पातकी रूढ़ि : अम्बर पाण्डेय



अम्बर पाण्डेय की नई कहानी ‘पातकी रूढ़ि’ पृष्ठभूमि, विषय और भाषा तीनों स्तरों पर विस्मित करती है. अम्बर आख्यान अतीत से उठाते हैं, उसपर शोध करते हैं और फिर अपनी कल्पना से बुन कर एक नया संसार खड़ा कर देते हैं, देश-काल में उसका घटित होना हम देखने लगते हैं.
शास्त्रीय संगीत के घर घरानों में गहरे पैठकर यह कथा लिखी गयी है. 




पातकी रूढ़ि                   
अम्बर पाण्डेय


“कैसे दिए” एक बाई टोकरा सिर पर धरे चली जा रही थी. लाँग की धोती में सुपुष्ट जंघाएँ और उसके ऊपर मटकते विशाल नितम्ब देखकर उसे रोकने की इच्छा के बस में होकर कहा, “कैसे दिए?” बाई पलटी, बोली, “क्याऽऽऽ?” आँख फाड़कर ठाढ़ी रही. उसके ढंग से भौंचक उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ने कड़क स्वर में कहा, “आम नहीं तो क्या तेरी गाँड”. बाई तब भी तस से मस न हुई, टोकरा सिर से उतारकर कमर टेढ़ी की, बायाँ नितम्ब निकाला और उसपर टोकरा टिका लिया. “मोल लेकर निकली हूँ, बेचनेवाली नहीं” उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ने सुना बाई सुरीली थी. नाट्यमण्डली की नौकर लगती है. सब अंग बराबर ढँके थे मगर फिर भी ढंग ऐसा कि पुतली अटककर रह जाएँ.

“देखिए, अटरूँमियाँ आप मानपुर-नरवर घराने की पाग हो. आपकी गायकी में घरानेदार गायकी का रूप ही उतरता तो मैं ऐसा न कहता. आपने घराने की गायकी का रूप तामीर किया है. तासीर पैदा करने की बात होती तो कलावंतें भी कर लेती है आपकी गायकी नवादी दंगदार है इसलिए कहता हूँ सांगली में कलावंत बाइयों से ख़बरदार रहना. यह कलावंत बाइयाँ रुपए पर जान देती तो पैसा फेंककर इसने मुक्ति हो जाती मगर यह विद्याव्यसनी होती है. आज तुमसे लगी तो दो राग तुमसे सीखे कल अल्लादिया खाँ से लग गई. तुम तो जयपुरअतरौली घराने से ज़्यादा अप्रचलित रागों का भण्डारख़ाना हो. आज तुमसे बसन्त सीखा पता लगा कल किराने के उस्ताद करीमखाँ के ढुंगण लगकर मल्हार सीख रही है” चचेरे भाई कड़वे खाँ साहेब ने सांगली में उतरते ही उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब को हिदायत की थी. “विद्याव्यसनी माने?” उन्होंने पूछा. “वेश्या” कड़वे खाँ गाड़ी का भाड़ा देते हुए बेध्यानी में बोलें.

कड़वे खाँ के घर बेटी दामाद आए हुए थे. दामाद को पीलिया हुआ था और उपचार को यहाँ थे. उमर कच्ची थी और किराने घराने की तरफ़ के थे इसलिए कड़वे खाँ का घर पर गानाबजाना बिलकुल बंद था. दामाद कोई चीज़ न ले जाए इसका डर ऐसा था कि बेटी भी जब तक नैहर में रहती रियाज़ बंद रहता. देर दिन तक खटिया तोड़ते रहते और मन ही मन गाते. बहुत काल तक संगीत न हो तो ठाढ़े-खड़े मोलभाव कर रहे है और औरत की आवाज़ सुरीली लग रही है ऐसा होता है. उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब के संग भी उस दोपहर ठेठ यही घटा था. वे कुछ देर बाई को देखते रहे, बाई भी ऐन आँख में आँख डाले ठाढ़ी रही. उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ही ज़रा बाँके हुए और अपनी राह पकड़कर निकल लिए. “कहाँ ठहरे हो खाँ साहेब  बताते तो जाओ” बाई पीछे से चिल्लाई. उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब सीध पकड़ चलते गए. मुड़कर देखा तक नहीं.

लू चलने लगी. हाय में भरम हुआ और दूसरी गली में मुड़ गए. आम के ठेले, टोकने यहाँ आते आते कम हो चले थे मगर ग़ायब न हुए थे. हर किवाड़ पर हल्दी के ढेर लगे थे. आम की सुगन्ध से नासापुट भरे हो और उसमें हल्दी की सुगन्ध आ मिले तो क्या दशा होगी आप कल्पना कीजिए. चक्कर आने लगे और आनंद भी लगे जैसे तुर्की तम्बाकू का गहरा कश खींचा हो. वैद्य जी ने दमे का उपचार शुरू करने से पहले उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब का बरसों का नज़ला निकाला था. नकसुरे तो खाँ साहेब न थे मगर नज़ला लेकर गाना सहज खेल न था. नाक खुली तो गन्धों ने धावा बोल दिया जैसे ससुराल में नौशे पर सालियाँ बोलती है. जाने किसका मुँह देखकर निकले, भटकते उस्ताद खाँ अटरूँ खाँ साहेब ने सोचा और आसपास पानी की आस में नज़र दौड़ाई. ज़ुहर की अज़ान होने लगी. खाँ साहेब तुरतफुरत बढ़े चले जा रहे थे हालाँकि रास्ता पता न था.

मुर्दा सड़ गया लगता है. रूमाल निकालकर मुँह ढँका और चारोंतरफ़ निहारने लगे. आम, हल्दी के सुवास से भरी कनपटियों की नसें खिंच गई और उबकाई आने लगी. दवा घी के संग लेना पड़ती थी जिसके कारण उलटी होने में खाँ साहेब को देर न लगती. ज़रा माथा दुखा, चक्कर आए और उलटियाँ होने लगी. एक स्थान पर छाया देखी तो वहाँ सुस्ताने लगे. खुड्डी के किनारे खड़े है, टट्टी की बदबू के बीच, होश तक न था कि ठण्डी बयार लग रही थी. कुर्ता भीगकर सीने से लग गया था और टोपी से बूँदें झड़ती थी.

“एक जागी पाड ना ठरत” ऊपर कोई गा रहा था. बच्चे की अटपटी आवाज़ थी मगर सुर बड़े बराबर लगा रहा था. खटाखट सँकरा चढ़ाव नाप गए, अँधेरा ऐसा कि सीधे हाथ को बायाँ न सूझे. “हृदय भरत रिक्त होत” आह रे ऐसा सुर कान में पड़े युग बीत गया लगता है. भीतर पहुँचे तो देखते है तरबूज़ की फाँक काट काटकर काँसे की तश्तरी में धरी थी, गंगाल में पानी भरा है और आम पड़े है. ख़स की टट्टी के मारे कमरे में अँधेरा है और टूटीफूटी छत आँख पर नहीं पड़ती थी. पवन शीतल ऐसा जो ठिठककर रह गया हो. फ़र्श पर चाँदनी बिछी हुई थी और एक बारह तेरह साल की लड़की आदमकद दर्पण के आगे बैठकर गा रही थी. संग संग दर्पण में देख देखकर मुँह भी बनाती जाती थी. “अंधारबिंब काई फुटत तेंवि वारी दंत...” लड़की गाना बन्द करके उठ खड़ी हो गई. दर्पण में खाँ साहेब को देखकर घबरा गई थी.

“गाओ, रुको मत, गाओ. राग आकर खड़ा है” खाँ साहेब ने कहा और वही फ़र्श पर बैठ गए. ख़स की टट्टियों के बीच बीच से आते उजियार में लड़की का मुँह उन्होंने दर्पण में देखा. उसका हल्दी की पकी गाँठ जैसा साँवला रंग और बटुआ मुँह, सुतवाँ नाक और चातकों से प्यासे नयन थे. उमर बारह से एक दिन ज़्यादा न होगी, बदन सब हड्डी हड्डी था. “तुम राग हो क्या! इधर क्यों घुस आए?” लड़की ने रौब झाड़ा.
“जितना कहा उतना मानो. गाओ” खाँ साहेब  ने डपटा.

खाँ साहेब के गले की तासीर ऐसी थी कि “अति कोपयुक्त होय परी सुखवितें मला” लड़की गाने लगी. लू के मारे को जैसे मेघ की छाँह मिल गई, मग़रिब की अज़ान सुनकर खाँ साहेब जागे तो देखते है एक सुकड़ा डोकरा उन्हें हवा कर रहा है. उन्हें होश पकड़ते देर लगी कि कहाँ है! सपना देखकर उठे है या अब भी सपना देख रहे है. रुलाई फूट पड़ी. बयालीस साल का लम्बा-चौड़ा मर्द घर में आकर पहले सो जाए और उठे तो रोए, इसे भालचन्द्र गवस कैसे समझता!

“आप गुंता का गाना सुनकर यहाँ ठहरे फिर आपकी आँख लगी” भालचन्द्र गवस ने बताया और शर्बत का लोटा आगे किया. खाँ साहेब ने सुना न सुना पता नहीं पर शर्बत गटागट पी गए. दो कमरों का मकान सांगली में भालचंद्र गवस ने किराए पर लिया था, अंदर पाकशाला बाहर बैठक उसी में गद्दे डालकर तीनों जन सो जाते थे- गुंता, उसकी माँ शांतला और पिता भालचंद्र. गुंता को शांतला ने चिकोटी खोड़ी, “जा बाहर जा”. गुंता ऊँची खिड़की पर बने आले पर बैठी बाहर देख रही थी, “मैं नहीं जाती उस मानुष ने मिलने. मुझे ऐसे बोला गाओ जैसे चन्द्रपूर नटवर मंडळी का मालिक हो. कोई टिकट कटाकर आया मुझको सुनने!”

“गुंताबाईssss ऐं बाहर आ” बाहर से बाबा ने आवाज़ दी. रसोई की खिड़की से लगे पीपल पर एक उदुंबर वृक्ष बड़ा हो गया था. शांतला के मना करने के बाद भी गुंता मज़े में उस वृक्ष को ज़ीने की तरह बापरती थी. “औदंबर पर श्रीपाद वल्लभ का निवास है, लड़की होकर चढ़ेगी तो दुख उठाएगी, गुंता” शांतला जब तक अपना वाक्य पूरा करती गुंता उदुंबर की सबसे ऊँची और अभी तक कोमल डाली पर वानरी की भाँति लटकी हुई थी. शांतला आम का रस निकाल रही थी, बिगड़े हाथ लिए खिड़की पर दौड़ी, “मानुष की औलाद है बप्पा कि बन्दर की. इधर आ, मान मेरी, इधर आ और खाँ साहेब  को प्रणाम करके आ”.

गुंता वृक्ष की एक डाल से दूसरी पर पाँव रखती ऐसे उतरती जा रही थी जैसे पत्थर का पक्का ज़ीना हो, “मैं नहीं आती उस रागखाँ का हुकम बजाने! आया बड़ा, बोला, ‘गाओ’, गुंता उसकी नौकर बैठी है”, कहकर गुंता उदुंबर से पीपल की शाखा पर कूदी और फिर सीधे मिट्टी में लोटपोट. वहाँ से खाँ साहेब को “कुतरा, साला” चिल्लाती लक्ष्मी मौसी के घर भाग गई. शांतला ने रसोई के किवाड़ की साँकल खड़काई और भालचन्द्र आम के रस से भरा गिलास उसके हाथ से ले गया.

“सांगली में सबका नाम बालचंद्र होता है क्या! तुम लोगों को कोई दूसरा नाम नहीं मिलता! मेरे बैद का नाम भी बालचंद्र है” खाँ साहेब शर्बत के बाद आम का रस भी गटागट पी गए. “वैद्य जी का नाम तो बालचंद्र है मैं भालचंद्र हूँ” भालचन्द्र ने सफ़ाई दी, “जिसका आपने गाना सुना बड़ी माता निकली तो मूक हो गई थी गुंता. चन्द्रपूर नटवर मंडळी से निकाला तो यहाँ आए उपचार के लिए. डेढ़ माह में बोलना दूर गाने लगी”.

“हूँ, तुम्हारी बेटी है? सुरीली है सीखे तो गवैया हो सकती है” खाँ साहेब उठ खड़े हुए तो यह आमरस, शर्बत सब मुझसे तालीम लेने के लिए थे. अच्छे फँसे अटरूँपिया. मानपुर नरवर घराने के संगीत की शमा अब कलावंत के दो कमरों के घर में रौशन होगी. “नमाज़ का वक़्त हो गया. हमें रंगवणाबजार की राह बताइए” खाँ साहेब जाने को हुए.

“अरे आप तो एकदम से जाने लगे. मैं छोड़ आता हूँ आपको घर तक” भालचन्द्र भी खड़ा हो गया.

“न, आप बस राह बता दीजिए. आपके संग चलने पर चैन में हर्जा होगा” खाँ साहेब ने कहा और बिना जवाब सुने अंधेरी सीढ़ियाँ उतरने लगे.

“रुकिए, मैं चिमनी ले आता हूँ” भालचन्द्र रसोई की ओर दौड़े, “चिमनी चिमनी”.

“चिमनी में तेल नहीं है” शांतला ने कहा और आले में रखे गृहदेवता का दीपक उठाकर दे दिया. दीपक लेकर भालचन्द्र नीचे भागा तब तक खाँ साहेब आधी गली पार कर गए थे.

“खाँ साहेब, ओ खाँ साहेब जी” भालचन्द्र दीपक हाथ में लिए उनके पीछे दौड़ रहा था. खाँ साहेब ने पलटकर भी न देखा. जब भालचन्द्र एकदम पास आ गया तो पलटकर देखने को छोड़ कोई उपाय न रहा.

“ऐं ज़रा दूर हट, जलाएगा क्या” खाँ साहेब को उससे चिढ़ हुई. यह तो पीछे ही पड़ गया.

“आप दक्षिणा लिए बिना न जाए” कहकर भालचन्द्र ने दीपक खाँ साहेब को थमाया और ख़ुद जेबें टटोलने लगा. खाँ साहेब दीपक लिए खड़े है और भालचन्द्र ख़ाली जेबें उलट उलटकर देख रहा है. विक्टोरिया निकालकर खाँ साहेब के हाथ पर रखा और तुरंत दीपक उनके हाथ से ले लिया. एक पानी भरती गृहिणी उन्हें अचरज से देख रही थी पास में उसका ख़सम भी आँख फाड़ फाड़कर देख रहा था. ऐं, बीच गैल विक्टोरिया थमाना ये शरीफ़ों के ढंग है, दुनिया निहार रही है. खाँ साहेब न हुए गली रस्ते पुकार लगाते मंगते हो गए. खाँ साहेब ग़ुस्से से लाल पीले हो गए. विक्टोरिया भालचन्द्र के सिर पर मारा और बिना एक शब्द कहे सुने रंगवणाबजार की ओर दौड़े. “विदा तो लेते जाइए. लक्ष्मी का ऐसे कोई अपमान करता है क्या, सुनिए खाँ साहेब, sss” पीछे भालचन्द्र दौड़ने को हुआ पर आगे बढ़ा नहीं. यहाँ से अभी निकला तो विक्टोरिया हाथ से गया.

झुटपुटा गहरा गया और गैसबत्तियाँ जल गई. उधर हाथ में दीपक लिए भालचन्द्र विक्टोरिया ‘कहाँ गिरा है’ ढूँढने लगा. गुंता धूल में लोटपोट, मुँह आम से लिपटाए कहीं से चली आ रही थी, “बाबा अंधारे में क्या खो गया?”

दीपक उठाकर देखा बेटी की कैसी छबिदार मूरत थी. गुंताबाई गवस- नाम तक में संगीत था. बस यह कलाकार हो जाए तो इसके पाए का हिंदुस्तान में कोई न हो. दीपक के प्रकाश में आम से लिपटा मुख कैसा भट्टी पर खदकते कुन्दन के घोल सा दिपदीपाता है. मेरी गुंता भाव बताकर गाने लगे तो काशी की बाइयाँ इसके आगे पानी भरें.

“विक्टोरिया खो गया री गुंता” भालचन्द्र के बोलने की देर थी कि गुंता भी ढूँढने लग पड़ी, “बाबा इधर दीपक करो ना ना ना इधर तो उजियार करो”. दोनों बाप-बेटी को ढूँढते ढूँढते जब देर हुई तो शांतला ऊपर से चिल्लाई, “रोटी नहीं खाओगे क्या, अब तक नीचे बैठे रहोगे” खिड़की से देखा दीपक नाच रहा हैं और गुंता उसके प्रकाश के पीछे पीछे मटक रही है. “बाबा का विक्टोरिया खो गया” गुंता ने कहा और विक्टोरिया की जगह उसे इकन्नी मिल गई. पट्ठी चतुर थी चुपचाप दबा गई. हमारा तो विक्टोरिया खोया है यह इकन्नी ज़रूर गुल्ला ताई की होगी.

रोटी गुड़ और नमक के संग खाते भालचन्द्र का जी बैठ गया था, आज का दिन ही बिगड़ गया. विक्टोरिया इकन्नी हो गया और खाँ साहेब भी रूठकर चले गए. उधर खाँ साहेब को पानी भी कड़वा लगता था. आँख लगने का नाम न लेती थी, शायद दोपहर को सोने का फल है. आँख न लगती ठीक था पर मन भी एक ठौर न टिकता. पंछी की पुतली जैसे फिरती है मन यहाँ से वहाँ, वहाँ से कहीं और और कहीं और से गुंताबाई के घर जा भागता. ऐसी रात तो हमारे मानपुर में नहीं होती कभी- ऐसी कलूटा. चाँद ने क्या इन मरहट्ठों के देश से मुँह फेर लिया. खुदा खुदा ये आसमान है कि दवात ढुरक गई. घड़ी को लगता जैसे दिल का दौरा पड़ा है. पंसलियों के बीच सुन्न सुन्न लगता. जी डूबा जा रहा है और साँस नहीं आ रही फिर थोड़ी देर जब मन गुंता के घर पहुँच जाता, उसका वह नाट्यगीत मन में बजने लगता तो शान्ति मिलती. खाँ साहेब बाहर दालान में खटोला डालकर सोते थे. उस दिन दस बार पेशाब करने गए, गली में दो बार टहलें और हज़ारों बार करवटें बदली मगर नींद नहीं आई तो नहीं आई. भोर भोर ज़रा आँख लगी तो मेहतरानी ने झाड़ू लगा लगाकर ऐसा धूला उड़ाया कि दम फूल गया, छींकें आने लगी और थोड़ी देर में वे बेहोश हो गए.

ईसाई अस्पताल में लोहे के पलंग पर पड़े हुए है और कड़वे खाँ माथे पर हाथ फेर रहे है, “क्या हो गया रे अटरूँ मियाँ तुम्हें! खटोले से उठे और बेहोश!”

“मरीज़ को दिक न करें” नर्स कर्कश थी. हाथ में कटोरीभर दलिया लिए खड़ी थी. पीछे एक बुढ़िया नर्स सुई तैयार कर रही थी. कड़वे खाँ खड़े हो गए हालाँकि अटरूँ उनके बेटे की उमर के थे, वह साठ और अटरूँ खाँ बयालीस के थे मगर जवान मर्द का सुई लगते समय पुट्ठा देखने का उन्हें कोई शौक़ न था. नर्स ने दलिया की कटोरी एक तरफ़ रखी और खाँ साहेब को पलटने का इशारा किया. पजामा सरकाकर दूसरी पुट्ठे पर टिंक्चर मलने लगी. कड़वे खाँ को राजवाड़े का भंडारी अस्पताल में मिल गया और वे उससे बात करने लगे. खाँ साहेब को सुई लगते ही नसों में झनझनाहट हुई और रीढ़ में ताक़त दौड़ गई. “दलिया ख़त्म कीजिए फटाफट” नर्स ने हिदायत दी. चिड़िया को दे रही हो इतना तो दलिया लाई थी, खाँ साहेब ने दो कौर में ख़त्म किया और खिड़की से कूदकर भाग गए.

भरी घाम में पूछते पूछते गुंताबाई के घर पहुँचे. देर तक खुड्डी से लगे लगे खड़े रहे कि ज़ीना चढ़े या नहीं. जिस औरत के लिए जान पर बन आई थी. प्राण अब गए कि कब गए हो रहे थे, साँस लेना मुश्किल था दिल का धड़कना मुहाल उसकी गली में उसके मकान के नीचे खड़े खड़े पसीना पसीना होते रहे. फिर पंसलियों में सुन्न सुन्न लगा जैसे दिल की जगह बड़ा भरी छेद हो गया हो. बेहोश न हो जाए इस डर से दो छलांग में ज़ीना चढ़कर गुंताबाई के कमरे में कूद पड़े.

“तुम फिर आ गए ऐं! क्या चन्द्रपूर नटवर मंडळी का नाटकघर समझा है हमारे घर को” गुंता चक्की पर चावल पीस रही थी. पसीने से बाल भीगे थे और ललाट चमक रहा था. चावल पिसने की महक से कमरा भरा था. भीतर कढ़ी उबल रही थी और नीचे शांतला कपड़े कूट रही थी. उदुंबर पर कौएँ हल्ला कर रहे थे बीच बीच में कबूतरों की गुटरगूँ होती थी.

खाँ साहेब ने आव देखा न ताँव और दिया गुंताबाई को एक तमाचा, “खरज लगा”. तमाचा खाकर गुंता रोते रोते खरज लगाने को हुई तो खाँ साहेब ने उसे एक और तमाचा लगाया. अबकी बाएँ कान में रेलगाड़ी की सीटी बजी और उस कान से कुछ देर के लिए सुनाई देना बंद हो गया. “तम्बूरे के बिना खरज लगाती है. जा, तानपुरा ला”. तानपुरा घर में नहीं था. शांतला कपड़े सुखाकर ऊपर आई तो नज़ारा किया, किवाड़ की आड़ में खड़ी खड़ी प्रसन्न होती रही. किवाड़ के पीछे से उसकी बेटी गुंता का भविष्य स्वर्णिम दिखाई देता था. गुंता फूट फूटकर रो रही थी, घर में घुस आया राक्षस और दे चाँटे पर चाँटे. हाय मैं बहरी हो गई. खाँ साहेब को न रोग न कमजोरी जैसे नसें खुल गई हो. यह औरत तो रोती भी सुरीला है. वे गुंताबाई पर ऐसे मुग्ध थे जैसे संगीत नाटक में शकुंतला पर दुष्यन्त.

नारी ताड़ना से वश में होती है, सुना था आज देख भी लिया. भालचन्द्र रात तीन बजे उठकर कमरा धोने लगता. शांतला ऊँघती ऊँघती रसोई में जलेबी के लिए चाशनी तैयार करने लगती और दूध औटाती क्योंकि ब्रह्ममुहूर्त के अभ्यास के बाद खाँ साहेब का नाश्ता होता था और रोज़ रोज़ हलवाई से मँगवाना महँगा पड़ता. गुंता को संडास में जबरन बैठाती कि अभ्यास के बखत टट्टी न आए. पानी पीना तो दूर कुल्ला तक करने की मनाही थी. उस दिन मार खाने के बाद गुंता जो कहा जाता करती थी, पलटकर जवाब देना भूल गई और न इधर उधर कहीं जाती. उदुंबर के डालियाँ जो गुंता के पैर बार बार पड़ने के कारण ठूँठ हो गई थी वहाँ भी फल लगने लगे. कोंपलें फूट पड़ीं.

ब्रह्ममुहूर्त में चाकर कभी जागते कभी जागते न थे लिहाज़ा ख़ुद खाँ साहेब कन्धे पर तानपुरा धरे चले आते. जाते जेठ की हवा आम के बागों और उससे भी दूर समुद्र से होती यों चलती थी कि सांगली को उड़ा ले जाएगी. रह रहकर तम्बूरे के तार झंकृत हो जाते. सामने से आते पंडे-पुजारी उन्हें देख बाट बदल लेते कि कोई संगीतप्रेमी प्रेत जा रहा है.

साढ़े तीन बजे रात जिसने चन्द्रमा देखा है उसे ही भैरव सध सकता है नहीं तो दूसरों के वास्ते जोगिया, भटियार, तोड़ी है . सोचते सोचते आकाश निहारते ठोकर खाते खाँ साहेब गुंताबाई के घर पहुँचते. नाट्यगीत कभी न गाने की सौगन्ध खाँ साहेब ने गुंता से ली थी. स्वप्न में भी संगीत नाटक के वे लुच्चे गाने गुंताबाई जीवन में कभी न गाएँगी. भूखों भी मरना पड़े तब भी नाट्यगीत को “ना”. उसके बाद खाँ साहेब खरज पर जो टिके तो महीनों बीत गए. “खरज को ऐसे लगाओ जैसे नौशा नई बहू को हाथ लगाता है” बेचारी बारह की वयसवाली गुंताबाई को क्या पता था कि कैसे नौशा नई बहू को हाथ लगाता है, “हाथ बढ़ाया फिर पीछे, फिर बहलाया, बातों में लगाया, फिर ज़रा सा आगे बढ़े. झपट्टा मारकर खरज पकड़ा कि छछून्दर पकड़ी. कलाई गहने का खेल, सुननेवाला का मन ऐसा रंग जाए जैसे किसी ने मंजीठ में डुबाकर निकाला हो.”



(दो)
जेठ से भादों आ गया. “ध्यान धर, मंजिष्ठा का रंग जब तक न दिखाई दें तब तक सा लगा” खाँ साहेब ने कहा और तानपुरा लगाने लगे. उस दिन गोकुळाष्टमी थी. दधि हांडी गली में बँध रही थी. माँ ने व्रत किया था और चम्पक के पुष्पों की वेणी बाँधकर बाबा के संग हरिहरेश्वर देवालय गई थी. एक वेणी गुंताबाई भी बाँधकर बैठी षडज लगा रही थी. पावस आरम्भ होते ही दो चार मोर मोरनियों ने उदुंबर पर क़ब्ज़ा कर लिया. तम्बूरा सुनते ही मोर बोलने लगते. बार बार गुंता को जाकर उन्हें फटकारना पड़ता था. मोर धीरे धीरे निर्लज्ज हो गए और जब तक लग्गे से कोंचो नहीं वे अपने ठिकाने से हिलते नहीं थे. अबके उन्हें उड़ाने गई तो देर तक खड़े खड़े उन्हें देखती रही. लौटी तो खाँ साहेब आग बबूला हो रहे थे.

लाल लाल आँखों से कुछ देर देखते रहे फिर कान ऐसा उमेठा कि गुंता का पूरा शरीर पलट गया मगर मजाल है कि कान खाँ साहेब की उँगलियों से छूटा हो. कान से कपोल तक सब मंजिष्ठा के रंग का हो गया. एक बार हाथ छूटा तो खाँ साहेब का हाथ रुक न सका, “देखूँ ज़रा तेरे पुट्ठे हुए कि नहीं गुलाबी, ला बता मुझे कल्लो”. गुंताबाई ने उस दिन पहली बार साड़ी पहनी थी. भगवान घनश्याम के वर्णवाली नीली साड़ी में उसका श्याम हाड़ हाड़ शरीर कितना कोमल लगता था जैसे काँच की पुतली हो. साड़ी-पेटीकोट उलटकर खाँ साहेब उसके पुट्ठें देखने लगे. गुलाबी तो नहीं हुए थे नील ज़रूर पड़ गया था.

देर दोपहर जब शांतला और भालचन्द्र घर पहुँचे तो शांतला को गुंता पर बहुत क्रोध आया, दूध उफन उफनकर तपेली कोयला हो गई. धुले कपड़े बाहर बरसात में पड़े थे. खाँ साहेब रबड़ी खाए बिना सिधार गए और यह लाट साहब सोई पड़ी है. “उपवास के दिन मध्याह्न शयन, शिव शिव” भालचन्द्र ने गुंता को उठाया. वे बेटी पर कभी कुपित न होते थे. लाड़ से रखते थे और उस दिन कुन्द की वेणी ख़ासकर गुंता के लिए मंदिर से लाए थे. गुंता ने आँखें मली, कुचली हुई वेणी उतारकर धरी और नई बाँध ली.

खाँ साहेब का प्राण यों बेकल थे जैसे नागिन डँसकर आप उलट जाती है. मुँह में कौर धरते तो जी मुँह को आता और सोने का जतन करते तो लगता सीने पर डाकिन आकर विराजी है. घर घर में भगत बेसुरे भजन गा रहे थे उससे अलग जी उचटता. उन्होंने मन बना लिया कि हैदराबाद से बड़ौदा चले जाएँगे. उन्होंने अपने बड़े बेटे जुगनू खाँ को चिट्ठी लिखी कि अपनी माँ, भाई बहनों और बीवी-बच्चे को लेकर मयसमान फ़ौरन कोल्हापुर आ जाए. जुगनू खाँ तेईस साल का था और उसके एक डेढ़ साल का बेटा था.

संसार से खाँ साहेब बैराग हो गया था. जिस संसार में बारह साल की लड़की भी कुँवारी न हो वहाँ क्या रहना! इस पाप के घड़े को ठोकर मारकर वे जोग धार ले ऐसा सोच सोचकर कुछ देर तक सुबक सुबककर रोते रहे. फिर आँसू पोंछे और उठकर बैठ गए. बैराग ग़ुस्से में बदल गया. रण्डी से जी जोड़ने पर कौन से लगाव की उम्मीद थी अटरूँपिया!

पीत करी थी नीच से, पल्ले लागी कीच. सीस काट आगे धरा, अंत नीच का नीच. सोचते सोचते खाँ साहेब सो गए.

बहुत दिन बीते खाँ साहेब न आए. शांतला गुंता को धीर धरने को कहती. भालचन्द्र ने उधार लेकर कोल्हापुर से तम्बूरा मँगवा दिया था. गुंता खाँ साहेब को अपना तम्बूरा दिखाना चाहती थी. क्वाँर की धूप में जैसे घासपाँत जलते है यों गुंता का हृदय दहकता. उस दिन गुंता से ऐसा क्या अपराध हुआ कि खाँ साहेब इतना काल गया पलटकर नहीं आए. उल्टे खाँ साहेब ने ही उसे पीटा. उसे और भी कष्ट दिया. कितना कष्ट दिया रे बाबा. उसने एक बार भी शिकवा नहीं लगाया. मूक होकर रही तब भी वह नहीं आए. एक बार खाँ साहेब का मुख देखने की इच्छा से आकुल गुंता ज़ीना बिलारी भी चढ़ती तो दौड़ी चली आती कि खाँ साहेब आए होंगे. ऐसे संगीत नाटक के वह गीत जिसमें स्त्री पुरुष के प्रेम की बातें होती है सब गुंता पर सत्य हुए.

जुगनू खाँ बीवी, बच्चें, भाई बहन और अपनी माँ के संग सांगली पहुँचा. खाँ साहेब की बीवी माखन बी हालाँकि छत्तीस की थी मगर दुखिया-डुकरिया लगती थी. आते ही बैद के पास जाने की रट लगा दी. कहने लगी हाज़मा बिगड़ा बिगड़ा रहता है. खाँ साहेब से किसी बात पर अड़ी अड़ी रहती. पोते को छाती से चिपटाए रात को खाट पर पड़ जाती. सूनी दोपहरों को दूसरी जनानियों में मगन रहती.

“बड़ौदा में उस पतुरिया का पीहर है. वहाँ जाकर तो मुझे जूतों में दाल खानी है” एक रोज़ जुगनू खाँ से उसकी माँ माखन बीवी ने कहा. उनका इशारा जयाबाई पणकर की तरफ़ था. जयाबाई पणकर मानपुर नरवर घराने की सबसे सुयोग्य गायिका थी. वह कोंकण की थी पर माखन बीवी को भरम था कि उसकी माँ बड़ौदा की है.

जयाबाई की बीनकार माँ बहुत पहले बड़ौदा में नौकर थी. वहीं खाँ साहेब ने उसे गंडा बाँधा, उसके हाथों से ले लेकर मिठाइयाँ उड़ाई उसे अपने हाथों से गुड़, धना और चने खिलाए और अपना घर ख़राब कर लिया. “क्या तुझे खानपान की कोई तकलीफ़ है? कोई गहना-लत्ता कम है?” कई दफ़ा अटवाटी-खटवाटी किए पड़ जाती तो खाँ साहेब पूछते. माखन बीवी की सास रंज होकर कहती, “सौत सर पर बैठाई, अब खानपान लत्ते-गहने पर पी के पातर सिर धरे हाँ नहीं तो कि”. 

“अब्बा, सुना आपने? किरानेवाले अब्दुल करीम खाँसाहेब की बीवी ताहिराबेगम अपने पाँचों बच्चों को लेकर भाग गई” जुगनू खाँ ने एक शाम बात चलाई. जामुन की बहारें थी. नमक लगा लगाकर बेटे, बाप और चाचा जामुन उड़ा रहे थे.

कड़वे खाँ का दामाद किराना घराने से था और अब्दुल करीम खाँ साहब का नातेदार था,  ये भी कोई तमीज़ है बड़ों के बारे में बतियाने की. क्या मतलब कि भाग गई! मियाँ बीवी में खटपट कहाँ नहीं होती!” खाँ साहेब ने गुठली थूकते हुए कहा. जुगनू खाँ चुप्पा हो गए. जब बहुत देर तक कुछ बोले नहीं तो कड़वे खाँ ने पूछा, “दोनों अलग हो गए क्या?”

जुगनू खाँ को फिर जोश आया, “हाँ बीवी अलग हो गई और वापस अपना पुराना धरम ले लिया. बड़े बेटे अब्दुल रहमान का नाम धरा है सुरेश, चम्पाकली का नाम हुआ है हीरा और खुद का नाम ताराबाई माने”.

“ऐं तो कौन सी नई बात की है. ताराबाई नाम तो उसका शादी से पहले का है. हीराबाई उसकी माँ का नाम है सो नातिन का धर दिया. ऐसे ख़राब खून को ब्याहोगे तो ऐसी ही औलादें होंगी. हीराबाई जोऊकर मारुतिराव सरदार की रखैल थी. खाँ साहब ताराबाई को लेकर भाग गए और बरसों बिना शादी के दोनों संग रहें” खाँ साहेब बड़बड़ाने लगे.

“अब्बा, जो पूना चले तो कैसा रहे?” जुगनू खाँ धीमे से बोला.

“और पूना में खाए क्या धूल का पुआ!” खाँ साहेब गुर्राए. जिस दिन से गुंताबाई के संग लगे थे मन था कि तत्ता ही रहता था.

“अब्दुल करीम खाँ साहेब का स्कूल उजड़ गया. चेले-चपाटे मारे मारे फिर रहे है. सब बम्मन है और पूना के. एक एक ने एक सौ पच्चीस तौला सोना चढ़ाया था गंडे के टेम” जुगनू बुदबुदाया.
पास पड़ा डंडा लेकर खाँ साहेब दौड़े, “घरानेदार गायकी को अब रंडियों की तरह हाट हाट बेचते फिरे”. जुगनू हाथ नहीं आया मगर खाँ साहेब को पता चल गया कि कोई बड़ौदा नहीं जाना चाहता. बच्चों को बम्बई-पूना जाने की चाट लगी है और इसमें उनकी माँ की शह है.

मकान, स्कूल की जगह और इतनी बड़ी गृहस्थी के लिए रुपया चाहिए. बड़ौदा जाने का उनका भी जी नहीं था मगर हैदराबाद से भी तबियत तंग थी. क्या करे कुछ समझ न आता था. अगर यह औरत चलन की नेक होती तो इससे भागने को देस देस मारे मारे न फिरते. उनका मतलब गुंता से था. बारह की उमर में जो कुँवारी न रहे तो क्या माँ के पेट से सब खेली खाई आई है. एक दिन नौकर के हाथ जामुन का टोकरा और मिठाई बाँधी और भालचन्द्र को खबर दी कि अगले जुमेरात गंडा बँधेगा. चढ़ावे को दो जोड़ा कपड़े, टोपी, जूतियाँ, सवा सौ तौला सोना, चाँदी का लोटा लगेगा, पाँवभर केसर और पाँच सेर मिठाई.

“देख कहता था न धीरज धर. कौन बनाता है कलावंत नारी को गंडाबंध शिष्य! तू अकेली होगी. मानपुर घराने की हो गई तू” भालचन्द्र ने गुंता से कहा. चढ़ावे का सामान पूरे घर में बिखरा था. लगता था जैसे शादी का घर है. नए जोड़े, टोपियाँ, जूतियाँ, मिठाइयाँ, सूखे मेवे, केसर, कस्तूरी, धना, गुड़ और फूलों के ढेर.

“माँ, देखो चाँदी का लोटा कैसे महकता है” गुंता ने शांतला से कहा फिर दुख से उसका मुख बुझे दीपक सा हो गया. काले मोतियों के पोत गले में डाले माँ कैसी लगती है! गणेश जी के जाने के बाद जैसे पंडाल लगता है. शांतला के सब गहने बिक गए. उसके बदले कोल्हापुर से अशर्फ़ियाँ लाई गई. दस दस तौले की बारह अशर्फ़ियाँ और पाँच तौले की अंगूठी. चाँदी का लोटा उधार लिया. कपड़े-लत्ते घर में बचा बचाकर रखे पैसों से ख़रीदे.

“माँ, गंडा बँधवाने का क्या लाभ! मैं ऐसे ही सीख लूँगी. अपने दागीने बेचकर उस नासी के सब हवाले क्यों करे!” गुंता ने माँ का हृदय परखने के लिए कहा. डरती भी रही कि माँ हाँ न कह दे और खाँ साहेब के नाम का गंडा उसकी कलाई पर बँधते बँधते रह जाए. खाँ साहेब के प्रेम में वह पूरी पृथ्वी सोने में मढ़कर खाँ साहेब की ओर लुढ़काने को तैयार थी. शांतला ने कुछ नहीं कहा. गुंता का हृदय ऐसी ध्वनि करने लगा जैसे बाहर निकल आएगा.

“अरे यह एक सौ पच्चीस तौला तो तू एक एक सभा में कमा लेगी” भालचन्द्र ने बात सम्भाली, “फिर लाद देना माँ को ऊपर से नीचे तक सोने में. मैं पता नहीं रहूँगा कि नहीं तेरा गाना सुनने”. गुंता रोने लगी. बाबा ऐसा क्यों कहते है. अच्छे भले स्वस्थ मानुष ऐसा कहते अच्छा लगता है भला. खाँ साहेब से दस बारह साल छोटे ही होंगे बाबा पर बुड्ढे लगते थे. शांतला के भी नयन टपकने लगे. देर तक कोई कुछ बोला नहीं.

गंडाबंधन इतनी भीड़भाड़ में हुआ कि गुंता खाँ साहेब को बता ही न सकी कि वह खाँ साहेब के लिए प्राण तक देने को उत्सुक है. वे अपने बेटे, भाई-भतीजों के संग आए और अतिथिसत्कार में ही सब समय चला गया. ढाके की मलमल के गुलाबी कुर्ते में खाँ साहेब की गठा हुआ सीना देख देखकर उसे कसने का कितना जी होता था. खाँ साहेब की गर्दन कितनी बलवती दिखती थी लम्बी और मोटी. बाँहें ऐसी कि पहलवान को काँख में दबा ले तो मारकर ही छोड़े और जाँघों की एक एक माँसपेशियाँ गिन लो. उस दिन गुंता कुछ न देख सकी पर अब खाँ साहेब को ठीक से देख लेना चाहती थी. जिसपर अपना जीवन और प्राण अर्पण किया उसकी मूर्ति हृदय में अविचल विराजमान रहे. 

छोड़ एक जुगनू खाँ को पूरा कुटुम्ब पूना चला गया. उसकी बीवी और बेटा भी पूना गए. जुगनू खाँ को यह आदेश था कि गुंताबाई को भैरवी और यमन सिखाए. उन ज़मानों में शुरू में रागों के नाम न बताए जाते थे. रातदिन सुर भरना यह शग़ल था लिहाज़ा जुगनू खाँ भी यही करते. नौजवान का पहले ब्याह करो, उसे संगति का सुख हो और फिर एक अचानक दिन उसकी बीवी को उससे दूर कर दो यह कौन सी रीत थी! जुगनू खाँ समझ न पाते. जाते जाते खाँ साहेब ने बस इतना कहा, “ज़्यादा दुनियादारी करिएगा जुगनूमियाँ तो फेफड़े बैठते देर न लगेगी और साँस गवैये का आधार है. लंगोट के पक्के रहिए, चचा कड़वे की देखरेख में रहिए.”



(तीन)
हैदराबाद में चारमीनार की सैरसपाटे थे, लाड़ बाज़ार की भीड़भाड़, बचपन के दोस्ताने थे और ठौर ठौर दाग़ देहलवीं को गाती बाइयाँ थी. वहाँ जुगनू की बीवी वज़ीरन थी. वह हरे छींट का खड़ा दुपट्टा पहनती थी, गले में कटहले की लड़ और कानों में मोती की बालियाँ आँखों को कैसे हरे हरे लगते थे. मीठा पकाना, मीठा कहना और मीठा गाना उनका दिनोंदिन का शग़ल था.

यहाँ सांगली की नारें कटु बोलती, ज़रा बात में लड़ने ठाढ़ी हो जाती और तीखा पकाती, खाती. सकारे उठकर सीधे उस गुंताबाई को भैरव सिखाने जाते. दोपहर लौटकर थोड़ा आराम, सूरज ढलते ढलते फिर गुंताबाई के घर पहुँचकर यमन कल्याण चलता. हलवाई के यहाँ एक पैसे का दूध पीकर लौट आते. अचकन गंडाबँध के दिन से जो खूँटी पर टाँगी तो महीनों हुए टँगी की टँगी रही. पहनने का मौक़ा न आया. चचा राजबाड़े एक दफ़ा भी नहीं ले गए कि अचकन पहनते और दो कमरों में बसर करनेवाली गुंताबाई के दड़बे में अचकन पहनकर कौन सी नवाबी दिखाना थी!

गुंता यों रहती जैसे बालराँड हो. बाल दिनों से न धोए न गूँथे. कुंकुम लगा है कि नहीं पता नहीं क्योंकि दर्पण में इतने दिनों से मुख तक नहीं देखा. सूती धोतियाँ पहने रहती और सफ़ेद ब्लाउस. खाँ साहेब के यों अचानक जाने से हुआ अचरज दिन दिन बीतते अंदर तक रिस रिसकर उसके हृदय की शिरा शिरा निर्बल कर गया था जैसे पानी के रिसते रहने से महल खण्डहर हो जाते है. उसे कुछ सूझ न पड़ता. माँ के दागीने गए, बाबा ने उधार किया इसलिए हिंस्र पशु जैसे अपने चित्त को वह किसी भाँति साधकर भैरव पर टिकाती. यमन कल्याण भी वह गाती थी और जुगनू खाँ को लगता था कि उसके यमन कल्याण में राग का सत्य स्वरूप प्रकट होता है पर गुंताबाई का जी भैरव पर टिकता.

अगहन के जाड़े थे और उजाला भी न हुआ था. गुंताबाई भैरव के लिए तम्बूरा लगा रही थी और जुगनू खाँ तम्बाकू मसल रहे थे. गुंता की लट पूरे मुँह पर बिखरी हुई थी, पपोटें सूजे हुए जैसे रातभर सोई न हो. दुबली इतनी कि गले की हड्डियाँ गाते समय धौंकनी सी चलती. कुचैली धोती में पद्मासन लगाए बैठी थी. मानपुर-नरवर घराने में रीत थी कि सबसे पहले पद्मासन में बैठना बताओ. “पुरुष तो आदत डाल लेते है मगर औरत की जात चंचल बड़ी देर में सीखती है” खाँ साहेब ने गुंता को सबसे पहले होशियार किया था और गुंता सप्ताहभर में तीन तीन घंटा पद्मासन लगाकर बैठने लगी.

अलाप लगाने को हुई तो जुगनू खाँ ने टोका, “सुनो, गुंताबाई हमारी बात. घराने मानपुर-नरवर की आत्मा है रस. रस की सृष्टि के लिए सब संगीत है. सुर, ताल सब वृथा जो रस न आए. राग को न्यौता और राग आया तो उसे रस पिलाओ न पिलाया तो राग बद्दुआ देकर लौट जाता है. राग का अपना स्वाभाविक रस है मगर गाने का ठौर, काल और गवैये का मन इन तीन चीजों से रस में हेरफेर होता रहता है. रस खुदा की बनाई चीज़ नहीं रस गवैये की बनाई चीज़ है फिर भी रस खुदा का बिरादर है. जानो रस को अल्लाह ने अपना भाई माना है. रस सिद्ध करो. रस सुर और पुकार से पैदा होता है. समझी, पुकार का वक़ार समझो जो नाच में नज़र है वह गाने में पुकार.”

बम्बई चौक पर जलसा था. १९२४ का बसन्त अभी लगा ही था और उस जलसे में कौन नहीं था. भातखंडे पण्डित उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ साहेब और खाँ अटरूँ खाँ साहेब के संग बैठे थे. दो चार कुर्सी छोड़कर उस्ताद अब्दुल करीम खाँ साहेब अपने गानेवाले अजूबा कुत्ते टीपू को लेकर बैठे थे. बीवी छोड़ जाने के बाद से सेहत में बिगाड़ था और तबियत उखड़ी. सबसे छोटी गुंताबाई गवस थी लिहाज़ा उसकी टेर सबसे पहले हुई. पहली महफ़िल और इतनी बड़ी हस्तियाँ सामने विराजी. खाँ साहेब को देखकर बार बार रोना आता था सो अलग. खाँ साहेब आँख में आँख देकर गुंताबाई को देखते तक नहीं. ऐसे देखते जैसे गुंताबाई औरतज़ात न होकर गगरी-लोटा हो.

जुगनू खाँ ने पीछे से दोनों हाथ उठाकर धीरज धराया. जुगनू खाँ अपने बाप से कितने अलग है! इतने दिनों बाद पहली बार गुंताबाई को लगा जब उसने स्टेज से जुगनू खाँ को देखा. खाँ साहेब नाटे, क़द्दावर और साँवले जबकि जुगनू खाँ लम्बे लम्बे हाथ पैरोंवाले, दराजक़द, गुलाबी रंगत के थे. नौउम्री में जो भीतर लगातार कम्पन होता रहता है, मन फ़ौव्वारे सा उछलता रहता है वह जुगनू खाँ को देखते ही लगता था. देर तक गुंताबाई तम्बूरा लगाती रही. महफ़िल में खुसरपुसर चालू हुई तो सफ़ेद साड़ी और मोतियों की लड़ पहने एक सुंदर प्रौढ़ा मंच पर आई.

साड़ी सफ़ेद न थी उसपर बहुत हल्के गुलाबी धागे से फूल कढ़े थे. कानों में हीरों के बुंदे ऐसे चमकते थे कि मुँह पर आँख न टिके और विदेशी इत्र ऐसा लगाये थी कि लगता उसके पल्लू से लगकर सो जाओ. “गाओ, बेटी. क्या गाओगी?” उस भव्य स्त्री ने पूछा. कितनी रुआबदार आवाज़ थी मगर फिर भी ऐसी कि गुड़ की डली कानों में फूटे. गुंताबाई को हिम्मत हुई, कहा, “भैरवी”.
“जलसे का श्रीगणेश भैरवी से!” उस स्त्री ने पूछा. उसकी आँखें निराशा की नीली रेख से खिंच गई. गुंताबाई को उसके निकट आने से बहुत संतोष हुआ था इसलिए निधड़क उत्तर दिया, “हमारे गुरु ने हमें भैरव और यमनकल्याण सिखाया है”.

“सन्ध्याकाल है यमनकल्याण गाओ” कहकर वह खड़ी हो गई. कितनी लम्बी थी और कितनी सुडौल, गुंताबाई ने आँख उठाकर देखा. चौदह की गुंताबाई उसके आगे कैसी चाकर सी दिखती. उस भव्य स्त्री के पाँवों में सोने की मोटे मोटे छड़े जब तक वह स्त्री मंच से उतर नीचे तक बिछी गादियों में ओझल न हुई गुंता देखती रही. गुंताबाई गवस ने भैरवी ही गाई और क्या ख़ूब गाई.

“हृदय बींधकर रख दिया बालिका ने. ऐसी पुकार बरसों हुए नहीं सुनी. घग्घेखाँ लगाते थे ऐसी पुकार. भई मानपुर-नरवर की गायकी का क्या ख़ूब उठान है. भैरवी कैसी करुण है आज पता लगा” भातखंडे पण्डित ने कहा. उसके बाद तीन दिन जलसा चला. खाँ साहेब को देखती गुंता बैठी रहती. बीच बीच में वे उस सुंदर प्रौढ़ा के कानों में कुछ कहते जाते. बीस-बाईस साल की एक लड़की संग बैठी थी उससे गुंता ने पूछा, “ये बाई कौन है?” उसकी खाँ साहेब से ऐसी संगत देखकर गुंता को बुरा गुजरा था.

“तुम्हारे घराने की तो है जयाबाई पणकर. खाँ साहेब अटरूँ खाँ साहेब से सीख रही है. ख़ूब अच्छा मल्हार गाती है” उस लड़की ने कहा. गुंता थोड़ी देर तक जयाबाई पणकर को देखती रही फिर बात बदलने को उस लड़की से पूछा, “तुम्हारे गुरु कौन?”

“मैं मोगूबाई कुर्डीकर. पहिले अलादियाँखाँ साहेब से सीख रही थी अब आगरे घराने में आई” उस लड़की ने कहा. कैसी उदास आँखें थी और मुस्कुराती तो ऐसा लगता रो पड़ेगी.

“तुम्हारे यहाँ खटराग गाते है न छह रागों का इकल्ला राग?” गुंता ने जी बहलाने को पूछा. मोगूबाई रोने लगी. गुंता ने उसकी चोटी पकड़ ली और गुदगुदी करने लगी. मोगूबाई बीस की रही होगी और गुंताबाई पंद्रह की. दोनों हँसी-ठट्ठा करने लगी. इतने दिन बाद पहली बार गुंता हँस बोल रही थी. जुगनू खाँ उसे विस्मय से निहारता रहा, अच्छा अपनी संगीसाथिनों के संग हँसती-बोलती होगी. जयाबाई पणकर ने दोनों लड़कियों को आँख दिखाई और गुंताबाई को बुलाकर कहा, “जाओ मेरी मोटर लेकर बम्बई घूमो. नौकर है मोटर में, जाओ समुद्र देख आओ”. दोनों जाने को हुई तो जुगनू खाँ ने टोका, “यही बैठो. सबको सुनो. सैर को नहीं आई”.



(चार)
जयाबाई पणकर ने शीला धर से कहकर १९७३ में गंगूबाई हंगल के संग गुंताबाई गवस को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार दिलाया. ऐसा हुआ कि गुंताबाई बाद में बम्बई आई और मटुंगा में मकान लेकर रहने लगी. जुगनू खाँ का उसपर बहुत लाड़ था और उसने गुंताबाई को हज़ारों बंदिशें बताई थी. जयाबाई पणकर,  हीराबाई बरौडकर, केसरबाई केरकर और गुंताबाई गवस यह चार गायिकाओं ने बड़ी धूम मचाई. पुकार अंग के कारण मानपुर नरवर घराने में रस का जैसे साक्षात् दर्शन होता था इसलिए जयाबाई पणकर और गुंताबाई गवस की अधिक प्रसिद्धि थी. खाँ साहेब का देहान्त १९४७ को आज़ादी मिलने से एक दिवस पूर्व हुआ.

जुगनू खाँ से जयाबाई पणकर की पटती न थी. आख़ीर जयाबाई पणकर को उसकी माँ माखनबीवी अपनी सौत मानती थी. गुंताबाई भी जयाबाई पणकर का मुख देखना गवारा न करती. ऐसे खाँ साहेब के देहान्त के बाद जयाबाई पणकर अकेली पड़ी मगर उन्होंने अपनी बेटी गौड़सारस्वतों में ब्याही थी और बहू दैवज्ञ ब्राह्मणों के परिवार से लाई थी इसलिए बड़े बड़े कार्यक्रम में उनका आना जाना था. नेहरू ने एक सभा में उन्हें ‘स्वरस्वती’ की उपाधि दी थी.

जुगनू खाँ के कारण घरानेदारी निभाने का ज़िम्मा गुंताबाई गवस के कन्धों पर आया. घराने की बंदिश, ख़ास राग-रागिनी गुंताबाई गवस के भाग्य में पड़ी. ऋतु के रागों के लिए मानपुर-नरवर घराने की ख्याति थी और जयाबाई पणकर का मल्हार और गुंताबाई गवस बसन्त सुनना सहृदय अपना परम सौभाग्य समझते. फिर अप्रैल १९६६ को मटुंगा रेल हादसे में जुगनू खाँ चल बसे.

शीला धर साँवली पर बहुत मनमोहक थी. कांजीवरम की नीली साड़ी पहनकर वे जयाबाई पणकर के वर्ली स्थित बंगले पर पहुँची. जयाबाई पणकर के पति डॉक्टर लम्बोदर दामोदर पणकर कोल्हापुर के सिविल सर्जन पद से सेवानिवृत थे और बगीचे में बैठकर अख़बार पढ़ रहे थे. बगीचा समुद्र से लगा हुआ था. पत्थर की दीवार से आ आकर लहरों के पछाड़ खाने की आवाज़ आती रहती. देर तक शीला धर बगीचे में बैठी डॉक्टर साहब से बात करती रही. डॉक्टर साहब को इंदिरा गाँधी के विषय में जानने में बहुत रुचि थी और शीला धर के पति इंदिरा गाँधी के ख़ास सलाहकार थे. शीला धर जयाबाई पणकर से मिलने आई थी पर वे कहीं दिखाई न देती थी.

नौकर ने आकर खबर की कि खाना लग गया है और दोनों भीतर पहुँचें. चाँदी के बर्तनों में तरह तरह व्यंजन सजाए खाने की मेज़ पर जयाबाई पणकर बैठी थी. वे आज भी बहुत हल्के रंग की गुलाबी शिफ़ॉन की साड़ी पहने थी. गले में पन्नों की लड़ और कानों में हीरों के जुगनू, हाथों में हाथीदाँत के कंगन और शीला धर ने देखा जब वे उनके स्वागत में खड़ी हुई कि उस बुढ़ापे में भी ऊँची एड़ी की सैंडल और सोने की मोटी मोटी छड़ें पहनी है. फ़्रांसीसी सुगन्ध से उनके काले बाल महक रहे थे. गवैया के बजाय वे राजपरिवार की कोई रेटायअर्ड सदस्य लगती थी.

“कोकम की कढ़ी लो थोड़ी” जयाबाई पणकर ने कहा. डॉक्टर चुपचाप खाते रहे फिर सोने चले गए. आइस क्रीम के कटोरे लेकर दोनों समुद्र से लगे एक छोटे से कमरे में आ गई. एसी के कारण तापमान सोलह डिग्री सेलिसियस था और सोफ़े ऐसे कि धँसते चले जाओ. शीला ने बैठते ही कहा, “हाउ कोज़ी!” बातों के दौर में लंच से शाम की चाय का समय हो गया.

“खाँ साहेब ने गुंताबाई गवस को कभी सिखाया ही नहीं” सोफ़े पर पाँव चढ़ाए बैठी जयाबाई पणकर ने चकली खाते हुए कहा.

“वे तो कहती थी खाँ साहेब ने उन्हें गंडा बाँधा था” शीला धर ने चाय का घूँट भरा और बोली. कड़क, बहुत ज़्यादा शक्कर और इलायची वाली चाय थी.

“जुगनू खाँ इसके उस्ताद थे. जुगनू खाँ कड़वे खाँ साहेब के संग बहुत रहे और अपने ताऊ घोड़े हुसैन खाँ के संग भी. उन्हें मानपुर-नरवर घराने की एक एक चीज़ याद थी. खाँ साहेब तो पूना में रहे मुझे सिखाया. खाँ साहेब गुंताबाई से बहुत कुपित रहते थे” जयाबाई पणकर को इसी वर्ष पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया था इसलिए आनंदातिरेक के कारण वे बहुत अधिक बोलने लगी थी, “तुमसे एक बात कहूँ. कादम्बरी में न लिखना”.

“जयाताई मैं उपन्यास नहीं लिख रही हूँ” शीला धर ने तुरंत सफ़ाई पेश की.

“हाँ जो भी क़िस्से-कहानी तुम लिखती हो उसमें मत बताना. गुंताबाई की जो बेटी है, बैंक में रुपए गिनती थी. क्या नाम है? शान्तला खत्री. वह जुगनू खाँ की बेटी है. बात यों हुई कि जुगनू खाँ से सीखते सीखते गुंताबाई गर्भवती हुई तब जुगनू खाँ उसे लेकर पूना आया और खाँ साहेब ने कहा इसे जयाबाई के यहाँ रखो. बहुत कष्ट का काल था. गुंताबाई का बाप उसे ढूँढता फिर रहा था. एक लड़का था जगरूप खत्री नाट्य मंडळी में नायिका बनता था फिर बम्बई गया सिनेमा में काम करने. उससे मैंने गुंताबाई का लग्न कराया. गृहस्थी का सब सामान दिया. दागीने बनवाए” जयाबाई बोलते बोलते फुसफुसाने लगती. शीला धर को अपना कान बिलकुल उनके मुँह में देना पड़ रहा था.

“तब से ही खाँ साहेब को गुंताबाई फूटी आँख न सुहाती थी. जुगनू खाँ गुंता पर अंत समय तक प्राण देता रहा. मरा भी उसी स्टेशन पर जहाँ गुंताबाई गवस का घर था. गुंताबाई का आदमी सिनेमा में सफल न हो सका. दारू पी पीकर मर गया. उससे गुंताबाई को एक लड़का है सारंग खत्री. अच्छा गाता है. मेरे पास आता है नई चीजें सीखने.”

शीला धर ने पूछा, “आपसे भी तो नहीं पटती थी गुंताबाई की.”

“कृतघ्न थी बहुत. जुगनू खाँ के मरने के बाद तुमसे कहकर उसे संगीत नायक अकादमी दिलाया मैंने. उसके बाद बहुत अहंकारी हो गई. गोमंतक सारस्वत परिषद की वार्षिक सभा थी. उसी बरस उसे पद्मश्री और मुझे पद्मभूषण मिला था. गोमंतक समाज के लिए विशेष अवसर था क्योंकि सबसे अधिक पद्म पुरस्कार हमारे समाज को मिले थे. उसे भी बुलाया भाषण करने. सुख का अवसर था और जानती हो उसने घमंड में आकर क्या कहा?” जयाबाई ने आँख उठाकर पूछा.

“क्या?” शीला धर उन्मन हो गई थी. गोमंतक सारस्वत परिषद की सभा में क्या हुआ यह जानने में उनकी किंचित रूचि न थी.

“भाषण में कहा कलावंत स्त्रियों को आज पुरस्कार मिल रहे है बहुत अच्छा पर यह न भूलिए कि इसके पीछे हमने कितना त्याग किया है. कोंकण में हमारे शरीरों को गौड़सारस्वतों ने जैसा चाहा बापरा. फिर संगीत सीखने गए तो गुरुओं से शरीर का धंधा किया. नाट्यमंडळियों में शरीर का धंधा किया. पेशा वेश्या देश शय्या रहा. यह नहीं भूलना चाहिए हमें”. जयाबाई के कहने का ढंग थोड़ा बदला जैसे गुंताबाई गवस की मंच पर भाषण देने की नकल कर रही हो, “समाज के वृद्धों और गुरुजनों के सिर नीचे हो गए. कल की आई औरत हमें बता रही है कि हमारे समाज की औरतें शरीर का धंधा करती थी! यही नहीं यह भी कि हम इसे गर्व का विषय माने न कि लज्जा का जानकर छुपाए! पहले पूर्वजों को वेश्या कहा फिर गुरुजनों को झूठा”.

“मैं पीछे गई उससे मिलने तो हमारा बहुत टंटा हुआ. ख़ुद नाली में लोटकर चाहे गू मल मुख पर मगर जिन लोगों से सीखा उनका नाम धरना क्यों! तो बोली कोंकण में गौड़ सारस्वतों ने उसकी माँ-नानियों का ख़ूब शोषण किया. जुगनू खाँ की औलाद पैदा की तो मज़े लेकर की कौन सा दुख उठाया तूने! मैंने पूछा तो कुछ बोली नहीं. खाँ साहेब और जुगनू खाँ की इज्जत करती थी मगर वे भी तो उत्तर भारत के आद्यगौड़ समाज के थे. ख़तना कराया तो जाति ख़त्म हुई ऐसा सोचना कैसे हुआ! सरस्वती की साधना करनेवाले कलावंत बम्मन नहीं हुए तो क्या हुए! फिर दूसरे बम्मनों को कोसकर कौन सा कल्याण. उसके मटुंगा के घर की बात है. मैं खड़ी खड़ी लौट आई. पानी तलक नहीं पिया. फिर एक दिन घर आई विदेश साबुनों का डब्बा लेकर”.

जयाबाई पणकर बोलती गई पर शीला धर के पल्ले कुछ अधिक नहीं पड़ा. शीला धर के अफ़सर पति का काम ख़त्म हुआ तो वे दिल्ली लौट आए. जयाबाई पणकर से कोई ख़ास जानकारी उन्हें मिली नहीं. जयाबाई संगीत की बात छिपा जाती थी. संसार भर की बात करती मगर संगीत की बात गुप्त रखती. शीला को लगता था जयाबाई पणकर को भारतरत्न देना चाहिए. धर साहब से कहा तो वे कुछ देर चुप रहे फिर फ़ाइल से आँख उठाकर कहा, “गवैये को भारत रत्न!” “उनसे अच्छा मियाँ का मल्हार कोई नहीं गा सकता” शीला ने कहा.

“मुझे तुम्हारी वह गुंताबाई गवस का बसन्त बहुत अच्छा लगता है” धर साहब बोले फिर फ़ाइल उठाकर दूसरे कमरे में चले गए. मसला उलझा था और उन्हें फ़िलहाल रागदारी पर चर्चा चलाने की कोई इच्छा न थी. 



(पांच)
तीन दिन के जलसे के बाद जुगनू खाँ की बहुत इच्छा थी कि पूना जाकर बीवी-बच्चे से मिल आए. खाँ साहेब इसपर चिढ़ गए, “गुंताबाई को लेकर दुनिया के सपाटे करने के ख़्वाब है. आँख का पानी रखने में अब इतना ज़ोर! बीवी से मिलने को मरे जा रहे है”.

“अब्बा एक बार अम्माँ से मिल लेता” जुगनू खाँ मिमियाए.
“गुंताबाई को सांगली छोड़कर आओ पूना. रहना महीना दो महीना” जयाबाई पणकर ने बीच बचाव किया और बताशे, लड्डू रास्ते के लिए दे दिए. खाँ साहेब के किसी रसोइये को कहकर रास्ते के लिए पूरी और आलू की सब्ज़ी धरवा दी. जुगनू खाँ और गुंताबाई का रेलगाड़ी का टिकट आ गया.

रात डेढ़ बजे सांगली में उतरे. फाल्गुन की पूर्णिमा थी. दूसरे दिन धुलेंडी इसलिए ताँगेवाले न थे. स्टेशन पर गुंताबाई को छोड़कर जुगनू खाँ गाड़ीवान ढूँढते रहे. गुंताबाई का घर दूर था. कितना विशाल और कितना लाल चन्द्रमा निकला था उस रात और वासंती पवन में थोड़ी थोड़ी शीतलता शेष थी.

बड़े जतन के बाद एक बैलगाड़ीवाला घर छोड़ने को तैयार हुआ. लग्न पीछे वधू लानेवाली गाड़ी थी. दुपहरिया के फूलों के रंग की झण्डी ऊपर लगी हुई थी और हल्दी से रंगे चंदोबे पर अनार के रक्तवर्ण से स्वस्तिक बनाए गए थे, दारूहल्दी से किनोर किनोर कमलावलियाँ. बीच बीच में लाख के लाल ठप्पे और ढाक के फूलों की छींट पड़ी थी. कुसुम्भी रेशम का अंदर गदेला पड़ा हुआ था जिसपर मंजीठिया रंग के मख़मल के तकिए थे.

पिछोर में पेटियाँ और पोटले रखें और पहले गुंताबाई गवस चढ़ी पीछे जुगनू खाँ. चंदोबे के छेद से देखने पर जानते कि चन्द्रमा गुंताबाई का पीछा कर रहा है. तम्बाकू फूँकते गुंताबाई ने पहली बार जुगनू खाँ को देखा था. बार बार बीड़ी बुझ जाती और जैसे ही वे माचिस जलाते गुंताबाई के पान से लाल पड़े होंठ दिखाई देते.

“बसन्त ज़र्द है. हमारे घराने में तीव्र मध्यम लगाते है. पीला कैसा है जानती हो? सुना था जब अब्बा ने गाया था?” जुगनू खाँ ने पूछा. ओहार के जोड़ों के बीच जो जगह थी वहाँ से ठण्डी हवा आ रही थी, जुगनू खाँ की लहरिया पगड़ी ढीली होकर खुल रही थी. उसके पेंच खुल खुलकर उसके कंधों पर आ गए थे. गुंताबाई ने उत्तर नहीं दिया, वह ऊँघ रही थी. “बसन्त कोई आनंद का राग नहीं. कच्चे गवैये इसे आनंद का राग समझते है. कोई जलसा हो तो उसकी तैयारी को लेकर जो बेचैनी होती है न बसन्त उस बेचैनी का राग है. तुम्हें बसन्त बताऊँगा कल से” जुगनू खाँ ने गुंताबाई का कंधा झँझोड़ा.

“जैसे श्री चिढ़ का राग है वैसे बसन्त बेचैनी का. अच्छा बताओ- उसका रंग कैसा है? अब्बा के गाते टेम कौन से रंग का दिखाई दिया था?” जुगनू खाँ ने फिर तीली सुलगाई. क्षणभर को गुंता के बड़रे नयन दीप्त हो उठें.

“जैसे लाल पगड़ी को कोई बहुत धोए और बहुत धूप में पहने तब जैसा रंग खिलकर निकलता है वैसा” गुंता ने उत्तर दिया, “मगर उन्होंने तो दोनों मध्यम लगाए थे”.

“वह उस्ताद है चाहे दोनों मध्यम लगाए. मानपुर-नरवर घरानेदारी में बस तीव्र मध्यम” जुगनू खाँ ने बताया और फिर चिल्लाए, “ऐं ज़रा रोक गाड़ी”. गाड़ी से फिर झट से कूदें. आधी रात को नीम तले रुकने का क्या कारण! ओहार के जोड़ों से बाहर देखती गुंता सोचने लगी.

“जा, ले आ झटपट” रुपया देते गुंता ने देखा.
“कलाली खुली न होगी” गाड़ीवान बोला.
“बहस मत कर. लेकर आ” जुगनू खाँ ने जवाब दिया. गाड़ीवान दौड़ गया और जुगनू खाँ तम्बाकू पीते रहे.

जब पूरा पी चुके पर्दा उलटकर भीतर झाँका, “बस चलते है. बसन्त में एक ब्याकुल टेर होती है मगर दुख की नहीं न सुख की”.

“फिर?” गुंताबाई ने पूछा. पर्दा हटने के कारण जुगनू खाँ के मस्तक के पीछे चन्द्रमा जैसे खड़े खड़े डोल रहा था. उनकी पाग पूरी तरह खुलकर कंधों पर पड़ी थी और काले स्याह बाल कानों के ऊपर उड़ रहे थे. “कुसुम्भ सुजान निज़ामुद्दीन पियू” जुगनू खाँ ने स्थायी बोलकर बताई, “जा घरी न तुमको देखूँ, कौन बिध जिऊँ”. गुंताबाई के बाएँ पाँव का अँगूठा साड़ी से निकलकर दिखाई दे रहा था. उसका नाख़ून कमल की पंखुड़ी की तरह दिखाई देता था जुगनू खाँ ने धीमे से उसे पकड़ लिया. ऊँघती गुंता को पता तक न चला. उसका मगज बंदिश में अटक गया था, “कुसुम्भ सुजान निज़ामुद्दीन पियू”. गाड़ीवान बहुत देर में लौटा और ख़ाली हाथ. आते ही गद्दी पर बैठ गया और गाड़ी हाँकने लगा.

“क्यों बे लाया?” जुगनू खाँ गरजे.

“कलाली बंद थी उस्ताद” गाड़ीवान ने कहा और फिर, “चल चल चल” रटने लगा. जुगनू खाँ बुदबुदाते रहे, “होते मर क्यों नहीं गया खनगी के पूत”.

घर पहुँचे तो ताला लगा था. जुगनू खाँ गाड़ी में बैठे थे, “क्या हुआ गुंताबाई?”

“ताला लगा है” गुंता चिल्लाई. फिर देर तक दोनों पड़ौसियों के किवाड़ खटखटाते रहे पर लोग छक सोए थे. गुल्ला ताई के पति ने बहुत देर बाद दरवाज़ा खोला, “अरे गुंता! तेरी माँ को ईसाई अस्पताल में भर्ती किया है. दिमाग़ पर बुख़ार चढ़ा बोलकर. भालचन्द्र ने टेलीग्राम दोपहर को ही दिया. तेरी मौसी के संग सो जा. सकाले अस्पताल जाना”.

गुंता गाड़ी की ओर दौड़ी, “खाँ साहेब मुझे अस्पताल ले चलो, खाँ साहेब”.

अस्पताल के बड़े फाटक पर ताला लटका था और लाख बजाने पर भी कोई न उठा. चन्द्रमा अस्त होने को था. बहुत रात हो रही थी.

“ऐं, गाड़ी यही खड़ी कर दे. बाईजी यही सोएँगी. गुंता तुम गाड़ी में बिसराम करो. अस्पताल खुलते देर नहीं लगेगी”. गुंता गाड़ी में आकर बैठ गई. नींद तो आने से रही. अपनी माँ शांतला की बीमारी का सुनकर रोने लगी. जुगनू समझाने लगे, “कुछ नहीं होगा तेरी माँ को. चिंता नक्को, गुंताबाई”. फिर अचानक गुंताबाई का अँगूठा पकड़ लिया. गुंताबाई छुड़ाने को कसमसाई तो जुगनू खाँ पाँव उठाया और अँगूठा मुँह में भरकर काट लिया. गुंता चिल्लाने लगी, “छोड़ो खाँ साहेब. तुम्हारे अब्बा क्या कहेंगे”. गाड़ीवान दौड़ा आया, “बाई, क्या हुआ बाई”.

“कुछ नहीं, खसम-लुगाई के बीच मत बोल” गुंताबाई ने कहा. कैसी पकी आवाज़ है, जुगनू खाँ सुनते रहे.

चार बजे फाटक खुला तो गुंता भागी भागी भीतर पहुँची. अस्पताल में ज़्यादा मरीज़ न थे. एक कोने में शान्तला पलंग पर सोई हुई थी और बाबा ज़मीन पर. पलंग पर सोती माँ कितनी सुन्दर दिखती है, गुंता ने देखा और निश्चय किया कि जलसे से मिली रक़म से माँ बाबा के लिए पलंग गढ़ाएगी. “बाबा, उठो बाबा. क्या हुआ माँ को?” भालचन्द्र को जगाते हुए गुंता ने पूछा.

“तू आ गई. डॉक्टर बोले माथे पर ताप चढ़ गया” भालचन्द्र तुरंत उठकर बैठ गया, “उठाऊँ शान्तला को. कब से तेरे बारे में बड़बड़ा रही थी”.

गुंता शांतला के माथे पर देर तक हाथ फेरती रही. जब नहीं उठी तो भालचन्द्र नाड़ी देखने लगा. गुंता दौड़कर नर्स को बुला लाई. पसीने से लथपथ गुंता रोने लगी, “माँ, तू मरना मत. तू कभी मरना मत. तू कभी भी मरना मत.”

“चुपकर लड़की. वह सोई है. हल्ला मत कर” नर्स ने डाँटा.
उस दिन सूर्योदय के बहुत देर बाद शांतला उठी. गुंता जाग रही थी. शांतला के उठते ही उसके हाथ में जलसे से मिली रक़म पकड़ाते हुए कहने लगी, “माँ इससे तेरे और बाबा के लिए पलंग बनवाऊँगी”. शान्तला का ज्वर उतर गया था. ईसाइयों के संग भारत में चिकित्सा और सेवा का नया युग आरम्भ हुआ था. नन बन चुकी नर्स तब तक रोगी के लिए दलिया ले आई थी.
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  1. सुमित गौतम15 मई 2020, 10:51:00 am

    मैं कल से इंतजार कर रहा था.. एक बार मे पढ़ गया .. गजब का प्रवाह और रोचक कथ्य शैली ...��������

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  2. शोभा सिंह15 मई 2020, 10:52:00 am

    अंबरमणि आपको अंबरशास्त्री संबोधित करने का मन हुआ।इतिहास, कलाबोध, भाषा-सौष्ठव के संग कल्पना से कथा का वितान इतना महीन बुना है आपने कि इस गाथा शैली के सौंदर्य पर मुग्ध हुआ जा सकता है ।जैसे बचपन मे विस्मय से भरकर पौराणिक आख्यान सुनते समय मौन धरे दूसरे ही लोक विचरण करते थे। अभिनंदन, आभार और बधाई प्रियकवि����

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  3. आशुतोष दुबे15 मई 2020, 11:36:00 am

    पढ़ ली। सुबह सुबह घन्टा भर चला गया इसमें। आजकल थॉमस हार्डी जैसी महालम्बी 'शॉर्ट' स्टोरी हिन्दी में लिखते हैं लोग।

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  4. आशुतोष दुबे15 मई 2020, 11:38:00 am

    तुम्हारी कहानियों का शिल्प ही कुछ ऐसा अनूठापन लिए हुए है कि वे अन्विति की ओर नहीं जातीं , न किसी नाज नखरे के साथ शुरू होती हैं। वे एक विराट मध्य हैं जैसे यह संसार, जो हमें मध्य में मिलता है और हमारे अंत तक हमेशा अपने मध्य में ही रहता है।

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  5. बेमिसाल, अनूठा सृजन।
    सुघड़ कहानी लेखन का बेजोड़ उदाहरण।

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  6. शिव किशोर तिवारी15 मई 2020, 1:26:00 pm

    डेकेडेंट गुरु-शिष्य परम्परा का शोषण और वंचना (आत्मवंचना भी) से भरा माहौल बहुत अच्छा उकेरा है। कथानक को 1970 के दशक तक लाकर सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ एक नई आत्मवंचक संस्कृति के उदय का भी संकेत दिया है। अस्पताल और नर्स की शक्ल में एक भिन्न सभ्यता के प्रवेश का भी संकेत है।
    औपन्यासिक प्रसार वाला कथानक कहानी में भरते हुए लेखक ने प्रतीकों, संकेतों और समास-शैली का अच्छा प्रयोग किया है। खिड़की पर उग आया गूलर का पेड़, उस्ताद का "पुट्ठे" जांचना, नायिका के गर्भधारण का अचानक उल्लेख, गुंतीबाई के भाँडाफोड़ू भाषण की दूसरे पात्र के मुँह से ( नापसंदगी-भरी) रिपोर्टिंग, आधुनिक हस्पताल और नर्स आदि अनेक ऐसे 'डिवाइस' अर्थपूर्ण ढंग से और चतुराई से प्रयुक्त हुए हैं ।
    विश्वसनीयता उच्च कोटि की है। लेखक ने घराना संगीत की दुनिया का ऑथेंटिक चित्र उपस्थित किया है। ऑथेंटिक माने 'इंटर्नली कंसिस्टेंट', न कि प्रकृतिवादी (जिसे जांचने भर का मेरा ज्ञान नहीं है)।

    अम्बर पांडे की अपनी इडियोज़िंक्रेसीज़' हैं जो भाषा में प्रकट होती हैं। कभी उदुम्बर, कभी 'ठाढ़ हुई'। अब यह भाषा उनके साहित्यिक व्यक्तित्व का अंश हो गई लगती है।

    इस सुंदर कथा को पढ़ाने के लिए समालोचन का धन्यवाद ।

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  7. घरानेदार शास्त्रीय गायकी और गायकों के आस पास बुने शुचिता के प्रभामंडल को तार तार करती कहानी। एक युग का कथा है यह जब समय करवट बदल रहा था, जब मोगुबाई भी मोगुबाई ही थीं, किशोरी अमोनकर की गुरु और माँ की तरह प्रतिष्ठित न हुई थीं और शास्त्रीय संगीत का अभिजात्य दरबारों और साधना की ऊंचाई को छूकर लौट रहा था। बहुत सी अंधेरी पगडंडियां हैं जिनसे गायिकाएँ गुज़रीं और अपनी कड़वाहटों, फिसलनों और जद्दोजहद की अनदेखी कर कला को मांजती रहीं। प्रेम, वासना और लम्पटपन का स्त्री पुरुष संबंधों से हमेशा का साथ है और युगबोध कैसे चीजों के मायने बदल देता है इसका चित्रण महीनी से करने में अम्बर सक्षम हैं। कहानी में प्रवाह गजब का है और भाषा का वैभव और प्रयोग अनूठा। बहुत बधाई अम्बर और समालोचन को।

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  8. बहुत ही सुन्दर गाथा चित्रण, पढने के आरम्भ से अंत तक की यात्रा सजीव शब्दचित्रावली हे

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  9. वंदना शुक्ल15 मई 2020, 4:21:00 pm

    कहानी अच्छी लगी | कहानी से अधिक ये गुन्ताबाई की जीवनी लगी|
    इस विषय के आसपास की कहानियाँ और भी लिखी गयी हैं | सर्वज्ञात है कि पंडित रविशंकर उस्ताद अलाउद्दीन खान साहब के शिष्य थे जिनसे खान साहब ने अपनी बेहद प्रतिभाशाली गायिका बेटी जिनका मूल नाम रोशनआरा था से विवाह कर दिया था | इस विवाह के लिए अन्नपूर्णा देवी ने १९४१ में हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था । बादमें रविशंकर उन्हें छोड़कर विदेश में बस गए थे और वहां दूसरा विवाह किया |उनकी पत्नी ‘’ अन्नपूर्णा ‘’( रोशनारा ) ने जीवन भर इसका पश्चाताप करते हुए संगीत को लगभग अलविदा कह दिया था | कुछ वर्ष पूर्व संजीव जी ने पंडित रविशंकर के जीवन को लेकर पात्र बदलकर ये कहानी लिखी थी | प्रस्तुत कहानी तथा संजीव जी की कहानी में काल का ज्यादा अंतर नहीं लिहाजा संजीव जी की कहानी भी कहीं न कहीं स्त्री के प्रति पुरुषसत्ता की सोच को ही दर्शाती है | यद्यपि संजीव जी की कहानी मे संवेदनहीनता ,अन्याय और प्रायश्चित तो था लेकिन प्रतिरोध नहीं था
    दरअसल अम्बर पाण्डेय की ये कहानी मुगलों के सांस्कृतिक आक्रमण और तत्पश्चात संगीत के पुनरुत्थान के संधिकाल की कहानी है | (मुगलों विशेषकर ओरंगजेब ने भारतीय संगीत को नष्ट कर दिया था | मुसलमान जो शास्त्रीय संगीत के उस्ताद ( शिक्षक ) थे उन्होंने अपने ही परिवार के सदस्यों को संगीत शिक्षा मौखिक देनी शुरू कर दी थी ) संगीत के अस्तित्व को खतरे में देख पंडित विष्णु नारायण भातखंडे और विष्णु दिगंबर पलुस्कर जैसे संगीत दिग्गजों ने उसकी लिपि , पद्धति पुनः ईजाद की और आधुनिक संगीत का मार्ग प्रशस्त किया |)विख्यात बँगला नाटक टीनेर तलवार ( लेखक सुप्रसिद्ध अभिनेता उत्पल दत्त) , नाटक '' हमीदा बाई की कोठी '' या जानी मानी शास्त्रीय संगीत गायिका गंगूबाई हंगल की जीवन गाथा ( जिनका ज़िक्र इस कहानी में हुआ है ),बँगला लेखक शरत चंद की कहानियाँ , सत्यजीत रे की कुछ फिल्मों की प्रष्ठभूमि भी प्रायः यही है |गंगूबाई हंगल की आत्मकथा इस कहानी के आसपास की ही गाथा है ( अनुवाद म्रत्युन्जय ) | इस आत्मकथा तथा इस कहानी की नायिका गुन्ताबाई में फर्क बस इतना है कि गुन्ताबाई ने हालातों से असहमति होने के बावजूद प्रारम्भ में उन्हें स्वीकार कर लिया लेकिन गंगूबाई हंगल जैसी पद्म विभूषण से नवाजी हुई कलाकार ने अपने वैवाहिक जीवन को संगीत के लिए त्यागकर संगीत जगत में एक बड़ी उपलब्धि हासिल की |
    गौरतलब है कि हंगल दिखने में बहुत सामान्य और निम्न जाति की स्त्री थीं | जो स्त्रियाँ अपने हालातों से समझौता नहीं करतीं वे स्पष्टवादी, दुस्साहसी और अधिक इमानदार होती हैं और उन्हें बाद में अपने या स्त्री मात्र के जीवन से भी कोई शिकायत नहीं होती | याद आता है गंगूबाई का एक कथन जिसमे उन्होंने कहा था ‘’ यदि पुरुष बड़ा कलाकार होता है तो उसे उस्ताद कहा जाता है और जब स्त्री बड़ी गायिका हो जाती है तो उसके आगे बाई जैसा असम्मानजनक संबोधन क्यूँ लगाया जाता है ? मैं अपने नाम के आगे भी उस्ताद लगाउंगी बाई नहीं | पुरुष हो सकते हैं तो स्त्रियाँ क्यूँ नहीं ? यद्यपि चूँकि वे तब तक अपनी इसी नाम से विख्यात हो चुकी थींइसलिए नाम नहीं बदला गया लेकिन पुरुष सत्ता के प्रति उनका विरोध ज़रूर दर्ज माना जाएगा |अम्बर की कहानी के अंत में गुन्ताबाई का अपरोक्ष विद्रोह भले ही उतना मुखर नहीं लेकिन अपने प्रायश्चित , पुरुषों की रिश्तों के प्रति संवेदनहीनता तथा एकछत्रता को ज़ाहिर करता है |

    जवाब देंहटाएं
  10. वंदना शुक्ल15 मई 2020, 4:22:00 pm

    अनेक स्त्रीगत विडम्बनाओं को दर्शाने के बावजूद कहानी कहीं भी लाउड नहीं हुई ये इस कहानी की विशेषता है मसलन ‘’पुरुषसत्ता’’ की क्रूरता दिखाने के लिए बेवजह के मार्मिक द्रश्य , लानतें , लांछन इत्यादि से कहानी को नहीं भरा गया है | जयाबाई पंणकर और उनकी मित्र के साथ संवाद में अप्रत्यक्ष रूप से गुन्ताबाई और जुगनू खान के रिश्तों का खुलासा अलबत्ता किया गया है |‘’
    एक प्रतिभाशाली गायिका होने के बावजूद उस समय स्त्री को कितनी दुरूह्ताओं से गुजरना होता था इस कहानी में उस इतिहास की कुछ छाया हैं | इन स्त्रियों के लिए प्रेम , प्रतिभा और हालात में सामंजस्य करना कितना मुश्किल होता था ये कहानी इसी सत्य को उद्घाटित करती है | आज भी फैजावाद , लखनऊ, दिल्ली जैसे शहरों में बदहाली की अवस्था में इस पीढी की चुनिन्दा कलाकार ( शायद अंतिम पीढी ) अपनी कला और ज़िंदगी की आख़िरी साँसें गिन रही हैं जिनकी आँखें इतिहास के उन खंडित पन्नों मे अपने प्रेम , अपनी कला और सम्मान को आज भी खोजती हैं | इन गायिकाओं ( जिस्मफरोश नहीं ) को कितने राजा महाराजाओं , सेठों , ने छला , उनसे विवाह किया और फिर कई बंदिशें लगाकर या तो उन पर अत्याचार किये या फिर वे दुबारा अपने ठिकाने आ गईं |इतिहास भरा पडा है इनसे |कहानी में जिन विध्यावासनी वाइयों के जीवन की दुरूह्ताओं का वर्णन लेखक ने किया है चाहे वे नाट्य संगीत की कलाकार हों , देवदासी प्रथा अथवा बैठकी शैली की गायिकाएं इनके ‘’ घराने ‘’ मात्र सत्ता द्वारा ही संचालित होते थे ( जो पढ़ा है )|लेकिन ये कहानी इसका अपवाद है |
    कहानी अपने तीन चार पैरा तक पाठक को बाँध नहीं पाती क्यूँ कि उनमे आपस में कोई तारतम्य दिखाई नहीं देता | ‘’ खान साहब तानपूरा लगाने लगे , या गुंता बाई भैरव के लिए तानपूरा लगा रही थी संभवतः ‘’ लगाने ‘’ जैसा कोई शब्द शास्त्रीय संगीत में नहीं है | तानपूरा मिलाना अथवा ट्यून करना कहा जाता है |
    अरुण जी ने जो कहानी से मेल खाते चित्र लगाए हैं उनमे एक चित्र में सितार लिए स्त्री वादक है वो तानपूरा लिए गायिका नहीं | कहानी के अंतिम द्रश्यों में गुन्ताबाई को संगीत नाटक अकादमी का पुरस्कार मिलना तथा मंच पर स्त्री कलाकारों की विडम्बनाओं का ज़िक्र करना कहानी की रीढ़ है |
    कुल मिलाकर कहानी विषय, शैली और वैशिष्टय की दृष्टि से अच्छी लगी | पठनीय ...

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  11. सीमा गुप्ता15 मई 2020, 4:28:00 pm

    Seema Gupta
    कहानी नहीं कोई फिल्म है... आंखों के सामने गुजरा जमाना, खान पान, रहन सहन, ढंग ज्यूं के त्यूं आ गए..... अम्बर को अम्बर ठीक नाम दिया गया है.. अनंत विस्तार.... अभी दिल नहीं भरा..... बहुत बार पढ़नी है अभी.....कहानी के साथ सहज बहते बहते अचानक हाथ पांव मारने पड़ते हैं...... अद्भुत है शिल्प अद्भुत हो तुम....... अतीत को वर्तमान में लाने का हुनर खूब आता है..... बहुत बहुत सुन्दर

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  12. अच्छी कहानी. उपन्यास होती तो वे सब पक्ष भी आते जिन्हें जल्दबाजी में जयाताई के जरिये गंताबाई की भाषण क्लिपिंग्स का रूप दिया गया. दरअसल इस कहानी को प्रभावशाली वही अंश बनाता है - देह शोषण की परंपरा और उसरी स्वीकृति

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  13. विनय कुमार15 मई 2020, 7:01:00 pm

    फिर कहता हूँ, इसे उपन्यास होना था।
    पढ़ने लगा तो तो संकेतों और बिंबों ने धावा बोल दिया जैसे ससुराल में नौशे पर सालियाँ बोलती है. �� बहुत सुंदर कहानी! शास्त्रीय संगीत के अज्ञान के बावजूद मज़ा आया।
    यह ADHD नहीं कवियों वाला अधैर्य है । .. उम्मीदें बढ़ती जा रहीं Ammber Pandey जी ��

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  14. हरिओम दीक्षित16 मई 2020, 1:25:00 am

    अच्छी कहानी

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  15. समकालीन रचनाकारों में अम्बर विलक्षण हैं।वे कथानक के अनुरूप भाषा गढ़ने में विशेष दक्ष हैं।शिव किशोर तिवारी जी की टिप्पणी से पूर्णतयः सहमत हूँ।शास्त्रीय रागों के विषय में कथाकार के कुछ मौलिक कथन आश्चर्य से भर देते हैं।देशकाल के अनुरूप जीवंत भाषा,वातावरण के उत्कृष्ट चित्रण तथा तत्कालीन कलाकारों के मानसिक रचाव के वर्णन की दृष्टि से अप्रतिम कहानी है।अंत में वे पुरस्कारों और सम्मानों की राजनीति पर भी कलात्मक ढंग से टिप्पणी करते हैं।ये सही है कि इसे थोड़ी और मेहनत से वे अविस्मरणीय उपन्यास का रूप दे सकते हैं।अम्बर को बहुत बधाई और शुभकामनाएं।

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  16. समालोचन पर amber panday की कहानी 'पातकी रूढ़ि 'पढ़ने के बाद.....
    * कवि जब कहन-कथा कहने बैठता है तो उसका रस ही कुछ ओर होता है..
    * महाराष्ट्र की पृष्ठभूमि, वातावरण,आबोहवा की रज रज जानकारी को ऐसे रस में पगया है कि आप उस समय के सांगली में हो....आम, हल्दी ,नववारी ...यही क्यूं!एक उदाहरण तो कहानी की शुरुआत में आप के चित्त का कब्जा कर लेता है।....आम के टोकरे वाली स्त्री, कमर टेढ़ी कर अटरू खां से बतियाते हुवे...यह जो चित्रण है.....अगर पाठक दूर दूर तक भी महाराष्ट्र से रिश्ता नहीं रखता हो तो भी नववारी वाली बाई की अदा के रस में थोड़ी देर रुक ही जाता है।
    *कलावंत बाईओ से खबरदार रहने की सीख, एक पात्र द्वारा कलावंत कहना फिर विद्याव्यसनी कहना... फिर दूसरे पात्र द्वारा विद्याव्यसनी का मतलब पुछने पर 'वेश्या' बताना... यहाँ पर लेखक ...वाह
    *पात्रो के नाम शांतला, गुंता बाई, अटरू खां, जुगनू खां आदि आदि....पाठक को टाइम मशीन में बिठाकर अपने काल के बना लेते है....
    *गुंता बाई को तमाचे मारकर संगीत सिखानेवाला अटरू खां जल्लाद ही लगा।12 साल की बच्ची!बच्ची का कहना "तुम राग हो क्या?!इधर क्यों घुस आए?( अम्बर का कवि देखो यहाँ पर)
    *एक मध्यमवर्गीय परिवार में अपना बच्चा कुछ बन जाय उसका भविष्य सुरक्षित हो जाय ऐसी भावना के चलते गुंता बाई के माता पिता द्वारा अटरू खां के आगेपीछे घूमना...घराना घराने का संगीत... दुसरो के पास यूँ ही नहीं चल जाय उसका जतन करते उस्ताद और खां...(माता के गहने और बचाये पैसे से गंडआ बंधवाने का जस्न मन को हिला गया)
    *सुर ,ताल सब वृथा जो रस न आये,राग को रस पिलाने की बात...राग का बददुवाएं देना...खास बात ...रस ख़ुदा की बनाई चीज़ नहीं, रस गवैये की बनाई चीज़ है...रस खुदा का बिरादर और अल्लाह का भाई... रस का सुर और पुकार से पैदा होना...नाच मैं नज़र औऱ गाने में पुकार...(वाह!वाह!....यहाँ कवि कथाकार अम्बर खुद जुगनू खां है)
    *जया बाई पण कर'भव्य स्त्री' पर नकचढ़ी और दंभी। ब्राह्मणों का और मुसलमानों संगीत के बहाने ही सही आपस में पास आना... या यूं कहें की कला सब से ऊपर,धर्म का ढकोसला गलित हो कर अद्रश्य होना चाहिए.... पर होता नहीं... संगीत सीखने सिखाने की परिपाटी (उस समयकी) मैं मानवीय स्वार्थ और कमजोर के शोषण का सशक्त चित्रण
    * एक सम्मान के समय गुंता बाई का खरी खरी कहना...कोकण के गौड़सरस्वतो ने हमारे शरीर को जैसा छह वैसा वापरा... गुरुओं से शरीर का धंधा..पेशा वेश्या देश शय्या...(अम्बर आप बधाई के पात्र हो यह गुंता बाई के मुहं मैं रखने के लिये) दो काल खंड की सैर करती कथा , आडम्बरहीन भाषा फिर भी पाठक की पकड़ छुटती नहीं।
    *अंतिम पर खास बात कवि अम्बर कथा लिखते वक्त कथाकार के रूप में कई जगहों पर बहुत सजग लगते है,...या यूं कहें कि अपने अंदर के कवि को थोड़ा रोक लेते है...पर मुझे लगता है आप ऐसा नहीं करोगे तो भी चलेगा
    *बस यही कामना..लिखतें रहो जिते रहो...

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  17. अंबर जी की यह कहानी हिंदुस्तान में शास्त्रीय गायन परंपरा के अंधेरे पक्ष को उजाले में लाती है । बेहतरीन भाषा और आंचलिक पुट,धारदार कहन का नमूना ।समकाल की कहानियों में पढ़ी अब तक की सबसे अच्छी कहानी ,जिसमें कहानीकार की मेहनत साफ दीखती है ,बहुत शुभाशंसायेँ

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