अपर्णा मनोज अपनी कहानिओं के लिए पूरी तैयारी करती हैं. चाहे उसका मनोवैज्ञानिक पक्ष हो यह उसका वातावरण. यह कहानी नैनीताल की पृष्भूमि पर है. यह स्त्रीत्व की यात्रा की कहानी है. उसकी नैतिक निर्मिति पर पुर्नविचार की कहानी है. मातृत्व के अहसास और पीड़ा की शायद ऐसी मार्मिक कहानी आपने नहीं पढ़ी हो.
मैवरिक :
अपर्णा मनोज
अनंतर
वह मेरे सामने खड़ी है और मुझे लग रहा है कि असंख्य नरगिस मेरे बदन पर खिल रहे हैं. सफ़ेद नरगिस, पीले पुंकेसर की छोटी -छोटी चोटियों में गुंथे .. जिनकी खुशबू ख़ुशकुन अहसास है पर इस अहसास के पीछे भटकती एक गाथा -कथा है, जो हॉन्किंग हॉर्नस में छिपे असल नैनीताल से शुरू होती है. न जाने क्यों नार्सिसस की कहानी याद हो आई.
नार्सिसस..सुरूप सुकुमार. थैसपई के एक प्रांत का आखेटक. वह हर उस स्त्री का तिरस्कार करता जो उसकी तरफ आकर्षित होती. उसकी इस घृणा ने कई रूपसियों के दिल तोड़े. आखिरकार नींद के इस देव से नफरत की देवी नेमेसिस नाराज़ हो गई. वह अनुगूंज बनकर उसे सुदूर प्रांत ले गई. हरे-भरे रास्ते. मोहविष्ट नार्सिसस उसका अनुगमन करता गया. जंगल पर जंगल. खूब घने जंगल. ऊंचे बिलोबा के पेड़. मीठे जल स्रोत्र. गुफाएं... अंत में एक छोटी झील. शीशे की तरफ साफ़.
नार्सिसस थक गया था. झील देखते ही उसकी प्यास दुगुनी हो गई. नेमेसिस दूर रुक गई थी. वह हंस रही थी. पर प्यास से व्याकुल नार्सिसस को उसका अट्टहास सुनाई नहीं दिया. वह झुका और झुका ही रह गया. झील में उसका सुन्दर बिम्ब लहराने लगा. वह अपने बिम्ब में कैद हो गया. हाथ स्थिर. आँखें अपलक पानी में झिलमिलाते बिम्ब को देखती... बस देखता रहा. साल बीते. युग बीते... और जब उसकी मृत्यु हुई तो वहीँ उसी जगह एक सुन्दर लाल डेफोडिल खिल गया.. डेफोडिल यानी नरगिस.
हम सब भी तो नरगिस बनकर जीते हैं. अपने-अपने बिम्बों पर मोहित. कई मोहित बिम्ब एक मोहविष्ट समाज बनाते हैं और इस सब में सच कितना बच रह जाता है?
मैं नार्सिसस के मिथ में एक स्त्री देखती हूँ. बहुत जवान होती लड़की. ये लड़की नरगिस बन जाती है और फिर न जाने कहाँ खो जाती है! रह जाता है तो कुएँ में चटखता एक शीशा, जिसने नार्सिसस को बावला बना दिया था.
आप अपने बगीचे में जब भी नरगिस देखेंगे तो मेरी तरह ही आपके मन में भी एक पगला नरगिस जन्म लेगा. उसकी शक्ल एक बहुत खूबसूरत लड़की जैसी होगी. मुझे पूरा यकीन है, आप इस नरगिस को देख देखकर दुहराएंगे.. मैवरिक..आवारा..अनंतर ये गूंजेगा और आपके बहुत पास होगी तब सोमिल, यानी मैं: यात्रा वृत्तांत के किसी पर्यटक की तरह ..
हाँ, तो इस अनंतर में मैं चल रही हूँ. एक तलाश में निकली हूँ. मेरे पैरों के नीचे रपटीला शीशा है, जिसमें मैं अपना चलना देख रही हूँ. ये एक अनंत यात्रा है. इस यात्रा में वह कब-कब साथ रही; ठीक -ठीक याद नहीं पड़ता. लेकिन यदि वह न होती तो यात्रा भी न होती और न होती ये कहानी. निशि गंधा के फूल लपेटे ये अधूरा यात्रा वृत्तांत आपको सौंप रही हूँ. इसके पूर्व कि मैं कुछ कहूँ -सुनूँ ;एक छोटा सा प्रश्न है आपसे.. एक छह -सात महीने के बच्चे को शीशा दिखाइए.. क्या वह अपनी पूरी इमेज देख पाता है? शायद नहीं.. वह इसे टुकड़ों में देखता है. हाथ अलग देखेगा, पैर अलग, सिर अलग और उसके लिए अपना प्रतिबिम्ब केवल खंड होता है, किन्तु ये ही बालक जब अपनी इमेज को कुछ माह बाद एक शरीर रूप में देखता है तो उसे कैसा लगता होगा? अपनी आइडेंटिटी को लेकर, इस ओवर नाईट चेंज को लेकर कोई द्वंद्व तो रहता ही होगा वहाँ? समाज को क्या इसकी भनक लगती है? माँ तक को नहीं होती होगी.. शीशे में टूटे प्रतिबिम्ब को देखना यथार्थ है या एक पूरे संघर्ष के बाद अपनेआप को जान लेना? इस बात को यहीं छोड़े दे रही हूँ. आप पर. किन्तु दर्पण के मिथक में जीता आदमी अपने हर सच को अंतिम सच मानता है. कहानी जब पूरी चुक जाए और आप आश्वस्त हों खुद के लिए, कहानी के लिए, तो फुर्सत से इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ लीजियेगा. फिलहाल एक लड़की के एथोस की पड़ताल करते हुए ..एक कहानी मैवरिक यानी आवारा पशु.
अपनी यात्रा से
आज अठारह साल बाद यहाँ आई हूँ. सब कुछ बदल गया है. बस नैनी झील वहीँ की वहीँ है. पहाड़ भी वहीँ हैं; वही वीपिंग विलो, बहुत ऊपर से नैनीताल को बदलता देख रहे हैं ये, कहते हैं कि अंग्रेजों ने इन्हें विदेशों से लाकर यहाँ लगाया था. जाने-पहचाने बाँज के पेड़ों की सीमाएं आकाश के पास से शुरू होती दिखाई देती हैं. मैं जब छोटी थी तब माँ कहा करती थीं कि यहाँ की झीलों में तब तक पानी रहेगा जब तक ओक के पेड़ों की जड़ें अपने ओक में यानी अंजुरी में जल भरे रहेगी. पानी है झीलों में. पर झीलों के कंठ सूखे के सूखे. तपते हुए. किसी आपातकालीन भय से सिमटी हुई झीलें. ओक भी हैं, बदस्तूर; बेतरह बादलों में भीगे ओक. इन पर कोई मेघदूत ठहर गया है,पर कोई कालिदास नहीं जो लिख देता पाती-पाती संदेसे. कहता कि," मेघालोके भवति सुखिनोप्यन्यथा वृत्तिचेत: कंठश्लेष प्रणयिनिजने किंपुनर्दूरसंस्थे. उज्जैन के विरही यक्ष की आँखों की तरह मेरे शहर की आँखें भी भीगी हैं. कितने विस्थापित यक्ष. कोई लौट नहीं रहा घर को.
स्त्री का विरह कारुणिक है, पर पुरुष का प्रेम पपीहा है, उसका विरह भी पपीहा.. एक नक्षत्र बूँद की तड़प है उसमें .. उसी एक बूँद से जुड़ा वह चितचोर सा आकाश में टकटकी लगाए रहता है.. आषाढ़ गिरे तो पी ले छक कर या फिर रट लगाये -लगाये आँखें मूँद ले. मुझे अपना शहर उसी चातक -पुरुष जैसा दिखाई देता है. मनमीत पपीहा. पुकारता. पुकारता. घने वनों में सघनतर पुकारता. षष्टिखात के इर्द-गिर्द सम्मोहन बुनता..पुकार की कोई अपनी अवधि होती है क्या? कौन जाने .. पर हर पुकार में एक दूरी जरूर रहती है और दूरी के पास अलग हो जाने का दुःख..ये दुःख अपनी जड़ें ढूंढ़ता है और जड़ें अपनी छाती में समय को दबाती चलती हैं. समय का निचला पायदान इतिहास है..विगत.. जर्जर बूढ़ा और निठल्ला. न आँखों में रौशनी. न कोई आस-पास. स्मृतियाँ वृद्ध कच्चे नाखून की तरह अपनेआप झड़ जाती हैं..फिर भी वह गला खंखारता है, ऐसे, जैसे कोई अंधकूप है. गफलत, कि कोई देख ले पलटकर और जान ले मन का हाल. इस बूढ़े शहर ने एक कहानी भीनी की भी दबा रखी है. भीनी उसके लिए लोक कथा ही तो है. जब वह भीनी को दोहराता है तो क्यों उसे कुंती याद हो आती है. तब वह सुबकता है ... सूखी आँखों से जाते शरद की बूँदें बरसती हैं .....म्लान, म्लान, म्लान. और मलिनता की इस ध्वनि को किसी ने मेरे कानों पर रख दिया है.
अजनबी शहर के अजनबी रास्ते
मैं खड़ी हूँ यहाँ. कौन खींच लाया मुझे. खुद को अजनबी पा रही हूँ. मेरे सिर के एन ऊपर एक पनकौआ मंडरा रहा है. देस बेगानी स्मृतियों की तरह. गहरे पानी में डुब-डुब डुबकियां लगाता. मछलियाँ पकड़ता. गगन को उड़ता. पर कितनी उदासी है इसमें. चस्पा की हुई गहरी तन्हाई. ये चिड़िया भी एक सैलानी है यहाँ. मेरी तरह. कौन कहेगा कि ये मेरा अपना नैनीताल है. मेरी जन्मभूमि. याद नहीं पड़ता कि मैं कब रही यहाँ. हाँ, उन दिनों राम सिंह बैंड की बड़ी धूम होती थी. धुंधला सा याद है. यहीं झील के किनारे वे पुराने गीतों की धुन बजाते थे. मेरी छोटी बहन जो करीब आठ वर्ष छोटी थी मुझसे, वह इन धुनों पर खूब नाचा करती थी. राम सिंह भीनी के नन्हे -नन्हें हाथों पर थोड़ा सा चूरण रख दिया करते थे. शायद इस चूरण के लिए ही वह नाचती थी.
इस समय मैं बोट हाउज़ क्लब के सामने खड़ी हूँ. यहाँ से उचक -उचककर होटल ग्रेंड की वही चिर-परिचित बड़े-बड़े बरामदों वाली बिल्डिंग देखने की कोशिश कर रही हूँ. पर नए -नए होटलों की कतारों के बीच वह दीख नहीं रहा. आगे बढ़ती हूँ. हाँ, अब ये मेरे ठीक सामने है. वही पुराना परिसर किन्तु एम्बिएन्स बदली-बदली. रुक कर उसे देखती हूँ. बादल का एक हलका टुकड़ा उसकी छत पर टिका है, जैसे वह यहाँ से हिलेगा नहीं. ये बिलकुल वैसा ही है, जिसे बचपन में मैंने कभी पकड़ना चाहा था और एक कैनवास में ये साँसें भरता रहा था, कभी नीला हो जाता तो कभी काला. मेरे लिए तो ये ही सितारा होटल है. नैनीताल का सबसे पुराना होटल. इसकी कहानियां माँ ऐसे सुनाती थीं जैसे ये उनकी अचल संपत्ति रहा हो. ग्रेंड होटल और उससे जुड़ा एक ख़ास किस्सा जिसे माँ सुनाकर खुश हुआ करती थीं, याद कर होठों पर मुस्कान तिर आई. भीनी इस किस्से को माँ से सुनने की बार-बार जिद करती और जब माँ सुनातीं तो उसके लाल गालों से हंसी कूदती -फांदती सफ़ेद दन्त पंक्तियों में ज़ज्ब हो जाती. वह हंसी मन के कोने में कैद है आज भी. माँ कहतीं, उन दिनों दिलीप कुमार और वैजयंती माला यहाँ आकर रुके थे. इसी होटल ग्रेंड में. शूटिंग देखने वालों का मजमा लगा रहता. शहर के इस प्यार को दिलीप कुमार ने होटल की चाय पिला कर लौटाया था. माँ भी गईं थी चाय पीने या चुपके से अपने प्रिय हीरो की सूरत देखने. बाबू कहते कि माँ ने उसकी ये फिल्म मधुमती १२-१३ बार देखी थी बस. बड़ी-बड़ी मूंछों वाले गोरे -चिट्टे बाबू मेरे.. रौब -दाब वाले. अपने को थोकदार बताते, किसी लाट से कम नहीं थे. ईज़ा उनसे ज्यादा बात नहीं करती थीं. मैं भी कम ही बोला करती उनसे. पर,भीनी..उसके पास अजब-अजब तरह की चाबियाँ थी.. किस खिलौने में कितनी चाबी भरी जाए, उसका बालमन इन हिसाबों में बड़ा पक्का था. बाबू उसे खबीस बुलाते और वह उन्हें बदले में अपने दांत दिखाती. उसका दायीं तरफ का तीसरा दांत कुछ ज्यादा ही नुकीला था. हँसते में वही पहले नज़र आता. अपने उस दांत के साथ खबीस कितनी मासूम लगती थी.
यूँ ही चलते हुए : इतनी यादों के भटके हुए कारवां
अचानक मन बुझ गया. बार-बार उसकी सूरत झक बतख की तरह आँखों में तैरने लगी. मैं क्यों रुक कर उससे नहीं पूछ पायी कि कैसी हो? बीच का लम्बा समय कहाँ, किन संघर्षों में गुज़ारा? उसका हाथ तक नहीं पकड़ पायी. वही हाथ जिसे थामे मैं मल्लीताल के हरे रास्तों से निकला करती थी. कहाँ गुम हो गई थी. फिर कब लौटी नैनीताल... यहाँ चर्च..बरेली डायसिस के चर्च से इसका क्या वास्ता हो सकता है? या फिर मेरी तरह ये भी चली आई नैनीताल. उसकी पोशाक, उसकी आवाज़ सब कितना बदल गया है. अब लोग उसे क्या भीनी ही बुलाते होंगे.. उसकी आँखें कितनी पैनी हैं. तब भी ऐसी ही थीं. इनके सहारे वह कहीं भी, किसी के भी मन में सीधे प्रविष्ट हो जाया करती थी. आज भी उसने इसी तरह तो देखा था. मुस्कराई भी थी. आत्मीय लकीर सी खिंची मुस्कान. कुछ बोली थी हौले से. क्या अब उसने ऐसे ही बोलना सीख लिया है.. यूँ धीमे -धीमे.
अलग लगी मुझे. बहुत अलग, लेकिन कुछ पुराना इस कदर उसके साथ चिपका था कि सब कुछ बदलने के बाद भी वह अजनबी नहीं लगी.
मैंने उसे गौर से देखा था. सिर से गले तक सफ़ेद-नीली धारियों वाला विम्पल लपेटे..कंधे पर स्केप्यूलर झूल रहा था..उसका पारंपरिक सफ़ेद -नीला हैबिट बहुत चंज रहा था उस पर. थोड़े से बाल कनपटी के दिखाई दे रहे थे. काफी सफ़ेद हो गए थे. हाथ में कोई पुस्तक लिए थी. मन किया था कि उसे भींच लूँ आलिंगन में. हाथ खुल भी गए थे. उसने भी देखा था..लेकिन वह चली गई. नहीं रुकी. मैं सेंट फ्रांसिस चर्च के पास हठात अकेली खड़ी न जाने क्या सोच रही हूँ.
दिमाग में झमाझम बर्फ गिरने लगी है. सब कुछ ढांपती बर्फ. पीला पड़ा लिफ़ाफ़ा है ये बर्फ.
मैंने लगभग चौंकते हुए सिर घुमाकर इधर-उधर देखा. लगा जैसे कोई पीछे खड़ा है. पर कोई न था. मैं थी. चर्च की लाल बिल्डिंग थी और बेचैन हवा.अजीब बात थी. यहाँ की प्रकृति मेरे साथ कैसे कनेक्ट हो रही थी... हुबहू यादों को लौटा रही थी.. ये एक लाफिंग थ्रश की आवाज़ थी. मैंने अपने मन की निस्तब्धता में इसे अभी-अभी सुना. किन पत्तों में छिपी गा रही थी ये.. जैतूनी -भूरे रंग का ताज पहने, सफेद सीने वाली ये चिड़िया ..कितने साल बाद ये गीत सुन रही हूँ. भीनी, यानि मेरी बहन.. रुक जाया करती थी ये गीत सुनकर और उसी दिशा में दौड़ने लगती थी. कहती, "सोमी इसका गीत हर बार अलग होता है न."
मैं हंसती. वह रूठ जाती," नहीं मानना, तो न मानो. पर ध्यान से सुनो तो पता चले." फिर वह उस गाती थ्रश को ढूंढ़ निकालती. हंसकर बोलती, "जानती थी कि ये गीत इसके माँ बनने का आह्लाद है. सोमी, देखो कैसे आँख बंद करे गा रही है और इसका ये सतरंगा घोसला ...कितनी लाइकेन जमा कर रखी है .. पेड़ की लाइकेन से केमोफ्लेज हो रही है. इसके अण्डों का रंग एकदम ओलिव नीला है." और फिर उँगली से वह लाइकेन खुरच कर मेरे कपड़ों में लगा देती. मैं उसके पीछे भागती. वह अपनी गोल -गोल फ्रॉक में उड़ती जाती. उसके लम्बे घुंघराले बाल घटाओं से उड़ते. फिर अचानक बीच रास्ते में रुक जाती और मुझसे लिपटकर हंसने लगती. वह ऐसी ही थी. थोड़ी चंचल, थोड़ी दीवानी. फिनोमिना ..एक किरदार.
और मैं, उसकी सोमी..बहुत शांत, बहुत घुन्नी. और अब कथाकार.
इसलिए सुनके भी अनसुनी कर गया
मैंने अपने घर का रास्ता पकड़ लिया. आज मन है कि इस घर को फिर से सुनूँ. तब नहीं सुना था. अनसुना कर चली आई थी. ईज़ा के साथ. बाबू के साथ. भीनी छूट गई थी हमसे. पर इस घर में तो नहीं ही छूटी थी वह. बितरा कर चली गई थी हम सभी को. इस घर की आवाजों को. उसके जाने के बाद घर वीराना हो गया. थोकदार जी की चाबियाँ वही ले गई अपने साथ. मैंने पिता को फिर कभी हँसते नहीं देखा. ईज़ा को मौन की लम्बी आदत थी, सो वह नरकुल की तरह समय को भारी जूतों के साथ अपने ऊपर से जाता देखती रहीं. मैं सोमी..किल्मोड़े का जमुनिया रंग..जो यादों को पालता है, और उन्हें लाल -जामुनी बना देता है, बस यही किया मैंने भी.
फिर ये घर हममें से किसी को लौटा नहीं सका. अभी मैं इसके सामने खड़ी हूँ. एकदम अकेली. वही हरे रंग से पुती स्लान्टिंग छत. अब रंग उड़ गया है. घर का चेहरा: सो फकत फब्तियों के और कुछ नहीं वहाँ. भीनी के कमरे की खिड़की यहाँ से दिखाई दे रही है. अधखुली. कुछ बिम्बित करती हुई. सीने को चाक करती. जहाँ थोकदार जी का लॉन हुआ करता था, जिसमें दाड़िम का होना वर्जित था, पर ज़र्द आलू ( ईज़ा की खुबानी और मेरे लिए प्रूंस) के कई पेड़ थे, वहाँ बिच्छूबूटी और रिंगाल दिखाई दे रहे थे. बीच -बीच में जिरेनियम और पौपी आदतन उग आये थे. जमी काही वर्षों के बिछुड़ने का फिसलन भरा अहसास ...
आह! मैं फिर चौंकी.. पलटकर देखा. कोई नहीं वहां.
हम भी किसी साज़ की तरह हैं
हवा से खिड़की का पट रह-रह सिहर जाता था और अँधेरे की चोर बिल्ली
वहां से भागती नज़र आती. मुंह में खून से तर-बतर कबूतर दबाये. फिर हवा बजने लगती. उसके दांत किटकिटाने लगते. घर क्या है एक रुबाई है..समरकंद से यहाँ चली आई..एक औरत के मानिंद. और मैं उससे रूबरू.. एक औरत बनती लड़की का खैयाम..न जाने कौनसे उधड़े -उखड़े तम्बू सिलने बचे हैं, जोड़ने बचे हैं या ये रुबाइयात विषम -विषम का कोई हिसाब है.. सम यहाँ बैठ ही नहीं पाया कभी.
उस दिन भीनी अपने कमरे में चुपचाप चली गई थी.
उस दिन भीनी अपने कमरे में चुपचाप चली गई थी.
रात माँ ने दीया -बत्ती करते पूछा था," ..क्या हुआ?"
"कुछ नहीं
ईज़ा. बस जी ठीक नहीं."
"कोई तो
बात है.. आज मम्मी की जगह ईज़ा.."
"नहीं, बस मन नहीं हो रहा. सिर भारी है. "
"कल तुम्हारा जन्मदिन भी है.. क्या सोचा?"
"कुछ सोचा
नहीं. अब बड़ी हो गई हूँ.. जन्मदिन क्या मनाना.."
"अरे! इत्ती भी बड़ी नहीं हुई है.. सोलह की.."
"मम्मी, प्लीज़..बात करने का मन नहीं कर रहा..ईज़ा, सोमी से कहो न.. सितार रख दे. अच्छी
नहीं लग रही आवाज़."
"सोमी सिर
दबा देगी तेरा.. ओह दरवाज़ा खड़का..लगता है तुम्हारे बाबू आ गए.." माँ चली गईं.
अपने कमरे में बैठी मैं सब सुन रही थी. भीनी की आवाज़ में विकलता थी. ईजा नहीं समझ पायीं पर मेरे लिए भीनी एक ऐसा भाव थी जिसमें मैं अपना बचपन देखती..अपना युवा होना देखती और भी बहुत कुछ. मेरी हमजोली, मेरी बहन. मैं उसके कमरे में आ गयी. उसके सिरहाने बैठ देर तक सिर दबाती रही. कई बार लगा कि भीनी रो रही है.. पर मैंने उसके रोने की आवाज़ कभी सुनी नहीं थी..तो भला वह कैसे रो सकती थी. मन का वहम था. पर नहीं, इस बार वह सच रो रही थी. उसका नीला दुपट्टा भीग गया था. मैंने उसे बांहों में भर लिया. उसकी हिचकियाँ मेरे कंधे पर वज़न डालती रहीं. पर न मैंने उससे कुछ पूछा और न उसने ही कुछ बताया.
फिर वह मेरी गोद में ही सो गई. वह गहरी नींद में थी.मैं अपने कमरे में चली आई.
अगले दिन वह एकदम नॉर्मल लगी. अवसाद का कोई चिह्न नहीं था वहाँ. मैंने उसे गौर से देखा. चंचलता नहीं है. मुलायमियत है. जैसी ईज़ा के चेहरे पर रहती है. हलकी सी फ़िक्र और सबको सहेजने का भाव.
हाँ, आज वह बड़ी लग भी रही थी. मैंने उसका माथा चूमा. उसने पलटकर कहा, "दीदी..सोलह की हो गई तुम्हारी भीनी."
पहली बार उसने मुझे दीदी पुकारा था. मैंने उसकी ठोड़ी ऊपर की, "हम्म बहुत बड़ी हो गई हमारी भीनी.."
पर मन में एक अलहदा रहस्यमयी भाव
जन्म ले रहा था जो मुझे आतंकित करता रहा. बार-बार मुझे सचेत करता रहा..भीनी अब बड़ी हो गई.. ध्यान रहे.
ज़िंदगी की तरफ इक दरीचा खुला
इधर कुछ दिनों से मैं भीनी में आये बदलाव को महसूस कर रही थी. वह अनमनी रहती. हिसालू अब उसे नहीं भाते थे. बुरुंश अपने दुप्पटे में नहीं भरती थी. हाँ, अकसर वह अपने कमरे में बैठी कोई किताब पढ़ती दिखाई देती. कभी -कभी मेरे कमरे में आकर सितार के तारों को बिना वजह छेड़ जाती..उसकी इस शरारत में अब वैसी सहजता नहीं रह गई थी. कॉलेज भी कभी जाती,कभी नहीं. अपने कमरे की खिड़की से पता नहीं क्या तका करती.
फिर एक दिन वह मेरे कमरे में आई. हौले से बोली, "सोमी, मम्मी बाबू को कुछ कह रही थीं..तुम्हारे बारे में."
"क्या.."
"यही कि अब तुम ब्याह लायक हो गई हो.. बाबू को फ़िक्र करनी चाहिए.."
"अरे नहीं.. धत्त."
"दीदी, तुम जो ब्याह गईं तो..मैं किससे बात करुँगी.."
"कहाँ जा
रही हूँ पगली.."
"नहीं, जा तो नहीं रही हो."
"तो फिर."
"दीदी, तुमसे कुछ कहना था. बाहर चलो न बगीचे में.."
हम दोनों बाहर आ गए. ठण्ड पड़नी शुरू हो गई थी. स्वेटर में भी कम्फर्टेबल नहीं लग रहा था. गार्डन चेयर तक ठंडी थी. हम दोनों वहीँ बैठ गए. वह चकोतरे के पेड़ को देख रही थी और मैं उस पर निगाहें टिकाये थी. कुछ बोल नहीं रही थी, लेकिन पता नहीं कितनी इबारतें उसके सौम्य मुखड़े पर बनती-बिगड़ती रहीं.
बाद को वही बोली, "सोमी.."
कितनी कातरता थी. मैंने सहम कर उसकी तरफ देखा. उसके ओंठ जुड़े थे. बीच-बीच में काँप जाते, जैसे बहुत यत्न करना पड़ रहा हो.
"हाँ.. रुक क्यों गईं.. बोलो."
"अच्छा, जो तुम्हें मासिकधर्म होने बंद हो जाएँ
तो.."
मेरा मुंह फटा का फटा रह गया.
"क्या..क्या मतलब ?"
"मुझे नहीं
हो रहे आजकल..उबकाइयाँ आती हैं. खाने का मन नहीं करता."
"कौन है
वह.. "मेरा स्वर विद्रूप हो गया था. बहुत रूखा और कठोर.
"दृढ़ता से बोली..कोई फायदा नहीं. वह यहाँ नहीं रहता. कोई सैलानी था. आया और चला गया.."
"पागल हुई
है..कहाँ हुई मुलाकात.. ऐसे कैसे.."
"सोमी, हेंडसम था. लम्बा. बातें भली करता था. पत्रकार था. कोई वृत्तांत लिख रहा था. यहीं ठंडी सड़क पर हम घूमने जाते थे.. कभी-कभी बारा पत्थर की सुनसान पगडंडियों पर
निकल जाते.. घोड़ों की टापों का पीछा करते. वह एकदम जाजाबोर था... जिप्सी."
"जो उसे ढूंढ़ कर ले आयें तो..बदमाश. "
" सोमी.. अब बदमाश न कहो उसे. अच्छा लगता था. बहुत अच्छा..और जब भी उसके साथ होती तो ईज़ा की तरह बनने की इच्छा होती थी.."
"ईजा की
तरह..! पर वह माँ हैं. बाबू हैं उनके साथ.."
"वही दीदी.. पर मैं भी तो ईजा.."
"मर जायेंगी
ईजा. मर जायेंगे बाबू..और तुम ईजा बनोगी.."
"नहीं, कुछ नहीं होगा..तुम कह दो उनसे सब. बस बता दो एक बार."
"खुद ही
क्यों नहीं बता देतीं. मैवरिक.."
"नहीं.. ईजा.. ईजा क्या मैवरिक हैं, सोमी.."
पहली बार मेरा हाथ भीनी पर उठा. लेकिन बीच ही कहीं रुक गया. उसकी आँखों में झील तैर रही थी..जिसमें मैंने अपना कठोर होता चेहरा देखा. अविश्वास और तिरस्कार की अपनी नाव बहते देखी..पास में न जाने कितनी बतखें क्रेंग-क्रेंग करती तैर रही थीं..निस्संग, निश्छल,
निष्पाप.
वह भीतर जाते कह गई, "सोमी, और कोई दरीचा अब नहीं खुलता.."
वह भीतर जाते कह गई, "सोमी, और कोई दरीचा अब नहीं खुलता.."
मैं विस्मित.
वह संतुष्ट.
मैं भार से लदी..
वह भार विहीन.
दिल के ज़ख्मों के दर खटखटाते रहे
मैं उसका ख़ास ख्याल रखने लगी थी और उधर ईजा के पास तानों के सिवा कुछ बचा नहीं था. बाबू हमारे थोकदार.. काम से फुर्सत नहीं थी याकि भीनी के निर्णय को उन्होंने सम्मान देना सीख लिया था. अब मुझे भी इसमें बुराई दिखनी बंद हो गई. मेरे कमरे की खिड़कियाँ सुबह -सुबह खोल देती थी ये लड़की और घंटों बाहर देखती. एक दिन बोली,"सुन न सोमी, ..चर्च का घंटा मुझे सहलाता जान पड़ता है. याद है तुम्हें...कैसे शर्त लगती थी हम दोनों के बीच... कि मिस्सा का तीसरा घंटा बजने से पहले कौन चर्च पहुंचेगा. ढालू पर दौड़ते जाते थे हम-तुम. जानबूझ कर हार जाया करती थीं तुम. मैं वहीँ चर्च के बाहर उछल्ला खेलती. तुम मुझे घसीट कर घर ले आतीं. फिर तुम यकायक बड़ी हो गईं. झील जैसी. मैं भी बड़ी हो गई. शायद तुमसे भी ज्यादा बड़ी. बाहर देखो!उन आवारा बादलों जितनी बड़ी. पर चर्च का ये घंटा..क्या है इसमें ऐसा!ये बजता है तो आँखें थम जाती हैं. कान अनजानी आवाज़ सुनते हैं. एक प्रार्थना जो मरियम के ताबूत से उठकर सलीब को आलिंगन करती रहीं; काँटों के ताज को चूमती.पहले घंटे में मरियम रोती है. दूसरे में वह अपना आँचल फैलाए चीखती है. तीसरे में उसके अन्दर का मौन नाजायज़ तरीके से थरथराने लगता है.. वह बार -बार यीशु को पैदा करती है. तीसरा घंटा उसी प्रसव के समय का आर्तनाद है. मैं इसे रोज़ सुनना चाहती हूँ. ये गिरिजा..तुम्हारे कमरे से और साफ़ दीखता है. मेरी खिड़की से झील दिखती है पर चर्च नहीं. तुम्हारी खिड़की से दोनों दीखते हैं .कमरा बदलोगी सोमी."
कमाल की शासिका थी भीनी. हमने उसी दिन कमरे बदल लिए. दोनों थक गए थे और खिड़की के पास खड़े थे. मैंने देखा वह जोर-जोर से हंस रही है. उसे रोका. "ऐसे में इस तरह नहीं हंसा जाता." वह चुप हो गई. अब मेरी जिज्ञासा उसकी हंसी को लेकर बढ़
गई.. मैं पूछती, इसके पूर्व ही उसने मुस्कराते हुए कहा- सोमी, देख तो आज का सूरज..बादलों से गिरती उसकी किरणें..मुझे लगा कि ईजा की उँगलियों में सलाइयाँ
हैं और उन पर किरणों के फंदे चढ़े हैं.. जुराब बुन रही हैं.. तो बस यूँ ही..गुदगुदी सी महसूस हुई." वह बोलते में और
सुन्दर लग रही थी.शर्म के कबूतर फड़फड़ाए और उसके गालों के गड्ढों में गुल हो गए.
ठण्ड तो वाकई पड़ने लगी थी.. उसके आने तक भी जुराबों वाली गुनगुनी सर्दी तो बनी ही रहेगी. अगले दिन मैं गुलाबी रंग की ऊन ले आई. माँ को नहीं बताया. हम दोनों आजकल माँ को शामिल नहीं करते थे अपने साथ. फिर वह भी उखड़ी तो रहती ही थीं.
डिजाइनदार नरम मोज़े. चट बुन डाले. वह उन्हें अपने हाथ में पहन-पहन कर अप्रूव करती रही. बोली,"गुलाबी तो लड़कियों का रंग है.. नरम रंग . सोमी ,चुभेंगे नहीं न उसे .. फिर उसने जुराब बड़ी नरमाई से अपने गालों से चिपका लिए. उन्हें अपने गालों पर मलती रही..गोया जुराब न हों पैर हों छोटे -छोटे .. कोमल.
मैं बड़ी होकर भी मातृत्व के उस सुख को समझ नहीं पा रही थी और उसके लिए आगंतुक मातृत्व सुखों की लदी नाव था.
दिन तेज़ी से चढ़ रहे थे. उसका पेट दरुमा गुड़ियों के आकार जैसा हो गया था. मैं मन ही मन मान बैठी थी कि ये दरुमाओं की तरह प्रबल भाग्य का सूचक है. वह भी यही मान रही थी और हम दोनों जादुई यथार्थ में बहुत कुछ अजब-अजब घटता देख रहे थे. वह सूई-धागे लेकर बैठी रहती. झबले सिलते और बड़े करीने से तहाकर अलमारी में लगा दिए जाते. नामों की फहरिस्त उसकी डायरी में बड़ी होती गई..वर्णमाला से अक्षर उठाये जाते. उन्हें तरह-तरह से जमाया जाता. रोज़ उसे नए नाम की तलाश रहती. बाद को उसने सुनिश्चित करते हुए कहा था ,"सोमी, प्यार से 'सुर' और वैसे 'कोकिला'..कैसा रहेगा."
मैं मुस्करा दी थी.
वह खिलखिला उठी थी.
नर्गिस का खिलना
उस दिन वहाँ केवल ईजा थीं. बाबू भी भीतर नहीं जा सकते थे. पर मैं चकित थी कि उसके चीखने की आवाजें नहीं आ रही थीं. दाई बार-बार कहती..बेटी दम लगा. दर्द न होगा तो..
बीच -बीच में माँ बाहर आतीं. कभी गरम पानी तसले में ले जातीं..कभी उन्हें रुई चाहिए होती थी.
फिर रोने की आवाज़ आई. मैं और बाबू लगभग दौड़ पड़े. दरवाज़ा खटखटाया. ईजा ने झिर्री से झांकते हुए कहा.. तुम नहीं.. बाबू को भेजो. जल्दी. बाबू और माँ कमरे में बात कर रहे थे. कुछ सुनाई नहीं दे रहा था.
बाद को पिताजी मुहं लटकाए बाहर आये. उन्हें देखकर मैं डर गई. वे बोले.. सोमी, बाहर चल.
कुछ कहना है तुझसे.
बाबू ने कहा.
मैंने सुना.
दाई ने बताया कि एक बार रोकर हमेशा के
लिए सो गई गुड़िया. चाँद- सी थी. सफ़ेद. रुई का फाया.
भीनी को होश नहीं है. जागेगी तो सोमी उसे बाबू-ईजा और दाई का समझाया सच बता देगी.
दाई चली गई. उसके हाथ में चाँद की गुड़िया थी. धक् -धक् करती चाँद की गुड़िया. उसके नन्हे हाथ.. काश एक बार छूकर देख लेती मैं. एकबार उसके गाल चूमती. हाँ, मैंने उसके पैरों में जुराब डाल दिए. उसने अपने छोटे-छोटे पैर हिलाए ..शुक्रिया. ठण्ड बहुत है न.
आँखें बहती रहीं.
दाई चली गई. उसके हाथ में चाँद की गुड़िया थी. धक् -धक् करती चाँद की गुड़िया. उसके नन्हे हाथ.. काश एक बार छूकर देख लेती मैं. एकबार उसके गाल चूमती. हाँ, मैंने उसके पैरों में जुराब डाल दिए. उसने अपने छोटे-छोटे पैर हिलाए ..शुक्रिया. ठण्ड बहुत है न.
आँखें बहती रहीं.
पता नहीं कितनी आँखें बहीं.
वह चली गई थी.रेशमी रजाई में लपेटकर दाई ले गई थी उसे. दाई की छाती खूब गरम थी...कि बस उनसे चिपककर वह चुप-चुप चली गई.
ईजा ने कहा वह बची ही कहाँ.
उसने सब सुना. वह भीनी थी. मजबूत. मेरी गोद में सिर रख
लेटी रही.बाद को उसने पूछा,"सोमी, नर्गिस क्यों खिलते हैं?"
अगला दिन : फिर वही अनंतर
अगले दिन ..
भीनी बिस्तर पर बैठी है.
उसके हाथ में कपड़े की गुड़िया है. बाबू लाये थे, जब पांचवा पूरा हो गया था.
गुड़िया का छोटा सा मुख उसके स्तनों पर
टिका है ...बेढब तरीके से. अल्हड़ माँ. टेढ़े -मेढ़े पकडे है.
मैंने कहा .."ये क्या.."
वह बोली.. "दीदी .. दूध देखो कैसे बह रहा है. रुकता ही नहीं. दर्द उठता है सोमी....चीस चलती है. एक बार कह दे सोमी..
कह दे तो सच."
क्या..क्या ..क्या कह दे सोमी?
फिर कपड़े की गुड़िया भी
चली गई और भीनी भी..
कहाँ ..किस देश? किस ठौर?
नहीं पता.
बाबू का दिल उखड़ गया. ईजा से कुछ कहा करते थे अकसर. तब दिल बहुत दुखता था. थोड़े दिनों बाद हम सब भी गुडगाँव चले आये. नैनीताल छूट गया. झील गई. घाटी गई. तल्ले की कोठी गई. मल्ले की छत गई. और जो सबसे ज्यादा गई ..वह थी मेरी भीनी. बिना ठौर के गई.
तुम भी कुछ कहो
किसी ने मेरा हाथ पकड़ा. इस बार मैं नहीं चौंकी. जानती थी कि किसका स्पर्श है. कौन लौटा
है..क्यों लौटा है..
चर्च के घंटे सुनाने वाली. सुनने वाली.
सफ़ेद बतख.
गले में क्रॉस..
गुलाबी गालों पर भागती हुई रौनक.. रुकी हुई ज़िंदगी.
चश्में से झांकती स्वच्छ आँखें.
"भीनी .. भीनी .."
"सिस्टर सिल्विया.. मैवरिक.."
रविवार की
प्रार्थना खत्म हो चुकी थी. और कोई कुछ कह नहीं रहा था.
कमाल है न.
तब..
हवा ने किया संवाद.
किससे ?
खिड़की से. भीनी की खिड़की से.
जवाब में खिड़की बंद हो गई.
___________________________
फोटोग्राफ : Elliott Erwitt
फोटोग्राफ : Elliott Erwitt
अपर्णा मनोज :
कवयित्री, कहानीकार, अनुवादक़
कुछ मिथकों की पृष्ठभूमि और कुछ अस्तित्व के आवश्यक प्रश्नों से शुरू होती एक भावपूर्ण यात्रा सी मार्मिक कहानी!
जवाब देंहटाएंBeautiful imagery runs marvelously throughout the story...!!!
Congrats Aparna di:)
भीनी के अवसाद को सोमी बेशक समझ-सहेज ले, बाबू और ईजा के लिए समय का सामना कर पाना आसान नहीं है, सद्य-जात शिशु के सामने कितनी अमानवीय और संवेदनहीन हो जाती है मनुष्य के हाथ बनी यह सृष्टि। बेहतर था कि मनुष्य भी अन्य जीवधारियों की तरह मैवरिक ही बना रह जाता। तब सच में यह पृथ्वी एक अभयारण्य होती। एक बेहद संवेदनशील और आर्द्र मन से रची बर्फ के रेशों में दबी एक मार्मिक कथा, जिसे पढकर मन बेचैनी से सुलग जाए।
जवाब देंहटाएंआपको पढ़ते हुए लगता है जैसे हम किसी और दुनिया में चले गए हैं.... शायद उसी जगह जिसके बारे में आपने लिखा है... Shaifaly
जवाब देंहटाएंटुकड़े-टुकड़े दास्तान बढ़िया लगी. सहज और बेहद मौलिक.
जवाब देंहटाएंएक ओर भीनी के सहज प्राकृतिक मनोभाव दूसरी ओर समाज के नियमों की निर्ममता को अनुभव करते भीनी के बाबू और ईजा। सबको देखती हुई सोमी और भीनी के मन की परतों को महसूस करते कहानी से गुजरता पाठक।
जवाब देंहटाएंप्रस्तुतिकरण की मार्मिकता पाठक को संवेदना के एसे वितान में ले जाती है जहां सारे सामाजिक नियम, भय प्रकृति के अमूल्य उपहार, मातृत्व का उपहास करते लगते हैं।
मातृत्व की गरिमा को अनूठी ऊंचा ऊंचाई देती कहानी।
यह अपर्णा जी की कलम का ही कमाल है कि पढते हुए नैनीताल को अनुभूत करने का आभास कराता है।
अपर्णा जी को फिर एक अच्छी कहानी के लिये बधाई।
समालोचना का आभार तो है ही। समालोचना के माध्यम से सतत सार्थक रचनाओं का आस्वाद मिलता है।
नंद जी का कमेंट सारी बातों को बखूबी रख देता है...मार्मिक कहानी....रचयिता में साहस और धैर्य हो सकता है..समाज में नहीं होता अक्सरहा...
जवाब देंहटाएं-सुमन केशरी
अपर्णा कहानी का कथ्य ही नही शिल्प भी शानदार है.. उदास कर दिया कहानी ने..बेरहम समाज..
जवाब देंहटाएंअपर्णा ,हलाकि कहानी पढ़ना अभी बाकी है पर समालोचन जैसे स्तरीय माध्यम में रचना प्रकाशित होना यूँ भी सबूत है रचना की उत्कृष्टता का सो अग्रिम बधाई | शाम को पढूंगी फुर्सत से ...:)
जवाब देंहटाएंबहुत ही सूक्ष्मता से संवेदनाओं को उकेरा गया है कथ्य और शिल्प की गहन,सशक्त एवं भावपूर्ण बुनावट...बधाई अपर्णा जी ...
जवाब देंहटाएंइस बीच दो कथाकारों की कुछ कहानियां पढ़ीं : प्रत्यक्षा और अपर्णा मनोज कीं (खास तौर पर 'भीतर जंगल' और 'मैवरिक'). इन कहानियों को पढ़कर अनायास यह अहसास हुआ कि हमारे नए लेखन में कहानी का कंटेंट और फॉर्म ही नहीं, कहानी का बीज यानी आदमी और जिंदगी के प्रति रचनाकारों के सरोकार में भी फर्क आ गया है. पहले मुझे लगा कि नए समाज में आदमी की प्रवृत्ति अंतर्मुखी हो गयी है, इसलिए अपने परिवेश के प्रति उसके सरोकार भी बदले हुए दिखाई दे रहे है. मगर इन कहानियों को पढ़कर लगा कि यह बदलाव इससे न सिर्फ अलग, अधिक विश्वसनीय भी है. खास बात यह है कि यह प्रवृत्ति कथा लेखिकाओं में ही दिखाई दी है, सिर्फ लेखिकाओं में, मगर यहाँ भी पिछले दस पंद्रह सालों में उभरी कथा-लेखिकाओं में. आप स्नोवा वार्नो, महुवा मांझी, सुमन केशरी अग्रवाल, मनीषा कुलश्रेष्ठ, भाषा सिंह, कविता, सोनाली सिंह आदि में यह अंतर महसूस कर सकते हैं. जिन दो लेखिकाओं का शुरू में जिक्र किया गया हैं, वे तो इसमें हैं ही.
जवाब देंहटाएंइन कहानियों की दूसरी खास बात यह है कि इनका परिवेश कोई निश्चित या 'स्पेसिफिक' नहीं है. उसे आप बाहर के संसार में उसी नाम से नहीं पा सकते. वह आदमी (औरत) की अपने अन्दर की दुनिया है, जिसे वह अपनी शर्तों पर (जाहिर है, पहली बार) प्राप्त कर रही है. मजेदार बात यह है कि ये दुनिया दूसरे लोगों के लिए ही नहीं, उसके अपने लिए भी हैरत-अंगेज है. पहली बार देखा और महसूस किया गया यथार्थ. यह यथार्थ का एक तरह से नए सिरे से प्रजनन है... और निःसंदेह, यह काम सिर्फ और सिर्फ औरत ही कर सकती है.
कहानी से पहले कि भूमिका भी बहुत पसंद आई.....एक स्त्री के मनोभावों को जब आप जस का तस रख देती हैं तो हर स्त्री को उसमें कंही न कहीं अपना अक्स नज़र आना स्वाभाविक है अपर्णा दी, कहानी कई ऐसे सवाल छोड़ जाती है जो सोचने पर मजबूर करते हैं......कुछ पंक्तियाँ तो बस अद्भुत हैं.....जैसे वो मरियम और यीशु का बिम्ब......बधाई और शुभकामनाये.....
जवाब देंहटाएंअर्पणाजी बहुतै अच्छी कहानी है। बहुत भावुकता ह इसमें। कहानी की पूरी बुनावट अच्छी लगी। बहुत कुछ कह जाती है यह कहानी। जिन कहानियों में पात्र ज्यादा होते हैं मैं पढ़ते हुए उलझ जाता हूं। यहां कहानी दो तीन पात्रों के बीच चलती रही। कहानी के मोड़ अच्छे हैं।
जवाब देंहटाएंस्मृतियों के अंदरूनी अंतर्विरोधों के बीच टूटता बनता अकेलापन. अपर्णा जी विडंबना के बेहद आक्रामक शिल्प बुनती हैं जहां सरलीकरण और रोमान के अभिशाप से ग्रस्त जीवन, यथार्थ के कुछ विस्मयपूर्ण प्रश्नों के रूप में सामने आता है...... शॉक ट्रीटमेंट की तरह.........यह उनका अपना शिल्प है. खरा और बेलौस...
जवाब देंहटाएंachhi hai kahani
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक कहानी है। जज्बात से भरपूर। भीनी का साहसिक निर्णय जितना आश्वस्तिकारक है, उतना ही दुख उसकी निर्मम परिणति में।... कहानी का शिल्प बहुत गठा हुआ है और जो वातावरण निर्मित किया गया है, वह कथ्य को पूरी संजीदगी के साथ व्यक्त करता है। मेरे ख़याल से कहानी की भूमिका की कोई जरूरत नहीं थी, कहानी अपने आप ही सब कह देती है। फिर भी रचनाकार का अपना निर्णय है। बधाई और शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंमार्मिक, स्त्री-मन की संवेदनाओं के विभिन्न पहलुओं को छूती हुई, गज़ब के शब्द-शिल्प व माधुर्य से भरी हुई कहानी। बधाई अपर्णा जी को ऐसी कहानी लिखने के लिए और अरुण जी को इसकी प्रस्तुति के लिए।
जवाब देंहटाएंकिन्वन्दंती को आधुनिक यथार्थ से जोड़कर बुनी गयी कहानी जिसमें काव्यात्मक शैली मनोस्थिति का भली भांति चित्रण करती हैं.अपर्णा मूलतः कवियत्री हैं जो उनकी कहानियों में कभी कभी प्रवाह को धीमा कर देता है.दो अंशों की बजाय मूल कथ्य में ही प्राचीन और नवीन को समेटा जा सकता था.उम्मीद से भी सुन्दर मार्मिक कहानी.
जवाब देंहटाएंकई दिन पहले कहानी पढ़ी……कई दिनों तक मन बोझिल रहा। कहानी पढ़ने के बाद,ख़ुद को उस से खींच कर बाहर लाना पड़ा, और ऐसा प्रभाव एक अच्छी कहानी ही डाल सकती है। इससे पहले भी आपकी एक कहानी पढ़ी थी, नाम याद नहीं आ रहा पर कहानी पिक्चर की तरह मन में है। आप अच्छी कविताओं के साथ-साथ बहुत प्रभावशाली ढ़ग से कहानियाँ भी लिखती हैं और एक अच्छी अनुवादक भी हैं। बधाई के साथ शुभकामनाएं। और हाँ, कहानी का हर पैरा एक ग़ज़ल:
जवाब देंहटाएं"अजनबी शहर के अजनबी रास्ते, मेरी तन्हाई पर मुस्कुराते रहे।
मैं बहुत देर तक यूँ ही चलता रहा, तुम बहुत देर तक याद आते रह॥
ज़ख़्म जब भी कोई ज़हने दिल पर लगा, ज़िंदगी की तरफ़ इक दरीचा खुला।
हम भी गोया किसी साज़ के तार हैं, चोट खाते रहे गुनगुनाते रहे॥
कल कुछ ऐसा हुआ, मैं बहुत थक गया, इसलिए सुनके भी अनसुनी कर गया
कितनी यादों के भटके हुए कारवाँ, दिल के ज़ख़्मों के दर खटखटाते रहे॥
की लाईनों में से किसी लाईन से शुरू होता है। यह बात कुछ अलग हटके है। समालोचन को बधाई।
achchha laga Amrita ji .. aapne bade gaur se kahani ko padha aur gazal ke har us ansh ko pahchan liya... is gazal ka gahara connection hai is kahani se.. jab-jab is kahani ke plot ko aage badhaya.. tab-tab ye gazal likhne se pahle suni..ismen numaya dard afsaane mein bhi utarta gaya aur afsaana Bhini ho saka... shukriya is pyaare comment ke liye.
जवाब देंहटाएंsabhi mitron ka dhanywad ki unhone kahani ko padha aur pasand kiya.
kahani bahut marmik hai. kafi der baad hi uske prabhav se bahar nikal paya. tabhi likh pa raha hoon. kathya to man ko chhone vala hai hi, par shilp bhi adbhut hai. jeevant vatavaran ka chitr sa khich jaata ha, gazhal jaisa baareek ahsaas aur a rishton ki behad atmeey anubhuti, badhai aparna ji
जवाब देंहटाएंmanmohan saral, mumbai
देर से देख पाया हूँ। अच्छी है। बधाई।
जवाब देंहटाएंहाय! अपर्णा....पिघले मोम से मन को और पिघला दिया...कुछ कहूँगी नहीं फिलहाल....कहानी की अप्रतिमता पर....इसके अजब - गजब शिल्प पर....मगर मेरे भीतर जमता - सा दुख पिघला दिया, अच्छा होता कुछ ठहर कर पढ़ती. मर्म कुरेदना कोई तुम से सीखे....
जवाब देंहटाएंbadi pyari kahani hai aparna ji, dil ko chu lene wale shbdo ki aap jadugar hai badhai ho .
जवाब देंहटाएंRAMESH YADAV,
MUMBAI
PHONE - 9820759088
खरगोश का संगीत राग रागेश्री पर आधारित है जो कि खमाज थाट का सांध्यकालीन राग है,
जवाब देंहटाएंस्वरों में कोमल निशाद और बाकी स्वर शुद्ध लगते हैं, पंचम इसमें वर्जित है, पर हमने इसमें अंत में पंचम का
प्रयोग भी किया है, जिससे इसमें राग
बागेश्री भी झलकता है.
..
हमारी फिल्म का संगीत वेद नायेर ने दिया
है... वेद जी को अपने संगीत कि प्रेरणा जंगल
में चिड़ियों कि चहचाहट से
मिलती है...
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