स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ : रेखा सेठी


जिसे हम स्त्री-लेखन कहते हैं उसमें अस्मिता और चेतना के साथ-साथ अनुभव का प्रामाणिक संसार और भाषा की नई उड़ान भी है. स्त्री लेखन पर रेखा सेठी  पिछले कई वर्षों से शोध और संकलन का कार्य कर रहीं हैं. प्रस्तावित पुस्तक त्रयी (स्त्री कविता: पक्ष और परिप्रेक्ष्य, स्त्री कविता: पहचान और द्वंद्व तथा स्त्री कविता: संचयन) के दो खंड अभी-अभी राजकमल प्रकाशन से छप कर आयें हैं.  लेखिका ने इन्हें अपनी माँ और बेटी को समर्पित किया है.

इसका एक अंश आपके लिए.
  


स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ               
रेखा सेठी   





स्त्री-अध्ययन की दिशा में एक नया मोड़ 1989 में के.डब्ल्यू. क्रेनशॉ द्वारा प्रस्तावित थियोरी ऑफ़ इंटरसेक्शनेलिटीके साथ आता है जिसकी चर्चा हिंदी में कम हुई है. इस सैद्धांतिकी की विशेषता यह है कि इसमें इस बात पर बल दिया गया कि किसी भी सामाजिक अध्ययन में लिंग या जेंडर को असमानता के एकमात्र आधार के रूप में नहीं पढ़ा जा सकता. व्यक्ति की सामाजिक स्थिति (Social Position) व भौतिक उपस्थिति (Location) जहाँ से वह संसार को संबोधित कर रहा है, उसके प्रति होने वाले भेदभाव को समझने में मदद करते हैं.

हमारी सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं में अनेक प्रकार की हिंसा अंतर्निहित है. नस्ल, जाति, वर्ग की विभाजक रेखाएँ एक ही समय में एक-दूसरे पर से गुज़रती हैं. ये सभी अंतर्धाराएँ हिंसा और दमन के नए भाष्य रचती हैं, इनकी पहचान लिंगाधारित विषमताओं को समझने का सही परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती है क्योंकि समाज की सभी स्त्रियाँ सम-वर्ग नहीं हैं. जाति या वर्ग के आधार पर वे भी दूसरे वर्ग व जाति की महिला के साथ वैसा ही असमान व्यवहार करती हैं जैसा पुरुष उन जातियों और वर्गों के साथ करता रहा है. स्वयं पुरुष की स्थिति भी ऐसी ही है. शोषित वर्ग में अवस्थित होने से दमन की पीड़ा झेलता पुरुष अपने वर्ग की स्त्री को वंचित रखने की प्रक्रिया में उसी प्रकार शामिल हो जाता है जैसे अन्य वर्गों के पुरुष. सामाजिक संरचनाएँ सत्ता और वर्चस्व के आधार पर स्त्री-स्त्री, स्त्री-पुरुष के बीच अनेक प्रकार के पदानुक्रम स्थापित करती रहती हैं. स्त्री-रचनाशीलता की सार्थकता, इन संरचनाओं में अंतर्निहित हर प्रकार के शोषण को रेखांकित कर उसके विरुद्ध लोकमत का निर्माण करने में है.

हिंदी की स्त्री-कविता अपने स्तर पर इन सभी प्रश्नों को संबोधित करती रही है. स्त्री-संघर्ष का इतिहास लंबा सफ़र तय कर चुका है. अपने होने और जताने को लेकर स्त्री-अस्मिता के उभार से जन्मे इस संघर्ष का विकास अनेक दिशाओं में हुआ. राष्ट्रीय प्रतिनिधित्व में भागीदारी से लेकर आर्थिक संसाधनों में बराबर अधिकार की माँग कमोबेश रूप से विश्व के सभी हिस्सों से उठी. स्त्रीवाद की विभिन्न धाराएँ इन्हीं माँगों में से बला-बल के आधार पर एक-दूसरे से पृथक होती हैं. उदार स्त्रीवाद, रेडिकल स्त्रीवाद, मार्क्सवादी स्त्रीवाद आदि सभी धाराओं में स्त्री-मुक्ति के किसी एक पक्ष को केंद्र में रखकर लैंगिक असमानताओं से मुक्ति का आह्वाहन किया गया. ये सभी प्रयत्न इस मुक्ति अभियान के सार्थक पड़ाव हैं लेकिन इनके अपने-अपने पक्ष इतने हावी हैं कि उनमें पूरा परिप्रेक्ष्य नहीं उभर पाता. अस्मितामूलक संघर्ष केवल एक सीमा तक ही परिवर्तन में सहायक हो सकते हैं. इसलिए एक ऐसा स्त्रीवाद आवश्यक है जिसका बल तमाम सामजिक असमानताओं को सन्दर्भ बनाता हो. स्त्री-साहित्य ने यह काम बखूबी किया है लेकिन संभवतः हमारी आलोचना के पास स्त्री-रचनाशीलता की परख के लिए सही मानक उपलब्ध नहीं हैं.

इंटरसेक्शनैलिटी की थ्योरी के बीज ब्लैक फेमिनिज्म में हैं. 1851 सोजर्नर ट्रुथ के प्रसिद्ध भाषण ‘Ain’t I a woman- क्या मैं स्त्री नहीं हूँ?’ जिसमें उन्होंने यह सवाल उठाया था कि क्या ब्लैक महिला, महिला नहीं है और क्या महिला आंदोलन का सरोकार उनके जीवन से जुड़ा नहीं है? क्या उनकी माँगें महिला अधिकारों में कोई जगह नहीं रखतीं? जो सवाल सोजर्नर ट्रुथ ने उठाए उससे यह सिद्ध हुआ कि स्त्रीवाद का संबंध स्त्रियों के लिंग से अधिक उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ था. क्रेनशॉ के लिए महत्वपूर्ण था यह बताना कि कैसे ब्लैक महिलाओं के प्रति हिंसा की घटनाएँ अधिक होती थीं क्योंकि उनका संबंध उनके लिंग की अपेक्षा उनके वर्ग व नस्ल से अधिक था. उनके लिए समाज प्रदत्त निश्चित भूमिकाओं को निभाना अनिवार्य था. भारत में भी जाति और वर्ग के आधार पर ऐसा भेदभाव व्यापक रूप से मौजूद है. जो स्त्रियाँ लिंग, जाति, वर्ग इन सभी आधारों पर दोहरा-तिहरा अभिशाप झेलते हुए, समाज की हाशियाकृत-बहिष्कृत स्थिति में है, उनकी स्थिति के विश्लेषण और मुक्ति के रास्ते ढूँढने में इंटरसेक्शनैलिटी का सिद्धांत कारगर हो सकता है.

कैथी डेविस का मानना है कि इंटरसेक्शनैलिटी की सीमाएँ निश्चित नहीं है और दृष्टि का यह खुलापन ही इसकी गंभीरता का प्रमाण है. सामाजिक न्याय की सभी स्थितियों में इस सिद्धांत की साहित्यिक एवं समाजशास्त्रीय भूमिका विमर्श में बहुत कुछ जोड़ सकती है. इंटरसेक्शनैलिटी की दृष्टि से साहित्यिक कृतियों को पढ़ने से उनके भीतर छिपी अनेक व्यंजनाएँ व उनके अंत: पाठ उजागर हो सकते हैं. स्त्री भाषा वैज्ञानिकों ने साहित्यिक रचना के पाठ की प्रविधि में इस बात पर बहुत बल दिया कि किसी भी रचना का अर्थ, साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक सभी स्तरों पर गतिशील रहता है. जूडिथ बटलर तथा जूलिया क्रिस्टेवा ने भाषा के डिकोडीकरण के माध्यम से इन्हीं छिपे हुए अर्थो को अनावृत करने की बात कही है. आलोचना की दुनिया में जूडिथ बटलर तथा जूलिया क्रिस्टेवा की विश्लेषण पद्धतियों का खासा प्रभाव पूरी दुनिया में रहा क्योंकि इसने साहित्यिक कृति को उसके सीमित दायरे से निकाल कर पाठ की सामाजिक सांस्कृतिक महत्ता को प्रतिष्ठित किया.

भारत जैसे बहुलतावादी देश में लिंग, जाति, वर्ग के अनेक समीकरण सामाजिक संरचना का जटिल जाल बुन देते हैं जिसमें स्त्रियों की स्थिति को भी उनकी भिन्न अस्मिताओं के समंजन में ही पहचाना जा सकता है. विशेष रूप से दलित एवं आदिवासी स्त्री रचनाकारों की कविता उनके लैंगिक दमन के साथ-साथ उनके वर्गगत शोषण को भी अभिव्यक्त करती है. उनका स्त्रीवाद विषम सामाजिक व्यवस्था का प्रतिकार है. इंटरसेक्शनैलिटी हमें वह परिप्रेक्ष्य देती है जिसमें हम इन रचनाकारों की कविता में असमानता की पीड़ा के पाठ को समझकर सामाजिक तनावों को सुलझाने की कोशिश करें. हमारे समाज में दलित व आदिवासी जन समाज की स्थिति उन लोगों से बेहतर नहीं हैं जिन्हें अपनी त्वचा के रंग के कारण सामाजिक सहभागिता से बहिष्कृत किया गया. इंटरसेक्शनैलिटी ने इन पुरानी समस्याओं के समाधान की दृष्टि से वैचारिक विमर्श के आधार को विस्तृत किया है. यह वंचित जन समाज के सशक्तीकरण  की प्रस्तावना भी है क्योंकि इसकी स्थापना यह भी है कि लेखन संघर्ष का ही एक रूप है.

स्त्री रचनाशीलता में स्त्री अनुभव, स्त्री स्वर, स्त्री दृष्टि की अपनी महत्ता है लेकिन असली चुनौती इस बहुलतावादी समाज की अंतवर्ती जटिलताओं की पहचान करने की है. ‘जो हैउससे अधिक महत्त्वपूर्ण है उन सामजिक प्रक्रियाओं को अनावृत करना जो उस समाज के ऐसा होने के लिए उत्तरदायी हैं. पितृसत्ता और उसका विरोध जितना बड़ा सत्य है उतना ही बड़ा सत्य समाज का वह ढाँचा है जो पितृसत्ता या मातृसत्ता जैसे वर्चस्वमूलक साँचे गढ़ता है. स्त्री साहित्य के छोटे-छोटे विवरणों में सामाजिक असमानताओं का परस्पर गुँथा हुआ वह रूप दिखाई देता है जिसमें स्थितियों और व्यक्तियों का ऐसा अनुकूलन है कि सामाजिक अंतर्विरोध सहज व सामान्य दिखने लगते हैं. स्त्री-साहित्य इन आत्मगत ब्यौरों के तहत उन अंतर्विरोधों को उजागर करता है. यह एक बदला हुआ दृष्टिबोध है.

विकसनशील समाज के लिए गतिशील समता का बोध आवश्यक है. समता की कोई भी अवधारणा स्थिर व स्थाई नहीं हो सकती. सामजिक, आर्थिक, राजनीतिक, तकनीकी आदि अनेक कारणों से सामाजिक संरचनाएँ लगातार गतिशील परिवर्तनों की साक्षी रहती हैं. स्त्री-पुरुष की जीवन-स्थितियाँ भी इन परिवर्तनों के साथ चक्राकार-सी घूमती और बदलती रहती हैं. स्त्री-साहित्य, लगातार इन बदलती हुई परिस्थितियों व उनकी टकराहट में रूप धरती मनःस्थितियों के द्वंद्व को प्रस्तुत करता रहा है. इस अर्थ में उसे एक सामाजिक पाठ के रूप में पढ़ा जा सकता है. बदलती सदियों में स्त्रियों ने अपने मन की परतों में बहुत गहरे दबी सचाइयों को कहना सीखा है, जिनके विषय में सोचने पर भी पहरा था. इसलिए सामाजिक समता के सवालों और लैंगिक दृष्टि से उसके परिवर्तनशील समीकरणों को स्त्री साहित्य में रेखांकित कर पाना इस साहित्य को पढ़ने की पहली माँग है.

स्त्री साहित्य, साहित्यिक रचना व आलोचना में एक प्रकार का दखल है जिसने स्थापित मानकों को पलटकर ऐसा हस्तक्षेप करने की कोशिश की है जिनसे उन स्थापनाओं की वास्तविकता उजागर हुई, साथ ही स्त्री के लिए यह उसके सामर्थ्य की अभिव्यक्ति तथा अपने खोए स्वत्व को पाने का प्रयत्न है. यह अकारण नहीं है कि आज सभी भाषाओं में रचने वाली स्त्रियों की संख्या पहले की अपेक्षा कहीं अधिक है. उसका महत्त्व इस दृष्टि से भी है कि वह स्त्री की निजी दुनिया का साक्षात्कार भर नहीं है बल्कि विश्व के विस्तृत सामाजिक-राजनीतिक लैंडस्केप पर लिंगाधारित असमानताओं के स्याह-सफ़ेद को देखने-परखने-समझने की सामाजिक अंतःप्रक्रिया है. स्त्री-रचनाशीलता की असली पहचान साहित्यिक पाठ की तहों में गहरे बसी उन आंतरिक सच्चाईयों से बनती है जिनका सामना हर स्त्री अपने जीवन में बार-बार करती है लेकिन जिसे तार-तार उधेड़ने का दायित्व स्त्री रचनाकारों ने उठाया. सामाजिक वर्ग-विभेद पर होने वाली असमानताओं को समझ पाना आसान नहीं है. अनेक व्यवस्थाओं द्वारा उन स्थितियों का ऐसा अनुकूलन किया जाता है कि जाने-अनजाने वह स्थितियाँ सामान्य लगने लगती हैं और उनके पार देखने का साहस, दुस्साहस बन जाता है

स्त्री व स्त्रीत्व की अनेक छवियाँ इसी अनुकूलन का परिणाम हैं. जाति व वर्गगत असमानता भी इसी प्रक्रिया में रची जाती है. साहित्यिक रचनाओं के सामाजिक पाठ ऐसी अर्थ-व्यंजनाओं को केंद्र में लाने का उपक्रम हैं. साहित्य की सार्थकता सामाजिक अनुकूलन करने वाली द्वंद्वात्मक संरचनाओं को चुनौती देने की क्षमता पर आधारित है. स्त्री-साहित्य इसी अर्थ में विलक्षण है कि वह सामाजिक विषमता के द्वैत को लिंगाधारित विषमता का अतिरिक्त आयाम देता है और लिंगाधारित असमानता को इकहरे प्रस्तुत न करके अन्य सामाजिक विषमताओं के परिप्रेक्ष्य में उसकी जटिलताओं को सामने लाता है.

स्त्री-साहित्य का मुखर स्वर दुविधा, असमंजस और वैषम्य से बुना जाकर विरोध के साहस और मुक्ति की आकांक्षा का प्रतिस्थापक बनता है. स्त्री की साहित्यिक संरचना का यह ग्राफ कमोबेश रूप में थेरीगाथाओं के समय से आज तक साहित्यिक अंतर्धारा में समाहित है जिसे बदलते समय के साथ और शिद्दत से महसूस किया जा रहा है. भारतीय साहित्य में भले ही आलोचनात्मक प्रतिमान के रूप में उसकी स्थापना बहुत बाद में हुई किंतु लिंगाधारित असमानता और विषमता का अहसास स्त्री-रचनाशीलता के साथ प्रारंभ से जुड़ा हुआ है, इसलिए उसे पश्चिम से आई सैद्धांतिकी के रूप में आँकना सर्वथा उचित नहीं होगा. यह सही है कि भारतीय दृष्टि में अध्ययन का सन्दर्भ व्यक्ति-अस्मिता की अपेक्षा सामूहिक सामाजिक उपस्थिति है जिससे स्त्री का अस्तित्व उसकी पारिवारिक भूमिकाओं में परिभाषित होता रहा. वहाँ परिवार और पारिवारिक संबंध, चिंतन तथा विमर्श का सन्दर्भ बिंदु बनते हैं

स्त्री की पारिवारिक-सामाजिक स्थिति उसकी निजता पर से गुजरने वाली अंतर्वेधी (Inter sectional) रेखा है. निजता एवं सामाजिक-पारिवारिक अवस्थिति की द्वंद्वात्मक टकराहट स्त्री-लेखन में आदिकाल से सुनी जा सकती है. परिवार-पितृसत्ता दमन के एजेंट भी हैं और सामाजिक प्रतिष्ठा के मानक भी. इसी से स्त्री-लेखन का स्वर द्वंद्व और असमंजस भरा है. पारिवारिक हिंसा, दमन की पीड़ा और उससे निष्पन्न अंतर्विरोधों को स्त्री-रचनाकारों की कृतियों में सुना जा सकता है. बलाघात का अंतर अवश्य है, कहीं अश्रुपूर्ण वेदना से भरा मुलायम स्वर है तो कहीं आक्रोश-भरी उग्रता, लेकिन दोनों ही स्थितियों में असमानता को लक्षित करना कठिन नहीं है

सैद्धांतिकी का व्यवस्थित ढाँचा भले ही बीसवीं शताब्दी के उतरार्द्ध में सामने आया लेकिन उसकी पृष्ठभूमि चिरकाल से स्त्री-साहित्य का मेरुदंड रही है. इसलिए साहित्यिक आलोचना की परंपरा में उसे अनुपस्थित रखना आलोचना की सीमा हो सकती है, रचना की नहीं.
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डॉ. रेखा सेठी दिल्ली विश्वविद्यालय के इन्द्रप्रस्थ कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर होने के साथ-साथ लेखक, आलोचक, संपादक और अनुवादक हैं. 
ई-मेलः reksethi@gmail.com

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  1. महत्वपूर्ण लेख.

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  2. डॉ सुमीता27 नव॰ 2019, 12:40:00 pm

    महत्वपूर्ण और सार्थक आलेख। लेखिका को बधाई और आपको धन्यवाद।

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  3. जरूरी आलेख , इसके शेष अध्याय भी प्रकाशित करें.

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