साल का सातवाँ गहन : अम्बर पाण्डेय

photo by Ashraful Arefin

अम्बर पाण्डेय की कहानियां इधर आप पढ़ रहें हैं. अम्बर अपने को तरह-तरह से अनेक विधाओं में अभिव्यक्त कर रहें हैं. यह कहानी उनकी पिछली कहानियों के बनिस्बत आकार में छोटी है, भाषा और शिल्प में कसावट है. दृश्यों से होती हुई यह कहानी अजब उदास धूसर रंग तक पहुंचती है. 


साल का सातवाँ गहन                                 
अम्बर पाण्डेय


क पतली सी गली से मैं जाता था. गली उतनी पतली न थी जितनी चौड़ी उसके दोनों तरफ़ नालियाँ थी जिसकी वजह से चलने को जगह बहुत कम बचती थी. कई बार तो यों होता कि साइकिल आ जाती और नाली में ही एक पाँव रखकर खड़ा होना पड़ता. गली में अक्सर अँधेरा रहता था और ऊपर कपड़े सूखते रहते. गीले कपड़ों से कन्धे और सर भीगना रोज़मर्रा की बात थी. आसमान दर्ज़ी की दुकान पर बची कतरनों जितना गली से दिखाई देता था. हवा घुटी हुई रहती और कुत्ते सोए रहते. ऐसा लगता था कुत्ते उस गली में बस सोने आते थे. कभी कभी गाय आकर बैठ जाती और गली में आना जाना बंद हो जाता. हालाँकि ज़्यादा होता न था मगर कई बार एक गधा आकर गली में बैठा रहता और कई कई दिनों तक न जाता. पहलेपहल लोगों ने उसे डंडे लगाकर भगाना चाहा और जब गधा नहीं गया तो औरतें और बच्चे उसे घास डालने लगे. ऐसे समय गधे के ऊपर चढ़कर लोग निकलते और गधे को कोई फ़र्क़ न पड़ता. वह सोया रहता था.

उस गली से जाने की दो वजहें थी. पहली ये कि रास्ते में भीड़ न रहती थी. गाड़ियों के धुआँ नहीं लगता था और दूसरी जोशीजी का घर रास्ते में पड़ता. जोशीजी उस समय सियागंज में कागदमल एण्ड संस पर मुनीमी करते रहते और घर सूना पड़ा रहता मगर फिर भी मुझे वहाँ से निकलना अच्छा लगता. उनका घर बहुत पुराना था. पत्थर और लकड़ी से बना हुआ. लोहे का बड़ा दरवाजा हमेशा खुला पड़ा रहता और अंदर आँगन में रखी साइकिलें और स्कूटर दिखाई देते. आँगन कच्चा था और कुछेक झाड़ियाँ और बेलें  वहाँ लगी थी. अंदर लकड़ी के खम्बों पर उनका घर टिका हुआ था. पाखाना कोने में था. घुसते ही सामने रसोई पड़ती. जो बहुत बड़ी थी. दीवारें धुएँ और तेल से काली पड़ गई थी. जहाँ जोशीजी की बीवी सुलोचनाजी हमेशा बैठी रहती. वह हमेशा चाय छानती हुई मुझे दिखती थी.  रसोई का फ़र्श लाल था और गैस का चूल्हा फ़र्श पर ही एक पटिए पर रखा हुआ था. पटिया ईंटों पर टिकाया गया था. पूरी रसोई में अलग अलग रंगों के ढेरों डिब्बे और पूड़े पड़े रहते थे. रसोई से दूसरा कमरा भंडारे का था जहाँ पीतल के बड़े बड़े बर्तन, ऊँची कोठियाँ और ताम्बे के घड़ें, लोहे की बालटियाँ, गायभैंस बाँधने की साँकलें, रस्सियाँ, खुला मूँज, खलबत्ता, सिलबट्टा, खरल वग़ैरह रखे हुए थे.

भंडारे से लगकर मगर अलग पनेड़ी थी. जहाँ मटकों और नाँदों में, दो चार ताम्बे के घड़ों में और बीसेक बालटियों में पानी भरा रहता था. वहाँ की बत्ती हमेशा ख़राब रहती थी बल्कि भंडारे की बत्ती भी बंद रहती. जब भी रात को मर्तबानों से अचार या मुरब्बा निकालना होता तो मोमबत्ती ले जाना पड़ती. ऐसे समय बहुत अफ़रातफ़री मचती और कुछ की कुछ चीज़ निकल आती. कई बार दरवाजे के पीछे रखी नमक की हंडिया फूट जाती. वह हंडिया चीनी मिट्टी की लाई जाती थी और अगर महीने के आख़ीर में टूटती तो जोशीजी कुम्हार से यहाँ से छोटी गगरी और ऊपर ढाँकने को दीया ले आते. खड़ा नमक कूटने का काम जोशी की बेटी अन्नपूर्णा करती थी. खलबत्ते में देर तक कुछ सोचते हुए वह नमक कूटती रहती थी. वह पूड़ेवाला नमक क्यों नहीं लाते ऐसा मैंने कभी उनके घर में किसी से नहीं पूछा. मुझे लगता पूछने पर कहीं वे लोग बुरा न मान बैठे. कई बार मैं नमक की डली गगरी से उठा लेता और लौटते समय संतरे की गोली की तरह चूसता रहता. थोड़ी देर बाद थूक देता और कुत्ता दौड़ा दौड़ा आता. सूंघकर और थोड़ा सा चाटकर वह भी नमक की डली छोड़ जाता.

जोशीजी के घर में पनेड़ी से एक और कमरा खुलता था जहाँ उनके घर के भगवान रखे हुए थे. वहाँ की बत्ती सही काम करती थी और खिड़की न होने के कारण दिन में भी बल्ब जलाकर पूजा पाठ करना पड़ता था. वहाँ तरह तरह की रंगीन तस्वीरें थी जो लोग अलग अलग जगहों से तीर्थयात्रा के दौरान लाए थे. मूर्तियाँ एक लकड़ी की बड़ी अलमारी में जमाई गई थी जिसके पल्ले भगवान को साँस मिलती रहे इसका ख़्याल करके हमेशा खुले रखे जाते थे. वहाँ एक दीया भी सुबह शाम जलता था. कभी कभी जोशीजी का बेटा जगदीश अगरबत्ती जला देता. ऐसे समय सभी को बहुत छींकें आने लगती और पनेड़ी, भंडारे, पूजाघर में जाना मुश्किल हो जाता. सुलोचना जी जगदीश की बहुत डाँटती मगर वह हँसता रहता.

जगदीश के मरने के बाद मैंने जोशीजी के घर जाना शुरू किया था और जगदीश के अगरबत्ती जलाने की बात उनके घर में सुनी थी. जगदीश की तस्वीर पूजाघर में मैंने देखी थी और अगरबत्ती जलानेवाली घटना को तस्वीर के आदमी पर फिट करके मैंने कई बार देखा था और अब ऐसा लगता जैसे मेरे सामने यह बात घटी है. जगदीश बारहवीं पास करने के बाद और बीए में दाख़िला लेने से पहले ही मर गया था. वह कैसे मर गया यह बात मुझे नहीं पता थी और न मैंने कभी जानने की कोशिश की. मुझे बस इतना पता था कि जगदीश जो सुलोचना जी और जोशीजी का बड़ा बेटा था वह मर चुका था. उनके दो बेटे और थे उजागर और धर्मवीर. उजागर का नाम उसके परदादा पण्डित उजागरराम जोशी के नाम पर रखा गया था और धर्मवीर जोशीजी के प्रिय लेखक धर्मवीर भारती के नाम पर. धर्मवीर इंजीनियर बनने की पढ़ाई कर रहा था और उजागर हिंदी साहित्य में एमए.

धर्मवीर और जोशीजी अक्सर सूरज का सातवाँ घोड़ा की भाषा और कथानक की तारीफ़ करते थे. बहुत पुरानी, फटी हुई सूरज का सातवाँ घोड़ा की पतली सी किताब धर्मवीर हमेशा लेकर बैठ रहता था. गुनाहों का देवता नाम की कोई किताब की दोनों बहुत बुराई करते थे. वह किसी खूनी की कहानी थी जिसे अपने किए पर कोई पछतावा न था. यह बात उस किताब के नाम से मेरे दिमाग़ में बैठ गई थी. मैंने अपने तब तक के जीवन में कोई किताब नहीं पढ़ी थी और न बाद में पढ़ी. धर्मवीर को किताब इसलिए भी अच्छी लगती थी क्योंकि उस किताब को लिखनेवाले का नाम और उसका नाम एक था. वह कभी ऐसा कहता नहीं था मगर मुझे पता था कि ऐसा ही होगा क्योंकि अगर मेरे नाम का कोई लेखक होता तो मुझे भी वह किताब बहुत अच्छी लगती.

गली में भूलेभटके ठेलेवाला आ जाता तो गली बिलकुल बंद हो जाती. अक्सर ठेले का पहिया नाली में अटक जाता और माल होने की वजह से भारी ठेला फँसा रहता. ऊँचा नीचा करने पर माल गिरने का अंदेशा होता था इसलिए पहले धीरे धीरे माल उतारा जाता और फिर ठेला नाली से निकाला जाता. इसमें बहुत समय लगता और लोग देखने बाहर आ जाते. देर तक खड़े खड़े बाहर ठेलेवाले की मशक़्क़त देखते रहते. घर से चाय या खाना की बुलाहट होने पर ही अंदर जाते. शाम होते होते ठेलनेवाला ठेला निकालकर वापस सामान ठेले पर जमा लेता मगर उसका दिन ख़राब हो जाता, गाहकी बिगड़ चुकी होती. ऐसे में वह आसपास लोगों के मुँह देखता कि कोई पानी पिला दे. कोई न पिलाता तो अपनी प्लास्टिक की बोतल वह खोजने लगता जो अक्सर नहीं मिलती या ख़ाली मिलती.

जोशीजी के घर में जाने के लिए भी नाली पार करना पड़ती थी. नाली में गंदा पानी बहता रहता और गेंदे के फूल पड़े रहते. कभी कभी नाली में रिबन या किसी की तस्वीर भी तैरती होती. जोशी जी कई बार लोहामंडी से फरशियाँ लाकर घर के सामने नाली को ढाँकने की कोशिश करते ताकि उनके घर की आवक गंदी न लगे और स्कूटर अंदर करने में मुश्किल न हो. फरशियाँ दो चार दिन में टूट जाती या कोई उन्हें ले जाता. आश्चर्य की बात थी कि कोई ऐसा नहीं कहता कि फ़र्शियाँ चोरी हो गई. उस गली में कुछ भी चोरी नहीं होता था. उसके बाद जोशीजी लकड़ी का पटिया नाली पर रखकर स्कूटर निकालते और वापस लकड़ी का पटिया अंदर रखकर आते.
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गली में पत्थर लगे थे. जो समय बीतने के साथ चिकने हो गए थे और आते जाते कई लोग फिसल जाते थे. ज़्यादातर बाहर के लोग फिसलते थे. गली के लोगों को वहाँ चलने की आदत थी. कई बार नई नई ब्याहकर गई गली की लड़कियाँ जब लौटती तो फिसल जाती ऐसे में दूसरी औरतें कहती कि इतनी जल्दी गली के चिकने पत्थरों पर चलने की आदत छूट गई. ऐसी लड़कियों के नए नए बने पति भी फिसल जाते मगर तब गली भर के लोग दौड़े आते. उन्हें उठाकर अदब से भीतर ले जाते और गिरने की घटना पर न हँसने की कोशिश करते. बाद में बहुत बार गली के चिकने पत्थरों को निकालकर सीमेंट की सड़क बनाने की बात भी चलती. चिकने पत्थर और चिकने होकर अब भी वैसे के वैसे है. बरसात में चलना मुश्किल बहुत मुश्किल हो जाता और इसलिए मैं उस गली से गुजरना और ज़्यादा पसंद करता. मुझे लगता मैं अब फिसला अब फिसला मगर कभी न फिसलता. इसकी वजह थी मैं कुछ भी सोचते हुए नहीं चलता था. मेरे पास सोचने के लिए कोई वजह न थी. मेरे पास सोचने के लिए कोई चीज़ ही न थी. मैं जानबूझकर आसपास चीजें देखकर उनके बारे में सोचने की कोशिश करता था. उनके पीछे क्या हुआ होगा यह सोचता. यही मेरा शग़ल था वरना मैं बेकार था. मेरे जीवन में कुछ नहीं था.

मेरे सब हमउम्र चाहे मेरे रिश्ते के भाई बहन हो या दोस्त दूसरे बड़े शहरों में नौकरी के लिए चले गए थे. कई विदेश में नौकरियाँ कर रहे थे. मेरी पढ़ाई बीए के दूसरे साल ही बंद हो गई थी.  फ़िलासफ़ी, मनोविज्ञान और हिंदी साहित्य मेरे विषय थे. फिर पढ़ने से बैराग हो गया. कॉलेज उसके बाद जाना बंद कर दिया. वहाँ मेरे कोई दोस्त भी नहीं थे. मैं नानी के पास रहता था. मेरे माँ-बाप ने मुझे अपने मामा को गोद दे दिया था. मामा के अपने बच्चे होने के बाद मामी उन्हें लेकर पहले उसी शहर में अलग हुई फिर दूसरे शहर चली गई. मैं और मेरी विधवा नानी रह गए. हम नाना की पेंशन पर गुज़ारा करते थे. नानी को अक्सर बहुत कम दिखता था. दिन में ही वह खाना बना लेती और बिस्तर पर जा पड़ती.

सावन के सोमवारों को हम दोनों व्रत रखते थे और परचून की दुकान से लाकर राजगीरे के लड्डू खा लेते. गली पार परचून की दुकान थी. जहाँ राजगीरे के लड्डू मिलते थे. लड्डू बहुत हल्के और फीके होते थे. इन्हें खाकर पानी पी लो तो पेट में जाकर वह फूल जाते और भूख नहीं लगती थी. परचून की दुकान में काँच के सैंकड़ों मर्तबान थे. जिसमें रंगबिरंगी गोलियाँ, चूरन, हक़ीमी नुस्ख़ों के पाउडर, हिना के पूड़े, दालें, सिगरेट रखे रहते थे. दुकान का फ़र्श चीकट है ऐसा देखने पर लगता था हालाँकि कभी मैंने अंदर जाकर महसूस नहीं दिया. काग़ज़ की रिबन के गोले बिक्री के लिए दुकान के कोने पर लटके रहते थे. दुकान में अजीब सी गन्ध भरी रहती. हींग और अजवायन की ख़ुशबू जो तम्बाकू से मिलकर नाक के रास्ते माथे पर चढ़ जाती और लौटते समय चक्कर से आते मगर अच्छा लगता.

दुकान में रोशनी बहुत कम रहती मगर उतनी तो रहती कि काम चल जाता. दुकान में गाहक बहुत कम आते. जो आते वे अक्सर बूढ़े होते. उन्हें चढ़ने में परेशान होती थी क्योंकि दुकान सड़क से बहुत ऊँची थी. दुकान पर चढ़ने के लिए एक चट्टान वहाँ रखी हुई थी. ऊपर किसी ने एक मजबूत रस्सा लटका दिया था जिसे पकड़कर दुकान पर चढ़ना आसान हो जाता था. दुकान का फ़र्श चीकट तो था ही बल्कि पुराने जमाने की तरह सफ़ेद और काले संगमरमर से बना था. सफ़ेद हिस्सें तेल के पीपें रख रखकर धुंधले पड़ गए थे. काला हिस्सा सलेटी हो गया था. तेल के पीपे एक के ऊपर एक रखे रहते थे और तेल ख़रीदने आए गाहक को दुकानदार की तेल निकालने में मदद करना पड़ती थी. तजुर्बा न होने के कारण गाहक तेल गिरा देते थे मगर दुकानदार कुछ नहीं कहता था. वह बस एक कपड़े से तेल जहाँ गिरा हो उस जगह को थोड़ा रगड़ देता था. शीशी में तेल भरकर वह चार बार हाथ पोंछकर रुपया लेता और अंदर चला जाता था. देर बाद अंदर से लौटता तब भी गाहक वही खड़ा मिलता. दुकानदार समझ जाता कि उसने बचे पैसे नहीं दिए. वह मुस्कुराकर पैसे लौटाता और फिर अंदर चला जाता. गाहक घर लौट जाता. दुकानदार ज़्यादातर अंदर ही रहता. गाहक आने पर बाहर आता था.  

उस साल सालभर में सात गहन पड़े थे. उस साल सावन भी दो पड़े और सावन में सोमवार नौ. नौ बार मुझे राजगीरे की लड्डू लेने गली पार करके परचून की दुकान पर जाना पड़ा. उस साल मेरे पास सोचने के लिए अपनी नानी का मरना था. वह बहुत बूढ़ी हो गई थी और ऐसा लगता था कि कभी भी मर जाएँगी. वह बात बहुत करने लगी थी और पानी बहुत पीती थी. खाना जैसे तैसे मेरे लिए बना देती थी मगर ख़ुद बहुत कम खाती थी. एक दो निवाले खाकर बर्तन माँजने बैठ जाती. उन्हें मोरी में बैठने में बहुत तकलीफ़ होती थी. कई बार मैं बर्तन माँजता मगर वह मना करती. वह कहती कि मुझे नौकरी करना है. मेरी शादी होगी. ऐसे में बर्तन माँजना मुझपर बिलकुल अच्छा नहीं लगता. उन्हें नहीं पता था मेरी उमर बयालीस साल हो गई थी. मेरे बाल खिचड़ी हो गए थे. वह मुझे डुग्गू डुग्गू कहकर पुकारती रहती थी. उनकी खुद की उमर क़रीब नब्बे थी. उन्हें कुछ याद नहीं रहता था. उन्हें मैं याद दिलाता था कि सावन आ गया. फिर उन्हें याद दिलाता था कि आज सोमवार है. फिर उन्हें बताता था कि आज हमें व्रत रखना है. फिर याद दिलाता कि राजगीरे के लड्डू लाना है.
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साल में वह बस एक बार बाहर निकलती थी. वह बैंक में इस बात का सबूत देने जाती कि वह ज़िंदा है और उनकी पेंशन दी जाती रहे. पिछले साल उन्होंने मुझे बैंक में बहुत शर्मिंदा यह कहकर किया कि क्या उनके मरने के बाद उनकी पेंशन मुझे मिलती रह सकती है. क्लर्क के वह पीछे पड़ने लगी लिहाज़ा इस साल मैंने उन्हें बैंक न ले जाने का फ़ैसला किया और उन्हें याद नहीं दिलाया. जब वह मुझे उनके खाते में पेंशन आने का पूछती तो मैं झूठ कह देता था. यह ज़्यादा दिन नहीं चल सका. थोड़े दिनों में जब पैसे ख़त्म हो गए तो मुझे उन्हें बैंक ले जाना पड़ा. जहाँ उनका फ़ोटो खींचा गया. उस दिन मुझे लगा कि मुझे भी उनका फ़ोटो खींचना चाहिए. मेरे पास मोबाइल नहीं था. मैं कहीं आता जाता ही नहीं था कि मोबाइल की ज़रूरत पड़े. नानी के जवानी के दिनों के हमारे पास बहुत फ़ोटो थे मगर ताज़ी तस्वीर एक न थी.

एक दिन नानी ने मुझसे परचून की दुकान से इलायची लाने को कहा. इलायची खाने की उन्हें इच्छा हो रही थी. इतने सालों बाद मैंने परचून की दुकान से इलायची ख़रीदी थी. इलायची छोटी छोटी कलियों जैसी लगती थी. ख़ुशबू से भरी हुए बंद कलियाँ. इलायची महँगी भी बहुत थी मगर नानी के खाते में रुकी हुई पेंशन आने के कारण पैसों की कोई कमी नहीं थी. पैसा निकालना अलबत्ता मुश्किल होता जा रहा था. मैं जब भी बैंक जाता बैंकवाले कार्ड बनवाने को कहते थे. वह सीधे खाते से पैसे बस खातेदार को निकालकर देंगे ऐसा कहने लगे थे. क्लर्क मुझे देखते ही नाराज़ हो जाते थे. वह मुझे देखकर भी अनदेखा करते और दूसरे गाहकों से बात करने लगते थे. बहुत देर बैठने के बाद, कभी कभी पूरा दिन वहाँ गुज़ारने के बाद वह पैसें मुझे देते थे.

लौटते समय पानी बरसने लगा. दो सावन होने की वजह से उस साल बहुत पानी गिरा था. गली में पानी भरा हुआ था और मेरे पतलून का निचला हिस्सा पूरा भीग चुका था. छाते के कारण बस सर बचा हुआ था. एक गाय गली में बैठी हुई और रास्ता लगभग बंद था. मैं गाय के किनारे से एक घर की सीढ़ी पर चढ़ा और वह गाय से घिरी जगह पार की. जेब में इलायचियों की ख़ुशबू बार बार मेरी नाक में भर रही थी. जोशीजी के घर का लोहे का फाटक वैसे ही खुला पड़ा था. नाली पर लकड़ी का पटिया देखते ही मैं समझ गया कि जोशी जी अभी अभी आए है. एक बुढ़िया ने मुझसे कहा कि गहन के टेम मैं बाहर क्यों घूम रहा हूँ. हालाँकि यह साल का सातवाँ गहन था मगर इससे पहले गहन देखने का ख़्याल मुझे कभी नहीं आया था. मैंने सर उठाकर छाता हटाया और ऊपर देखा. आसमान बादलों से भरा था इसलिए कुछ भी नहीं दिख रहा था. दिन में अँधेरा ज़रूर हो गया था. दोपहर में अँधेरा होना शायद मेरे जीवन की सबसे बड़ी घटना थी.

ऐसा होते मैंने कभी नहीं देखा था. मुझे घबराहट होने लगी और मैं जल्दी से जल्दी घर जाने के लिए तेज तेज चलने लगा. बरसात तेज हो गई थी और ऐसा लग रहा था मैं सर्दियों में शाम सात बजे गली में चल रहा हूँ. मुझे लगा इस बार मैं फिसल जाऊँगा. मैं इतनी तेज कभी नहीं चलता था. दौड़ा मैं बचपन के बाद कभी नहीं था. मौक़ा ही नहीं आया था. साँस लेने में गली के मुहाने पर रुका तो देखा नाली में धर्मवीर जोशी की किताब सूरज का सातवाँ घोड़ा तैर रही थी. नाली में पानी बहुत तेज़ी से बढ़ने लगा और किताब बरसाती पानी पर तैरती हुई नाली से बाहर निकलकर सड़क पर तैरने लगी. उसी की पुरानी, पतली फटी हुई किताब थी. धर्मवीर अपनी इतनी पसंद की किताब फेंक नहीं सकता ऐसा मैंने सोचा और किताब उठाना चाही मगर अँधेरे और गहन की वजह से मेरा जी अनमना था. पानी घुटनों तक भर आया था इसलिए मैंने घर जाना ही मुनासिब समझा. गली ख़त्म होते ही मैंने एक बार फिर मुड़कर किताब को देखा. वह तैरती तैरती अब जोशीजी के घर से बहुत दूर परचून की दुकान की तरफ़ जा रही थी. भीगकर उसका गत्ता भारी हो गया था और मुझे लगा वह किताब अब डूबने ही वाली है.

फिर अचानक किसी ने घर की तिरपाल लाठी से उचकाई तो पानी का बड़ा रेला किताब पर गिरा और किताब डूब गई. बड़ी देर तक मैं गर्दन मोड़े किताब को आँखों से ढूँढने की कोशिश करता रहा मगर किताब नहीं दिखाई दी. फिर गली में भरे पानी में एक लहर सी आई और किताब उसमें से धीरे से ऊपर आकर दिखाई देने लगी. अब किताब पानी पर सपाट होकर तैरने लगी. किताब की सिलाई उधड़ रही थी. उसका निचला हिस्सा खुल गया और वह किताब से अलग होने लगा. धीरे से अलग होकर वह हल्का होने के कारण धीमे धीमे बह रहा था. ऊपरी हिस्सा उससे आगे निकल गया था.
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अम्बर पाण्डेय
कवि-कथाकार

‘कोलाहल की कविताएं’ के लिए २०१८ का अमर उजाला थाप’ सम्मान.
ammberpandey@gmail.com

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  1. रक्षा दुबे17 अग॰ 2020, 12:22:00 pm

    कहानी के वर्णन अचंभित करते हैं।बहुत सुंदर कहानी।

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  2. सीलन, बारिश,गली, भंडार गृह व बर्तन सभी का अपना स्थान व तर्क है। यह पिछली कहानियों से अलग पठन पथ की मांग करती हुई रचना है।

    धन्यवाद अंबर जी।

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  3. पहले 'निटपिकिंग'। सात सूर्यग्रहण तो एक साल में सम्भव ही नहीं । सूर्य और चन्द्रग्रहण को जोड़ लें तब भी अति विरल । श्रावण मास में सातवां ग्रहण पड़ने की सम्भावना शून्य है।
    अब कहानी के बारे में । कहना होगा कि अम्बर पांडेय की जो कहानियां पहले पढ़ी हैं उनकी तुलना में इस कहानी में शिल्प बहुत अधिक चुस्त है। वर्णन का प्रवाह मुझे बड़ा आकर्षक लगा। भौतिक शास्त्र का भी पटु उपयोग है जब दिखाया जाता है कि पानी में बहते हुए किताब का मोटा हिस्सा पतले से आगे निकल गया। थोड़ा प्रतीकवाद भी है यहाँ । किताब का उपसंहार पीछे रह गया। सातवाँ घोड़ा पीछे रह गया। पर भारती की किताब में वही सबसे तगड़ा घोड़ा धा -भविष्य!
    निम्न मध्यवित्त दुनिया ऐसे ही चल रही है और शायद चलेगी। भारती का आशावाद वृथा है।
    बिना पारम्परिक कथानक की कहानियां हिन्दी में कम हैं । इस कहानी का स्वागत है।

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  4. अत्यंत रोचक कहानी। खास बात यह कि इसमें विवरण भटकते नहीं, एकदम सांद्र और एकाग्र हैं, और आपको ध्यान ही नहीं रहता कि एक विवरण से दूसरे में जाते हुए आप दरअसल "फिर क्या हुआ" वाली ज़ेहनियत में कब और कैसे आ जाते हैं।
    मसलन दुकान के भीतर का चीकट फर्श और तैरती डूबती किताब का सफ़र आपको whodunnit की हद तक भरमा ले जाता है।

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  5. नरेश गोस्वामी17 अग॰ 2020, 3:56:00 pm

    गली, नाली, जोशी जी के घर व रसोई और दुकान की अक़्क़ासी, बारिश में डूबता सूरज का सातवां घोड़ा, और बैंक में बेइज़्ज़त होता बयालीस साल का पता नहीं क्या बन चुका नैरेटर... मतलब ज़बरदस्त।��

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  6. किसी विशालकाय मकान की दो दीवारों के बीच बहुत पुरानी और खड़ी सीढ़ियों में से एक पर बैठा बूढ़ा फ़कीर बाँसुरी बजा रहा है। चढ़ती सीढ़ियों के मोड़ पर सामने एक दीवार है। उसमें जड़ी हुई किसी देवमूर्ति पर खुले गवाक्ष के बाहर से आ रही सुनहरी धूप की चमक है।सीढ़ियों के बाएँ किनारों पर दीवार की छाया है जो हल्के अँधेरे का आभास दे रही है। जीवन का एक अध्याय जैसे इतिहास के सागर में डूब रहा है।उसकी उदासी और तन्हाई की ख़ामोशी में पूरा चित्र डूब हुआ है। इस चित्र से शुरू होती है अंबर पांडे की कहानी 'साल का सातवाँ गहन।'
    ' एक पतली-सी गली से मैं जाता था ……'

    इस कहानी को पढ़कर मैं देर तक गुमसुम बैठा रहा। ऐसा लगा, जैसे सोचना बंद हो गया है। कहानी से बाहर, दिल्ली की एक सम्पन्न बस्ती में एक फ्लैट है जिसमें मैं बैठा हूँ। खिड़की के शीशे से बादलों से भरा आकाश का विस्तार झाँक रहा है, बारिश से धुली हरियाली के समंदर के ऊपर परिंदों की उड़ान है, साफ-सुथरी चौड़ी सड़कों से गुजरते वाहनों के हॉर्न जब तक सुनाई पड़ जाते हैं। मगर कहानी मुझे अपने अद्यतन वर्तमान से उस गली में खिंचे ले आ रही है जिसमें बारिश का पानी भर गया है और धर्मवीर 'जोशी' की किताब 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' पानी में तैर रही है।
    " फिर अचानक किसी ने घर की तिरपाल लाठी से उचकाई तो पानी का बड़ा रेला किताब पर गिरा और किताब डूब गई।" कहानी का आख़िरी हिस्सा उस डूबती-उतराती और बिखरती किताब पर वाचक की निगाह का बयान है।
    देखना ऐसा भी होता है! इस देखने में दृश्य हाशिए पर है। वाचक की निगाह समय में घटित हो रही गतियों की हर धड़कन पर है। देखना ही कहानी में बदल गया है। एक ऐसे समय में जब टीवी,कम्प्यूटर और मोबाइल फोन के पर्दों ने आदमी को तमाशबीन बना दिया है, अंबर पांडे की यह कहानी मनुष्य के द्रष्टा होने की गरिमा को बहाल करती है : " गली में भूले-भटके ठेले वाला आ जाता तो गली बिल्कुल बन्द हो जाती।अक्सर ठेले का पहिया नाली में अटक जाता और माल होने की वज़ह से यह भारी ठेला फँसा रहता।ऊँचा-नीचा करने पर माल गिरने का अन्देशा होता था,इसलिए पहले धीरे-धीरे माल उतारा जाता और फिर ठेला नाली से निकाला जाता।इसमें बहुत समय लगता...ऐसे में वह आसपास लोगों के मुँह देखता कि कोई पानी पिला दे।कोई न पिलाता तो अपनी प्लास्टिक की
    बोतल वह खोजने लगता जो अक्सर नहीं मिलती या खाली मिलती।" कहानी देखने के भीतर ही अपने कथ्य का आत्म गढ़ रही है,मगर इस देखने में कोई स्थूल लेखकीय हस्तक्षेप नहीं है।कहानीकार पाठक को ऐसे समय में ले जाता है जिसमें जीवन किसी निर्जन, एकांत झील की सतह पर गिरे हुए पत्ते की तरह निश्चल और शान्त है। पाठक को उसके अपने अनुभव-समय से निकाल कर कहानी के समय में ले आना आसान नहीं होता, लेकिन अंबर पांडे ने ऐसा कर दिखाया है।
    गली के पानी में डूबती हुई किताब 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' का दृश्य कुछ कह रहा है। क्या दृश्य की भाषा या आवाज़ सुनने का धैर्य और संवेदन हमारे पास अभी भी बचा है?
    अम्बर पाण्डेय के पास कहानी बुनने का एक अद्भुत कौशल है।वे लेखन में प्रयोग का ख़तरा उठाते हैं।इस कहानी में जो चित्र दिए गए हैं,उनमें समय की कहानी का मौन बसा है।यह समय की कहानी भी है और जीवन की कहानी भी।जैसे दो कहानियाँ सर्जनात्मकता के संगम में एकाकार हो गईं हैं।अम्बर के पास शायद एक झेन दृष्टि है जो 'देखने' और 'होने' को कॉस्मिक स्वाधीनता देती है!
    एक अच्छी कहानी के लिए अम्बर जी को बधाई।अरुण देव जी को तो साधुवाद है ही।

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  7. आशुतोष दुबे17 अग॰ 2020, 5:17:00 pm

    वर्णन मुझे प्रायःउबाते हैं। अक्सर कथाकार उन्हें भराव के लिए इस्तेमाल करते हैं और फिर इस आदत के शिकार हो जाते हैं। लेकिन यह कहानी ही वर्णन की है। बल्कि अनेक संभावित वर्णनों की झलक देती हुई। जैसे कोई पुराना खंडहर हो और उसमें द्वार के भीतर, ऊपर, बाजू में अनेक द्वार हों और उनके बाहर के दृश्य का अपनी जगह से आप अनुमान भर लगा सकें।
    जो ऐसी गलियों में रहे या उनसे गुज़रे होंगे उन्हें यह कहानी हाथ पकड़ कर बैठा लेती है।
    इसके वर्णन के सम्मोहन और उसकी आत्मीय अतिपरिचित दृश्यावली के जादू से सायास निकल कर यह कहने का मन होता है कि लेखक को, हालांकि ऐसा करना बहुत उबाऊ और जानलेवा है, मगर कहानी को संपादक की तरह भी देखना चाहिए। इससे उसकी छोटी मोटी सलवटें दूर हो जाती हैं।

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  8. ममता कालिया17 अग॰ 2020, 5:46:00 pm

    तुम सुबह की चाय भी नहीं पीने दोगे।कहानी ने कहा मुझे पूरी पढ़ो तभी पीछा छोडूंगी।तुम इंदौर से सीधे इलाहाबाद की रानी मंडी में पहुंच गए।एक एक चीज़ पहचानी हुई,गली की नाली,कुत्ते और गाय।अतुल्य भारत की हर गली।ऊपर से तस्वीरें।तुम्हारे साथ बोलती गईं।नए भारत में यह पुराना भारत कहाँ छुपाओगे भई

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  9. दीपेंद्र बघेल17 अग॰ 2020, 5:48:00 pm

    सुंदर कहानी। भौतिक ब्यौरे , इतने सघन और महीन है कि आपकी चेतना भी संलग्न हो जाती है।गली के इतने सूक्ष्म, ऐंद्रिक ब्यौरे के लिए, अम्बर को बधाई। इसके बरक्स अंतःकरण का जीवन भी इस तरह प्रकाशित होता है कि हाशिये पर गुजर बसर भी गहरे से संवेदित करती है। अप्रत्याशित संयोजन है, जो इस कहानी में विलक्षणता लाते है।

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  10. गणेश गनी17 अग॰ 2020, 5:50:00 pm

    बहुत बधाई अम्बर। मैंने आपकी यह पहली कहानी पढ़ी। बहुत ही बढ़िया। बेहतरीन शिल्प और शैली में कसी हुई कथा पाठक को कसकर बांधे रखती है। कथा के दो पात्र इतने मजबूती से अपने को प्रस्तुत करते हैं कि पूरा एक रंगमंच का मज़ा देते हैं। एक एक चीज़ को बारीकी से पेश करने की कला आपको आती है। कथा की भाषा गज़ब है।
    आभार आपका।

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  11. सीमा गुप्ता17 अग॰ 2020, 5:51:00 pm

    अम्बर ने जब यह कहानी पहले अपनी वाॅल पर लगाई थी तबसे लेकर अब तक यह मेरे ज़ेहन में उसी तरह है..... मैं पतली गली के फिसलन भरे रास्ते में बचते बचाते जोशी जी के घर, रसोई में पकती चाय, नाली पर रखे पटरे पर चढते स्कूटर, सूरज के सातवें घोड़े की चर्चा, नानी के घर, बैंक तेज बरसात में किसी आशंका के साथ वापस घर की ओर जाते हुए नाली में तैरती किताब और फिर उसे निकालने की कोशिश में वहीं अटक गई हूँ...... अद्भुत सुंदर साफ कहानी....

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  12. अनुराधा सिंह17 अग॰ 2020, 7:31:00 pm

    तुम्हारी कहानियों के वर्णन हमेशा बाँधते हैं। लेकिन आज मुझे एक भय लग रहा था कि कहीं ये विवरण abruptly कहीं न रोक दो और एक ख़ालीपन छूट जाए। पर ऐसा नहीं हुआ, कहानी स्निग्ध लय में बढ़ती हुई नियति तक पहुँची। चित्ताकर्षक दृश्य कविताओं में भी खींचते हो और स्थूल दृश्यों के सहारे पूरी बात कह लेना तुम्हारी सामर्थ्य है!

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  13. शेफाली तिवारी17 अग॰ 2020, 7:36:00 pm

    कहानी तो कहानी ऊपर से तस्वीरें। क्या गज़ब ।अद्भुत प्रस्तुति जैसे कोई कलाकृति। संपादक अरुण देव ने समालोचन को आज हिंदी की केंद्रीय पत्रिका में बदल दिया है। प्रिंट से डिजिटल की यात्रा का ऐतिहासिक पड़ाव। यह बहुत बड़ा कार्य हिंदी में हुआ है।

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  14. रविन्द्र व्यास17 अग॰ 2020, 7:37:00 pm

    कहानी पढ़कर मुझे अपने मोहल्ले की गलियां और उनमें रहने वाले चरित्र जैसे सहसा नींद से जागकर चलने फिरने लगे....

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  15. शशांक शेखर17 अग॰ 2020, 7:39:00 pm

    वहाँ की सारी उदासी और सूनापन भीतर फैला गयी। कहानी का काम शायद ये भी होता हो !

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  16. अम्बर की यह कहानी कोई शहर की तंग गली का यथार्थ मात्र नहीं पेश करती।निम्नमध्यवित जीवन के त्रासद स्तरों को परत दर परत रखते हुए कहती है मन का खालीपन अंतहीन अकेलापन जब अनुकूलित हो जाता है तब जीवन अर्थहीन हो जाता है उसकी बात कहती है।तंग गली, दर्जी के पास बची कतरनों जितना आकाश, बीच में बैठे गधे के ऊपर से गुजरते लोग,नाली, चिकने पत्थर, सूखते कपड़ो की गीली गंध... पाठक को एक बार तो लगता ही है उसने यह सब भोगा है या पढ़ते हुए भोग रहा है। वर्णनात्मक चित्रण में अध्याहर रूपको के बिम्ब इतने जीवंत हो जाते है कि किसी गहवर की डरावनी शांति, या मुझे तो यह कहानी पढ़ते हुवे लग रहा था जैसे पुवाल में लगी आग धीरे धीरे सिला गिला धुवाँ छोड़ती हुई निबिड़ उदासी की धुंध की रचना कर बारीक पीड़ा को उत्पन्न करती है।कहानी का पूर्वाध पाठक को मनोगत रूप से तैयार करता है कि आप आगे जो कुछ भी पढ़ने वाले हो वह कोई हैप्पी हैपी नहीं भी हो सकता।गली में फसा ठेलागाड़ी वाला गाड़ी को बड़े जतन से जैसे तैसे निकलता है , घसीटे जा रहे जीवन का प्रतीक,जोशीजी का फर्शी ,पटिया रखकर स्कूटर को ले जाना हो,बैंक द्वारा बारबार धक्के खाता कथानायक, अन्नपूर्णा,सुलोचना,नानी, जगदीश धर्मवीर, उजागर सब जीवन जी नहीं रहे घसीट रहे हैं।जिंदगी उनको काटती,बकोटती, कभी थोड़ा सा संभालती, कभी फिसलन देती,कभी उपवास कराती एक ऐसे ताल पर नाचती है कि ऊपर से घटनाहींन लगे पर कहानी का हरेक चरित्र अंदर से अथक तूफान में जीता जा रहा है।वे जिंदगी को नहीं जी रहे बल्कि जिंदगी उन्हें जी रही है ।चरित्रों का मनोव्यपार कहानी की पृष्ठभूमि के वातावरण के रूपको और प्रतीकों द्वारा कुछ कहता रहता है।
    गहन( ग्रहण) के समय कथानायक का बाहर निकलना और उसका यह अहसास से भर जाना "दोपहर में अंधेरा "....यह प्रतीक है एक भरी युवानी वाला लड़का एक बूढ़ी नानी के साथ अर्थहीन जिये जा रहा है।...जीवन में दोपहर ही तो युवानी है।
    धर्मवीर भारती की किताब "सूरज का सातवां घोड़ा" नाली में ऊब-डूब होती हुई डूब ही जाती है,कथानायक का उसे बचाने का प्रयास ...पर व्यर्थ ..."सूरज का सातवां घोड़ा" साल के सातवें गहन में फंसकर रुक जाता है । अम्बर आप जीते रहो लिखते रहो। आप के लिखे की प्यास हमारी बढ़ती रहेगी

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  17. बकुल देव18 अग॰ 2020, 5:18:00 pm

    विचित्र कहानी है.

    दृश्य विस्तार का अभिनव प्रयोग है.
    लेकिन इन सारे दृश्यों के विशद और सूक्ष्म चित्रण के बाद भी कथा का केंद्र सूरज का सातवां घोड़ा ही है.

    माणिक मुल्ला ने कहा था कि -

    "सूर्य के रथ को आगे बढ़ना ही है। हुआ यह कि हमारे वर्ग-विगलित, अनैतिक, भ्रष्ट और अँधेरे जीवन की गलियों में चलने से सूर्य का रथ काफी टूट-फूट गया है और बेचारे घोड़ों की तो यह हालत है कि किसी की दुम कट गई है तो किसी का पैर उखड़ गया है, तो कोई सूख कर ठठरी हो गया है, तो किसी के खुर घायल हो गए हैं।
    अब बचा है सिर्फ एक घोड़ा जिसके पंख अब भी साबित हैं, जो सीना ताने, गरदन उठाये आगे चल रहा है।
    वह घोड़ा है भविष्य का घोड़ा..
    सूरज का सातवां घोड़ा !"

    अब इस कहानी में सातवें गहन के दिन सूरज का यह सातवां घोड़ा भी जलमग्न हो गया है..
    जिल्द खुल गई है..और पन्ने पृथक हो कर बहने लगे हैं.

    नायक किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा हो कर यह दृश्य देख रहा है.

    और इसी असमंजस पर कथा का समापन हो जाता है.

    आगे की कथा स्वयं पाठक को पूरी करनी है.

    एक अलग अनुभव देती कहानी पढवाने के लिये Ammber Pandey ,Arun dev और समालोचन का शुक्रिया.

    ����

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  18. संजय कुमार मिश्र18 अग॰ 2020, 5:19:00 pm

    सालों से सबकुछ रूका हुआ। सबकुछ गतिहीन । यहां के लोगों के सपने, जवानी, भविष्‍य सब स्‍थगित है । उस गली से जो भी गुजरे उसका साबुत निकलना मुश्किल । वहां गतिशील है तो सिर्फ गंदा नाला। क्‍या अद़़भूत बिंब है। उपर से कोई संवाद नहीं। इस अंधेरी गली में सूरज कभी दिखाई नहीं देता तो सातवां गहन क्‍या यहां के बाशिंदो के जीवन में हमेशा गहन ही लगा रहना है। अभिनव कहानी । अम्‍बर की कलम को सलाााम।

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  19. इस बीच मैं अपना कुछ लिख रहा था इसलिए इस कहानी को पढ़ना आज हुआ. अगर यह आज की कहानी का विवरण है तो चौक-अतरसुइया के भूगोल में बहुत फर्क नहीं आया है हालाँकि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. लेखक ने कितना अच्छा पकड़ा है कि 'सूरज का सातवां घोड़ा' के साथ वह सारी मध्यवर्गीय संस्कृति भी चिंदी-चिंदी होकर बिखर गयी और इलाहाबाद के साथ-साथ सारा हिन्दुस्तानी मध्यवर्ग खुद को डूबता हुआ अवाक् देखता रह गया. अम्बर पाण्डेय की बाकी कहानियों की अपेक्षा यह चुस्त और मर्यादित है. लम्बे समय तक टिकी रहेगी निश्चय ही.

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  20. अम्बर की क़िस्सागोई बहुत मुग्ध करती है। वे जिस बारीक़ी से विवरणों को परस्पर गूँथते हैं और परिवेश जो जीवंत बनाते हैं, वह मुझे तमाम बँगला कहानियों की याद दिलाता है। एक कसी हुई अच्छी कहानी के लिए अम्बर और समालोचन को बधाई।

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