रज़ा : जैसा मैंने देखा (७) : अखिलेश



चित्रकार सैयद हैदर रज़ा पर अखिलेश द्वारा लिखे जा रहे ‘रज़ा : जैसा मैंने देखा’ का यह सातवाँ हिस्सा प्रस्तुत है. रज़ा के पेरिस में बसने के संघर्ष के दिनों में भारतीय चित्रकारों की वहां आवाजाही भी रही. कुछ खट्टे-मीठे अनुभव  रज़ा और उनकी फ़्रांसीसी पत्नी जानीन  के हिस्से में आए.

अखिलेश ने बड़े सलीके से उन दिनों को मूर्त किया है. रज़ा की चित्र-कला और रंग-संयोजन  पर  उनका बारीक आब्जर्वेशन यहाँ पढने लायक है. 



रज़ा : जैसा मैंने देखा (७)

जंगलरहस्यअंधेरा और काला रंग                                               

अखिलेश 

 

(जानीन के साथ रज़ा)

 

ज़ा का मन अब पेरिस की कला की दुनिया में लगने लगा था. पैसे की कमी थी. चित्रों का बिकना गैलरी लारा विन्ची के हाथ में था और जैसा कि दुनिया की हर गैलरी करती है यहाँ भी रज़ा को उस तरह का भरोसा गैलरी अब तक नहीं दिला पायी थी कि आर्थिक रूप से रज़ा चिंता-मुक्त हो जाएं. रज़ा ने एक  जगह हिन्दी पढ़ाने का काम खोज निकाला. साथ ही कभी-कभी डिज़ाइन का काम करने से कुछ पैसे मिल जाते.  यह सब दोस्तों की मदद से होता था और कभी-कभार एकोल द बोजार के साथीगण मदद कर देते. अकबर पदमसी भी पेरिस आ चुके थे रामकुमार पहले ही आ गए थे. तीनों मित्र हफ्ते में एक बार, कभी-कभी दो चार बार मिलकर, कभी लूव्र तो कभी कोई संग्रहालय पर कुछ ऐसे ही समय बिताया करते और कला की बातें होती रहतीं.  कभी कहीं पिकनिक पर चले गए. कृष्ण खन्ना, हुसैन और सूजा भी जब पेरिस में होते तो सब साथ ही बैठते और अक्सर रज़ा के छोटे से स्टूडियो में.

एक बार हुसैन पेरिस आये और रज़ा, अकबर के साथ  दुल्हन का एक बढ़िया लिबास ख़रीदा और दोनों दोस्तों को अपनी शादी में चलने का निमंत्रण दिया. उन्होंने एक बीटल कार भी खरीदी थी और इसी कार से प्राग जाने की योजना थी, जहाँ उनकी दुल्हन मारिया इंतज़ार कर रही थी. हुसैन की योजना थी तीनों दोस्त यहाँ से कार से साथ चलेंगे और इस तरह उनकी शादी में उनके कुछ दोस्त भी शामिल हो सकेंगे. रज़ा को भी यह योजना पसन्द आयी और अकबर के हाँ बोलने का इंतज़ार था. हुसैन उत्साह में थे. अपनी पत्नी फ़ाज़िला से तलाक लेने का मन बना चुके थे और मारिया भी तैयार थी. इधर अकबर ने मना किया. उधर रज़ा को जानीन के पिता की तबीयत ख़राब होने पर उनका ध्यान रखने का काम मिल गया. अब हुसैन अकेले ही अपनी कार से प्राग पहुँचे. जहाँ मारिया ने शादी से इंकार कर दिया. सो हुसैन कार और लिबास उन्हें ही भेंट कर वापस लौट आये.

इधर रज़ा के चित्र धीरे-धीरे एक दिशा पकड़ रहे थे. रज़ा का मन अपने बचपन से बाहर नहीं निकला और पेरिस में अक्सर वे खुद को अकेला पाते. जानीन का साथ न होता तब शायद और मुश्किल होता. जानीन उन्हें ऐसे मुश्किल दुविधा भरे समय से निकलने में मदद ही नहीं करती बल्कि उनका हौसला भी बनाये रखती. रज़ा अपने चित्रों में मुखर होते जा रहे थे. उनके साथ सबसे उल्लेखनीय बात यह थी कि प्रकृति चित्रण करते हुए उनका गहरा सम्बन्ध प्रकृति से बनता जा रहा था. वे प्रकृति में मौजूद उन गूढ़ संकेतों को पढ़ने और उसे चित्र भाषा में बदलने का कौशल हासिल करते जा रहे थे. यह मात्र चाक्षुष चित्रण नहीं था. यह प्रकृति का हू-ब-हू चित्रण भी नहीं था. रज़ा चित्रकला के उन संकेतों को प्रकृति में देख रहे थे, जिनसे चित्र बनते हैं. रज़ा के लिए अब रंग अबूझ नहीं रहे. न रूपाकार का रहस्य उलझा हुआ था. उनकी अंत:प्रज्ञा ही प्रेरणा स्रोत बन गयी.  

रज़ा का देखना और चित्र बनाना धीरे-धीरे एक लय हासिल कर रहा था. रज़ा को अपने मुफ़लिसी के दिन याद थे और यहाँ भी कोई बहुत पैसा नहीं मिल रहा था. उनका काम चल सके, रोजमर्रा का ख़र्च, रंग और कैनवास का खर्च निकल सके, बस इतना ही बहुत था. ऐसे में रामकुमार, जिनकी हालत रज़ा से भी ज्यादा गम्भीर थी, की मदद के लिए रज़ा अपने खरीददार को स्टूडियो बुलाते हैं. रामकुमार के चित्र दिखाने और ख़ुद बाहर चले जाते हैं कि उनका चित्र खरीद कर न चला जाये. रज़ा के चित्रों का एकान्‍त बढ़ रहा था. वे दृश्यचित्र से कुछ अधिक हो रहे थे. उनमें दृश्य की शून्यता, उसका ठहराव, उसका वैभव पढ़ने की अचूक क्षमता के कारण रज़ा इन चित्रों में अपने बचपन के अबूझ, अनजान, अनसुलझे, अनाम रूप को भी बुन रहे थे.

(रामकुमार और रज़ा)

पॉल गोथिये उनके इन चित्रों के बारे में लिखते हैं--

"विवेचनात्मक तौर से देखा जाये तो इन चित्रों की बुनियादी संरचना स्पष्ट हो जाती है. कला और भौतिक जगत में कोई अन्तर न कर पाने की भावना से ही प्राच्य दर्शन का अद्वैतवाद यहाँ फिर से शुरू होता है.  दरअसल भौतिक और मानसिक, दैहिक और आत्मिक का  पाश्चात्य विरोध यहाँ है ही नहीं. यहाँ जो तत्त्व हैं, वे यहाँ पर अपने बुनियादी रूपों में मौजूद हैं. उनका उद्गम भी एक ही है और उनकी इयत्ता भी एक प्रकार की है.

मूल, समस्त चेतन जीवों का आधार 'बिंदु' शक्ति का, ऊर्जा का आदि स्रोत है, और इस बिंदु में ही पाँच महातत्त्वों का समावेश हुआ है. क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर. इन पाँच महातत्वों के अनुरूप ही ज्योति के वे पाँच स्रोत हैं जो सूर्य की किरणों में मूल रंग बन कर घुल-मिल गए हैं. कृष्ण (काला), पद्म (पीला), नील (नीला), तेजस (लाल), शुक्ल (सफ़ेद). जाहिर है कि रज़ा ने इन मूल परिकल्पनाओं को लेकर ही कला के क्षेत्र में पदार्पण नहीं किया, बल्कि वे अपनी कला के माध्यम से इन तक पहुँचे हैं. फ्रांस में लम्बा अरसा बीता चुकाने के बाद ही यह बात उन्होंने महसूस की है और उनका बार-बार भारत लौटना इसी खोज का अंग है.  राजपूताना कलम से निकली रागमालिका अनुकृतियों के मूल में भी यही भावना काम कर रही है. रागों में अपने आरोहावरोही क्रम में ये राग-रागनियाँ भावनाओं की सूक्ष्मतम लयों के उतार-चढ़ावों को प्रतिबिम्बित करती हैं, साथ ही उन सूक्ष्मातिसूक्ष्म परिवर्तनों को भी उकेर पाती हैं जो दिन उगने से लेकर डूबने तक, हमारे चारों ओर निरन्तर होते रहते हैं. पाँच तत्त्वों, पाँच इन्द्रियों औढ़व स्वर समूह के अनेकानेक प्रकारों को लेकर यहाँ उनके विभिन्न मेल की सृष्टि की गई है. चरम, काम्य, अन्तिम लक्ष्य यही है कि आत्मा ही विशुद्धतम पदार्थ बन जाए.

सृष्टि के उस मूल चक्र के अमरत्व की पुनर्प्राप्ति, उसके उच्चरित रूप की लय गति, और उसके अनुशासन का सहज अन्तर-बंध इन कलाकृतियों के आवर्ती रूप  की बुनियाद है.  यह चक्राकार गति संसार की गति का ही एक बिम्ब है, जिसमें (रात के) कृष्ण आकारों का व्याघात है.  पर यही काला रंग 'ग्रीष्म' में अपने कुहरील रूप समेत जीवन की दहलीज़ बन गया है. काला रंग अपनी रहस्यमयता से खींचता है, और कलाकार का ध्येय ही है रहस्य की जड़ों तक जाने और उनका अर्थ पाने का निरन्तर प्रयास.  इस तरह काला रंग इन कैनवासों की गति का अन्तिम बिंदू नहीं वरन उस चक्र का रहस्यमय उदगम स्रोत बन जाता है. रंगों के आदिम स्रोत तक पहुंचते हुए, तूलिका के हर आघात को उसकी आदिम मुद्रा प्रदान करते हुए रज़ा के कैनवास कला की गहनतम सच्चाइयाँ उजागर करते हैं."

 


पॉल गोथिये जिस बिंदू का आरम्भिक संकेत इन चित्रों में देख रहे हैं उसके प्रकट होने में अभी समय है. यहाँ मैं यह भी याद दिलाना चाहूँगा कि रज़ा के जिन चित्रों को तीन दिन लगातार देखते हुए जिस एक बात को मैंने शिद्दत से महसूस किया था, वह यह थी कि रज़ा अपने चित्र की शुरुआत काले रंग से करते हैं. 

यह बात भोपाल से इंदौर लौटते हुए हरेन और क़ादिर को में बस में बैठा उत्तेजना और उत्साह से बताता रहा था. वह बाद में जाकर सिद्ध हुई जब मैं उनके आमन्त्रण पर पेरिस में उनके साथ कुछ दिन ठहरा और उन्हें काम करते हुए देखा. रज़ा मेरे आने को लेकर उत्साह में थे. हालांकि बरसों पहले उनकी आदतानुसार एक नौजवान चित्रकार पेरिस जा पहुँचा था. रज़ा और जानीन ने उसकी हर तरह से देखभाल की. फ्रेंच सीखने की फीस से लेकर उसके खाने-पीने का बन्दोबस्त किया. रहने का इन्तज़ाम और दवा-दारु का प्रबन्ध. हर सम्भव मदद के बाद, हर चीज़ जुटाने के बाद कला की लम्बी साधना की कमी और बेवजह उत्साह के कारण उसे लन्दन भी भेजा और लौटकर आने पर जो दुःखद कदम उसने उठाया, उसके बाद रज़ा और जानीन ने तय किया था किसी युवा चित्रकार को पेरिस आने का न्यौता नहीं देंगे.

लगभग तीस वर्ष बाद जानीन ने स्वतः ही मुंबई में रात का खाना खाते हुए मुझे पेरिस आने का न्यौता दिया तो रज़ा की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. मुझे अमेरिका के टॉसन विश्वविद्यालय ने तीन माह के लिए आमंत्रित किया था. जिसमें भारतीय कला पर एक व्याख्यान देना था और एक प्रदर्शनी का संयोजन करना था. लौटते में फ्रांस में उनका मेहमान बनूँ, यह जानीन की इच्छा थी. रज़ा जो चाहते हुए भी इतने सालों में किसी भी युवा चित्रकार के लिए यह निमन्त्रण  खुला नहीं रख सके थे, वे जानीन के इस औचक प्रस्ताव से बेहद प्रसन्न हुए और खाना छोड़कर मुझे वीसा के लिए तत्काल निमन्त्रण पत्र लिखकर दिया. इस तरह जब मैं पेरिस पहुँचा और उनके साथ कुछ दिन बिताए. उसी दौरान उन्हें स्टूडियो में चित्र बनाते भी देखता रहता था.         

किसी एक दिन उन्होंने नया कैनवास शुरू किया और मेरे आश्चर्य को भरोसा मिला कि वे अपना नया चित्र काले रंग से शुरू करते हैं. यह काला रंग उनकी स्मृति का रंग भी है जो घने जंगल के एकान्‍त का भी है. रज़ा के रंग लगाने का ढंग भी अनूठा ही है. वे एक बड़े से कैनवास के बीचों-बीच बने काले बिंदु को किसी बड़े ब्रश से नहीं भरेंगे जैसा कि आमतौर पर किया जाता है. वे उस बिंदु को एक अपेक्षाकृत छोटे ब्रश से धीरे-धीरे मानो उस रूप को सहलाते हुए घण्टों के तल्लीन अभ्यास से भरते रहेंगे. शायद इसमें उन्हें दो या तीन दिन भी लग जाएं. वे एकाग्रता से उसे भरेंगे और इस तरह रंग भरने में निश्चित ही रूप का सतही सपाट आकार नहीं प्रकट होता, बल्कि उनके चित्र का काला सूर्य भी समवेदनाओं, आवेग, भावना भरा होता है. यह खास बात मैंने उनके चित्र बनाने के दौरान ही महसूस की वे चित्र इस तरह बनाते हैं मानों चित्र से, दृश्य से, आकार से, रंग से, रेखा से बात कर रहे हों. यह रेखा,रंग,आकार, से बात करना ही प्रकृति से साक्षात्कार है. यह साक्षात्कार ही संवाद है ख़ुद से, अनुभव से और उन अनसुलझे रहस्यों से जो बचपन से रज़ा का पीछा कर रहे हैं. 

रज़ा के लिए आसान न था रंगों और परिवेश में मौजूदा फ़र्क से सम्बन्ध बनाना. रज़ा परिश्रमी थे और एकाग्र होना जानते थे. उनके लिए भटकना एक काम था और भटकते हुए खुद को जानना दूसरा. वे इन दृश्यों में भटकते हुए ही अपने को एकाग्र पाते थे. मानों बचपन के जंगल में भटक रहे हो. जहाँ उसका रहस्य ही आकर्षण है. जहाँ उजागर कुछ नहीं है किन्तु सब छिपा हुआ है. पहचान किसी परदे के पीछे है जिसे हटाने पर वह फिर किसी परदे के पीछे ही दिखती है. यह अनवरत खोलने और पाने का खेल था. जिसमें पाया कुछ नहीं किन्तु पाने का संतोष है. खोला कुछ नहीं किन्तु खोलने का संतोष है. रज़ा के बचपन की स्मृतियाँ इतनी गहरी हैं कि उनसे पार पाना रज़ा के बस में न था. और पार पाने की इच्छा भी न थी. एक जुनून था, कुछ कर गुजरने की इच्छा थी. और इस नए माहौल में जानीन के साथ अब सब कुछ सम्हलता दिखाई देता है. रज़ा पक्के इरादे और कठिन परिश्रम से अपने चित्रों में नए अर्थ भरते जा रहे थे. जिनका सम्बन्ध सिर्फ दुनिया से नहीं था और न ही वे कोई आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का प्रयत्न कर रहे थे. वे सिर्फ रंग और रंगा कारों के बीच अपनी अभिव्यक्ति देख रहे थे. उन्हें कुछ हासिल करने की तमन्ना भी न थी किन्तु वे चित्रकला में उस सब से छुटकारा पाना चाहते थे जो अब तक का देखा हुआ चित्रित जगत था. यह कैसे होगा इसका हल्का अहसास तो उन्हें था किन्तु कैसे जाना है यह पता न था. वे बस उस अनजान रास्ते पर चल रहे थे जो बचपन के जंगल जैसा ही था. जिसमें सब छिपा हुआ है खुले में. रहस्यमयी आकर्षण की तरह.

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(अखिलेश और उदयन वाजपेयी)





क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

 

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  1. चित्रकार अखिलेश द्वारा लिखा यह संतुलित लफ़्ज़ों का इत्र पढ़ कर, मेरे सामने चलचित्र सा आगे बढ़ रहा था...प्रसिद्ध चित्रकार रज़ा साहब के साथ के अनमोल क्षणों से हमें अवगत कराया... अखिलेश ने वे सभी स्मरणीय ज्योतिर्मय क्षण हम तक पहुँचाने के कुछ अक्स है... दूसरे चित्रकार के सृजन को समझते हुए लिखना आसान नहीं है... कलाकार के गहरे एकांतिक घिराव उसकी आवाज़ होतें है... नायाब है ऐसा लिखना..

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  2. फितरती इंसान के रंग अबूझे होते हैं। रज़ा की आठों अंगुलियाँ (दोनों अंगूठो को छोड़) रंग की परिभाषा थीं।

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  3. राजाराम भादू5 दिस॰ 2020, 6:00:00 pm

    अखिलेश जी का अवलोकन अप्रतिम है। उसी से उनके कला - मीमांसा सूत्र रूपायित होते हैं। बहुत कुछ सिखाती है यह श्रृंखला ।

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