अस्मिता भवन, स्वामी दयानंद रोड, राजधानी: अम्बर पाण्डेय


 

अम्बर पाण्डेय की कहानियों ने अपनी पहचान अर्जित की है और उनके अपने पाठक भी तैयार हुए हैं. उष्म भाषा, नवाचारी शिल्प और विचारों की उत्तेजना के बीच उनकी कहानियां हर बार कुछ अप्रत्याशित घटित करती हैं.

अम्बर की इस नयी कहानी का शीर्षक ‘अस्मिता भवन, स्वामी दयानंद रोड, राजधानी’ पता तो है पर यह पता भी बहुत कुछ कहता है. कहानी विश्वविद्यालय की अकादमिक दुनिया में घटित होती है तथा अपने समय के साक्ष्य प्रस्तुत करती है और निर्णय पाठकों पर छोड़ देती है.

कहानी पढ़ें. 

 

 

अस्मिता भवन, स्वामी दयानंद रोड, राजधानी
अम्बर पाण्डेय  

 

"It is not Being that oppresses me, or Nothingness, or God, or the Absence of God, only society. For it and only it caused the disturbance in my existential balance, which I am trying to oppose with an upright gait. It and only it robbed me of my trust in the world.”

(Jean Améry: At the Mind’s Limits: Contemplations by a Survivor on Auschwitz and Its Realities (New York: Schocken, 1986), p. 100.)

 

९६४ में स्थापित राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय जवाहरलाल नेहरू की अंतिम महान परिकल्पना थी. संसारभर की छोटी बड़ी भाषाओं की पढ़ाई, वैश्विक साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन और अनुवाद के अध्ययन के लिए यह विश्वविद्यालय विश्वभर में जाना जाता है. अफ्रीकी भाषाओं और क्रीओल का अफ़्रीका से बाहर यह सबसे बड़ा केन्द्र है. लिपिहीन भाषाओं को रिकॉर्ड करके उनकी संग्रहण और रक्षा की विधि इसी विश्वविद्यालय में पहली बार विकसित हुई और आज यहाँ उसका सबसे बड़ा आर्काइव है और इसके साथ ही संस्कृत, पालि, तमिल और फ़ारसी इन चार शास्त्रीय भाषाओं का दुनियाभर में सबसे बड़ा पुरालेख भी इसी विश्वविद्यालय के परिसर में है. केवल भाषा और साहित्य को समर्पित विश्व में सम्भवतः यह एकमात्र विश्वविद्यालय है. 

उस दिसम्बर के दिन दिल्ली का न्यूनतम तापमान ३.३ डिग्री सेल्सियस था और दोपहर चार बजने को आए थे मगर पारा ७.८ डिग्री सेल्सियस से ऊपर नहीं चढ़ पा रहा था. डेढ़ सौ वर्षों में यह दिल्ली की सबसे ठंडी सर्दियाँ थी. प्रो. नवनीतचन्द्र प्रसाद पोलिश व्याकरण की कक्षा लेने के पश्चात विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस की व्यवस्था देख रहे थे. उन्हें पूरे दिन लगता रहा था कि कोई उनके तलवों में गुदगुदी कर रहा है. वे बार-बार चलते हुए कूदना चाहते थे और किसी को आलिंगन में भरकर दबा देना चाहते थे. कारण था रात ढाई बजे २०१८ की साहित्य में नोबेल विजेता पोलिश लेखिका ओल्गा तोकारज़ुक का विश्वविद्यालय में समकालीन उपन्यास पर कक्षा लेने आना. जैसा कि विद्वान पाठकों को ज्ञात है २०१८ की साहित्य नोबेल की घोषणा २०१९ में हुई थी. इस कक्षा के लिए ओल्गा तोकारज़ुक की स्वीकृति नोबेल की घोषणा से पूर्व आ गई थी. प्रो. नवनीतचन्द्र प्रसाद को भय था कि नोबेलप्राप्ति के बाद की व्यस्तताओं के कारण शायद तोकारज़ुक आने में आनाकानी करें या सीधे मना कर दें किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. स्टॉक्होम से वे सीधे दिल्ली आ रही थी. 

व्यवस्था समुचित थी. त्वरित कॉफ़ी अवश्य ही एक यूरोपीय व्यक्ति के लिए कष्टकारक सिद्ध होगी यह सोचकर उन्होंने गेस्ट हाउस के रसोइये से कहा कि वह उनके घर से फ़िल्टर कॉफ़ी पाउडर का पैकेट ले आए. यह कहकर जब वे वॉल्टर बेन्यामिन भवन से बाहर आए तो डॉक्टर विवेक ठिठुरते हुए सिगरेट फूँक रहे थे. “तोकारज़ुक का इंतज़ाम देखने?” डॉक्टर विवेक ने पूछा. “प्रो. प्रसाद ने सिगरेट निकाली और डॉक्टर विवेक ने अपनी सिगरेट आग के लिए आगे कर दी. “कार्यक्रम रद्द नहीं किया बुढ़िया ने” डॉक्टर विवेक ने कहा.

धूम्रपान के समय प्रो. प्रसाद बात करना पसंद नहीं करते थे जबकि देखा जाता है तम्बाकू लोगों को कुछ देर के लिए वाचाल बना देता है. इस बार डॉक्टर विवेक की बात का उत्तर देना ही पड़ा, “तेरा रेटायरमेंट कब है?”

डॉक्टर विवेक समझे नहीं इसलिए सीधा जवाब दिया, “तीन साल बाद”.

सिगरेट पेड़ के तने से रगड़कर बुझाते हुए प्रो प्रसाद ने कहा, “तुझसे एक साल छोटी है तोकारज़ुक, बुड्ढे!”

यंग नोबेल लारेटी” डॉक्टर विवेक ने कन्धे उचकाए तब तक प्रो. प्रसाद सड़क तक पहुँच चुके थे. डॉक्टर विवेक चीनी भाषा पढ़ाते थे और राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय के पहले दलित प्राध्यापक थे. उनकी दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा अंग्रेज़ी की पहली दलित आत्मकथाओं में से थी. वे जानते थे तोकारज़ुक की वय अट्ठावन वर्ष है. उन्होंने तोकारज़ुक का उपन्यास Primeval and Other Times भी बहुत वर्ष बीते पढ़ा था. प्रो. प्रसाद को चिढ़ाने का वह एक भी अवसर नहीं छोड़ते थे इसलिए ही उन्होंने तोकारज़ुक को जानबूझकर बुढ़िया कहा था. प्रो प्रसाद ने उत्तर दिया, “पोलिश में लिखना कठिन काम है, उसका व्याकरण जटिल है और चीनी भाषा की तरह पोलिश व्याकरण विहीन भाषा नहीं है”, दोनों खी-खी देर तक हँसते रहे. 

दूसरे में प्रातःकाल नौ बजे अत्यन्त शीतल कमरे में तोकारज़ुक का व्याख्यान आरम्भ हुआ जो कि पोलंड की दक्षिणपन्थी, राष्ट्रवादी सरकार की आलोचना और उसके पोलिश के समकालीन साहित्य से सम्बंधित था और चूँकि कक्षा पोलिश भाषा विभाग में थी व्याख्यान पोलिश भाषा में था जिसे बाहरी लोग समझ नहीं पाए. प्रो. विवेक पोलिश न जानने के बावजूद पूरे समय व्याख्यान कक्ष में बैठे रहे.

 क्या जर्मन अब भी नाज़ियों की भाषा है?” प्रो. प्रसाद ने प्रोफ़ेसर श्यामला अय्यर जो जर्मन विद्वान थीं और जर्मन भाषा की विभागाध्यक्ष थी, उनसे पूछा. यह तोकारज़ुक के सम्मान में दिए रात्रिभोज का प्रसंग है. श्यामला अय्यर बहुत सुन्दर थीं, वे साँवली थीं और उनके लम्बे-मोटे बाल थे जिसमें वे कोई भी फूल लगाकर आती थी जैसे उन दिन कचनार का गुच्छा उन्होंने अपने पेन्सिल से लपेटकर बनाए जूड़े में लगाया था, उनकी आँखें मोटे काजल से घिरी रहती थी और नाक में बड़ा हीरा पहनने के कारण उनकी नाक चपटी है इस पर ध्यान नहीं जाता था और यदि किसी कमजोर नजरवाले की आँख हीरे की दीप्ति पर न टिके तो उनके गहरे गले के और साड़ी से नितान्त भिन्न रंग के ब्लाउस से बचना तो मुश्किल ही था. प्रो श्यामला हँसी और उन्होंने प्रतिप्रश्न किया, “क्या संस्कृत जातिवादी भाषा है?” इस पर लगभग सभी की सहमति थी कि हाँ संस्कृत जातिवादी भाषा है किन्तु बीच में ही प्रो विवेक ने कहा, “यदि संस्कृत जातिवादी भाषा है तो उर्दू क्या मुसलमानों की भाषा है?” प्रो. श्यामला तुरंत ने कहा और कहते हुए जिस प्रकार उनकी पुतलियाँ थिरकी उससे वहाँ खड़े पुरुषों का ध्यान उनकी बात पर शायद ही गया,

जातिवादी होना एक दोष है मगर जाति विशेष की भाषा होना दोष नहीं इसलिए आपकी उर्दू और संस्कृत की तुलना अकारण है”.

तोकारज़ुक इस भोज के समय निरन्तर विद्यार्थियों और प्रशंसकों से घिरी रही और उनसे किसी भी प्रकार की लम्बी और उद्वेलित करनेवाली बात नहीं हो सकी. 

दूसरे दिन का व्याख्यान दोपहर भोजन के बाद था और इस बार तोकारज़ुक प्रो श्यामला के संग आईं, तोकारज़ुक सादी, सफेद टीशर्ट के ऊपर के काली सूती साड़ी पहने हुए थी जो सहज था कि उन्हें प्रो. श्यामला ने पहनाई है. उस व्याख्यान में अपेक्षाकृत अधिक भीड़ थी क्योंकि यह व्याख्यान अंग्रेज़ी में होना था और यह भारतीय साहित्य के विषय में था और सभी इस जिज्ञासा में आए थे कि तोकारज़ुक भारतीय साहित्य के विषय में क्या कहेंगी. तोकारज़ुक का व्याख्यान टेगोर के उपन्यासों पर मंडराता रहा और उन्होंने लुकाच के टेगोर के उपन्यास में महात्मा गाँधी के भावी आगमन की लगभग मसीहावाली भविष्यवाणी के विषय में बात की, साथ में जो महत्त्वपूर्ण बात उन्होंने की वह थी कि भारत के बुद्धिजीवियों को निश्चय ही भारतीय राजनीति और उनके मतदाता अत्यंत निम्न कोटि का समझते है, किसी को बुद्धिजीवी कहना भारत में पोलंड की तरह ही एक प्रकार की गाली है फिर भी भारत के बुद्धिजीवी इस दक्षिणपन्थी, राष्ट्रवादी सरकार का विरोध क्यों नहीं करते और फिर भारतीय संविधान की अत्यन्त सूक्ष्म समझ का परिचय देते हुए उन्होंने कहा कि आम्बेडकर जैसा मेधावी व्यक्ति ही यह व्यवस्था कर सकता था कि किसी भी नागरिक को गिरफ़्तार करने का अधिकार संविधान किसी एक व्यक्ति को न दे इसलिए भारतीय संविधान में पुलिस प्रत्येक राज्य की अलग है और गिरफ़्तारी का अधिकार केंद्रीय सरकार को राज्य की अनुमति के पश्चात ही मिल सकता है जैसे कि सीबीआई, फिर उन्होंने बताया कि भारत की केंद्र सरकारों ने इसकी अवहेलना करते हुए ऐसे क़ानून बनाए है जिसमें उसके पास भारत के किसी भी नागरिक को सीधे गिरफ़्तार करने का अधिकार आ गया है और इसके लिए राज्य से अनुमति लेने की कोई आवश्यकता नहीं और भारतीय न्यायालयों में भी ऐसे नियमों को लेकर कोई जागृति नहीं दिखती. केंद्रीय और पूर्वी यूरोप में पुलिस की अति सक्रियता ही नागरिकों के शोषण और मौलिक अधिकारों के क्षरण का कारण बनी है. 

तोकारज़ुक ने कहा कि क्या यह भारतीय बुद्धिजीवियों का दायित्व नहीं कि वे इसका विरोध करें और भारत के साहित्य की उस उज्ज्वल परम्परा को ध्यान में रखे जब अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध लेखक खुलकर लिखते थे और क्या ग़ुलाम केवल बाहरी लोग ही बनाते है और क्या यह सम्भव नहीं कि देश का एक नागरिक या एक संगठन ही कुछ लोगों को या देश के प्रत्येक नागरिकों को ग़ुलाम बनाकर रखे और उन्होंने कहा कि भारतीय समाज को अतीत के मोह से छूट जाना चाहिए जैसे उनके टेगोर पर व्याख्यान देने पर जो इस कक्ष में बैठे श्रोता गौरवान्वित हो रहे है, यथार्थ में यह एक लज्जा का विषय है क्योंकि टेगोर की मृत्यु के बाद में क्या ऐसा कोई साहित्यकार भारत में नहीं हुआ जिसे पोलंड के सुदूर किसी गाँव में बैठी कोई पाठिका चाव से पढ़ती हो. प्राध्यापक रामलक्षण मिश्र जी, जो मैथिली के विद्वान थे, उन्हें यह बात अनुचित लगी कि भारत में टेगोर के पश्चात् कोई ऐसा साहित्यकार नहीं हुआ और उन्होंने कहा कि भारतीय समाज की क्षुद्र राजनीति के कारण साहित्यकार विश्वस्तर पर नहीं पहुँच पाते इसपर अधैर्य से मुँह हिलाकर तोकारज़ुक ने कहा कि क्या यह राजनीति भी इसी भाषा के लेखक और लोग नहीं करते और क्या लेखक केवल व्यक्तिगत क्षमताओं के कारण बनते है और समाज का इसमें कोई हाथ नहीं और यदि हाथ नहीं तो किसी भी व्यक्ति को न टेगोर पर गर्व होना चाहिए न टेगोर के बाद कोई महान साहित्यकार नहीं हुआ इसपर लज्जा. जब प्राध्यापक रामलक्षण जी ने सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की बात की तो किसी सेवानिवृत्त प्रोफेसर, लेखक और कई पुरस्कार समितियों के अध्यक्ष एक बुज़ुर्ग ने निराला को “regional lyricist” कहकर प्राध्यापक रामलक्षण को बैठा दिया. “आप मुक्तिबोध को भी मत भूलिए” कहकर प्राध्यापक रामलक्षण बैठ गए किन्तु एक युवा विद्यार्थी ने तुरन्त ताना कसा, “उस संघ का सदस्य बोल रहा है जिसने वर्षों पहले मुक्तिबोध की किताब पर प्रतिबंध लगाया था”.  

रात एक बजे तोकारज़ुक का हवाई जहाज़ उड़ान भरनेवाला था इसलिए वे व्याख्यान के तुरंत बाद चली गई. 

यदि मैं मुक्तिबोध को आज अपना बताना चाहता हूँ तो आप भी मत भूलिए कि जिस सत्ता के ख़िलाफ़ वे लिख रहे थे, जिस नेहरू के सपने के बुरी तरह असफल हो जाने की वह बात करते है उसी तत्कालीन सत्ता को आज आप गुलाबी चश्मे से देखते है”

प्राध्यापक रामलक्षण ने कहा, शराब पीने के बाद वे बहुत संयत ढंग से बात करते थे, उनके तर्कों में एक विशेष धार आ जाती थी. डॉक्टर विवेक ने कहा,

अब तुलना करने पर वह दिन अच्छे लगे तो आप समझ सकते है कि यह दिन कितने बुरे होंगे”,

शांत स्वर में प्राध्यापक रामलक्षण ने कहा कि यदि ऐसा है तो प्रतीक्षा कीजिए कि कोई इससे भी बुरा प्रधानमंत्री आए तो आपको यह दिन भी अच्छे लगेंगे” और हँसने लगे. प्रो प्रसाद अब भी तोकारज़ुक की यादों में खोए हुए थे,

कितनी सुंदर है, कैसा जटामुकुट मस्तक पर धारण करती है और हाथों में वे ढेरों पत्थरों के दस्तबंद; I mean beads on her well-rounded wrists, my god”.

 

(Courtesy : Najmun Nahar Keya Kintsugi Dhaka) 

प्रो. श्यामला ने दस रुपए के बॉलपॉंइँट से लपेटा जूड़ा बॉलपॉंइँट कलम खींचकर खोला और उनके बालों में लगा मुरझाया कमल ज़मीन पर गिर पड़ा जिसे काणे जी उठाने दौड़े. काणे जी के साथ प्रो. श्यामला रहती थी और काणे जी काव्यशास्त्र के विद्वान थे और वर्तमान शासन से पद्मश्री भी पा चुके थे हालाँकि वे वर्तमान शासन को पसंद नहीं करते थे. काणे जी विचित्र व्यक्ति थे, उन्हें वामपन्थी साहित्यकार बहुत पसंद थे और उनकी लगभग क्लासिक का दर्जा पा चुकी किताब का नाम ही था, ‘Marxist Reading of Sanskrit Poetics’ किन्तु राजनीति में वे वर्तमान सरकार को पसंद न करते हुए भी दक्षिणपन्थी थे, उनका मानना था कि वर्तमान सरकार प्रत्येक क्षेत्र में अति कर रही है किन्तु आवश्यकता हमें ऐसी सरकार की है जो मुसलमानों से यदि घृणा न करे तो कम से कम उन्हें वश में तो रखे. प्रो. श्यामला ने जर्मन में एक कविता पढ़ी जिसमें नायिका कहती है कि उसे अपने प्रेमी की दाढ़ी के पहले-पहले सफेद बाल कितने पसंद हैं और जब सबने उनसे कवि का नाम पूछा तो उन्होंने उसे चलताऊ गीत कहा और बताया कि चलते फिरते सर्कस का गीत है. काणे जी शब्दकोशों में प्रो. श्यामला के बालों में लगाए प्रत्येक पुष्प को इकट्ठा करते थे. 

प्रो. श्यामला ने उसके बाद उनके घर बैठे सभी लोगों से स्पष्ट शब्दों में कहा कि काणे जी के राजनीतिक विचारों को कोई उनकी राजनीति न समझे और बताया कि वे मुस्लिम विरोधी नहीं है और मुस्लिम विरोधियों की विरोधी हैं जैसे नीत्शे यहूदियों के विरोधियों का विरोधी था. प्रो. प्रसाद की पत्नी अतिप्रिया जो किसी प्रायवेट और महँगे स्कूल में फ़्रांसीसी पढ़ाती थी उसने पूछा, “इसका क्या अर्थ हुआ?” प्रो. श्यामला की अपेक्षा अतिप्रिया निश्चय ही युवा थी किन्तु प्रो. श्यामला की कांजीवरम की साड़ियों, चाँदी के आदिवासी शैली के मोटे गहनों और सिन्दूर और काजल के कारण अतिप्रिया हमेशा प्रो. श्यामला की उपस्थिति में हतप्रभ लगती थीं और इसे जानती भी थीं जिसके कारण वह दिनोंदिन प्रो. श्यामला के प्रति कटु हो जा रही थी. प्रो. श्यामला ने अपनी अंगुलियों से अपने घने बालों को कंघा करते हुए, फिर अपना कपाल मसलते हुए कहा, “अर्थात् मैं मुस्लिमों की समर्थक नहीं मगर मैं उनकी विरोधी भी नहीं, बस उनके विरोधियों का विरोध करती हूँ, खुलकर कहूँ तो जैसे दूसरे लोग है वैसे ही मेरे लिए वे भी है”.  डॉक्टर विवेक ने पूछा, “तो हमारी यूनिवर्सिटी का एकमात्र मुसलमान प्रोफ़ेसर हुसेन बंकवाला यहाँ क्यों नहीं है?” 

प्राध्यापक रामलक्षण ने कहा, “अव्वल तो वह बोहरा है न कि मुसलमान” और बोहरे मुसलमानों के पूर्व में गुजरात के नागर ब्राह्मण होने का लम्बा विवरण देने लगे. हुसेन बंकवाला कच्छी भाषा जो कि सिन्धी भाषा विभाग के अंतर्गत थी वहाँ असिस्टेंट प्रोफ़ेसर थे. फ़ारसी का विभाग उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों और उर्दू पर कश्मीरी पंडितों का क़ब्ज़ा था: “मुझे मुस्लिमों में न गिना जाए मैं बोहरी हूँ” हुसेन बंकवाला हमेशा कहता था, बोहरों की धर्मसभा से तत्कालीन प्रधानमंत्री ने अपना चुनाव प्रचार आरम्भ किया था.

“हम गुजराती में लिखे धर्मग्रंथ पढ़ते है और खुले हुए, जहाँदीदा लोग है”,

बंकवाला कहता था.  उस दिन इसलिए नहीं आ सका क्योंकि सैफी अस्पताल में रक्तदान करने गया. 

दूसरे दिन सुबह लगभग छह बजे डॉक्टर विवेक को पुलिस पकड़कर ले गई, उनपर चीनी दूतावास के लिए ऐसे दस्तावेज़ों का चीनी में अनुवाद करने का संदेह था जो सरकार के गोपनीय दस्तावेज हो सकते थे. उनके घर की गहन जाँच हुई और उनकी दो बेटियों के स्कूल के बस्ते और पिछले साल की कॉपियाँ तक ज़ब्त हो गई. राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय का प्रत्येक कर्मचारी और प्राध्यापक भयभीत थे, इसे लोगों ने तोकारज़ुक के उस व्याख्यान से जोड़कर देखना आरम्भ कर दिया जिसमें उन्होंने भारत के बुद्धिजीवियों से सत्ता के विरुद्ध संघर्ष करने की बात कही थी. डॉक्टर विवेक के चीनी भाषा सीखने को माओवाद से जोड़कर देखा जाने लगा और बिना व्याकरण की भाषा को हिंसा और तानाशाही और स्वदेश से शत्रुता की भाषा कहा गया. कुमारजीव की चीनी भाषा की पांडुलिपि की फ़ोटोकॉपियाँ देशद्रोही योजना के लेखों में रूप में प्रसारित किए गए. कुछ लोगों का कहना था कि डॉक्टर विवेक सच में इस प्रकार के कार्यों में लिप्त थे और ऐसा वे पैसों के लिए न करके विचारों के लिए कर रहे थे. 

प्रो. श्यामला के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मण्डल गृहमंत्री से मिला और डॉक्टर विवेक को जल्दी से जल्दी मुक्त करने की माँग की जो जाहिर है गृहमंत्री ने यह कहकर बात टाल दी यह निर्णय तो अदालतों को लेना है. इस बीच राजधानी में विरोध और जुलूसों और चक्काजामों की बाढ़ आ गई और इसका डॉक्टर विवेक से कोई सम्बंध नहीं था. बात इस प्रकार थी कि अंग्रेजों के जमाने के बनाए ट्रेज़री हाउस की अत्यधिक सुंदर इमारत को गिराकर वहाँ संसार की सबसे सुंदर जेल बनाई जाए ऐसा प्रस्ताव संसद ने कुछ दिनों पूर्व पास किया था. ट्रेज़री हाउस की इमारत का राजधानी से स्थापत्य से गहरा सम्बंध था और राजधानी को लोग उसी इमारत से याद करते थे. प्रस्ताव प्रस्तुत करनेवाली जन निर्माण कार्य मंत्री श्रीमती आशा भंवरे ने कहा कि ट्रेज़री हाउस की इमारत देश की परतंत्रता की प्रतीक है और उसे तोड़कर हमें अस्मिता भवन नामक नवीन भवन का निर्माण करना चाहिए और ट्रेज़री हाउस चूकि पहले ही चकोरी चौक पर स्थान्तरित हो चुका है तथा राजधानी की जेल में जहाँ तीन हज़ार लोग रहना चाहिए वहाँ अभी पन्द्रह हज़ार लोग है इसलिए जेल उस अस्मिता भवन में स्थान्तरित कर दी जाना चाहिए और उन्होंने यह बताया कि कैसे क़ैदियों के भी मानवाधिकार है और देश की अस्मिता के यह सर्वथा विरुद्ध है कि हमारा देश किसी के भी साथ अमानवीय व्यवहार करें. क़ैदियों की स्थिति में सुधार हो, उन्हें मानवीय गरिमा मिले इसका सम्भवतया किसी भी सभ्य देश में विरोध नहीं हो सकता किन्तु इस देश में इतिहास में एक विलक्षण घटना घटी. 

 

(courtesy : Mohsin Shafi )

राजधानी का अधिकांश स्थापत्य देश की परतन्त्रता की याद दिलानेवाला था, वहाँ तुर्की, मुग़ल और ब्रितानी इमारतें थी, इस देश का सर्वोत्कृष्ट स्थापत्य सुदूर दक्षिण या जंगलों में मंदिरों के रूप में था ऐसा तत्कालीन सरकार मानती थी इसलिए यह जेल इस देश की स्थापत्य कला का एक प्रमाण और चरमोत्कर्ष होना चाहिए. इसके लिए बालकृष्ण जोशी के बाद प्रिट्जकर प्राइज़ जीतनेवाले आर्किटेक्ट श्रीनिवास सुंदर की फ़र्म को संसार की सबसे बड़ी और सबसे सुंदर अस्मिता भवन नामक जेल बनाने का ठेका दिया गया. 

अष्टधातु की विभिन्न मूर्तियों से प्रो. श्यामला का घर भरा हुआ था और चूंकि अब डॉक्टर विवेक को जेल गए दस महीने से अधिक बीत चुके थे, सभी को इस सतत दुर्घटना की जैसे आदत हो गई थी, इसलिए उस दिन दीवाली के दो दिन पहले विश्वविद्यालय कैम्पस स्थित इस घर को गेंदे के फूलों और दीपकों से सजाया गया था. डॉक्टर विवेक की पत्नी आनंदी गृहिणी थीं और उत्सवों में पति के बिना शायद ही कभी भाग लेती थी और अब पति के जेल जाने के बाद न केवल वह बहुत दुबली हो गई थी बल्कि उन्हें कई बार ऐसा लगता था जैसे वे कुछ समझ नहीं पा रहीं. अतिप्रिया (प्रो. प्रसाद की पत्नी) कई बार उन्हें मानसिक रोगों के चिकित्सक के पास भी ले गई किन्तु डॉक्टर का यह कहना था कि वे ऐसा चाहती है कि उन्हें कुछ समझ न आए हालाँकि उनकी समझ में कोई दोष है ऐसा नहीं है. दोनों बेटियाँ स्कूल का गृहकार्य कर रही थीं और उनकी माँ आनंदी कुछ सोचती हुई उनके पास बैठी थी. दस महीने पहले पड़े छापे का भय आनंदी पर इतना अधिक था कि प्रो. प्रसाद के घर के पीछे बनी एक अजीब सी कॉटेज में रहने लगी और अल्पतम सामान अपने घर से लाई थीं. यदि बस चलता तो आनंदी दूर जंगल में जाकर रहने लगतीं. उन्हें लगता था कि यदि उनके पति ने कोई ग़लत काम किया था तो क्या उसका दंड इस प्रकार उन्हें और उनकी दो बेटियों को दिया जाना चाहिए? 

यही बात काणे जी और प्रो. प्रसाद भी कर रहे थे, प्रो. श्यामला ने मद्रासी चकलियों की थाली प्रो. प्रसाद की ओर बढ़ाते हुए कहा, “इसे guilt by association कहते है, सम्बन्धों के कारण दोषयुक्त मानना और यह स्तालिन की अद्वितीय खोज थी. यदि पति अपराध करता है तो पत्नी को भी पति के अपराध को छिपाने का दोषी मानना या बेटे के अपराध के लिए माँ को, भाई के अपराध के लिए उसके सभी भाई बहनों को”. काणे जी ने कहा, “तो अपराध छिपाना अपराध ही तो है”. प्रो. श्यामला हँसी, उनके प्रेमी संस्कृत साहित्य के अध्येता होने के कारण इतने भोले थे या आज तक जिए अपने साधारण जीवन के कारण या आनुवंशिक कारणों से, उन्होंने कमरे के टेबुललैम्प जलाते हुए कहा,

इसका अर्थ है आप मानते है कि मनुष्य का प्रथम दायित्व राष्ट्र के प्रति है न कि परिवार के प्रति”.

काणे जी इतने भोले भी नहीं थे, वे कई बार यूरोप यात्रा कर आए थे, जर्मनी के फ़्रांक्फ़ुर्ट विश्वविद्यालय में अस्थायी प्राध्यापक रहे थे,

परिवार के प्रति दायित्व और राष्ट्र के प्रति दायित्व में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है. अपराधी को घर में रखना परिवार को भी उतना ही नष्ट करता है जितना राष्ट्र को”.

प्रो श्यामला जर्मन विद्वान होने के नाते शासकीय अत्याचारों में खुद को विशेषज्ञ समझती थी,

ऐसा राष्ट्र समझता है कि अपराध परिवार को भी उतना ही नष्ट करते है जितना राष्ट्र को, ऐसा हो ज़रूरी नहीं. कोई भी सभ्य समाज किसी माँ से यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि वह अपने अपराधी बेटे को पुलिस को देगी या अपने बेटे के विरुद्ध अदालत में गवाही देगी. यदि कोई राष्ट्र ऐसी अपेक्षा करता है तो निश्चय ही जाहिलों का देश है”,

उन्होंने जानबूझकर काणे जी को अपमानित करने के लिए जाहिल शब्द का उपयोग किया और इसके बाद इस शब्द को दोबारा चिह्नित करने के लिए उन्होंने अंग्रेज़ी में कहा, “nation of imbeciles”. 

अतिप्रिया वही बैठी हुई बीयर पी रही थी और उसे हमेशा ऐसा लगता रहा था कि उसके पति प्रो. प्रसाद के सहकर्मी और मित्र व्यर्थ की बौद्धिक बहसें करते थे, उनकी इन बहसों से देश में कुछ नहीं बदल रहा था किन्तु यह बहसें हर कहीं होती रहती थी, क्या वे इन बहसों से डॉक्टर विवेक को जमानत दिलवा पाए थे? उसे अब डॉक्टर विवेक की पत्नी आनंदी से अधिक मित्रताभाव अनुभव होता था, वे छोटे शहर से गृहविज्ञान में बीए थी किन्तु जिस प्रकार इतनी बड़ी विपत्ति टूटने पर भी वह खुद को बचाए रखने का प्रयास कर रही थी उससे अतिप्रिया को आनंदी में अटूट आस्था होती थी और यह बात एक बार अपने पति प्रो. प्रसाद को जब उसने बताई तो प्रो. प्रसाद हँसे और कहा,

कम पढ़ा लिखा होने के अगर कुछ नुक़सान है तो कुछ फ़ायदे भी है” और आगे उन्होंने बताया कि फ़ायदा यह है कि ऐसा व्यक्ति खुद पर पड़ी इतनी बड़ी त्रासदी को पूरी तरह ग्रहण ही नहीं कर पाता, उस त्रासदी की महानता, उसकी भीषणता का उसे अनुमान ही नहीं होता और नुक़सान यह है कि ऐसी त्रासदियाँ उन सरकारों के कारण घटती है जिसे ऐसे कम पढ़े लिखे लोग चुनते है, “

“अर्थात् लोकतंत्र की आलोचना” व्यंग्य में अतिप्रिया मुस्कुरायी और कहा. 

स्तालिन के इस दुष्ट नीति को अद्वितीय कहने का कोई खास कारण?” काणे जी को पता था कि स्तालिन की नीतियों से घृणा करने के बावजूद प्रो. श्यामला स्तालिन की मर्दानगी, उसके व्यक्तित्व पर मोहित थी और संस्कृत पण्डित काणे जी में ऐसी कोई बात नहीं थी. वह जैसी आधुनिक मनुष्य नहीं बन पाए थे और अब भी रस, भारतीयता और अध्यात्म जैसी बातें करते थे किन्तु इसे जानते हुए यह करना उनकी मजबूरी थी, यही हमारे देश की अस्मिता है, यही हम है और इससे हम मुँह कैसे चुरा सकते है. इसी को बार-बार परिभाषित करना हमारा धर्म है.

“भारतीयता को चूंकि परिभाषित करने का कोई अनिवार्य तत्त्व नहीं इसलिए यह अनन्त प्रक्रिया है”

इस वाक्य ने काणे जी को जीवनभर व्यस्त रखा और भारतीयों के चरित्र को सदैव अस्थिर क्योंकि यदि अनिवार्य तत्त्व नहीं है तो हम है क्या? अनिवार्य तत्त्व का अभाव होना ही भारतीयता है? स्थिरता पौरुष का प्रतीक है और उस तरह रूसी चरित्र, चीनी चरित्र या कोरियाई चरित्र में तो उस पौरुष को चिह्नित किया जा सकता था किन्तु भारतीय चरित्र में नहीं और फिर स्त्रियों के इस उदयकाल में इसके लाभ हो सकते थे, पुरुषों के आधिपत्य काल में यह एक निर्बलता थी, संसार दो ही प्राणियों में विभाजित है पुरुष और नपुंसकों में. स्तालिन को इतना दुष्ट मानते हुए भी प्रो. श्यामला को काणे जी स्तालिन के प्रति आकर्षित पाते थे. प्रो. श्यामला बोले जा रही थीं,

क्या राष्ट्र अपराध नहीं करते? यदि करते है तो उसके विरुद्ध नागरिकों को क्या करना चाहिए? परिजन का अपराध छिपाना अपराध किन्तु राष्ट्र का अपराध छिपाना देशभक्ति है”.

 

(Courtesy : Mohsin Shafi Every Rose as Its Thorn)

श्रीनिवास सुंदर जिसे संसार की सबसे बड़ी सबसे भव्य जेल बनाने के लिए नियुक्त किया गया था, वह प्रो. श्यामला का साँवला, बावन वर्ष का कज़िन था. यह समाचार सबसे पहले सरकार विरोधी एक वेबसाइट HugeNews पर छपा जो कि असल में श्रीनिवास सुंदर की प्रोफ़ाइल के रूप में छापा गया था क्योंकि साढ़े बाईस हज़ार करोड़ रुपए की जेल उन दिनों हमारे देश का सबसे बड़ा समाचार था. श्रीनिवास सुंदर ने सात प्रमुख इमारतें बनाई थीं और सातों विभिन्न आपदा या अन्य कारणों से गिर चुकी थीं. आश्चर्य का विषय था कि वामपन्थी विचार के हामी श्रीनिवास सुंदर को जेल बनाने का कार्य दिया गया था. फिर भी कम्युनिस्ट पूर्वी यूरोपीय देशों की तरह हमारे देश में गिरफ़्तारी अब भी एक कला नहीं बनी थी, हमारे अफ़सर अब भी वह सूक्ष्म क्रूरता विकसित नहीं कर पाए थे जिसकी रूसी या पूर्वी जर्मन उपन्यासकार प्रशंसा करते हैं जैसे जूते पहनते समय किसी को गिरफ़्तार करना जब वह एक जूता पहन चुका हो और दूसरा पहननेवाला हो; या गिरफ़्तार करने से पूर्व अनेक घंटे गिरफ़्तार किए जानेवाले व्यक्ति के घर बिताना और हिंसा की सूक्ष्मतम और कलात्मक प्रविधियों का उपयोग करना, गिरफ़्तारी की वह कला कितने अर्थों में अंग्रेजों द्वारा वर्षों में विकसित की गई शिकार की कला की याद दिलाती है. उपनिवेशों की जनता क्या सचमुच इतनी गँवार थी कि उसका सरकारी तंत्र इतने मूर्खता पूर्ण ढंग से अपने नागरिकों पर अत्याचार करे, बिना बारीक क़ानूनी पेंच निकाले उसके न्यायालय मनमाने ढंग से चाहे जिसको दंड दे चाहे जिसको छोड़े या वे सभी को दंड तो दे किन्तु कारण इतने कलात्मक ढंग से न लिख पाए कि दंड पानेवाला भी उनकी लेखन शैली का सुख लेने को बाध्य हो और अन्याय में सौंदर्य खोज ले. दुखद था कि हमारे देश में शासकीय हिंसा तक में अक्षमता थी और उसकी भरपाई करने के लिए इतनी बड़ी जेल बनाई जा रही थी. देश में जेल जाने जैसी जीवन को आमूलचूल परिवर्तित करनेवाली घटना को सामान्य बनाया जा रहा था और प्रत्येक नागरिक किसी दूसरे नागरिक को जेल भेजना चाहता था. तो क्या वाम विचार होने के कारण श्रीनिवास सुंदर को जेल बनाने के लिए नियुक्त किया गया था क्योंकि हमारे दक्षिणपन्थी विचारक कारावास विज्ञान (देश के कई केंद्रीय विश्वविद्यालय अब इस नवीनतम विषय में ph.d. तक करवा रहे थे) में अब भी वामपन्थ का लोहा मानते थे.

तुम राजधानी आ गए और अब तक मेरे घर नहीं आए” प्रो. श्यामला ने जब अपने कज़िन श्रीनिवास को फ़ोन किया तब वह किसी क्लब के रेस्तराँ में एक गद्देदार कुर्सी में धँसा पास्ता खा रहा था, उसने उत्तर दिया,

तुम्हें परेशानी न हो इसलिए तुम्हारे घर इस बार नहीं रुक रहा. मेरे आने जाने का समय निश्चित नहीं”.

प्रो. श्यामला ने अधीर होते हुए कहा,

कल शाम कमानी ऑडिटॉरीयम में पॉर्चुगल एम्बसी कार्यक्रम करवा रही है जहाँ काणे जी को बंकिमचन्द्र चटर्जी व्याख्यान देना है. वहीं मिलते है, साढ़े चार बजे आना पाँच बजे से व्याख्यान फिर कहीं डिनर के लिए चलेंगे”

कहकर प्रो श्यामला ने फ़ोन रख दिया और शॉवर का हत्था घुमाया, “आह heißes bad” उन्होंने उष्ण जल का स्पर्श पाते ही कहा.

 

पोचमपल्ली साड़ी और ढीले-ढीले जूड़े में अमलतास का गुच्छा, फ़्रांसीसी फ़ोटोग्राफर और इत्रसाज़ सर्ज लुटंस का अंबरी सुल्तान नामक पर्फ़्यूम लगाकर जब प्रो. श्यामला अपनी खटारा मारुति अल्टो से उतरी तो उन्हें पूर्ण विश्वास था कि श्रीनिवास सुंदर आसपास ही कहीं होगा और उन्हें वह तुरंत दिख भी गया. दोनों देर तक आलिंगन में रहे, श्रीनिवास सुंदर के कोपेनहेगन जाने के बाद अब चार वर्ष बाद वे मिल रहे थे,

तो तुमने मॉरीस ग़ूसे’ल (Maurice Roucel, फ़्रांस का प्रसिद्ध इत्र निर्माता) को छोड़ ही दिया”

श्रीनिवास ने कहा. इससे पहले प्रो. श्यामला कुछ कहती, काणे जी ने एक श्लोक कहा जिसका अंग्रेज़ी में उन्होंने अर्थ इस प्रकार बताया,

तुमसे रुष्ट होने पर भी तुम्हारे कण्ठ मैं लगना चाहती थी किन्तु तुम्हें कोई सुख न मिले इसलिए मेरे स्तन पीछे की ओर भागे”

उनका संकेत प्रो श्यामला के विशाल नितम्बों की ओर था; मज़ाक़ उतना अच्छा नहीं था जितना अच्छा श्लोक था, “how erotic” प्रो श्यामला ने कहा.

 

काणेजी के व्याख्यान के दौरान प्रो. श्यामला और श्रीनिवास दोनों एक दूसरे के कानों में देर तक प्रेमियों की तरह कुछ फुसफुसाते रहे और बीच-बीच खिलखिलाते भी रहे. काणे जी का वह व्याख्यान भारतीयता की उनकी अवधारणा में मील का पत्थर साबित हुआ, यह व्याख्यान उनकी पूर्व की समस्त स्थापनाओं का सर्वोत्तम खंडन था. उन्होंने अंग्रेज़ी में अपने व्याख्यान का आरम्भ इन विस्फोटक शब्दों से किया,

मैं नहीं मानता कि हमारे देश अर्थात् पूर्व और पश्चिम में कोई विशेष अंतर है. मेरा मानना है कि हम अब भी उसी वन्य, मिथकीय संसार में जी रहे है जिसमें मूसा पूर्व पश्चिमी समाज जी रहा था”

यह सुनते ही सभा में हलचल मच है,

हमारे पास ऐसा मानने का क्या कारण है कि हम पश्चिम से अलग है और पश्चिम का अविकसित रूप नहीं क्योंकि पश्चिमी मिथक हमारे उन मिथक जैसे ही है जिन्हें हम महान, संसारभर में सर्वोत्तम बतलाते है. कोई सभ्यता यदि किसी दूसरी सभ्यता से स्वयं को महान या श्रेष्ठ बताती है तो वह असभ्यों का घोष मात्र है सभ्यता नहीं. होमर को हम कैसे कृष्ण द्वैपायन व्यास से कमतर आँकते है या पश्चिम की महान दार्शनिक परम्परा को हमारे दर्शन की अपेक्षा किस प्रकार छोटा बता सकते है! और मैं आज इस मंच से यह घोषणा करना चाहता हूँ कि अपने उपनिवेशवादी विजेताओं ने और उससे पूर्व मुस्लिम शासन और आक्रमणों ने ऐसा नहीं बनाया उससे कहीं पहले इसकी पूर्वपीठिका तैयार हो चुकी थी.”

 

कहते-कहते उन्होंने देखा अतिप्रिया आनंदी और डॉक्टर विवेक की बड़ी बेटी यशोधरा के साथ सभागृह के सबसे अंत में आगे आकर बैठी हुई, प्रो. प्रसाद वहाँ उन्हें नहीं दिखे, उन्होंने आगे कहा,

यदि हम स्वयं को निरन्तर पश्चिमी सभ्यता से भिन्न बतलाते भी है तो क्यों हमारी आधुनिकता, उसका विचार, उसका स्वरूप पश्चिम की ओर स्वाभाविक रूप से झुकता है? यथार्थ में भारतवर्ष को भक्तिकाल ने नष्ट कर दिया, इससे पहले यदि हम अपनी परम्परा को देखे तो पाएँगे कि कृषि और पशुपालन करनेवाले वेदों से आगे वेदान्त या दर्शन आता है, उसका खण्डन करनेवाले बुद्ध और महावीर स्वामी आते है फिर आदिशंकराचार्य किन्तु उसके बाद हम भक्तिकाल का उदय होता देखते है, जहाँ स्वर बाहुल्य तो है किन्तु दार्शनिक दृष्टि से देखे तो विनय और करुणा जैसे मूल्यों की प्रतिस्थापना है. यह हमारी शास्त्रीय परम्परा को उसी प्रकार नष्ट करता है जैसे महान रोमन साम्राज्य को ईसाई मूल्यों ने नीत्शे के अनुसार नष्ट किया था और ग्रीक सभ्यता को हाइडेगर के अनुसार रोमनों ने नष्ट किया था.”

 

प्रो. श्यामला और श्रीनिवास सुंदर, काणे जी ने देखा कि सहसा बड़े ध्यान से उन्हें सुन रहे है, प्रो. श्यामला ने कानों में दक्षिण शैली के मंदिर के आकार के जो माणिक्य के कुंडल पहने थे उसके ही मोती धीमे-धीमे लचक रहे है. काणे जी ने आगे कहा,

भारतीय परम्परा किसी भी महान परम्परा की भाँति अपने से पूर्व आई परम्परा का विरोध करते हुए आगे बढ़ी, यह गुरुद्रोहियों की भूमि थी, मत भूलिए याज्ञवल्क्य ने गुरु से किसी बात पर झगड़ा होने पर गुरु प्रदत्त ज्ञान का वमन कर दिया था जिसे उनके गुरु के दूसरे शिष्यों ने तीतर बनकर खा लिया और याज्ञवल्क्य ने नवीन, उज्ज्वल शुक्ल यजुर्वेद का दर्शन दिया. तब क्यों गुरु के तलवे चाटने को, हमेशा माथा झुकाने को भारतीय संस्कृति का पर्याय मान लिया गया! दुर्भाग्य से भारतीय संस्कृति को उसका नीत्शे नहीं मिला सका जो उन्हें बताता कि करुणा एक निर्बलता है, यह अवगुण है न कि गुण”.

 

भले कुर्सियाँ आरामदायक नहीं थी किन्तु बुखारा रेस्तराँ की सिकंदरी रान रसीली थी और उससे भी अच्छी थी दाल बुखारा, “कोई दाल जैसी चीज़ भी ऐसी बना सकता है!” श्रीनिवास सुंदर ने कहा, विदेशों में रह रहकर श्रीनिवास उल्टे शाकाहारी हो गया था, प्रो. श्यामला ने सिकन्दरी रान चूसते हुए कहा, “आज काणे जी नीरद सी चौधरी जैसी बातें कर रहे थे”, तो क्या काणे जी पश्चिम की ओर प्रेरणा के लिए देखते हुए भी अधिक से अधिक चार फुट और पैंतालीस किलो के १०२ वर्षों तक जीनेवाले नीरद सी चौधरी ही बन सकते थे- The Autobiography of an Unknown Indian जैसा आज के समय लगभग अज्ञात प्रायः ग्रंथ लिखनेवाला एक बांग्ला क्लर्क!

“तुम इस रेशमी वेष्टि में बिलकुल संगीतकार टीएम कृष्णा दिखते हो मगर लम्बे और कसरत करनेवाले टीएम कृष्णा”

प्रो. श्यामला ने श्रीनिवास की बायीं जाँघ की ओर संकेत करते हुए कहा और काणे जी ने देखा कि श्रीनिवास दक्षिण भारतीय वेश में आया है. वह प्रो. श्यामला के भाई जैसा दिखता था- श्याम, बलिष्ठ और सुंदर और काणे जी सोचा, ‘स्वतन्त्र मनुष्य से सुंदर कौन हो सकता है, अकुंठ, तेजस्वी जैसे वे दोनों थे.

 

चालीस हज़ार मनुष्यों की भीड़ श्रीनिवास सुंदर को जेल बनाने के कार्य दिए जाने के विरुद्ध राजधानी में लगभग पन्द्रह दिनों तक टिकी रही, उन दिनों सुशिक्षित परिवारों का कम से कम एक सदस्य तो जेलों में बंद था ही, निम्न वर्गीय लोगों से भरे जेल अचानक मध्यवर्गीय और उच्च मध्यवर्गीय लोगों से भर गए थे. सभी को डर था कि केंद्रीय शासन श्रीनिवास सुंदर के नक़्शे पर जेल बनवाकर एक तीर से दो निशाने साधने चाहती है- एक तो जेल गिरने पर वह इन राजनीतिक विरोधियों से मुक्ति पाएगी और दूसरा नागरिकों के समक्ष यह वामपन्थ ढहने का एक मूर्त, सुंदर रूपक होगा. श्रीनिवास सुंदर अपने वामपंथी विचारों के कारण जाने जाते थे और एमनेस्टी इंटर्नैशनल के अत्यंत सक्रिय सदस्य थे.

 

पापा के ऊपर बिल्डिंग गिर जाएगी” डॉक्टर विवेक की छोटी बेटी उत्पला ने बड़ी बहन यशोधरा से कहा, आनंदी वहाँ बैठी तकिए की किनारों की तुरपाई कर रही थी, बार-बार रुई निकल जाती थी. यशोधरा ने इसका जो भी उत्तर दिया हो हम नहीं जानते किन्तु इतना ज्ञात है  कि जेल इमारत अस्मिता भवन के गिरने से पहले डॉक्टर विवेक घर आ गए थे. यह विवाद सम्भवतः कभी नहीं सुलझेगा कि डॉक्टर विवेक जीवित घर लौटे थे या मृत. उत्पला का कहना है कि पापा जीवित आए थे और उसने पापा से बात भी की थी और जब तक वह अंदर मम्मी और यशोधरा को बुलाने गई वह बेहोश हो चुके थे. प्रो. प्रसाद और आनंदी डॉक्टर विवेक को तुरंत अस्पताल ले गए और वहाँ उन्हें मृत घोषित कर दिया गया. यह भी आश्चर्य का विषय था कि जमानत की सुनवाई की तारीख़ जब १७ अक्तूबर थी तो उसे सात दिन पूर्व दस सितम्बर कैसे कर दिया गया और आनंदी और प्रो. प्रसाद ने जो वकील नियुक्त किया था वह उन्हें बिना बताए तारीख़ पर क्यों पहुँच गया? मृत्यु पश्चात जाँच में पता चला कि न्यायमूर्ति मेघवर्णो चट्टोपाध्याय को १७ सितम्बर को कामाख्या पीठ असम में रजस्वला देवी की आराधना के लिए जाना था. 

श्रीनिवास सुंदर की इमारतें क्यों गिरती थी इसका उत्तर किसी के पास नहीं है, प्रो. श्यामला ने अवश्य अपने कज़िन पर अंग्रेज़ी में एक पुस्तक लिखी, “A Building To Die For”. चूँकि डॉक्टर विवेक का आरोप सिद्ध होने से पूर्व ही देहांत हो गया था इसलिए उनकी फ़ैमिली पेंशन आनंदी को मिलने लगी. आनंदी को उसके ससुर अपने साथ सासाराम ले गए क्योंकि डॉक्टर विवेक के दो भाई और एक बहन अभी पढ़ ही रहे थे और डॉक्टर विवेक की पेंशन उसमें बहुत काम आनेवाली थी. उनके छोटे भाई ने जेएनयू में हिंदी में शोध करने का निश्चय किया था. वे चीनी दूतावास के लिए जासूसी करते थे या नहीं, या उन्होंने देश के संवेदनशील दस्तावेज़ों का चीनी में अनुवाद किया इसका उत्तर कभी नहीं मिला. जहाँ तक मुझे लगता है कि चीनी खुद भी अंग्रेज़ी दस्तावेज का चीनी में अनुवाद करने में तब समर्थ थे.

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अम्बर पाण्डेय
कवि-कथाकार
‘कोलाहल की कविताएं’ के लिए २०१८ का अमर उजाला थाप’ सम्मान. 
ammberpandey@gmail.com


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  1. नए क्षितिज उद्घाटित करती कहानी लेकिन इसमें भंगिमा ज्यादा है, कहानी कम है। शायद कहानीकार ने भविष्य के इतिहास को ध्यान में रखकर इसे लिखा है कि भविष्य में लोग इसे कैसे देखेंगे।

    इसके कारण कहानीकार कहानी में संलग्न नहीं हो पाता है।

    समलोचन पर ही प्रकाशित उनकी पिछली कहानियों से कमजोर।

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  2. शिव किशोर तिवारी8 दिस॰ 2020, 2:18:00 pm

    यह हिन्दी की स्मरणीय राजनीतिक कहानी बनेगी। इतनी महीन, इतनी परतों वाली, इतनी सूक्ष्मदर्शी, इतना सधा पदचार। और कोई होता तो फिसलने की दर्जन भर जगहें हैं; मैंने हर बार सांस रोककर इंततार किया कि इस जगह से कथाकार निकला या फिसल गया। लेकिन अंत तक ऐसी शब्द-साधना !
    कहानी का अन्त सररीयल की झाईं लिये हुए संयम और व्यंजना का सायुज्य प्रदर्शित करता है। ऐसी कहानी का अंत सँभालना आसान नहीं रहा होगा।
    अम्बर पांडेय और समालोचन का अभिनंदन करता हूँ ।

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  3. सीमा गुप्ता8 दिस॰ 2020, 2:41:00 pm

    सच कहूँ तो मैं अभी भी कहानी में उलझी हुई हूँ, शायद मुझे बार बार पढ़नी होगी.... थोड़ी समझ की कठिनाई महसूस हुई मुझे यह मेरी समस्या है कहानी की नहीं... कहानी अपने आप में अद्भुत है.. कहानी है ऐसा मुझे नहीं लगा एक सच है जो कहानी के अलग अलग पात्र अपने अपने अनुसार उजागर कर रहे हैं... भाषाओं को लेकर अम्बर बहुत साफ स्पष्ट बात करते हैं और विद्वान हैं तो जो पात्र हैं कहीं न कहीं ठीक हैं..... एक एक पात्र बहुत महत्वपूर्ण है.... बहुत कुछ कहने के लिए है मगर मैं अभी इसे पढ़ना चाहूंगी और भी अच्छे से.... अंत बेहद कमाल है अम्बर सफल रहे पाठक को उलझाने, सुलझाने में...., मेरे लिए यह कहानी अम्बर की अन्य कहानियों की तरह अलग है... धन्यवाद अम्बर

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  4. आशुतोष दुबे8 दिस॰ 2020, 6:04:00 pm

    मुझे अक्सर कहानी की लंबाई से शिकायत होती है पर इस कहानी में मितव्ययिता कुछ अधिक ही है। अम्बर कहानी के व्याकरण को हमेशा कुछ बदल देते हैं और यहाँ वह कुछ , बहुत कुछ हो गया है। कुछ स्ट्रोक्स में ऐसे चरित्र, नहीं उनके संकेत हैं , जिनके लिए अध्याय भी कम होता। दो भाषण हैं, एक आरोप, फिर गिरफ़्तारी और मौत, बीच में कांजीवरम, पोचमपल्ली, जूड़े में फँसी पेंसिल और अमलतास, अप्रत्यक्ष आसक्ति और राजनीतिक अवस्थितियाँ, बहसें : और कहीं ड्रामा नहीं, कहीं जायकेदार भाषा का उकसाव नहीं, बल्कि उससे एक सायास दूरी, एक रिपोर्टेड नैरेशन, एक बिल्कुल न्यूट्रल आवाज़ में कही गई कहानी। यह कहानी के अभ्यस्त आस्वाद की अपेक्षा को फ्रस्ट्रेट कर सकती है। यहाँ क्लोजअप या तो नहीं हैं और अगर हैं तो बहुत तेज़ी से डिजॉल्व होते हैं। ट्रॉली पर रखा कैमरा है, जो किसी के पास और किसी से दूर एक साथ जाता है कि फिर कभी भी पास आ जाए। इसका निरपेक्ष आख्याता-स्वर, इसकी सोद्देश्य आवेगहीनता , इसका पुरानी और फिर फिर नई बहसों को सूत्र रूप में छेड़ना और छोड़ना : इसे एक अजीब और अजनबी कहानी बनाता है। अम्बर ने अपनी पूर्ववर्ती और समकालीन पीढी के रचनाकारों के लिए जो मुश्किलें खड़ी की हैं, उनमें से यह एक है।

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  5. संदीप नाईक8 दिस॰ 2020, 9:36:00 pm

    मुझे नहीं पता की कहानी कितनी सरल या कठिन होना चाहिए पर यदि किसी कहानी को पढ़ने के लिए मशक्कत करना पड़े, ढ़ेरों सन्दर्भ याद रखना पड़े और खूब सारी घटनाएं सिलसिलेवार याद रखकर एक क्रोनोलॉजी मे विचारधारा, सामान्य ज्ञान की भयानक समझ, सरकार, दुनिया का इतिहास, भाषाओं की पुख्ता समझ , वास्तु और अखबारों की न्यूज को संयोजित कर दिल दिमाग़ पर ज़ोर देते हुए कुछ पढ़ना पड़े वो भी रंजकता के नाम पर तो यह सिर्फ एक तरह का बुद्धि विलास ही होगा

    कोरोना और लॉक डाउन ने लेखकों के मन मस्तिष्क पर गहरा असर डाला है - उन्होंने ना मात्र सैंकड़ों लाइव किये बल्कि शायद पढ़ा भी बहुत और इस बहुत में सब कुछ आ गया क्योंकि विकल्प और चुनने की आज़ादी नही थी

    Ammber Pandey की समालोचन में आई आज की कहानी " अस्मिता भवन "- ना मात्र क्लिष्ट है बल्कि आम पाठक को बहुत सारा स्वाध्याय करने की मांग करती है और ज़ाहिर है हिन्दी का पाठक ना इतना बौद्धिक है और ना स्वाध्याय करेगा तो फिर सवाल यह है कि लेखक ने क्यों इस तरह की कहानी लिखी या समालोचन ने भी छापी - निश्चित रूप से यह कहानी और अम्बर की लगभग पिछली सभी कहानियाँ एक विशेष वर्ग के पाठकों जिसे आप इलीट कह लें या हिन्दी के प्राध्यापक या रज़ा फाउंडेशन जैसे संगठन से जुड़े लेखक गैंग या अभिजात्य वर्ग को विशेष लक्ष्य करके लिखी गई है इसलिये ना वो आम जनमानस में चर्चा का बिंदु बन पाई और ना कही बहुत चर्चा में रही , मुझे लगता है और गम्भीरता से कहने में गुरेज़ भी नही कि हिन्दी की प्रचलित पत्रिकाएँ या अखबार इन कहानियों को प्रकाशित ना भी करें

    अम्बर की मेधा और लेखनी पर शक नही पर जिस तरह का बौद्धिक आतंक और देशी विदेशी सन्दर्भ देकर वो अपनी बुद्धिमत्ता का लोहा मनवाना चाहते है और सामान्य पाठक को डराते है वह मेरे लिए चिंता का विषय है

    उनके पाठकों ने ही सम्भवतः अम्बर को इस तरह का आतंक पैदा करने के लिए प्रशिक्षित किया है - यह कहानी बेहद जटिल राजनीति, दक्षिण पंथी सरकार, साहित्य, विवि के प्राध्यापकों, उनके उबाऊ और सन्दर्भहीन विषयों, व्याख्यानों की पोल ही नही खोलती बल्कि सरकार का जे एन यू से लेकर बुद्धिजीवी एक्टिविस्ट्स का जमीनी आंदोलन, गिरफ़्तारी और भारतीय संविधान के बरक्स स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की पोल भी खोलती है - इस कहानी में भारतीय पतनशील राजनीति के आलोक में विवि के विभिन्न विदेशी भाषा शिक्षण संस्थानों और विभागों की दास्ताँ है जो रोचक होने के साथ भाषा बनाम जाति, संस्कृति बनाम राजनीति की पुरज़ोर तरीके से पैरवी भी करती है और पोलपट्टी भी खोलती है ;
    नए संसद भवन के मुद्दों को लेकर सुप्रीम कोर्ट की ताज़ा टिप्पणी और इसका कहानी में होना एक सुखद संयोग ही कहा जायेगा, लेखक दृष्टा होता है - यह कहना अतिशयोक्ति नही होगा

    अम्बर असल में अब वर्ग विशेष के लेखक है और उनके लिए बहुत मुश्किल है कि वे उस सरज़मीन पर आये जहाँ अभी भी साहित्य सिर्फ पढ़ने के लिए पढ़ा जाता है , यह मेरी मांग नही कि वे सरल और सन्दर्भहीन लिखें पर यह उम्मीद ना करें कि मुझ जैसे अपढ़, कुपढ़ या अनपढ़ उन्हें पढ़कर टिप्पणी करें या सार्थक लिखें उनके रचना संसार के बारे में

    असल में मैं पिछली दो तीन कहानियों को पोस्ट कोविड युग में रचे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में देखता हूँ और नितांत कठिन समय मे से गुजरते हुए, मौतों के तांडव, डिप्रेशन और फ्रस्ट्रेटेड बिंबों के सम्मुख अपने आपको इस तरह के भारी भरकम साहित्य के पाठक होने से इंकार भी करता हूँ और खुद को मुआफ़ भी कर देता हूँ कि मेरे लिए Struggle for Existence and Survival of the Fittest बड़े मुद्दे है बजाय लाइव देखने, बौद्धिक जुगाली और समझने के

    बहरहाल, अम्बर को हार्दिक बधाई और मंगल कामनाएं कि वो लेखन के सर्वोच्च मक़ाम पर पहुंचे और Arun Dev जी को भी बधाई कि वे समालोचन पर नित्य नए प्रयोग नवाचार करते है और करते रहें, दस साल की यात्रा के बाद दूसरे दशक में जाहिर है समालोचन की अपनी समझ और दृष्टि विकसित हुई है

    सबकी जै जै

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  6. नरेश गोस्वामी8 दिस॰ 2020, 9:41:00 pm

    अम्बर ने इस कहानी में 'हद पाड़ दी' ( पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बोली में जब कोई कमाल का काम कर देता है तो इसी अभिव्यक्ति का इस्तेमाल किया जाता है)।
    अम्बर ने राजनीति के मौजूदा विपर्यय और उसकी गुत्थियों की बारीक पड़ताल की है। ज़्यादातर मामलों में सत्ता से असहमत रहने के बावजूद किसी एक नुक़्ते के कारण उसे सहन करते उर्फ़ उसका समर्थन करते जाना― अम्बर ने मध्यवर्ग की नये मनोरोग की ग़ज़ब पहचान की है। यही नहीं, उसने यथार्थ को केवल सामने दिखते दृश्य में देखते रहने के मर्ज़ की भी पकड़ की है। हम जिस जगह पहुंच गए हैं, उस हॉरर का तिया-पांचा करती कहानी।

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  7. शिव किशोर तिवारी8 दिस॰ 2020, 9:42:00 pm

    कहानी के भीतर जो तनाव दिखाई देते हैं वे व्यक्तिगत नहीं हैं, राजनीतिक हैं । भारत की वर्तमान राजनीति के चित्र लगभग एलिगाॅरिक तरीके से प्रस्तुत किये गये हैं । स्वयं तोकार्चुक भी एक एनैक्रनिज़म हैं - एक मृत दर्शन की ध्वजवाही। उनके भाषण में कोई गहराई नहीं है। प्रोफेसरों की आपसी बातचीत कभी कम्यूनिकेशन का रूप नहीं लेती, न उनमें कोई गहराई है। मार्क्सवादी आलोचना लिखने वाले प्रोफेसर साहब मुसलमानों को नियंत्रण में रखना जरूरी समझते हैं ।
    इस विचित्र अवास्तव-से वातावरण में अंधी और मूर्ख राजसत्ता का प्रवेश होता है। एक प्रोफेसर को सत्ता के अज्ञान का दंड भोगना पड़ता है।
    मैं समझता हूँ कि चरित्रों और उनके पारस्परिक संबंधों का विकास इस कहानी में निष्प्रयोजन होता, जैसा एलिगरी-जैसी रचना में होता ही है।

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  8. दयाशंकर शरण9 दिस॰ 2020, 6:07:00 am

    अम्बर पाण्डेय-अस्मिता भवन,कहानी पढ़ी। अम्बर की कहानियों में जीवन का यथार्थ एक मिथकीय संसार को रचते हुए हमें इतिहास और सभ्यता के कई उबड़-खाबड़ रास्तों से लिए चलता है। निस्संदेह अब हिन्दी कहानी अपनी संवेदना का विस्तार कई काल-खण्डों और अमानवीय यातनाओं के नये-नये रूपों को चिन्हित कर पाठक को एक जादुई यथार्थ के अनुभव लोक का हिस्सा बना देती है। यह इस बात का द्योतक है कि कहानी अपनी प्रकृति निरंतर बदल रही है। उदय प्रकाश की कहानियों से हीं कहानी का चेहरा बदलने लगा था,ऐसा मेरा मानना है। अम्बर की कहानियों में यथार्थ के कई रूप हैं जो आपस में घुल-मिलकर जीवन के कैनवास पर बेतरतीब बिखरे हुए दीखते हैं। ये कहानियाँ संवेदित करने के बजाय हमें एक गहरे विस्मय और बेचारगी में डालती हैं। यथार्थ बिना चुभे यथास्थितिवादी होने की विडंबना को झेलते हुए हमें एक गहरे अपराधबोध से भर देता है।

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  9. वसुंधरा व्यास9 दिस॰ 2020, 6:09:00 am

    अम्बर पाण्डेय ने अपनी पिछली लिखी सभी कहानियों से ये सिद्ध कर दिया है कि वे जितने संवेदनशील और श्रेष्ठ कवि हैं उतने ही श्रेष्ठ कथाकार भी हैं
    निकट भविष्य में निश्चित रूप से उन्हें तमाम श्रेष्ठ साहित्यिक पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जाएगा।
    प्रस्तुत कहानी में भी उन्होंने पात्रों का सुन्दर सृजन चमत्कृत करने वाले भाषा शिल्प में किया है ।
    वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में होती तमाम उठा पटक और बुद्धिजीवियों के बीच परस्पर होने वाले संवाद, सोच-विचार और सम्बन्ध को अपनी गल्प- गोदावरी में खूब रगड़ रगड़ के धोया है।��
    आनन्द आ गया ����
    बहुत बहुत बधाई अम्बर����
    बहुत बहुत शुक्रिया समालोचन ����

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  10. अफ़सोस कि Ammber जैसे सशक्त लेखक की यह रचना प्रभाव नहीं छोड़ पाती। हो सकता है यह इतनी गहरी हो कि मेरी समझ से परे हो। लेकिन कहानी अनुवादित सी लगती है। पात्र बहुत स्टीरियोटाईप्ड से हैं। जर्मन, फ़्रैंच और अंग्रेज़ी का आतंक दिखाई पड़ता है। किसी ने सही कहा है - काल व्यतिरेक(anachronism) कई जगह दिखाई पड़ता है। अम्बर की लेखनी में कमाल तो है, शिल्प पर भी उनकी गहरी पकड़ है। इसके बावजूद इया कहानी में एक उतावली और अधूरा पन दिखाई देता है। एक कोलाज की तरह इसमें बहुत से किरदार मौजूद तो हैं पर ऑर्गेनिक यूनिटी गायब है। अभी एक बार फ़िर से पढूंगा।

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  11. अम्बर पांडेय की किसी भी रचना को मैं समुदाय की स्वीकार्यता की लिप्सा में रंजित नहीं पाती। वे पिछला सब तोड़ते - फोड़ते आगे आते हैं। इसीलिए उनकी किसी रचना के पहले पाठ के दौरान लालित्यपूर्ण शिल्प और कथ्य की अभ्यस्त हमारी सोच सहसा विमुख होती है कि,'यह क्या?'. स्टीव जॉब्स ने कहा था मैं इस पूरे ब्रह्मांड में झंकार उत्पन्न करना चाहता हूँ। नवाचार भय व संकोच से उत्पन्न नहीं हो सकते। वे तिरस्कार का खतरा साथ लिए आते हैं लेकिन अम्बर विवश हैं, वे फौरी स्वीकार्यता के लिए नहीं लिख सकते, वे साधारण नहीं लिख सकते, वे अपने आपको खपा कर ऐसा लिखना चाहते हैं जो 21वीं सदी का अपना लेखन हो। यह रास्ता बनाना है। उनकी रचनाएँ अपने पाठक बना रही हैं और यह होकर ही रहेगा क्योंकि वे अपनी ही लोकप्रिय रचनाओं के कथ्य व शिल्प को दोहराते नहीं हैं । हर रचना पहली रचना का अतिक्रमण करती जाती है। प्रस्तुत कहानी 'अस्मिता भवन' भी ऐसी ही रचना है जिसमें, वर्तमान है , इस समय की पैंतरेबाज़ियाँ हैं, सामाजिक तानेबाने में जातिवाद और ख़ेमेबाज़ियों की बुनावट है, राजनीति के सभी पक्ष उपस्थित हैं, अंतर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य है। इस कहानी में एक संस्मरण सी जीवंतता और सजीवता है। मुझे अम्बर की अनेक कहानियों की प्रतीक्षा है। मैं देखना चाहती हूँ कि हमारा एक दुस्साहसी साथी अपनी कलम से क्या तोड़ना, क्या- क्या नया रचना चाहता है।

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  12. असीमा विजिगीषा13 दिस॰ 2020, 11:50:00 am

    किसके लिए लिखी गई है, रचना की भाषा-भंगिमा उसी से तय होती है। जटिलताओं को जटिलता से व्यक्त कर जो लिखा गया है, उसका लक्षित पाठक वर्ग पहले से ही बेहद समझदार है। जिनलोगों को यह प्रपंच समझने की जरूरत है, लेखक उनतक नहीं पहुँच पाएगा, यह समझने में समझदार लेखक स्वयं सक्षम होगा। तो यह कहानी किस उद्देश्य से लिखी गई है? विद्वान होना बड़ी बात है लेकिन केवल विद्वता से साहित्य का काम पूरा नहीं होता।

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