(by Ben Dhaliwal) |
अकादमिक दुनिया को आधार बनाकर हिंदी में कम ही कहानियाँ लिखी गयीं हैं उनमें
से कथाकार देवेन्द्र की कहानी ‘नालंदा पर गिद्ध’ अविस्मरणीय है.
ज्ञान के कथित पीठ महीन कूटनीति के भी पीठ हैं. सत्ता-संरक्षण, थोथे वैचारिक
प्रदर्शन, अकादमिक जार्गन, विचारों और अवधारणाओं की चोरी, अनुकूल पर अक्षम की
नियुक्ति, जातिवाद, भाई-भतीजावाद. प्रतिभाशाली, साहसी, स्वाभिमानी की उपेक्षा,
अवहेलना और अहित ये सब ऐसे छल हैं जिन्होंने उच्च शिक्षण संस्थाओं को नष्ट ही कर
दिया है.
नरेश गोस्वामी समाज-विज्ञान
की पत्रिका ‘प्रतिमान’ के सहायक संपादक हैं, समालोचन पर आप उनकी कहानियाँ पढ़ते आ रहें
हैं. यह कहानी महानगर के एलीट कहे जाने
वाले एक उच्च शिक्षा संस्थान की यही विडम्बनात्मक कथा कहती है.
पिरामिड
के नीचे
नरेश गोस्वामी
विमल ने अपनी आंखें फिर बंद कर ली हैं. सपने का सूत्रधार कान में फिर फुसफुसा रहा है: ‘अब गली से निकलने की कोशिश मत करना... कोई कह रहा है कि नुक्कड़ पर एक तेंदुआ घात लगाए बैठा है’.
सिर का यह दर्द उसी क्षण शुरु हुआ था जब एक साल
पहले सुनील की किताब— सुभानपुर: एक कस्बे
की डायरी पढ़ने के बाद रुबीना अपनी कुर्सी में बैठी देर तक खिड़की के बाहर
देखती रही थी. सुनील की यह किताब मरणोपरांत छपी थी और उन दिनों जबर्दस्त चर्चा
में थी. कस्बे के समाज, राजनीति और अर्थतंत्र पर वैश्वीकरण के पच्चीस
वर्षों के प्रभावों का आकलन करती इस किताब को कई समीक्षक पॉपुलर समाजशास्त्र का
नया मानक घोषित कर चुके थे. किताब की
लोकप्रियता के पीछे शायद इस तथ्य की भमिका भी थी कि दिवंगत सुनील देश के एक
प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने के बाद अपनी ग्रामीण दुनिया में लौट गया
था और सामाजिक कार्य करते हुए वहीं रहकर लिखने पढ़ने का काम कर रहा था. इसमें अतिरिक्त
सहानुभूति की बात यह थी कि डेढ़ साल पहले उसकी हार्ट अटैक से अचानक मौत हो गयी थी.
तब वह केवल बावन साल का था. चूंकि किताब उसकी मौत के बाद छपी थी, इसलिए
प्रकाशन-जगत, विद्वान और समीक्षक इसमें सुनील के जीवन की त्रासदी, वंचनाओं और उसके
साथ हुए अन्याय पर भी चर्चा कर रहे थे.
‘यार, इस आदमी के पास वाक़ई एक अलग तरह की नज़र है.
साहित्य, एथनॉग्रैफी, सोसियोलॉजी... सब कुछ एक साथ और कहीं कोई अटकाव, बौद्धिकता
का कोई प्रदर्शन नहीं... कस्बे की राजनीति का ग्रिड किस तरह खोला है इस बंदे ने.
जहां लोगों को ज़र्रा दिखाई नहीं देता, वह पूरी दुनिया देख लेता है. छोटे-छोटे ब्योरे,
जिन्हें लोग बड़ी अदा के साथ माइक्रो डीटेल्स कहते हैं, उसके यहां भरे पड़े
हैं... सिद्धेश्वर खन्ना ने मार्जिन्स के अपने रिव्यू में लिखा है कि सुनील
अंग्रेजी में भी लिख सकता था लेकिन उसने यह प्रलोभन छोड़ते हुए अपनी भाषा चुनी’.
रुबीना अभिभूत थी. यहां तक कि अपने खर्च पर दिल्ली
जाने की योजना बनाने लगी थी. वह सुनील के बारे में सब कुछ जानना चाहती थी:
‘इतने शानदार अकैडमिक रिकॉर्ड के बावजूद उसे नौकरी
क्यों नहीं मिली?’
‘क्या उसे उसका एक्टिविज्म
खा गया? क्या लोग उसके टेलेंट से
डरते थे?’
‘क्या दिल्ली की पूरी अकादमिक जमात में एक भी
आदमी ऐसा नहीं था जो उसके लिए कुछ कर पाता?’ ‘तुम्हारे साथ का सबसे ब्रिलियंट आदमी गुमनामी में खो गया और किसी को कोई
अफ़सोस नहीं हुआ?’ ‘तुम्हारा तो दोस्त था,
तुम भी कुछ नहीं कर पाए?’
आखिर में जब दोनों अपने अपने सिरे समेट रहे थे तो रुबीना
ने वह बात भी कह डाली जो अब तक उसके ज़हन में अटकी थी: विम, तुम मानो या न मानो,
लेकिन सुनील के साथ न्याय नहीं हुआ... वह जिस मुकाम का हक़दार था, उसे वहां तक
पहुंचने नहीं दिया गया’. इतना कहकर रुबीना चुप हो गयी लेकिन ऐसा लगा कि उसकी चुप्पी
में अभी कुछ बाक़ी रह गया था. बहुत देर तक जब कोई जवाब नहीं आया तो रुबीना ने
कनखियों से देखा कि बेंत की कुर्सी में अधलेटा विमल कुछ न कह पाने की बेचैनी से
जूझ रहा है.
‘हा रूबी, तुम ठीक कह रही हो... वह अंग्रेजी में
लिख सकता था. लेकिन बहुत टेढ़ा आदमी था..ऑलमोस्ट सिनिकल. मैंने उससे कई बार कहा
कि अंग्रेजी में क्यों नहीं लिखते... कि अंग्रेजी का बाज़ार और दायरा बड़ा है,
लेकिन उसने कभी नहीं सुनी. बड़े रौब सा कहा करता था कि अंग्रेजी वालों को ज़रूरत
होगी तो अनुवाद करा लेंगे..’. अंतत: विमल ने ख़ुद को अपनी उस विकल चुप्पी से बाहर
खींचते हुए कहा था.
शाम की विदा होती रोशनी में रुबीना ने भौंहे सिकोड़
कर फिर एक बार विमल की ओर देखा.
रुबीना ! हिंदुस्तानी पिता और
अमेरिकी मां की पहली संतान. तीन साल की उम्र से मां की तलाकशुदा जिंदगी के अकेलेपन
और संकटों में तपी, सत्रह साल की उम्र में छुट-पुट नौकरी शुरु करके पच्चीस तक देह
की ज़रूरत और साहचर्य के अंतर को जज्ब कर चुकी थी. अकादमिक दुनिया में आने का
फैसला उसने स्कूली पढ़ाई के बारह साल लिया था. पहले विवाह के बाद औपचारिक संबंधों
को हमेशा के लिए अलविदा कह देने वाली और किसी भी राष्ट्रीयता से घनघोर परहेज
करने वाली रुबीना चुप्पियों के बीच फुसफुसाती चालबाजियों से बखूबी वाकिफ़ थी. उसे
विमल से ऐसे टरकाऊ जवाब की उम्मीद नहीं थी जिसमें न कोई सरोकार दिखाई दे रहा था,
न संजीदगी.
(दो)
विमल का डर यही था कि आखिर में यह सवाल उस तक भी
पहुंचेगा. रुबीना ने आखि़री सवाल से पहले जो कुछ भी कहा था, वह अनाम लोगों को
संबोधित था: एक ऐसी भर्त्सना जिसमें किसी का नाम नहीं लिया गया था. लेकिन आखि़री
सवाल तो ख़ालिस उसी से वास्ता रखता था. हां, विमल के पास सवाल को टालने, उसे किसी
ओर दिशा में घुमा देने या फिर सिरे से रफा-दफा करने का लंबा अनुभव था. लेकिन यह
सेमिनार नहीं, घर का एकांत था और सवाल वह स्त्री पूछ रही थी जो पिछले पांच बरसों
से उसके साथ रह रही थी और अकादमिक दुनिया में उसके बराबर हैसियत रखती थी— दक्षिण
एशियाई भाषा और साहित्य की मर्मज्ञ. हिंदी, उर्दू और फ़ारसी की विद्वान और विमल
की शोध-परियोजना की सह-निदेशक. उसके सामने वह झूठ नहीं बोल सकता था.
उस रात सोने से पहले मेल चैक करने के लिए जब विमल
ने लैपटॉप ऑन किया तो उसे सिर में अचानक एक सरसराहट सी महसूस हुई. ठीक वैसी जैसे
शरीर के किसी हिस्से पर चींटी चढ़ने पर महसूस होती है. उसने एक बार सिर झटका, चश्मा
उतार कर दुबारा नाक पर रखा. लेकिन नहीं, चीटियों की रफ़्तार बढ़ रही थी. अचानक सिर
के भीतर एक कटार सी धंसी और कानों के पास निर्वात सा फैल गया. एकबारगी लगा कि वह
कुर्सी से लुढ़क जाएगा.
(तीन)
विमल ! इंडियन इंटैलिजेंशिया का ग्लोबल
स्टार. आइवी लीग की एक युनिवर्सिटी में सोशल सिस्टम्स का प्रोफ़ेसर. अकादमिक और
पॉपुलर दोनों दुनिया का सम्मानित नाम. चार बेस्ट सेलर किताबों का लेखक. शोध के
बीसियों अंतर्राष्ट्रीय जर्नलों के सलाहकार मंडल में शामिल. हिंदी वाले इसलिए
गदगद कि साल भर में एकाध लेख हिंदी में भी लिख देता है. भारत आता है तो आइआइसी और
हैबिटेट सेंटर में व्याख्यान. विश्वविद्यालयों में अपने यहां बुलाने की होड़ लग
जाती है. दिल्ली हो या हैदराबाद, जहां जाए वहीं इंतज़ार करते लोगों की भीड़. उसके
एक एक शब्द को दिमाग में उतार लेने को आतुर लोग. धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे सदाबहार
सपनों से लेकर कटिंग-एज थियरीज का उस्ताद. और वह भी केवल बावन साल की उम्र में.
लेकिन एक साल पहले शुरू हुआ यह दिमाग़ी दर्द अब बाहर
की रौनक पर भारी पड़ने लगा है. इस साल उसे चार जगह व्याख्यान देने थे, लेकिन कहीं
नहीं जा पाया. उसे लगता है कि यह सिर्फ़ सिरदर्द नहीं बल्कि कोई और चीज़ है जो एक
बार शुरु होता है तो उसे कई दिनों के लिए निचोड़ कर रख देता है. उसकी शक्ति, काम
करने की इच्छा और ध्यान- सब सोख लेता है. और भयावह
बेचैनी के इन क्षणों में वह जैसे अपने भीतर उलटा चलने लगता है : क्या यह उसके व्यक्तित्व—
जिंदगी के हर मसले, हर रिश्ते, हरेक भावना को अपने करियर के मुताबिक तय करने की
अनिवार्य परिणति नहीं है? कि वह- जो किसी रौ में नहीं बहा; जिसने हर अवसर को कैश किया. हर मौक़े पर वह किया जो
उसके प्रोफाइल को आगे बढ़ाए. कई स्त्रियों से प्रेम किया. तरह-तरह के लोगों से
मित्रता की. पिछला संबंध ख़त्म करने, नया रिश्ता बनाने के लिए कितनी बार और
कैसे-कैसे तर्क विकसित किए!
इस बीच विमल ने कई बार चाहा कि रुबीना को साफ़ साफ़
बता दे कि सिरदर्द की यह नयी बीमारी उसी दिन शुरु हुई थी जिस दिन सुनील और उसकी
किताब का पहली बार जि़क्र हुआ था. कई दफ़ा जब उसने कहना चाहा, बात होटों तक भी आई
लेकिन तभी एक पथरीला डर मन में आ बैठा. अपने अतीत की बहुत सी चीज़ों की तरह उसने
रुबीना को अभी तक सुनील के बारे में कुछ ख़ास नहीं बताया था. ख़ुद रुबीना ने भी
कभी उसके अतीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. लेकिन अब जब रुबीना सुनील की किताब
का ख़ुद ही अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहती है और दो महीने बाद भारत जाने का
कार्यक्रम बना चुकी है तो देर-सबेर उसे सब पता चल जाएगा.
(चार)
जैसे-जैसे रुबीना के भारत जाने का समय निकट आता जा
रहा है, विमल का डर और बेचैनी बढ़ने लगी है. दिमाग़ में हर वक़्त जैसे कहीं दूर
बजते घंटे का कंपन गूंजता रहता है. अब ये सवाल कल्पना से निकल कर गिलगिले भय में
बदल गए हैं: क्या सब कुछ एक साथ बता दूं? रुबीना की क्या प्रतिक्रिया होगी? क्या होगा जब
रुबीना के सामने उसकी छवि ध्वस्त होगी? कैसा लगेगा लोगों
को यह जानकर कि भारतीय बौद्धिकता के इस ग्लोबल सितारे की पहली किताब का मूल विचार
ही नहीं, कई अध्यायों की योजना ही सुनील की अधूरी थीसिस से उड़ाई गयी थी. एक बात
हो तो वह झटके से कह भी दे. यह तो पूरा एक पिरामिड है. एक के ऊपर दूसरा तल!
वह क्या-क्या बताए कि एम.ए. फ़र्स्ट इयर में जब
एक बार प्रोफ़ेसर सुकांत चौधरी की क्लास में
सामाजिक न्याय पर चर्चा चल रही थी तो सुनील ने उनसे बहुत लंबी बहस की थी और सारे
छात्रों के आकर्षण का केंद्र बन गया था. चौधरी लोकतंत्र की दूसरी लहर पर टिप्पणी
करते हुए कह रहे थे कि सत्ता में दलितों और पिछड़ों की बढ़ती भागीदारी लोकतंत्र
की संस्था को दूरगामी ढंग से मज़बूत करेगी.. लोकतंत्र की एक बड़ी अंतनिर्हित
संभावना यह होती है कि उसमें अंतत: सबको मौक़ा मिलता है. वह अपने आप में एक
संतुलनकारी शक्ति है’.
इस पर सुनील ने हाथ उठाते हुए कहा था: सर, मुझे
लगता है कि आपकी बात एकतरफ़ा हो गयी है’.
प्रोफ़ेसर चौधरी ने अपनी बात ख़त्म करने के बाद बड़े
उत्साह से कहा था: ठीक है. अब इसके बाद पूरा समय तुम्हारा है. अपनी बात और तर्क
पूरे व्यवस्थित ढ़ंग से रखो’.
सुनील कह रहा था कि उसके कस्बे में पिछले सत्तर
सालों से नगर पालिका है. इन वर्षों में सिंह, गुप्ता, अग्रवाल, शर्मा और वर्मा सब
चेयरमैन हुए हैं, लेकिन एक भी कुम्हार, लुहार या मुसलमान चेयरमैन नहीं बन सका है.
मुसलमानों के नाम पर सिंहों, गुप्ताओं, शर्माओं और वर्माओं के साथ हो जाने वाले
प्रजापति और लुहार अपने आप में ज्यादा से ज्यादा वार्ड मेंबर बन पाते हैं.
कभी-कभी उन्हीं में से किसी को डिप्टी चेयरमैन बना दिया जाता है जिसका कोई ख़ास
मतलब नहीं होता. उसने इस तरह की अन्य छोटी-छोटी जातियों- जोगी, श्यामी, बैरागी आदि का हवाला देते हुए कहा था कि सिर्फ़
चुनावी भागीदारी सामाजिक न्याय की गारंटी नहीं हो सकती. वह इस बात पर लगातार ज़ोर
दे रहा था कि इन छोटी-छोटी और कहीं भी चुनाव को प्रभावित न कर सकने वाली जातियों
को लोकतंत्र की कथित दूसरी लहर का कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं मिला है. पहले वे
जजमानी व्यवस्था का अंग थी, अब बाज़ार का हिस्सा बन गयी हैं. मतलब उन्हें जो
मिला है, उसका लोकतंत्र से ज्यादा आर्थिक बदलाव से संबंध है.
सुनील कहता जा रहा था और विमल मंत्रविद्ध सुनते जा
रहा था कि सामाजिक न्याय की राजनीति का उसका सबसे ज्यादा फायदा दबंग जातियों को
मिला है, भले ही सवैंधानिक भाषा में उसे पिछड़ी या निम्न जाति क्यों न कहा जाता
हो. उस दिन
अपने लगभग आधे घंटे के हस्तक्षेप को समेटते हुए उसने अंत में कहा था: मैं लोकतंत्र या चुनावों के महत्त्व
से इनकार नहीं कर रहा, केवल इतना कह रहा हूं कि जब तक सामाजिक व्यवस्था में
अंतर्निहित ग़ैर-बराबरी का केंद्र ध्वस्त नहीं किया जाएगा तब तक हमारे जैसे देश
में लोकतंत्र सबल या बड़ी संख्या वाली जातियों और उनमें भी केवल इलीट लोगों का हित
साधता रहेगा’.
विमल को याद है कि उस दिन सुनील का हस्तक्षेप
प्रोफेसर चौधरी के लेक्चर पर भारी पड़ा था.
(पांच)
विमल का डर यही था कि अगर उसने यह सब बता दिया तो फिर
यह सच भी खुल जाएगा कि उस दिन एम.ए. की क्लास के बाद वह सुनील को कैंटीन में
सिर्फ़ चाय पिलाने नहीं ले गया था. सुनील को क्लास में बोलते देखकर उसके भीतर एक
अनजान सा डर उग आया था. एक तरह से विमल ने उसे अपना प्रतिद्वंदी मान लिया था. और
यह सोचने में मशगूल हो गया था कि भविष्य में सुनील की तरफ़ से आने वाली चुनौतियों
का वह किस तरह मुकाबला करेगा. उसे याद है कि उसके दिमाग़ में सामाजिक न्याय की
अवधारणा की ख़ामियों पर शोध करने का विचार सुनील की उसी बहस के बाद आया था.
फिर वही दूर बजते घंटे की घन्न घन्न.. उसे यह भी
बताना होगा कि वह अपने पापा से भारत के आधुनिक इतिहास के तमाम विमर्शों के साथ यह
निर्देश सुनते हुए भी बड़ा हुआ था कि अपने प्रतिद्वंदी के गुणों और उसकी ताक़त पर
हमेशा नज़र रखो ताकि अगर भविष्य में उसकी तरफ़ से कोई चुनौती पैदा हो तो उससे समय
रहते निपटा जा सके. जनांदोलनों और सामाजिक न्याय के पक्ष में हमेशा सक्रिय रहने
वाले उसके पापा इस मामले में बहुत चौकन्ने थे. उन्हें इस बात का सहज ज्ञान था कि
व्यक्ति की सामाजिक सक्रियता का दायरा कब और किस बिंदू पर ख़त्म हो जाना चाहिए तथा
कहां और कब उसे अपने निजी हितों के लिए चौकस हो जाना चाहिए.
चूंकि उसे यह ज्ञान विरासत में मिला था. इसलिए वह
लगभग हर आंदोलन के कार्यकताओं को जानता था, सबके साथ दुआ-सलाम का रिश्ता रखता था,
जब ज़रूरी लगता था तो जंतर-मंतर भी हो आता था, लेकिन यह सब करते हुए वह बिल्कुल
स्पष्ट था कि उसे किसी आंदोलन का होलटाइमर नहीं बनना है. उसका लक्ष्य जल्दी से
जल्दी लेक्चरर बनना था और उसकी हर तैयारी इसी उद्देश्य से तय होती थी. वह किसी
सेमिनार के प्रश्नोत्तर सत्र में वहीं तक सवाल पूछता था जहां तक परिचित विद्वान
उसे मुस्कुराते हुए उत्तर दे सके !
विमल की गर्दन में फिर एक झुरझुरी सी दौड़ गयी है
कि इसके बाद उसे यह भी बताना पड़ेगा कि सुनील से उसे दूसरी बार तब डर लगा था जब एम.ए.
के बाद पूरे दो साल जनांदोलनों की राजनीति में झोंकने के बाद वह एक शाम विमल के
कमरे में आया था. उस दिन सुनील बहुत उदास और थका हुआ लग रहा था. बातों का सिलसिला
शुरु हुआ तो आधी रात तक खिंच गया. रात के एक बजे तक विमल के सामने कई तथ्य स्पष्ट
हो चुके थे.
मसलन, सुनील जिस संगठन- ‘नयी मुहिम’ का पिछले दो
साल से सारा कामकाज- पोस्टर, गोष्ठी,
पैम्फलेट से लेकर आयोजन तक की जि़म्मेदारी संभाले हुआ था, उसमें दो-फाड़ हो गयी थी और सुनील को संगठन से निष्कासित कर दिया गया था.
प्रोफ़ेसर चौधरी ने सुनील से साफ़ कहा था कि ‘इन गदहों के चक्कर में
फंसे रहने से बेहतर है, पहले ख़ुद को एस्टैब्लिश करो वर्ना मारे जाओगो. हम जिस
तरह की दुनिया बनाना चाहते हैं, वह एक विचार है और यह विचार कब धरातल पर उतरेगा,
इसे सिर्फ़ हम तय नहीं कर सकते. लेकिन फिलहाल यह बात तय की जा सकती है कि तुम
जिंदा रहने का तरीका सीखो. इसलिए पहले एम.फिल. में एडमिशन लो, फौरन नेट करो और
नौकरी का जुगाड़ देखो’.
उसी रात उसने सुनील को प्रोफेसर चौधरी के हवाला से यह
कहते भी सुना था: ‘याद रखना कि इस देश में मिडिल क्लास का एक हिस्सा ऐसा भी
है जो संघर्ष, प्रतिरोध या समानता जैसे शब्दों का अपनी स्थिति और ज़रूरतों के
अनुसार इस्तेमाल करता है. मेरे और तुम जैसे लोग इस क्लास के लिए कई बार चारा बन
जाते हैं. मैं सिर्फ़ इसलिए बच गया कि वह कोई और दौर था. तब नौकरियों का ऐसा संकट
नहीं था. और बाबा लोग हम जैसों पर कृपा कर जाते थे... लेकिन अब चीज़ें बदल चुकी
हैं’.
(छह)
रुबीना क्या कहेगी जब उसे पता चलेगा कि उसका सलैक्शन
होने के तीन साल बाद डिपार्टमेंट में फिर जगह निकली थी और कई बरसों से जहां तहां
इंटरव्यू देते देते आत्मविश्वास गंवा चुके सुनील ने उससे लगभग गिड़गिड़ाते हुए
कहा था: विमल, यार कुछ कर... जीवन में सब कुछ उल्टा पुल्टा होता जा रहा है. तू अपने
पापा से कहके देख, सब कुछ उनके हाथ में है... तू कोशिश करेगा तो..’. उस दिन एक बार
के लिए विमल पसीज गया था और उसने सुनील के ढीले कंधों को दायें हाथ से कसते हुए
ईमानदारी के साथ कहा था: ‘यार, तू बेफि़क्र रह. इस बार सलैक्शन कमेटी में सब लोग
अपने हैं. मैं पापा से सिर्फ़ बात नहीं करुंगा, अबकी बार ये काम होकर रहेगा’. विमल
को याद है कि उसकी बात सुनकर सुनील की आंखों में एक पनीली परछाईं उतर आई थी.
अब वह कैसे कहे कि उसी दिन अपने पापा और सलैक्शन कमेटी
के हैड त्रिलोकी नाथ से बात की थी. और पापा ने उसे विकट उपहास से देखते हुए कहा
था: ‘क्या चुगद आदमी हो तुम ! तुम्हें कुछ पता भी है कि सुनील को डिपार्टमेंट में लाकर तुम जीवन भर के लिए
अपना प्रतिद्वंदी पैदा कर लोगे’. पापा ने सारी बात एक झटके में वहीं ख़त्म कर दी थी. सुनील की धुंधुवाती
आंखें कई बरसों तक उसका पीछा करती रहीं. लेकिन करियर की उड़ान, सेमिनार, रिसर्च
पेपर, किताबों, यात्राओं और मीटिंग्स की व्यस्तताओं में सब चीज़ें विस्मृत
होती गईं. कभी-कभी ख़याल आता कि अगर उस दिन वह पापा का सामना कर जाता, उनसे
मुकाबला कर जाता तो शायद... पर धीरे-धीरे सब कुछ धुंधला पड़ता गया.
क्या वह रुबीना से यह बात छिपा सकेगा कि अल्पसंख्यक,
जहां तहां छितरी हुई और भूमिहीन जातियों पर छपी उसकी पहली किताब असल में सुनील का
सिनॉप्सिस था जिसे उसने दोस्ती के नाम पर मांग लिया था. हां, उसने चोरी नहीं की
थी. पर वह जानता है कि सुनील ने शायद सलैक्शन के बदले ख़ुद ही चुपचाप एक सौदा कर लिया था. और
कुछ समय बाद विमल ने सुनील की थीसिस के अध्यायों, संरचना और तर्कों को छांट-तराश
कर अपनी किताब में रख लिया था और किताब की भूमिका या आभार में कहीं सुनील का जिक्र
तक नहीं किया था.
विमल ने बाद में सुना कि सुनील ने अकादमिक दुनिया
से हर संबंध तोड़ लिया था. कई बरसों तक उसकी कोई खोज-ख़बर नहीं रही. वह किसी
सेमिनार, गोष्ठी, या किसी भी प्रदर्शन में नहीं देखा गया. उसके बारे में जो भी
सुनने को मिलता टुकड़ों में मिलता. एक बार भारत की आज़ादी के साठ वर्ष पूरे होने
पर दिल्ली में कई दिनों की कांफ्रेंस का आयोजन किया गया. न्युयॉर्क जाने के बाद
वह कई साल बाद दिल्ली लौटा था. वहीं एक शाम पुराने दोस्तों की पार्टी में किसी
ने बताया था कि दो-तीन साल किसी एनजीओ में काम करने के बाद सुनील दिल्ली से सटी
उत्तर प्रदेश की एक बस्ती में रह रही अपनी बड़ी बहन के पास चला गया था. पार्टी
में आए एक नौजवान ने इस बारे में कई और बारीक जानकारियां दी थीं. वह बता रहा था: ‘उन्हें
देख कर यक़ीन नहीं होता... उन्हें जब अपने जीजा की मौत के बारे में पता चला तो
बहन के बच्चों की देखभाल के लिए दिल्ली छोड़कर सीधे उसके पास चले गए. और उसकी
दूध के डेयरी में काम करने लगे... मुझे तो पहली बार देखकर विश्वास नहीं हुआ कि हम
जिस आदमी के लेख पढ़ कर वाह-वाह करते फिरते हैं वह इतना ज़मीनी ओर देसी टाइप भी हो
सकता है’.
विमल को साफ़ याद है कि उस दिन युनिवर्सिटी के
इंटरनेशनल गेस्ट हाऊस में आयोजित उस पार्टी में कुछ ज्यादा पी लेने के बावजूद
उसे रात के तीन बजे तक नींद नहीं आई थी. नशे और थकान के बीच पिछले बीस साल उसकी
आंखों के सामने उल्का-पिंडों की तरह जलते-बुझते रहे.
(सात)
लकड़ी के गले हुए छज्जे में धच से पैर फंसने के बाद
जब विमल अचानक नींद से बाहर आया तो देर तक अपनी सांस के शोर में घिरा रहा. रात भर
सपनों में आती जाती अनाम भीड़ से उलझते भागते वह अपने फैसले पर पहुंच चुका था. उस
वक़्त वह एक दूसरे पर गिरते मकानों की उस गली में रुबीना को ढूंढ़ रहा था. अपनी
जान बचाने के लिए बेतहाशा दौड़ते हुए जब वह मुहाने पर पहुंचा तो दंग रह गया. सामने
एक खुली और चौड़ी गली दिखाई दे रही थी! विमल को याद आया कि जब वह एक
गली के मोड़ पर ठिठक गया था तो एक आदमी उसके पीछे से दौड़ते हुए कह कर गया था:
तुम्हें अभी फ़ैसला करना होगा... या तो रुबीना को ढूंढ़ते रहो या पहले अपनी जान
बचा लो’. विमल को यह भी याद आया कि सपने की उस कुहरीली रौशनी में वह उस चौड़ी गली
से दौड़ता हुआ बाहर निकल गया था.
सपने के आतंक से सांस सामान्य हुई तो उसने कंबल की
सलवटों की ओट से देखा कि रुबीना खिड़की के पास आराम कुर्सी में पसरी है. स्टूल पर
रखे कॉफी के मग से भाप की नन्हें-नन्हें फाहे उड़ रहे हैं. रुबीना कहीं खोई हुई थी.
एकबारगी उसे खटका सा हुआ कि इस वक़्त वह कहीं उसके बारे में तो नहीं सोच रही है ! लेकिन अगले ही पल उसने इस ख़याल को झटक दिया. उसे एक
बार फिर सपने में दौड़ते उस अनजान आदमी की आवाज़ सुनाई दी: ‘तुम्हारे पास यह
आखि़री मौक़ा है... या तो इस गली से निकल कर भाग जाओ वर्ना...’.
कंबल में निश्चेष्ट पड़े विमल से सपने का वह
बेचेहरा सूत्रधार फिर बात करने लगा है: रुबीना के सामने सब कुछ स्वीकार कर लोगे
तो बर्बाद हो जाओगे... जीवन भर इस नरक को
भुगतोगे... ये प्रतिष्ठा, यश सब धूल में मिल जाएंगे... चारों ओर थू-थू होगी..
‘हां, हां, मैं हार नहीं मानूंगा... चीज़ों को इस
तरह हाथ से नहीं जाने दूंगा... चाहे कुछ भी हो जाए’. विमल अपने भीतर हिम्मत के
बिखरे हुए रेशे बटोरने लगा है.
वह तकिये और कंबल की तहों के बीच बने रंध्र से बाहर
देख रहा है. कमरे के फर्श से छत तक जाती कोने की उस ऊंची खिड़की से गिर रही सुबह
की धूप में रुबीना किसी प्रस्तर-शिल्प की तरह लग रही है. उसने आसपास देखा कि रुबीना
ने पैकिंग का काम पहले ही निपटा लिया है. उसका ट्रेवल-किट कबर्ड के नीचे रखा है. रुबीना
इसी तरह काम करती है. कभी कोई हड़बड़ी नहीं. कुछ भी आखिरी वक़्त के लिए नहीं
छोड़ती. विमल को लगा कि पिछले पांच सालों वह उसके जीवन में भी इसी तरह रही है. अपने
काम में खोई हुई और निर्द्वंद.
विमल जान बूझकर दो तीन बार खांसा. खांसी की आवाज़ सुनकर
रुबीना जहां थी वहां से लौट आई.
‘आर यू ओके’ ? रुबीना ने ‘ओके’ को खींच
कर शायद बहुत लंबा कर दिया है. उसकी आवाज़ और निगाह में अजीब सी बेचैनी है.
विमल उसके सवाल से फिर असहज हो गया है.
‘मेरा ख़याल है कि अब तुम्हें किसी साइकियाट्रिस्ट
से मिल लेना चाहिए’. रुबीना की भौंहे सिकुड़ आईं हैं.
‘मतलब?’... विमल तय नहीं
कर पाया कि उसकी प्रतिक्रिया में घबराहट ज्यादा है या ख़ुद को सामान्य दिखाने की
कशमकश !
‘पिछले कई महीनों से तुम नींद में बड़बड़ाते रहते
हो. कल रात भी तुम कई बार रुक-रुक कर चिल्लाते रहे कि मैं जिम्मेदार नहीं हूं...
मैं अकेला जिम्मेदार नहीं हूं’.
विमल ने अपनी आंखें फिर बंद कर ली हैं. सपने का सूत्रधार कान में फिर फुसफुसा रहा है: ‘अब गली से निकलने की कोशिश मत करना... कोई कह रहा है कि नुक्कड़ पर एक तेंदुआ घात लगाए बैठा है’.
________________
naresh.goswami@gmail.com
naresh.goswami@gmail.com
कहानी में सुनील का चरित्र प्रसिद्ध एक्टिविस्ट सुनील गुप्ता पर आधारित लगता है जो, जहाँ तक मुझे पता है, जेएनयू से अर्थशास्त्र में एमए करके स्वेच्छा से मध्यप्रदेश के एक गाँव में चले गये और किसान-मजदूर एक्टिविस्ट व समता पार्टी के कार्यकर्ता बन गये। उन्होंने एक बार विधानसभा के लिए चुनाव भी लड़ा, जहाँ तक मुझे याद है। वे होशंगाबाद में एकलव्य संस्था के दफ्तर में भी आते थे जहाँ पर वे मीटिंग करते थे या चन्दा इकट्ठा करने आते थे। क्योंकि मैं एकलव्य में वरिष्ठ सम्पादक और सीनियर फेलो था, वहीं पर मेरी भी उनसे मुलाकात हुई।उन्होंने कई पैम्फलेट लिखे जो अपने विश्लेषण में ब्रिलियंट माने जाते हैं और अब भी उपलब्ध हैं। कुछ वर्ष पहले 53 की ही उम्र में उनकी मृत्यु हुई। भोपाल में उनकी शोकसभा में मैं शामिल था। लेकिन कहानी के सुनील व उनमें कुछ फ़र्क है। मुझे नहीं याद की असली सुनील ने नौकरी करने की कोशिश की। ख़ैर, यह सब कहानी पर टिप्पणी नहीं है। पर इतना कह सकता हूँ कि नरेश गोस्वामी की पिछली कहानी कहीं बेहतर थी। इस कहानी में संभावनाएं हैं पर उसमें डेप्थ नहीं आ पायी। ऐसा लगता है कि जैसे वह अपनी विषयवस्तु को छू कर निकल गयी हो, बस।
जवाब देंहटाएंकिसी भी अच्छी कहानी में लेखक निरपेक्ष होता है. वह सिर्फ़ द्रष्टा है.यह कहानी हमारे रोजर्मरा के अकादमिक जगत में घट रही घटनाओं पर एक टिप्पणी की तरह है.और यहाँ कहानीकार अपनी बात सलीके से कह देता है. यह कहानी यहीं पर सफल है. कहने के विकल्प हमारे पास कम है.
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी है पर बहुत झटके के साथ खत्म हो गयी। कहानी में कथावस्तु को विभिन्न संरचनाओं में विकसित किया जाना रह गया लगता है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-01-2019) को "अजब गजब मान्यताएंँ" (चर्चा अंक-3222) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
उत्तरायणी-लोहड़ी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मुझे भी केसला के सुनील की याद आई
जवाब देंहटाएंअकादमिक जगत की त्रासदी और प्रपंचों को।खोलती बढिया कहानी पर विमल का कन्फेशन ठीक है एक।समय के बाद आदमी अपने आप से निगाह नही मिला पाता, अस्सी के शुरुवात में अनिल सदगोपाल से लेकर विनोद रायना और सुनील जैसे मित्रों ने ग्रामीण इलाकों में आहूत काम किया इनमें से कुछेक ने साम्यवाद को ताकत बनाया अपना सोशल नेटवर्क मजबूत किगा और आज पूंजीपति है साथ ही जिस शिक्षा में नवाचार का काम किया आज उसी को विवि बनाकर बेच भी रहें है या प्रकाशन गृहों के अड्डे के रूप में विकसित हो गए है फील्ड खत्म बस प्रकाशनों का धंधा
बढिया कहानी
बहुत उम्दा कहानी। नरेश जी ने अकादमिक जगत की त्रासदी तथा ज्ञान के संस्थानों में होने वाली गन्दी राजनीती के एक पक्ष को बड़े शानदार ढंग से उजागर किया है। उच्च शिक्षण संस्थओं पर ढेर सारी कहानियों की जरूरत है। इन संस्थाओं में नित नये- नये विद्धवान खिलाडी पैदा होतें है और हाय-हाय कर नेताओं की तरह अपना ही पेट भरते रहते हैं। फ़िलहाल नरेश जी को बधाई तथा शुक्रिया दोनों।
जवाब देंहटाएंएक बार फिर नरेश जी के लेखन ने आस्चर्यचकित किया है। यह सही है कि कहानी तेजी से दौड़ती है-किसी नेरेशन की तरह। परन्तु पाठक से यह कहानी उसका साथ छोड़कर, कुछ ठहरकर अपने इर्द -गिर्द सोचने को मजबूर करती है। इसके बाद की यात्रा आसान हो जाती है।शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.