डोरिस कारेवा (Doris Kareva) इस्टोनिया के सबसे महत्वपूर्ण कवियों में हैं. उनका जन्म 1958 में ताल्लिन्न में हुआ था. अब तक उनके 15 कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं. इसके अलावा उनकी दो और पुस्तकें भी प्रकाशित हैं जिनमें से एक उनके लेखों का संग्रह है. उनकी कविताएँ अब तक विश्व की 20 भाषाओं में अनूदित हुई हैं. उन्होंने अन्ना अख्मातोवा, एमिली ब्रोंटी, एमिली डिकिन्सन, कबीर तथा रूमी की कविताओं का इस्टोनियन भाषा में अनुवाद किया है. 1992 से 2008 तक वे इस्टोनियन नेशनल कमीशन फॉर यूनेस्को की सेक्रेटरी जनरल रहीं. 2001 में उन्हें इस्टोनियन ऑर्डर ऑफ़ द वाइट स्टार प्रदान किया गया. उनकी कविताओं के दो संग्रह अंग्रेज़ी में भी प्रकाशित हैं.
डोरिस कारेवा (Doris Kareva) की बीस कविताएँ
अनुवाद: तेजी ग्रोवर
1)मैं बुढ़ापे क़ा पूर्वाभ्यास कर रही हूँ, अकेलेपन,
गरीबी, बहिष्कृत किये
जाने का,
मुफ़लिसी, और न होने का पूर्वाभ्यास.
मैं अन्धेपन का पूर्वाभ्यास कर रही
हूँ,
अन्त के अन्त का. आख़िरकार
किसी भी चीज़ का भय नहीं रहता.
भय, मत खरोंचो मेरी
रातों को,
अपने सपनों जैसा बनाने उन्हें.
दुख के अनुभव, सोने की धातु को बह जाने दो
फुर्तीले, चुस्त और ख़ामोश,
ठीक खुदा की हवाओं की तरह;
ख़ूबसूरत और राजसी, रात-दर-रात
अ-वश्य वे भागते हैं.
मैं सूंघती हूँ, स्वाभाविक है मैं सूंघती हूँ:
मेरा हृदय उनका आखेट है.
कैसे तृप्त होती कभी
अगर थकने तक नहीं भागती मैं;
अगर रात-दर-रात नहीं भागती, दौड़ नहीं लगाती
मायावी, अजनबी
रेगिस्तानी कुत्तों के संग.
3)
मैं घण्टों-घण्टों तक सुनती हूँ
समुद्र के एकमात्र वाक्य को,
अचरज करती हूँ
कैसे लिखा जाए उसे.
4)
जो कुछ भी तुम्हें चाहिए
वह आवरण में चला आयेगा तुम्हारे पास,
एक या फिर दूसरे भेस में.
जब तुम पहचान लोगे उसे,
वह तुम्हारा हो जायेगा.
जो कुछ भी तुम्हें चाहिए वह चला
आयेगा तुम्हारे पास,
तुम्हें पहचान लेगा, तुम्हारा अंश बन जायेगा.
साँस लो, दस तक गिनो.
कीमत बाद में बतायी जायेगी.
5)
भूल-भुलैया में से गुज़रते हुए
कुछ भी नहीं है मेरे पास --- इसलिए
मैं ख़ुद अपने चीथड़े फाड़ती हूँ,
चिह्नित करने वे मोड़ जो मुड़े जा चुके
हैं,
लौटने का रास्ता खोजने.
6)
ढाई क्षण के लिए मैंने तुम्हें देखा
ढाई वर्ष के बाद.
आँख की वह झपक मेरी नज़र में जलती है,
मारक, और पुनः सब नये
में बदलती हुई.
बिजली की कौंध, भूचाल, और सैलाब एक
साथ
एक ही क्षण.
मैं हल्लो तक नहीं कह पायी.
तुम्हारी विचित्र उदास दीप्ति
चमकती तलवार सी भेदती है मुझे.
दुनिया,
दुनिया तो पास से गुज़र जाती है बस.
7)
तुम्हारी तस्वीर अपने पर्स में नहीं
रखती मैं;
वह यूँ भी मेरी पलकों के नीचे जलती
है.
हर मुखाकृति, भंगिमा, स्वर-कम्पन,
मेरे अनचाहे ही, उकेरा जा चुका है --–
एकदम सपष्ट, तुम्हारी पीठ, जब तुम गये थे
उस मई में जिसका ख़ुलासा नहीं किया जा
सकता,
उस क्रूर सर्दी में,
जैसा संकेत दिया था मैंने --–
अँधेरे में, बायीं ओर.
मैं समुद्र तट पर चलती रही
बहुत देर तक, ज़मीन से
कुछ-न-कुछ उठाती हुई.
घर आकर मैंने झोले को ख़ाली किया:
ग्यारह कंकर और एक कविता
पक्षी-बिष्ठा में सनी हुई.
9)
मैं वसन्त में रहती हूँ, जबकि मेरे चहों ओर जाड़ा है.
जब ग्रीष्म आता है, मेरे भीतर पतझड़ रहता है.
मैं गलत रास्ते पर हूँ, अपने असमंजस में
पता नहीं चलता मुझे कि कब गाना है
और क्यों.
नष्ट हो चुका है मेरा घोंसला, मेरे चूज़े
बड़ी-सी दुनिया में उड़ान भर चुके हैं.
मेरे सिर में पिंजरा और पलायन घूमते
हैं,
मेरे सीने से एक गीत फूट पड़ता है.
10
हृदय लिखता है. हाथ शब्दों के चित्र
बनाता है.
हाथ थकता है. थकता नहीं है हृदय.
जब तक जीवित हो तुम, सुनना चाहिए तुम्हें
मर्म क्या कहता है:
यह किसी जीव की पीड़ा और पागलपन है
धोखे और अपमान के विरुद्ध --–
किसी जीव की हस्ती का बोझ है यह
समर्पण से लबालब भरा हुआ.
हाथ लिखता है. हृदय जानता है,
हृदय ख़ामोश है और प्रेम करता है.
वह जो कहता है कविता में,
मुग्ध कर लेता है और चौंधिया देता है.
11
जो कुछ भी है वह किसी और भाषा में
व्यक्त किया जा सकता है,
जिसे हम जन्म के समय भूल जाते हैं.
कभी-कभी कुछ शब्द फिर भी लौट आते हैं
--–
जैसे समुद्र तट पर चलते समय
बिना किसी विचार के, बिना कोई परवाह किये,
बिना एक फूटी कौड़ी के ---
कंकर धीमे से बोल देते हैं उसे,
लेकिन उच्चारण-दोष के बिना.
12)
मनुष्य, तुम अपना एक कच्चा मसौदा भर हो --–
अपने हृदय के गुलाम, अपने कर्मों के स्वामी.
जब बोल चुकेंगे शर्म, पीड़ा और भय,
जो अभी तक अनाम है, उसका भी एक स्वर होगा --–
वह जो व्यक्ति को रचता है.
लेकिन वह बोलेगा नहीं.
13)
तुम्हारा सबसे नाज़ुक अंग मुझमें पनाह
लेता है, तुम्हारा सबसे मज़बूत मुझे घेरे हुए,
हम एक ही जिस्म में समाये हैं,
जहाँ रूह और सत्व नाचते है.
हम संसार की थकान से उबरते हैं,
असुरक्षा की पीड़ा से --–
हर सुबह को पहली की तरह थामते हुए,
हर रात को अन्तिम मानते हुए.
14)
फिर ले चल मुझे, सूरज,
वसन्त-शर्मीले मेरे जिस्म को,
जो कब से सर्द है --–
जब से तुम
उफ़ुक के पार गये हो.
कुछ भी नया नहीं है यहाँ --–
जाड़े में भेड़िए,
गर्मियों में मच्छर --–
और दुनिया के तटों पर,
भटकती, पगलायी-सी,
दुल्हन है कोई डूबे हुए नाविक की.
15)
हर दिन
हर रात
कोई आता है,
झुलसी हुई आँखें लिए.
एक शब्द तक नहीं
उसने क्या देखा था
उस लोक में
जहाँ जीवन था.
16)
अगर मैं इसे बोलती नहीं,
मैं मर जाऊँगी निशब्द.
अगर व्यक्त करती हूँ,
तो यह मार देगा मुझे.
क्या -– आख़िर -– क्या करूँ मैं?
मैं पुकारती हूँ तुम्हें और लगता है
कि तुम मुझे.
लेकिन मैं सुन नहीं सकती क्या वाक़ई
ऐसा है.
ऐसी खाइयाँ हैं जिनके ऊपर से कोई
चिड़िया
नहीं उड़ती. और ख़ामोशी किसी दीवार की
तरह.
ऐसे छायाभास जिनसे काँप उठती है
आत्मा.
18)
जली हुई कविताएँ
जीवित हैं तुम्हारे आसपास
उनकी फुसफुसाहट और सरसराहट,
किसी बच्चे की शफ्फाफ़ आवाज़ में एक
दुआ,
लम्बी और खरखराती हुई एक पुकार
मदद के लिए
19)
अन्त तक सोची गयी हर सोच
तितली में बदल जाती है; मुक्त होती हुई
जैसे कोई लहर वसन्त से टकराती है.
यह तूफ़ान
जिसकी साँस लेते हो तुम हृदय-भर.
20)
तीन तरफ़ा काँच-घर: एक तरफ़
पानी है. एक तरफ़ आग है. एक तरफ़ रात
है जहाँ
प्रागैतिहासिक जीव बसते हैं --–
बेसब्र, बेहया, और बेहिसाब
खूबसूरत
मांसाहारी फूल और तितली-श्वान सा.
_________________________
तेजी ग्रोवर, जन्म १९५५. कवि, कथाकार, चित्रकार, अनुवादक. पाँच कविता संग्रह, एक कहानी संग्रह, एक उपन्यास, एक निबंध संग्रह और इसी वर्ष (२०१७) लोक कथाओं के घरेलू और बाह्य संसार पर एक विवेचनात्मक पुस्तक के अलावा आधुनिक नोर्वीजी, स्वीडी, फ़्रांसीसी, लात्वी साहित्य से तेजी के तेरह पुस्तकाकार अनुवाद मुख्यतः वाणी प्रकाशन, दिल्ली, द्वारा प्रकाशित हैं.
भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड, और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्षता.
तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.
भारत भूषण अग्रवाल कविता पुरस्कार, रज़ा अवार्ड, और वरिष्ठ कलाकारों हेतु राष्ट्रीय सांस्कृतिक फ़ेलोशिप. १९९५-९७ के दौरान प्रेमचंद सृजनपीठ, उज्जैन, की अध्यक्षता.
तेजी की कविताएँ देश-विदेश की तेरह भाषाओँ में, और नीला शीर्षक से एक उपन्यास और कई कहानियाँ पोलिश और अंग्रेजी में अनूदित हैं. उनकी अधिकांश किताबें वाणी प्रकाशन से छपी हैं.
अस्सी के दशक में तेजी ने ग्रामीण संस्था किशोर भारती से जुड़कर बाल-केन्द्रित शिक्षा के एक प्रयोग-धर्मी कार्यक्रम की परिकल्पना कर उसका संयोजन किया और इस सन्दर्भ में कई वर्ष जिला होशंगाबाद के बनखेड़ी ब्लाक के गांवों में काम किया. इस दौरान शिक्षा सम्बन्धी विश्व-प्रसिद्ध कृतियों के अनुवादों की एक श्रंखला का संपादन भी किया जो आगामी वर्षों में क्रमशः प्रकाशित होती रही. इससे पहले वे चंडीगढ़ शहर के एक कॉलेज में अंग्रेजी की प्राध्यापिका थीं और १९९० में मध्य प्रदेश से लौटकर २००३ तक वापिस उसी कॉलेज में कार्यरत रहीं. वर्ष २००४ से नौकरी छोड़ मध्य प्रदेश में होशंगाबाद और इन दिनों भोपाल में आवास.
बाल-साहित्य के क्षेत्र में लगातार सक्रिय और एकलव्य, भोपाल, के लिए तेजी ने कई बाल-पुस्तकें भी तैयार की हैं.
२०१६-१७ के दौरान Institute of Advanced Study, Nantes, France, में फ़ेलोशिप पे रहीं जिसके तहत कविता और चित्रकला के अंतर्संबंध पर अध्ययन और लेखन. प्राकृतिक पदार्थों से चित्र बनाने में विशेष काम, और वानस्पतिक रंग बनाने की विभिन्न विधियों का दस्तावेजीकरण. अभी तक चित्रों की सात एकल और तीन समूह
प्रदर्शनियां देश-विदेश में हो चुकी हैं.
womenfordignity@gmail.com
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इतनी भरी-पूरी भी हो सकती है शाइरी इस से पहले जैसे पता ही न था। कविताएँ डोरिस कारेवा की ही हैं या तेजी ग्रोवर की ?
जवाब देंहटाएं-प्रेम साहिल
इन कविताओं से स्त्री के अनुभव की भाषा का संप्रेषण हो रहा है , अभिव्यक्ति के माध्यम की भाषा चाहे कोई भी हो ।
जवाब देंहटाएंकविताए बहुत ही अच्छी है.मलय
जवाब देंहटाएंअच्छी ज़बान में अच्छे अनुवाद।
जवाब देंहटाएंतेजी जी, फिर मैं बर्फ़ की खुशबू से सराबोर हूं। अपनी प्रिय कवि को पढ़ना सुखद है।
जवाब देंहटाएंदीपावली की शुभकामनाएं।
डोरिस कारेवा को पढते हुए -
जवाब देंहटाएंयह
एक रोशनी है
जो मुझे
पारदर्शी कांच में बदलती
मेरे आर-पार
टहल रही है
अब यह रोशनी है
मैं कहां हूं!
अच्छी कविता और अनुवाद!
जवाब देंहटाएंपाँच-छै पढ़ पाया और ख़ामोश हो गया.. मन इतना भर आया.. बाकी कुछ समय (?) बाद पढने की कोशिश करूँगा !
जवाब देंहटाएंसुन्दर अनुवाद। अर्थपूर्ण कवितायें।
जवाब देंहटाएंरुकने और चलने के बीच हवा को जितना वेग चाहिए,जीवन और मृत्यु के बीच सांसों को कहने के लिए जितना वेग चाहिए,वों इन कविताओं में है,इनमे खामोशी की सुर के साथ साथ अपने होने को अलग तरीक़े से कहने की ललक है
जवाब देंहटाएंतेज़ी जी के अनुवाद तो मैं कभी छोड़ता नही,मेरे पास उनकी हर अनुवादित पुस्तक है, इस अनुवाद के लिए भी वो
बधाई की पात्र है
ग्यारह कंकर और एक कविता
जवाब देंहटाएंपक्षी-बिष्ठा में सनी हुई. ढाई वर्ष , ढाई क्षणजली हुई कविताएँ
जीवित हैं तुम्हारे आसपास। मैं बुढ़ापे क़ा पूर्वाभ्यास कर रही हूँ,मनुष्य, तुम अपना एक कच्चा मसौदा भर हो जैसी अनेक पंक्तियाँ अपने अलग अलग बिम्बों में अर्थों के अनेक विस्तार लिए हुए हैं।
तेजी जी का बेहतरीन अनुवाद इन कविताओं को हिंदी पाठकों के और करीब लाता है ।
बहुत अच्छी कविताएं। सुंदर अनुवाद
जवाब देंहटाएंतुम्हारी विचित्र उदास दीप्ति... दुनिया तो पास से गुज़र जाती है बस
जवाब देंहटाएं...मैं घंटों तक सुनती हूँ समुद्र के एकमात्र वाक्य को...
और दुनिया के तटों पर, भटकती, पगलाई सी, दुल्हन है कोई डूबे हुए नाविक की.
.....
ये पंक्तियाँ दरवाज़े से बाहर नहीं जाने दे रही! अनुवाद की तारीफ़ इसी में शामिल मानी जाए.
मेरे इस निजी समय में इन कविताओं का आना एक औषधि से कम नहीं है। शायद समालोचन की इस साल की कुछ बहुत ही चुनिंदा और बेहतरीन प्रस्तुतियों में से शीर्ष पर हैं ये अनुवाद। इसके लिए मैं तेजी ग्रोवर को जितना भी शुर्किया कहूँ कम है। ये कविताएँ तेजी (क्योंकि जी कह कर मैं अपना दुलार उन तक नहीं पहुंचा पाती) द्वारा हम बिलखने वालों की आत्मा पर कोमल फूल की तरह हैं। अरुण देव का सच्चे दिल से शुक्रिया इन कविताओं को हम तक पहुंचाने के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंअंतर कुछ मेरा-सा .. अपनी-सी लगती अनुभूति
जवाब देंहटाएंजैसे हर अच्छी कविता अवाक-सी कर देती है अपने जादू से .. अनुवाद में भी संभव हुआ है वह जादू ..
बधाई।
जवाब देंहटाएंअनुवाद मूल के मर्म के अनक़ृरीब मालूम होते हैं।
गहन अनुभूतियां,अनौखे बिम्ब,सधा अनुवाद,बधाई।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२७ -१०-२०१९ ) को "रौशन हो परिवेश" ( चर्चा अंक - ३५०१ ) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
जवाब देंहटाएंकृपया शनिवार को रविवार पढ़े |
4. जो कुछ भी तुम्हें चाहिए
जवाब देंहटाएंवह आवरण में चला आयेगा तुम्हारे पास,
एक या फिर दूसरे भेस में.
जब तुम पहचान लोगे उसे,
वह तुम्हारा हो जायेगा.
जो कुछ भी तुम्हें चाहिए वह चला आयेगा तुम्हारे पास,
तुम्हें पहचान लेगा, तुम्हारा अंश बन जायेगा.
साँस लो, दस तक गिनो.
कीमत बाद में बतायी जायेगी.
शानदार
अगर मैं इसे बोलती नहीं,
जवाब देंहटाएं16.मैं मर जाऊँगी निशब्द.
अगर व्यक्त करती हूँ,
तो यह मार देगा मुझे.
क्या -– आख़िर -– क्या करूँ मैं?
शानदार
अनुवाद एस्टोनियन से हैं या अंग्रेज़ी से?
जवाब देंहटाएंTeji Grover Tewari Shiv Kishore जी डोरिस के साथ बैठकर सम्पन्न हुए हैं। जाना तो अंग्रेज़ी के गलियारे से पड़ता है, लेकिन कई जगह जहाँ अंग्रेज़ी सत्व को थाम नहीं पाती, हिंदी मदद करती है। सूक्ष्मऔर सहृदय सिद्ध होती है अंग्रेज़ी की तुलना में। ऐसा अनुभव अन्य यूरपीय भाषाओं से हिंदी में अनुवाद करते समय भी हुआ। ख़ुशकिस्मती से अक्सर कवि के साथ लंबे समय तक काम करना सम्भव भी होता आया है। वे लोग भी अपने यहां खूब आते हैं। और समय निकालते हैं हमारे लिए।
जवाब देंहटाएंऐसा हिंदी से उन भाषाओं में अनुवाद की प्रक्रिया में भी होता आया है, अंग्रेज़ी अधिकांश भारतीय भाषाओं की कविता को ठस कर देती है, लेकिन अन्य भाषाओं में खिल उठती है। मुआमला मेरी समझ से परे है।
आप अनुभवी हैं । पूछने का उद्देश्य यह था कि मूल से अनुवाद हमेशा बेहतर होता है। अंग्रेज़ी बीच में आती है तो अपनी भाषिक संस्कृति जोड़ जाती है।
जवाब देंहटाएंआपने कवि से बात करके अनुवाद किया है यह भी विश्वास जगाता है।
Tewari Shiv Kishore इस बात से मैं सहमत नहीं कि मूल से अनुवाद हमेशा बेहतर होता है। रूसी साहित्य के बेहद क्लिष्ट और नीरस हिंदी अनुवाद अच्छी मिसाल हैं। हाल ही में एक ऐसी टीम ने 19सवीं सदी के रूसी साहित्य के अनुवाद किये हैं, जिनमें से एक को रूसी और दूसरे को अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान है। मैं लेखक के साथ लंबा समय बैठकर मूल भाषा न जानने की सीमा को लांघने की भरपूर कोशिश करती हूँ। नहीं तो मूल भाषा के जानकार के साथ अंग्रेज़ी का अक्षरशः मिलान करके ही काम शुरू करती हूँ
जवाब देंहटाएंकविताएं साधारण लगीं, माफ़ी चाहूँगा।
जवाब देंहटाएंअनुवाद में कसर रह गई होगी। डोरिस की कविता को तो दुनिया भर का प्यार मिला है। लेकिन कविता में हर पाठक की अपनी पगडण्डी है। ज़रूरी नहीं ये पगडंडिया एक दूसरे को काटें। पसन्द, नापसन्द की बात से अलग बात है। आपके अंतस को कैसी कविता की चाहना है, इस बात से फर्क पड़ता है। कोई ऐसा कवि भी आ जाता है आपके अनुभव की ज़द में कि आपकी चाहना को भी बदल देता है।
जवाब देंहटाएंहालाँकि मैंने मूल कविताएं तो नहीं पढ़ीं, पर ये कथित अनुवाद अपने में मौलिक रचना का रसास्वाद देता है और बहुत ख़ूबसूरत, मार्मिकता का एहसास भी कराता है। यह जरूर है कि हर कविता हर किसी के मर्म को एक ही तरह छुए यह न तो आवश्यक है, न संभव। वो कहते हैं न .. to each her own..!
जवाब देंहटाएंKuljeet Singh न ही वांछित। फिर मज़ा क्या रहेगा? किसी को नापसन्द होना भी लाज़मी है। आपको एक नई दृष्टि भी मिलती है काव्यसुख की।
जवाब देंहटाएंडोरिस की कविताओं का अनुवाद खरे साहिब ने किया था, लेकिन पाण्डुलिपि पर प्रकाशक बैठ गए। डोरिस ने मेरी कविताओं के अनुवाद भी किए हैं और समीक्षा भी।
जवाब देंहटाएंजी, जब डोरिस केरल आई थी तो दुखी थीं कि खरे ने ये अनुवाद सालो साल पहले किए थे, जब वे अनुवाद फैलोशिप के तहत एस्टोनिया गए थे, लेकिन एक नहीं दो बार दो पब्लिशर उस पर बैठ गए । हालांकि अशोक जी ने रज़ा में उन अनुवाद के साथ पाठ भी करवाया था । आप बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं, मैं आपको फालो कर रही हूँ, हिन्दी साहित्य को आपकी देन महत्वपूर्ण है।
मुझे पता है कि किस प्रकाशक के पास फाइनल कापी है, क्यों कि उसने खुद मुझसे कहा था, हाँ डोरिस नें हल्के शब्दों में यह भी कहा था कि खरे ने मुझ से ज्यादा संवाद नहीं किया। डोरिस के साथ समस्या यह है कि वे एस्टिनिया की उस काल की कवि हैं जब भाव और गीतात्कता हावी होती है, उनके शब्द यदि जस की तस रख दिए जाएं तो हमारे पाठकों को कमजोर लग सकते हैं। लेकिन वे बेहद जुझारू, और अन्तर्दृष्टि वाली कवयित्री है। आपने तो देखा ही होगा कि एस्टोनिया मे लयात्मकता गहरी पैठी है, मेरे फेस्ट में यहां के चार कवियों ने भाग लिया, वे बेहद भिन्न है, युवा कवि ज्यादा गूढ़ है, लेकिन डोरिस, जैसे कि वे कविता को थैरोपी के रूप में भी प्रयुक्त करती हैं, जेल ,अस्पताल आदि जाती हैं, तो भाषा बाहरी रूप से सहज लगती है, भाव भी जीवन से जुड़े होते हैं, वे शब्द या अर्थ चमत्कार को नहीं अपनाती, लेकिन जब वे खुद पाठ करती है, कविता बेहद मजबूत लगती है। यही उनकी खासियत है, लेकिन ऐसे कवियों का अनुवाद बेहद जटिल है, मुझे स्वयं अनुभव है कि मैं ओ एन वी की कविताओं को चाह कर भी नहीं अनूदित कर पाई, क्यों कि मैं वह गीतात्मकता नहीं ला सकती थी. आप दोनों अनुभवी हैं, तो हो सकता है कि आप कविता के भीतर तक पहुंच सकेंगी। अनुवाद कितना जटिल काम है, समझती हूँ, आप दोनों को साधुवाद देती हूँ।
रति जी, ऐसा नहीं हुआ। हम लोग डोरिस के साथ बहुत समय बिता चुके हैं और विष्णु जी के बड़े passionate अनुवाद पर भी। अगर विष्णु जी और डोरिस कुछ समय साथ साथ बैठ पाते तो हमें खुद भी विष्णु जी के अनुवाद स्वीकार्य होते। डोरिस की सोहबत में उस पांडुलिपी का संपादन करते समझ मे आया कि उन्हें इस कदर बदलना पड़ रहा था कि वे उनके अनुवाद न रहते। केवल कुछ ही कविताएँ ऐसी निकलीं जिन्हें बिना छुए छापा जा सकता है। काश वे लोग साथ बैठ पाते। लेकिन यह कहानी दुखद है। हमने इससे निकलने में बहुत वक़्त ज़ाया किया।
जवाब देंहटाएंऔर अब हमने सोचा कि रुस्तम और मैं नए सिरे से करेंगे। हालांकि सच कहूं तो मेरी इच्छा तो यही थी कि विष्णु जी के ही छपते। और यह नया काम हमें प्रेम से सम्पन्न करना है हालांकि कुछ readings के के लिए अरसे से हम डोरिस अनुवाद स्वतन्त्र रूप से करते आए हैं। अपने सभी कामों को रोक कर, खुद अपने लेखन को भी ज़रा पीछे हटा कर इस ऋण को चुकाना मैं अपना फर्ज मानती हूँ। यह हिंदी और estonia और डोरिस को रुस्तम और मेरा प्यार भरा उपहार होने जा रहा है। विष्णु जी की स्मृति इसमें शामिल है। एक बात और यात्रा हम अपनी जेब से ही करते हैं। विष्णु जी को सम्मानपूर्वक आमंत्रित किया जाता था।
राहत की बात है छपे नहीं। उन्हें इस्लाह के बिना छपना चाहिए भी नहीं था। डोरिस के साथ मिलान करने पर स्पष्ट हुआ इस बार। Thank you for your kind observation. We do look forward to more inputs from Doris.
एक बार तो रज़ा में रुस्तम और मैंने अपने और विष्णु जी के अनुवाद पढ़े थे। लेकिन उस समय हम मिलान नहीं कर पाए थे। अपने तो किये थे, उनके नहीं, यह मान कि वे फाइनल हैं
डोरिस और उनके देश ने इस प्रसंग में कष्ट भी कम नहीं सहे। किसी प्रकाशक के पास फाइनल पांडुलिपि थी ही नहीं।
Teji Grover Rati Saxena wise counsel... We're doing our best,at times going beyond it...Your insights are valuable
. Yes she is a challenging poet who is not miracle hungry. One has to strive hard to balance elements. We've never found texts that are so deceptively simple
Rupa Jh कभी कभी ये पूर्वाभ्यास हम सभी को करते रहने चाहिए ताकि एक तो कहीं हम अपनी संतोषजनक जिंदगी को taken for granted न समझने लगे. और दूसरा, ये पूर्वाभ्यास हमें इन लोगों के प्रति ज़रा संवेदनशील बना पाएगा जो सचमुच बूढ़े हैं, अकेले हैं, ग़रीब, बहिष्कृत, मुफ़लिस या अंधे हैं. हाँ, एक लाभ और होगा... हमें खुद को मिली नेमतों की क़द्र करना आ जाएगा
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