(फोटो द्वारा - शायक आलोक)
समकालीन हिंदी कविता का परिदृश्य बिना कृष्ण कल्पित के पूरा नहीं होगा. उनका
पहला कविता संग्रह १९८० में ही आ गया था, अब लगभग चार दशकों में फैला उनका सृजन हमारे
समक्ष है. आज भी वह नवोन्मेष और उर्जा से भरे हुए हैं. दुर्भाग्य से कुछ अप्रीतिकर
विवादों को भी वह ‘युद्धम देही’ अंदाज़ में आमंत्रित करते रहते हैं.
कृष्ण कल्पित के पास उर्दू की सोहबत से अर्जित दिलफ़रेब भाषा है, उनकी कविताएँ
अक्सर समय की धूल से उठती हैं और संदिग्ध महानता (ओं) पर पसर जाती हैं, उनमें एक सूफ़ियाना बेअदबी है. इतिहास के साथ उनकी कविताओं का रिश्ता मानीखेज है.
आइए कृष्ण कल्पित को पढ़ते हैं.
कृष्ण कल्पित की कविताएँ
वह १९८० की एक तपती हुई दोपहर थी
जब जयपुर के इंडियन कॉफी हॉउस का
जालीदार दरवाज़ा खोलकर
हुसेन अंदर दाख़िल हुये थे
नंगे पांव
कूचियों और कैमरे से लैस
हुसेन जब भी जयपुर आते
यहां ज़रूर आते
कॉफ़ी हॉउस उनका पुराना अड्डा था
और हमारा नया
आते ही हुसेन घिर गये
चित्रकारों कवियों पत्रकारों से
जैसे थम गया हो समय
जैसे पूर्ण हो गया हो चित्र
जैसे अपनी धुरी पर आ गयी हो पृथ्वी
राजपूताने के गहरे-गाढ़े रंग लुभाते थे हुसेन को
लाल रंग मिर्च की तरह तीखा
हरा अश्वत्थ के कोमल पत्तों की तरह शीतल
सुनहरा बालू रेत की तरह चमकता
सफ़ेद कैनवास की तरह कोरा
काला अमावस्या की रात की तरह गाढ़ा
वे आते थे राजस्थान रंगों की खोज में
जीवन की खोज में आकृतियों की खोज में
और उन मनुष्यों की खोज में
जो आधुनिकता के अंधड़ में
निरन्तर ग़ायब हो रहे थे कैनवास से
रेगिस्तान के बीचों-बीच बसा हुआ जैसलमेर
सत्यजित रे की तरह हुसेन का भी प्रिय नगर था
जहां जाते हुये और आते हुये
हुसेन आते थे गुलाबी नगर
जब कॉफी और गपशप का दौर ख़त्म हुआ
हुसेन उठे उन्हें जाना था चौड़ा रास्ता
अपने मित्र और बंगाल शैली के
पुराने चित्रकार रामगोपाल विजयवर्गीय से मिलने
मैं इस तरह हुसेन के साथ हो लिया था
रास्ता दिखाने को
लेकिन चौड़ा रस्ता से पहले ही वे मुड़ गये
किशनपोल बाज़ार की तरफ़
जहां दूर-दूर तक रंग-बिरंगे कपड़े सूखते थे
दीवारों और छतों पर
वे नमक की मंडी के पास मुड़ गये
रंगरेजों के मोहल्ले की ओर
जहां चूल्हे पर रखी हंडिया में
उबल रहा था गाढ़ा-पक्का रंग
ऐसा रंग जिसके बाद चढ़े न दूजो रंग
हुसेन वहीं एक चबूतरे पर बैठ गये
अपने मूवी कैमरे से खेलते हुये
गली के बच्चों ने जब घेर लिया हुसेन को
तब वे अपनी लम्बी कूची से
उन्हें हटाने लगे भगाने लगे
तब तक मुझे नहीं पता था कि
कूची से छड़ी का काम भी लिया जा सकता है
इसके इतने बरसों बाद
जब भी गुज़रता हूँ नमक की मंडी से
मुझे हुसेन याद आते हैं
एक मुसाफ़िर एक मुसव्विर एक दरवेश
याद आता है एक रंगरेज
जिसे कालांतर में दे दिया गया देश-निकाला !
नमक की मंडी
वह १९८० की एक तपती हुई दोपहर थी
जब जयपुर के इंडियन कॉफी हॉउस का
जालीदार दरवाज़ा खोलकर
हुसेन अंदर दाख़िल हुये थे
नंगे पांव
कूचियों और कैमरे से लैस
हुसेन जब भी जयपुर आते
यहां ज़रूर आते
कॉफ़ी हॉउस उनका पुराना अड्डा था
और हमारा नया
आते ही हुसेन घिर गये
चित्रकारों कवियों पत्रकारों से
जैसे थम गया हो समय
जैसे पूर्ण हो गया हो चित्र
जैसे अपनी धुरी पर आ गयी हो पृथ्वी
राजपूताने के गहरे-गाढ़े रंग लुभाते थे हुसेन को
लाल रंग मिर्च की तरह तीखा
हरा अश्वत्थ के कोमल पत्तों की तरह शीतल
सुनहरा बालू रेत की तरह चमकता
सफ़ेद कैनवास की तरह कोरा
काला अमावस्या की रात की तरह गाढ़ा
वे आते थे राजस्थान रंगों की खोज में
जीवन की खोज में आकृतियों की खोज में
और उन मनुष्यों की खोज में
जो आधुनिकता के अंधड़ में
निरन्तर ग़ायब हो रहे थे कैनवास से
रेगिस्तान के बीचों-बीच बसा हुआ जैसलमेर
सत्यजित रे की तरह हुसेन का भी प्रिय नगर था
जहां जाते हुये और आते हुये
हुसेन आते थे गुलाबी नगर
जब कॉफी और गपशप का दौर ख़त्म हुआ
हुसेन उठे उन्हें जाना था चौड़ा रास्ता
अपने मित्र और बंगाल शैली के
पुराने चित्रकार रामगोपाल विजयवर्गीय से मिलने
मैं इस तरह हुसेन के साथ हो लिया था
रास्ता दिखाने को
लेकिन चौड़ा रस्ता से पहले ही वे मुड़ गये
किशनपोल बाज़ार की तरफ़
जहां दूर-दूर तक रंग-बिरंगे कपड़े सूखते थे
दीवारों और छतों पर
वे नमक की मंडी के पास मुड़ गये
रंगरेजों के मोहल्ले की ओर
जहां चूल्हे पर रखी हंडिया में
उबल रहा था गाढ़ा-पक्का रंग
ऐसा रंग जिसके बाद चढ़े न दूजो रंग
हुसेन वहीं एक चबूतरे पर बैठ गये
अपने मूवी कैमरे से खेलते हुये
गली के बच्चों ने जब घेर लिया हुसेन को
तब वे अपनी लम्बी कूची से
उन्हें हटाने लगे भगाने लगे
तब तक मुझे नहीं पता था कि
कूची से छड़ी का काम भी लिया जा सकता है
इसके इतने बरसों बाद
जब भी गुज़रता हूँ नमक की मंडी से
मुझे हुसेन याद आते हैं
एक मुसाफ़िर एक मुसव्विर एक दरवेश
याद आता है एक रंगरेज
जिसे कालांतर में दे दिया गया देश-निकाला !
चेतना पारीक की याद
आऊंगा ज़रूर आऊंगा
मैं युद्ध के ख़त्म होने का इन्तिज़ार कर रहा हूँ, चेतना पारीक !
युद्ध अधिक दिन तक नहीं चलते
कोई कब तक पहने रख सकता है लोहे के जूते
३० अक्तूबर का टिकट है
तब तक बहाल हो जायेगी भारतीय रेल सेवा
तुम्हें याद होगा
हम कलकत्ता की एक ट्रॉम में मिले थे
जब एक दाढ़ी वाला बिहारी कवि तुम पर फ़िदा हो गया था !
मैं युद्ध के ख़त्म होने का इन्तिज़ार कर रहा हूँ, चेतना पारीक !
युद्ध अधिक दिन तक नहीं चलते
कोई कब तक पहने रख सकता है लोहे के जूते
३० अक्तूबर का टिकट है
तब तक बहाल हो जायेगी भारतीय रेल सेवा
तुम्हें याद होगा
हम कलकत्ता की एक ट्रॉम में मिले थे
जब एक दाढ़ी वाला बिहारी कवि तुम पर फ़िदा हो गया था !
२)
तुम पर कविता लिखकर एक कवि अमर हो गया
और तुम मर गई, चेतना पारीक !
मैं तुम्हें याद करता हूँ
तुम्हारी दुर्बल काया को
तुम्हारे चश्मे को
तुम्हारी कविता की कॉपी को
और उस क़स्बे की धूल को
जहाँ तुम कलकत्ते से चली आई थी
मैं तुम्हें अमर करता हूँ, चेतना पारीक !
तुम पर कविता लिखकर एक कवि अमर हो गया
और तुम मर गई, चेतना पारीक !
मैं तुम्हें याद करता हूँ
तुम्हारी दुर्बल काया को
तुम्हारे चश्मे को
तुम्हारी कविता की कॉपी को
और उस क़स्बे की धूल को
जहाँ तुम कलकत्ते से चली आई थी
मैं तुम्हें अमर करता हूँ, चेतना पारीक !
३)
तुम उम्र में हमसे बड़ी थी
एक खोया हुआ प्यार
एक न लिया गया चुम्बन
कवि हम तब भी उससे बेहतर थे
जिसने तुम पर कविता लिखी, चेतना पारीक !
तुम उम्र में हमसे बड़ी थी
एक खोया हुआ प्यार
एक न लिया गया चुम्बन
कवि हम तब भी उससे बेहतर थे
जिसने तुम पर कविता लिखी, चेतना पारीक !
४)
एक कवि ने तुम पर कविता लिखी
एक कवि ने तुम से प्रेम किया
एक कवि ने तुमसे विवाह किया
कवियों को तुम से अधिक कौन जानता है, चेतना पारीक !
एक कवि ने तुम पर कविता लिखी
एक कवि ने तुम से प्रेम किया
एक कवि ने तुमसे विवाह किया
कवियों को तुम से अधिक कौन जानता है, चेतना पारीक !
५)
हम पहली बार उस ट्रॉम में मिले थे
जिससे टकराकर
बांग्ला कवि जीबनानन्द दास मर गये थे
क्या तुम कवियों की मृत्यु हो, चेतना पारीक !
हम पहली बार उस ट्रॉम में मिले थे
जिससे टकराकर
बांग्ला कवि जीबनानन्द दास मर गये थे
क्या तुम कवियों की मृत्यु हो, चेतना पारीक !
कल्पना लोक
(नज़्र-ए-इरफ़ान हबीब)
पहलू ख़ान काल्पनिक था
वे गायें काल्पनिक थीं जिन्हें वह जिस ट्रक में ले जा रहा था वह ट्रक काल्पनिक था
वे गौरक्षक काल्पनिक थे जिन्होंने पहलू ख़ान की अंतड़ियों में चाकू उतारा वह चाकू काल्पनिक था
पहलू ख़ान की हत्या एक कल्पना थी
उमर मोहम्मद काल्पनिक था
अलवर किसी शहर का नहीं एक किंवदंती का नाम था
फ़ासीवाद किसी कवि की कल्पना थी
पिछले बरसों में देश में जो साम्प्रदायिक दंगे हुये वह तुम्हारा एक दुःस्वप्न था
सड़कों पर जो ख़ून बिखरा हुआ था वह दरअस्ल एक महान कलाकृति थी
वह अग्निकुंड काल्पनिक था जिसमें कूदकर अनगिनत स्त्रियां भस्म हो गयी थीं
पद्मिनी एक कल्पना थी
और तुम्हारा इतिहास भी काल्पनिक था
यह दुनिया एक कल्पना-लोक थी और जिसे तुम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवरसिटी कहते हो वह वास्तव में मजाज़ लखनवी की क़ब्रगाह है !
पहलू ख़ान काल्पनिक था
वे गायें काल्पनिक थीं जिन्हें वह जिस ट्रक में ले जा रहा था वह ट्रक काल्पनिक था
वे गौरक्षक काल्पनिक थे जिन्होंने पहलू ख़ान की अंतड़ियों में चाकू उतारा वह चाकू काल्पनिक था
पहलू ख़ान की हत्या एक कल्पना थी
उमर मोहम्मद काल्पनिक था
अलवर किसी शहर का नहीं एक किंवदंती का नाम था
फ़ासीवाद किसी कवि की कल्पना थी
पिछले बरसों में देश में जो साम्प्रदायिक दंगे हुये वह तुम्हारा एक दुःस्वप्न था
सड़कों पर जो ख़ून बिखरा हुआ था वह दरअस्ल एक महान कलाकृति थी
वह अग्निकुंड काल्पनिक था जिसमें कूदकर अनगिनत स्त्रियां भस्म हो गयी थीं
पद्मिनी एक कल्पना थी
और तुम्हारा इतिहास भी काल्पनिक था
यह दुनिया एक कल्पना-लोक थी और जिसे तुम अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवरसिटी कहते हो वह वास्तव में मजाज़ लखनवी की क़ब्रगाह है !
पद्मिनी एक कल्पना का नाम है
हम केवल कल्पना पर जान दे देते थे
पेड़ों से कहते थे अपने दुःख
भेड़ों से बातें करते थे गड़रिये
जितने भी बुतखाने थे वे हमारे ख़्वाबों की तामीर थे
हम रक्त से अभिषेक करते थे पत्थरों का
फिर बजाते थे नगाड़ा ढोल घण्टाल
मिथक हमारे बचपन के खिलौने थे
यहाँ का भगवान भी काल्पनिक था क्योंकि अंग्रेज़ इतिहासकारों को अयोध्या में उसके पोतड़े नहीं मिले
पद्मावती होगी किसी कवि की कल्पना
और पद्मिनी के साथ जो सौलह हज़ार स्त्रियाँ अग्निकुण्ड में कूद गईं थीं वे काल्पनिक थीं
आग में जलना क्या होता है तुम क्या जानो मृदभांड ढूंढने वालो
कभी जलती हुई सिगरेट का जलता हुआ सिरा अपनी हथेली से छुआ कर देखना
मूर्ख इतिहासकारो
कल्पना की जाने के बाद यथार्थ हो जाती है !
पेड़ों से कहते थे अपने दुःख
भेड़ों से बातें करते थे गड़रिये
जितने भी बुतखाने थे वे हमारे ख़्वाबों की तामीर थे
हम रक्त से अभिषेक करते थे पत्थरों का
फिर बजाते थे नगाड़ा ढोल घण्टाल
मिथक हमारे बचपन के खिलौने थे
यहाँ का भगवान भी काल्पनिक था क्योंकि अंग्रेज़ इतिहासकारों को अयोध्या में उसके पोतड़े नहीं मिले
पद्मावती होगी किसी कवि की कल्पना
और पद्मिनी के साथ जो सौलह हज़ार स्त्रियाँ अग्निकुण्ड में कूद गईं थीं वे काल्पनिक थीं
आग में जलना क्या होता है तुम क्या जानो मृदभांड ढूंढने वालो
कभी जलती हुई सिगरेट का जलता हुआ सिरा अपनी हथेली से छुआ कर देखना
मूर्ख इतिहासकारो
कल्पना की जाने के बाद यथार्थ हो जाती है !
वरिष्ठ कवियो !
वे जो जिनकी कविताएँ दीवारों पर खुद चुकी हैं
वे जो पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं
वे जो अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुके हैं
वे जो छात्रों की भाषा ख़राब कर चुके हैं
वे जो जिनकी प्रतिनिधि कविताएँ कबाड़ी ले जा चुके हैं
वे जो जिन्हें दफ़नाया जा चुका है अपनी क़ब्रों में
कितना लहू पिओगे
कितने युवा कवियों का कलेजा चबाओगे
वरिष्ठ कवियो, जाओ
सुसज्जित सभागारों में आपकी प्रतीक्षा हो रही है
फूलमालायें मुरझा रही हैं आपके इन्तिज़ार में
वे जो जिनकी भाषा एक अरसे से ठहरी हुई है विचार धुंधलाया हुआ है और कल्पनाशक्ति हर-रोज़ क्षीण हो रही है वे जिन्हें रोज़ कच्ची कोंपलें चबाने को चाहिये वे जो अपनी ख्याति के दलदल में धंसे हुये क़दमताल कर रहे हैं
वे जो जिनकी आँखों से लहू नहीं लालच टपकता रहता है हर-घड़ी वे जो किसी असम्भव प्रेम की आशा में अभी भी लिखे जा रहे हैं प्रेम-कविता
वरिष्ठ कवियो, थोड़ा हटो
रास्ता दो युवा कवियों को
एक जो एक मृत चित्रकार के पैसे से हर साल पेरिस में गर्मियाँ गुज़ारता है
एक जो अब भूलता जा रहा है कि जीवन में किन किन स्त्रियों का नमक खाया है
एक बरसों से अचेत है
उसे अचेतावस्था में ही किया गया सम्मानित
एक मुम्बई में घायल है
एक देहरादून के एक होटल में पस्त है
एक जयपुर में उपेक्षित है
एक पटना में सम्मानित है
एक लखनऊ में बांसुरी बजा रहा है
एक भोपाल में चित्रकारी कर रहा है
एक संगीत में डूबा हुआ है एक सिनेमा में
एक इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में स्कॉच पी रहा है और दूसरा लक्ष्मी नगर में ठर्रा
आदिवास का एक कवि किसी आदिवासी की हत्या से नहीं
किसी पेड़ से पत्ते झरने से व्यथित होता है
एक कवि कथाकारों की बस्ती में फ़रारी काट रहा है
एक को अभी-अभी निगमबोध घाट पर जला कर आ रहे हैं
एक जो किसी रामानन्द की लात की प्रतीक्षा में
मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों पर लेटा हुआ है बरसों से
एक गठिया से परेशान है एक आंधासीसी का शिकार है
एक को नोबेल का शक पड़ गया है
एक ग़ालिब की आड़ में जिन्ना की भाषा बोलने लगा है
एक ने कब लिखी थी कविता उसे याद नहीं
जिसकी एक भी पंक्ति नहीं बची
उसके पास सर्वाधिक तमगे बचे हुये हैं
वरिष्ठ कवियो, जाओ
अपनी-अपनी क़ब्रों में अपने-अपने तमगों के साथ सो जाओ अब अधिक धूल मत उड़ाओ
कृपया जाओ
खिड़की से धूप आने दो
और मुझे खींचने दो चिल्ला !
वे जो पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं
वे जो अन्य भाषाओं में अनूदित हो चुके हैं
वे जो छात्रों की भाषा ख़राब कर चुके हैं
वे जो जिनकी प्रतिनिधि कविताएँ कबाड़ी ले जा चुके हैं
वे जो जिन्हें दफ़नाया जा चुका है अपनी क़ब्रों में
कितना लहू पिओगे
कितने युवा कवियों का कलेजा चबाओगे
वरिष्ठ कवियो, जाओ
सुसज्जित सभागारों में आपकी प्रतीक्षा हो रही है
फूलमालायें मुरझा रही हैं आपके इन्तिज़ार में
वे जो जिनकी भाषा एक अरसे से ठहरी हुई है विचार धुंधलाया हुआ है और कल्पनाशक्ति हर-रोज़ क्षीण हो रही है वे जिन्हें रोज़ कच्ची कोंपलें चबाने को चाहिये वे जो अपनी ख्याति के दलदल में धंसे हुये क़दमताल कर रहे हैं
वे जो जिनकी आँखों से लहू नहीं लालच टपकता रहता है हर-घड़ी वे जो किसी असम्भव प्रेम की आशा में अभी भी लिखे जा रहे हैं प्रेम-कविता
वरिष्ठ कवियो, थोड़ा हटो
रास्ता दो युवा कवियों को
एक जो एक मृत चित्रकार के पैसे से हर साल पेरिस में गर्मियाँ गुज़ारता है
एक जो अब भूलता जा रहा है कि जीवन में किन किन स्त्रियों का नमक खाया है
एक बरसों से अचेत है
उसे अचेतावस्था में ही किया गया सम्मानित
एक मुम्बई में घायल है
एक देहरादून के एक होटल में पस्त है
एक जयपुर में उपेक्षित है
एक पटना में सम्मानित है
एक लखनऊ में बांसुरी बजा रहा है
एक भोपाल में चित्रकारी कर रहा है
एक संगीत में डूबा हुआ है एक सिनेमा में
एक इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में स्कॉच पी रहा है और दूसरा लक्ष्मी नगर में ठर्रा
आदिवास का एक कवि किसी आदिवासी की हत्या से नहीं
किसी पेड़ से पत्ते झरने से व्यथित होता है
एक कवि कथाकारों की बस्ती में फ़रारी काट रहा है
एक को अभी-अभी निगमबोध घाट पर जला कर आ रहे हैं
एक जो किसी रामानन्द की लात की प्रतीक्षा में
मणिकर्णिका घाट की सीढ़ियों पर लेटा हुआ है बरसों से
एक गठिया से परेशान है एक आंधासीसी का शिकार है
एक को नोबेल का शक पड़ गया है
एक ग़ालिब की आड़ में जिन्ना की भाषा बोलने लगा है
एक ने कब लिखी थी कविता उसे याद नहीं
जिसकी एक भी पंक्ति नहीं बची
उसके पास सर्वाधिक तमगे बचे हुये हैं
वरिष्ठ कवियो, जाओ
अपनी-अपनी क़ब्रों में अपने-अपने तमगों के साथ सो जाओ अब अधिक धूल मत उड़ाओ
कृपया जाओ
खिड़की से धूप आने दो
और मुझे खींचने दो चिल्ला !
_______________________
30-10-1957, फतेहपुर (राजस्थान)
समानांतर साहित्य उत्सव के
संस्थापक संयोजक.
भीड़ से गुज़रते हुए (1980), बढ़ई का बेटा (1990),
कोई अछूता
सबद (2003), शराबी की सूक्तियाँ (2006), बाग़-ए-बेदिल (2012),
कविता-रहस्य
(2015) कविता
संग्रह प्रकाशित
एक पेड़ की कहानी : ऋत्विक घटक के
जीवन पर वृत्तचित्र का निर्माण
‘हिन्दनामा' और एक कविता-संग्रह 'राख उड़ने वाली दिशा में' शीघ्र प्रकाश्य
सरकारी सेवा से अवकाश के बाद
स्वतंत्र लेखन
__
__
K-701, महिमा पैनोरमा
जगतपुरा
जयपुर 302017 / (म) 7289072959
कमाल ,कमाल,कमाल
जवाब देंहटाएंतमाम असहमतियों और झगड़ों के बाद भी वह एक बड़े कवि हैं. उनकी प्रतिभा से किसी को इनकार नही होगा. वह कटाक्ष के कवि है और वह तब अधिक मारक हो जाते हैं जब वह समकालीन साहित्यिक प्रवृत्तियों पर तंज करते हैं.
जवाब देंहटाएंबकौल आपके 'सूफियाना बेअदबी' के कवि को पढ़ते समय बेअदब होने का जरा सा ख्याल भी नहीं आता... मेरे भी पसंदीदा कवि...
जवाब देंहटाएंसरल भाषा में बड़ी बात कहने वाले कृष्ण कल्पित जी को पढ़ना स्वयं को समृद्ध करना है। तंज के लिए जो शब्द उनके पास है, शायद ही किसी के पास हो। शुभकामनाएँ प्रिय कवि��
जवाब देंहटाएंकृष्ण कल्पित वो प्राचीनतम पठार हैं जिसके अंदर से रेवा जैसी चतुर्युगी नदी निकलती है। सारे कटुवचनों को मैं साही का काँटा मानती हूँ। निश्छल निर्विकार हैं तभी इतने गंभीर रचेता हैं��
जवाब देंहटाएंउनकी एक मात्र किताब बाग-ए-बेदिल हाल ही में पढ़ी है...जिसे बार-बार पढ़ने को दिल करता है...आपने सच कहा...उनकी सूफ़ियाना बेअदबी लाज़वाब है...��������
जवाब देंहटाएंकल्पित जी शानदार कवि है, उनकी कविताएं, किस्सागोई लाजवाब है.... कविताएं उतनी ही बेहतरीन..
जवाब देंहटाएंएक अकेली कविता "चेतना पारीक की याद" पढ़कर ही कवि कृष्ण देव कल्पित की महानता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। वो आज के युग के श्रेष्ठतम कवि, कहानीकार, गद्यकार, आलोचक और दुनियाभर के विवाद को आमंत्रण देने वाले साहित्यकार हैं । क्या कोई स्वयं के विषय में कह सकता है 'युद्धम देहि' कहने वाला । वो अद्भुत हैं ।
आपने उनके विषय में जो भी लिखा है सत्य है । आपका आभार ।
सही कहा। उठापटक नहीं करता तो यह आदमी और भी बड़ा काम का था। राजस्थानी में भी गजब कहानी लिखता था. . .
जवाब देंहटाएंकल्बे कबीर का अंदाजे-बयाँ क्या कहना। सभी कविताएं एक से बढ़कर एक।
जवाब देंहटाएंकल्पित जी से मैं बहुत अधिक प्रभावित हूँ | उनका कविता कहने का एक अलग ही अंदाज है, जिसका मैं उनसे पहली मुलाकात से ही कायल हूँ | सरल शब्दों में गूढ़ बात कहने वाले प्रिय कवि को सलाम |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-06-2018) को "दो जून की रोटी" (चर्चा अंक-2990) (चर्चा अंक-2969) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुफियाना बेअदबी । माशाल्लाह क्या बात है। पास होते तो हाथ चूम लेता।
जवाब देंहटाएंमैं कृष्ण कल्पित से प्यार करता हूँ।उनकी कविताएँ उधार लेता हूँ। इस मतवाला कवि की अज़ब कहानी है। उसमें गज़ब रवानी है। वह मुख में ज़बान रखता है। फिर भी नहीं फिसलता है। उसको तुम गौर से सुनो यारो ! वह मेरे दिल में वास करता है।
जवाब देंहटाएंकल्पित में जो तंज और शरारत का भाव है , वह विरल है ।वे असहमति को कलात्मक तरीके से प्रस्तुत करते हैं । इतनी उम्दा कविताओं के लिए उन्हें बधाई ।
जवाब देंहटाएंचेतना पारीक की याद..। कल्पित जी की ये कविता अपने आप मे बेमिसाल है । सचमुच इस कविता को पढ़ना , मनना और गुनना अपने आप मे एक अलौकिक प्रक्रिया है..। और हाँ यदि समालोचन ऑडियो कविता पोस्ट कर सके तो कल्पित जी का सस्वर कविता पाठ भी गजब शमा बांधता है..
जवाब देंहटाएंकल्पित जी को हाल ही में पढा ।सरलता से गूढ बात व्यंग्य में कहना उनकी विशेषता है।
जवाब देंहटाएंBahut achhi kavitayen
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविताएँ हैं. Arun Dev जी आप बहुत बढ़िया कर रहें। कितनी तरह की कविताएं हम तक पहुंच रहीं
जवाब देंहटाएंअद्भुत कवितायेँ
जवाब देंहटाएंकल्पित जी की कविताएं यथार्थवादी रहस्य की तरह लगती हैं जो बिल्कुल अलहदा अंदाज़ में ध्यान खींचती हैं। अभी पढ़ना है मुझे।
जवाब देंहटाएंदुस्साहस, असहमति,आवेश ,अन्वेषण, पुकार, आह, ताकत विरोध, शिल्प वैविध्य, नैतिक जासूसी और बाज़दफा पोलिटकली इनकरेक्ट-इस सबने मिलकर कल्पित को हमारे समय का सबसे विकट काव्य व्यक्तित्व बना दिया है। उन जैसा कोई नहीं। उन्हेंं लाल, गुलाबी और हरा सलाम।
जवाब देंहटाएंक्या "वरिष्ठ कवियो !" को कविता कहा जा सकता है? वैसे भी कौन किसके पैसे से कहाँ जा रहा है, इसका क्या सबूत? यह "कविता" कुंठा और गाली-गलौज से ज़्यादा कुछ नहीं। "चेतना पारीक" वाली कविता छोड़ कर शिल्प भी कमज़ोर है। मात्र "बेअदबी" के सहारे कविता खड़ी नहीं की जा सकती। उसमें और भी गुण होने आवश्यक हैं। कोशिश कर के नागार्जुन में भी बेअदबी ढूँढी जा सकती है, पर वहाँ वह शुद्ध विरोध के रूप में ही प्रकट होती है, insult के रूप में नहीं। नागार्जुन में शिल्प भी कहीं ज़्यादा मँजा हुआ और पुख्ता था।
जवाब देंहटाएंकृष्ण कल्पित जी का आक्रोश न तो बेअदब है न लाउड या न ही दिशाहीन. वह इस आग को जिस तरह एकदम ईंधन की मानिंद इस्तेमाल करते हैं, यह स्वयं में अनूठा है। आपने उन्हें संजीदगी के साथ पेश कर सार्थक कार्रवाई की है.
जवाब देंहटाएं'वरिष्ठ कवियो' के बारे में-
जवाब देंहटाएंकुंठा से अच्छी कविता बन सकती है।गाली-गलौज से भी ज़ोरदार कविताएं पैदा हुई हैं। शर्त यही होती है कि कवि अपने युग की विसंगतियों को उजागर करने के लिए इनका सहारा ले। 'वरिष्ठ कवियो' समकालीन हिंदी साहित्य की दयनीय दशा का ख़ाका खींचती है।आज नहीं तो 50 साल बाद इसे एक दस्तावेज की तरह पढ़ा जाएगा। नेट पर ढूंढ़कर John Wilmot की कविता A Satyr on Charles II पढ़ें।अभद्र भाषा के प्रयोग द्वारा कितने ज़ोरदार तरीक़े से प्रमुखतः इंग्लैंड के राजा की और प्रसंगतः फ्रांस के लुई XIV की शासन शैलियों का चित्र खींचा है !
कल्पित हिंदी में अपनी धज के इकलौते कवि हैं। तमाम असहमतियों के बावजूद उनकी कविताओं से प्यार है और रहेगा। कल शाम मिले थे, आज मिलेंगे तो एक जाम इन कविताओं के नाम।
जवाब देंहटाएंकल्पित एक विनम्र स्वाभिमानी कवि हैं...उनका काव्य-संसार महानताओं की गहरी पड़ताल करते हुये जीवन के सही मायने खोने के लिये प्रयत्नशील है ...बधाई उन्हें :)
जवाब देंहटाएंकल्पित शानदार कवि है, उनकी कविताएं, किस्सागोई लाजवाब है.... कविताएं उतनी ही बेहतरीन"..मैं ईस टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ - बहुत अच्छी रचनाएं प्रकाशित कीं आपने - शुक्रिया !!
जवाब देंहटाएंचेतना पारीक में प्रतीकात्मकता के अन्वेषण के लिए कल्पित जी को बधाई देना चाहूँगा |
जवाब देंहटाएंकवि सचमुच कवि है ,कोशिश से बना हुआ कवि नही है। अपनी धुन का अलहदा सा कवि..जो बिरले ही कभी होता है।उनकी रचनाओं में सुकून ,सब्र और सख्ती सब कुछ है। बेफिकरा, किसी को न सेठने वाला कवि ; अपने ढंग का अपनी दुनिया में खोया रहने वाला कवि...
जवाब देंहटाएंकृष्ण कल्पित की काव्यभाषा मेरे नज़दीक आकर्षण है। मैंने 1990 से 2015 के मध्य की प्रतिनिधि कविता पढ़ी है। कविता की ऐसी भाषा नहीं मिली।
जवाब देंहटाएंसूफ़ियाना बेअदबी-क्या बात !
जवाब देंहटाएंछंद का बेहतरीन कवि पाला बदल कर बेछंदा होगया।
जवाब देंहटाएंआखिर आयेगा पुराने पाले में . ..यह सब चामत्कारिक भाषा जो है, वह स्थायी नहीं होती। मरणशील जगत में छंद ही अमर है।अमरता की ओर लौट आओ कृष्ण देव !
कृष्ण कल्पित के यहां शब्द और कर्म के बीच एकमेकता के साथ ही चीजों को उनके सही नाम से पुकारने का साहस भी है जिसकी कमी होने पर,बकौल केदार नाथ सिंह,शब्द मर जाते हैं।
जवाब देंहटाएंकल्पित जी से आमने-सामने कभी मिलना हो नहीं पाया और संभव है कि आगे भी न हो पाए,पर वे सूफियाना स्वभाव के फक्कड़ और दिलचस्प इंसान प्रतीत होते हैं।वे किसी को भी गलती करने पर कड़ाई से टोक देने वाले कुछ पुराने मित्रों की याद दिलाते हैं और कहने की ज़रूरत नहीं कि ठकुरसुहाती के इस उत्तर-आधुनिक युग में ऐसे लोग अब इक्का दुक्का ही बचे रह गए हैं । न ऊधो का लेना न माधो को देना जैसी लोकोक्ति शायद ऐसे लोगों को देखकर बनी होगी।
मैंने समालोचन पर प्रकाशित इन कविताओं के अलावा उनकी कुछ ही कविताएं पढ़ी हैं।इसलिए उनकी कविताओं को लेकर कोई गंभीर राय अभी बनी नहीं है।बावजूद इसके उनकी कविताओं से गुजरते हुए यथार्थ-बोध से पैदा हुई संवेदना दिल को छू जाती है। सलीकेदार दिखने और विश्वकवि बनने के चक्कर में हमारे बहुत से सावधान रचनाकारों के यहां वह लापरवाह ऊबड़खाबड़ अभिव्यक्ति नहीं मिलती जो कवि कल्पित के यहां मौजूद है और जिसकी वजह से बगैर नाम के भी उनका लिखा पहचाना जा सकता है।
अबतक पढ़ी गई उनकी कविताओं में गुरुग्राम से बारह सौ किलोमीटर दूर दरभंगा तक अपने घायल पिता को साइकिल के कैरियर पर बिठा कर ले जानेवाली पन्द्रह साल की ज्योति पासवान पर लिखी उनकी कविता मेरे खयाल से न केवल कवि कृष्ण कल्पित,बल्कि प्रवासी मजदूरों की व्यथा पर टेसुए बहाने वाली हिंदी की ज्यादातर कविताओं से भिन्न और विशिष्ट है:
'मैं तुम्हारे तलुओं पर
जैतून के तेल की मालिश करना चाहता हूँ
जिन हाथों से थामा था तुमने साइकिल का हैंडल
मैं उन हाथों को चूमना चाहता हूँ
गुरुग्राम से दरभंगा तक
अपने घायल पिता को कैरियर पर बिठाकर
ले जाने वाली स्वर्णपरी
मैं तुम्हारी जय-जयकार करना चाहता हूँ
तुम्हारी करुणा तुम्हारा प्यार तुम्हारा साहस देखकर हैरान हूँ आश्चर्य से खुली हुई हैं मेरी आँखें
मैं उन तमाम तैंतीस कोटि देवी-देवताओं को
बर्ख़ास्त करना चाहता हूँ
जिन्होंने नहीं की तुम पर पुष्प-वर्षा
मोटर-गाड़ियों रेल-गाड़ियों और हवाई-जहाज़ों का आविष्कार क्या आततायियों अपराधियों और धनपशुओं के लिए किया गया था
इस महामारी में तुमने अपने चपल-पांवों से
बारह सौ किलोमीटर तक भारतीय सड़कों पर सात-दिनों तक जो महाकाव्य लिखा है वह पर्याप्त है इस देश के महाकवियों को शर्मिन्दा करने के लिए
डूब मरो शासकों
डूब मरो कवियों
डूब मरो महाजनों
ओ, साइकिल चलाने वाली मेरी बेटी
मैं तुम्हें अन्तस्तल से प्यार करना चाहता हूँ!'
आलोकधन्वा ने कभी कविता को गोली दागने की समझ कहा था,पर यह कविता पाठक को अपने आसपास की ज्योति के प्रति हमदर्दी और सहायता के लिए प्रेरित करती है।
शाम के समय आजकल सुनसान पड़े विश्वविद्यालय परिसर में टहलते हुए इस कविता को अंग्रेज़ी की मदद से सुनने - समझने के बाद प्रभावित होकर मेरे एक बहुत कम हिंदी जानने वाले तेलुगूभाषी अंग्रेज़ी के प्रोफेसर मित्र ने इसे तेलुगु में अनुवाद करने का निश्चय किया है।
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