भाष्य : तोड़ती पत्थर (निराला) : शिव किशोर तिवारी




महाकवि निराला की प्रसिद्ध कविता ‘तोड़ती पत्थर’ के कई पाठ हुए (reading) हैं. दलित साहित्यकार कंवल भारती ने श्याम तन,भर बंधा यौवन’ को लेकर सवाल उठाये और इसे पुरुष की लोलुप दृष्टी से जोड़ा. आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने समालोचन में ही प्रकाशित अपने एक लेख में इस कविता को फिर से देखने की कोशिश की है जिसपर तमाम प्रश्न उठे.

शिव किशोर तिवारी ने इस कविता को फिर उलटा–पलटा है. देखिये यह पाठ कितना तार्किक, कितना सार्थक बन पड़ा है.  


तोड़ती पत्थर : कविता से होकर                                       
शिव किशोर तिवारी



पृष्ठभूमि :

'तोड़ती पत्थर' संभवत: 1935 में लिखी गई थी. तब तक प्रगतिवादी आंदोलन परवान नहीं चढ़ा था. फिर भी इस कविता की प्रगतिवादी व्याख्याएँ अधिक हुईं. यह बात नजरअंदाज कर दी गई कि इस तरह के शब्दचित्र निराला पहले भी गढ़ चुके थे- जैसे, 1923 में 'भिक्षुक'. किसी ने इस कविता में पराधीन भारत की व्यथा का स्पर्श देखा तो किसी ने निराला के व्यक्तिगत जीवन की निराशाओं की छाया देखी. हाल मे आलोचक कर्ण सिंह चौहान ने इस कविता की पुनर्व्याख्या का प्रस्ताव किया है. उनके सोच की दिशा इस उद्धरण से समझ में आ जायेगी --
" कमकर मज़दूर ही नहीं स्त्री दृश्य में है, इसलिए गाहे बगाहे उसका श्याम तन, सुघर कंपन, भर बँधा यौवन भी दिख जाता है, जो इस आकर्षण को और बढ़ा देता है. इस तरह सौंदर्यशास्त्र का सौंदर्य पक्ष पूरा हुआ. इसके बाद कवि ने 'लांग व्यू' से दृश्य में शहर की अट्टालिका को भी ले लिया और उस पर गुरु हथौड़ा चला दिया. इससे वर्ग-संघर्ष का प्रतिफलन संपन्न होकर प्रगतिशील विचार और प्रतिबद्धता संपन्न हुए....अब यह जानने की परवाह किसे है कि वह कमकर स्त्री उस दौरान क्या सोच रही थी. "

एक बात व्याख्याओं में अभिन्न है - कविता के शब्दों से गुज़रने की कोशिश किसी ने नहीं की, या की तो दिखता नहीं है. दिखता कुछ ऐसा है - 'प्रगतिशील कविता है तो उसके ये मायने होते हैं', या 'शब्दचित्र है तो इसे छायावादी काव्य का विस्तार मान लेते हैं' या ' चलो, निराला -जो वस्तुत: प्रतिगामी ब्राह्मण था - का मूर्तिभंजन करते हैं'.
जब कविता लिखी गई थी तब निराला संभवत: लखनऊ में रह रहे थे. कोई चाहे तो इस बात पर भी शोध कर सकता है कि लखनऊ छोड़कर इलाहाबाद के पथ पर क्यों. मैं तो मानकर चल रहा हूँ कि सचमुच इलाहाबाद की किसी सड़क के किनारे पत्थर तोड़कर गिट्टी बनाती मज़दूर औरत को देखा होगा. फिर भी कवि को सीधे दर्शक/वक्ता न बनाकर मैं एक काव्यात्मक वक्ता की कल्पना कर रहा हूँ जिसका अपना व्यक्तित्व भी कविता में ध्वनित हुआ है .

कविता :
'तोड़ती पत्थर' निराला की हस्तलिपि में नेट पर दिखी तो मैंने इस विवेचना के लिए उसी पाठ को ग्रहण कर लिया --

वह तोड़ती पत्थर!--
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर --
वह तोड़ती पत्थर.

कोई न छायादार
पेड़ वह, जिसके तले बैठी हुई, स्वीकार,
श्याम तन, भर बँधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्मरत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ, करती बार बार प्रहार:-
सामने तरुमालिका अट्टालिका, प्राकार.
चढ़ रही थी धूप,
गर्मियों के दिन, दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू,
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गईं,
प्राय: हुई दोपहर :-----
वह तोड़ती पत्थर.

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा छिन्नतार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार
एक क्षण के हाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा -
मैं तोड़ती पत्थर.
(आभार: bharatdarshan.co.nz)


वक्ता :
स्पष्ट है कि वक्ता स्मृति से बोल रहा है. स्मृति पर सबसे गहरी छाप शायद कविता के चरम बिंदु की होगी
देखा मुझे इस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार

बाकी सब या तो पृष्ठभूमि है या ´डिटेल´. इसलिए शब्दचित्र कविता की केंद्रीय मंशा नहीं है. वक्ता एक भावुक व्यक्ति है जिसे उस मजदूर औरत की भावशून्य दृष्टि ने झकझोर दिया जड़ हो चुकी एक मानवी की दृष्टि. यहाँ तक कोई दुबिधा नहीं है. पर इसके ठीक बाद वक्ता जब अपनी प्रतिक्रिया को शब्द देता है तो सजा सहज सितारसे शुरू करता है. ऐसे नाटकीय मुहूर्त में वक्ता असहज नहीं होता. बल्कि उसे सहज अनुभूति होती है - जैसे कोई सितार कस-कसाकर वादन के लिए तैयार हो. यद्यपि इस सहज सितार से जो ध्वनि उसे सुनाई देती है वह अश्रुतपूर्व है, तथापि "डिसकार्डेंस" का कोई संकेत नहीं है.
कुछ पंक्तियों पहले छिन्नतारमें किसी तंत्रवाद्य के टूटे तार की व्यंजना आ चुकी है. उसी क्रम में वक्ता की सितार की उत्प्रेक्षा टूटे सितार की, बेसुरे वाद्य की या विवादी स्वरों की होती तो एक संगति रहती. किसी प्रेम कविता के नाटकीय क्षण में सहज सितार सजे तो समझ में आता है. यहाँ असंगत लगता है, अंतर्विरोध की सृष्टि करता है और अनुभूति की प्रामाणिकता के विषय में संदेह उत्पन्न करता है. वक्ता एक आत्मकेंद्रित सा व्यक्ति लगता है जो अपने जबर्दस्त अनुभव को अपनी विशिष्ट या परिचित भाषा की सीमा में ही ग्रहण या व्यक्त कर पाता है.या वह एक रोमैंटिक है जो कठोर यथार्थ पर कल्पना का रंग चढ़ा रहा है. वैसे उसकी नजर चित्रकार की है. दृश्य के मुख्य डिटेल सहज ही ग्रहण कर लेता है पेड़ जिसके नीचे ठीकेदार ने पत्थर डाल रखे हैं, विना इस बात की परवाह किए कि वह पेड़ छायादार है या नहीं, एक जवान सुगठ मेहनती औरत, एक कोठी चारदीवारी और बागीचा (असादृश्य),मौसम, हवा में उड़ते धूल के कण और मजदूर औरत की चेष्टाएँ. अपने बारे में वक्ता कुछ नहीं कहता, सिवा अंत में अपनी मानसिक प्रतिक्रिया को दर्ज करने के. अपने बारे में कुछ न लिखकर अंत में सारे व्यापार को स्वकेंद्रित कर देना, वस्तुनिष्ठा का अनूठा प्रदर्शन करते हुए सहसा कल्पना की दुनिया में गुम हो जाना वक्ता के व्यक्तित्व में स्पष्ट अंतर्विरोध हैं.

शब्दचित्र :
शब्दचित्र के तीन भाग हैं. आरंभ में बिना छाँव के पेड़ के नीचे बैठी, पत्थर तोड़ती जवान औरत है. पेड़ का चुनाव उसका नहीं है, पत्थर ठेकेदार ने वही गिराए हैं. वह अपनी स्थिति को बिना सवाल स्वीकार कर चुकी है. नजरें झुकाए अपने कठोर कर्म में लगी है. श्याम तन भर बंधा यौवन खलना नहीं चाहिए. वक्ता ने भरी पूरी जवान औरत देखी तो केवल गरीब-मजलूम की भावमूर्ति के नाम पर दुबली, हड़ियल या अधेड़ औरत को क्यों लाये? यह प्रकृतिवादी साहित्यिक दुराग्रह पर यथार्थ की विजय है. स्वीकारका प्रयोग भी चामत्कारिक है. परन्तु प्रिय-कर्मरत मनकी क्या संगति है? ‘स्वीकारऔर प्रियमें अन्तर्विरोध है. प्रिय-कर्मरत मनचित्र के इस भाग में चिपकाया सा लगता है. वस्तुनिष्ठ शब्दचित्र में वक्ता के रोमांटिक मन का हस्तक्षेप हुआ है. यहीं विना किसी भूमिका के सड़क के दूसरी और खड़ी एक बागीचे और चारदीवारी से लैस कोठी आ जाती है. मुझे लगता है यह कोठी सड़क बनाने वाले ठेकेदार की है. यह कोठी चित्र में असादृश्य की भूमिका में आती है. गुरु हथौड़े के प्रहार के साथ उसका सन्निधान कहीं यह भी इंगित करता है कि हमारी नायिका के अन्दर कोठी वाले या उस जैसों के प्रति आक्रोश बहुत गहरे दबा है शायद.

चित्र के दूसरे भाग में ग्रीष्म ऋतु की चढ़ती बेला, लगभग दोपहर की धूप और धूल का चित्रण है. यह अंश बड़ा प्रभावी है. गर्द की चिनगारियाँ अद्भुत प्रयोग है. और अंत में तथ्यपरक, निर्विकार आवृति- वह तोड़ती पत्थर. तीसरा भाग मनोवैज्ञानिक है. औरत को एहसास होता है कि वक्ता उसकी और देख रहा है. थोड़ी देर के लिए वह अपना काम रोक कर (छिन्नतार”) कोठी की और देखती है. वहां कोई नहीं दीखता तो वक्ता की और देखती है.. मै कल्पना कर रहा हूँ कि कोठी ठेकेदार की है. औरत आश्वस्त हो लेती है कि कोई देख तो नहीं रहा है कि उसने काम थोड़ी देर के लिए रोक दिया. उसके बाद वह वक्ता की ओर देखती है. उसकी आँखे भावशून्य है मार खा कर न रोने वाली ऑंखें. पर मार खाने की पीड़ा और खा कर न रोने का निश्चय, इन सबके चिह्न तो उस दृष्टि में होंगे. बहुत गहरे दबा कोई अमर्ष, कोई आक्रोश जरूर होगा जो हथौड़े की मार में प्रकट हो रहा है.

वक्ता को एक नजर देखकर औरत फिर काम में लग जाती है. पर इसके पहले एक क्षण के लिए काँपती है. क्यों? मौसम की विभीषिका से? भावशून्य ह्रदय में एक आन्दोलन होने के कारण? (आन्दोलन के लिए एक दर्शक की उपस्थिति काफी है) लेकिन क्षणिक है यह आन्दोलन. वह फिर अपने काम में लग जाती है, मानो कह रही हो – “मै तोड़ती पत्थर. यही उसका परिचय है, वक्ता के शब्दों में, ‘वह तोड़ती पत्थर’, जो शायद उसे भी स्वीकार है (या यह भी वक्ता की कल्पना है?). यहाँ एक बार फिर अंतर्विरोध से सामना होता है जब हम सहसा सुघरशब्द से सम्मुखीन होते है. औरत का क्षणिक कम्पन वक्ता को सुघड़ लगता है. यह सौंदर्य कहाँ से आया? वस्तुस्थिति में तो दोपहर की धूप है, शायद कोठी के अन्दर से किसी की निगरानी है, पत्थर तोड़ने का विकट काम है, अनिश्चित भविष्य है. काँपना भी भय, चिंता, विकलता इत्यादि के कारण हुआ होगा. वक्ता को इसमे सौंदर्य दिखा तो कहा जा सकता है कि यथार्थ के अन्दर रोमांस का बेमेल हो गया. परन्तु मै इसे अंतर्विरोध कह कर संतुष्ट रहना चाहूँगा.

कथ्य :
केवल शब्दचित्र नहीं है यह हम कोठी और हथौड़े के सन्निधान में देख चुके है. लेकिन पूरी कविता में कोई एक कथ्य है क्या? या कथ्यों की एक श्रृंखला? कविता के शब्दों पर ही दृष्टि केन्द्रित रखें तो एक कथ्य-श्रृंखला दिखती है. पहले तो पाँचवीं पंक्ति का स्वीकार” – विरोध, विद्रोह या प्रतिकार की कविता नहीं है यह. कविता की नायिका की प्रतिक्रिया स्वीकारहै जिसे वक्ता तद्वत् ग्रहण करता है. थोड़ी देर बाद हथौड़े के प्रहार और अट्टालिका के सन्निधान में विरोध की एक झलकी मिलती है. सूनी, भावहीन आँखों में भी दबे हुए आक्रोश का इंगित मिलता है. ये दो चित्र स्वीकारके साथ एक अंतर्विरोध की सृष्टि करते है.
भीषण गर्मी में लगभग दोपहर के समय अपर्याप्त छाया में पत्थर तोड़ना श्रम के शोषण और दुर्गति का चित्र प्रस्तुत करता है. इसके विपरीत प्रिय-कर्मरत मन’, ‘श्याम तन भर बंधा यौवन’, ‘ ढुलक माथे से गिरे सीकरऔर सुघरएक विरोधी चित्र- श्रम के सौंदर्य का चित्र- प्रस्तुत करते है.
सजा सहज सितार...झंकारके कथ्य का उद्घाटन भी आवश्यक है. हमारी नायिका के एक दृष्टिपात से द्रष्टा/वक्ता के मन में सितार की एक कभी न सुनी झंकार सी बजी. क्या किसी स्तर पर वक्ता मजदूर औरत से एकात्मता अनुभव कर रहा है? संभव है. परन्तु सजा सहज सितारऔर सुघरद्रष्टा और दृश्य के बीच एक दूरी सी बनाते हैं.एक ओर एकात्मता की अनुभूति के बिना इस पूरे टुकडे़ का मूल्य घटता है; दूसरी ओर कविता का आतंरिक साक्ष्य इसकी पुष्टि नहीं करता. कविता के अनेक अंतर्विरोधों में यह भी है.

शिल्प :
कविता छंदोबद्ध है और तुक का निर्वाह किया गया है. वर्णनात्मक पंक्तियाँ अपेक्षाकृत लम्बी हैं, जैसे गर्मियों के दिन दिवा का तमतमाता रूप. तीव्रता या कर्म-द्योतक पंक्तियाँ छोटी हैं, जैसे- वह तोड़ती पत्थर, उठी झुलसाती हुई लू / रुई ज्यों जलती हुई भू/ गर्द चिनगीं छा गईं. निराला सचेत कलाकार थे और संगीतज्ञ थे. उनकी अन्य कई कविताओं की तरह यहाँ भी प्रवाह, लय और यति का प्रयोग किया गया है. सामने तरुमालिका अट्टालिका प्राकारपंक्ति के बाद यति का प्रयोग बड़ी कुशलता से कथा को प्रतीक की दुनिया से स्थूल वर्तमान में ले आता है- चढ़ रही थी धूप. इसी तरह कविता का अंतिम चित्र एक यति के बाद शुरू होता है जो नाटक में नए दृश्य पर परदा उठाने जैसा है.
प्रतीक के नाम पर कोठी और उसकी चहारदीवारी मात्र हैं जो विषमता और अन्याय के प्रतीक हैं. पर हैं ये ठस. हथौड़े के प्रहार के साथ काकतालीय न्याय न बनाएँ तो अधर में लटके हैं. मेरा सुझाव है कि इसे ठेकेदार का घर मान लिया जाए. इससे नायिका का पहले कोठी की और देखना, फिर वक्ता के ऊपर दृष्टिपात करना संगत और अर्थवान हो जाता है. कोठी भी कविता की कथा में स्वाभाविक रूप से जुड़ जाती है. साथ ही अपनी प्रतीकात्मकता बरकरार रखती है.
बिम्बों की बात पहले ही बहुत कुछ हो चुकी है. कविता में कई परस्पर विरोधी बिम्ब प्रयुक्त हुए है. बिम्बों में समरसता का अभाव इस कविता का सबसे महत्वपूर्ण अंग है. बिम्बात्मक अंतर्विरोधों की धुंध वस्तु-सत्य और वक्ता के व्यक्तित्व के बीच की खाई से उठी है.

सार :

कोई निष्कर्ष संभव नहीं है.तोड़ती पत्थरअंतर्विरोधों की कविता है. यह जितनी नायिका मजदूर औरत के बारे में है उतनी ही वक्ता के बारे में और सबसे अधिक शायद दोनों के बीच की खाई के बारे में है. कविता की जटिलताअस्पष्टता और आकर्षण इस खाई के कारण है. अगर आप उन लोगों में हैं जिन्हें यह खाई हर हाल में नाजायज या अनुपयुक्त लगती है, तो यह कविता आपके लिए नहीं है.
________________
शिव किशोर तिवारी
(१६ अप्रैल १९४७)
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए.
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.

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  1. कविता की ऐसी 'क्लोज़ रीडिंग' मुझे सुहाती है. लेकिन भव्य अट्टालिका को ठेकेदार की कोठी मान लेना कविता में आलोचक की कल्पनाप्रवणता की दिलचस्प किंतु अनावश्यक घुसपैठ है. कविता के अंतर्विरोधों को बेहतरीन ढंग से खोला गया है. इस पाठ के लिए तिवारी जी और आपको साधुवाद.

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  2. कल्बे कबीर23 जुल॰ 2016, 10:03:00 am

    Tewari Shiv Kishore जी को आलोचना का कार्य गम्भीरता से करना चाहिए । उनकी साहित्य दृष्टि और अध्ययन दुर्लभ है ।

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  3. 'तोड़ती पत्थर' कविता के विखंडन की यह भी एक आकर्षक कोशिश है, जैसी कर्ण सिंह जी की थी । लेकिन इस पद्धति की सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि यह रचना में आए स्मृति चित्र के उपादानों से ही पूरी रचनाशीलता को व्याख्यायित करते हुए रचनाकार की संगति-असंगति की खोज करना चाहती है । मस्तिष्क में उभरे एक चित्र से ही यदि रचनाएँ बनने लगती तो फिर रचना की व्याख्या के लिये उपमाओं-रूपकों के असंख्य रूपों के वर्गीकरण पर टिके अलंकारशास्त्र का कोई मायने ही नहीं रह जाता । तिवारी जी जीवनानंद दास से परिचित है । उनकी नाटोर की वनलता सेन कौन थी, कैसी थी इस पर चर्चा के अलावा उसमें आए 'हरी घास के देश' को बांग्ला में लोगों ने उनके बारीशाल के घर के सामने के मैदान में देखा हैं । लेकिन कविता में वह स्मृतिचित्र पूरी तरह से रूपांतरित होकर आता है, कवि के अपने मानस के ज़रिये । अन्यथा कोई रचना रचना बन ही नहीं सकती है । एक चित्रांकन के बीच से लेखक का अपने विषय के साथ जो नया तदाकार उत्पन्न होता है, वही रचना को गति देता है । तिवारी जी ने टिप्पणी के अंत में कविता के आकर्षण के स्रोत के रूप में जिस खाई की बात की है, वही सबसे महत्वपूर्ण है । और इसी खाई में रचनाकार बैठा होता है । मुझे लगता है, कर्ण ने उसी के ज़रिये रचनाकार के व्यक्तित्व के तंतुओं को पहचानने की एक कोशिश की थी ।

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  4. ( १५ जुलाई को शिवकिशोर जी की टाइमलाइन पर और “बुक्स एंड नोट्स” में जब यह समीक्षा आई तो उस पर की टिप्पणी यहाँ दअन्य से साझा कर रहा हूँ ।)
    शिवकिशोर जी,
    कविता की आपकी व्याख्या और विश्लेषण को दो बार पढ़ गया । कविता के आंतरिक साक्ष्यों और प्रमाणों के आधार पर ऐसी वस्तुनिष्ठ समीक्षा के लिए पहले तो आपको धन्यवाद और बधाई ।
    यह अफसोस की बात है कि हिंदी में अधिकांश समीक्षा वैचारिक आग्रहों-दुराग्रहों या भावनात्मक आवेगों पर टिकी है । यह सुगम और भेड़ियाधसान वाला रास्ता है और हिंदी में समीक्षा के नाम पर यही चला । इसीलिए व्याख्या में बड़ा काम नहीं हुआ । रचना में पैठ कर उसके आंतरिक साक्ष्यों की पड़ताल एक जटिल काम है जिसमें भाषा-रचना-संघटन की समझ और तमीज जरूरी है । इसकी कुछ शुरूआत हमारे मित्र भाषाविज्ञानी रवींद्रनाथ श्रीवास्तव जी ने की थी और कुछ लोगों ने उसे आगे बढ़ाया भी । अंग्रेजी से जुड़े कई लोग अभी भी संरचनात्मक पद्धतियों को ले हिंदी की कविताओं पर लिखते हैं । पर हिंदी में वैचारिक आग्रहों की प्रबलता ने उसे व्याख्या-विश्लेषण की मुख्यधारा नहीं बनने दिया ।
    आपने तो देखा ही कि यहां लीक से जरा हटने पर बवाल हो जाता है । फिर भी रचना की शक्ति और उसके आंतरिक प्रमाणों के बल पर हिंदी समीक्षा आगे बढ़े, इससे अधिक सार्थक बात क्या हो सकती है ।

    इसमें इतना और जोड़ना है कि मेरा अभिभाषण निराला की कविता के व्याख्या-विश्लेषण पर केंद्रित नहीं था, वैसा करना उसका मकसद भी नहीं था । यह प्रसंग पद्धति के दृष्टांत के रूप में आया कि समीक्षा की जड़ता टूटे और रचना को देखने के नए द्वार खुलें । उसी में कुछ व्याख्या-विश्लेषण की बानगियां आईं । खुशी की बात यही है कि इस पर खुलकर बहस हो रही है और व्याख्या-विश्लेषण के नए गंभीर प्रयास सामने आ रहे हैं । उनमें आपका प्रयास स्तुत्य है । आगे और भी महत्वपूर्ण कविताओं और अन्य विधाओं की महत्वपूर्ण रचनाओं पर ऐसा सिलसिला जारी रहे, इससे अधिक कामना एक साहित्यिक की क्या हो सकती है !

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  5. इस कविता की इतनी बारीकी से अध्ययन करवाने के लिए सभी का हार्दिक आभार!

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  6. : इस, साहित्य के आंतरिक साक्ष्यों पर टिकी हुई पद्धति की अपनी कुछ बड़ी कठिनाइयाँ हैं । जैसे कोई सिर्फ खुद पर केंद्रित रह कर आत्म सचेत नहीं हो सकता है, क्योंकि वह यही नहीं जान पाता है कि उसे किस पर केंद्रित होना है । आत्म- सचेत होना और अन्य चीज़ों के प्रति जागरूक होना दो अलग-अलग चीज़ें नहीं हैं । जो आपसे बाहर है, उसे ही आयत्त करके आप आत्म-सचेत हो सकते हैं । साहित्य की आत्म-सचेतनता पर भी यही बात लागू होती है और उसके विश्लेषण की भी वही पद्धति रचना के अर्थों को खोलने में कारगर होती है जो उसके अंतर-साक्ष्यों तक सीमित नहीं रहती है ।

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  7. अपने प्रिय मित्र अरुण जी के तर्क से मै पूरी तरह समत हूँ जो उन्होंने बड़े साहस से अपने तर्क देकर "तोडती पत्थर " कविता को समझने के लिए एक वस्तुगत और द्वंद्वात्मक धरातल दिया है /

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  8. Arun Maheshwari जाहिर है कि यह एकमात्र पद्धति नहीं है लेकिन किसी भी विश्लेषण के लिए आधारभूत है । इसके बिना तो बात हवाई होगी । ऐसे प्रयासों की अधिकाधिक आवश्यकता है जो रचना पर ध्यान केंद्रित करें । बाकी मूल्य-निर्णय और अन्य फैसले बाद में होते ही रहेंगे ।

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  9. : Karan Singh Chauhan बिल्कुल सही कह रहे हैं आप । वस्तु को जाने बिना कैसा विश्लेषण ! धातु की पहचान के बिना उसकी गति पर क्या कोई चर्चा हो सकती है ?

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  10. मुझे लगता है इन दिनों हिंदी समीक्षा में " संरचनावाद " को बड़ी चतुराई से फिर से लाने की कोशिश की जा रही है / पूर्णत: मुक्त चिंतन और नयेपन की आड़ में एक वैचारिक अराजकता का वातावरण बनता जा रहा है. यहंतक कि सामाजिकऔर जीवन मूल्यों को नकार दिया गया है.
    यह माना कि रचना के विश्लेषण के लिए कोई ok एकमात्र approach नहींहो सकती. पर यह कहना कि सिर्फ रचना पर ही ध्यान केन्द्रित हो शेष बातें बाद में होती रहेंगी. जैसे कि रचना आसमान से टपकती है ऐसा कभी नहीं होता कि हम चीजों को टुकड़ों में समझें. रचना के साथ ही हम उसके सामाजिक, सांस्कृतिक और रचनात्मक महत्व को भी जानना चाहते है . आज सिद्धांतों , आस्थाओं और विश्वासों को भी "अन्धविश्वास" कहा जा रहा है. मुझे लगता है हिंदी के समीक्षक इस नयेपन की होड़ में रीतिकाल को जनजागरण वाले भक्ति काल से श्रेष्ठ बताने लगेंगे. क्योंकि जनजागरण काल कहते कहते बहुत दिन हो गए. अब नए सिरे सोचें और रीतिकाल को श्रेष्ठ कहना शुरू करें/ हम बड़े से बड़े कवि की कविता पर प्रश्न उठा सकते है . पर निराला जैसे युगांतरकारी कवि की नियत पर तो शक न करें/ कि वे "तोडती पत्थर " कविता में निराला saddist जैसे लगते है और एक मजूरिन को बिकाऊ मॉल की तरह इस्तेमाल कर रहे है. यहतो किसी ने नहींकहा कि निराला छायावाद में एक चुनोती पेश कररहे थे. कविता को आम आदमी के बीच और उसके बारे में लाने कि कोशिश कररहे थे. ^कुकुरमुत्ता ^ और ^नए पत्ते ^ प्रमाण है / अगर दुखी जनपर लिखना saddist होना है फिर तो हमारा सारा साहित्य ही संपन्न लोगों के ऊपर ही रचा जायेगा. क्योंकि कवि सिर्फ पोपुलर होने को ही दुखी जीवन चुनता है . इस अर्थ में तो Shakespear की महान त्रासदियाँ कचरे का ढेर साबित होंगी. क्योंकि वहां तो दुःख और विनाश के सिवा और कुछ है ही नहीं/ काश हम विश्व के महान साहित्य को ध्यानमें रख के अपनी बात कहते.

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  11. : Vijendra K जी की बात स्पष्ट समझनी होगी क्योंकि मुझे सचमुच मालूम नहीं है। संरचनावाद कौन सा है - structuralism, deconstruction या तीसरा ही कुछ? इसे हिंदी में चोरी से क्यों लाना पड़ा?

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  12. Vijendra Kriti : क्योंकि संरचनावाद कथ्य को गौण मानकर उसे नकारता है. जो रूपवादी है वे इसे कथ्य को छिपाने के लिए काम में लेते है. पर अब वे कथ्य को नहीं नकार पा रहे है. एक समय था जब इन विदेशी मुहावरों को ढोते ढोते हम गर्व का अनुभव करते थे. अब तो इनकी धूम वहांभी ख़त्म हो गई. हमें अपने काव्यशास्त्र से नए औजार विकसित क्यों नहीं करना चाहिए. . मुझे आप बताएं कि विश्व के किस काव्य शास्त्री ने कहा कि कविता का काम " शिवेतर क्षतये " भी है अर्थात वह एक अस्त्र भी है. मम्मट के आलावा आनंदवर्धन ने और भी अनेक ऐसी बाते कही है जो आज तक यूरुप में नहीं कही गई. दुसरे हम बिना अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझे ही वहां के नियम अपनीरचनाओंपर लागू करते रहे . जैसे नामवरसिंह की कृति , कविता के नए प्रतिमान" में सारा कुछ तो अमरीकी नईआलोचना का ही है. हिंदी में structuralism संरचना वादहै. Deconstruction के लिए हमने विखंडनवाद चलाया था. पर उसका हश्र किया हुआ. हिंदी समीक्षा उससे कितनी समृद्ध हुई. देखना यह है. हमने शुक्ल जी और रामविलासशर्मा की परम्परा को विकसित करने की कोशिश क्यों नहीं की / मुझेऐसा लगता रहा है कि आज के अधिसंख्य हिंदी समीक्षक अपनी आचार्य परम्परा से परिचित ही नहीं है. यही कारण है उनकी समीक्षा में शक्ति दिखाई नहीं देती, दूसरे, हिंदी में नए सौंदर्यशास्त्र पर काम ही नहीं हुआ. कोई भी समीक्षा बिना सौंदर्यशास्त्र को समाहित किये न तो गहन होगी न उस में गहराई आयेगी. हम देख ही रहे है आज चर्चा उन बुनियादी बातों की नहीं है जिन से लेखक को प्रकाश और दिशा मिल सके. बल्कि समीक्षा का स्तर पाठ्यपुस्तक समीक्षा तक सिमट कर रह गया है. आज कल की चर्चा से यह बात और अधिक पुष्ट होती है कि " तोडती पत्थर " कविता का कितना हास्यास्पद विश्लेषण किया गयाहै. हम न तो सिद्धांत मानने को तैयार है न ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में रचना समझने को आगे --- खुदा हाफिज !

    कहा गया है कि हम कविता पूर्वग्रह मुक्त होकर देखें/ अर्थात रचना में जो जैसा है उसे स्वीकारें . अपनी तरफ से कुछ न कहें! तो फिर आलोचना का रचनाकार धर्म क्या है. एक उत्कृष्ट और घटिया कविता में अंतर कैसे स्पष्ट होगा. ध्यान रहे कोई भी कविता बिना गहन चिंतन के वैश्विक नहीं हो सकती . जबकि आज उसे चिंतन से मुक्त करने की बात की जा रही है. विश्व की कोई भी महान रचना चिंतन विहीन नहीं है. कोई भी सजग कवि अपनी मान्यताओं , विचारों , विश्वासों और आस्थाओं से मुक्त होकर कोई भी साहित्य नहीं पढता. यह जरुरी नहीं कि वह अपनी मान्यताओं को कविता परखते वक्त कविता पर थोपे. पर हर रचनाकार का अपना एक stand होता है. होना चाहिए. हरसमाज को कवि से पूछने का हक़ है कि वह किस के लिए लिख रहाहै / उत्पीड्कों के पक्षमें या उत्पीडित के पक्ष में . वर्ग समाज में हर कवि को वर्ग चेतन होना पड़ता है. जो वर्ग चेतन नहीं उसका लेखनअराजक और बेअसर होता है. इन दिनों जो चर्च हो रही है वह वेर्गचेतना क निषेध है. यानि साहित्य को जनता से अलग करना और यही कारण है कि हम सिर्फ मुक्त चिंतन और नयेपन की बात करते है . निरा नया कुछनहीं होता , और न निरा मुक्त चिंतन संभवहै. ये दोनों relative terms है. हम परम्परा से बहुत सा लेते है. तो सब नया क्या हुआ. हमारे अपने विचार और अवधारणयें होतीहै तो विचार मुक्त कहाँ हुए. क्या हमें विचार शून्य कर हमें पशुओं कि श्रेणी में धकेला जारहाहै.

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  13. जी, आप बुज़ुर्ग, विद्वान हैं। मैं साहित्यिक भी नहीं हूँ। आपकी बात सर माथे। पर १) मैंने structuralism से कुछ नहीं लिया और २) मैंने 'तोड़ती पत्थर' को श्रेष्ठ कविता मान कर ही उसका विश्लेषण किया है। मेरा आग्रह है कि एक बार और मेरी टिप्पणी को पढ़ें। जिन अंतर्विरोधों की मैंने चर्चा की है, वे वक्ता (कवि नहीं) और वस्तु के बीच प्रकट होकर कविता को गहराई देते हैं। निराला के छिटफुट आलोचनात्मक निबंध आपने देखे होंगे (जैसे ' चाबुक' में संगृहीत टिप्पणियाँ)। वे कविकर्म के बारे में बड़े होशियार थे। उन्हें भक्तों की पसंद की चिंता होती तो तोड़ती पत्थर को आसानी से सायास इकहरे यथार्थ की कविता बना देते। पर उन्होंने वह लिखा जो अभिव्यक्ति के मार्मिक क्षण में कवि-चित्त में उभरा। उसमें वे आभ्यंतर और बाह्य विसंगतियाँ भी शामिल थीं जो इस क्षण में कवि के दर्शक/वक्ता persona की संवेदना में शामिल थीं।

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  14. शिव किशोर जी,
    [ आशा ही की जा सकती है कि शाश्वत सत्यों के मंत्रोच्चार का हजारवाँ आयोजन समाप्त हो चुका होगा और आपकी व्याख्या के मूल विषय पर बातचीत की जा सकती है ]
    सबसे पहले बहस के शुरू में ही आशुतोष ने जो चिंता जताई थी “तरु मालिका, अट्टालिका, प्राकार” जैसे काव्यात्मक औदात्य को ठीकेदार की बगीचे और चारदीवारी से लैस कोठी के रूप में लेने के पीछे क्या कोई विशेष कारण है या यह महज मूर्तन के लिए किया गया है । इसलिए भी कि यह मूर्तन व्याख्या में कई स्थानों पर है ।
    दूसरे, दर्शक, वक्ता और कवि में आपने काफी दूरी बनाई है । व्याख्या के लिए तो ठीक लेकिन सामान्य साहित्य विश्लेषण के संदर्भ में इसे कैसे देखें ।
    तीसरा सवाल रचनाकार के विचारों, मान्यताओं, उनके रचनात्मक प्रतिफलन में प्रकट उसकी शक्ति और सीमाओं से जुड़ा है । सवाल को और सीमित कर कहें तो रचना के आंतरिक साक्ष्यों से कवि के विचारों और मान्यताओं का जो खाका बनता है उस पर । उसकी रचना में क्या सकारात्मक-नकारात्मक भूमिका है । आपने रचना के अंदर उपस्थित अंतर्विरोधों की बात की है, क्या ये उस दर्शक या कवि के वैचारिक अंतर्विरोधों का अक्श हैं ।
    जाहिर है कि साहित्य के सवालों के दो-टूक और अंतिम जवाब नहीं होते । फिर भी व्याख्या में निहित इन बिंदुओं पर बात करने से कविता की समझ में विस्तार होगा ।

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  15. इतना तो स्पष्ट है कि विचारधारा, वैचारिकी या अस्मिता से जुड़ा कोई भी नया विमर्श (यहां साहित्य तक ही सीमित रहें तो) पूरी साहित्य परंपरा को अपने आग्रहों-दुराग्रहों और अपने समय के हिसाब से पुनःपरिभाषित करेगा । इसमें अधिकांश के या असहमत के अस्वीकार का खतरा है ही – पहले सर्वहारा, बाद में स्त्री, दलित और आदिवासी विमर्शों में यह साफ दिखाई देता है । आप जिस निर्द्वंद रूप में इस प्रश्न पर राय दे रहे हैं, तार्किक होते हुए भी वह कितनी ग्रहणीय होगी !

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  16. महाकवि निराला की कविता 'तोडती पत्थर 'श्रमिक समाज की सहज मानवीय संवेदना की सफल प्रस्तुति है |कवि ने कविता के केंद्र में एक भारतीय नारी की यथास्थिति का काव्यात्मक निर्वाह किया है |समय समाज और प्रतिकूल परिस्थितियां उस श्रमिक महिला के दायरे से बाहर है |उसका चित्त तो 'नत नयन ,प्रिय कर्म रत मन 'से भटकता ही नहीं है |कौन देखता है और कोई क्या सोचता है ,यह उस श्रमिक महिला के लिए कोई अर्थ नहीं रखता |अपनी आजीविका के प्रति समर्पण और निष्ठां उसका शील है |कवि ने एक भारतीय नारी को ही नहीं सम्पूर्ण भारतीयता के संघर्ष की इस कविता में चरित्र गाथा का स्वरुप और सौन्दर्य तत्त्व का आत्यंतिक विश्लेषण कर दिया है |प्रमाण है -'श्याम तन ,भर बंधा यौवन '|कविता का प्रारंभ जितना सगुण दिखाई पड़ता है उसका क्रमशः विकास निर्गुण रूप में सम्पूर्ण भारतीय चेतना के शील सौन्दर्य और समर्पण से परिपूर्ण होता है |यह निराला की विलक्षण कविताओं में एक है जिसकी व्याख्या भी अशेष ही है |

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  17. 1. अट्टालिका पर कोई आग्रह नहीं है पर ऊहा के कारण थे। यह पंक्ति एकाएक प्रकट होती है। इसका अर्थ यही हो सकता है कि यह juxtaposition वक्ता का है और काकतालीय है। सिमबलिज्म हो तो स्वीकार और प्रिय कर्म रत मन के बाद बहुत समीचीन नहीं है। मैंने कल्पना की है कि स्वीकार के विपरीत मजदूर में असंतोष भी है। पुन: एक व्यक्ति के प्रति असंतोष जिसका सामान्यीकरण हो गया हो मजदूर स्त्री के लिए स्वाभाविक लग रहा है, न कि वर्ग चेतना। दूसरे, मजदूर वक्ता को देखने के पहले कोठी की ओर देखती है। यह स्वाभाविक क्रिया है। वक्ता की ओर देखने से पहले कहीं और नजर फेरना स्वाभाविक संकोच हो सकता है। पर यह क्यों कहा कि कोठी में कोई न दिखा तो वक्ता की ओर नजर फेरी? मुझे यह ऊहा प्रिय लगी कि कोठी से मजदूर का संबंध है। पर, जैसा मैंने कहा, आग्रह नहीं है।
    2. वक्ता और कवि/कवि और पोएटिक परसोना का अंतर करना पाश्चात्य आलोचना में स्वीकृत पद्धति है। इसके लाभ हैं। जैसे इस कविता में दृश्य को experience करने वाला सूर्यकांत नाम का एक व्यक्ति है। उसका अनुभव उसके संस्कारों और प्रवृत्तियों से छनकर आता है और एक कवि है जो अभिव्यक्ति के चरण क्षण में सूर्यकांत और उसके अनुभव का द्रष्टा है। पहले एक कमेंट में मैंने निराला के"चाबुक" का जिक्र किया है। इस ग्रंथ की टिप्पणियों से पता चलता है कि निराला कविकर्म के बारे में बड़े चतुर थे। जो कमी हमें दिख सकती है वह उनकी नजर से न बचती। यह मान लेना युक्तिसंगत है कि सूर्यकांत और उसके अनुभव को कवि निराला ने भाषा दी पर कोई मारल एडिटिंग नहीं की।
    3. निराला के व्यक्तिगत विश्वासों और विचारों पर कविता के संदर्भ में चर्चा न हो यह मैं नहीं कहता पर इन्हें कविता में ढूँढ़ना उचित नहीं है। The Jew of Malta की वजह से विद्रोही मार्लो को यहूदी-द्रोही मान लिया जाय? Dark lady sonnets के लिए शेक्सपियर को स्त्रीद्वेषी कह दें? मैं समझता हूँ यह खतरनाक और असाहित्यिक परंपरा मराठी और हिंदी में तथाकथित दलित चिंतकों ने आरंभ की जिसके तहत तुलसी से लेकर प्रेमचंद और निराला तक कूड़ेदान की चीज बन गये। सच पूछिये तो इस प्रकार की आलोचना में कबीर के बाद सीधे दलित लेखक आते हैं। बाकी शून्य है।

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  18. सच है। इतना मैं समझता हूँ। यूरोप के स्त्रीवादी आलोचकों ने शेक्सपियर आदि सभी का स्त्रीवादी पुनर्मूल्यांकन किया है पर किसी ने शेक्सपियर को कूड़ेदान में नहीं डाला। किताबें कूडे़दान में भी जाती हैं। ब्लैक जागरण के बाद Uncle Tom's Cabin का यह हाल हुआ है। पर जो ब्लैक नहीं है उन्हें भी पता है कि यह उपन्यास जितना भी लोकप्रिय हुआ हो इसका साहित्यिक मूल्य इतना नहीं है। वैसे ही असमिया में एक अति लोकप्रिय उपन्यास था - मिरी जियरी (मिसिंग् जनजाति की कन्या)। मिसिंग लोगों ने बाद में विरोध किया और अब अधिकांश असमिया आलोचक मानते हैं कि ऐतिहासिक महत्त्व के बावजूद एक irritating paternalism उपन्यास को अग्राह्य बना देता है। पर हिंदी में जिस तरह कफन जैसी विश्व स्तरीय कहानी को डंप करने की कोशिश हुई वह जघन्य है।

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  19. Karan Singh Chauhan विजेन्द्र जी से कम दुराग्रह नहीं है शिव किशोर जी के । अपनी मूल टिप्पणी में जो कविता के पाठ की कठोर सीमा में बँधे हुए थे, वे अकारण ही कबीर, तुलसी ... दलित चर्चा में आ गए । साहित्य और विचार की प्रासंगिकता स्थान और समय से निरपेक्ष विषय नहीं है । वेदान्ती शंकर भी जब कहते है कि जो ज्ञान अनुभव से युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता, उसे मान्य नहीं कहा जा सकता । गुंसाई जी और प्रेमचंद पर भी सवाल मात्र उठाने से महाभारत अशुद्ध नहीं हो जाता है । साहित्य की प्रासंगिकता उसके पाठकों से होती है । रहे होंगे किसी ज़माने में वीरगाथा काल और रीतिकाल के धाकड़ कवि । लेकिन आज उनके रसिक नहीं के बराबर हैं । पाठक की संवेदना, उसके भाषा और ज्ञान- बोध में ज़मीन- आसमान का फर्क आ गया है । कोई भी चीज इतिहास के कूड़ेदान में तभी जाती है जब उसे ग्रहण करने वाला कोई नहीं रहता है । नौ सौ साल के बौद्धों के शासकीय प्रभुत्व से भी उसके पूर्व के वैदिक और औपनिषदिक चिंतन को ख़त्म नहीं किया जा सका तो इसीलिये क्योंकि एक तबक़ा उसे लगातार युक्तिसंगत आधार पर साधता रहा था । इसलिये साहित्य की आलोचना में ज़रूरत है उस यौक्तिकता की जो साहित्य के सच को अनुभव के आधार पर आम पाठकों और विचारकों के सामने खोल सके । यह यौक्तिकता हमेशा पाठ की सीमा के बाहर निकल कर देखने की अपेक्षा रखती है ।

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  20. जब में अपने विचार के प्रति असहमति को ससम्मान सुन रहा हूँ / और अपनी बात को अपने stand से रख रहा हूँ तो यह मेरा दुराग्रह कैसे हुआ. लोकतान्त्रिक संवाद में असहमति को space होता है. अगर ऐसा है तो ऐसा मुझे यहाँ कोई नहीं दीखता जो अपने stand से बात नहीं कह रहा. तोक्यासभी दुराग्रही है? मेरा विनम्र निवेदन है अरुणजी से मुझे दुराग्रह का अर्थ स्पष्ट करें जिस से मै अपने को सुधार सकूँ. मैंने आज तक अपने किसी विरोधी या मेरी कविता के आलोचक तक को दुराग्रही नही कहा/ हम दूसरे के stand को दुराग्रह कहकर उसे आतंकित तो नहीं करते. / जिनका कोई stand ही नहीं तो उनको क्या कहेंगे. बहस का अर्थ ही यह है कि हम किसी बात को समझने केलिए अपने stand से ही कोई बात कह रहे है. मै सिर्फ असहमति व्यक्त करता हूँ किसी को अनुचित रूप से गलत तो नहीं कहता. फिर दुराग्रह कैसा? थोडास्पष्ट करें . मै यह भी मानता हूँ कि हर एक बात को सिर्फ एक ही approach से नहीं समझा जा सकता / लेकिनउसे समझने को हमें कोई न कोई stand तो लेना ही पड़ेगा.

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  21. यह कविता कथ्य-श्रृंखला नहीं है- इस कविता तो यदि पूर्ण-रूपेण एक इकाई में ग्रहण किया जाए तो संभवतः इसमें आपको कविता के अंतर्विरोध न दिखाई दें.
    इसका एक पाठ (तमाम अन्य पाठों के साथ) यह भी हो सकता है--

    सबसे पहले कवि और काव्य-वक्ता में कोई भेद नहीं है. कवि राह चलता मुसाफिर है और उसे जीविका के लिए शारीरिक श्रम नहीं करना पड़ता. कवि को लगता है कि मजदूर उसे इसलिए ऐसी दृष्टि से देखती है जो मार खा के रोई नहीं. यहाँ मजदूर का संघर्ष उस कवि से ही जो उस पर कविता बना लेता है. कवि भी मजदूर की इस मनोदशा से परिचित है इसलिए यह निर्णय नहीं कर पाता कि वह प्रिय-कर्म-रत है या जीवन के संघर्षों से भावशून्य हो चुकी एक मजदूर.

    कवि दो विरोधी बिम्बों से (जिसे आदरणीय तेवारी जी कविता का अंतर्विरोध कहा है ) यहीं प्रकट करता है. उसे इस जीवन का, मजदूर के जीवन का कोई अनुभव नहीं है. यह कविता के अंतर्विरोध नहीं है बल्कि यह कविता अंतर्विरोध की है. छिन्नतार , सहज सितार से भी यहीं कहना चाहता है कि इस जीवन को समझने जितना अनुभव ही उसमें नहीं है. इसका यह पाठ दलित चिंतकों को भी स्वीकार्य होगा.

    फिर 'श्याम तन भर बंधा यौवन' कवि का मजदूर स्त्री के प्रति आकर्षण भी है. शारीरिक श्रम के कारण उसका शरीर कसा हुआ है और कवि उससे आकर्षण अनुभव करता है. शारीरिक आकर्षण की यह प्रबलता है वर्ग चेतना का अतिक्रमण कर जाती है. संभवतः कवि इसी आकर्षण से बिंधकर कविता जहाँ घटती है वहां ठहर जाता है.

    कवि शारीरिक आकर्षण पर ही नहीं रुकता क्योंकि वह कोई लुच्चा-लफंगा नहीं है, उसमें कविता के कारण सहृदयता भी है. यह कविता का सौंदर्य है कि कवि को इस बिंदु तक ले जाता है कि उसे वह झंकार सुनाई पड़ती है जो पहले कभी सुनाई नहीं पड़ी- यह झंकार उस मजदूर के जीवन संघर्ष की, समाज और अर्थशास्त्र की और कवि के स्वयं के मन की भी है.

    सहसा कवि को स्वयं के, कविता के भी अंतर्विरोध दिखाई देने लगते है. कोई छायादार पेड़ नहीं है आसपास किन्तु मजदूर में जिजीविषा है इसलिए वह मार खाके रोती नहीं. मैं इसे व्यर्थ की लिजलिजी करुणा का दृश्य नहीं मानता कि हाय हाय बेचारी मार खाके रोती भी नहीं और अपना रोना मन में ही घोंट डालती है.
    निराला को महाप्राण कवि कोई ऐसे ही नहीं कहता! मजदूर में जिजीविषा है इसलिए बाहर भले छाँह न हो, अमीरों के महल हो जहाँ उसे संबल देने वाला कोई दिखाई नहीं पड़ता तो क्या- उसके भीतर से श्रम सीकर ढुलक पड़ते है और वह फिर प्रिय कर्म रत हो जाती है.

    हमें अंतर्विरोध इसलिए दिखाई पड़ता है क्योंकि हमारे मन में विभिन्न खांचे बने हुए है-यह शारीरिक आकर्षण है तो इसका किसी मजदूर स्त्री के प्रति अनुभव करके आप सामन्ती दृष्टि का पोषण करतेहो. हो. निराला में ऐसी कुंठा नहीं है. उनकी दृष्टि में समग्र्रता है और अपने ही भीतरी संघर्ष का स्वीकार भी है.

    Mahesh Verma जी से एक दिन कविता में dialectics की बात हो रही है, इससे सुन्दर उदाहरण याद नहीं आता.

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  22. "कविता में अंतर्विरोध हैं" और "यह अंतर्विरोध की कविता है" इन दोनों वक्तव्यों में अंतर है, पर मैंने ऐसा अंतर नहीं किया है। मैंने दोनों बातें लिखी हैं, पहली वक्ता को केंद्र करके, दूसरी कविता को, जो अंततः कवि की रचना है न कि वक्ता की। कवि और वक्ता का भेद किए विना कविता को समझना कठिन है।
    जिजीविषा वाली बात कविता के अंदर से निकलनी चाहिए। "मार खाकर भी न रोने वाली नजर" न करुणा का उद्रेक करने वाली है, न जिजीविषा का उद्घोष करने वाली। उसकी जो प्रतिक्रिया वक्ता पर होती है, वही मानदंड है - "ऐसी झनकार सुनाई दी जो अश्रुतपूर्व थी।" यह प्रतिक्रिया shock की है,जिसमें अद्भुत अंतरंगता और किसी स्तर पर हमारी नायिका से तादात्म्य मिले हुए हैं।

    मैं कृतज्ञ हूँ कि आपने मेरी टिप्पणी पढ़कर कुछ लिखा। यहाँ ऐसे योद्धा मैदान में हैं जिन्होंने 2000 शब्द पढ़ने की जहमत भी नहीं उठाई और मार तमाम कमेंट जड़ दिए।
    समय हो तो कर्ण सिंह चौहान को लिखी मेरी टिप्पणी भी पढ़ लें।

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  23. Arun Maheshwari साहित्यिक परंपरा के मूल्यांकन का विषय एकदम भिन्न विषय है और इसपर अलग से चर्चा होनी चाहिए । आप करें तो बेहतर । क्योंकि अस्मिता के विमर्शों में इस पर बहुत ही मार्के का सैद्धांतिक निरूपण हुआ है और व्यवहारिक समीक्षाएं भी सामने आई हैं । लेकिन इस पुनर्व्याख्या में अपने द्वारा हुई अनेकानेक अतियों पर स्वयं इन आंदोलनों के बीच भी गंभीर मतभेद रहे हैं और हैं –राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर । दूसरे लोगों की बातें तो जाने दीजिए । एक बहस बाहर भी चली ही हुई है ।
    फिलहाल कम-स-कम साहित्य में रोजाना चैनलों पर दिखती तू-तू, मैं-मैं से हटकर चीजों पर बात होनी चाहिए । परंपरा का पुनर्मूल्यांकन का सवाल महत्व का है । आप जैसे सुधीजन इस पर लिखेंगे तो सार्थक बातचीत हो सकती है ।
    जहाँ तक निराला की प्रस्तुत कविता का सवाल है तो जितने पक्षों से उसकी व्याख्या होती है, होने दीजिए । शिव किशोर जी ने की है, अभी-अभी पांडे जी ने की है और भी आएँगी ही । निर्णय की जल्दबाजी न करें – कविता का मर्म खुलता जाएगा । किसी ने यह नहीं कहा कि उसकी व्याख्या और विश्लेषण ही अंतिम है ।

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  24. A READER'S PERSPECTIVE:

    First of all, it must be kept in mind while doing any sort of critical appreciation that (A) Literature, art, music, cinema or any form of creative expression has mainly two intrinsic purposes- 1. pleasure (or creation of pleasure) and 2. catharsis (or creation of catharsis). (B) Poetry is (ultimately) imitation of imitation!(old but yet applicable theories!). So, any form of critical appreciation - ancient, oriental or modern (including deconstructive, structuralist, feminist etc...) must foremostly establish whether the piece of creative work touches reader's heart and ignites reader's mind or not. If it does, it's worth appreciation. And then, appreciations may be from various perspectives (strictly not various ideologies!). But, generally what academics and scholars start doing is evaluating poetry or any creative work with their own pre-defined yardsticks and while doing so, the very essence and feel of the poem is simply killed! In my very individual opinion, Nirala's this poem -TODATI PATTHAR- is a simply flawless, superb, well-crafted poem- which does stir the mind and heart of any reader of any caste, creed or ideology! If anyone finds flaw in it, s/he must take it as a creative flaw! After all, poetry is a creative blending of dark reality and bright imagination!
    -RAHUL RAJESH.

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  25. इस कविता के बहाने एक टिप्पणी कथाकार ज्ञानरंजन ने भी लिखी है। 1999 में जनवादी लेखक संघ की पत्रिका 'नया पथ' के निराला-विशेषांक (अंक के अतिथि-संपादक: राजेश जोशी) में प्रकाशित है। उसे भी यदि प्रकाशित करें तो यह बहस और समृद्ध होगी।

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