रज़ा : जैसा मैंने देखा (११) : अखिलेश



इधर कुछ दशकों में हिन्दुस्तानी होने की गरिमा और संभावना दोनों को नष्ट कर दिया गया है, हजारो सालों से विकसित हुई सभ्यता को एकरेखीय बनाने का खलकर्म इतने बड़े पैमाने पर और हिंसक ढंग से हो रहा है कि आज यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि कोई चित्रकार जिसका नाम रज़ा है वह सहज ढंग से मंदिर भी जाता था, चित्रों को प्रणाम करके उनपर काम शुरू करता था, महाभारत की कथाएं सुनता था. और अपने चित्रों पर देवनागरी में मंत्र तक लिखता था. और उसने अपना अब तक का अर्जित सबकुछ साहित्य और कला के लिए समर्पित कर दिया.

कहाँ आ गए हैं हम ?

चित्रकार और लेखक अखिलेश द्वारा लिखित विश्व प्रसिद्ध चित्रकार सैयद हैदर रज़ा के जीवन और चित्रकारी पर आधारित स्तम्भ, ‘रज़ा जैसा मैंने देखा’ की यह ग्यारहवीं क़िस्त है. हमेशा की तरह मार्मिक और समृद्ध करने वाला.

प्रस्तुत है. 

 


रज़ा : जैसा मैंने देखा (१1) 

जानीन के बिना रज़ा का एकांत और गोरबियो की सुंदरता 
अखिलेश 


जानीन की मृत्यु के बाद रज़ा बिलकुल बदल गए. सिर्फ़ एक बात नहीं बदली. वह था उनका चित्र बनाना. रज़ा को पता था कि मैं आज आ रहा हूँ. हालाँकि मेरी फ्लाइट जल्दी आ गयी थी और मैं रज़ा के घर कुछ जल्दी ही पहुँच गया था. अपना सूटकेस दरवाजे पर छोड़ सामने की रेस्तरॉं में कॉफ़ी पीकर समय काटने चला गया था. सात बजे जब लौटा, रज़ा खिड़की में खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे थे. उन्होंने हाथ हिलाकर स्वागत किया. चेहरे पर एक मुस्कान दिखी. ऊपर पहुँचा, वे दरवाजा खोल कर खड़े हुए मिले. मुझे देख उनके चेहरे पर ख़ुशी की चमक साफ दिख रही थी. मैंने प्रणाम किया. रज़ा ने मेरा हाथ अपने हाथों में ले लिया और पकड़े रहे. रज़ा संकोच में कई बातें नहीं करते हैं और उनके हाथ वे सब मुझसे कह रहे थे. जानीन के जाने का दुःख उनके हाथों से बहकर मुझे गीला कर रहा था. रज़ा भावुक व्यक्ति नहीं हैं. वे अपने को बाहर से भी देख सकने की क्षमता रखते हैं. मेरा हाथ पकड़े हुए ही वे मुझे भीतर ले गए. उनकी मेज पर दो कप चाय बनी रखी थी. हम दोनों ने निःशब्द चाय पी और रज़ा कुछ बिखरे-सिमटे से लगे. रज़ा उदास थे जानीन के बगैर घर शान्त था. बिस्तर के ऊपर जानीन को भेंट में दिया रज़ा का चित्र लगा था. यह चित्र भी फीका.

घर में मौजूद इस गहरी चुप्पी में मैंने महसूस किया कि जानीन का होना उनके बहुत से कामों में नज़र आता था. वे लगातार काम करती रहती थीं, बात करती रहती थीं. वे किसी भी कमरे में हों वहाँ से भी उनकी बात जारी रहती थी. वे इस कमरे से उस कमरे में आती-जाती रहती और घर-भर में सक्रियता बनी रहती. उनकी उपस्थिति में घर का केन्द्र लगातार बदलता रहता था. जानीन का काम कभी ख़त्म न होने वाला काम था. इस बीच कब नाश्ता तैयार किया, कब वे सबके साथ बैठ चाय पी रही हैं यह सब अब इस घर में नहीं हो रहा था. एक गहरी उदास ख़ामोशी की परत में से रज़ा की आवाज़ भी कभी-कभी अनजानी लगती शायद रज़ा को भी. वे भी इस अनजान आवाज़ से घबरा कर चुप रहा करते. इस घर में आलोकित कमरा सिर्फ़ रज़ा का स्टूडियो था. घर की बाकी जगहें स्थगित सी चुप हैं. जानीन अपने साथ घर भी ले गयीं.



रज़ा ने पिछली बार की तरह मुझे हर बात-जगह बताई मानों मैं पहली बार उनके घर आ रहा हूँ. उनके संग्रह के सारे चित्र भी दिखाये और मेरी रुकने की जगह भी. वह कमरा भी और पलंग भी जिस पर इस बार दूसरी चादर बिछी थी. कोई गुजरात की रबारी जनजाति द्वारा बनाई हुई. रज़ा की चाल में फ़र्क़ आ गया था. ये चाल विश्वास भरी न थी. उनके भटके क़दम मुझे छोड़ कर चले गए. बारह बजे मिलना तय हुआ. बारह बजे मैं पहुँचा. वे काम कर रहे थे. एक बड़ा सा कैनवास लगा हुआ था. शान्ति-बिंदू बन रहा था. (रज़ा ने यह शीर्षक बाद में दिया) इन दिनों रज़ा की रंग-पैलेट पर सफ़ेद रंग का आधिक्य था. वे एक प्रदर्शनी भी कर चुके थे, जिसमें लगभग सभी चित्र उनकी रंग-प्रसिद्धि के ख़िलाफ़ सिर्फ सफ़ेद रंगों के थे. यह कहना गलत होगा कि रज़ा के जीवन में अध्यात्म का अधिकार हो चुका है. वे इन सफ़ेद रंगों के प्रति आकर्षित पहले से थे और बीच-बीच में इसका प्रमाण उनके चित्र देते भी रहे. रज़ा के साथ सबसे बड़ी खूबसूरती यह है कि वे रंगों के प्रति अतिरिक्त चौकन्ने हैं. उनके अनेक चित्रों में हम देखते हैं सफ़ेद रंग की बुनियादी उपस्थिति. वे सफ़ेद रंग को रंग की तरह बरतते हैं. यह समझ बहुत कम चित्रकारों में दिखाई देती है. जयश्री चक्रवर्ती दूसरी चित्रकार हैं जो सफ़ेद रंग को रंग की तरह लगाने की क्षमता रखती हैं. उनके लगाए हुए सफ़ेद रंग में उसका भाव भी दिखाई देता है. अक्सर लगाया हुआ सफ़ेद रंग की तरह नहीं दिखता. बल्कि छूटे हुए कागज़ या कैनवास की तरह दिखता है. रज़ा के लिए सभी रंग सावधान हैं और उनका उपयोग उन्हें जीवन्त कर देता है. बहुत पहले रज़ा ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था

"मैं चाहता हूँ कि मैं सफ़ेद रंग में कुछ चित्रित करूँ, जिसमें हीरे जैसी चमक, चन्द्रमा की पवित्रता हो, जो कि प्रकृति में एक रसिक के जीवन के प्रति प्रेम को प्रदर्शित करे, और इस सीमा तक चले जाये कि उसकी आख़िरी सबसे बड़ी अभिलाषा अनिवार्य रूप से आध्यात्मिक हो, जो कि मेरी दृष्टि में सबसे बड़ी मानवीय महत्वाकांक्षा हो सकती है." 

रज़ा अपनी सबसे बड़ी महत्वाकांक्षा चित्रित कर रहे हैं? उनके सफ़ेद रंगों के चित्र भी अन्य रंगों की आभा लिए होते हैं. रज़ा की सोच ही ऐसी है जिसमें रंग समाये हैं. वे सफ़ेद भी लगाए और लाल की प्रतिभा का अहसास न हो यह सम्भव नहीं है और इसी तरह लाल लगायें और सफ़ेद की शान्त उपस्थिति न महसूस हो यह भी नहीं हो सकता. मैं रज़ा को काम करते हुए देख रहा था. रज़ा तल्लीन थे चित्र बनाने में. उनका ध्यान गहरा था उनकी क्रियाएँ लयबद्ध हैं. वे मानों कोई संगीत रचना के कंडक्टर हों. जिनके इशारे पर बाकी सब रच रहे हैं. रज़ा को काम करते देखना भी अनुभव है. मैंने हुसैन, स्वामीनाथन, अम्बादास, हिम्मत शाह, तैयब मेहता, अकबर पदमसी, मंजीत बावा, अमिताव दास आदि कलाकारों को काम के एकान्त में देखा है. जिसमें रज़ा का अनुभव उनमें बेहद अलग है. हुसैन का लापरवाह रहते हुए एकाग्र होना किसी को भी प्रभावित कर सकता है.

रज़ा अपने ब्रश चुनने को लेकर भी सजग हैं हुसैन के लिए कोई भी ब्रश काम आ सकता है. रज़ा को वही ब्रश चाहिए. रज़ा की एकाग्रता में गम्भीरता है और हुसैन कभी कहीं भी एकाग्र हो सकते हैं. एक बात जो मुझे इन दोनों के काम-व्यवहार से समझ आयी कि इनके लिए चित्रकार होना उनकी आत्म-छवि है. आज-कल के चित्रकार बड़े गर्व से यह कहते हैं कि पिछले छह महीनों से पेंट करने का मूड नहीं बन रहा इसलिए चित्र नहीं बना रहा हूँ. उसका मूड सिनेमा जाने, पिकनिक मनाने, पार्टी करने का चौबीसों घण्टे रहता. बस चित्र बनाने का काम उसे नहीं करना होता है. बहुत से चित्रकारों की आत्म-छवि चित्रकार  की न होकर किसी की भी होती है और यही उनके मूड को संचालित करती है. इसमें अवसाद इसलिए भी जल्दी घेर लेता है कि वे चित्र नहीं बना रहे होते हैं और यश चित्रकार का चाहने लगते हैं. रूडी वान लेडन ने रज़ा के रंगों को बारीकी से देखा है वे लिखते हैं : 

"रंग की सीमित समझ और रंग द्वारा सर्जित स्पेस के परिसीमित दायरों को तोड़कर सम्पूर्ण अनुभूति के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश कर गया. इस रूपांतरण ने ऐसे प्रबल भावावेग की रचना की कि उसकी सबसे अच्छी व्याख्या करते हुए रज़ा के सृजन-विकास के इस काल-खण्ड को प्रेमी का काल-खण्ड कहा जा सकता है.  रंगों को बरतने का यह उल्लसित रंग-व्यवहार, यह रंग-लेप भी जीना, प्रेम के मात्र एक विधान के रूप में ही समझा जा सकता है. उनके रंग समग्र रूप से अर्थ छटा की नितान्त नयी रंगत ले लेते हैं. काले और भूरे, पर्शियन ब्लू के वृहदाकार धूमिल आवेगों के बरक्स चटकीले लाल, पीले वर्ण अलग से दिखाई देते हैं.  रंगों के समुद्र में, पिघलती, घुलती-मिलती आकृतियाँ जो किसी तरह भी अव्यवस्थित और द्रवीकृत नहीं है अपितु चित्र के स्पेस के भीतर गतिमान और विकसित होने के आभास देती है."

जब रूडी रंग की सीमित समझ की बात कर रहे हैं तब उनका इशारा रज़ा के पहले के चित्रों की तरफ़ है. रज़ा का फ्रांस पहुँचना और यूरोपीय चित्रकला से साबका होना उनके ऊपर गहरे प्रभाव छोड़ता है. कुछ समय के लिए उनकी रंग-पैलेट पर धूसर और भूरे रंग की भरमार दिखाई देती है. इसे हम उनकी रंग-समझ के इजाफ़े का समय कह सकते हैं. रज़ा हिन्दुस्तान से गए थे. यूरोप जहाँ ज्यादातर समय सूरज की रोशनी नहीं होती है. सर पर बादलों का रंग अवसाद लिए खड़ा रहता है दृश्य में कोई चमक या सफ़ाई नहीं दिखाई देती है. अक्सर सब कुछ धुँधला दृश्य में घुला होता है ऐसे में कलाकार की रंग-पसन्द ख़ास तरह के ग्रे और धूसर भूरे से भरी होती है. रज़ा ने भी इन रंगों से सम्बन्ध बनाये और उस दौरान के अनेक दृश्य चित्र में हमें यही रंग देखने को मिलते हैं.



रूडी इसी दौर की कलाकृतियों की बात कर रहे हैं. यही रंग-समझ को बढ़ाने वाली एक प्रक्रिया हो सकती है शायद. रज़ा ने कुछ बरस इन्हीं रंगों में काम किया और उनके फ़्रेंच-दृश्य चित्र इसी रंगों में बने हैं. बीच-बीच में रज़ा का रंग-संस्कार जोर मारता भी मिलता है जहाँ रज़ा अपनी पुरानी रंग-पैलेट का इस्तेमाल करते दिखते हैं. वैन गॉग के शुरूआती चित्रों में भी इन्ही डल ग्रे, धूसर भूरे रंग का बोलबाला दिखाई देता है. वह भी चमकदार नीले और उल्लसित पीले की तरफ बाद में ही आता है. यह कोई आम प्रक्रिया नहीं है जिसका पालन कर कोई भी रंग-प्रयोग सीख सकता है यह संयोग है जो दो चित्रकारों के जीवन में घटा. सभी चित्रकार के लिए रंग-समझ नितान्त व्यक्तिगत मामला है. कई चित्रकार मरने तक रंग नहीं लगा पाते. और कई रंग से डरते हुए सुरक्षित रंग-प्रयोग से चित्र बनाते रहते हैं. उनकी पैलेट के रंग जीवन भर वही रहते हैं जिसे वे अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर चढ़ाये रखते हैं.

रज़ा के लिए सफ़ेद रंग भारतीय रंग-विधान से आता है. उसमें सफ़ेद रंग सात्विक रंग है. जो सम्भवतः ऑफ-वाइट (off-White) की तरह होगा. यह मनुष्य की सात्विक प्रवृत्ति का द्योतक है. सफ़ेद रंग का कोई वर्ण नहीं होता. यह अकेला रंग है जिसकी रंगते पाने के लिए दूसरा रंग मिलाना होता है. रज़ा के ये चित्र सफ़ेद के साथ मिलाये गए काले,नीले, भूरे की रंगत लिए हुए हैं. इनमें सफ़ेद ढूँढना ग़लती होगी. सफ़ेद कहीं नहीं दिखेगा किन्तु उसका अहसास सात्विक है. रज़ा का आधिपत्य सभी रंगो पर समान है. उनके रंग उजास लिए हुए दर्शक से बात करते हैं, वे अपने उजाले से आलोकित हैं. उस आलोक में सभी रंग आलोकित हो जाते हैं. रज़ा के रंग उदास नहीं होते, न करते हैं. वे प्रफुल्लित हैं उनसे निकली आभा दर्शक को चकित करती है अपने आगोश में ले लेती है.

रज़ा ने काम ख़त्म किया. वे पलटे मुझे सोफ़ा पर बैठे देखा और हल्के से पूछा कैसा है ? मैंने बतलाया सफ़ेद की सात्विकता का आभास. रज़ा मुस्कराये और बोले-

"कोशिश है कि रंग समझ कर लगाऊँ. उनका सम्वाद होना चाहिए. रंग एक दूसरे के पूरक हैं. उनका सम्वाद उस बालक की तरह है जो दुनिया में पैदा हो गया है और चलना सीखे, बोलना, देखना सीखे और आश्चर्य से इस दुनिया को देखे. वह बात करता है समझने के लिए, वह दूसरे को जानना चाहता है. दूसरा उसे बतलाना चाहता है यहाँ सम्वाद होता है, बच्चा अपना स्वभाव पाता है, पसंद, ना-पसन्द करता है. चलो कुछ खाना हो जाये."

हम दोनों रसोई घर में आये. उनकी काम  करने वाली महिला तीन दिन का खाना बना कर फ्रिज़ में रख गई थी. आज दूसरा दिन है. रज़ा के लिए खाना खाना एक उबाऊ प्रक्रिया है ऐसा लगा. उन्होंने दो प्लेट में कुछ खाना निकाला और हम दोनों खाने की मेज पर बैठे. खाना जितना बे स्वाद सोचा था उससे ज्यादा ख़राब और ठण्डा था. रज़ा खाने से निरपेक्ष खाना खा रहे थे. मेरे लिए मुश्किल था. रज़ा भाँप गए यह मुश्किल और बोले शाम को रेस्तराँ चलेंगे. खाना खाकर रज़ा थोड़ा आराम करते हैं. मैं पेरिस घूमने चला गया. लूव्र खुल गया था. एक लम्बी कतार लगी थी. मैं भी उस कतार में शामिल हो गया और टिकिट लेकर अन्दर जब पहुँचा उसकी विशालता देख मुझे लगा कि शायद ही मोनालिसा देखने को मिले.  किन्तु वहाँ संकेत लगे हुए थे मोनालिसा किस तरफ़ है. ज्यादातर लोग उसी तरफ जा रहे थे. मैं विशाल मूर्त्ति-शिल्प देखते हुए उसी तरफ बढ़ रहा था.

कुछ ही समय बाद मैं मोनालिसा के सामने था. यह अद्वितीय कला कृति सामने थी जिसे पिछली यात्रा में नहीं देख सका था और उसका वैभव उन दर्शकों  में फैला हुआ था जो उसे घेरे खड़े थे. दुनिया भर के दर्शक वहाँ थे. देखना मुश्किल था. पास जाना और मुश्किल. मैंने वहीँ से देखा और दोबारा आने का संकल्प कर उस पर ध्यान हटा कर अच्छा-खासा समय लूव्र में बिताया. शाम को मैं जब घर पहुँचा रज़ा साहब ने दो कप चाय बनाई हुई थी. वे अपनी चाय पी रहे थे और मेरा कप भरा रखा हुआ था. मैंने सोचा आप लौटकर आयेंगे और चाय पीना चाहेंगे तो मैंने बना ली है. मोनालिसा देखी ? उन्हें पता था मैं लूव्र जाऊँगा. मैंने बताया क्या क्या हुआ और चाय पीकर हमलोग स्टूडियो में पहुँचे. रज़ा का चित्र वहीँ रुका हुआ था. रज़ा ने चित्र को देख हाथ जोड़ प्रणाम किया और जा पहुँचे अपनी जगह पर. मैं सोफ़ा पर बैठ उन्हें देखते हुए कुछ और भी देखता रहा. वहाँ कई पुस्तकें रखी थी. कविता हिन्दी और फ्रेंच. कुछ कैटलॉग कुछ ब्रोशर. धीरे धीरे चित्र का विस्तार हो रहा था. रज़ा लगन और एकाग्रता से चित्र बनाने में मशगूल थे. मुझे अशोक जी का लिखा रज़ा स्टूडियो का वर्णन ध्यान आया :

"रज़ा के स्टूडियो का वर्णन करना कठिन है. फर्श के एक हिस्से पर रंग के ट्यूबों, ब्रशों, कपों, कई तरह के औजारों के अलावा ईज़ल पर कई आकार के सफ़ेद कैनवास, फिर पुस्तकों के रैक्स-कला, हिन्दी और फ्रेंच कविता की पुस्तकें, कैटलॉग, पत्रिकाओं का ढेर, चिट्ठियाँ, पाम्पेदू सेन्टर, मैक्ट फ़ाउंडेशन आदि के निमन्त्रण-पत्र, एक कामकाजी मेज़ जिस पर कई घड़ियाँ हैं जिनमें से एक हमेशा  भारत का समय दिखाती है. एक शिवलिंग, कुछ जैन लघु चित्र, एक शंख, महात्मा गाँधी का एक चित्र, एक शालिग्राम, काँसे के कई गणेश, किसी देवी की काष्ठ मूर्त्ति (सदियों पुरानी दीवार पर), पाब्लो पिकासो का एक स्केच, कोने में एक छोटा-सा मन्दिर, दीवारों पे कुछ पोस्टर, कबीर, तुकाराम, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, मुक्ति बोध, ग़ालिब, इक़बाल, सूरदास, महादेवी, मजाज, रिल्के, रेम्बों आदि के कविता संग्रह आदि. मेज पर एक फ़ोन, बगल की छोटी मेज पर एक फैक्स मशीन."

वर्षों तक यह स्टूडियो ऐसा ही रहा. सिर्फ बदलने वाली बात ईज़ल पर लगे चित्र होते थे. बन जाने पर कुछ दिन वे पीछे की दीवार से टिके रखे रहते और एक दिन चले जाते. रज़ा का लगातार चित्र बनाना उन्हें प्रेरित करता रहता था. वे जानीन का ग़म भी इन्हीं रंगों में घोलने की कोशिश करते और लगातार असफल हो रहे थे. शाम को उन्होंने अपना काम ख़त्म किया और उन्होंने बढ़िया स्कॉच निकाली. उसके साथ के लिए उन्होंने हिन्दुस्तान से लाया हुआ नमकीन भी प्लेट में निकाला. यह उनके लिए कोई मित्र लेकर आया था. मैंने देखा इन दिनों उनकी शाम रसरंजन के अतिरेक में बीतने लगी है. उन्हें डॉक्टर ने भी मना किया हुआ था. और वे वर्टिगो की दवाई भी लम्बे समय से ले रहे थे. किन्तु उन्हें समझाना मुश्किल था. उन्हें याद था शाम को खाना खाने बाहर जाने का. और उस शाम हम उनके घर के नीचे वाली फ़्रेंच रेस्तराँ में गए. खाना लजीज था साथ में रेड वाइन. 



अगले कुछ दिनों में हम दक्षिणी फ्रांस में रज़ा के गर्मियों वाले घर जाने की तैयारियों में व्यस्त रहे. पेरिस में सुजाता बजाज, युवा चित्रकार अपने पति रुने और बिटिया हेलेना के साथ रज़ा के घर आया करती थीं. उन्होंने बड़ी मदद की रज़ा को ट्रैन के टिकिट बुक कराने और यात्रा की तैयारियों को पूरी करने में. उनसे ही पेरिस की कई जगहों के बारे में मालूमात भी हुआ, जहाँ जरूरत की चीज़े मिलती हैं जिसकी सख़्त जरूरत अचानक रज़ा को महसूस होती थी और उसे लेने उन्हें जाना होता था. धीरे-धीरे मुझे लगने लगा रज़ा पेरिस में नितान्त अकेले हैं. वे घबरा जाते थे जब कोई टैक्स का नोटिस आ जाता या पानी-बिजली का बिल, इनकम-टैक्स भरने के वक़्त उन्हें उसकी सामान्य प्रक्रियाएँ कठिन और न समझने वाली लगती. वे झुँझला जाते, खीजने लगते. कभी-कभी टैक्स लॉयर पर चिल्ला उठते. उन्हें समझाना मुश्किल हो जाता. वे सब काम छोड़कर बिस्तर पर जा लेटते और जानीन को याद करने लगते. अभी तक यह सारा काम जानीन करती आयीं थी और रज़ा को पता भी न था पेरिस में जीने के लिए अन्य सरकारी नियम, कायदे-कानून, जो सख़्त भी थे और समय पर पूरे किये जाने होते थे. ऐसे समय में सुजाता ही काम आती और आगे बढ़कर सुविधानुसार रज़ा को समझाती. तब जाकर एक दिन का काम कई दिन में पूरा होता. जानीन रज़ा की दूसरी पत्नी थीं. उनकी पहली पत्नी से निकाह दमोह में ही हुआ था और विभाजन के वक़्त वे रज़ा के साथ बम्बई में रहा करती थीं. कल्याण में रज़ा के पास किराये का एक बड़ा सा घर था जिसमें रज़ा, उनकी पत्नी और माँ साथ रहा करते थे. रज़ा हफ़्ते में दो बार बम्बई जाया करते. बाकी समय वे यहीं रहकर चित्र बनाया करते थे. उनकी पत्नी अक्सर बीमार रहती थीं और विभाजन के वक़्त उनके पिता और परिवार के अन्य सदस्य पाकिस्तान चले गए. यह भी उनके लिए कष्टप्रद था. उनकी पत्नी भी दो साल बाद, सम्भवतः रज़ा की माँ की मृत्यु के बाद, अपने पिता के पास पाकिस्तान चली गयीं. उसके अगले वर्ष ही रज़ा पेरिस आ गए और तलाक लेने तक लगातार अपनी पत्नी के सम्पर्क में रहे.

रज़ा के लिए स्टूडियो का एकान्त एकमात्र जगह थी जहाँ वे सुरक्षित महसूस करते. रंगों के बीच. कैनवास की सतह पर.

जानीन से रज़ा की मुलाक़ात इकोल द'बोज़ार में ही हुई थी और वे उन दिनों प्रिंट मेकिंग की पढ़ाई कर रही थीं. यहीं उनकी दोस्ती गहरी हुई और इन छात्र-छात्राओं का समूह छुट्टियों में फ्रांस के सुदूर अँचलों में घूमने जाया करता था. रज़ा को दृश्यचित्रण के लिए अनेक नयी- नयी जगह जाने को मिलता था और इस तरह फ्रांस को जानने का भी. इन्हीं यात्राओं में पहली बार गोर्बियो जाना भी हुआ और वहाँ जानीन के माता-पिता से मिलना भी. गोर्बियो में जानीन के परिवार की पुश्तैनी क़ब्र भी है यह रज़ा को उसी यात्रा में मालूम हुआ. जानीन खुद बहुत मेहनती और प्रतिभाशाली कलाकार थीं. उन्होंने बरसों प्रिंट बनाये फिर उनका झुकाव मूर्तिशिल्प की तरफ़ हुआ उन्होंने कई शिल्प बनाये जिसे बनाने के लिए पारम्परिक सामग्री का इस्तेमाल नहीं करती थी. अनेक शिल्प फॉउन्ड-ऑब्जेक्ट्स के थे और कई बार वे त्रिआयामी न होते हुए चित्र की तरह दोआयामी हुआ करते थे. बाद के दिनों में वे कोलाज करती थीं जिसमें वे चाय की थैलियों (Sachet) का इस्तेमाल करती थी. उनकी इन कलाकृतियों को बहुत पसन्द किया जाता था. उनके इस कोलाज से प्रभावित होकर रज़ा के अनन्य मित्र बाल छाबड़ा की पत्नी जीत छाबड़ा ने भी कोलाज करना शुरू किया और कुछ बहुत ही सुन्दर कोलाज बनाये. इन कलाकृतियों की कई प्रदर्शनी जानीन ने की और वे पेरिस के कलाकारों के बीच चर्चित कलाकार रहीं. जानीन एक ऐसी कलाकार हैं जो अपनी धुन की पक्की और आसानी से समझौता न करने वाली थीं. वे किसी भी हद तक जा सकती थी अपनी जिद में और अंत में उन्हीं को सफलता मिलती थी. उन्हें चित्रकला के नए माध्यम आकर्षित करते रहे और उनमें यह क्षमता थी कि वे इन माध्यमों से जल्दी ही अपना सम्बन्ध बना लेती. उन्हें भारतीय खाने और पहनावे से बहुत प्रेम था. वे खुद कई तरह का खाना बनाना जानती थी और ऐसा भी न था कि उनकी मर्जी के बग़ैर घर में कोई काम हो जाये. रज़ा उनका बहुत ख्याल रखते रहे और अक्सर उन दोनों के बीच जिद और मनाने के दिलचस्प वाकये हुआ करते थे. रज़ा के लिए जानीन ही सब कुछ थीं. और जानीन रज़ा से अज्ञेय की वह कविता 'हँसती रहना' समय-समय पर' सुना करतीं.

रज़ा का पेरिस जानीन तक था और जानीन इस बात को जानती थीं. रज़ा की रुचि भी नहीं थी स्टूडियो से बाहर की दुनिया में. शायद ही कभी वे फिल्म देखने की इच्छा रखे हों. शायद ही कभी उन्हें बाहर के किसी कार्यक्रम में रुचि हुई हो. वे करते थे ये सब किन्तु उनकी मर्जी से नहीं. जानीन के लिए. जानीन बेहद संवेदनशील कलाकार थीं उनकी कलाकृतियों में वे हमेशा नए माध्यम के सहारे अपनी अभिव्यक्ति को पाने का प्रयास करती और वे अपनी कलाकृतियों से निरपेक्ष भी रहा करती. उन्हें काम करते देखना भी अपने में अनुभव है. वे तल्लीनता से अपने काम में मग्न अनेक तरह की चीजों से घिरी रहती थीं. उनका यह 'कबाड़', रज़ा मजाक में उस सामग्री को कबाड़ कहा करते थे, चारों तरफ़ बिखरा होता था और कब कौनसी चीज कहाँ लगेगी इसका अनुमान लगाना कठिन होता था.

जानीन को काम करते वक़्त तेज संगीत सुनना पसन्द था. संगीत लहरियों में डूबी उस कबाड़ से करिश्मा ढूँढ निकालने का काम वे सहज ही कर लिया करती और उनकी कलाकृति आखिर तक पूरी नहीं होती थी वे प्रदर्शनी में लगी कलाकृति में भी कभी कुछ जोड़ सकती हैं इसकी सम्भावना खुली रहती. उनके लिए चित्र बनाना और एक दुर्लभ खाने की नयी रेसेपी को आजमाना समान चुनौती और आनन्द का विषय था. वे खुद रुचि का पर्याय थीं. उनके घर में कोई ऐसी वस्तु नहीं दिख सकती जिसे लेने के पहले उन्होंने सोच-विचार न किया हो. सादगी और सुरुचि जानीन को प्रिय थे. अब जानीन नहीं थीं रज़ा के लिए हर बात एक मुश्किल थी. घर में रज़ा ने अपने सोने के बिस्तर के ठीक ऊपर वह छोटा सा चित्र टाँग रखा था जो उन्होंने जानीन को उन दिनों भेंट किया था जब वे दोनों प्रेम में थे. इसका महत्व दोनों के लिए बराबर था. यह खूबसूरत चित्र था और रज़ा के पेरिस में आने और भारतीय स्मृतियाँ न छूटने की याद दिलाता चित्र था. रज़ा और जानीन दोनों को यह चित्र पसन्द था. रज़ा रोज जब सोने जाते उस चित्र को देखते और जानीन की स्मृति को प्रणाम करते थे. यह वो चित्र था बाद में जिसे एक कला संग्राहक चुरा ले गया. रज़ा की जगह कोई और होता तो इस बात का बतंगड़ बना देता मगर रज़ा ने मुझसे सिर्फ इतना कहा कि क्या कोई पेंटिंग चुरा सकता है?   

गोर्बियो एक बहुत ही सुन्दर छोटा सा गांव है दक्षिणी फ्रांस की पहाड़ियों पर बसा. इस गांव में एक गिरिजा घर, एक रेस्तराँ, कुछ दुकानें और बहुत ही कम लोग रहते हैं. यहाँ रज़ा ने पहले शातो (किले) का एक हिस्सा ख़रीदा हुआ था जहाँ उनका स्टूडियो और छोटा सा घर था. उसका दूसरा हिस्सा खरीद कर उसे बढाने के विचार उन्होंने उम्र के तकाजे के कारण त्याग दिया. रज़ा और जानीन जब यहाँ चार महीनों के लिए आते थे तब ऊपर तक सामान के साथ चढ़कर जाना सम्भव था. धीरे-धीरे यह मुश्किल काम होने लगा. सो रज़ा ने गोर्बियों की सीमा के बाहर अपना नया स्टूडियो बनाया. जो सड़क से लगा हुआ है. उनका यह स्टूडियो-घर उन्होंने बहुत प्रेम और सावधानी से बनाया, जिसमें जरूरत की सभी चीजे मौजूद थी. ऊपर स्टूडियो था जिसके सामने बड़ा सा बरामदा और कुछ सीढ़ियाँ उतर कर एक बड़ा बगीचा, नीचे उनका घर जो एक कमरे और बड़े से आँगन का था. घर से लगी एक ढलान है जो नीचे बह रही जलधारा तक जाती है. यह कोई नदी न थी. बस पहाड़ों से आता पानी था. जो एक छोटी सी जलधारा में बदल गया था. रज़ा के लिए यह जगह उनके मण्डला के एकान्त के नजदीक थी. एक तरफ से उनका घर जंगलों के बीच नज़र आता है दूसरे वह सड़क से लगा हुआ था.

रज़ा पेरिस से मांतों तक रेल से आते और यहाँ कार से. रज़ा के लिए यहाँ आना कुछ-कुछ भारी भरकम सामान के साथ आना है जिसे चार सूटकेस में भर कर लाया जाता रहा. बाद में कुछ किफ़ायत बरतना शुरू हुआ किन्तु रज़ा के लिए यह समझ पाना मुश्किल होता था कि यहाँ वह सब मिल सकता है जो पेरिस में मिलता है. वे अपनी जरूरत का हर सामान जो कि ज्यादातर चित्र बनाने के लिए ही होता था साथ ले जाते थे और ख़त्म होने पर मांतों में एक दुकान से ख़रीदा करते. यहाँ के लोगों के लिए रज़ा महत्वपूर्ण व्यक्ति थे और जानीन की सबसे दोस्ती थी. जब मौसम ज्यादा ख़राब होता जिसमें बर्फ गिरना भी शामिल है तब रज़ा और जानीन मांतों के अपने दो कमरों के फ्लैट में चले जाते थे. यह दो कमरों का फ्लैट एक दस मंजिला इमारत में था. सभी आधुनिक सुविधाओं से युक्त. जिसमें सबसे महत्वपूर्ण था सेंट्रल हीटिंग सिस्टम का होना.

रज़ा के साथ जब हम लोग यहाँ पहुँचे तब कुछ दिन घर में ठीक-ठाक होने में लगे और जैसे ही सब कुछ सामान्य हुआ हम लोग मांतों से लगी सीमा पार इटली के पौधे की नर्सरी में गए और रज़ा ने वहाँ से तुलसी का पौधा ख़रीदा, कुछ फूलों के पौधे जिन्हें उनका माली आकर दूसरे दिन बगीचे में लगा गया. रज़ा ने बतलाया हर साल तुलसी का पौधा लाना पड़ता है यहाँ की ठण्ड में सारा बगीचा बर्बाद हो जाता है. उनके घर के बगीचे में वह तुलसी का पौधा कुछ ही दिनों में अपनी जड़े पकड़ चुका था. दूसरे फूलों के पौधे भी  थे. 



रज़ा सुबह से चित्र बनाना शुरू करते और दोपहर के खाने तक वे काम करते. दिनचर्या  ही थी. रविवार को सुबह चर्च जाते. लौटते में जानीन की कब्र पर ताजे फूल रखने जाते. नियमित होने में रज़ा की तुलना किसी कलाकार से नहीं की जा सकती. शाम को जानीन की याद और अवसाद भी नियमित था. रज़ा का संघर्ष खुद से था. वे खुद को सम्हालने की चेष्टा लगातार कर रहे थे और उनका ध्यान सिर्फ चित्र बनाते वक़्त ही एकाग्र होता. बाकी समय भटका रहता. उसी दौरान शाम के रसरंजन में मैंने उन्हें महाभारत और रामायण की क्षेपक कथायें सुनाना शुरू किया और यह वो जगह थी जहाँ रज़ा की रुचि मुझे दिखाई दी. उन्हें इसमें आनन्द आने लगा और वे कथा में से कथा निकलती देख और देवताओं का मानवीय स्वभाव सुन कर चकित होते और उसकी प्रशंसा भी करते. कार्तिकेय और गणेश के जन्म की कथाओं में, दुर्योधन के बदला लेने के संकल्प में, भस्मासुर, हिरण्यकश्यप ऐसी अनेक कथाओं के लिए वे उत्सुक रहने लगे. शाम होते ही वे अपना काम बन्द करते और मैं जहाँ काम करता था (उन्होंने जिद करके एक जगह जो बगीचे से जुड़ी और समर किचन हो सकती थी वहाँ मेरा स्टूडियो बना लिया था, वे अपना काम करते और मैं अपना) वहाँ आकर पूछते आज कौन सी कथा सुनाओगे. उनका ध्यान जानीन से हटने लगा था और कई बार कथाएँ इतनी लम्बी हो जाती कि हम अपना खाना ख़त्म कर लेते. रज़ा बिस्तर पर लेट जाते और कथा सुनते-सुनते सो जाते. इससे एक फ़ायदा और हो रहा था उनका ध्यान रसरंजन के अतिरेक से अधिक इन कथाओं में रहने लगा. वे ख़ुश रहने लगे. थोड़ा ध्यान दूसरी तरफ़ भी लगने लगा. उनका हास्य-बोध जाग्रत होने लगा. सुबह-सुबह वो पूछ सकते थे कीचक वध के बारे में या कि युधिष्ठिर से पूछे गए सात सवाल.

रज़ा के साथ इन दिनों मैं चित्र बनाने के अलावा आस-पास के संग्रहालय देखने जाया करता. मातीस का घर या फॉउण्डेशन मैक्ट. नीस का MAMAC, आधुनिक कला संग्रहालय, मोनाको और एक्स ऑ'प्रोवांस का संग्रहालय, शागाल का घर जो अब संग्रहालय है. और ऐसी अनेक जगह जहाँ सप्ताहांत के लिए जाया करते. इन्हीं दिनों मोनाको में एक प्रदर्शनी देखी जो पुरावशेष प्रदर्शनी थी. जिसमें कई देश शामिल थे. उसमें सिर्फ दो देश भारत और चीन ऐसे थे जहाँ की कुछ वस्तुएँ और मूर्तियाँ छठी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी की थीं. इसमें सबसे दिलचस्प अमेरिकन पण्डाल था जहाँ सत्तर के दशक का टेलीफोन, टेबल, तौलिया, तमंचा, आईना, स्कार्फ़ आदि उत्तर-आधुनिक वस्तुएँ पुरावशेष की तरह प्रदर्शित थीं. जो अभी ठीक से पुराने भी नहीं हुए थे. उनकी चमक ऐसी थी मानो फैक्ट्री से बन कर आ रहे हों.

आंतीब में पिकासो का संग्रहालय रज़ा बहुत उत्साह और स्नेह से ले गए. यह संग्रहालय अब पिकासो के नाम कर दिया गया है. इसके पीछे की कहानी यह है कि यह किला बिकने की घोषणा हुई तब सिर्फ दो लोगों ने खरीदने की इच्छा दिखलाई. एक पिकासो दूसरा आंतीब का नगर-निगम और जाहिर है यह किला उन्हें मिल गया. जब मेयर को पता लगा दूसरा खरीददार पिकासो है तो उन्होनें पिकासो के लिए यह सुविधा रखी कि वे जब चाहे यहाँ आकर रह सकते हैं. पिकासो ने तीन बार इस निमन्त्रण का लाभ उठाया और पहली बार में कुछ म्यूरल तीसरे माले की दीवारों पर बनाये, दूसरी बार बाहर के बगीचे के लिए कई मूर्तिशिल्प बनाये तीसरी बार लगभग चालीस छापे बनाये और ये सब संग्रहालय में प्रदर्शित है. जब नगर-निगम ने इसे पिकासो संग्रहालय बनाने की घोषणा की तब पिकासो की अमेरिकन पत्नी ने अनेक चित्र संग्रहालय को भेंट किये.

इस तरह यह एक अनोखा पिकासो संग्रहालय बना जहाँ पहले माले पर अन्य कलाकारों के काम प्रदर्शित हैं जो नगर-निगम समय- समय पर खरीदता रहा है और शेष जगह सिर्फ पिकासो के काम. रज़ा के लिए ये यात्राएँ थका देने वाली होती थीं किन्तु उनका उत्साह बच्चों जैसा था. वो मुझे सब कुछ दिखा देना चाहते थे. ये यात्राएँ हर बार मेरे गोर्बियो में होने के सबब से की जाती रहीं. इन जगहों को इतनी बार देखा और हर बार नया पाया.

रज़ा का काम भी तेजी से चल रहा था वे सुबह से शाम तक दोपहर के खाने और आराम को छोड़कर लगातार काम कर रहे थे. उनकी लगन प्रेरित करने योग्य थी. उन्होंने अगले वर्ष मेरी प्रदर्शनी की तैयारी शुरू कर दी. गोर्बियो का मेयर मिशेल थे जो स्वयं चित्रकार थे. उन्हीं से पता चला कि रज़ा के साथ मिलकर उन्होनें एक ग्रुप बनाया था जिसमें कोते दा'ज़ूर के छह-सात कलाकार थे और इस ग्रुप को बनाने की प्रेरणा रज़ा की दी हुई थी जो स्वयं भी एक संस्थापक सदस्य थे. इस ग्रुप का नाम था 'आग'  (Asosiation of Artists of Gorbio) इस ग्रुप ने भी बहुत ज्यादा प्रदर्शनी नहीं की हैं और इस इलाके में काफ़ी सक्रिय रहा है. इसमें रज़ा के अलावा सभी कलाकार यहीं दक्षिण फ्रांस के थे. रज़ा हर वर्ष चार या पाँच महीने के लिए आते हैं. इस ग्रुप को भी रज़ा ने एक-दो साल बाद छोड़ दिया था. यहीं रज़ा ने नीस की एक कलाकार से परिचय कराया. 'गारिबो' वे अद्भुत काम करती हैं. उनके चित्र सभी काले रंग के हुआ करते हैं और बहुत ही सफ़ाई, सघनता और सुधड़ता से उनके द्वारा ज्यामिति का इस्तेमाल कर काले रंग के अनेक टोन के बीच बहुत बारीक से चमकते लाल या पीले या सिर्फ़ सफ़ेद रंग के चौकोर. वे किसी भी दर्शक को अचम्भित करने में सक्षम थे. रज़ा ने उनके कई काम भी ख़रीदे हैं. जब कुछ करने का मन ना हो तब रज़ा नीस में गारिबो से मिलने कार्यक्रम बना डालते और हम लोग एक बेहतरीन शाम गुजारते. 

पहले साल जानीन की प्रदर्शनी हुई गोर्बियो के चर्च से लगे प्रेस्बितेयर में. 'प्रेस्बितेयर' हर चर्च से लगी एक तरह की सराय हुआ करती थी जहाँ आने-जाने वाले पादरी रुका करते थे. यहाँ के मेयर मिशेल ने इस बंद पड़ी जगह को एक गैलरी में तबदील कर दिया था. हर गर्मियों में यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिए यह एक नयी शुरुआत थी. इसके निर्माण और सुधार-कार्य के लिए रज़ा ने भी थोड़ा बहुत पैसा दिया था. रज़ा की उदारता के किस्से यहाँ मशहूर थे और रज़ा भी इसे अपने गांव की तरह ही प्रेम करते थे. इसके बाद रज़ा ने रुचि लेकर कई प्रदर्शनियों के लिए प्रस्ताव दिया और वे सब हुई. इस प्रदर्शनी के बाद मेरी और उसके बाद एक ग्रुप शो जिसमें सीमा, योगेन्द्र त्रिपाठी, सुजाता बजाज, मनीष, रज़ा और मैं शामिल थे. इसके बाद रज़ा ने मेयर के महत्वाकांक्षी योजना में रुचि लेना शुरू कर दिया. जिसमें वहाँ के शातो (किले) को एक संग्रहालय में बदला जा सके. यह संग्रहालय अगले तीस वर्षों तक रज़ा-मोंजीला संग्रहालय के नाम से जाना जायेगा. शातो के निर्माण-सुधार कार्य, बिजली और ठण्ड में गर्म रखने की व्यवस्था, अलार्म सिस्टम के लिए रज़ा ने दिल खोल कर खर्च किया. साल दो साल में यह संग्रहालय बन कर तैयार हुआ और उसका उद्घाटन रज़ा और जानीन मोंजीला और रज़ा के संग्रह की भारतीय और फ़्रांसिसी कलाकारों की कलाकृतियों से हुआ. ये सभी कलाकृतियाँ रज़ा ने इस संग्रहालय को दान कर दी हैं. यदि आप भी कभी दक्षिणी फ्रांस जा रहे हैं तो जरूर यह संग्रहालय देखने जाएँ और दोपहर वहाँ के एक मात्र रेस्तराँ बों-से-जूर में लज़ीज खाना खाएँ. अब गोर्बियो में दो जगह हो गयीं जहाँ कलाकृतियाँ प्रदर्शित होती हैं.

यह रज़ा का सरोकार ही था जिसमें यह सम्भव हो सका. कला के प्रति उनकी सजगता और निरन्तरता का विचार उन्हें हमेशा नए कार्यों की ओर ले जाता रहा है. उन्हें युवा कलाकारों से मिलने, उनका काम देखने और उनसे जीवन्त सम्बन्ध रखने की ऊर्जा देता था. 
(इसी शीर्षक से प्रकाशित होने जा रही किताब का यह अंश है)  

56akhilesh@gmail.com


क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

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  1. तेजी ग्रोवर30 जन॰ 2021, 9:51:00 am

    उनके सफ़ेद रंगों के चित्र भी अन्य रंगों की आभा लिए हुए होते हैं....

    अखिलेश बहुत गहरे में उतरते हैं। और हर बार कुछ और से और माणिक मोती ले आते हैं।

    रज़ा के बारे में पढ़ना बेहद सुखद लगता है। एक विशुद्ध कलाकार का जीवन कैसे जिया जाता है, अखिलेश इसकी झलक लगातार दिखा रहे हैं.

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  2. रज़ा जी पर यह स्तंभ श्रृंखला शानदार है। अखिलेश जी गम्भीरता से यह कर रहे हैं

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  3. न सिर्फ रजा को जानने व समझने बल्कि पेंटिंग के बारे में भी यह अद्वितीय पुस्तक होगी. अखिलेश जी को लगातार समालोचना में पढ़ रहा है. साहित्यिक पत्रिकाओं में जो काम पहल कर रहा है, वैसा ही महत्वपूर्ण कार्य समालोचना कर रहा है. अखिलेश जी और अरुण देव जी को बहुत बहुत शुभकामनाएं और शुक्रिया.

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  4. दया शंकर शरण1 फ़र॰ 2021, 11:32:00 am

    भारतीय मनीषा के प्रतीक चित्रकार सैयद हैदर रजा एवं उनकी फ्रांसीसी पत्नी जानीन के संस्मरण बेहद अंतरंग, दिलचस्प एवं अविस्मरणीय हैं। अखिलेश जी ने उन आत्मीयता से भरी यादों को बहुत खुबसूरती और बारीकी से एक लड़ी में पिरोया है- एक कथा की तरह आकर्षक एवं पठनीय । और इन सबका राकेश जी के द्वारा संयोजन भी प्रशंसा के काबिल है। आप सभी को हार्दिक बधाई !

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