कथा-गाथा : अवशिष्ट : नरेश गोस्वामी




नरेश गोस्वामी की कहानियाँ आप समालोचन पर पढ़ते आ रहें हैं, आम नागरिक की लाचारी और डर को जिस तरह से वह लगातार लिख रहे हैं, वैसा अब तक देखने में कम मिला है. कसी हुई कथा-वस्तु उनकी विशेषता है.

‘अवशिष्ट’ बाज़ार और ताकत के सामने निरीह और डरे हुए एक ऐसे युवा की कहानी है जो किसी भी शहर में आसानी से आपको दिख जायेगा.

कहानी पढ़ते हुए इस डर को आप लगातार महसूस करते हैं.



अवशिष्‍ट                                                 
नरेश गोस्वामी  






भी जब  इंस्‍टीट्यूट के सहायकों ने मुझे इस बिल्डिंग के बाहर छोड़ा था तो धूप चिलक रही थी. इसलिए अंदर दाखिल होने के बाद देर तक कुछ भी दिखाई नहीं दिया. यहां की ट्यूबलाइट बहुत पहले खराब हुई थी, लेकिन उसे अभी तक बदला नहीं गया है. जो भी बाहर की रोशनी से अंदर आता है उसे इसी तरह थोड़ी देर इंतज़ार करना पड़ता है. लिहाज़ा मैं भी सीढि़यों की रेलिंग पकड़े इंतज़ार करता रहा कि कुछ दिखाई देना शुरु हो तो आगे चलूं. थोड़ी देर बाद कुछ अंदाज़ा सा हुआ तो ऊपर चढ़ने लगा. मेरा कमरा पहले फ़्लोर पर है. हॉस्‍टल की तरह यहां हर फ़्लोर पर आमने सामने कमरे बने हैं. कमरों की यह क़तार जहां जाकर रुकती हैं, वहां एक घुमावदार जीने के बाद ऐसी ही एक क़तार दुबारा शुरु हो जाती है.
बरामदे में हमेशा की तरह एक मरियल रोशनी है. लगता है अभी कुछ देर पहले यहां बहुत से लोग थे जो अब अपने अपने काम पर निकल गए हैं. और जाते समय अपने पीछे यह सूनापन छोड़ गए हैं. मैंने अपना कमरा दूर से पहचान लिया है. कह नहीं सकता कि मुझे उसे पहचान कर ख़ुशी हो रही है या कि मैं बस एक राहत महसूस कर रहा हूं. कमरे की दीवारों पर धूल की परत चढ़ गयी है. वह बिस्‍तर और खुली अलमारी में बिछे सफेद मोटे काग़ज पर भी जम चुकी है. पलंग के बॉक्‍स के पल्‍ले को ऊपर उठाकर देखा— अंदर पड़ी चीज़ें तुड़ी-मुड़ी हो गई है. दरवाजे के पीछे देखता हूं तो कपड़े धूल में चिमटकर चमड़े की तरह हो गए हैं.  

यानी अब फर्श और दीवारों से धूल झाड़ने के अलावा मुझे कपड़े भी धोने पडेंगे. मुझे सफ़ाई करना शुरु से अच्‍छा लगता है. मां कहा करती थी कि मैं ग़लती से लड़का हो गया हूं वर्ना मेरी आदते एकदम लड़कियों वाली हैं. मुझे कमरे में झाड़ू लगाने के बाद फर्श धोने का काम बहुत अच्छा लगता था. इस धुले हुए फर्श पर जब मैं नंगे पांव चलता था तो मेरे भीतर का सारा ताप ख़त्‍म हो जाता था. कमरा धोने के बाद मैं गीले फर्श पर देर तक यूं ही बैठा रहता था. उन दिनों जब सुबह-सुबह चाय के समय मम्‍मी-पापा में अचानक गाली-गलौज शुरु हो जाती थी तो पापा स्‍कूटर उठा कर कहीं निकल जाते थे और मम्‍मी अंदर वाले कमरे में अपने माथे पर अपना दुपट्टा कस कर बिस्‍तर पर लेट जाती थी. उन दोनों की लड़ाई  के बाद जब मैंने पहली बार कमरे की धुलाई की थी तो मेरे भीतर का बढ़ता ताप थोड़ी देर के बाद ख़त्‍म हो गया था. इस तरह, दोनों की लड़ाई के बाद जब बाहर वाले कमरे में बैठे-बैठे मुझे कुछ समझ नहीं आता था तो मैं कमरा साफ़ करने लगता था. शायद अपने ताप से लड़ने की तरकीब ढूंढ ली थी मैंने. आज मेरा वही चालीस साल पुराना दिमाग़ कह रहा है कि कोई मुझे सिर्फ़ एक घंटा दे दे तो मैं कमरे को चमाचम करके रख दूंगा.  

असल में, अब इंस्‍टीट्यूट के सहायकों से पूछे बिना मैं कोई काम नहीं कर सकता. वे हमेशा मेरे आसपास रहते हैं. वैसे वे मुझे कुछ भी करने से मना भी नहीं करते, लेकिन जब भी कुछ शुरु करता हूं तो फ़ौरन सामने आ जाते हैं और मुझे घड़ी दिखाने लगते हैं. इसलिए कमरे की सफ़ाई शुरु करने से पहले मुझे उनसे पूछना होगा कि वे मुझे कितना समय दे सकते हैं. वे थोड़ी दूर खड़े सिगरेट पी रहे हैं. अभी कुछ देर पहले उनमें से एक ने आंख और हाथ के इशारे से मेरी कोई मदद करने के लिए पूछा था. लेकिन मैं किसी को धूल में सानना नहीं चाहता.

सीढि़यां चढ़ते हुए सोचता आया था कि पहुंच कर सबसे पहले नहाऊंगा. लेकिन अब कमरे की गंदगी देखकर नहाने का ख़याल जाता रहा. शरीर और दिमाग की बढ़ती चिड़चिड़ के बीच अचानक ध्‍यान गया कि दीवार में बनी जिस अलमारी के सामने की जगह खाली रहती थी वहां कोई और बिस्‍तर लगा है. अलमारी के एक खाने में देवी-देवताओं की कई मूर्तियां रखी हैं और बिस्‍तर के दाहिने कोने की तरफ़ दीवार पर कच्‍ची पेंसिल से लिखा है: ‘बस भगवान ही सबका साथ निभाता है’. धूल से अंटे मेरे दिमाग की हालत ऐसी नहीं रह गई है कि मैं यह सोच सकूं कि इस बीच मेरे कमरे में कौन घुस आया है. इस कशमकश में अचानक याद आता है कि कमरे में अंदर आने के लिए मैंने ताला खोला ही नहीं था. यह सोचते ही मुझे लगा कि मेरे दिमाग में ‘ओफ़्फ’ जैसा कोई शब्‍द बजा है. आखि़र ऐसा कैसे हो सकता है ! यह कमरा मेरे नाम अलॉट है ! मैं इसका किराया नियमित रूप से देता रहा हूं !

ठीक है कि मैं कई महीनों के लिए ग़ायब हो गया था लेकिन कमरा तो मेरे ही नाम था. फिर बिल्डिंग का मालिक इस कमरे में किसी और को कैसे घुसा सकता है ? तो क्‍या इसका मतलब ये है कि जिन दिनों मैं ग़ायब रहा था तो राजू यह कमरा छोड़ कर कहीं और चला गया था  !   मेरी आंखों के सामने अचानक एक बैंगनी अंधेरे रंग का पर्दा गिरा है. याद आया कि अभी एक साल पहले तक राजू इसी कमरे में रहने के लिए आया करता था. उसने दो-चार महीने पहले ही ‘स्विच ऐंड स्विच’ ज्‍वाइन की थी जहां मैं पिछले आठ सालों से काम कर रहा था. कभी कभी वह महीने भर तक मेरे साथ रह जाता था. मैंने उससे कई दफ़ा कहा था कि अगर वह टिक कर काम करना चाहता है तो उसे इसी बिल्डिंग में कोई कमरा ले लेना चाहिए. मैंने उसे समझाने की कोशिश की थी कि जब फैक्‍ट्री और बिल्डिंग एक दूसरे के इतने पास पड़ती है तो कहीं बाहर रहने और आने-जाने पर पैसा फूंकने में क्‍या तुक है. लेकिन, राजू ने मेरी राय यह कह कर हवा में उड़ा दी थी कि, ‘इस बिल्डिंग में आकर मैं भी एक दिन तुम लोगों की तरह कबूतर बन जाऊंगा’. किंतु सच ये है कि वह बहुत लंबे समय तक बाहर भी कोई जगह नहीं ढूंढ़ पाया था. और इसका नतीजा यह हुआ कि इस कमरे की दूसरी चाबी लगभग उसी के पास रहने लगी थी.

मैं अब कमरे की सफ़ाई करने का इरादा स्‍थगित करना चाहता हूं. मुझे लगता है कि कमरे की धूल मेरे नथुनों और गर्दन पर जमने लगी है. कुछ देर और बैठा रहा तो वह मेरे शरीर के हर अंग पर चिपक जाएगी. दरअसल धूल के साथ यह एक बड़ी दिक़्क़त है कि अगर तुम उसे बुहार कर बाहर निकालना चाहोगे तो वह उल्‍टे तुम्‍हारी तरफ़ लौट आती है. वह आदमी से इसी तरह बदला लेती है

मैं इतनी सारी बातें एक साथ नहीं सोच सकता. और अकेले यह नहीं समझ सकता कि इस बीच क्‍या क्‍या हुआ होगा. इसलिए कमरे से निकल कर बाहर बरामदे में आ गया हूं. मुझे वक़्त का पक्‍का एहसास नहीं है. इस बरामदे में खड़े होकर कोई भी वक़्त का अंदाज़ा नहीं लगा सकता. सुबह हो या शाम— यहां हर समय ट्यूब लाइट जली रहती है. बरामदे में कहीं कहीं दो तीन लोग किसी ट्यूब के नीचे खड़े बीड़ी पीते हुए बात कर रहे हैं. मेरा उनसे कोई परिचय नहीं है. मैं अपने बचे-खुचे दिमाग से बस इतना पता लगाने की सोच रहा हूं कि अपने उस दोस्‍त के कमरे के बारे में किसी से पूछ लूं. लेकिन उनके चेहरे पर जमी अजनबियत देखकर मेरी हिम्‍मत नहीं होती. इसलिए बरामदे में निरुद्देश्‍य आगे चलते जाने के अलावा मैं कुछ और नहीं कर सकता. लेकिन ठीक इसी बीच मेरे दिमाग में एक नक़्शा खुला है:  दो बरामदों के बाद, जहां यह बिल्डिंग ख़त्‍म होती है वहीं बिल्‍डिंग के मालिक का घर है. कोई ध्‍वनि तरंग मुझसे कह रही है कि मुझे इस बारे में मालिक से जाकर बात करनी चाहिए. मैं उसके कहने पर आगे चल पड़ा हूं.

एक के बाद दूसरा बरामदा आता है. मैं इस खोह में बाहर की तरफ़ चल रहा हूं. और मेरे पीछे एक धूल भरा अंधेरा चल रहा है. लो, अब बिल्डिंग का आखि़री जीना भी उतर गया हूं. ज़मीन पर आते आते मेरे तलुओं से पसीना रिसने लगा है. मैं इस हालत में पैर जमा कर नहीं चल सकता. चलूंगा तो फिसल कर गिर पडूंगा. बिल्डिंग के मालिक का बंगला बस एक पार्क छोड़ कर है. एक विशालकाय अहाते में खड़े इस बंगले के चारों तरफ़ पेड़ों का एक घेरा सा है. बंगले में अंदर जाने के लिए बाहरी दीवार से दो रास्‍ते जाते   है. इनमें एक रास्‍ते जाने और दूसरा आने के लिए है.

मुझे लगता है कि अब यह दूरी मुझे रेंगकर पार करनी पड़ेगी. रेंगने का ख़याल आते मेरे घुटने अपने आप मुड़ने लगे हैं. पसीने के कारण मेरे शरीर के साथ पानी की एक झिल्‍ली बन गयी है जिसमें मैं आसानी से रेंग या रपट सकता हूं. यहां से मैं बंगले की चारदीवारी के एक कोने में गार्ड का माचिसनुमा कमरा देख सकता हूं. मैं आड़ी तिरछी खड़ी लंबी-लंबी गाडि़यों के पहियों के बीच से देखता हूं कि गार्ड एक मोटे रजिस्‍टर पर किसी आगंतुक का ब्‍योरा दर्ज कर रहा है. अभी चार-पांच साल पहले तक इस गार्ड की मूंछ-दाढ़ी स्‍याह काली थी. तब वह इकहरे शरीर का था और चहक कर काम करता था. लेकिन अब वह सिर, मूंछ और दाढ़ी समेत पूरा सफेद हो गया है. मुझे उसकी मूंछ और दाढ़ी नकली लग रही है. आखि़र जो आदमी इतने सालों से इस जगह के अलावा कहीं गया ही नहीं, वह इतने कम समय में इतना सफेद कैसे हो सकता है !  जाने क्‍यों गार्ड को देखकर मेरा हौसला टूटने लगा है. शायद मुझे किसी से कुछ न पूछ कर वापस लौट जाना चाहिए. मेरा संदेह बढ़ने लगा है कि मालिक मेरी इतनी मामूली बात पर कोई ध्‍यान नहीं देगा. वह पहले ही कई लोगों से‍ घिरा होगा और उसके सामने या तो मैं अपनी बात कह नहीं पाऊंगा या वह सुनना ही नहीं चाहेगा. यानी दोनों स्थितियों में मुझे ही बेइज्‍जत होना पड़ेगा.

लिहाज़ा, बंगले की बाहरी दीवार के पास खड़ी एक लहीम-शहीम एसयूवी की ओट में मैंने कुहनियां टिका कर अपनी दिशा बदल ली है. मैं एक बार ज़मीन से सिर उठा कर देखता हूं और दुबारा बिल्‍डिंग की ओर रेंगना लगा हूं.

मन में शायद अब आख़री और बहुत कमज़ोर सा खयाल यह रह गया है कि अगर राजू मिल जाए तो उससे पूछ भर लूं कि आखि़र इस बीच हुआ क्‍या था. लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह मिल ही जाएगा. इसलिए लौटते हुए मुझमे कोई उत्‍कंठा नहीं बची है. जैसे मैं मालिक की तरफ़ जाते हुए तय नहीं कर पाया था कि मुझे उसके पास जाना चाहिए या नहीं वैसे ही लौटते हुए यह लग रहा है कि राजू के मिलने या न मिलने से भी कुछ नहीं होना.

तभी वह मुझे अचानक एक कमरे अचानक निकलता दिखा. उसका मुंह मेरी तरफ़ था. मैं उसके नाम का बस ‘र’ ही पुकारने वाला था कि वह मेरी तरफ़ दौड़ने पड़ा. उसने मेरे पास पहुंचने से पहले ही बोलना शुरु कर दिया था. मुझे लगा जैसे उसने यह रिहर्सल कर ली थी कि मैं जब भी उसे मिलूंगा तो वह सारी बात इसी तरह दनादन कहता चला जाएगा. वह कह रहा था:

‘देख यार, तू जब अचानक ग़ायब हो गया तो मैं महीनों इंतज़ार करता रहा. मैं हर दिन तेरा मोबाइल ट्राई करता था लेकिन वह हमेशा बंद मिलता था. मैंने तेरे भाई से भी कांटेक्‍ट किया लेकिन उसने बस यही बताया कि तू कहीं ग़ायब हो गया है. इससे ज्‍़यादा उसने कुछ नहीं बताया. बता मैं क्‍या करता. वो मेरा कमरा तो था नहीं. तो फिर तेरे बगैर मैं उसमें कैसे रहता. उसके बाद मैंने एक बंदे से रिक्‍वेस्‍ट की कुछ दिनों के लिए वह मुझे अपने साथ रख ले’.

इतना कहकर वह अचानक चुप हो गया. दिमाग में उड़ती रेत के बीच मेरा उससे यह कहने का मन हुआ: ‘साले तू कब तक यूं ही भटकता रहेगा’. लेकिन एकदम ख़याल आया कि मेरी हालत भी तो वैसी ही है. राजू इतना दीन लग रहा था कि मैं उसे और परेशान नहीं करना चाहता था. इसलिए बस इतना पूछ पाया- .... तो ये बंदा कौन है और मेरे कमरे में कब से रह रहा है ?

‘मुझे ज्‍यादा नहीं पता. लेकिन तुम्‍हारे गायब होने के बाद जब एक दिन मैं कमरे में था तो मालिक के दो एजेंट आए. उनके साथ एक कमज़ोर सा लड़का था. एक एजेंट ने मुझसे पूछा कि यहां कौन रहता है. मैंने जब कहा कि मैं ही रहता हूं तो उसने हंसते हुए कहा कि ‘अबे ओय झूठ क्‍यूं बोल रहा है, तू तो स्‍टपणी है उसकी. देख यू छोरा तीनेक महीन्‍ने इसी कमरे मैं रहवैगा’. उन लोगों को पहले से पता था कि मैं तेरे साथ फ्री में रहता हूं. इसलिए मैं उनका विरोध नहीं कर सका. और शाम तक वह लड़का बिस्‍तर समेत इस कमरे में आ गया. बाद में थोड़ा बहुत पता चला कि वह लड़का मालिक के किसी दूर के रिश्‍तेदार का बेटा है, वह कहीं नौकरी करता है और यहां दो-चार महीने के लिए रहेगा’
मुझे लगा कि राजू अब मुझसे शायद यह पूछेगा कि मैं कहां गायब हो गया था ? इसलिए आगे बोलने से पहले इंतज़ार करता रहा कि वह कुछ कहे लेकिन उसे मेरी गुमशुदगी में कोई दिलचस्‍पी नहीं थी. उसके चेहरे या आंखों में ऐसा कोई सवाल ही नहीं था. एक क्षण के लिए मुझे धक्‍का सा लगा लेकिन फिर उसी की बात याद आई कि मेरे भाई को भी मेरे ग़ायब हो जाने से कोई फर्क नहीं पड़ा था. और उसने भी यह जानना नहीं चाहा था कि मैं कहां चला गया था.

राजू शायद अपनी हर बात कह चुका है. मेरा अचानक ध्‍यान गया कि उसकी मूंछ और दाढ़ी का बड़ा हिस्‍सा सफेद हो चुका है. वह बहुत थका हुआ है. मुझे उसे जाने देना चाहिए. पर उसने यह बात मुझसे पहले सोच ली थी. उसने अपने सिर को थोड़ा टेढ़ा करते हुए कहा- ‘अच्‍छा तो... अब...’
और वाक्‍य अधूरा छोड़ कर बरामदे की सलेटी रोशनी में आगे बढ़ने लगा.  

बरामदे के आखिरी छोर पर सीढि़यां उतरने से पहले वह अचानक ठिठका. मुझे लगा कि वह पलट कर कोई छूटी हुई बात कहना चाहता है. लेकिन वह वहीं खड़ा रहा. उसने एक क्षण के लिए गला साफ़ किया और बिना मुड़े कहने लगा: ‘अमन, तुम कब तक नींद में चलते रहोगे... तुम स्‍वीकार क्‍यों नहीं करते कि तुम्‍हें यहां से निकाल दिया गया है... तुम्‍हारा अब इस जगह से कोई ताल्‍लुक नहीं रह गया है... और तुम जिस बात को छिपाते रहो हो उसका सबको पता चल चुका है... देखो, अगर इस बार उन्‍होंने तुम्‍हें यहां देख लिया तो तुम्‍हारा भुर्ता बना कर रख देंगे...’.

मैं यह देखकर दहशत से भर गया हूं कि यह बात कहते हुए उसके शरीर में कोई हरकत नहीं हो रही है. लगता है जैसे वह कागज़ पर लिखी कोई सूचना पढ़ रहा है और आवाज़ उसकी पीठ से निकल रही है. आखिर में, जब उसने नीचे उतरने के‍ लिए सीढि़यों पर पैर रखे तो मुझे यकायक महसूस हुआ कि मैं इस लंबे बरामदे में एकदम अकेला हो गया हूं. कि मैं ग़लत जगह आ गया हूं और मुझे यहां ज्‍़यादा देर नहीं रुकना चाहिए.

मेरे भीतर बिखरे पत्‍ते, टहनियां, प्‍लास्टिक की पन्नियां और न जाने कैसी अंडबंड चीज़ें फिर जमा होने लगी हैं. कुछ देर बाद वे आपस में टकराने लगेंगी और उनके बीच मैडम कपाही की टीन की तरह बजती आवाज़ आने लगेगी: ‘अमन जी, कंपनी की स्विच यूनिट बंद हो रही है...जीएम का ऑर्डर है... इस हफ़्ते अपना हिसाब कर लेना’.

मैं यह तक जानता हूं फिर इसके बाद रेत का एक बगूला उठेगा और गोल गोल चक्‍कर काटने लगेगा. और इस रेतीले शोर में हज़ारों उखड़े बिखरते शब्‍द आकर मेरी कनपटी पर बजने लगेंगे: ‘पर मैडम आठ सालों के बाद... किस्‍तें, पहले बता दिया होता तो... जिंदग़ी को दुबारा सैट करना...’

दोनों सहायक मुझे ढूंढ़ते हुए ऊपर आ गए हैं. वे बरामदे के दूसरे सिरे पर खड़े मुझे हाथ के इशारे से बुला रहे हैं. मैं ताड़ गया हूं कि मुझे नियत जगह पर न पाकर वे चिंतित हो गए थे.  
उन्‍हें बरामदे के इस झनझनाते सूनेपन में देखकर मेरी दहशत कम होने लगी है. उन्‍होंने मुझे चलने का इशारा किया है. मैं लगभग एक पालतू पशु की तरह उनकी ओर दौड़ने लगा हूं. मेरे पैरों में एक परिचित ख़ुशी दौड़ रही है कि बाद में जो होगा सो होगा लेकिन कम से कम फ़ौरी तौर पर तो वे मुझे इस बिल्डिंग से बाहर ले ही जाएंगे  
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  1. तेजी ग्रोवर8 मई 2019, 11:49:00 am

    कहानी तो बहुत दमदार है। घुप्प अंधेरा महसूस होता है। इस अंधेरे में अपने भाई को लेकर भी किसी को कोई जिज्ञासा नहीँ होती। ट्यूब की मरियल रोशनी इस बेनूर दुनिया का सटीक रूपक बन पड़ा है।

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  2. शिव किशोर तिवारी9 मई 2019, 8:55:00 pm

    अच्छी कहानी।

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  3. अच्छे शब्दों के प्रयोग के साथ एक बेहतरीन कहानी

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