मैंने तत्काल कहा मैं छ: बजे लेने आ जाऊँ ?
आप जहाँ ठहरे हैं वो मेरे घर से दो मिनट की दूरी पर है. रज़ा
रेसीडेंसी कोठी में ठहरे थे जो हमारे घर से वाकई दो मिनट की दूरी पर थी. रज़ा ने
कुछ सोचा और डायरी में नोट करने के लिए पेन निकाला. मुझसे पूछा आपका नाम क्या है ?
डायरी में लिखा अखिलेश सुबह छ: बजे.
मैं
अतिरिक्त उत्साह से भर चुका था और मुझे फिर अंदाज़ा नहीं था कि रज़ा के घर आने पर कुछ और खुलासे होने हैं. रज़ा
की शालीन, गरिमामय उपस्थिति और उनका
बोलना, साथ ही हर चित्र के खूबसूरत हिस्से पर नज़र रखना और उस
पर बात करना यह सब हम लोगों को मुग्ध कर गया था. उनके जाने के बाद हम लोग हॉल में
देर तक रज़ा के बारे में ही बात करते रहे और चित्रों को उनकी नज़र से देखने की कोशिश
करते रहे. रज़ा ने हम लोगों के सोचने के ढंग में नया पक्ष पैदा कर दिया था.
क्रमश : (महीने के पहले और तीसरे शनिवार को )
(सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)
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(सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)
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अखिलेश
(२८ अगस्त, १९५६)
भोपाल में रहते हैं. इंदौर के ललित कला संस्थान से उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे. भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित. देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं. कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं.
प्रकाशन :
अखिलेश : एक संवाद (पीयूष दईया)
आपबीती (रूसी चित्रकार मार्क शागाल की आत्मकथा का अनुवाद)
अचम्भे का रोना
दरसपोथी
शीर्षक नहीं
मकबूल ( हुसैन की जीवनी)
देखना आदि
56akhilesh@gmail.com
दरसपोथी
शीर्षक नहीं
मकबूल ( हुसैन की जीवनी)
देखना आदि
56akhilesh@gmail.com
धन्यवाद अखिलेश जी, रजा साहब के जीवन से जुड़े आपके इस जीवंत संस्मरण का। अगली किश्त का इंतज़ार है, समालोचन की एक और स्वागत योग्य पहल।
जवाब देंहटाएंमैं जैसे जैसे यह संस्मरण पढ़ता गया, मुझे लगता गया मानो मैं अखिलेश के मन की दीर्घा में हूँ जहाँ रज़ा, सक्सेना जी, अखिल के पिता(जो अद्वितीय व्यक्ति थे), कादिर आदि खडे आपस में बातें कर रहे हैं, जिनमें से कुछ अखिल ने हमारे लिए लिख दी हैं और कुछ हमारे अपने मन में मानो अपने आप उत्पन्न हो रही हैं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर संस्मरण
जवाब देंहटाएंकितनी प्रवाहिता है इस संस्मरण की भाषा में। जैसे यह आपको लपेटता चलता है। अगली किश्त की प्रतीक्षा रहेगी। धन्यवाद अखिलेश। धन्यवाद समालोचन।
जवाब देंहटाएंअखिलेश जी संस्मरण के मार्फत रजा़ के साक्षात दर्शन कराने के लिए धन्यवाद। समालोचन अब कला साहित्य और संगीत की महत्वपूर्ण ई पत्रिका बन गयी है।
जवाब देंहटाएंअगली किस्त का इंतजार है। - - हरिमोहन शर्मा
बेहतरीन दादा ... आप भाग्य शाली है । हुसैन और रजा दोनों का सानिध्य मिला और इस तरह रजा साहेब ने एक महत्वपूर्ण चित्रकार इंदौर को दिया ।
जवाब देंहटाएंकितनी सुंदर बात है कि एक दूसरे से अपरिचित/ अंजान दो कलाकार आपस मे मिलतें हैं और अपने चित्रों के माध्यम से आत्मीय हो जातें है ।
जवाब देंहटाएंयुवा कलाकारों को इस लेख से काफी कुछ सीखने को मिलेगा ।
रज़ा साहब पर संस्मरण के बहाने अखिलेश जी ने सृजन के जिन स्तरों को सामने रखा है उससे उनकी रचना प्रक्रिया को भी समझना आसान होता है। रज़ा साहब का युवाओं के प्रति उत्साह और खुद अपने कर्म की तल्लीनता मुग्ध करती है। इस सुंदर संस्मरण और समीक्षात्मक लेख के लिए समालोचन और भाई राकेश श्रीमाल को बधाई।
जवाब देंहटाएंअखिलेश का लिखा पढ़ने के पहले ही, उसका अभी तक लिखा पढ़ने से, उसके साथ हुए असंख्य संवादों से, उसकी प्राकृतिक विचार भंगिमा से, उसके वाक्यों से, एक अपेक्षा मन में जागती है। इस बात को मुझे कुछ और स्पष्ट कर लेने दीजिए, यह निबंध जो अपने शैशव में हमारे लिए प्रस्तुत है वह ना केवल रज़ा का स्मरण, उनका मूल्यांकन, उनके बारे संस्मरण, और उनका सारा प्रवास अखिलेश की दृष्टि से बखान करता है और कदाचित आगे भी करेगा, यह अखिलेश की कला यात्रा का भी उद्घाटन करेगा, अखिलेश रज़ा के समूचे कलासंसार का अंतरंग साक्षीदार है और रज़ा अखिलेश के अभी तक रचे संसार के, जो निश्चय ही एक अलग प्रक्षेपपथ, अलग वर्ण दर्शन और अलग उपज का संसार है, केंद्रीय उत्तेजन रहे है। इस विलक्षण परिस्थिति में यह अत्यंत ही सम्भव है कि कोई गद्य अश्रुविगलित हो कर आस्था का चिवर ओढ़ एक भावनृत्य करे या ऐसा ना हो इस भिती से शुष्क रहा आए, चुनौती यह है कि दोनों पात्रों की नैसर्गिक गरिमा और उनके संबंधों कि उष्णता के धागों से वाक्य बने ।
जवाब देंहटाएंजिस अपेक्षा का उल्लेख मैंने पूर्व में किया है वह यही है कि अखिलेश के हाथो ये वाक्य वैसी साधना करेंगे। यह श्रंखला कदाचित रज़ा और अखिलेश की अंतर्गुंफित यात्राओं का ही विश्लेषण ना हो कर चित्र कला के वृहत्तर सन्दर्भो को भी उद्घाटित करेगी, मैं इस की उत्कट प्रतीक्षा करूँगा, अखिलेश और अरुण दोनों को धन्यवाद , बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।
शिरीष।
यह टिप्पणी अरुण जी के लिए विशेष तौर पर है।
हटाएंशुक्रिया शिरीष जी, अखिलेश जी.
हटाएंबहुत सुंदर संस्मरण. आगे पढ़ने की उत्सुकता बनी है.
जवाब देंहटाएंकितना सुंदर प्यारा और करारा गद्य। और वह चित्र वह प्रशंसा जो किसी भी कलाकार के जीवन भर इतनी मूल्यवान हो सकती है कि वह उसके जीवन मे भ और चित्रों में कुछ जोड़ दे, भरा-पूरा कर दे, कुछ अनूठे ढंग से महका दे। अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर कृति है यह। एक उभरते हुए चित्रकार के जीवन में रज़ा की आमद के जितने गूढ़ अर्थ हो सकते हैं, वे सब इस पाठ में झिलमिलाते दीख पड़ते हैं।
जवाब देंहटाएंपता नहीं क्यों अंग्रेज़ी का यह शब्द इसे पढ़ने के बाद मन मे कौंधता आ रहा है "serendipity". इसे पढ़ने के आलोक में कवि-कलाकार लोग अपने युवा दिनों में ऐसी शिद्दत भरी और सैलाब की चपेट में ले आने वाली घटनाओं के बारे में सहज ही सोचने लगते हैं।
ज़ाहिर है और पढ़ने की तलब हो रही है। इस पाठ का प्रिंट लेकर पुनः पढ़ना होगा।
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