किस से पूछूँ कि कहाँ
गुम हूँ कई बरसों से
हर जगह ढूँढता फिरता
है मुझे घर मेरा.’
नरेश गोस्वामी
की कहानी ‘छिपकलियाँ’ पढ़ते हुए निदा फ़ाज़ली का यह शेर याद आता रहा. ‘देस वीराना’ की
कोई न कोई कथा हर शहरी के पास है. महानगर ईटों के ही नहीं यादों के भी खंडहर पर
आबाद हुए हैं. यह एक विराट सांस्कृतिक अपघटन भी है.
नरेश गोस्वामी
ने बड़ी ही संवेदनशीलता से छूटे हुए घर को याद रह जाने वाली कहानी में बदल दिया है.
प्रस्तुत है
कहानी
छिपकलियाँ
नरेश गोस्वामी
बड़े भाई के विवाह के बाद जब मैं हॉस्टल से कई महीने बाद वापस आया तो साफ़ महसूस हुआ कि अब चीज़ें पहले की तरह नहीं रहेंगी. बड़े भाई और भाभी को इतने लोगों का आना-जाना और उनके लिए चाय बनाना अच्छा नहीं लगता था. इसके बाद यह एहसास हर बार गहरा होता गया कि कहीं कुछ है जो तेज़ी से रीतता जा रहा है. लेकिन, चीज़ें घर के बाहर भी बदल रही थीं. एक बार पिता ने बताया था कि उनके लंगोटिया यार त्रिवेदी जी भी बच्चों के पास नोएडा चले गए हैं.
गली में घुसते ही मन
और बोझिल हो गया है. मुझे एक गहरे संकोच ने ग्रस लिया है कि अगर इस बीच कोई परिचित
मिल गया तो समय की कमी के कारण उससे ढ़ंग से बात भी नहीं कर पाऊंगा. हालांकि यह
मेरा ही कस्बा है. मैं यहीं पैदा हुआ था. पांचवी कक्षा तक यहीं पढ़ा था. इसके
गली-मुहल्लों के एक-एक मोड़ से परिचित हूं. लेकिन पिछले पच्चीस बरसों में मैं
यहां इतना कम आया हूं कि खुद को अजनबी महसूस करने लगा हूं. युवाओं की एक पूरी
पीढ़ी है जिसे मैं पहचानता नहीं. पहले जब मेरा यहां आना इतना अनियमित नहीं हुआ था
तो मैं कभी-कभी किसी का चेहरा देखकर चोरी-चोरी मिलान करता था कि अब यौवन की बेपरवाही
और चमक के आखि़री निशान संभालता वह चेहरा कहीं उस बच्चे का तो नहीं है जो मेरे
बीए करने के दौरान दस बरस का रहा होगा. और ऐसे में जब मेरा अनुमान सही निकलता था
तो मैं एक अजीब सी आश्वस्ति से भर जाता था कि मेरा कस्बा मेरे अंदर अभी भी बचा
हुआ है.. कि मैं दिल्ली के उन तमाम लोगों में शामिल नहीं हूं जिनके पास अपने गांव
या कस्बे की कोई स्मृति नहीं है और जिन्हें सिर्फ़ अपनी मूल जगहों के नाम याद
रह गये हैं... न कभी वे उन जगहों पर गए, न किसी ने उन्हें बुलाया !
लेकिन इन वर्षों में मेरा
यहां आना-जाना लगभग ख़त्म हो गया है. कभी आया भी तो किसी की मौत या बीमारी पर और
वह भी इस तरह कि दोपहर को पहुंचा और शाम तक दिल्ली वापस हो गया.
इसलिए, आज जब तहसील के
क्लर्क ने अपनी कुर्सी से उठते हुए कहा कि ‘अब तो लंच का टाइम हो रहा है. आपका
डॉमिसाइल चार बजे तक मिल पाएगा’ तो मैं अचानक निराश और बेचैन हो गया. इसका
मतलब था कि मुझे अभी तीन घंटे और इंतज़ार करना पड़ेगा. मैं यह वक़्त तहसील के इस
परिसर में गुजारने की कल्पना मात्र से थर्रा गया था. टीन-टपरियों के नीचे बैठे
वकीलों, मुवक्किलों और आने जाने वालों की भीड़, हवा में टंगी धूल और
समोसे-छोले-भठूरे की महक के बीच तीन घंटे निरूद्देश्य बैठे रहना असंभव था.
हालांकि मैं इन तीन घंटों को फील्डवर्क का नाम देकर और कुछ नोट्स तैयार करके उन्हें
भविष्य के किसी लेख में इस्तेमाल कर सकता था. लेकिन फिलहाल मेरे भीतर ऐसी कोई
चौकन्नी इच्छा मौजूद नहीं रह गयी थी. दिमाग का जितना भी हिस्सा काम कर रहा था,
वह इन तीन घंटों के बारे में सोच कर हलकान हुआ जा रहा था.
तहसील के बरामदे से
बाहर आते हुए एक बार तो वह क्षण भी आया कि मैं अपनी ही भर्त्सना करने लगा: साले,
तुम्हें इस चक्कर में पड़ने की ज़रूरत ही क्या थी? क्या तुम
वाक़ई कभी दिल्ली छोड़कर कस्बे के बाहर
बन रही इस इस टाउनशिप में रहने आ जाओगे ? मुझे तब वे बहुत से साहित्यकार और
परिचित भी याद आए जो कभी चालीस पचास साल पहले नौकरी के सिलसिले में दिल्ली आए थे,
और जो अपनी कविताओं में हमेशा अमराई, पीपल की छांव और गांव-खेतों की पगडंडियों को
याद करते हुए कविताएं लिखते रहते थे, लेकिन अपने जीते जी वे कभी अपनी मूल जगह नहीं
लौट पाए.
पर मेरा मामला कुछ अलग
था. असल में, जब दिल्ली से लगे हमारे कस्बे के बाहर सार्वजनिक क्षेत्र की एक
नामी कंस्ट्रक्शन कंपनी ने नयी टाउनशिप बसाने का निर्णय लिया और उसमें एक
प्रावधान यह रखा कि कस्बे के मूल निवासियों को फ़्लैट खरीदने पर ख़ास डिस्काउंट
दिया जाएगा तो दोस्त और भाई लोग ज़ोर देने लगे कि अगर मौक़ा हाथ आ रहा है तो उसे
छोड़ क्यों रहे हो. कुल मसला एक लाख के डिस्काउंट और दिल्ली की भीड़ से दूर भाग
कर हरे-भरे खेतों के बीच ‘एक्सट्रा’ जगह हासिल करना था जहां जहां कभी-कभी फुर्सत
के वक़्त जाया जा सके. वर्ना तब तक कस्बा ही बदल चुका था. मेरे मुहल्ले के कई
लोग इस प्रस्तावित टाउनशिप में फ़्लैट के लिए एप्लीकेशन डाल चुके थे.
लेकिन जब तहसील के
परिसर से बाहर निकल कर सड़क पर पहुंचा तो याद आया कि सुबह दिल्ली से चलते समय
पिता ने कस्बे के इस घर की चाबी देते हुए कहा था कि ‘अगर तहसील का काम जल्दी
निपट जाए तो एक बार घर खोल कर हवा-बाल लगवा देना’. लेकिन पता नहीं क्या है कि कस्बे
के इस घर का ख़याल आते ही मन कसैला हो जाता है. असल में, कई चीज़ें तह दर तह उलझी
हुईं हैं. उस घर में बीता अधूरा बचपन, मां की असमय मृत्यु, परिवार का बिखराव और
मेरा बरसों बरस हॉस्टल में सिर्फ़ इसलिए पड़े रहना कि मेरे पास लौटने के लिए कोई
घर ही नहीं रह गया था. ये सब चीज़ें मेरे भीतर शायद टिड्डियों की तरह सोई रहती
हैं, लेकिन जब जगती हैं तो देखते-देखते मन उजाड़ हो जाता है.
मैं गाहे-बगाहे ख़ुद
को याद दिलाता रहता हूं कि मैं अब बच्चा नहीं रह गया हूं. कि मैं
छियालिस-सैंतालिस साल का एक अधेड़ आदमी हूं जो जीवन के इन वर्षों में बहुत से घरों
को टूटते और लोगों को अपनी जगह से पलायन करते देख चुका है. कभी मैं ख़ुद को यह
समझाने की कोशिश करता हूं कि संयुक्त परिवार कोई महान या दैवीय आदर्श नहीं होता,
वह महज़ खेतिहर अर्थव्यवस्था का लक्षण होता है... चूंकि इस प्रकार की अर्थव्यवस्था
में तकनीकी विकास का स्तर बहुत उन्नत नहीं होता इसलिए परिवार के बहुत सारे सदस्यों
को एक साथ मिलकर काम करना पड़ता है.
अपनी भावुकता से बचने
के लिए मैं ख़ुद को कस्बे के कई अन्य परिवारों के हश्र की याद भी दिलाता हूं:
‘अच्छा, अपनी गली में ही हरबीर मास्टर के परिवार का क्या हुआ? छह बेटों के
परिवार में सिर्फ़ एक बेटा कस्बे में बचा. बाकी सब दिल्ली-एनसीआर के निवासी हो
गए. हरबीर कभी एक के पास जाकर रहते हैं कभी दूसरे के पास. और जब हर जगह से दुखी हो
जाते हैं तो वापस कस्बे में लौट आते हैं ’.
कई बार मैं ख़ुद से
कहता हूं: ‘...और तुम्हारा परिवार तो कभी खेतिहर था भी नहीं. यह तो पहले से तय था
कि देर सबेर सब लोगों को अपनी जीविका के लिए बाहर निकलना ही पड़ेगा. फिर ऐसा
परिवार एकजुट कैसे रह सकता था?
लेकिन इन बातों को
बखूबी समझने और ख़ुद से कही हुई दलीलों का मर्म जानते हुए भी मैं कस्बे के घर के
प्रति अपनी भावुकता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया. मुझे हमेशा लगता रहा कि अगर
मुझसे बड़े थोड़ी समझदारी दिखाते तो यह घर कभी इस तरह खड़े खड़े खण्डहर न होता.
धीरे-धीरे मेरी यह भावुकता एक कट्टर उदासीनता में बदल गयी और मैं उन अवसरों पर भी
आने से कतराने लगा जब परिवार के बाक़ी लोग किसी शादी-ब्याह के सिलसिले में
पूजा-पाठ करने के लिए यहां एक-दो दिन के लिए इकट्ठा हो जाया करते थे. बाद में एक
समय यह भी आया कि मैं इस घर और कस्बे से इतना अनासक्त हो गया कि पिता से घर को
बेचने के लिए कहने लगा.
(दो)
कस्बे के बड़े बाज़ार
से गुजरते हुए मन में कई बार आया कि घर जाने के बजाय बाज़ार का एक चक्कर लगाकर
रेलवे स्टेशन की तरफ़ निकल जाऊं. लेकिन फिर लगा कि अगर शाम को उन्होंने पूछ लिया
तो क्या जवाब दूंगा ! पहले पिता से झूठ बोलते हुए मुझे संकोच नहीं होता था. उन्हें
फौरी तौर पर संतुष्ट करने के लिए मैं फटाक से झूठ बोल देता था और वे आश्वस्त हो
जाते थे. लेकिन जब से वे बूढ़े हो गए हैं, मैं उनसे झूठ नहीं बोल पाता.
बचपन में बड़े बाज़ार
से घर की दूरी कितनी लंबी लगती थी. लेकिन आज बाज़ार से निकला तो बमुश्किल पांच
मिनट बाद अपनी गली में पहुंच गया.
पहले के मुकाबले दौरान
गली के ज्यादातर मकान दुमंजिले और सुंदर हो गए हैं. कई घरों के बाहर स्टील की
चमचमाती रेलिंग दिख रही है. बचपन के सपाट खिड़की-दरवाजों के मुकाबले नए-नए डिजाइन
आ गए हैं. बैठक इन्हीं मकानों के बीच खड़ी है. बरसों से बेरंग और भुरभुरी. चबूतरे
की रेलिंग का रंग न जाने कब का उखड़ चुका है. बैठक के इस चूबतरे की ओर खुलते
दरवाजे पर पिछले पेंट के केवल कुछ निशान बच गए हैं जिन्हें देखकर अंदाज़ा नहीं
लगाया जा सकता कि अपने मूल रूप में इस पेंट का रंग कैसा रहा होगा. इस अहाते का मेन
गेट तो मेरे बचपन में ही टूट चुका था. तब पिता ने कुनबे के बाक़ी लोगों से कहा था
कि अगर दरवाज़ा सबका है तो उसे बनवाने में भी सभी को अपना योगदान देना चाहिए. इस
पर तब बहुत किचकिच हुई थी. कुनबे के जो लोग बाहर जा बसे थे, उन्होंने यह कहते हुए
पैसा देने से साफ़ मना कर दिया था कि जब हम वहां रहते ही नहीं तो पैसा किस बात का
दें! बाकी़ दो परिवारों ने, जो अभी तक यहीं रह रहे हैं, तब यह कहा था कि अभी उनकी
हालत पैसे देने की नहीं हैं इसलिए अगर फिलहाल गेट लगवाने का काम पिता कर लें तो
बाद में वे एक-एक पाई चुका देंगे. बहरहाल, पिता ने उनकी बात पर यक़ीन नहीं किया.
लिहाज़ा गेट लगने का सवाल हमेशा के लिए स्थगित हो गया.
हमारी बैठक इस नंगे
दरवाजे़ के बाईं तरफ़ है. दरवाजे के सामने एक खुली गैलरी सी चली गयी है. यहां
कुनबे के चाचा रामरूप की चारपाई बिछी है. अहाते में घुसते हुए मेरी नज़र सबसे पहले
चाचा की चारपाई पर गयी थी इसलिए बैठक की तरफ़ मुड़ने से पहले मैं उन्हीं के पास
पहुंचा. मैंने उन्हें राम-राम की, लेकिन उनकी ओर से कोई ख़ास जवाब नहीं आया. कुछ
देर बाद उन्होंने बमुश्किल कम्बल से मुंह बाहर निकाला. अच्छा हुआ कि इसी बीच
उनकी बड़ी बहू बाहर निकल आईं. बड़ी बहू मतलब कमलेश मुझे तब से जानती हैं जब मैं
सात साल का था. उसने बताया कि चाचा ‘महीने भर से बीमार चल रहे हैं... पूरे बदन पर
खाज हो गई है. नज़र और कान तो पहले से ही कमज़ोर हैं, एक बार में न किसी को
पहचानते पाते हैं, न कुछ सुन पाते हैं’. मैं चाचा से बात करना चाहता था पर उनकी
स्थिति देखकर हिम्मत नहीं हुई. मैंने कमलेश को इशारे में कहा कि चाचा को परेशान न
किया जाए. और वह चाय की जिद करते हुए मुझे अंदर ले गई.
कमलेश बता रही है कि चाचा
के सबसे छोटे बेटे की शादी के बाद उनकी चारपाई घर की चौखट के बाहर रहने लगी है. घर
के तीनों कमरे तीन बेटों में बंट गए हैं. मैं देख रहा हूं कि एक कोने में नल के
बराबर बित्ते भर की जगह है जिसमें चाचा की संकरी चारपाई जैसे तैसे फंसी रहती है.
छत पर एक नया कमरा बन जाने के कारण नल के ऊपर दिखाई देने वाला छोटा सा चौकोर आसमान
अब पूरी तरह पट गया है. इस अंधेरी और लगभग दमघोंटू जगह का इस्तेमाल बारिश या
गर्मियों की विकट स्थितियों से बचने के लिए ही किया जा सकता है. लिहाजा चाचा की
चारपाई मौसम के अनुसार जगह बदलती रहती है.
सर्दियों में दस बजे
के आसपास उनकी चारपाई सामने की खाली जगह में डाल दी जाती है. फिर दोपहर का खाना,
सोना और तीन बजे की चाय— सब यहीं पर होता है. धूप ढलने पर चारपाई फिर चौखट वाली
दीवार से सट जाती है. यह जगह कुनबे के दो लोगों की हैं जो बरसों पहले मेरठ जाकर बस
गए थे. इस जगह का इस्तेमाल अब रामरूप के बच्चे और बहुएं ही करते हैं. लेकिन साल
में जब एकाध बार जगह के मालिक यहां आते हैं तो इसके इस्तेमाल के सारे निशान मिटा
दिए जाते हैं. यहां तक कि ईंटों की झिर्रियों में ठोकी गयी कीलें भी निकाल ली जाती
हैं. उस दिन वहां न चाचा की चारपाई बिछती है, न कपड़े सुखाए जाते हैं.
मैंने पिता से कई बार
कहा है कि जब इस बैठक में कोई रहता ही नहीं तो इसकी चाबी चाचा रामरूप को क्यों
नहीं दे देते. आखिर इस बात की क्या तुक है कि यह महीनों बंद पड़ी रहे, इसमें जाले
लगते रहें, दीवारों में सीलन फैलती रहे और आप यहां साल में कभी कभार आकर मरी हुई
छिपकलियों को बुहारते रहें! मैं जानता हूं कि पिता ने मेरी इन बातों पर कभी ध्यान
नहीं दिया. एक बार जब मैंने उनकी आध्यात्मिकता को आड़े लेकर कहा था कि अगर आप
कण-कण में भगवान होने का दावा करते हैं तो आपका चाचा रामरूप की हालत पर ध्यान क्यों
नहीं जाता ! घर में जगह की किल्लत के कारण उनकी चारपाई हमेशा खुले में
पड़ी रहती है. बारिश और गर्मी के दिनों में उनका क्या हाल होता होगा!
इस पर पिता ने केवल
इतना कहा था: ‘तुम तो यहां से बचपन में चले गए थे. तुम्हें इन लोगों के बारे में
कुछ नहीं पता. ये हद दर्ज के चालाक और गंदे लोग हैं. कहां हमारा परिवार और कहां ये
लोग ! मैं उस दिन पिता से यह कहते हुए लगभग भिड़ गया था कि, ‘आपकी यह आध्यात्मिकता
और नफ़ासत सिर्फ इसलिए बरकरार है क्योंकि इस परिवार में बाबा से लेकर आप तक नौकरी
का सिलसिला रहा है और चाचा रामरूप का खानदान इसलिए चालाक और गंदा है क्योंकि इन
सत्तर सालों में वे मजदूरी से आगे नहीं बढ़ पाए हैं’. मेरी बात सुनकर पिता ने खीझ
भरे स्वर में कहा था: ‘तुम्हारी सोच ही अव्यावहारिक है, तुम हर चीज में आर्थिक
पहलू घसीट लाते हो जबकि व्यक्ति अपनी मूल प्रकृति के कारण ही अच्छा या बुरा होता
है’. पहले पिता के इन पदों— मूल प्रकृति, सात्विक और तामसिक प्रवृत्ति पर आए दिन
बहस होती थी. फिर मुझे लगने लगा कि मैं अकेला ही क्या हम सब ऐसे ही पिताओं से
घिरे हैं. और मैंने उनका प्रतिवाद करना छोड़ दिया.
(तीन)
चाचा की चारपाई और
बैठक के बीच की दूरी बमुश्किल बीस कदम होगी. लेकिन वहां से बैठक की ओर जाते हुए
लगा जैसे मैं किसी गहरी कीचड़ में चल रहा हूं. बैठक का बरामदा, खिड़की-दरवाजे सब
धूल से अंटे हैं. मेरी हिम्मत नहीं हो रही कि बैठक को अंदर से खोल कर देखूं.
लेकिन फिर वही ख़याल आया कि शाम को जब दिल्ली लौटूंगा तो पिता को क्या जवाब
दूंगा.
पता नहीं आज से पहले इस
बैठक को कब खोलकर देखा गया होगा. एक कोने में खिड़की से लेकर कडि़यों तक मकड़ी का एक
बहुत बड़ा जाला लग गया है. धूल के बोझ के कारण वह जाला कई जगह लटक सा गया है. छत
और दीवार पर कई काली और मोटी छिपकलियां चल रही हैं. कुछ एक ही जगह चिपकी हुई हैं
तो कुछ कच-कच-कच की आवाज़ करते हुए एक दूसरे से लड़ रही हैं. एक हमलावर छिपकली अचानक
दूसरी छिपकली की ओर लपकी है. वह हमले से बचने के लिए दीवार पर बेतहाशा दौड़ते हुए
फर्श पर जा गिरी है. इस बीच मैंने उनकी गिनती कर ली हैं. फिलहाल छत और दीवारों को
मिलाकर पर बैठक में पूरी नौ छिपकलियां मौजूद हैं. मुझे अचानक एक वाहियात ख़याल आता
है: आदमियों के जाने के बाद खाली घर में छिपकलियां क्या करती होंगी. पर मैं उसे
झटक देता हूं. फर्श पर धूल की इतनी मोटी तह जमी है कि उस पर पैर रखते ही जूते का
पूरा नक़्शा छप जाता है. दीवारों का पलस्तर कहीं फूल गया है तो कहीं उसमें पिछले
बरसों के छिपे हुए रंग उभर आए हैं. अंदर एक ऐसी गंध है जो लोगों के चले जाने के
बाद मकान में शायद उनकी जगह घेर लेती है.
उन्नीस सौ नब्बे के
आसपास यह जगह पूरे मौहल्ले का दीवाने आम हुआ करती थी. गर्मियों की छुट्टियों में सुबह
पांच बजे से लेकर रात के नौ बजे तक इसके दरवाज़े हमेशा खुले रहते. दिन का कोई
वक़्त ऐसा नहीं होता था जब इस बैठक के भीतर पड़े तख़्त या कुर्सियों पर कोई आदमी
लेटा या बैठा न मिलता हो. पिता के मित्रों के आने-जाने का सिलसिला अलसुबह शुरू हो
जाता था. उनके एक मित्र महावीर तो शायद उससे भी पहले आ धमकते थे. वे दोनों सुबह की
सैर के साथी थे. जब तक वे खेतों से टहल कर वापस आते, हम अपने बिस्तर और चारपाई
उठाकर तैयार मिलते थे. महावीर बैठक में घुसते ही अख़बार उठा लिए करते थे. उस समय
मुझे उनकी सबसे दिलचस्प बात यह लगती थी कि वे अख़बार हाथ में लेकर सबसे पहले अपना
चश्मा आंखों से उठाकर माथे पर रख लिया करते थे. तब मुझे दूर या पास की नज़र के
फ़र्क का नहीं पता था. महावीर अख़बार पढ़ते कम सुनाते ज्यादा थे. इसके साथ उनका
तपसरा भी चलता रहता था. इस बीच हम अंदर से चाय ले आते थे और पिता मेज-कुर्सियों के
पाये की धूल साफ़ करने में लगे रहते थे. धीरे-धीरे यहां-वहां पड़ी चीज़ों को करीने
से लगाना उनका रोज़ का काम था. मुझे उनका यह सब करना थोड़ा सनक भरा काम लगता था,पर
बेकार पड़ी चीज़ों को सहेज कर रखना उनकी आदत में शामिल था.
तब सामने की खुली
अलमारी में एक तरफ़ हमारी किताबें और दूसरी तरफ़ अख़बार रखे रहते थे. अब वहां जूते
का एक खाली डब्बा पड़ा है.
इतवार के दिन तो लोगों
के आने का सिलसिला सुबह शुरु होकर शाम को ख़त्म होता. पिता के कई मित्र तो ऐसे थे
जो सिर्फ दोपहर के भोजन के लिए विदा होते और एक घंटे के भीतर फिर लौट आते. हां,
कभी कभी तब भी महसूस होता था कि हमारे यहां बाहर से कितने लोग आते हैं लेकिन चाचा
रामरूप या उनके बेटे-पोते इस बैठक में कभी नहीं आते थे. बरामदे के सामने से वे इस
तरह गुजर जाते जैसे कोई किसी को जानता ही नहीं है. हमारे परिचित लोगों के लिए भी
उनका कोई वजूद नहीं था. लेकिन तब इस दूरी का कारण समझ नहीं आता था. और सच तो ये है
कि तब मुझे इसमें कुछ भी असहज नहीं लगता था. वह सब बाद में समझ आया.
बड़े भाई के विवाह के बाद जब मैं हॉस्टल से कई महीने बाद वापस आया तो साफ़ महसूस हुआ कि अब चीज़ें पहले की तरह नहीं रहेंगी. बड़े भाई और भाभी को इतने लोगों का आना-जाना और उनके लिए चाय बनाना अच्छा नहीं लगता था. इसके बाद यह एहसास हर बार गहरा होता गया कि कहीं कुछ है जो तेज़ी से रीतता जा रहा है. लेकिन, चीज़ें घर के बाहर भी बदल रही थीं. एक बार पिता ने बताया था कि उनके लंगोटिया यार त्रिवेदी जी भी बच्चों के पास नोएडा चले गए हैं.
पिता के साथ उन सात-आठ
रिटायर्ड और बूढ़े लोगों की दुनिया तेज़ी से बदल रही थी. उनके पोते-पोतियों का
भविष्य कस्बे के बजाय दिल्ली, नोएडा और गुडगांव में था. लेकिन, इन बुढ़ाते
लोगों की दिक़्क़त ये थी कि वे जीवन की लंबी पारी खेल कर कस्बे में वापस लौटे थे.
इनमें कुछ ऐसे भी थे जिन्होंने दिल्ली में जीवन भर नौकरी तो की, लेकिन वहां कभी
घर नहीं बनाया.
(चार)
मैं किसी भी तरह
पुराने इतवार की कोई सुबह याद करना चाहता हूं जिसमें कुर्सी-मेज़,तख्त, चारपाई,
संदूक, किताबें और अख़बार सब अपनी जगह करीने से लगे हों; अंदर से चाय
के लिए आवाज़ आए, दस बजे तक वैद्य बाबा आ जाएं हमेशा की तरह कस्बे के रेलवे स्टेशन
पर गांधी जी के आगमन का कई बार सुना हुआ किस्सा फिर सुनाएं; दोपहर के खाने
के बाद हम तख्त पर चित्त हो जाएं और हमारी नींद के दौरान पिता सुबह के छूटे हुए
कामों को पूरा करते रहें... लेकिन दिमाग़ में जैसे ही उस दौर की कोई सुखद स्मृति
उचकती है तो मेरा ध्यान दीवार पर रेंगती छिपकलियों और आसपास जमी धूल और चीकट पर
चला जाता है.
‘देख लो भाईसाहब, कदी
कितनी रमन्नक रहवै थी इस बैठक में और आज इसमें झाड़ू तक नहीं लगती... इससै तो अच्छा
है कि ताऊ जी से कहके...’. यह आवाज़ रामरूप चाचा के लगभग मेरे हमउम्र बेटे संजीव की
है. बात कहते-कहते उसकी आवाज़ में एक संकोच उतर आया है. मैं पलट कर देखता हूं. वह
एक छोटी सी ट्रे में चाय का कप लेकर मेरे पीछे खड़ा है.
‘अगर यहीं बैठणे का जी
हो तो किसी बच्चे से सफ़ाई करवा दूं’. वह मुझे चाय का कप थमाकर कहता है.
बाहर गैलरी नुमा रास्ते
की दीवार से सटी चारपाई पर पड़े चाचा खंखार भरी आवाज़ में किसी को पुकार रहे हैं. मुझे
लग रहा है कि जैसे उनकी आवाज़ एक चक्राकार लहर बनकर धीरे-धीरे बरामदे और बैठक में
पसरती जा रही है. मैं इस लहर से बचकर आखि़री बार बैठक की पुरानी रौनक को याद करना
चाहता हूं. लेकिन, कमबख़्त मुझे कुछ भी याद नहीं आ रहा. मेरे भीतर अब किसी भी
बीते हुए इतवार की सुबह साबुत नहीं बची है.
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सम्प्रति: सीएसडीएस, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित समाज विज्ञान की पूर्व-समीक्षित पत्रिका प्रतिमान में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com
नरेश गोस्वामी
समाज विज्ञान विश्वकोश (सं. अभय कुमार दुबे, राजकमल प्रकाशन,दिल्ली) में पैंसठ प्रविष्टियों का योगदान; भारतीय संविधान की रचना-प्रक्रिया पर केंद्रित ग्रेनविल ऑस्टिन की क्लासिक कृति द इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन: कॉर्नरस्टोन ऑफ़ अ नेशन का हिंदी अनुवाद-- भारतीय संविधान: राष्ट्र की आधारशिला .
सम्प्रति: सीएसडीएस, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित समाज विज्ञान की पूर्व-समीक्षित पत्रिका प्रतिमान में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com
अच्छी कहानी है।सरल किंतु प्रभावी। अंत में छिपकलियों का संदर्भ भी होता तो शीर्षक अधिक प्रभावी हो जाता और देर तक याद रहता।
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया कहानी। हरियाणा के कस्बे में मुझे मेरे माँ-बाप के घर की याद दिला दी जो उनके जाने के बाद वर्षों बन्द पड़ा रहा और ढहता रहा। यह कहानी छापने के लिए शुक्रिया। नरेश गोस्वामी को बधाई।
जवाब देंहटाएंसुदर्शन और रुस्तम भाई का शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंनरेश जी, यह कहानी लिखने के लिए आपका धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरे लिए यह कहानी स्मृतियों के उस यातना भरे अनुभव की तरह है जहाँ वापिस लौटने पर एक अजीब खालीपन भयभीत करता है.
नरेश गोस्वामी1/12/18, 5:56 pm
हटाएंमदन पाल जी, आप सही कह रहे हैं। पीछे मुड़ कर देखना वाक़ई एक यातना से गुजरना है: कभी जहां हम थे, हमारे बनने की शुरूआतें थीं, एक भरा-भरा सा जीवन था, वहां अब बियाबान देखना पूरे वुजूद को लुगदी सा कर जाता है
हमें भी अपने बचपन और घर में टहला आने के लिए नरेशजी को साधुवाद. संपादक महोदय से विनती है कि अगर कहानी का फॉण्ट भी दायीं ओर की कड़ियों जैसा हो जाये तो बेहतर रहे. ये वाला फॉण्ट बहुत नीरस किस्म का है. धन्यवाद.
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