कोरोना एकान्‍त में कुछ कविताएँ : अशोक वाजपेयी

(Photo Credit: Oxbridge India)

कोरोना महामारी के इस विकट दौर में लोग घरों में  क़ैद हैं, बचे हुए बाहर की क़ैद में छटपटा रहें हैं. इस भयावह एकांत को कवियों, लेखकों, कलाकारों ने भरना शुरू किया है, वैज्ञानिकों, विचारकों ने समझना प्रारम्भ कर दिया है. जब यह कहा जाता है कि मनुष्य जल्दी ही इस आपदा से बाहर निकल आयेगा. मैं सुनना चाहता हूँ कि कोई कहे यह पृथ्वी भी अपनी वनस्पतियों और पशु-पक्षियों  के साथ जल्दी ही मनुष्य निर्मित विभीषिकाओं से बाहर निकल आएगी.   

कवि, विचारक, कला-संस्कृति मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी की कुछ बिलकुल नई कविताएँ प्रस्तुत हैं. इनमें मेघ-मन्द्र स्वर में कोरोनाकालीन समय की उदासी, विवशता, बेचैनी के साथ वह उम्मीद भी है जो कभी भी साथ नहीं छोडती.



कोरोना एकान्‍त में कुछ कविताएँ : अशोक वाजपेयी         



हम अपना समय लिख नहीं पायेंगे

यह ठहरा हुआ निर्जन समय
जिसमें पक्षी और चिड़ियाँ तक चुप हैं,
जिसमें रोज़मर्रा की आवाजें नहीं सिर्फ़ गूँजें भर हैं,
जिसमें प्रार्थनापुकार और विलाप सब मौन में विला गये हैं,
जिसमें संग-साथ कहीं दुबका हुआ है,
जिसमें हर कुछ पर चुप्पी समय की तरह पसर गयी है,

ऐसे समय को हम कैसे लिख पायेंगे?
पता नहीं यह हमारा समय है
यहाँ हम किसी और समय में बलात् आ गये हैं
इतना सपाट है यह समय
कि इसमें कोई सलवटेंपरतेंदरारेंनज़र नहीं आतीं
और इससे भागने की कोई पगडण्डी तक नहीं सूझती.
हम अपना समय लिख नहीं पायेंगे.

यह समय धीरे चल रहा है
लगता सब घड़ियों ने विलम्बित होना ठान लिया है;
बेमौसम हवा ठण्डी है;
यों वसन्त है और फूल खिलखिला रहे हैं
मानों हमारे कुसमय पर हँस रहे हों
और गिलहरियाँ तेज़ी से भागते हुए
मुँह चिढ़ाती पेड़ों या खम्भों पर चढ़ रही है;
अचानक कबूतर कुछ कम हो गये हैं जैसे
दिहाड़ी मज़दूरों की तरह अपने घर-गाँव वापस
जाने की दुखद यात्रा पर निकल गये हों:
हमें इतना दिलासा भर है कि
अपने समय में भले न होंहम अपने घर में हैं.

उम्मीद किसी कचरे के छूट गये हिस्से की तरह
किसी कोने में दुबकी पड़ी है
जो आज नहीं तो कल बुहारकर फेंक दी जायेगी.
हम अपना समय लिख नहीं पायेंगे.
(29 मार्च 2020)



पृथ्वी का मंगल हो

सुबह की ठण्डी हवा में
अपनी असंख्य हरी रंगतों में
चमक-काँप रही हैं
अनार-नीबू-नीम-सप्रपर्णी-शिरीष-बोगेनबेलिया-जवाकुसुम-सहजन की पत्तियाँ:
धूप उनकी हरीतिमा पर निश्छल फिसल रही है:
मैं सुनता हूँ उनकी समवेत प्रार्थना:
पृथ्वी का मंगल हो!

एक हरा वृन्दगान है विलंबित वसन्त के उकसाये
जिसमें तरह-तरह के नामहीन फूल
स्वरों की तरह कोमल आघात कर रहे हैं:
सब गा-गुनगुना-बजा रहे हैं
स्वस्तिवाचन पृथ्वी के लिए.

साइकिल पर एक लड़की लगातार चक्कर लगा रही है
खिड़कियाँ-बालकनियाँ खुली हैं पर निर्जन
एकान्त एक नये निरभ्र नभ की तरह
सब पर छाया हुआ है
पर धीरे-धीरे बहुत धीमे बहुत धीरे
एकान्त भी गा रहा है पृथ्वी के लिए मंगलगान.

घरों परदरवाज़ों पर
कोई दस्तक नहीं देता-
पड़ोस में कोई किसी को नहीं पुकारता
अथाह मौन में सिर्फ़ हवा की तरह अदृश्य
हलके से धकियाता है हर दरवाज़ेहर खिड़की को
मंगल आघात पृथ्वी का.

इस समय यकायक बहुत सारी जगह है
खुली और ख़ाली
पर जगह नहीं है संगसाथ कीमेलजोल की,
बहस और शोर कीपर फिर भी
जगह है: शब्द कीकविता कीमंगलवाचन की.
हम इन्हीं शब्दों मेंकविता के सूने गलियारे से
पुकार रहे हैंगा रहे हैं,
सिसक रहे हैं
पृथ्वी का मंगल होपृथ्वी पर मंगल हो.

पृथ्वी ही दे सकती है
हमें
मंगल और अभय
सारे प्राचीन आलोकों को संपुंजित कर
नयी वत्‍सल उज्ज्वलता
हम पृथ्वी के आगे प्रणत हैं.
(6 अप्रैल 2020)





(Illustration by Kyu Tae Lee)




छोटी कविताएँ
1
भोर की पहली चिड़िया बोल रही है
अभी भी बचे हुए अँधेरे को चीरती हुई
भोर को पता नहीं.


2
निर्जन में आवाज़ें हैं
शब्द नहीं हैंलोग नहीं हैं
नियत समय पर फिर भी हो रहा है
सवेरा.


3
चिड़िया ने कुछ कहा नहीं है
उसको किसी ने कुछ बताया नहीं है
चुपचाप चिड़िया भोर ले आयी है
अपने नन्हें पंखों पर.


4
शायद अँधेरे को पता होता है
कि उसे बीत जाना है
शायद प्रकाश को ख़बर होती है
कि उसका अवसर आयेगा
शायद हम ही हैं
जो बीतने और होने के बीच फँसे हैं.


5
हमारे बिना जाने कुछ-कुछ छूटता रहा है:
बचपन के पहले राग-बिम्ब
रात की ट्रेन में चुपचाप कम्बल उढ़ाने वाले व्यक्ति का चेहरा
सुबह याद न आने वाली ललित की प्रसिद्ध बन्दिश
पिछले वर्ष शिरीष से पटे ढेर सारे फूलों का दिन
कुछ-कुछ छूटता रहता है...

(7 अप्रैल 2020)



क्या?

क्या उत्तर दोगे तुम
जब वे पूछेंगे कि वह नीली आभा कहाँ गयी?
कहाँ गया वह मांसल लाल
कहाँ वह हरियाती पीतिमा?

कैसे कहोगे तुम
कि शब्दों में अँट नहीं पाया
वह हलका हरा अँधेरा
वह ओस की बूँद पर एक पल को चमकी धूप
वह शहर छोड़कर भूखे भागते आदमी का लाचार चेहरा
वह सब कुछ से बेख़बर हवा में फुदकती चिड़िया की चहचहाहट की स्वरलिपि?

क्या होगा तुम्हारे पास अभी भी बचा
जब तुम लौटोगे भाषा की घाटियों में
जो हरा-भरा हो और जीवन से भरपूर?

(8 अप्रैल 2020)
____________
ashokvajpeyi12@gmail.com 

56/Post a Comment/Comments

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  1. ज्योतिष जोशी16 अप्रैल 2020, 8:30:00 am

    सुंदर कविताएं। अपने को प्रश्नांकित करती और प्रकृति को उसकी समूची आभा में उठातीं यह कविताएं उस पवित्र मन की उपज हैं जिसे यह आशंका है कि दुनिया जब फिर चलने लगेगी तो प्रकृति फिर से ठहर जाएगी। यह हमारी सभ्यता की सबसे बड़ी वेदना है जहां हम पहुंच गए हैं।

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  2. सुदीप सोहनी16 अप्रैल 2020, 8:31:00 am

    सुबह की शुरुआत में यह कविताएँ. अहा! भाषा और समय की आवाजाही की सीख में कहन का यह अन्दाज़, चिन्ता, शब्द और अर्थ की ध्वनियाँ .. देर तक गूंजने वाली कविता. अशोक जी और समालोचन का शुक्रिया ����

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  3. हीरालाल नागर16 अप्रैल 2020, 8:31:00 am

    दिल को छूती हुई भोर की हवा की तरह

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  4. 'उम्मीद किसी कचरे के छूट गए हिस्से की तरह
    किसी कोने में दुबकी पड़ी है
    जो आज नहीं तो कल बुहारकर फेंक दी जाएगी
    हम अपना समय नहीं लिख पाएंगे !'

    अशोक वाजपेयी की इन कविताओं में यही पंक्तियाँ कविता होने की किंचित अर्हता रखती हैं । इन पंक्तियों में आत्म-स्वीकार भी है और कन्फेशन भी । अशोक वाजपेयी की यह बात प्रभावी तब हो सकती थी जब वे कभी-कभार ही अपने समय को लिख पाए हों । वे सदा से समय और देशकाल के बाहर रहे हैं ।

    'यह ठहरा हुआ निर्जन समय
    ऐसे में पक्षी और चिड़ियाँ तक चुप है !'

    क्या चिड़िया पक्षी नहीं है । यह अलग बात कि इन दिनों मनुष्यों से अधिक पक्षियों की ही आवाज़ सुनाई दे रही है ।

    'सब गा-गुनगुना-बजा रहे हैं
    स्वस्तिवाचन पृथ्वी के लिए ।'

    जहाँ तक मैं जानता हूँ स्वस्तिवाचन किया जाता है । अशोक वाजपेयी स्वस्तिवाचन को गा-गुनगुना और बजा रहे हैं ।

    बहरहाल इस संकट-काल में अशोक वाजपेयी की सुंदर कविताओं को प्रकाशित करने के लिए समालोचन का आभार !

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    1. बहुत शानदार सर👌👌

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    2. कृष्ण कल्पित भाई, एक बात मेरी समझ में नहीं आई; पहले तो आप केवल चार पंक्तियों को कविता की "किंचित" अर्हता रखने वाली मानते हैं, इससे यह अर्थ निकलता है, मेरी समझ से, कि शेष सब कुछ कविता कहने-कहलाने योग्य नहीं। फिर कुछ दोष भी आप बताते है। इससे मुझे कोई दिक्कत नहीं, प्रत्येक पाठक/समीक्षक की अपनी राय होती है, होनी भी चाहिए। पर अंत में आप अशोक वाजपेयी की "सुंदर कविताओं" को प्रकाशित करने के लिए समालोचन का आभार प्रकट करे हैं ! क्या यह स्व-विरोध या असमंजस की स्थिति को नहीं दर्शाता?

      हटाएं
    3. ये कविताएँ साधारण और मामूली हैं । कविताओं की तरह लिख दिया गया है । इसलिए इन्हें कविता कहा जा रहा है । इनमें कोई कविता तत्व नहीं है । भारतीय परम्परा यह सिखाती है कि असुंदर को असुंदर नहीं कहना चाहिए । अच्छी बुरी सभी कविताएँ सुंदर होती हैं । यह विरोधाभास नहीं हमारे संस्कार हैं ।

      हटाएं
  5. बहुत सुन्दर कविताएँ

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  6. कृष्ण कल्पित सर। शानदार।👌👌😊

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  7. स्वप्निल श्रीवास्तव16 अप्रैल 2020, 9:27:00 am

    कोरोना की यंत्रणा से कोई नही बच सकता , कवि तो कत्तई नही । अशोक जी ने इस एकांत अपनी कविताई से भर दिया है ।

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  8. शिरीष मौर्य16 अप्रैल 2020, 9:31:00 am

    अशोक वाजपेयी बहुत लम्बे समय से हिन्दी साहित्य में उस पक्ष की तरह रह रहे हैं, जिसने एक मेधावी, तेजस्वी और प्रतिभा के धनी प्रतिपक्ष का निर्माण अपने लिए किया है। यह प्रतिपक्ष उनकी पीढ़ी से लेकर नयी पीढ़ी तक हमें मिल जाएगा

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  9. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (17-04-2020) को "कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?" (चर्चा अंक-3674) पर भी होगी।

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।

    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।

    आप भी सादर आमंत्रित है

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  10. सुरेश सलिल16 अप्रैल 2020, 10:27:00 am

    अशोक जी की कविताएं सोच के नये झरोखे खोलती हैं। किंतु फिलहाल मेरे आसपास निर्जन एकांत ही है जिसे तोड़ने का कोई औजार मेरे पास नहीं ‌।एक निहत्थापन।

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  11. प्रेम और करुणा में भीगे एकांत की कविताएं।
    कोरोना ने कई आयाम हैं।इनमें कुछ की मार्मिक समाई
    दृष्टव्य है।हम अपने समय से न भाग सकते हैं न पूरी तरह
    लिख सकते हैं।अलक्षित पकने के बाद आएगा, ऐसी उम्मीद है।
    साधुवाद।

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  12. कोरोना के कई आयाम हैं।(सुधार के साथ पढ़िये)

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  13. इस समय, जब कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा, ये कविताएं उस अच्छा लगने को नम करती हैं।

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  14. 'कम से कम' की प्रभाववत्‍ता अभी एक मांगलिक भोर की तरह कायम है तथापि इस एकांत के अभय में अशोक वाजपेयी की ये कविताएं वाकई एक मंगलगान की तरह हैं। एक स्‍वस्‍तिवाचन की तरह। पूजन अर्चन नीराजन की तरह। उनकी कविताओं में शुभाशा सांस लेती है। स्‍वस्‍ति के इस अहरह वाचन में वे मनुष्‍यता के अस्‍तित्‍व की कामना एक संसारी की तरह ही करते हैं यह जानते हुए कि कुछ भी अक्षुण्‍ण नहीं है प्रकृति के सिवा। सच है कि इस समय से भाग निकलने की कोई पगडंडी कोई चोर दरवाजा तक नहीं है हमारे पास सिवा इस प्रायोजित एकांत के। यह कहना कवित्‍व की किस गाढ़ी संवेदना से छूना है कि
    एक हरा वृन्दगान है विलंबित वसन्त के उकसाये
    जिसमें तरह-तरह के नामहीन फूल
    स्वरों की तरह कोमल आघात कर रहे हैं:
    .....
    एकान्त एक नये निरभ्र नभ की तरह
    सब पर छाया हुआ है
    .....
    हम इन्हीं शब्दों में, कविता के सूने गलियारे से
    पुकार रहे हैं, गा रहे हैं,
    सिसक रहे हैं
    अशोक वाजपेयी की कविता पढ़ते हुए हमेशा लगता है यह किसी प्रार्थना के छिटके हुए शब्‍द हैं। हरसिंगार की तरह झरते हुए शब्‍द हैं, उस पर जब वे वृंदगान को हरा लिखते हैं और वसंत को विलंबित तो फूलों का निपात कोमल सुरों के आघात में बदल जाता है। ऐसे न बरते गए उपमान और उपमेयों की उनके यहां लड़ियां ही मिलती हैं। आघात भी उनके कोमल ही होते हैं उस पर यह उनका प्रिय शब्‍द भी तो है। वे अन्‍यत्र यहीं कहते हैं: ''मंगल आघात पृथ्‍वी का। '' उनके अभ्‍यस्‍त पाठकों को याद होगा कि पहले वे कह चुके हैं : शब्‍द से भी जागती है देह/ जैसे एक पत्‍ती के आघात से सबेरा। प्रथम वाक्‍य को भाष्‍य की जरूरत नहीं वह हो शब्‍दों से देह जगाने वाले जानते ही हैं, पर एक पत्‍ती के आघात से होता है सबेरा --यह इससे पहले किस भारतीय कवि ने कहा है मुझे नहीं मालूम और विदेशी कवियों का अध्‍ययन मुझे ज्‍यादा नहीं है। दूसरे वाक्‍य में आघात का निक्षेप इस सलीके से किया है कि यह किसी रीतिकालीन कवि- कल्‍पना से तुलनीय हो।
    पश्‍चलेख: जहां तक कवि कृष्‍ण कल्‍पित का कथन है, कि स्‍वस्‍तिवाचन तो करने की चीज है, गाने बजाने की नहीं, मान्‍य है, तथापि वे 'एकान्त भी गा रहा है पृथ्वी के लिए मंगलगान.' में भी क्रियापद की पुनरुक्‍ति लोकेट कर सकते हैं। पर उनका यह कहना कि वे एक कवि के रूप में सदा से समय और देशकाल के बाहर रहे हैं , यह उचित नहीं है और इसके पीछे अशोक वाजपेयी के लिए उनके मन में पूर्व अवधारण ही काम करता जान पड़ता है। कालजयी आदि विशेषणों की व्‍यर्थता में न जाकर कहना चाहूंगा कि हर कवि अपने समय में होता है। ऐसा न होता तो आज कालिदास न होते, भवभूति न होते, शेक्‍सपियर न होते, व्‍यास न होते, ब्रेख्‍त न होते, पॉज न होते, । सभी अपने अपने समयों के कवि है। अपने समयों में रहते हुए कालातीत होने वाले। पर किसी अत्‍याधुनिक कवि के बारे में यह निश्‍चायक निष्‍कर्ष दे बैठना कि वह अपने देश या काल से सदैव बाहर रहने वाला कवि है यह औचित्‍यपूर्ण नही है। 'सदैव' तो कतई नहीं जबकि कालोह्यनिरवधि:विपुलाचृथ्‍वी का अकाट्य उम्‍मीदो-भरा कथन हमारे सम्‍मुख हो। कल्‍पित जी ने बहुत उदारता दिखाई है यहां। सारे पूरा प्रसंगों के बावजूद वे इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे हैं कि कुछ तो अर्हताजन्‍य उनके यहां है, यह कम नहीं।
    यों यह भी सच हे कि आलोचक के यहां असंतोष के कुछ बादल मंडराते रहने चाहिए।
    अशोक जी को समालोचन को, कृष्‍ण कल्‍पित जी को अनुक्रिया के लिए अग्रसर करने के लिए, उनकी कविताओं में दिलचस्‍पी रखने वालों सभी को साधुवाद।
    ...ओम निश्‍चल ।

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    उत्तर
    1. आपने तो क़लम तोड़ दी इस प्रत्याशा में कि एवज़ में आपको सोने की क़लम मिलेगी । शुभकामनाएं आपको ।

      जब आप उक्त कविताओं में मेरे द्वारा गिनाए गये दोषों को मान्य ठहरा रहे हैं तो फिर आपके इस लंबे-चौड़े अभिनन्दन ग्रन्थ का क्या मतलब है ? भारतीय काव्य-मनीषा कहती है कि काव्य निर्दोष होना चाहिए । एक कथित बड़े कवि की कविताओं में भाषा का ऐसा विचलन और स्खलन आपको दिखाई नहीं देता ? या आप लालच में अंधे हो गए हैं ? शब्दों का जैसा दुरुपयोग आपने अवा की प्रशंसा में किया है वह आपकी मेधा को विकृत करेगा । इसीलिए न आपकी प्रशंसा और न आपकी निंदा का कोई अर्थ है । इतना शायद काफ़ी है अगर समझदार हैं तो !

      हटाएं
  15. अशोक वाजपेई हमेशा से एक औसत दर्जे के कवि रहे हैं परन्तु अपने नेटवर्क के कारण वे महत्त्व पाते गए हैं. ये कवितायेँ भी औसत ही हैं. वे अमूर्तन के चंगुल में फंसे रहे हैं अब तक नहीं निकल सके हैं.

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  16. कोरोना और वसंत दोनों ही प्रक्रति की देन हैं.हम जो बचे हुए हैं और शायद बचे रह पाएँगे, गुनगुनाते रहेंगे ये कविताएँ

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  17. सुंदर कविताएँ लेकिन छोटे शहरों में समय निर्जन नहीं घबराया हुआ बेचनी से भरा है

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  18. समय की उदासी ,अवसाद, घिराव, अरण्य, नीरव अकेलेपन, अनिश्चितताओं के ये धूप- छाँही रंग जो कविता की अंतर्वस्तु बन हमारे भीतर गूंजते रहे हैं, आदि काल से कवियों ने गाये, हर दौर में खोजे गए, हर सोपान पर इनके नए बिम्ब रचे गए, एक निरन्तरता में इन्होंने नए अर्थ पाए और अटूट लय में हमारा अनुभव बनते गए। जीवन का क्रम यह नहीं तो और क्या है? अग्रज कवि का आभार कविताओं में उकेरे कोमल भावों से मन सँवर गया।

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  19. बेहतरीन कवितायेँ ह्रदय को छूती ही नहीं बल्कि अन्दर एक पैठ बनाती हैं, बिलकुल एकांत की तरह गुनगुनाती हैं, इस कोरोना कालरात्रि में जुगनू सी टिमटिमाती हैं .

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  20. आनंद शुक्ल16 अप्रैल 2020, 2:30:00 pm

    अशोक जी की कविताएँ हमेशा की तरह संवेदनासिक्त, मर्मस्पर्शी और सहज हैं ।
    इन्हें पढ़ते हुए केदार जी की कविता का एक अंश ध्यान में आ रहा है :
    मौसम चाहे जितना ख़राब हो
    उम्मीद नहीं छोड़ती कविताएँ

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  21. नन्द भारद्वाज16 अप्रैल 2020, 2:32:00 pm

    एकाग्र होकर जीए क्षणों की बहुत सुन्‍दर कविताएं हैं, काश, थोड़ी जीवन की त्रासद स्थितियों और आमजन की पीड़ाओं का अहसास भी कवि के चित्‍त को अपनी ओर खींच पाता तो शायद कुछ और बेहतर प्रभाव छोड पातीं।

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  22. राकेश कुमार16 अप्रैल 2020, 2:34:00 pm

    नक्षत्र हीन समय में तथा कम से कम संग्रह के बाद इस मृत्यु समय में लिखी कविताएं बहुत गहरी संवेदना के स्तर पर हमें बेचैन करती हैं। उम्मीद इस कवि की सबसे बड़ी ताकत है। बहुत कम से कम शब्दों में इतना कुछ कह देने की कला बहुत कम कवियों में बची है।

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  23. दिविक रमेश16 अप्रैल 2020, 2:35:00 pm

    Divik Ramesh
    कविताएँ पढ़ने का सौभाग्य मिला। बहुत अच्छी कविताएँ हैं।
    सबसे अच्छी कविता तो पहली (हम अपना समय लिख नहीं पाएंगे)ही है।साफ सुथरी, शब्दावली के बोझ से मुक्त, हृदय को गहरे में छूने वाली। सोचने को मजबूर करती। भले ही ऊपरी तौर पर ना उम्मीदी का भ्रम देती हो जिसकी कुछ भरपाई अन्य कविताओं में होती भी दिखती है। बधाई अशोक वाजपेयी जी।

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  24. नीरज मिश्र16 अप्रैल 2020, 2:36:00 pm

    आज के विकट समय की गहन पड़ताल इन कविताओं के माध्यम से हुई।आपको धन्यवाद सर ,इतनी अच्छी कविताएँ समालोचन के माध्यम से पहुँचाने के लिए।

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  25. सुशीला पुरी16 अप्रैल 2020, 2:56:00 pm

    सुबह की ठण्डी हवा में
    अपनी असंख्य हरी रंगतों में
    चमक-काँप रही हैं
    अनार-नीबू-नीम-सप्रपर्णी-शिरीष-बोगेनबेलिया-जवाकुसुम-सहजन की पत्तियाँ:
    धूप उनकी हरीतिमा पर निश्छल फिसल रही है:
    मैं सुनता हूँ उनकी समवेत प्रार्थना:
    पृथ्वी का मंगल हो!

    इन पंक्तियों को पढ़ते हुए समवेत प्रार्थना का यह अद्भुत स्वर जैसे गूंजता रहा चेतना में, प्रकृति की इन सघन , सूक्ष्म आवाजों को एक बड़ा कवि ही सुन सकता है। ��

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  26. तेजी ग्रोवर16 अप्रैल 2020, 3:47:00 pm

    आभार समालोचन का। कविताओं को बाद में एक बार फिर अच्छे से पढूँगी। अभी ये दिन रुस्तम और मेरे लिए एकांतवास का विलोम हैं। और हम लोग घर से बाहर इतना कभी नहीं निकले जितना अब निकलना पड़ रहा है। हमारे चहों ओर भुखमरी पसरी हुई है, वे श्रमिक जिनके बारे में आप सब जानते हैं, हमारे इलाके में बहुत हैं। और पता नहीं हमें क्या हो गया है कि सिवा उनके हमारे सभी सरोकार और प्रेम निलम्बित हुए बैठे हैं । हम जैसे घनघोर काव्य प्रेमी लोगों का चित्त भी भंग सा हो गया है। लेकिन संकट टलने के बाद आशा है हम कविता में लौट आएंगे। ये अनुभव भी निरी कविता ही होंगे, शायद बाद में पता चल पाए।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तेजीबहेन आपने अपनी संवेदन शील भाषा में हमे कविता दी है

      हटाएं
  27. "नाम बड़े पर दर्शन थोड़े"। अशोक जी की कविताओं ने निराश किया।औसत से भी नीचे की कविताओं पर अहो अहो करने वालों ने हिंदी की समकालीन प्रकृति और प्रवृत्ति का परिचय दिया।एक भी कविता ऐसी नहीं है जो हृदय तक पहुंचती हो या कोई संवेदना जगाती हो।
    हिंदी के तथाकथित बड़े कवि के पास इस एकांत और कठिन समय में कहने के लिए कुछ नहीं है ये हिंदी के लिए अफसोस की बात है।अशोक जी की शिल्प की अपनी पुरानी प्रविधि,कहन का ढंग और ख़ास तरह के लटकों झटकों के बावजूद कोई भी पंक्ति सच्चे पाठकों के पास टिकी नहीं रह पाती।आश्चर्य यह कि कविता पर टिप्पणी करते हुए वर्तमान समय के ओवर रेटेड आलोचक ने तो चारणगीरी की हद कर दी है।

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  28. भालचंद्र जोशी16 अप्रैल 2020, 7:41:00 pm

    सामाजिक अपेक्षाओं और कला की नैतिकता के बीच से गुजरती ये कविताएं दायित्व और दाय के संस्कारों से मर्यादित है। बधाई

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  29. भारत उपाध्याय16 अप्रैल 2020, 7:42:00 pm

    वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी की कविताओं में कोरोना के इस महामारी के समय में भी अपने अंतर्मन के सहृदयता का परिचय दिया गया ,अवसाद, घिराव, अरण्य, नीरव अकेलेपन, दर्दभरा सन्नाटा, छाया और भयानक वास्तव अनिश्चितताओं के ये धूप- छाँही रंग जो कविता की अंतर्वस्तु बन हमारे भीतर गूंजते रहे हैं, इसीलिए कहा जा सकता है कि कहीं नहीं वही बहुरि अकेला है उम्मीद का दूसरा नाम अशोक वाजपेयी है ၊
    बहुत ही अप्रतीम कविताएँ ၊ बस लिखते चलिए ၊ सादर विनम्र प्रणाम के साथ ၊

    जवाब देंहटाएं
  30. "अचानक कबूतर कुछ कम हो गये हैं,दिहाड़ी मजदूरों की तरह अपने घर गांव जाने की दुखद यात्रा पर निकल पड़े हों जैसे" फिलहाल तो यही अनूगंज सुनाई दे रही है।
    अशोक जी का आभ्यंतर इतना भी निर्मम नहीं।

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  31. तरुण भटनागर17 अप्रैल 2020, 8:59:00 am

    सुन्दर कवितायेँ. हमारे वक्त को, हमारी दुनिया को बूझती. पढ़ने का सुख मिला. बेहतरीन.

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  32. संदीप नाईक17 अप्रैल 2020, 8:59:00 am

    " सुबह की ठण्डी हवा में
    अपनी असंख्य हरी रंगतों में
    चमक-काँप रही हैं
    अनार-नीबू-नीम-सप्रपर्णी-शिरीष-बोगेनबेलिया-जवाकुसुम-सहजन की पत्तियाँ:
    धूप उनकी हरीतिमा पर निश्छल फिसल रही है:
    मैं सुनता हूँ उनकी समवेत प्रार्थना:
    पृथ्वी का मंगल हो! "
    ये कविताएँ एकांत की होकर भी एक वृन्द गान की तरह गूंजती है और एहसास दिलाती है कि अभी सब कुछ खत्म नही हुआ है और जो हो रहा है वही शाश्वत है और अंत में सर्वश्रेष्ठ बनकर उभरेगा

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  33. विमल कुमार17 अप्रैल 2020, 9:01:00 am

    सुंदर कविताएँ।

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  34. सहज सुबोध ह्रदय स्पर्शी हैं ये कविताएँ।

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  35. एकान्त के गहन से उठते धरती की मंगलकामना के स्वर मन में स्वस्ति का संचार करते हैं .

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  36. बहुत सुंदर कविताएं! सबको पढ़ गया! सच पूछिए तो बहुत दिनों बाद ऐसी तन्मयता से कविताओं को पढ़ता और उनमें उतरता गया! याद नहीं, कविता पर लिखने की इच्छा पहले कब हुई(छात्र जीवन में कुछ कवियों की कविताओं पर टिप्पणियां लिखी थीं!)! इन कविताओं पर लिखने का मन हुआ! लेकिन जानता हूं कविता में डूबना और कविता पर लिखना दो अलग-अलग चीजें हैं!
    आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएं!

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  37. समय के शिलापट्ट पर एक कवी की अमिट छाप।

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  38. असाधारण ।
    सच कवि हर परिस्थिति में सार्थक कुछ कर लेता है ।
    बहुत सुंदर काव्य सृजन ।

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  39. आदरणीय,
    नमस्कार।
    कवि, विचारक, कला-संस्कृति मर्मज्ञ अशोक वाजपेयी की कुछ नई कविताएँ साहित्य, विचार और कलाओं की नियमित वेब पत्रिका 'समालोचन' (अंक 16 अप्रेल 2020) में प्रकाशित हुई हैं। हमने फेसबुक पर एक ग्रुप 'तालाबंदी के दौरान की कविता - कवि और पाठक समूह' सृजित किया है। हमारे ग्रुप का लिंक - https://www.facebook.com/groups/1092969371070118/ है। अशोक वाजपेयी जी की कविताएँ हमारे ग्रुप के सदस्य पढ़ सकें, इसके लिए हमने वेब पत्रिका 'समालोचन' का लिंक अपने अपने ग्रुप पर साझा किया है।
    अभिवादन,
    केशव राम सिंघल

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  40. कविता अपने समय को रचती है। क्या अशोक जी की कविताएं अपने समय को रच रही हैं? उसकी क्रूरता, अमानवीयता उभर पा रही है? हां, एक कवि का एकांत अवश्य है,उसी तरह जिस तरह कभी कविता में सन्नाटा रचा गया था। कवि का एकांत सन्नाटे का ही विस्तार है ।

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  41. कोरोनाकाल की सच्ची अभिव्यक्ति। सुंदर पर उदास कविताएं।

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  42. बहुत बहुत धन्यवाद समालोचन।इन कविताओं में कितना जीवन, आशा और प्रकाश है। साथ ही एकांत में पसरा मौन व उदास प्रेम भी।

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  43. Koi bhi Kavita yaad rah jane vali nahi hai.prakti aur dehik prem ke kavi ne piche hame kafi Sundar kavitayen di hai.meri unse aasha adhik ho sakti hai parantu idhar kuch navodit kavi unse behtar rachnaen likh rahe Hain par hamre aalochak aur purane kavi unpar tippadi karnese bhi Bach rahe Hain in par i

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  44. जय मां हाटेशवरी.......
    आपने लिखा....
    हमने पढ़ा......
    हम चाहते हैं कि इसे सभी पढ़ें.....
    इस लिये आप की ये खूबसूरत रचना.......
    दिनांक 06/07/2021 को.....
    पांच लिंकों का आनंद पर.....
    लिंक की जा रही है......
    आप भी इस चर्चा में......
    सादर आमंतरित है.....
    धन्यवाद।

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