कथा-गाथा : निष्कासन : नरेश गोस्वामी

(पेंटिग : SALMAN TOOR )



एक सच्ची कहानी किस तरह एक राजनीतिक मंतव्य भी है इसे इस कहानी को पढ़ते हुए आप महसूस कर सकते हैं. नरेश गोस्वामी डॉक्टर की सलाह पर सुबह की सैर के लिए पार्क जाना शुरू करते हैं और तनाव पैदा करने वाले किसी भी मुठभेड़ से बचने की कोशिश करते हैं. पर यहाँ तो मनुष्यता पर ही संकट है. जान है तो जहान है. पर जब जहान ही नहीं रहे तो ?

नरेश किसी समाज वैज्ञानिक की तरह डिटेल्स लेते हैं और उस ‘विवशता’ को जिसे आज का सोचने समझने वाला वर्ग झेलता है बड़ी कुशलता से व्यक्त करते हैं.


  


निष्‍कासन                    

नरेश गोस्‍वामी





भी साल भर पहली बात है जब नब्‍बे एकड़ में फैले इस मिलेनियम पार्क को देखकर मैं ठगा सा रह गया था. चौड़े खुले रास्‍तों के दोनों तरफ़ छायादार पेड़ों की कतारें, खुली जगहों में रंगबिरंगे फूलों की क्‍यारियां. मजनू के पेड़ से लटकती लाल गुलाबी मंजरियां, अमलतास पर लटकी पीली फलियों के गुच्‍छों, चंपा के मंझौले पेड़ों के छोटे-छोटे मुकुट जैसे फूलों; नीम, पीपल, बरगद तथा सेमल के घने पत्‍तों में कूकती कोयल, फूलचुही से लेकर मैना, बुलबुल, गौरेया, तोतों, पेड़ से ज़मीन पर सरपट उतरती और घास के बीच भागती दौड़ती गिलहरियों को देखकर और कभी अनजाने पक्षियों की पी-पी-पी कहीं टी-टी-टी की आवाज़ सुनकर मैं अपूर्व ख़ुशी से भर गया था. उस दिन पार्क में घूमते हुए कितने ही भूले हुए गीत होटों पर आते रहे थे. मैं हर पल, हर आवाज़, हर हरकत, यहां तक कि हवा की हल्‍की सी जुम्बिश को अपने अंदर समोता जा रहा था. लौटते हुए मैं देर तक अफ़सोस करता रहा कि इतने सुंदर संसार से अब तक क्‍यों कटा रहा था.

दरअसल, उस दिन इस पार्क को मैं एक ऐसे आदमी की निगाह से देख रहा था जो आसन्‍न मृत्‍यु से बच गया था. चार दिन पहले जब ऑफि़स में कुर्सी से उठा तो एक पल के लिए अजीब सी बेचैनी महसूस हुई. और वहीं बेहोश हो गया. खैरियत ये रही कि सीनियर एडिटर चित्रा पद्नाभम वहीं सामने खड़ी बात कर रही थी, उसने मुझे डगमगाते देख लिया था और इससे पहले कि मेरा सिर मेज के कोने से टकराता, उसने मुझे संभाल लिया. दूसरी खैरियत ये रही कि डॉक्‍टर के यहां होश आने पर बताया गया कि यह हार्ट अटैक नहीं था. अगले दिन शाम को जब दुबारा डॉक्‍टर के पास गया तो शुरुआती औपचारिकता के बाद वह तुरंत मुद्दे पर आ गया था: मुझे यक़ीन नहीं हो रहा कि कोई आदमी अपने प्रति इतना लापरवाह हो सकता है. आपका बीपी जिस स्‍टेज पर पहुंच चुका है उसमें आदमी की किडनी फेल हो सकती है, कभी भी लकवा पड़ सकता है. आप पढ़े लिखे आदमी हैं, पत्रकार हैं, दुनिया की ख़बर रखते हैं लेकिन यह नहीं जानना चाहते कि अपने शरीर में क्‍या चल रहा है... हद है यार.. आजकल तो लोगबाग हर छह महीने बाद पूरी बॉडी का चैकअप करा लेते हैं और एक आप हैं ...’.

मैं जब उठने को था तो डॉक्‍टर ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा था: देखिये समाज और राजनीति अपनी तरह से चलती रहेगी. लेकिन अब अपने लिए टाइम निकालिए. मॉर्निंग वॉक कल से ही शुरु कर दीजिए और जब भी किसी बात पर मन में गुस्‍सा या तनाव पैदा हो तो उसे एकदम झटक दीजिये’. पार्क में आने का सिलसिला इसी के बाद शुरु हुआ था.

पार्क में लैंडस्‍केपिंग करके बनाए गए चार लंबे-चौड़े टीलों पर बांस, चंपा और मौलश्री के झुरमुटों और खुले स्‍पेस का स्‍थापत्‍य लोगों को सहज ही अपनी ओर खींच लेता था. चूंकि जगह बहुत खुली थी इसलिए कहीं लोग वर्जिश करते रहते थे तो कहीं बातूनों का मजमा लगा रहता था. बहुत से लोग अपनी दरी या योगा मैट लाते थे. अपने थैले को पेड़ की किसी डाल से लटका देते और पार्क के दो-तीन चक्‍कर लगाने के बाद अपनी दरी या मैट लेकर किसी टीले पर पसर जाते.

कुछ समय बाद कुत्‍तों के ठौर-ठिकानों का भी पता चला. उनके डेरे हर कोने में थे. किसी टीन-टप्‍पर के नीचे, सूखी और काट कर एक तरफ़ रखी गयी लकडि़यों के ढूहों में नियमित अंतराल पर नये पिल्‍ले जन्‍म लेते रहते थे. चूंकि मुख्‍य ट्रैक पर हर समय लोग चलते या जॉगिंग करते रहते थे इसलिए कुत्‍ते यहां बहुत कम दिखाई देते थे. यह स्थिति तभी बदलती थी जब उनकी आपस में ठन जाती थी. सड़क की तुलना में उनके लिए यह एक निरापद संसार था. इलाकों को लेकर अगर कभी उनकी लड़ाई होती भी थी तो प्रतिद्वंदी किसी दूसरे कोने में ठौर ढूंढ लेता था.


 (दो) 
लेकिन गर्मियां शुरु हुईं तो पार्क में कुछ अलग तरह के लोग आने लगे. इनमें एक बड़ी जमात ऐसे लोगों की थी जो यहां शायद केवल सुबह की ठंड़ी हवा खाने के लिए आते थे. उन्‍हें देखकर ऐसा नहीं लगता था कि उनकी सैर या सेहत में कोई दिलचस्‍पी हो सकती थी. उनमें शायद कई लोग सीधे बिस्‍तर से उठकर इधर निकल आते थे. ऐसे कई लोगों को मैंने पार्क में चलते पानी के पाइप से मुंह धोते देखा था. वे यहां उन्‍हीं कपड़ों में आ जाते थे जिन्‍हें रात को पहन कर सोते थे. मैं यक़ीन से कह सकता हूं कि किसी भी सुबह ऐसे लोगों की संख्‍या सौ से ज्‍यादा नहीं रही होगी. और इतने बड़े पार्क में यह संख्‍या नगण्‍य थी. लेकिन वे अपने कपड़ों और हाव-भाव से पकड़ में आ जाते थे. कई बार उनके जूतों के फीते खुले रहते थे, चेहरे पर रात की उबासी जमी रहती थी, टीशर्ट या शर्ट कहीं से उधड़ी होती थी और बाल उलझे रहते थे. उनमें कुछ ठीक-ठाक होकर भी आते थे, लेकिन कुल मिलाकर साफ़ कपड़ों के बावजूद उनकी हैसियत छिप नहीं पाती थी. लिहाज़ा नाइकी, रीबॉक या एडीडास के जॉगर्स और ट्रैक सूट पहन कर आने वालों के लिए इन अजीबोगरीब लोगों की मौजूदगी चिंता की बात बनने लगी. एक दिन जब संपन्‍न बुजुर्गों के एक परिचित समूह के पास से गुजर रहा था तो मैंने उन्‍हें कहते सुना कि पार्क का माहौल बिगड़ने लगा है.

पार्क का माहौल बिगड़ने की बात संदीप गोयल ने भी कही थी. संदीप को मैं पहले से जानता था. हमारी सोसायटी में उसकी किराने की दुकान थी. दुकान तो मैं कह रहा हूं वर्ना नाम तो ‘भावना जनरल स्‍टोर’ था. मैं उसका नियमित ग्राहक था. इसलिए एक दिन जब वह अचानक पार्क में टकराया तो उसने चहकते हुए कहा था कि ‘अरे भाईसाहब, मैं तो जानता ही नहीं था कि आप भी यहां आते हैं’. वह सामने से आ रहा था लेकिन यह कहकर उल्‍टा मेरे साथ हो लिया. उसने बताया कि ‘शुगर का लेवल बढ़ गया है और डॉक्‍टर ने साफ़ कह दिया है कि अगर अब सावधानी नहीं बरती तो मामला बिगड़ जाएगा’. उस दिन के बाद तो जैसे वह मेरा इंतज़ार ही करने लगा. मैं पार्क के मेन गेट पर पहुंचता ही था कि वह कहीं से प्रकट होकर ऐन सामने आ जाता था.

उस मुलाक़ात के चंद दिनों बाद जब एक सुबह मैं पार्क में दाखि़ल हुआ तो मेरा इंतज़ार करते संदीप ने हमसे कुछ दूरी पर जाते पांच-छह लोगों के एक समूह की ओर बड़ी व्‍यग्रता से इशारा किया: ‘मुल्‍लों का यह नया गैंग है...ये लोग मैंने यहां पहले कभी नहीं देखे’. मैंने उसकी बात पर कोई ध्‍यान नहीं दिया तो कुछ देर के लिए वह चुप हो गया. लेकिन थोड़ी दूर चलते ही वह फिर उसी टेक पर लौट आया:
‘आप मानो चाहे न मानो, यह जगह अच्छी जेंट्री के लिए नहीं रह गयी है्... यहां मुल्‍ले-मवालियों की भीड़ लगी रहती है... अच्‍छे लोग तो यहां आते ही नहीं भाई साहब... जानकीपुरम का पार्क देखो, मजाल है कोई ऐरा-गैरा पहुंच जाएं वहां’.   

उस दिन पहला चक्‍कर काटते हुए संदीप मुझे इलाके के स्‍थानीय भूगोल और समाज के बारे में बताता रहा: ‘पार्क का सारा कबाड़ा पड़ोस की मुस्लिम बस्‍ती दरियापुर के कारण हुआ है. आप तो जानते ही हैं, एक घर में बीस-बीस आदमी. बस्‍स सुबह निकल लिए और पहुंच गए पार्क में. यहां आकर या तो किसी झाड़ी के नीचे नींद निकालते हैं या आशिकी करते हैं’. संदीप जब मुझे यह बता रहा था तो संयोग से हम उसी समय एक बुजुर्ग मुसलमान दंपति के बराबर से गुजर रहे थे. उसी दिन मैंने कई बुर्कानशीन औरतों को घास पर नंगे पैर टहलते देखा था. मैंने जब संदीप को कहा कि हुजूर, इनमें कौन आशिकी करने के लिए आया है तो वह जैसे चोरी करते हुए पकड़ा गया था.
एक दिन ऐसे ही पार्क की बदहाली पर बात करते हुए उसने फिर किस्‍सा शुरु कर दिया था: भाईसाहब, बात सिर्फ मुसलमानों की नहीं है... वो पिछली तरफ़ की बस्‍ती पहलाद गढ़ी देखिये. कैसे-कैसे लोग रहते हैं वहां. ज्‍यादातर नीचे तबके के लोग हैं, आवारा और क्रिमनल माइंड... ऐसे ही लोगों के कारण इस पार्क की दुर्गति हो रखी है...’.  संदीप ने थूकते हुए कहा था.
मैं भरसक कोशिश कर रहा था कि उसके साथ किसी तरह की बहस में न उलझूं. फिर लगा कि अगर आज उसका विरोध नहीं किया तो वह मुझे अपना आदमी मानकर हर दिन यूं ही हलकान करता रहेगा.

‘आप भी ग़जब आदमी हैं संदीप बाबू, कल आपको मुसलमानों के आने से दिक्‍़क़त थी, आज अपने हिंदू भाईयों से परेशानी होनी लगी है... आपके हिसाब से पार्क में किन लोगों को आना चाहिए ?' 

सवाल सुनकर संदीप एक बार सकपका सा गया. लेकिन वह इतनी जल्‍दी हार नहीं मानना चाहता था: नहीं, नहीं, मैं हिंदू-मुस्लिम की बात नहीं कर रहा हूं... सवाल ये है कि इस देश में हर चीज़ फ्री क्‍यों होनी चाहिए ?  मैं तो कहता हूं कि पार्क में आने का टिकट बीस रूपये कर दो और फिर देखो...’.
‘नहीं, बीस ही क्‍यों, पांच सौ रूपये का क्‍यों नहीं करवा देते ? बस फिर आप जैसे बीस-तीस लोग ही घूमेंगे यहां..’. मैंने जहर बुझी आवाज़ में उसे जवाब तो दे दिया लेकिन तभी डॉक्‍टर की हिदायत याद हो आई कि मुझे किसी भी तरह की खीझ, गुस्‍से या तनाव से बचकर रहना चाहिए.

इस भिडंत के बाद संदीप हफ़्तों दिखाई नहीं दिया. मुझे लगा कि चलो, झंझट कटा. एक बेहूदा आदमी अपनी बकर-बकर से मन ख़राब कर देता था. मैं फिर गिलहरियों की किट-किट, घने पेड़ों के बीच से उतरती धूप, घास पर जमी ओस से छिटकती किरणों, ऐन सामने से उड़ कर गयी बगुलों की कतार जैसे दृष्‍यों में मगन रहने लगा. इस दौरान मेरा कभी इस ओर ध्‍यान ही नहीं गया कि पार्क में किन लोगों को घुसपैठिया माना जाता है और किन्‍हें उसमें सैर करने का जायज़ हक़ है. लेकिन मेरी यह ख़ुशी ज्‍़यादा दिन नहीं चल पाई. 


(तीन)
हालांकि पार्क की हवा भी वही थी, पेड़, फूल, चिडियां, गिलहरियां और कुत्‍ते भी वहीं थे और उन सबके साथ मैं भी मगन था, लेकिन माहौल बिगड़ने की बात सुनकर मैं कुछ उखड़ सा गया था. इसलिए एक दिन पार्क जाने के बजाय मैंने आसपास के इलाक़े को नापने का कार्यक्रम तय किया. उस दिन मैं पार्क के आजू-बाजू टहलता रहा, कई नुक्‍कड़ों पर चाय पीने के बहाने लोगों से बतियाता रहा.
उसी दिन पार्क के ऐन सामने वाली पॉश कॉलोनी पटेल नगर को ग़ौर से देखा जिसके विशालकाय घरों में दो-दो तीन-तीन लंबी कारें खड़ी रहती थीं और दूसरी तरफ़ दरियापुर जैसी एक अनियमित या अस्‍त-व्‍यस्‍त बस्‍ती थी जो किसी जमाने में मुकम्‍मल गांव रही होगी, लेकिन इस दौरान न गांव रह गयी थी, न शहर बन पार्इ थी. कुल मिलाकर वह एक घिच-पिच सी चीज़ हो गयी थी जिसमें आस-पास के गोदामों में माल उतार कर आए ट्रक खड़े रहते थे. और ट्रकों के आसपास बीड़ी फूंकते या खैनी चबाते उनके ड्राईवर. वहां कूड़े के सूखे ढेरों से धूल उड़ती रहती थी. लोहे-लंग्‍गड़ के घूरों के बीच पड़़ी खाने की चीज़ों को लेकर गायों और कुत्‍तों की लड़ाई चलती रहती थी. हर नुक्‍कड़ पर पान के खोखे थे या चाय की दुकान जहां किसी भी समय ओमलेट खाया जा सकता था. यहां रहने वाले ज्‍यादातर लोग पड़ोस में स्थित ट्रांसपोर्ट नगर में काम करते थे. चौबीस घंटों में कुल मिलाकर केवल दस घंटे बिजली आती थी और उसका कोई निश्चित समय नहीं था.

पार्क में सुबह आकर कुल्‍ला-दातुन करने वाले या रात की बची नींद को किसी झाड़ी की ओट या पेड़ की छांव तले दुबारा पूरी करने की कोशिश करने वाले लोग दरियापुर ओर प्रहलाद गढ़ी जैसी इन बस्तियों से ही आते थे.  

सच ये है कि अगर उस दिन मैंने पहले उन रईस बुजुर्गों और बाद में संदीप गोयल से माहौल बिगड़ने की बात न सुनी होती तो मेरा ध्‍यान बाक़ी कई चीज़ों पर भी नहीं जाता. मसलन, स्‍टेच्‍यू के आसपास के बड़े से पक्‍के प्‍लेटफॉर्म पर लगभग दस-पंद्रह लोग एक साथ वर्जिश करते थे. इनमें ज्‍यादातर अधेड़ और हाल-फि़लहाल रिटायर हुए लोग थे. इससे पहले मैंने उनके बारे में कुछ जानना नहीं चाहा था. लेकिन अब मैं उन पर ध्‍यान देने लगा था. इस समूह के ज्‍यादातर लोग लंबी कारों या एसयूवी आदि से आते थे. उनके पास योगा की ब्रांडेड मैट हुआ करती थी. अक्‍सर वर्जिश के बीच में वे समवेत स्‍वर में दो बार हर-हर महादेव के गगनभेदी नारे भी लगाते थे. एक बार पास से गुजरते हुए मैंने उन्‍ही में किसी को कहते सुना था कि हर-हर महादेव कहने से फेफ़ड़ों को ज्‍यादा ऑक्‍सीजन मिलती है. 




पहले मुझे लगता था कि ये सारे लोग बिजनेसमैन होंगे. लेकिन धीरे-धीरे पता चला कि समूह में कोई ठेकेदार है, कोई भूतपूर्व जज या आईपीएस अधिकारी, कोई शहर का मशहूर डॉक्‍टर तो कोई हाईकोट में वकील है. धीरे-धीरे मैं उनके बोलने के लहजे से यह भी जान गया था कि वे किसी एक जाति के लोग नहीं थे. उनमें कई लोग उन दबंग जातियों के भी थे जिन्‍हें व्‍यवसायी और पंडज्‍जीनुमा लोग अभी तक अशिष्‍ट और गंवार मानते आए थे. इन लोगों में ग़जब की समझदारी और परिपक्‍वता थी. वर्जिश के दौरान कई बार वे एक दूसरी की जातियों का नाम लेकर ऐसा हास-परिहास कर जाते थे कि अगर यही बातें किन्‍हीं और लोगों ने अपने गुली-मुहल्‍लों में की होती तो शर्तिया ख़ून-ख़राबा हो जाता. लेकिन वे सब सुलझे और पहुंचे हुए लोग थे. बाद में पता चला कि पार्क की मेंटीनेंस कमेटी इन्‍हीं लोगों के हाथों में है.

यह भी इसी का नतीजा था कि अब मैं चीज़ों का ज्‍़यादा ग़ौर से देखने लगा था. मसलन, टीले की ढलान के बाद जो खुली जगह थी उसमें कुछ कस्‍बाई किस्‍म की औरतों का मजमा रहता था. चालीस से पचास साल की उम्र वाली ये औरतें उन महिलाओं से एकदम अलग थीं जो अच्छे स्‍नीकर और कसे हुए ट्रैकसूट पहन कर जॉगिंग करती थीं. इन औरतों को मैंने कभी सैर के मूड से घूमते नहीं देखा. वे एक झुण्‍ड के रूप में बैठी रहती थीं और ज़ोर-ज़ोर से बात करती थीं. वे मुंहफट थी और बेलाग भी. मैंने उन्‍हें कई बार योगासन की मुद्रा में बैठे तो ज़रूर देखा था, पर तब भी वे आपस में चुहल करती रहती थीं. कई बार वे गुप्‍त रोगों के बारे में हंसते हुए बात करती मिलती थीं. उनके लिए जैसे कुछ भी निजी या वर्जित नहीं था. कई बार अपनी बहुओं की शाहखर्ची, देर तक सोने और उनकी बेशर्मी पर बात करती थीं. उनमें कई औरतें पुरुषों के इरादों को दूर से भांप लेती थीं. मसलन, एक दिन आपस में बात करते हुए वे कह रही थी: देख लिए भाण ( बहन) यू मफलर वाला यादमी (आदमी) म्‍हारे निंघ्‍घै ही चक्‍कर काटता रहवैगा’. उनकी बात सुनकर मैंने भी उस मफलर वाले आदमी को पहचान लिया था. वह लगभग पचास बरस का आदमी रहा होगा. एक ही रंग का कुर्ता-पाजामा पहने वह आदमी मुझे हर चक्‍कर पर उन्‍हीं औरतों की तरफ़ जाता दिखाई दिया था. और एक दिन इसी आदमी को मैंने कहते सुना था: माल तो उनमें कई चटक हैं पर भाई कोई हाथ ना धरण देत्‍ती’. उस समय वह कुछ लोगों के साथ टीले पर खड़ा हुआ बात कर रहा था. वे सारे ही-ही खी-खी के बीच कोई अश्‍लील बात करते हुए हंस रहे थे. मैंने बाद में पता किया था कि टीले पर बैठकर अक्‍सर लखबीर सिंह लक्‍खा के फिल्‍मी भजन सुनने वाले इस समूह के ज्‍़यादातर लोग ट्रांसपोर्ट का व्‍यवसाय करते थे.   

मेरा यह देखना भी इसी के बाद शुरु हुआ था कि पार्क के हर टीले पर अलग-अलग चलने वाली गतिविधियों के अलावा कुछ चीज़ें लगभग एक जैसी थीं. हर टीले पर एक दो आदमी अपने थैलों में कुत्‍तों के लिए रोटी लेकर आते थे. उनमें कोई एक जगह रुककर बोलता: भूरे. और देखते देखते भूरे रंग के कुत्‍ते के साथ छोटे बड़े अन्‍य कई कुत्‍तों का दल यहां वहां से दौड़कर उस आदमी के पास पहुंच जाता. ऐसे ही दूसरे किसी टीले पर किसी काले को पुकारा जाता और वहां काला कुत्‍ता अपने झुंड के साथ नमूदार हो जाता. इन कुत्‍तों में कोई मोती होता था, कोई जैकी और कोई कबरा. कुत्‍तों के लिए रोटी लेकर आने वाले ये लोग भी रीबॉक-ट्रैकसूट वाले समुदाय से अलग थे. उनमें कोई कमीज-पायजामे में होता था. कोई पैरों में रबड़ की चप्‍पलें पहने होता था तो कोई चमड़े की जूतियां. उनके शरीर की बनावट और हाव-भाव को देखकर कहीं से नहीं लगता था कि वे अपना मोटापा घटाने आए हैं. वे या तो कोई पुण्‍य कमाने आते थे या खुली जगह में सांस लेने.


(चार)
एक महीना बीता होगा कि संदीप एक दिन फिर पार्क में दिखाई दिया. देखते ही वह मेरी ओर लपका. उसे देखकर मैंने अपना चेहरा और भी पथरीला बना लिया, फिर भी वह मेरे साथ चिपक लिया और महीने भर का हाल बताता रहा. उसने बताया कि इस दौरान पत्‍नी पंद्रह दिन हॉस्‍पीटल में भर्ती रही. मैं शिष्‍टाचारवश उसकी पत्‍नी के बारे में कुछ पूछने वाला ही था कि उसने झट से मुद्दा बदल दिया. उसका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि जैसे वह कोई गोपनीय बात बताना चाहता है:

‘देखा, भाई साहब, एक तीर से दो निशाने लग गए... कमेटी ने वो स्‍ट्रोक मारा कि मुल्‍ले और ठलुए दोनों एक साथ ग़ायब... अब देखना, किसी भी टीले पर ये फ्री फंड वाले नहीं मिलेंगे. मेंटीनेंस कमेटी ने एक प्रपोजल तैयार किया है जिसमें पहले टीले पर बच्‍चों के खेलने के लिए किड्स जोन बनाया जाएगा, दूसरे पर कोई ग्रुप योगा और लाफ्टर थैरेपी की क्‍लास शुरु करने वाला है. तीसरे पर एक आयुर्वेदिक फ़र्म जूस और अपने अन्‍य प्रोडक्‍ट्स के स्‍टॉल लगाएगी और चौथे टीले के लिए पार्क के बाहर फल बेचने वालों से बात की चल रही है कि अगर वे तैयार हो जाएं तो उनके लिए वहीं टीले पर ठीहे का प्रबंध कर दिया जाएगा. कमेटी ने एक कंपनी से स्‍टील की सुंदर ठेलियां सप्‍लाई करने की बात भी की है. भाई साहब अगर पीडीए ने प्रपोजल मान लिया तो इस पार्क का कायापलट हो जाएगा’.
संदीप अपनी बात ख़त्‍म करते करते जैसे पार्क के नये रंग-रूप की कल्‍पना में डूब गया था. कुछ देर बाद जब वह अपने कल्‍पना-लोक से बाहर आया तो शायद उसने देखा कि मेरा चेहरा वितृष्‍णा से खिंच गया है. हम दोनों अपनी अपनी चुप्‍पी में चलते रहे. मुझे अचानक याद आया कि अपनी दुकान पर वह ग्राहक को सामान हुए कैसे लगातार पूछता रहता है: ‘और क्‍या लोगे भाई साहब’. यह भी याद आया कि जब कोई उससे कहता है कि आप हर सामान एमआरपी पर क्‍यों बेचते हो तो वह कैसे झल्‍लाने लगता है. मुझे लगा कि इस थुलथुल आदमी के मुंह पर मुझे बम की तरह फट जाना चाहिए. मेरे भीतर एक सरसराहट सी होने लगी थी. मैं इस अनुभूति से बहुत लंबे समय से वाकिफ़ हूं. छब्‍बीस साल पहले जब मैक्रो-इकॉनोमिक्‍स की क्‍लास में प्रोफ़ेसर धीरेंद्र कपूर नयी आर्थिक नीति की चर्चा करते हुए निजीकरण के फायदे गिनवा रहे थे और बार-बार इस तर्क पर ज़ोर दे रहे थे कि सरकार को बाज़ार की चालक शक्तियों में दखल न देकर सिर्फ़ गवर्नेंस पर केंद्रित होना चाहिए तो तब भी मेरे अंदर ऐसी ही सरसराहट हुई थी. मैंने अपनी सीट से खड़े होकर उनसे सधे हुए स्‍वर में पूछा था: आप वर्ल्‍ड बैंक के एजेंट हैं या अर्थशास्‍त्र के व्‍याख्‍याता ?
इतना कहना था कि पूरी क्‍लास में सन्‍नाटा छा गया. प्रोफ़ेसर साहब को मेरी धृष्‍टता समझने में थोड़ी देर लगी, लेकिन जब समझ आई तो वे अपने गले की अधिकतम क्षमता से दहाड़े थे- गेट आउट. और अगले दिन मुझे युनिवर्सिटी से निष्‍कासित कर दिया गया था. इन तमाम बरसों में मैंने जब भी अपने भीतर बम की यह सरसराहट महसूस की, हमेशा कुछ न कुछ अप्रिय हुआ. कभी बने-बनाए संबंध खो दिए, कभी अपनी संभावनाएं चौपट कर लीं. नहीं.. नहीं, मुझे अब इससे बचना है. मुझे किसी भी तरह की खीझ, गुस्‍से और तनाव से बचना है.
उस दिन के बाद मैंने पार्क जाने का समय बदल दिया ताकि संदीप से टकराने की संभावना ही ख़त्‍म हो जाए. अब मुझे उसकी शक़्ल देखे लगभग चार महीने हो चुके हैं. मैंने उसके स्‍टोर से सामान खरीदना भी बंद कर दिया है.      
   

(पांच)
लेकिन संदीप की बात सच निकली. धीरे-धीरे चारों टीलों पर काम शुरु हो गया है. किड्स जोन में बच्‍चों के लिए एक नावनुमा झूला, ऊंचा कूदने के लिए एक रिंग और ड्रैगन के मुंह वाला एक छोटा सा रोलर कोस्‍टर लग चुका है. उस इलाक़े को एक लाल चौड़े रिबन जैसी एक पट्टी से घेर कर बाहर एक टिकट खिड़की बना दी गयी है. चूंकि इन सारी चीज़ों को चलाने के लिए बिजली की ज़रूरत पड़ती है इसलिए वहीं पास में एक बड़ा सा जेनरेटर भी रखवा दिया गया है. 

दूसरे टीले पर योगा और लाफ़्टर थैरेपी की क्‍लास शुरु हो गयी हैं. इन कार्यक्रमों के संयोजक बहुत शक्तिशाली साउंड सिस्‍टम इस्‍तेमाल करते हैं. प्राणायम सिखाते समय गुरुजी जब सांस अंदर खींचते हैं तो उसकी आवाज़ दूर तक सुनाई देती है. इसी तरह लोग जब अचानक ठहाका लगाते हैं तो पूरा पार्क गूंजने लगता है और आसपास के पेड़ों पर बैठे पक्षी इस औचक आवाज़ के हमले से डर कर अचानक उड़ जाते हैं.

अभी आयुर्वेदिक जूस और उत्‍पाद बेचने वाली कंपनी ने अपना काम शुरु नहीं किया है, लेकिन टीले का एक बड़ा हिस्‍सा उसके लिए आरक्षित कर दिया गया है. भूरे, काले और कबरे जैसे कुत्‍तों और उनके लिए हर सुबह रोटियां लाने वाले लोगों ने अभी टीला पूरी तरह नहीं छोड़ा है. लेकिन लाल रिबन का घेरा वहां भी पहुंच गया है, इसलिए लोग अब उस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं.

पिछले दिनों सुना कि पार्क के बाहर फलों की ठेली लगाने वाले लोगों ने अंदर आने से मना कर दिया है. उनका कहना है कि सर्दियों में तो पार्क में फिर भी पूरे दिन लोग रहते हैं लेकिन गर्मियों में सुबह-शाम के चार पांच घंटों के लिए कोई दो हज़ार रूपये महीना क्‍यों देगा. वैसे पिछले दिनों पार्किंग वाला बता रहा था कि अगर फल वालों ने कमेटी की बात नहीं मानी तो उन्‍हें पार्क के सामने से भगा दिया जाएगा.

इस तरह, चौथा टीला अभी बचा हुआ है. उस पर लोग अभी भी घूमते, लेटे या बैठे दिखाई दे जाते हैं.

लेकिन इस दौरान जॉगिंग ट्रैक पर भीड़ बढ़ने लगी है. पहले लोगबाग जॉगिंग करते हुए आगे पीछे कहीं भी हाथ घुमा देते थे, अब डरने लगे हैं कि हाथ किसी से टकरा न जाए. भूरे, काले, कबरे और उनके भाई-बंधु अब टीलों के बजाए सड़कों पर ज्‍यादा मिलते हैं. उन्‍हें रोटी खिलाने वाले जब इधर आते हैं तो कई बार रास्‍ता जैसे बंद सा हो जाता है. तब लोगों को दाएं बाएं से बचकर निकलना पड़ता है. दरियापुर के वे लोग जो आंखों की बची हुई नींद किसी पेड़ या झाड़ी के नीचे निकाल लिया करते थे, अब ट्रैक पर कुछ ढूंढ़ते से फिरते हैं.

पहले पार्क में घूमते हुए कई जगहें ऐसी आती थीं जहां ज़मीन पर पत्‍ता गिरने की आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे जाती थी. अब हर समय एक रेला साथ चलता है. सच कहूं, मेरा इस पार्क से अब मन उखड़ चुका है. आखि़र ऐसा घूमना भी क्‍या घूमना कि आपके आगे पीछे लगातार भीड़ सी चलती रहे! कमेटी के लोगों को देखते ही मेरे मन में गालियों का शोर उठने लगता है. कई बार वही पुरानी सरसराहट महसूस करता हूं, लेकिन तभी मुझे डॉक्‍टर की हिदायत याद आने लगती है कि मुझे इस खीझ, गुस्‍से और तनाव को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना है.

मैं जानता हूं कि किसी दिन चौथे टीले पर भी काम शुरु हो जाएगा और मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा. इसलिए मैंने बहुत सारे सवालों पर सोचना ही छोड़ दिया है. सुबह जब पार्क में आता हूं और छोटे-छोटे बच्‍चे–बच्चियों को कबाड़ बीनते देखता हूं तो द्रवित नहीं होता. मैं एक बार उनकी ओर देखता हूं और उस दृष्‍य को तुरंत झटक देता हूं.
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सम्प्रति: 
सीएसडीएसनयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित समाज विज्ञान की पत्रिका प्रतिमान  में सहायक संपादक.
naresh.goswami@gmail.com 

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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-03-2019) को दोहे "होता है अनुमान" (चर्चा अंक-3275) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. तेजी ग्रोवर14 मार्च 2019, 6:59:00 pm

    अरे यह तो ग़ज़ब की कहानी है, हमारे अपने जीवन से मेल खाती हुई , लेकिन उस जीवन को कहानी में लाना एक और बात है। उत्कृष्ट कृति।
    उम्मीद है इन जनाब का लिखा कुछ और भी मिलेगा। अभिभूत हूँ , अपने पार्क में अपने संदीप का चेहरा इस संदीप के चेहरे पर नक़ाब की मानिंद चढ़ा दीखता है।

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  3. संदीप नाईक15 मार्च 2019, 8:27:00 am

    Naresh Goswami जी की यह कहानी मुझे 1991 की शुरूवात में विध्वंस बुनते और अब 2019 के चुनावी संग्राम के षड़यंत्र बुनते लोगों की भीड़ याद आती है

    अच्छी कहानी जो देश के हर टीले का दर्द और बाज़ार में बदल जाने को व्यक्त करती है
    पर क्या इस तनाव दहशत को झटके से खारिज किया जा सकता है

    देश कागज पर बना नक्शा नही की तर्ज पर बात है कि यदि आसपास टीले बन रहे हो तो क्या हम सेहत दुरुस्त रख सकते है?
    बधाई नरेश भाई

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  4. अच्छी कहानी है। एकदम ऐसी जो इन दिनों इस या उस तरह सभी के जीवन में घटित हो रही है। छोटी छोटी चीजों , कार्यकलापों में हम सब बड़ी बड़ी हलचलों की सुगबुगाहट पा रहे हैं
    पर क्या करें हमें भी डॉक्टर ने खीझ और गुस्से के लिए मना किया है सो ध्यान हटा लेते हैं। और जब भी आक्रोश फूटा है कभी वर्तमान , कभी भविष्य, कभी रिश्ते बिगड़े हैं।
    रूप, रस, गंध .....प्रकृति की छवियां अच्छी बन पड़ी है। पर इनके लिए खिड़की खोलेंगे तो हवाएं तो बोली कुछ भी साथ लाएंगी जिनके लिए डॉक्टर ने मनाही की है

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  5. अच्‍छी कहानी है। यह वह कहानी है जो हमें लगातार उस खीज और गुस्‍से से रूबरू कराती है जो हम सबके दिल और दिमाग में साझा है। बहुत ही अच्‍छी कहानी

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  6. दिलचश्प कहानी. पिछली कहानी से अलग. एक अलग बुनावट और कथ्य की ऐठन लिए.

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