प्रोतिमा बेदी : उसने लास्य चुना और चुना प्रेम: रंजना मिश्र


लेख ‘अमूर्तन का आलाप’ में रंजना मिश्र ने यह रेखांकित किया था कि प्रोतिमा बेदी के जीवन में पंडित जसराज अमूल्य और दुर्लभ धरोहर थे. ख़ुद प्रोतिमा नृत्य की दुनिया में अभूतपूर्व और अन्यतम हैं यह इस आलेख को पढ़ते हुए जाना जा सकता है.  

फिल्मों से ओडिसी नृत्य की ओर लौटी प्रोतिमा बेदी का जीवन बड़ा है, लम्बा न सही. उनका जीवन स्त्री की असीम संभावनाओं का जैसे महाकाव्य हो. अंत भी उसी तरह ट्रैजिक. ऐसा लगता है कि मिथकों से निकलकर कोई अप्सरा इस दुनिया में आ गई थी. प्रोतिमा के शब्दों  में ‘मैंने अपने यौवन, यौनिकता और बुद्धिमत्ता का भरपूर, बिना झिझक प्रदर्शन किया. मैंने कई लोगों से प्रेम किया और कुछ लोगों ने मुझसे.’

रंजना मिश्र कवयित्री हैं. शास्त्रीय संगीत में गति रखती हैं. संवेदनशील ढंग से प्रोतिमा बेदी के जीवन को खोलती चलती हैं, तमाम प्रमादों के बीच उनके संघर्ष और सार्थकता को रेखांकित करती हैं. मेहनत और लगाव से इसे उन्होंने लिखा है.

आलेख आपके लिए प्रस्तुत है.    

 

 

प्रोतिमा बेदी
उसने लास्य चुना और चुना प्रेम                                       
 रंजना मिश्र


लाकार मानवता और सोच की परिधियों को हमेशा ही विस्तृत करते आए हैं. वे उस दुनिया के बाशिंदें हैं जो उनकी आत्मा में बसता है.  उसी दुनिया को ज़मीन पर उतार लाने की कोशिश उनकी कला और जीवन को अर्थ देती है. तमाम आलोचनाओं, उपहास और तिरस्कार के बावजूद वे ऐसा करते आए हैं और करते रहेंगे. विद्रोह और यथास्थिति से इनकार कला की पहली शर्त है, हर रचनात्मक व्यक्ति के व्यक्तित्व का एक बड़ा हिस्सा दृश्य या अदृश्य रूप से, जाने या अनजाने उसके सीमित दुनियावी अस्तित्व से निरंतर संघर्ष की स्थिति में रहता है, और यही संघर्ष उसके भीतर की कला को मांजता निखारता है . यही संघर्ष हर कलाकार अपने जीवन और कला में जीता है. 

१२ अक्टूबर १९४९ को हरियाणा में जन्मीं प्रतिमा बेदी या प्रतिमा गौरी हरियाणवी पिता और बंगाली माँ की दूसरी बेटी इस दृष्टि से उन विरले भारतीय कलाकारों और शास्त्रीय नृत्यांगनाओं में शुमार रखती हैं, जिन्हें ओड़िसी नृत्य ने और जिन्होंने ओडिसी नृत्य को हमेशा के लिए बदल दिया. उन्होंने अपने जीवन में कई मुखौटे पहने पर इन मुखौटों के भीतर जो असली चेहरा था वह सिर्फ और सिर्फ विद्रोही कलाकार का था जिसने हर सीमा को चुनौती दी, जिसने समाज के बनाए ढाँचे में समाने से इनकार किया, जिसने कई रूपों  में जीते हुए अपने भीतर के कलाकार को ही जिया और इसके कई अँधेरे विवादित पहलुओं को समाज के सामने खोलकर रख दिया. यह समाज का निर्णय है कि वह काले और सफ़ेद में ही कलाकार के जीवन और मन की जांच परख करे, उन धूसर कोनों और निरंतर चलने वाली हलचल  की ओर भी अपनी दृष्टि डाले, न कि उसपर फतवे जारी करे जिसकी प्रतिमा बेदी को न परवाह थी न उसपर ध्यान देने का समय क्योंकि जो छोटा सा जीवन वह लेकर आईं थी वह नृत्य के लिए था, लोगों और समाज की मान्यताओं पर खरा उतरने के लिए नहीं और वे निरंतर यही करती रहीं. 

केलुचरण महापात्र

ख्यातिप्राप्त ओडिसी नृत्य गुरु केलुचरण महापात्र कहाँ जानते थे मुंबई के भूलाभाई हॉल में उस रविवार की शाम छात्राओं का  नृत्य प्रदर्शन ख़त्म होते ही भीड़ को चीरकर लम्बी छरहरी अत्याधुनिक पाश्चात्य वेशभूषा और बालों को सुनहरे रंग से रंगे जो युवती नेपथ्य में उनके सामने खड़ी हुई है वह फैशन पत्रिकाओं की मॉडल, एक फ़िल्मी हस्ती की पत्नी और दो बच्चों की माँ है. जो अपनी आज़ाद निजी ज़िन्दगी और अनेकानेक प्रेम प्रसंगों के कारण अक्सर चर्चा में रहती है और जिसका नृत्य से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं. वह सिर्फ बारिश से बचने के लिए इस हाल में घुस आई है और मंच पर उसने जो देखा उसे देखकर स्तब्ध है. इस नृत्य के सम्मोहन और जादू से जिसका साबिका अपने जीवन पहली बार पड़ा है. उसने महसूस किया है वही मंच पर नृत्य कर रही थी, वही उस नृत्य में  मेनका थी,  अभी-अभी उसी ने विश्वामित्र की तपस्या भंग की.  जो अपनी उम्र और सफलता, सुख और ऐश्वर्य के इस पड़ाव पर जिंदगी के मायने ढूंढ रही है, जो बेहद कुंठित और लगभग अवसाद ग्रस्त है. अपनी उँगलियों में फंसी सिगरेट छुपाती वह हाथ जोड़े गुरु के सामने नतमस्तक है कि वे उसे शिष्य की तरह स्वीकार करें

उसे अभी ही अपने जीवन का ध्येय मिला है, पर गुरु जिसे पहली ही नज़र में ऊपर से नीचे देखकर नकार चुके है और मुसकुराते हुए कह रहे हैं


"मुझे माफ़ करो माँ, मुझे ओड़िसा वापस जाने की ट्रेन पकड़नी है.  नृत्य साधना बहुत मेहनत और समर्पण की मांग करती है, सबकुछ छोड़ना होता  है."

"मैं सबकुछ छोड़ सकती हूँ", प्रतिमा ने कहा.

उस दिन वे नहीं जानती थीं वे क्या कह रही हैं !

तौलती हुई नज़रों से उस युवती को देखकर गुरु ने फरमान जारी किया-

"तो अभी इसी ट्रेन से मेरे साथ ओड़िसा चलो".  

"पर मेरे दो छोटे बच्चे हैं, पति है, एक घर है, मुझे थोडा समय दीजिये ताकि मैं उन्हें अपने निर्णय के लिए तैयार कर पाऊँ."

“अभी तो तुमने कहा तुम सबकुछ छोड़ सकती हो, तो छोड़ दो !”

यहाँ संभावित शिष्य की पात्रता जांचता एक गुरु था जिसने २००० वर्ष प्राचीन ओडिसी नृत्य शैली को पुनर्जीवित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसने स्वयं नृत्य के लिए सबकुछ छोड़ा था,  नृत्य जिसके जीवन का ध्येय था और इसे भविष्य तक ले जाने वाले सही पात्र की तलाश में था.  

“अगर तुम अभी ही मेरे साथ चल सको तो मैं तुम्हें सिखाऊंगा. वरना भूल जाओ”

७० के दशक की मुंबई की चकाचौंध भरी फ़िल्म और फैशन मॉडलिंग की सबसे बिंदास, आज़ाद और खूबसूरत मॉडल प्रतिमा की उपस्थिति और यौवन को नगण्य मानकर इनकार का शायद यह पहला अवसर था. अपमान और गुस्से का घूँट पीकर वे गुरु के सामने लगभग आंसुओं में थीं. कौन है यह ग्रामीण खल्वाट धोतीधारी वृद्ध जिसे रूपगर्विता प्रतिमा के यौवन और सफलता ने रत्ती भर न छुआ, जिसे आस पास के सभी लोग बेहद आदर से संबोधित कर रहे हैं, जो ठीक से अंग्रेजी भी नहीं बोल सकता, जो ओडिया में अपनी छात्राओं को जल्दी सामान बाँधने का आदेश देता प्रतिमा की उपस्थिति तक से बेखबर हो गया !

बहुत इसरार करने पर साफ़ शब्दों में नकारे बिना गुरु ने कहा–

“तीन दिन और दो रातों में मैं अपने गाँव कटक पहुंचूंगा अगर तुम मुझसे पहले वहां पहुँच गई तो मैं तुम्हें नृत्य सिखाऊंगा. और हाँ, अपने बालों में नारियल तेल चुपड़ उन्हें बांधकर आना,  मैं ‘राक्षसियों’ को नृत्य नहीं सिखाता.” 

वे शायद प्रतिमा की आवाज़ की तरलता से द्रवित हो गए और उनकी आँखों ने प्रतिमा को पहचान लिया था. उन्हें आश्चर्य हुआ कि यह युवती जो उनके सामने खड़ी है उसने अपने जीवन में कभी नृत्य नहीं सीखा पर जिसकी देह में लय, पैरों में गति और देहयष्टि और आँखों में एक नर्तकी छुपी है.  जो अपने जीवन के उस सोपान पर है जहाँ से उसकी अद्भुत कला यात्रा शुरू होने वाली है, जिसे संसार और नृत्य की दुनिया अचंभित होकर देखेगी.

 

(दो)  

प्रतिमा बेदी जब २६ वर्ष की उम्र में पांच वर्ष से भी कम उम्र के दो बच्चों को छोड़कर ग्यारह सूती साड़ियों के साथ पहली बार गुरु केलुचरण महापात्र के पास इस शर्त पर ओडिसी सीखने को स्वीकृत हुईं कि तीन महीने में अगर वे अगर संतोषप्रद ओडिसी नहीं सीख सकीं तो उन्हें वापस जाना पड़ेगा तो वे अपने जीवन के मकसद की ओर सबसे ज़रूरी कदम उठा चुकी थीं. शास्त्रीय नृत्य सीखने की शुरुआत के लिए २६ की उम्र काफी से कुछ ज्यादा ही मानी जाती है. करीब-करीब हर कलाकार बेहद कम उम्र में नृत्य की शिक्षा शुरू कर देता है क्योंकि उम्र बढने के साथ शरीर का वह लचीलापन जिसकी नृत्य में ज़रूरत होती है कम होती जाती है. प्रतिमा शायद पहली नृत्यांगना हैं जिन्होंने इतनी देर से नृत्य सीखना शुरू किया.

पर शायद सिर्फ एक नृत्य प्रदर्शन, निजी जीवन की कुंठा और उनका विद्रोही स्वभाव ही नहीं था जिसने उन्हें गुरु केलुचरण महापात्र के सामने ला खड़ा किया था. इसके सूत्र कहीं गहरे उनके बचपन से जुड़ते थे. पांच वर्ष की उम्र में बच्चों के खेल में बाहें फैलाए उड़ने का अभिनय कर चट्टान पर औंधे मुंह गिरती वह सांवली और अकेलेपन का शिकार बच्ची क्या अनजाने ही नृत्य में मुक्ति का पूर्वाभ्यास कर रही थी?  क्या बाहें फैलाएं उड़ने की कल्पना और अभिनय में खुद को भूलकर नृत्य करने की अव्यक्त आकांक्षा थी जिससे वे अनजान थीं? यह एक कलाकार का जटिल मानस था, उसके जटिल पर कलात्मक जीवन की शुरुआत थी, जिसे आने वाले समय में अनेक विवादों में घिरना था, कई सीमाएं तोडनी थीं और नृत्य को नई ऊंचाइयों तक ले जाना था. क्या ही आश्चर्य कि वे सामान्य दुनियावी समझ से परे, प्रयोग धर्मी और  विवादास्पद रहीं.    

पिता के व्यापार में घाटे के कारण उन्हें  कुछ समय के लिए उस छोटे से पैतृक गाँव में भेज दिया गया जहाँ वे १० वर्ष की उम्र में वे परिवार में ही यौन शोषण का शिकार हुई और किसी को न बता पाने के कारण अपनी ही दुनिया में रहा करतीं. उन दिनों वे अक्सर किसी पेड़ पर चढ़कर बैठ जातीं और वहां लोगों से छिपकर गाँव के रोज़मर्रा का जीवन देखा करती. जुओं से भरा सर और पैर में घाव लिए वे गाँव की पाठशाला में भी अलग-थलग ही रहतीं, आखिर वह शहर में पैदा हुई एक लड़की थीं जिनके पिता उस दकियानूस माहौल और परिवार में एक काली बंगालन ब्याह लाए थे, जो गाँव और शहर के बीच कहीं अपनी जगह न ढूंढ पाती थीं. 

गाँव में ही बुआ का एक मंदिर था जिसमें लोग किसी विशेष दिन को कीर्तन  के लिए जमा होते और ढोल मंजीरे बजाकर कीर्तन किया करते. ऐसी ही किसी भीड़ में ‘हरे रामा, हरे कृष्णा’ और ढोल मंजीरे के संगीत के बीच भीड़ में बैठी एक औरत, संभवतः गाँव की कोई विधवा अचानक उठकर खड़ी हो गई और अपनी दोनों बाहें फैलाए गोल-गोल घूम सूफी दरवेशों की तरह नाचने लगी. उसकी बाहें फैली हुई थीं, आँखें बंद और उनसे लगातार आंसू बह रहे थे. वह तन्द्रावस्था की सी अवस्था थी. वह किसी और ही दुनिया में थी और प्रतिमा को भी अपने साथ उसी दुनिया में लिए जा रही थी. यह ज्ञात रूप से नृत्य के प्रति उनका पहला अलौकिक अनुभव था. 

पिता की आर्थिक स्थिति बेहतर होने पर उन्हें बोर्डिंग स्कूल भेजा गया पर यहाँ भी समवयस्क बच्चों से मेलजोल उनके लिए सहज नहीं था. नींद में बिस्तर भिगोने की आदत उन्हें लम्बे समय तक रही और इस आदत की सजा उन्हें अपने बिस्तर को धूप में सुखाने के लिए लम्बे गलियारे से होकर जाने के रूप में मिला करती. अपने कमरे से निकलकर गलियारे से होकर जाना उनके लिए मजाक और अपमान का सबब बनता. लडकियां उनपर हंसती और नन और वार्डन की कठोर ठंडी दृष्टि उस ठन्डे गलियारे में उनका पीछा करती. अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं –


“इस तरह मैं धीरे-धीरे अपमान और मज़ाक की अभ्यस्त होती गई. मेरी आगे की ज़िन्दगी में इस अभ्यास ने हरदम मेरा साथ दिया. मैंने लोगों द्वारा किये जाने वाले अपमान और उपहास की परवाह करनी बंद कर दी और वही करती जो मुझे सही लगता.”

बोर्डिंग से वापस आने के बाद कॉलेज का जीवन उन्होंने मुख्यतः मौज मस्ती और अराजकता में ही व्यतीत किया. पार्टियां, ड्रग, डिस्को और घरवालों से छिपकर मॉडलिंग की शुरुआत इसी समय हुई. इन्हीं दिनो कबीर बेदी उनकी ज़िन्दगी में प्रेमी की तरह आए और वे साथ रहने लगे. कबीर फिल्मों में आ चुके थे और पहले बच्चे का जन्म हो चुका था. पर अस्थिरता और अत्यधिक ऊर्जा, साथ ही कबीर का अधिकाधिक व्यस्त हो जाना प्रतिमा को अनेक प्रेम संबंधों की और ले गया. दूसरे बच्चे का जन्म प्रतिमा और कबीर के रिश्तों में अधिक दूरी बनकर आया क्योंकि दूसरा बच्चा संभवतः उनके फ्रेंच प्रेमी का था, जिसे वे अपनी आत्मकथा में स्वीकार करती हैं. ये वही दिन थे जब ओडिसी का उनके जीवन में प्रवेश हुआ.

कबीर अपनी व्यावसायिक सफलता और व्यक्तिगत जीवन के उस मुकाम पर थे जहाँ उनकी और परवीन बाबी की नजदीकियां प्रेस और फिल्मों की दुनिया में चर्चित हो चली थीं पर इसे फ़िल्मी दुनिया का हिस्सा मानकर प्रतिमा इससे कोई ख़ास प्रभावित न थीं. हाँ, वे ‘फिल्म स्टार की पत्नी’ के तमगे से भीतर ही भीतर ज़रूर क्षुब्ध थीं और इसका प्रतिकार अनेक प्रेम प्रसंगों में मुब्तिला रहकर किया करतीं. उन्हें चर्चा पसंद थी, वे सनसनीखेज होने में कोई बुराई न समझतीं और अराजक होने की सीमा तक अपनी ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठातीं. वह हिप्पी संस्कृति के प्रभाव का समय था और प्रतिमा, कबीर और उनके मित्र इस संस्कृति के पुरोधा.  उनके जीवन में एक समय में एक से अधिक पुरुषों की उपस्थिति भी शायद उनके जटिल विद्रोही स्वभाव का हिस्सा थी, ये वे अपनी आत्मकथा में खुद स्वीकारती हैं.   


इसके ठीक विपरीत, शास्त्रीय कलाएं और नृत्य  विशेष जीवन पद्धति और अनुशासन की मांग करते हैं. कला इस जीवन पद्धति में मुख्य और कलाकार गौण होता है. एक विशेष मानसिक शारीरिक और आध्यात्मिक जीवन और हर रोज़ के कठिन अभ्यास से गुज़रकर ही सिद्धहस्त कलाकार बनते  हैं. गुरु केलुचरण महापात्र के पास तीन महीने की नृत्य साधना ने प्रोतिमा को पूरी तरह बदलने की शुरुआत कर दी. देर रात तक चलने वाली पार्टियां अब स्वप्न थीं, अब सोने से पहले गुरु के पैर दबाने थे, सनसनीखेज चटपटी बातों के बदले अब तालों, मुद्राओं, अभिनय, धर्म, संगीत और मिथकों की समझ पैदा करनी थी, देह को साधना था और गाँव के उस परंपरागत गुरु शिष्य जीवनशैली का स्वीकार था जिससे विद्रोह का अर्थ बोरिया बिस्तर समेट मुंबई की उसी नकली दुनिया और जीवन में वापसी थी जहाँ उनके जीवन का कोई ध्येय नहीं था.   

तीन महीनों की कठिन साधना जिसमें गुरु के छोटे से ग्रामीण घर में अन्य छात्राओं के साथ जमीन पर चटाई में सोना, गुरु पत्नी की रसोई में भोजन पकाने में सहायता, कुएँ से पानी खींचना और रोज़मर्रा के घरेलू काम शामिल थे, के बाद जब प्रतिमा मुंबई वापस आई तो वे बदल चुकी थीं, उनकी प्राथमिकता नृत्य थी, उन्होंने विधार्थियों सी जीवन पद्धति अपना ली पर इस बीच पति कबीर बेदी की प्राथमिकता परवीन बाबी हो चुकी थीं और विवाह टूटन की कगार पर था.  दोनों बच्चे बेहद छोटे और नासमझ थे. प्रतिमा ने बिना शिकायत पति कबीर को आज़ाद कर दिया. कबीर घर छोड़कर चले गए और प्रतिमा अपनी नृत्य साधना और बच्चों के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गईं पर कुछ समय बाद कटक और मुंबई के बीच की यात्रा ने उन्हें बच्चों को भी बोर्डिंग स्कूल भेजने को मजबूर कर दिया.

प्रतिमा ने नृत्य चुना.  नृत्य ने उन्हें पति और बच्चों से दूर कर दिया.

 

(तीन)

मिथक कहते हैं जिस दिन पुरी में जगन्नाथ की प्रतिष्ठा हुई स्वर्ग से देव्,  गन्धर्व और अप्सराएं उतर आईं और जगन्नाथ के सम्मान और आनंद में जो नृत्य किया वह ओडिसी था.  मंदिर की देवदासियों ने वह नृत्य उनसे सीखा और जगन्नाथ की सेवा में नृत्य करने लगीं. वे हरिप्रिया, अप्सराएं ओडिसी की प्रथम नृत्यांगनाएं मानी जातीं हैं और मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण भित्तिचित्रों में वे देवदासियां आज भी छुपी बैठी हैं जिनके आधार पर और मदद से जयदेव ने १२ वीं शताब्दी में गीत गोविन्द की रचना की. कहते हैं, गीत गोविन्द के पदों को नृत्य में उतारने में मंदिर की इन देवदासियों ने महती भूमिका निभाई, हालांकि भरत के नाट्य शास्त्र में 'ओद्रा मागधी' शैली को इसकी उत्पत्ति का श्रोत माना जाता है. पुरी, कटक, भुबनेश्वर और कोणार्क के क्षेत्र ओडिसी का उद्गम माना जाता है. दूसरी शताब्दी की उदयगिरी और खण्डगिरी की पहाड़ियों में उत्कीर्ण भित्तिचित्र की मुद्राएं ओडिसी की ही मुद्राएं मानी जाती हैं.  

शास्त्रीय कलाएं अपने साथ लम्बा इतिहास लेकर चलती हैं. वे सभ्यताओं के उत्थान  पतन और मानव मन और प्रकृति के सम्बन्ध की साक्षी रही हैं। कलाओं में आने वाला पतन पूरे समाज के पतन की महागाथा है और ओडिसी भी इससे अछूती नहीं रही इसका भी पतन हुआ. पुरी के राजाओं की मुग़ल और मराठों से हार और राजनीतिक पराभव से ओडिसी का वैभव क्षीण हुआ.  देवदासियाँ मंदिरों के साथ ही राजा और पुजारियों की निजी संपत्ति बनीं, उनका शोषण हुआ और देवदासी प्रथा के उन्मूलन के बाद (जो संभवत: ओड़िसा में सबसे आखिर में हुआ) वे गरीबी और भुखमरी की कगार पर पहुंची. पर्दा प्रथा के प्रचलन के बाद छोटे लड़कों को (जिन्हें ‘गोटीपुआ’ कहते हैं)  नृत्य नाटिकाओं में स्त्री भूमिकाएं दी जाने लगीं. नृत्य अब सम्मानजनक पेशा नहीं रहा. निर्धन परिवारों के ‘गोटीपुआ’ दशहरे के दिनों में गानों के कार्यक्रमों में नृत्य के साथ ही सैनिकों और धनाढय लोगों के मनोरंजन का साधन बने और यह असंभव नहीं कि उनका देवदासियों की तरह दैहिक शोषण होता रहा होगा.

ओडिसी के अधिकतर गुरु बचपन में गोटिपुआ रहे या ‘गोटीपुआ’  परिवारों से आए पर देवदासियां जिन्हें ‘माहारी’ भी पुकारते थे धीरे-धीरे नृत्य से दूर होती गईं. समाज ने उन्हें ‘गुरु’ की तरह स्वीकार नहीं किया. लम्बे समय बाद अनेक कुरूपताओं और विडम्बनाओं के अपने में समेटे ओडिसी को १९५० के दशक में ओड़िसा के ओडिसी गुरुओं, थियेटर कलाकारों और बुद्धिजीवियों के मिले जुले प्रयास ने पुनर्जीवित किया और इसके मूल स्वरूप में कुछ परिवर्तनों के साथ, आठ भारतीय शास्त्रीय नृत्यों में शामिल किया गया,  जिसे संगीत नाटक अकादमी की स्वीकार्यता के बाद ओडिसा का सांस्कृतिक प्रतीक माना जाने लगा.   

ओडिसी का सुनहरा दौर अब वापस आने को था और इसके व्याकरण और इससे जुड़े पक्षों को पुराने गुरुओं, संस्थानों और राज्य सरकार के संरक्षण में शास्त्र का रूप दिया गया. इसके प्रदर्शन आयोजित किये जाने लगे, देश विदेश में इसके प्रदर्शन हुए और दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम में पहली बार ओडिसी की शिक्षा दी जाने लगी.

 


ओडिसी बेहद कठिन नृत्य शैली है.  अपनी मोहक, कमनीय शारीरिक भंगिमाओं और भक्ति भावमय लयात्मकता के लिए जाने वाले इस नृत्य में मंगलाचरण, स्थाई, पल्लवी, अभिनय और मोक्ष ये पांच भाग हैं जो पांच से पंद्रह मिनट के खण्डों में विभाजित होते हैं.  इस जटिल पर बेहद सुकोमल नृत्य शैली में प्राचीन मंदिरों की पाषाण प्रतिमाओं को मानक की तरह साधकर नृत्य में उतारना होता है जिसके दो पक्ष होते हैं, एक स्त्री भंगिमा दूसरी पुरुष भंगिमा. स्त्री भंगिमा में तीन स्थानों-गले, कमर और घुटनों के कोण का विपरीत दिशा में भंग, शरीर के हर मोड़ का त्रिकोण, इसे ‘त्रिभंगी’ कहते हैं. इस भंगिमा में शरीर का भार अधिकतर एक पैर पर होने के साथ ही पैरों की मंथर गति और भाव प्रवण अभिनय एक साथ साधना नि:संदेह कठिन और एकाग्र अभ्यास और समर्पण की मांग करता है. इसी तरह पुरुष भंगिमा की अपनी मुद्राएं हैं यथा कंधे की सीध में बाहें कुहनी से तथा घुटने के मुड़े हुए कोण जैसे भगवान् जगन्नाथ की प्रतिमाओं में नज़र आती है. इसे ‘चौक’ कहते हैं. पंकज चरण दास (जिन्हें ओडिसी का आदि गुरु मानते हैं),  रीता  देवी, रत्ना रॉय, प्रियम्बदा देवी, गुरु केलुचरण महापात्र, संजुक्ता पाणिग्रही सरीखे लोगों ने ओडिसी को वह स्वरुप प्रदान किया जिसे हम आज देखते हैं. पर इन सभी कलाकारों में गुरु केलुचरण महापात्र शायद ऐसे गुरु थे जिन्होंने गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह करते हुए कई नामचीन कलाकारों को संवारा निखारा. 

शुरूआती दिनों में प्रतिमा अक्सर अल्लसुबह लोगों के आने से पहले समुद्र के किनारे रेत पर नृत्य का अभ्यास किया करतीं क्योंकि घर पर नींद में खोए दो छोटे बच्चे और नीचे रहने वाले पडोसी असरानी थे जो प्रतिमा के घुंघरुओं की आवाज़ से परेशान अक्सर अपनी पत्नी के सरदर्द की शिकायत लेकर उनके घर नाराज़ होकर आ पहुँचते. खब्ती प्रतिमा का नया शौक न पड़ोसियों के गले उतरता न उनके मित्रों के, जो कबीर की अनुपस्थिति में प्रतिमा के मित्र न रहे थे. रेत पर नृत्य अभ्यास ने प्रतिमा के पैरों में वह लय, लोच और त्वरा दी जिसके लिए वे बाद के वर्षों में जानी जाती रहीं. इन तीन वर्षों में प्रतिमा निजी जीवन में बिलकुल एकाकी हो गई थीं. कटक और मुंबई के बीच की यात्रा, नृत्य अभ्यास, बच्चे, संयमित जीवन और अकेलापन ही उनके साथी थे. पर संगीत और नृत्य की दुनिया ने बाहें फैलाए उनका स्वागत किया. गिरिजा देवी उनकी नजदीकी मित्र थीं, हरिप्रसाद चौरसिया, पंडित जसराज, बिरजू महाराज, पंडित शिवकुमार शर्मा  जैसे कलाकारों की मंडली की वे सम्मानित सदस्य थीं और पंडित जसराज के प्रेम ने उन्हें भीतर से बदलना शुरू कर दिया था.

यह उनके लिए बेहद कठिन साधना और पीड़ा का दौर था जिसमें अपने बच्चों की परवरिश के सिवा (कबीर से मिलने वाले पैसे नाकाफी थे पर उन्हें और पैसों की मांग अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगती थी) उन्हें अपने वादक कलाकारों का भुगतान, नृत्य की महँगी वेशभूषा और मेकअप की खरीद और रखरखाव में काफी खर्च करना पड़ता और उनके पुराने जीवन के कारण आलोचकों की राय उनके बारे कोई ख़ास अच्छी न थी. पर अपने पहले सार्वजनिक प्रदर्शन के बाद (जिसके लिए उन्हें महज ७०० रूपये मिले थे) ही आलोचकों ने उन्हें गंभीरता से लेना शुरू कर दिया हालांकि दक्षिण के आलोचक अब भी उनकी छवि को लेकर पूर्वाग्रह ग्रसित थे.  मशहूर भरतनाट्यम और ओडिसी नृत्यांगना सोनल मानसिंह भी अपनी विवादित जीवन शैली के कारण दक्षिण के पंडितों की आलोचना का शिकार यदा कदा होती रहती थीं. यह शास्त्रीय कलाओं की पारंपरिक पितृसत्तात्मक दुनिया थी जहाँ कलाकार के व्यक्तिगत जीवन की तथाकथित शुचिता भी उतनी ही आवश्यक मानी जाती है जितना कला के प्रति उसका समर्पण और इसमें कोई दो राय नहीं की यह दुनिया स्त्री कलाकारों के लिए और संकीर्ण  हो जाती है.

यह दुनिया देवताओं के पैरों के करीब बैठाई गई उन स्त्रियों की दुनिया थी जिन्हें कला ने पतित किया था. ये पदच्युत देवियाँ थीं, अप्सराएं– कला से प्रेम का शाप जीतीं और इंसानी प्रेम के कारण इंद्र के दरबार से निष्कासित...पर इसी दुनिया के एक सिरे पर थे गुरु केलुचरण महापात्र जिन्होंने प्रतिमा में नृत्य की समझ विकसित की, जिनके सानिध्य ने प्रतिमा के विद्रोही तेवर को मुलायम किया, दिशाहीन ऊर्जा को दिशा दी और नृत्य के प्रति समर्पण सिखाया. गुरु केलुचरण महापात्र अभिनय और लास्य के अप्रतिम गुरु माने जाते थे.  गुरु को याद करते हुए अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं –

“मुझे याद है एक बार वे गीत गोविन्द के किसी पद की नृत्य रचना में लीन थे. उस १० x १० के छोटे से कमरे में एक छोटा लकड़ी का दीवान जिसपर पूरे घर के बिस्तर रखे थे, दीवार से लगी एक अलगनी थी जिसपर घर भर के कपडे लदे थे, जिसपर घर का कोई व्यक्ति और कुछ कपडे रखने आया और चला गया,  दो छोटे बच्चे आँगन से चीखते हुए कमरे में आए और दौड़ते हुए बाहर निकल गए,  बगल के कमरे में चीखता टेलीफोन था जो लगातार बज रहा था. मैं चार अन्य लड़कियों के साथ किसी तरह एक छोटे से टेबल पर टिककर खडी पुराने टेप रेकार्डर पर बजते गीत के साथ उन्हें नृत्य के भाव में लीन देख रही थी. आस पास की दुनिया से वे जैसे कटे हुए थे, वह उनके लिए अस्तित्व हीन थी, वे राधा थे और कृष्ण के प्रेम में उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे, ये विशुद्ध रचनात्मकता के क्षण थे. वह दृश्य मुझे कभी नहीं भूलता”  

ऐसे ही अनेक घंटों दिनों महीनों और सालों ने प्रतिमा के भीतर छिपे कलाकार को संवारा और वे तीन बरसों में ही देश की सबसे उत्कृष्ट ओडिसी नृत्यांगनाओं में गिनी जाने लगीं. अगले करीब १० वर्ष उनकी व्यावसायिक और कलात्मक सफलता की ऊंचाइयों के दिन थे, वे अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि पा चुकी थीं और ओडिसी और प्रोतिमा बेदी एक दुसरे का पर्याय बन चुके थे. इन दिनों ने नृत्य का हर आमंत्रण स्वीकार करतीं, पूरे देश घूमती रहीं. इन्हीं दिनों पहली बार उन्होंने १२ छात्राओं के साथ उन्होंने पृथ्वी थियेटर में अपना नृत्य स्कूल खोला. यह मुंबई में ओडिसी नृत्य का पहला स्कूल था. यह समय उनके लिए अनगिनत प्रेम प्रसंगों का भी था. कला और राजनीति के कई कद्दावर व्यक्तित्व उनके प्रेम में रहे और वे भी प्रेम तलाशती रहीं जो शायद उन्हें टुकड़ों में मिला. एक समय ऐसा भी था जब वे समर्पित पत्नी होना चाहती थीं पर वे जानती थीं एकनिष्ठता उनका स्वभाव नहीं, अप्सराएं एकनिष्ठ नहीं होती, प्रतिमा तो वैसे भी नृत्य को समर्पित हो चुकी थीं.

मेरे बचपन की धुंधली स्मृतियों में बेहद सुन्दर स्मृति प्रतिमा के नृत्य की भी है.  शहर में दुर्गापूजा के दस दिनों में शास्त्रीय संगीत और नृत्य के कार्यक्रम हुआ करते जो पूरी रात चला करते. सात आठ  बरस की उम्र में उन समारोहों का आकर्षण पहले वहां मिलने वाले वेजिटबल कटलेट की वजह से बना पर जल्द ही समझ आया मंच पर कुछ जादू सा होता है जो समझ तो नहीं आता पर कई दिनों तक याद रह जाता है.

इसी तरह के किसी समारोह में जब मुझे अंतराल के बाद मुझे सोते से जगाया गया तो मंच पर कई रंगों की रौशनी थी और एक उद्दात सी आवाज़ कुछ गाना शुरू कर रही थी जिसके बोल संस्कृत में थे (बाद में जाना वे गीत गोविन्द के पद थे). थोड़े समय बाद मंच पर बेहद लम्बी, सुगढ़, सुन्दर कोई आकृति नज़र आई जो सीधे माइक तक चली आई और बेहद परिष्कृत अंग्रेजी में दशावतार के अलग-अलग अवतारों से जुड़े नृत्य मुद्राओं के बारे बताने लगीं. (यह प्रयोग प्रतिमा बेदी ने ही पहली बार शुरू किया था जो काफी सफल रहा. अब अधिकतर ओडिसी कलाकार नृत्य से पहले नृत्य के विषय में बताते हैं) पार्श्व का संगीत धीमा था, रौशनी प्रोतिमा पर केंद्रित थी, हॉल में सन्नाटा था, और वे गूंजती हुई सी आवाज़ में कुछ कह रही थीं. 

पहली बार मैंने सौन्दर्य का आतंकित करने वाला वह रूप देखा जो उनके व्यक्तित्व के हर पहलू से झर रहा था. बाद में मैंने जाना उन वर्षों में वे अपनी ज़िन्दगी के सबसे कठिन आर्थिक, भावात्मक और मानसिक दौर से गुज़र रही थीं. पर यही वर्ष थे जो उन्हें प्रसिद्धि और गौरव के शिखर तक लिए जा रहे थे जहाँ पहुंचकर उन्हें ओडिसी नृत्य की दुनिया को बहुत कुछ देना था और अचानक एक दिन कपूर के धुंए की तरह बादलों में छिपकर प्रकृति से एकाकार हो जाना था, अपना कोई भी चिन्ह पीछे छोड़े बिना.

 

(चार)

क्या कलाओं की साधना में कलाकार के निजी जीवन की पीड़ा का भी उतना ही योगदान नहीं रहता जितना कला की साधना का ? क्या कलाओं के माध्यम से कलाकार अपना और अपने दर्शकों श्रोताओं का हाथ थामकर उन्हें संकुचित दुनियावी सुख दुःख की परिभाषा से परे एक प्रति संसार में नहीं ले जाते? एक नई दृष्टि से जीवन को देखने की तमीज कौन दे सकता है भला !

प्रतिमा सफल नृत्यांगना बन चुकी थीं और नृत्य ने उन्हें वह ऊंचाई दी थी जहाँ वे अपनी आगे की ज़िन्दगी अपनी सफलता और प्रसिद्धि के शिखर पर रहते हुए गुज़ार सकती थीं पर उन्हें और बहुत कुछ चाहिए था पर सिर्फ खुद के लिए नहीं. अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं-

“मुझे नृत्य सीखने के दिनों में ही यह अनुभव हो गया था कि नृत्य सीखना और उसे प्रोफेशन की  तरह अपनाना कितना कठिन है. मेरे पास साधन थे तो मैं यह कर पाई पर ऐसे कई छात्र होंगे जो साधनों के अभाव में यह नहीं कर सकते और कितनी प्रतिभाएं असमय नृत्य से दूर चली जाती हैं. क्या ही अच्छा हो अगर उन्हें साधनों का अभाव न हो और वे निश्चिंत होकर सिर्फ नृत्य साधना में ध्यान लगा सकें. नृत्य को ही अपने जीवन का ध्येय बना सकें.”

स्वप्नदर्शी प्रोतिमा नृत्य के प्रति अपने दाय से पूरी तरह अवगत थीं और ओडिसी के प्रसार को लेकर गंभीर.   

इसी दाय और स्वप्न को उन्होंने नृत्यग्राम का रूप दिया जो शास्त्रीय नृत्य में गुरु शिष्य परंपरा और आधुनिकता का अनूठा और सफल प्रयोग है. आज नृत्यग्राम शास्त्रीय नृत्य के सबसे महत्वपूर्ण संस्थानों में से एक है. पर इसकी शुरुआत बेहद कठिन और दिलचस्प है. 

१९८२ के बाद का दौर प्रतिमा के लिए बेहद अकेलेपन उदासी और इसके स्वीकार का था. मशहूर राजनीतिक व्यक्तित्व और देश के चोटी के अधिवक्ता रजनी पटेल जो उनके प्रेम में थेकी कैंसर से मृत्यु हो चुकी थी, पंडित जसराज पहले ही दूर थे. तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री वसंत साठे के साथ उनकी अंतरंगता को कोई आधार नहीं मिल सका और कमोबेश अवसाद की सी अवस्था में वे नृत्य के प्रति भी उदासीन हो चली थीं. कबीर बेदी के जाने के बाद के लम्बे समय तक अकेले किया गया संघर्ष, टुकड़ों और प्रेमियों की सुविधानुसार मिला प्रेम उनपर हावी हो रहा था. इन सभी रिश्तों में अपनी स्वार्थपरता और अस्थिरता भी वे जानने लगीं थीं. वे समझने लगीं थीं कि मानवीय प्रेम की सीमाएं हैं और सिर्फ प्रेम की तलाश जीवन को कोई ऊंचा अर्थ नहीं दे सकती. यह उनके लिए आत्म परीक्षण का समय था, अब वे स्थिर होना चाहती थीं. 

यह कुछ रचने, सृजन करने के पहले की विश्रांति थी जो उन्हें पहले बेचैन और फिर स्थिर कर रही थी क्योंकि आगे आने वाले वर्ष उनके सबसे कठिन, हलचल से भरे पर संतुष्टि वाले वर्ष सिद्ध होने वाले थे. यह प्रेम का व्यक्तिगत सीमाओं से परे हो जाने का समय था. यह प्रोतिमा बेदी के प्रोतिमा गौरी और फिर गौरी अम्मा हो जाने की आहट थी. इन दिनों की मानसिक स्थिति के बारे वे अपनी आत्मकथा में लिखती हैं-

"ज़िन्दगी हमारे लालच का मज़ाक उडाती है. दस्तरख्वान सजा है और हर कोई आमंत्रित है. आप अपना मनपसंद भोजन चुनने को स्वतंत्र हैं, चाहे आप खीरे का एक छोटा टुकड़ा लें या पूरी प्लेट भर लें – कीमत एक ही है – आपका जीवन. ईश्वर सौ हाथों से देता है पर आपके दो ही हाथ हैं, आप कितना हासिल कर सकते हैं ? यह हमारे ऊपर निर्भर करता है. मेरी दृष्टि बदल रही थी. मैंने जीवन का दस्तरखान अपने सामने बिछा देखा और अपना लालच भी.  वह लालच जो दृष्टि धुंधली कर देता है तिरोहित होने लगा है. मैं सिर्फ उतना ही लूंगी जितना मेरे जीवित रहने के लिए ज़रूरी है. मुझे प्रसिद्धि नहीं चाहिए, सफलता, चकाचौंध और ऐश्वर्य के बिना मैं रह सकती हूँ. मैं सिर्फ वही लूंगी जो मुझे अर्थ देता है. मुझे थोड़ी ज़मीन चाहिए जहाँ मैं अपना अन्न खुद उगा सकूं और उसके करीब रह सकूं, जहाँ से सब आते हैं – धरती".  

यह किताबों से उपजा अध्यात्म नहीं था यह ज़िन्दगी की ठोस सच्चाइयों से रूबरू हो उसकी कडवी सच्चाइयों का मुकाबला करते बिना कडवाहट अपने अस्तित्व की तलाश की अनवरत यात्रा से उपजा ज्ञान था. यह जीवन में रहकर, जीवन में डूबकर, जीवन से निःसंग होकर जीने की स्पष्टता थी.     

इसी समय से नृत्यग्राम का सपना भी वे मन में पाल रही थीं. उनके मन में स्पष्ट कल्पना थी कि नृत्यग्राम में विद्यार्थियों का जीवन कैसा होगा. विद्यार्थी सुबह दो घंटे खेतों में काम करेंगे, दोपहर के भोजन तक नृत्य साधना, शाम को तीन घंटे के अभ्यास के बाद रात का भोजन बनाना फिर तीन घंटे का नृत्य अभ्यास. शाम को खेतों में एक घंटे का काम और रात का भोजन और नृत्य सिद्धांत, मिथक, नृत्य-इतिहास, धर्म, दर्शन  और संगीत की कक्षा तथा सोने के पहले ध्यान. 

 

नृत्यग्राम को स्वावलम्बी होने के लिए खेतीपशुपालन और सब्जियों की खेती भी करनी थी और ये सब नृत्यग्राम के विद्यार्थी ही करेंगे.  अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं  

"इसी सपने का खाका अपने मन में लिए १९८९ के एक दिन मैंने अपना सूटकेस, अपना सफ़ेद संगमरमर का नंदी बैल (जो मुझे उदयपुर के महाराज ने भेंट में दिया था) और लाख रूपये का चेक लेकर अपनी लाल मारुती से बम्बई से हैसरघट्टा के लिए रवाना हो गई " 


१९८७ में ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े ने उन्हें नृत्यग्राम के लिए १० एकड़ ज़मीन देने का वादा किया था जो बंगलौर से करीब २५-३० किलोमीटर की दूरी पर था.  थोड़ी ऊंचाई पर इस जगह के करीब ही एक झील थी जो बारिश के पानी से भर जातीआस पास छोटे गाँव थे. पर साल के बाकी दिनों में यह जगह सूखी  झाड़ियों  और सांप बिच्छुओं से भरी रहती. ऐसी उजाड़ जगह अपने सपने और कुछ कपड़ों के साथ पहुंचकर यह सोचना कि शुरुआत कहाँ से की जाए, बेहद मजबूत इरादों वाले लोग ही करते है. 

 

ऐसी कोई मुश्किल थी जो उनके सामने आई. शुरुआत उन्होंने उस जगह अपना टेंट गाड़ने और रोज़मर्रा की ज़रूरत के बर्तन, एक गद्दा और सोने के लिए चारपाई खरीदने से की. गैस कनेक्शन नहीं मिला जिसके बिना खाना बनना मुश्किल था.  पड़ोस के गाँव के एक किसान ने पानी लाकर देना शुरू किया और साँपों से बचने के लिए टेंट के चारों और गड्ढे खोदे गए. गैस कनेक्शन के लिए अर्जी देने, लोगों के सामने गिड़गिड़ाने, धमकाने और नाज नखरे दिखाने के बाद भी जब १२ दिनों तक गैस कनेक्शन नहीं मिला तो उन्होंने पूर्व मुख्यमंत्री के बंगले पर सुबह का नाश्ता करने की ज़िद की और कहना होगा कि गैस कनेक्शन उन्हें अगले ही दिन मिल गया.

 

इन्हीं दिनों जब वे पास के गाँव से गुज़र रही थीं तो गाँव के कुछ लड़कों ने उन्हें देखकर 'डिस्को डांस', 'ब्रेक डांस' की आवाज़ें कसनी शुरू कीं. वे अपनी गाडी से उतर उनके पास चली गईं और पूछा-  ‘तुमने भरतनाट्यम का नाम सुना है ? उनमें से एक ने किसी कन्नड़ फिल्म में भरतनाट्यम देखा था और कमल हासन के नाम से भी परिचित था पर उन्होंने यामिनी कृष्णमुर्ती या बिरजू महाराज का नाम नहीं सुना था. स्पष्ट था हमारे देश में कलाएं गाँवों से दूर जा चुकी हैं. उन्होंने गाँव के बीचोबीच ओडिसी नृत्य का कार्यक्रम रखा और मशहूर फिल्म और थियटर अभिनेता शंकर नाग को न्योता भेजा. 

 

शंकर नाग आए और उन्होंने उस दिन गाँव के लोगों से बातें कर उन्हें प्रोतिमा और नृत्यग्राम के विषय में बताया. समारोह का अंत प्रोतिमा के नृत्य से हुआ. दो घंटे के इस नृत्य में पूरा गाँव स्तब्ध था. नृत्यग्राम के प्रति गाँव के लोगों में उत्सुकता और विश्वास जाग चुका था. इसी कार्यक्रम में फरवरी के महीने से नए विद्यार्थियों को लेने की घोषणा की गई. तीन फरवरी की सुबह तक ओडिसी गुरुकुल का फर्श पूरी तरह बनकर तैयार भी नहीं हुआ था और ४०० अभिभावकों के साथ ६०० बच्चे बाहर कतार में खड़े थे. 

 

यह एक स्वप्न के फलीभूत होने की ओर पहला कदम था, यह नृत्यग्राम के विद्यार्थियों का पहला समूह था जिसमें अधिकतर गाँव के बच्चे थे, वे अंग्रेजी या हिंदी नहीं जानते थे उनके माता पिता गरीब किसान और मज़दूर थे, वे ही गुरुकुल के पहले विद्यार्थी थे.

 

(नृत्यग्राम)

नृत्यग्राम का निर्माण एक बेहतरीन सपने की शुरुआत थी और यह सपना सिर्फ नृत्य और प्रोतिमा से सम्बंधित नहीं था. मशहूर वास्तुशिल्पी गेरार्ड ड’कुना ने पूरी संस्था को वास्तुशिल्प का एक अनूठा उदाहरण बनाया जिसमें सीमेंट और लोहे की जगह लकड़ी, मिटटी और बांस के ढाँचे बनाए गए, वास्तुशिल्प की मदद से गुरुकुल का वातावरण तैयार किया गया. यह एक प्रतिसंसार था जहाँ नृत्य की देवी का वास था. गेरार्ड ड’कुना उन दिनों स्वयं निजी जीवन में अपनी पत्नी (उन दिनों) लेखिका अरुंधती राय से अलग हुए थे. उन्होंने अपना पूरा समय और ऊर्जा नृत्यग्राम को दी. नृत्यग्राम इस तरह दो प्रतिभाओं की प्रतिभा और लगन का सुन्दर संगम है. यहाँ तक तो ठीक था पर नृत्य ग्राम को आर्थिक स्वावलंबन की ज़रुरत थी और प्रतिमा अपने निजी साधनों से जितना पैसा लगा सकती थीं, लगा चुकी थीं. उन्हें नृत्य का अनुभव था पर संस्था को स्वावलंबी बनाना और धन की कमी से लगातार जूझना टेढ़ी खीर थी. अपनी आत्मकथा में वे कहती हैं –

 

“लोग मेरी वाइन पर २०००/- खर्च करने को तैयार हो जाते पर वे संस्था के लिए धेला भर भी खर्च न करना चाहते”.

स्थानीय कलाकारों द्वारा विरोध, राज्य सरकार की उदासीनता, नए गुरुओं और छात्रों में होने वाले मनमुटाव और सबसे बड़ी विडम्बना गुरु केलुचरण महापात्र का अपने पुत्र मोह से हार जाना बड़ी समस्याएँ थी जिनसे वे रोज़ गुज़रतीं.  

 

गुरु केलुचरण महापात्र ने नृत्य ग्राम में ओडिसी गुरुकुल में महीने में कुछ समय बिताने का निर्णय किया था. अन्य गुरु कुलों यथा मोहिनीअट्टम, कत्थक और भरतनाट्यम के गुरु अपने गुरुकुलों की ज़िम्मेदारी ले रहे थे पर गुरु केलुचरण अपने स्थान पर अपने पुत्र को ओडिसी गुरुकुल का गुरु नियुक्त करना चाहते थे जो प्रोतिमा को गवारा नहीं था. गुरुओं की भी अपनी सीमाएं होती हैं. आधुनिक समय में यह चाहना कि कोई शिक्षित और आधुनिक व्यक्ति सिर्फ भक्ति के आधार पर समर्पण कर गुरुओं को सर्वेसर्वा मान ले,  कई छात्रों के गले नहीं उतरता था. यह परंपरा और आधुनिकता की टकराहट के साथ गुरु केलुचरण महापात्र के निजी स्वार्थों और असुरक्षा का समय भी था. इसका अंत गुरु केलुचरण महापात्र और प्रतिमा के संबंधों में खटास के साथ हुआ. गुरु के पुत्र को भारी मन से नृत्य ग्राम से विदा करना पड़ा. प्रोतिमा, जो अपने गुरु की ‘हनुमान‘ थीं उनके आँख की किरकिरी बन गईं. इस पूरी घटना ने उन्हें गुरु शिष्य परंपरा पर नए सिरे से विचार करने  पर मजबूर कर दिया और नृत्य ग्राम में कई बदलाव किये गए. यह निश्चित हुआ कि एक ही गुरु नृत्य से जुड़े हर विषय की शिक्षा नहीं देंगे वरन नृत्य के अलग-अलग पक्षों की शिक्षा उस पक्ष के विशेषज्ञ गुरु देंगे. यह कमोबेश यूनिवर्सिटी की शिक्षा प्रणाली जैसा था. आज नृत्य ग्राम इस पद्धति से कार्यरत है.

  

नृत्यग्राम ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. छात्रों ने देश और विदेशों में कई बेहतरीन शो प्रतिमा के साथ किये. गुरु केलुचरण महापात्र के बहिष्कार के बाद ओड़िसी नृत्य से जुड़े कई नामचीन लोग प्रोतिमा से दूरी बना चुके थे वे इन सफलताओं के बाद थोडा नरम हुए और नृत्य ग्राम के एक हिस्से ‘कुटीरम’ को ITC समूह के पांच सितारा होटल ने मान्यता दे दी. इससे आर्थिक समस्या एक हद तक सुलझ गई. कई अन्य कॉर्पोरेट समूहों नें अलग अलग नृत्य गुरुकुलों को आर्थिक मदद देनी शुरू की.

 

प्रोतिमा बेदी ने अपना नाम बदल प्रोतिमा गौरी कर लिया, गाँव के लोगों के लिए वे गौरी अम्मा हो गईं.

 

 

(पाँच)

जीवन विडम्बनाओं के बिना शायद पूर्ण नहीं होता या कुछ लोग अनवरत यात्रा में रहने को बने होते हैं. यह यात्रा सुख से दुःख और दुःख से सुख की होती है. गुरुकुल और आस पास के गाँवों की गौरी अम्मा ने अपना और कबीर का पुत्र सिद्धार्थ इन्हीं दिनों खोया जो कबीर के पास लॉस एंजेल्स में कंप्यूटर की पढ़ाई के दौरान स्किजोफ्रेनिया का शिकार हो गए. अत्यंत अवसाद और अकेलेपन ने सिद्धार्थ को आत्महत्या की ओर धकेल दिया. प्रोतिमा इससे कभी बाहर नहीं आईं. सिद्धार्थ की अनुपस्थिति और मृत्यु को इतने करीब से अनुभव करना सहज न था. वे एक हद तक इसके लिए खुद को भी दोषी मानने लगी थीं. नृत्य से जुड़ाव, प्रेम और रिश्तों ने उन्हें कई घाव दिए थे पर उनमें सिद्धार्थ की अनुपस्थिति का घाव सबसे गहरा था. कुछ समय पहले ही उन्होंने संन्यास लिया था. अब वे अक्सर अकेले ही तीर्थ को निकल जाया करतीं. वे अब नृत्य ग्राम के लिए भी कोई उत्तराधिकारी चाहती थीं जो नृत्य ग्राम का सपना साझा करे जो उतनी ही शिद्दत से नृत्य को अपना जीवन देने को तैयार हो और यह तलाश उन्हें अपनी दो छात्राओं सुरूपा सेन और बिजयिनी सत्पथी में पूरी होती नज़र आई. ये दोनों नृत्य ग्राम के पहले समूह की छात्राएं थीं. आर्थिक स्वावलंबन के लिए ‘कुटीरम’ को आधार बनाया जा चुका था और ट्रस्ट की स्थापना भी हो गई थी. अब वे कमोबेश मुक्त थीं.

 

कोई बेचैनी, कोई पुकार थी जिसका जवाब उन्हें देना था. कोई बुलाता था उन्हें और वह संसार नहीं था, न ही नृत्य, वे उनके प्रेमी भी नहीं थे न छात्र, वह एक भरे पूरे समृद्ध जीवन को पुकारने वाली मृत्यु थी जिसका संधान उन्हें करना था, जिसकी खोज अभी शेष थी.  वे कहती थीं –

 

“जन्म आरम्भ नहीं है, न ही मृत्यु अंत है. मृत्यु से भय जीवन का अस्वीकार है”

 

वे जानती थीं इस अंतिम खोज के लिए उन्हें सारे बंधनों से दूर जाना होगा और उन्होंने जैसे पूरी तैयारी के साथ ऐसा किया. उनकी बेटी पूजा कहती हैं-

 

“जिस तरह वह सबकुछ कर रही थीं, वे जैसे जानती थीं उन्हें जाना है, इस बार उन्होंने हिमालय की यात्रा से न लौटने का मन बना लिया था. उन्होंने अपनी वसीयत बनाई, अपने सारे गहने मुझे दे दिए, सारे निवेशों और जीवन बीमा पालिसी की जानकारी दी. मेरी बेटी आलिया को दुलराते उसके साथ खेलते घंटे भर का समय बिताया और फिर लिफ्ट के बंद होने की आवाज़ के साथ वे चली गईं. उस दिन मैंने उन्हें अंतिम बार देखा. यह बेहद स्पष्ट था. वे बेहद अध्यात्मिक और शाकाहारी हो गईं थीं. क्या उन्हें कोई पूर्वाभास था ? वे हेमकुंड साहिब, गंगोत्री, ऋषिकेश, और लद्दाख के बाद कैलाश मानसरोवर की ओर चली गईं. इन दिनों उन्होंने उन सभी लोगों को पत्र लिखे जिनकी उन्हें परवाह थीं, यहाँ तक की आठ महीने की आलिया को भी और इन सभी पत्रों में अंतिम विदा के संकेत थे. मुझे लिखे अपने लम्बे पत्र में उन्होंने अपने जीवन का सार लिखा. अपने बचपन और किशोरावस्था, अपनी असुरक्षाओं और ख़ुशी की बाबत, कैसे उन्होंने ये सब कुछ स्वीकार किया. उन्होंने हरीश के बारे भी लिखा कि वे उनके साथ कितनी खुश हैं और कैसे वे दोबारा अपना बचपन जी रहीं हैं. हरीश उनका बच्चों की तरह ख़याल रखते हैं. (हरीश फतनानी उनके साथ यात्रा कर रहे थे और ज्ञात रूप से उनके अंतिम प्रेमी रहे). मैं निश्चित रूप से स्वर्ग में हूँ. कुल्लू का मतलब है ‘देवों की घाटी’, सारे देवों को मेरी कृतज्ञता ज्ञापित हो.”

 

१७ अगस्त १९९८ की रातकैलाश मानसरोवर के रास्ते उनका समूह मालपा में ठहरा और उसी रात बादलों के फटने से उनकी मृत्यु हुई, ऐसा मानते हैं. प्रोतिमा की उम्र इस समय ४९ बरस थी.

 

उनका शरीर नहीं मिला सिर्फ पीछे रह गया कुछ सामान था, अंतिम यात्रा के लिए अनावश्यक और बेकार.

 

यह एक सुन्दर जीवन का तथाकथित अंत था जिसमें साहस था, प्रयोग थे, प्रेम था, संघर्ष, अकेलापन, जिम्मेदारियां, यायावरी और अंत में कृतज्ञता थी. यह सरल से जटिल और फिर सरल हो गए जीवन की गाथा थी जिसे भरपूर जिया गया था, अपने होने में पूर्ण और सार्थक. लम्बे समय बाद मैंने जाना बचपन में सौन्दर्य के जिस रूप ने मुझे आतंकित किया, मुझपर जादू चलाया था वह बाहरी नहीं आंतरिक था जिसकी दमक दिनों दिन बढती गई.


 



 कहते हैं हम सब अपने जन्म से पहले जानते हैं जिस दुनिया में हम जन्म ले रहे हैं वहां हमारे जन्म लेने का उद्देश्य क्या है पर जन्म लेने की हलचल और नई दुनिया के नए रंग हमें इतना उलझा देते हैं कि हम जल्द ही भूल जाते हैं हम यहाँ क्यों आए थे और अपनी पूरी ज़िन्दगी उस उद्देश्य को ढूँढने में बिता देते हैं. पर कई ऐसे भी होते हैं जिन्हें जल्द ही पता चल जाता है उनका जन्म क्यों हुआ है और वे उसी कारण, उसी लक्ष्य को अपने जीने का मकसद बना लेते हैं. प्रोतिमा ने नृत्य, नृत्यग्राम और प्रेम को अपना लक्ष्य बनाया. यह प्रेम पति, परिवार, प्रेमी, दोस्तों, गुरु और नृत्य के कई पड़ाव पार करता हुआ अमूर्त और अज्ञात के प्रति प्रेम में बदल गया. कलाओं और जीवन का अंतिम लक्ष्य इसके सिवा क्या हो सकता है भला. यह देह मन से परे किसी उद्दात तत्व से प्रेम था जो प्रोतिमा की यात्रा का अन्तिम छोर था.

अपनी आत्मकथा में उन्होंने कहा-

“मुझे नहीं लगता अपने पति के लिए मैं सीता थी, और अपने प्रेमियों के लिए राधा. यहाँ तक कि अपने बच्चों के लिए यशोदा भी नहीं बन पाई. दूसरे शब्दों में जहाँ तक दुनियादारी का सवाल है मैं बुरी तरह असफल रही.”

दरअसल वे एक ही समय में पत्नी, प्रेमिका, दोस्त कलाकार और माँ रहीं और अपने हर रूप में उन्होंने उस रिश्ते की सीमाओं को चुनौती दी जिसकी एक ख़ास परिभाषा गढ़ दी गई है और इसे ही अंतिम मान लिया जाता है. पत्नी होते हुए उन्होंने न खुद को बाँधा न पति को, प्रेम किया तो खुद को पूरा समर्पित किया पर एकनिष्ठ रहना उनका स्वभाव नहीं रहा और वे स्वीकार करती रहीं कि एक ही पुरुष से सब कुछ नहीं मिल सकता. अपने प्रेमियों को बांधकर रखना भी उनका स्वभाव नहीं रहा. बच्चों के स्कूल जाकर झूठे बहाने बनाकर उन्हें मौज मस्ती के लिए ले जाने वाली माँ के पास क्या अनूठी जीवन दृष्टि नहीं थी? वे बच्चों से कहती -

"दुनिया उतनी ही नहीं जितना तुम्हारी खिड़की के बाहर दिखाई देता है. यह बेहद विशाल है, बेहद भव्य. हम इस विशाल भव्य संसार के बेहद सूक्ष्म कण और प्रकृति की वृहत्तर योजना का एक बेहद छोटा हिस्सा. कितनी जल्दी हम संकीर्ण घेरेबंदियों, सामाजिक नियम कायदों में फंस जाते हैं– ‘समाज हमसे क्या चाहता है, लोग क्या कहेंगे’ इसे ही अंतिम मान लेते हैं जबकि यह सब बीत जाने वाला है  ! हर क्षण का आनंद लो, दुःख का भी. अपने जिन्दा होने का हर क्षण आनंद से गुज़ारो। खुश होना बहुत बहुत आसान है."

अपनी आत्मकथा में उन्होंने यह भी कहा-

“मैंने वह हर नियम तोडा जो समाज ने बड़ी सावधानी से निर्मित किये हैं. मैंने हर सीमा को चुनौती दी. मैंने वह सब कुछ किया जो मैं सही समझती रही और परिणाम की कभी परवाह नहीं की. मैंने अपने यौवन, यौनिकता और बुद्धिमत्ता का भरपूर बिना झिझक प्रदर्शन किया. मैंने कई लोगों से प्रेम किया और कुछ लोगों ने मुझसे.”

इन दो कथनों में प्रोतिमा के व्यक्तित्व के दो बिलकुल अलग पहलू नज़र आते हैं पर वे कहीं न कहीं जुड़ते हैं. चीजें उनके भीतर अपने मूल में जुड़वाँ हैं. पर असली प्रतिमा शायद इन दोनों के बीच कहीं है, वह प्रोतिमा जो पूर्णिमा की मध्य रात्रि में नृत्य ग्राम की रंगभूमि में खुले आकाश के नीचे अकेली नृत्य करती प्रकृति से एकाकार होने का अनुभव करने के बाद, थक कर बैठ जाती और सिगरेट के कश लगाती यह सोचकर मंद मंद मुस्कुराती–

‘गाँव के लोग और मेरे विद्यार्थी अगर अभी मुझे इस हाल में सिगरेट का कश लगाते देख लें तो समझेंगे अम्मा पागल हो गई है !”

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'पंडित जसराज : अमूर्तन का आलाप' यहाँ पढ़े.





रंजना मिश्र
कविताएँ, आलेख और अनुवाद प्रकाशित

 शिक्षा वाणिज्य और शास्त्रीय संगीत में.
आकाशवाणीपुणे से संबद्ध. 
ranjanamisra4@gmail.com

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  1. प्रोतिमा बेदी और उनके व्यक्तित्व पर जिस तरह से लिखा गया है उसे प्रस्तुत भी उसी गरिमा के साथ किया गया है. इस पढ़ना अनुभव है.

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  2. राजेश कुमार सिंह12 अक्तू॰ 2020, 9:15:00 am

    प्रोतिमा की जीवन यात्रा ,उसके उत्कर्ष ,विभिन्न झंझावातों के बीच स्वयं को तलाशने और तराशने की सम्पूर्ण प्रक्रिया का बहुत कौतूहल भरा वर्णन । रंजना जी का लिखा पढ़कर लग रहा है कि जैसे अभी और पढ़ना है । प्रेम और समाज की सीमाओं से परे स्वयं को खोजने या प्रोतिमा की तरह स्वयं का एक तरह से आविष्कार करने के लिए अदम्य साहस की ज़रूरत होती है । रचते वही हैं ,जिन्हें टूटना और तोड़ना दोनों आता है । प्रोतिमा की आत्मकथा पढ़ने की जिज्ञासा है ...रंजना जी को इस सुंदर आलेख के लिए बधाई और बहुत धन्यवाद ��

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  3. प्रोतिमा बेदी के जीवन और संघर्ष, उनके प्रेम और उनकी प्रतिबद्धताओं तथा भारतीय नृत्य विशेषकर ओडिशी के लिए उनके योगदान को रेखांकित करता बहुत गम्भीर किंतु लालित्य से परिपूर्ण आलेख। एक स्त्री के स्वप्नों और उनकी पूर्ति हेतु संघर्ष का रसात्मक आख्यान। रंजना जी ने बहुत डूब कर लिखा है। साधुवाद

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  4. बहुत प्रभावशाली व्यक्तित्व का दिल से किया गया स्मरण

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  5. एकदम क़रीने से लिखा गया आलेख है , प्रोतिमा गौरी का बचपन से अन्त तक ,उनका समूचा व्यक्तित्व , विकासक्रम आँखों के सामने उपस्थित हो जाता है । ओडिसी नृत्य की बारीकियाँ , इतिहास , गुरु केलूचरन महापात्र आदि आलेख का अपरिहार्य भाग बन कर उपस्थित हैं । बेहतरीन आलेख । हार्दिक बधाई

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  6. हमेशा से ही प्रोतिमा गौरी के बारे में जानना चाहा पर इतना डीप कहीं नहीं जान पाया ....हाँ पर नृत्य ग्राम का क्या हुआ? अब भी सन्चालित होता है क्या?

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  7. रंजना जी एक बार फिर बधाई. बहुत सुंदर लेख. मैंप्रोतिमाजी का डेबोनायर में छपे साक्षात्कार की स्मृति में डूब रहा. बड़ी प्रतिभाएँ बिंदास हुआ करती हैं. समालोचन ने विविध विषयोंं पर अच्छे लेख देकर अच्छे पाठकों को भरोसा दिया है.... प्रोतिमा जी पर एक किताब आनी चाहिए.... रंजना जी यह काम आप ही कर सकती हैं.... फिर फिर सुंदर आलेख के लिए अरुण देव और आपको बधाई और शुभकामनायें....

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  8. प्रोतिमा बेदी जैसी कलाकार और विलक्षण शख़्सियत के बारे में अत्यंत प्रभावशाली लेखन के लिए रंजना जी को बहुत बधाई।लीक से हटकर जीवन जीने वाली विद्रोही प्रोतिमा को लेख में जिस आत्मीयता और गहराई के साथ जाना और समझा गया है वह बेहद प्रशंसनीय है।

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  9. बेहद खूबसूरत ढंग से गागर में सागर सम , बहुत ही उम्दा

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  10. मंजुला बिष्ट12 अक्तू॰ 2020, 4:57:00 pm

    बहुत सुंदर,सुचिंतित ,लयबद्ध व सुगठित आलेख!
    प्रोतिमा बेदी जी के बारे में यह आलेख बहुत सारी जानकारी देने के साथ ओडिसी नृत्य की शुरुआत से जुड़े मिथक,नृत्य-शैली की बारीकियाँ ,गुरु-शिष्य परम्परा व अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं का भी परिचय दे रहा है।
    प्रोतिमा गौरी के व्यवसायिक व आध्यात्मिक यात्रा को पढ़ना भी एक अलग अनुभव रहा।
    इस ज्ञानवर्धक व जरूरी आलेख को हम पाठकों तक पहुंचाने के लिए रंजना जी व समालोचन का बहुत आभार !��

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  11. एक विद्रोही कलाकार के जीवन संघर्ष को भरपूर रस के साथ बयान करने वाला अत्यन्त रोचक लेख...रंजना जी को बधाई।किसी कलाकार को इसी तन्मयता के साथ याद किया जाना चाहिए।इससे पहले पंडित जसराज के बारे में भी उन्होंने इसी तरह डूब कर लिखा था।
    मैं पहली बार बहुत सारी बातों से परिचित हुआ।

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  12. इस लेख को बार -बार पढ़ा जायेगा . अप्रितम . प्रोतिमा की जीवन -यात्रा से गुजरना अपने स्वत्व को जानना है .
    रंजना मिश्र जी शुक्रिया .

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  13. रंजना जी पढ़ना हमेशा ज्ञानवर्धक तो होता ही है वह हमें और अधिक संवेदनशील बनाता है।
    ओडिसी की प्रख्यात नृत्यांगना प्रोतिमा बेदी की आत्मकथा के बहाने एक कलाकार का जीवन संघर्ष और उसका त्रासद निधन इस आलेख में जिस शैली में प्रस्तुत है वह हमें पहले से ज्यादा बेहतर मनुष्य बनने में सहायक है।
    इसके साथ ही दबी जुबान से यहां रंजना जी ने संभवतः यह भी बता दिया गया है कि एक कलाकार को हर हालत में अराजक होने से बचना चाहिए।
    Ranjana Mishra जी का गद्य वस्तुतः कविता की धार से लैस है। साधुवाद।

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  14. बहुत उम्दा लेख। प्रतिमा बेदी के जीवन कर्म के बारे में ऐसी सुचिंतित जानकारी पहली बार एक साथ पढ़ी। किसी कलाकार को उसकी कला से इतर देखने की और उसे उसके ख़ालिस इंसान के रूप में स्वीकार करने की मैच्योरिटी हमारे समाज में नहीं है। एक स्त्री के लिए यह स्थिति और अधिक संघर्षपूर्ण और जटिल हो जाती है। आपका लेख अनुसंधानपरक होते हुए भी मार्मिक बन पड़ा है। बहुत बधाई!

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  15. शास्त्रीय नृत्यांगना प्रतिमा बेदी के जीवन और उनकी कला साधना पर रंजना मिश्र के आलेख सुंदर लगे। आलेख की भाषा भी उतनी ही सहज आकर्षक है जितनी प्रतिमा बेदी की अपनी शख्सियत। कला को अपनी शर्तों पर जीना आसान नहीं होता।

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  16. क्या कलाओं की साधना में कलाकार के निजी जीवन की पीड़ा का भी उतना ही योगदान नहीं रहता जितना कला की साधना का ? क्या कलाओं के माध्यम से कलाकार अपना और अपने दर्शकों श्रोताओं का हाथ थामकर उन्हें संकुचित दुनियावी सुख दुःख की परिभाषा से परे एक प्रति संसार में नहीं ले जाते? एक नई दृष्टि से जीवन को देखने की तमीज कौन दे सकता है भला ! बहुत सुन्दर लिखा

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  17. ख्यातिप्राप्त ओडिसी नृत्य गुरु केलुचरण महापात्र -सच्चे गुरु सच में ईश्वर का दूसरा रूप ही होते हैं
    अपने बालों में नारियल तेल चुपड़ उन्हें बांधकर आना, मैं ‘राक्षसियों’ को नृत्य नहीं सिखाता.” -तीखे बोल बदलाव के लिए उतने ही जरूरी
    अराजक होने की सीमा तक अपनी ज़िन्दगी का लुत्फ़ उठातीं. वह-यही लुप्त होने की आज़ादी भाव में कइयों ने कई अविष्कार किये हैं।
    वो प्रेम तलाशती रहीं जो शायद उन्हें टुकड़ों में मिला-ख़ोज आपकी प्राप्ति है
    मिथक,यथार्थ ,सत्य,किस्से सब के सब तरतीब से गुथे हुए
    पंडित जसराज के प्रेम ने उन्हें भीतर से बदलना शुरू कर दिया था.-जसराज संस्मरण जो आपने पहले भी बहुत शानदार लिखा है उस सीरीज की झलक यहाँ दिखी।
    लोग मेरी वाइन पर २०००/- खर्च करने को तैयार हो जाते पर वे संस्था के लिए धेला भर भी खर्च न करना चाहते”.
    यथार्थ का टुकड़ा जो आपको पत्थरों को तरासने में मदद करता है ।
    प्रोतिमा बेदी ने अपना नाम बदल प्रोतिमा गौरी कर लिया, गाँव के लोगों के लिए वे गौरी अम्मा हो गईं.
    नाम बदलना पुराने से छुटकारा ही तो है पर थक कर अंत में सिगरेट पीना आपको पुरानी दुनिया में विचरण करवाता है।
    उसी रात बादलों के फटने से उनकी मृत्यु हुई, ऐसा मानते हैं. प्रोतिमा की उम्र इस समय ४९ बरस थी.अक्सर देखा है ज़्यादा तेल सोखता दिया और ज्यादा तेज लिए रोशनी ज्यादा देर तक कहाँ ठहरती है ,
    कितने सत्य हैं जिनसे हम अवगत नहीं
    आसपास से भी नहीं ,प्रतिमा की जिंदगी ने सच में 360 डिग्री की यात्रा की ।
    यह एक सुन्दर जीवन का तथाकथित अंत था जिसमें साहस था, प्रयोग थे, प्रेम था, संघर्ष, अकेलापन, जिम्मेदारियां, यायावरी और अंत में कृतज्ञता थी.
    बहुत बहुत शानदार आलेख
    रंजना मिश्र को तहे दिल से बधाई
    पहले भी आपके लेख पढ़ें है संगीत नृत्य से जुड़े
    आप शानदार काम कर रही हैं

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  18. बहुत ही सुंदर आलेख । संतुलित, विचारशील, अपने कहन, विचार दृष्टि में लाघव और खुलापन लिए हुए। आलेख में प्रतिमा बेदी के जीवन से जुड़ी घटनाओं, जीवन और कला के स्वरूप, पीड़ा की जीवन में भूमिका, स्वयं रंजना जी के अपने जीवन से नृत्यांगना प्रतिमा बेदी का संबंध आदि सब पिरोता जाता है। इस पृथ्वी पर मनुष्य, और विशेषकर एक कलाकार कितनी कठिन और अंततः अकेली किन्तु अपूर्व यात्रा करता है इसका बहुत ही उजला दस्तावेज है यह आलेख। रंजना जी को बधाई और उनका शुक्रिया भी🌻

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  19. बहुत रोचक और आवश्यक आलेख।गरिमा जी को बधाई।
    निःशब्द हूं।

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  20. जिस वक़्त मालपा में प्रोतिमा बेदी के गायब हो जनी की सूचना मिली मै नैनीताल में थीं।बिल्कुल सुबह मालपा में ठहरे कैलाश मानसरोवर जाने वाले ग्रुप के बारे सुन कर हम सब लोग एकदम सन्न से थे।उन्हीं में प्रोतिमा बेदी।भी गम हो गई ये बात मै पचा नहीं पा रही थी। उन दिनों प्रोतिमा बेदी कांकेर बिंदास वर्जनाओं को तोड़ती जीवन जीने की तरंग से मै अंदर तक डूब कर प्रभावित थीं।मेरी जानकारी के अनुसार प्रोतिमा ने कबीर बेदी से शादी नहीं की थी और बिना शादी के पूरे दम से पूरी व्यवस्था को धता बताती दो बच्चे भी पैदा कर दिए।जब उनके बेटे ने आत्महत्या की थीं उनकी टूटन के बारे में पढ़ कर उद्वेलित थी।चाहे उसने कितने ही संबंधों को जिया पर अपनी सृजनात्मकता को हमेशा बनाए रखा ओर उसे मुकाम तक लेे गई।इतने गरिमापूर्ण लेखन के लिए लेखिका के लिए बधाई शब्द मुझे छोटा लग रहा है।समालोचना को हार्दिक धन्यवाद

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  21. विविध आयामों का जितना विस्तार उतनी ही गहराई और उतनी ही सूक्ष्मता। अंतस में प्रतिमा बेदी के समग्र को एकाकार किए बिना ये तीनों आयाम उस तरह एक साथ नहीं सध सकते थे जैसा इस आलेख में संभव हुआ है।
    नृत्यांगनाओं पर लिखते समय रंजना के लिए प्रतिमा को चुनना शायद वैसा ही रहा हो जैसा केलूचरण महापात्र के लिए प्रतिमा को शिष्या के रूप में चुनना -- 'नारियल का तेल चुपड़कर आना, मैं राक्षसियों को नृत्य नहीं सिखाता।'
    विपरीतताओं के बहुत त्रासद समाहार से बने प्रतिमा नाम के इस phenomenon को संभालने के लिए भाषा का टूल भी बहुत अहम था। रंजना के पास बहुत धारदार टूल है और उसे बरतने का धैर्य भी। इस आलेख में जिस ईमानदारी, तटस्थता और बिल्कुल सही मोताद की वाग्मिता का समावेश है, वह रंजना के लिए ही संभव था। मैंने किसी नृत्यांगना पर इस कोटि का आलेख नहीं पढ़ा।
    रंजना ने प्रतिमा की प्रतिमा में जीवन भरकर उसे सजीव कर दिया है, पुनर्जीवित कर दिया है। प्रतिमा को यह पुनर्जीवन पाने के लिए शायद एक रंजना का ही इतंजार था।

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  22. अपने लड़कपन में प्रोतिमा बेदी और अंजू महेंद्रू जैसी महिलाओं को हमने केवल उनकी बोर्ड इमेज के कारण ही जाना था। आज प्रतिमा जी के विषय में जो पढ़ा वह जीवन का बहुत बड़ा अनुभव है। रंजना जी की लेखनी का सलाम। एक बार फिर समालोचन और अरुण जी का आभार। यही कारण है कि सुबह उठते ही अरुण जी की पोस्ट का इंतज़ार रहता है।

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  23. A beautiful sketch of inner life of a Great Artist written in a lucid firm . I lived each moment as I knew her through my friend Manohar Aaashi from Bhopal .

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  24. प्रभात मिलिंद23 अक्तू॰ 2020, 11:06:00 am

    जो लोग कला के दुनिया में रुचि नहीं रखते और प्रोतिमा गौरी के बारे में अधिक नहीं जानते उनके लिए भी अपनी भाषा की रोचकता, तथ्यों की शोधपरकता और एक आत्मसंघर्ष और दृढ़ व्यक्तित्व के सम्यक रेखांकन की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण और पठनीय आलेख है।

    आमलोग प्रायः उनके जीवन के एक ही आयाम से परिचित हैं - उन्हें या तो कबीर बेदी की परित्यक्ता के रूप में जाना जाता है, या फ़िर ओडिशी नृत्य की एक अग्रणी नृत्यांगना के रूप में। 'बेदी' के 'गौरी अम्मा' बनने की जीवट यात्रा की सरसरे तौर पर अनदेखी हुई है। यह आलेख प्रोतिमा के बेदी में रिड्यूस किए जाने और पुनः बेदी का गौरी अम्मा में ब्लूम करने का एक अनोखा और संभवतः मेरी नज़र से गुज़रा सर्वाधिक प्रामाणिक और तुलनात्मक वृतांत है।

    एक व्यक्ति, एक स्त्री और कलाकार - तीनों का ऐसा संतुलित किन्तु समग्र आकलन इस आलेख की यूएसपी है। प्रोतिमा बेबाक और रिबेल थीं, उन्होंने अपना जीवन पूर्वनिर्धारित मानकों के मुताबिक नहीं, बल्कि अपनी मर्ज़ी से और अपनी शर्तों पर जिया। उनके स्त्री और कलाकार दोनों की दुनिया स्टोरी-मटेरियल्स से भरी हुए हैं। लिहाजा उन्हें विमर्श से अधिक गॉसिपिंग का विषय माना गया। यह आलेख उनकी अस्मिता, प्रतिबद्धता और संघर्ष के अन्तरसंसार से परिचय कराता है। वे पारदर्शी थीं इसलिए अब नहीं होने के बाद भी आसक्त करती हैं। आलेख को श्रम के साथ ही नहीं बल्कि पूरी संवेदनात्मक तन्मयता में डूब कर लिखा गया है। इसीलिए यह विरल और कदाचित संग्रहणीय कहा जाएगा। ऐसे विविधतापूर्ण और त्रासद जीवन को शब्दों में बांधना चुनौतीपूर्ण काम है। रंजना जी, अपने सचमुच बहुत अच्छा लिखा है। समालोचन के ज़रिए ऐसे आलेख और रचनात्मक साहित्य को पढ़ने का अवसर मिल जाता है, सो अरुण जी, आपका भी शुक्रिया।

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  25. सुचिंतित और सहृदयपूर्ण लेख है।

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  26. प्रोतिमा गौरी के जीवन से सम्बंधित प्रत्येक पहलू पर सूक्ष्म रूप से अवलोकन कर लिखा सुंदर भाषा में; सुंदर लेख !

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