Wooden Human Figures : Peter Demetz |
आज
आपका परिचय कवि प्रमोद पाठक से कराते हैं, वे बच्चों के लिए भी लिखते हैं. उनकी लिखी बच्चों की
कहानियों की कुछ किताबें बच्चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था 'रूम टू रीड' द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. किसी भी कवि में काव्यत्व की जिस सांद्रता की आवश्यकता होती है वह
यहाँ है. मार्मिकता और चेतना का संतुलन दीखता है.
कविताएँ आपके समक्ष हैं पढ़े और अपनी
राय दें.
प्रमोद पाठक की कवितायेँ
मैं अपने नहीं होने से बना हूँ
इस दुनिया का सबसे कमजोर मनुष्य हूँ
मैं
मेरी भाषा इतनी निहत्थी है कि उसमें
प्रार्थना और रिरियाहट भी संभव नहीं
आप मेरे ईमान की चिंता न करें
मुझे तो वह जमीन भी उपलब्ध नहीं हो
पाई
जिस पर उसकी नींव का पहला पत्थर रख
सकूँ
मेरे दिल का रंग रक्तिम नहीं कुछ-कुछ
हरा सा और सलेटी है
आप घबराइए मत यह जानकर
उसे हुआ कुछ नहीं बस जरा सी फफूँद लगी
है
एक कतरा निकाल कर फेंद देंगे बाकी
शायद ठीक ही बचा होगा
मैं अपने नहीं होने से बना हूँ
इसीलिए आपको कभी तकलीफ नहीं दूँगा
राह की ठोकर नहीं बनूँगा
अटकूँगा नहीं कभी पोशाक से निकल आए
अनचाहे धागे की तरह
यह आप भी जानते हैं
इसलिए आप आपना सारा राजनैतिक काम काम
जारी रखें.
मैं मिलूँ उनसे अपनी कविता में इस तरह
मैं दुनिया की सारी स्त्रियों के
अकेलेपन में
शामिल हो जाना चाहता हूँ
मेरे पोरों से उर्वर मिट्टी की तरह झरें शब्द
स्त्रियाँ पौधा हों
और मैं उन्हें उपनी कविता के उम्मीद
के पानी से सींचूँ
हर स्त्री के पास अपने सपनों की एक
फुटबॉल हो
और मेरी कविता बस एक मैदान भर
जितनी फैल जाए उसके सामने
जीवन के खेल में दौड़ते-भागते वे जब गिर रही
हों और छिल रहे हों उनके घुटने
मेरे शब्द मरहम की तरह
नहीं साहस की तरह साथ दें उनका
और वे अपने टूटने के क्षणों में
उत्साह से भर जाएं
जब वे निस्सहायता का पहाड़ लाँध रही
हों
मैं मिलूँ उनसे अपनी कविता में इस
तरह
जैसे हिमालय की उस ऊँचाई पर जहाँ
पेड़ भी खत्म हो रहे होते हैं
मिलता है अचानक कोई गडरिया अपनी नर्म
मुलायम भेड़ों के साथ
और हमें अपने जीवन में मनुष्य होने के
अहसास से भर देता है.
मुझे अगर पानी बना ढाल दिया जाता परातों में
दिन भर की मजूरी की थकान
उनकी पोर-पोर में भरी है
सामने परात में भरा पानी
एक गर्वीली मुस्कान के साथ उसे छू
रहा है
और वे अपने पाँव धोते हुए उसे उपकृत
कर रही हैं
वे अपने पाँव की उँगलियों में पहनी
चिटकी को
बड़े जतन से साफ कर रही हैं
मानो कोई सिद्धहस्त मिस्त्री
साफ-सफाई करके
किसी बैरिंग में बस ऑइल और ग्रीस
डालने वाला है
जिसके बल ये पाँव अभी गति करने लगेंगे
एक दूसरे से बतियाती व अपने पंजे साफ
करतीं
वे टखनों की तरफ बढ़ती हैं
उसके बाद पिंडलियों पर आए
सीमेंट-गारे के छींटों से निपटने के
लिए अपना लँहगा कुछ उठाती हैं
और अभी-अभी उड़ान भरने के लिए उठे
बगुले के पंखों के नीचे बने उजाले सा रोशन कर देती हैं
कस्बे की उस पूरी की पूरी गली को
जहाँ यह दृश्य घट रहा है
मुझे अगर पानी बना ढाल दिया जाता उन
परातों में
तो मैं भी कोशिश करता
उन पिंडलियों में भरी थकान को धो
डालने की.
मेरी बाँहों की मछलियाँ अपने ख्वाबों में
मेरी बाँहों की मछलियाँ अपने ख्वाबों
में
तुम्हारी बाँहों के समन्दर में तैर
रही थीं
मेरा जहाज मुझे पुकार रहा था
और उसके मस्तूल तुम्हारी खिदमत में
झुके थे
यह ख्वाब था जिसमें मैं तुम्हारी
आँखों के खेत में
धान की तरह बारिश रोप रहा था
और तुम मेरे सामने
तवे पर रोटी फुला रही थी
जिससे भाप दुखों की तरह फूटकर निकल
रही थी
एक हल्की सी आवाज जैसे कोई कराह रहा
हो.
इस तरह वह मेरा उधार तुम्हें लौटाएगा
मई की यह दोपहर सन्नाटा रच रही है
और तुम याद आ रही हो
तुम्हारी यादों के गुच्छे मेरे दिल को
अमलतास के फूलों में तब्दील करते जा रहे हैं
मेरा मन भारी हो नीचे नीचे और नीचे की
ओर झुका आ रहा है
पर तुम ठीक वहाँ नीचे धरती बनकर नहीं
हो
इस तरह मेरा झुकना अधर में लटका हुआ छूट गया
है
आस-पास बहुत उदासी है
और मेरी आवाज तुम तक नहीं पहुँच रही
है
तुम यहाँ से बहुत दूर हो
और तुम्हारी यादों की तितलियाँ
अपनी असफल उड़ानों पर हैं
मैंने तुम्हारे हिस्से के चुम्बन
पड़ौस में खड़े गुलमोहर को उधार दे दिए हैं
और वे अब उसकी देह पर लाल-लाल चमक रहे
हैं
मुझे उम्मीद है कि तुम कभी इस राह
गुजरोगी
तब यह गुलमोहर तुम पर एक फूल गिराएगा
और इस तरह वह मेरा उधार तुम्हें
लौटाएगा .
कविता
ऐ ईद के चाँद
मुझे तुझसे मुहब्बत है
मैंने समन्दर से तेरा पता पूछा
मगर वो तो मेरा ही रकीब निकला
अब तू बता
कि तुझसे मैं कहाँ मिलूँ!
मुझे तुझसे मुहब्बत है
मैंने समन्दर से तेरा पता पूछा
मगर वो तो मेरा ही रकीब निकला
अब तू बता
कि तुझसे मैं कहाँ मिलूँ!
भूख को दीमक नहीं लगती
मेरी आँते
एक सर्पिलाकार सड़क है
जिस पर भूख की परछाई गिर रही है
और भूख मेरे महान देश के नागरिकों का
पहचान पत्र है
संसद यहाँ से बहुत दूर है
और ऐसे पदार्थ से बनी है जिसकी कोई
परछाई नहीं बनती
हमें नागरिक होना सिखाया गया
यह मानकर कि हम अपनी पहचान को छुपाए
रखेंगे अपने घुटने पेट में मोड़कर
मगर क्या करें भूख को कोई दीमक नहीं
लगती.
____________
प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे
बच्चों के लिए भी लिखते हैं. उनकी लिखी बच्चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्चों
के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था 'रूम टू रीड' द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविताएँ
चकमक, अहा जिन्दगी, प्रतिलिपी,
डेली न्यूज आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्चों
के साथ रचनात्मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागोजी पर कार्यशालाएँ करते हैं. वर्तमान
में बतौर फ्री लांसर काम करते हैं.
सम्पर्क :
27 ए, एकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर, 302018, /राजस्थान
मो. :
9460986289
मुझे याद नहीं आ रहा, पर प्रमोद जी को पढ़ा है। स्वागत और बधाई प्रमोद जी। अच्छी लगी कविताएँ।
जवाब देंहटाएंप्रमोद जी को प्रमोद की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं। एनसीईआरटी की पत्रिका में इन्हें पढ़ने और प्रकाशित करने का सौभाग्य मिला था, प्रभात-प्रमोद की सक्षम जोड़ी कविता की नयी तस्वीर बना रही है।
जवाब देंहटाएंUnique in its treatment of theme , interesting !
जवाब देंहटाएंप्रमोद जितने अच्छे इन्सान हैं, उनकी कविताएं उनके व्यकित्व और सोच को खूबसूरत ढंग से प्रतिबिम्बित करती हैं। शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंहर स्त्री के पास अपने सपनों की एक फुटबॉल हो
जवाब देंहटाएंऔर मेरी कविता बस एक मैदान भर जितनी फैल जाए उसके सामने
जीवन के खेल में दौड़ते-भागते वे जब गिर रही हों और छिल रहे हों उनके घुटने
मेरे शब्द मरहम की तरह नहीं साहस की तरह साथ दें उनका
और वे अपने टूटने के क्षणों में उत्साह से भर जाएं
रश्मि की टिप्पणी पढ़ते वक्त मैं सोच रही थी कि इन कविताओं का वितान इकोफेमिनिज़्म के थेमेटिक डिस्कोर्स को भी तैयार करता है।
जवाब देंहटाएंGreatly insightful Aparna like emoticon this thought would have been too far fetched for me ... जबकि कविता में आए सारे बिम्ब बहुत ही हॉन्टिंग थे मेरे लिए ..!
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कविताएं हैं. कवि को शुभकामनाएं!!
जवाब देंहटाएंप्रमोद जी को पहली बार पढने का शौभाग्य मिला ,
जवाब देंहटाएंसहज शब्दों में रची गयी शानदार कवितायें !!
कवि को बधाई और समालोचन का आभार
Sahi mein achchi kavitayen...Pramod ji ki paas duniya ko dekhne ki ek alag nazar bhi hai aur usse kavita mein dhalne ki bhasa bhi...Arun bhai aabhar...
जवाब देंहटाएंप्रमोद पाठक बधाई के पात्र हैं। सुबह पढ़ी ये कविताएँ अति व्यस्तता के बावजूद परछाईं की तरह साथ चलती रहीं । स्त्री केंदिृत कविताएँ संवेदना के जो दृश्य-विम्ब खड़े करतीं हैं वे विश्वसनीय होने के साथ-साथ ' आत्मीय ' भी हैं । 'अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी.....' वाली काव्य परंपरा को तोड़ती हुई विशुद्ध मानवीय धरातल पर स्त्री -जीवन के चाक्षुष-बिम्ब बन जाती हैं । उधार, तवे की रोटी से निकलती भाप .... स्त्री -पीड़ा का गहन सूक्ष्म निरीक्षण !! परात के पानी में घुलकर और गलकर पिडलियों की पीड़ा को हर लेने की कवि इच्छा सनातन पुरुष-कवि अथवा कवि-पुरुष का पाृयश्चित है । औरत पुरुष समाज से कोई रक्त क्रान्ति नहीं चाहती बस 'अपनावा ' चाहती है। इन मानवीय कविताओं के लिए कवि को कोटिश: धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंएक ही स्री जो आपके करीब हो उसके अकेलेपन मे शामिल हो ,सारी स्रियो को अपना चुनाव क्षेत्र नहीं
जवाब देंहटाएंबनाए. कवि को चुनाव तो थोड़े लडना है .
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2214 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
कविता के कथ्य में इतनी ताज़गी और प्रवाह है कि ध्यान उसी पर जमा रहता है, शिल्प गौण हो जाता है। कथ्य की नवीनता सारा ध्यान बटोर लेती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति ....
जवाब देंहटाएंआप सभी का बेहद शुक्रिया !
जवाब देंहटाएंहाँ अपर्णा जी कोई तीन-चार साल पहले मेल के जरिए एक संक्षिप्त बातचीत हुई थी.
Pramaod ji aap ko shirf kah sakta hun salam salam aur salam behad sundar kavitaye hai.
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.