अम्बर पाण्डेय की कहानी ‘४७१४ नहीं बल्कि ४७११’ एक माह पूर्व समालोचन पर प्रकाशित हुई थी, अब उनकी दूसरी कहानी ‘दादीबई
शाओना हिलेल की जीवनी’ प्रस्तुत है. कभी उदय प्रकाश के विषय में नामवर सिंह ने कहा
था कि कवि अच्छे कथाकार होते हैं. क्या यही बात अम्बर पाण्डेय के विषय में कही जा
सकती है ?
‘दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी’ स्वाधीनता
पूर्व भारत की यहूदी स्त्री और कोंकणी पंडित पुरुष के सम्पर्क की कथा तो है ही यह राष्ट्र,
अस्मिता और हिंसा जैसे प्रश्नों से भी उलझती कथा है. इसमें एक पात्र के रूप में
सावरकर भी उपस्थित हैं.
इतिहास, वर्तमान और कल्पना का पठनीय
वृत्तांत.
दादीबई शाओना हिलेल की जीवनी
अम्बर पाण्डेय
(“To destroy a man is difficult, almost as difficult as to create one.”)
खंडवा से बम्बई आते हुए मेरे नाना
त्र्यम्बक दिगम्बर काणे की पहली पत्नी की मृत्यु हो गई. मृत्यु रेलगाड़ी के प्रथम
श्रेणी के डिब्बे में किसी अंग्रेज़ बुढ़िया की गोद में हुई. गर्भ का आठवाँ महीना
था और प्रसव रेलगाड़ी में ही हो गया. अपनी पत्नी के गर्भ के आठवें महीने में मेरे
नाना को बम्बई जाने की क्या पड़ी? वह ब्रितानी सरकार के आबकारी विभाग में बड़े अफ़सर थे और बम्बई में
तैनात थे. बरसात में अपने मातापिता से मिलने महू आए थे जहाँ उनके पिता ब्रितानी
सेना में अफ़सर थे. इस तरह मैं इज़ायश हिलेल (IZAJASZA HILLEL) हिंदुस्तान के चंद ख़ानदानी अफ़सरों के
परिवार से हूँ. उस समय अनाज, शक्कर, सिनेमा, सिगरेट-शराब और जनता के मतलब की लगभग
सभी चीज़ों पर आबकारी विभाग टैक्स वसूलता था. इस तरह मेरे नाना ने बहुत माल बनाया.
विशुद्ध कोंकणी पंडितों के परिवार में जन्मे मेरे नाना का बचपन मितव्ययिता में
बीता था और उन्हें रुपया खर्चने का कोई अभ्यास न था इसलिए उनके पास बहुत रुपया
इकट्ठा हो गया.
उन्होंने अपनी माँ के लिए हीरे के
बुंदे मद्रास से मँगवाए और उनकी बीवी इसपर भड़क गई. सोलह साल की कन्या जिसे अरबी
के पत्ते और दो रोटी के अलावा गोवा में खाने को कुछ नहीं मिलता था वह उनकी माँ के
लिए ख़रीदे हीरों पर आपत्ति करे यह नाना को बर्दाश्त न था. उन्होंने तुरंत अपनी
पत्नी को उसकी विधवा माँ के पास कोंकण भेजने का निर्णय कर लिया और इसलिए आठ मास की
गर्भवती को अपने मातापिता के विरोध के बावजूद वह महू से लेकर बम्बई की ओर निकले.
गर्भवती भाग्यवान थी इसलिए रास्ते में ही मर गई और नाना का पहला बच्चा तो और भी
अधिक भाग्यवान था कि उसका जन्म ही मृतक के रूप में हुआ. नाना की अपनी पहली पत्नी
के प्रति घृणा का इस बात से पता चलता है कि उन्होंने अपनी यात्रा बीच में रोकी तक
नहीं और अपनी पत्नी का मृत शरीर लेकर बम्बई आए और यहाँ उसका अंतिम संस्कार किया.
बच्चे का अलबत्ता उन्होंने अंतिम
संस्कार किसी स्टेशन पर ही उसे गाड़कर कर दिया था. उस बच्चे पर उन्होंने अंग्रेज़ी
में रास्ते में एक शोकगीत भी लिखा जिसका अनुवाद यहाँ लिखा जाना ज़रूरी नहीं है.
अपने मातापिता को उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चे की मृत्यु का टेलीग्राम तक नहीं
किया कि वह दस दिन का सूतक मना सके. बाद के दिनों में अक्सर उन्हें ‘काला अंग्रेज़’ हो जाने का ताना दिया जाता था. मेरे
नाना काले अंग्रेज़ नहीं थे और अद्वैत दर्शन का उन्हें बहुत ज्ञान था. वर्षों बाद
सन १९६६ के आसपास खेतवाड़ी के महात्मा स्वामी निसर्गदत्त महाराज के यहाँ उनका उठना
बैठना था हालाँकि पूछने पर उन्होंने कभी यह नहीं कहा कि स्वामी निसर्गदत्त महाराज
उनके गुरु है.
फ़िलहाल बात सन १९४१ की है जब बम्बई के
शिवाजी पार्क में मेरे नाना का निवासस्थान था. यदि उनके मातापिता को नाना की पत्नी
की मृत्यु का समाचार मिलता तो वह दूसरे विवाह की व्यवस्था करते मगर उन्हें समाचार
केवल मृत बालक के जन्म (मात्र एक दिन का सूतक) का ही मिला इसलिए वह निश्चिन्त रहे
कि दूसरी सन्तान शीघ्र होगी और उनका बेटा कुशल है. इधर नाना मात्र तीस वर्ष की वय
में एकाकी जीवन व्यतीत करने लगे. उनकी पहली पत्नी जो उनसे चौदह वर्ष छोटी थी और मर
चुकी थी उसके चित्र उन्होंने जला दिए थे और उसके समान को अपने चौकीदार और मालियों
को बाँट दिया था. उसके गहने गला दिए और ठोस सोने का बताशा सा बनवा लिया था.
विनायक दामोदर सावरकर उसी वर्ष
रत्नागिरि से बम्बई आए थे और मेरे नाना के पड़ौस ही में उनका भी निवासस्थान था.
मेरे नाना सावरकर के यहाँ अक्सर ही उठनेबैठने लगे. नाना की तरह ही सावरकर के अंदर
भी जगत को लेकर हताशावाद और कटुता थी. सावरकर को अंदर ही अंदर लगता था कि सरकार
सर्वसत्तावादी (totalitarian)
है
और यहाँ किसी व्यक्ति की गरिमा सुनिश्चित नहीं. “वह नास्तिक है और अध्यात्म उन्हें शान्ति दे ऐसी भी कोई सम्भावना
नहीं”, गणेश गोडसे ने एक बार नाना से कहा था.
सावरकर काला पानी के कारावास के प्रसंग ही अधिकतर सुनाते कि कैसे हिंदू राजनीतिक
बंदियों के ऊपर बलूच अपराधियों को गार्ड बनाकर रखा जाता. कैसे वह हिंदू पुरुषों का
बलात्कार करते क्योंकि औरतें वहाँ थी ही नहीं, ब्राह्मणों के जनेऊ तोड़ देतें और कलमा पढ़ाकर प्रतिमाह दोतीन
हिंदुओं को मुसलमान बनाते. मेरे नाना सावरकर से लगभग तीस वर्ष छोटे थे मगर सावरकर
उन्हें अपना मित्र मानते और प्रति रविवार उन्हें पूरणपोली खाने ज़रूर बुलाते.
सावरकर उनके विवाह को लेकर भी चिंतित रहते थे और हमेशा कोई न कोई सुयोग्य चितपावन
कन्या के प्रस्ताव नाना के लिए बताते रहते.
नाना किसी लड़की को पसंद न करते. सब में कोई न कोई खोट निकाल देते और इससे यमुना वहिनी (सावरकर की पत्नी) को बहुत ठेस पहुँचती. बात यह थी कि पचीस वर्षीय नाना नौ-दस वर्ष की एक लड़की के प्रेम में पड़ चुके थे. बार बार मिलों की जाँच के बहाने भायखळा जाते और माहगन दविड कनिसेट (सिनेगॉग) के बाहर बैठे रहते. वह लड़की वही कहीं रखती थी. कई बार उन्हें वह लड़की दिख जाती, सिनेगॉग से आते जाते तब वह पूरा दिन बेचैन रहते. वह चाहते थे कि वह लड़की उन्हें कभी न दिखे, वह लड़की रेलगाड़ी के नीचे आकर मर जाए या उसे टीबी हो जाए. किसी भी प्रकार से वह अपने प्रेम से मुक्ति चाहते थे. वह इक्साइज़ विभाग में बड़े अफसर थे और उन्हें यों प्रेम में पड़ना शोभा न देता था. वह लड़की बम्बई की उमस में भी एक काला ओवरकोट पहने आती जाती. वह बहुत दुबली थी, उसकी तोतापरी नाक लम्बी और चक्कू की तरह तीखी और आँखें धँसी हुई थी. रंग अजीब था, ऐसा रंग हिंदुओं में नहीं मिलता. वह चाफे की फूल के अंदरूनी भाग की तरह एकदम पीला था. लड़की के बाल बेकार थे. रूखे-सूखे इतने कि नाना को लगता ख़ूब सारा खोपरे का तेल लगाकर उसके बालों को शिकाकाई अरीठे से धोए.
एक बार अपने क्लर्क से छुपकर वह माहगन
दविद कनिसेट पहुँचे तब लड़की से बात करने का अवसर उन्हें मिल ही गया. उस दिन क्रीम
लगाकर उन्होंने बाल पीछे चिपका बनाए हुए थे. वह सफ़ेद बुशर्ट, नई कलफ़ दी कॉलर, काली पतलून, काले जूते और काले इतालवी कपड़े का कोट
पहने हुए थे. उनकी सुबह ही छिली दाढ़ी से इतालवी आफ़्टरशेव की सुगंध उठ रही थी. उस
दिन उनमें बहुत आत्मविश्वास था. उन्होंने सिगरेट बुझाई और लड़की से बात करने की
ठान ली. लड़की काले ओवरकोट में पसीना पसीना अपना बस्ता ढोती स्कूल से लौटकर माहगन
दविद कनिसेट के पीछे बने अपने घर को जाती थी. “तुम्हें गरमी नहीं लगती?” नाना से उससे पूछा.
लड़की ने मुँह बिचकाकर नाना को देखा
फिर उनके कपड़े देखकर भाँप गई कि कोई अफ़सर या सेठ है. लड़की ने ग़लत मराठी में
जवाब दिया, “आप कौन हुए?” यहूदियों में कुटैव होता है कि प्रश्न
के उत्तर में प्रश्न करते है. नाना चिढ़ें. जवाब देने के बजाय उलटे सवाल. फिर देखा
लड़की के चौड़े,
सुन्दर
माथे पर पसीने की बूँदें झलमला रही थी. उन्हें अपने पिता की बात याद आई कि चौड़े
माथे की लड़कियाँ जल्दी ही विधवा हो जाती है. नाना पलटें और लौट आए. ताँगा तैयार
था. क्लर्क उनका इंतज़ार ही कर रहा था.
मन को जैसे तैसे सम्भाला और यहूदियों
के बारे में पढ़ते वाचनालय में बैठे रहते. प्रेम ऐसा तीव्र था कि दफ़्तर के कामकाज
में हो रही हानि की भी उन्हें चिन्ता न थी. तमाम अंग्रेज़ी और जर्मन किताबें पढ़कर
वह इस नतीजे पर पहुँचे कि यहूदियों और ब्राह्मणों में बहुत सी समानताएँ है.
ब्रह्माण्ड के सम्बन्ध में दोनों की ही धारणाएँ समान है. बलि देने की लम्बी, ब्यौरेवार रीतियाँ दोनों में है.
धर्मशास्त्र और नियम की लम्बी लम्बी टीकाएँ पंडित भी करते है और तालमूद में
बेबीलोन व येरूशलम के रैबाई भी. सबसे बड़ी बात कि यहूदी और ब्राह्मणों में किसी भी
शास्त्र या शब्द के असंख्य अर्थ हो सकते है, मनुष्य के बस में केवल टीकाएँ करना ही है. साहित्यनिर्माण केवल ईश्वर
के वश की बात है जिसका दर्शन हिंदुओं में ऋषि और यहूदियों में पैग़म्बर करते है.
दोनों ही धर्मों में त्रिकाल संध्या का विधान भी समान है. यह सब जान लेने के बाद
भी एक यहूदन से लग्न करना क्या उचित होता? वह तो गोमांसभक्षण भी करती होगी. मूर्तिपूजा से उसे घृणा होगी. भाषा
भी समान नहीं. यह सब सोच सोचकर नाना का महीने भर में ही वज़न एक चौथाई घट गया.
सावरकर के यहाँ आनाजाना भी बंद था. वह बुलाते तो भी कोई बहाना बनाकर न जाते.
किताबें पढ़पढ़कर आँखें पीली पड़ गई और युवावस्था में ही कनपटी के बाल पक गए.
प्रेम के इतने शारीरिक दुष्प्रभाव हो सकते है इसकी नाना ने कभी कल्पना भी न की थी.
बैठे बैठे जो कुर्सी से उठकर खड़े होते तो चक्कर आते और आँखों के आगे अंधेरी छा
जाती. गाल धँस गए थे और आँखों में दो विचित्र से अंगारे चमकते जो अक्सर बहुत बीमार, मरणशैया पर पड़े युवाओं और कट्टर
धार्मिक लोगों की ही आँखों में दिखते है.
सावरकर उस दिन नाना पर बहुत अधिक कुपित
थे, “उस कन्या का गला दबाने की तुम्हें
क्यों सूझी?” सफ़ेद धोती और सफ़ेद बुशर्ट पहने वह
लोहे के पलंग पर लेटे हुए थे. दो दिनों से सावरकर ने हजामत नहीं बनाई थी जो कि
नाना के लिए एक अद्भुत घटना थी. “तुम जानते हो तुम्हारी नौकरी जा सकती है. शासन यदि इस विषय के बीच
पड़ता है तो इसका परिणाम क्या होगा तुम अच्छे से जानते हो.” “मेरी पत्नी नहीं है. मेरी कोई संतान
नहीं है. क्यों न मैं त्यागपत्र देकर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़ूँ!” नाना पर उन दिनों साहित्य से अधिक
अख़बारों का प्रभाव था. अपने लम्बे हाथ उछाल उछालकर वह ऐसे उल्लास से बात कर रहे
थे कि सावरकर का हृदय पसीज गया हालाँकि वह जानते थे कि नाना को सरकारी अफ़सरी में
ही रहना चाहिए. “उस दिन मेरा शरीर और मन मेरे वश में
नहीं था. पिछले तीन चार महीनों से मेरा अधिकांश समय यहूदियों के धर्मशास्त्र और
रीतिरिवाजों के बारे में पढ़ने में जाता था.
स्वामी दयानंद के अनुसार तो ब्राह्मण
और यहूदी एक ही वंशानुक्रम की दो धाराएँ है. मैं किसी भी तरह स्वयं को आश्वस्त कर
लेना चाहता था कि यहूदियों और ब्राह्मणों में स्थान को छोड़ कोई भेद नहीं है. बहुत
सीमा तक उपलब्ध साहित्य ने मुझे आश्वस्त कर भी दिया मगर गोमांसभक्षण करनेवाली
स्त्री लाकर उससे अपने कुलदेवत श्री व्याडेश्वर का नेवैद्य बनवाऊँ इतना आधुनिक
नहीं हो सकता है आपका यह त्र्यम्बक दिगम्बर काणे. दफ़्तर की एक बैठक निपटाकर
रिक्शा ले मैं उस दिन अचानक भायखळा चल पड़ा. वर्षा हो रही थी इसीलिए सिनेगॉग के
अंदर ही एक बेंच पर बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा. बहुत देर बाद वह अन्दर के कमरे
से निकलकर पीछे गली की ओर जाने लगी. मैंने पॉकिट से उसे देने के लिए मावा केक
निकाला. हाथ आगे बढ़ाकर उसे दिया तो वह बोली, “कोशर है?” मैंने उसका गला पकड़ लिया और दबाने लगा, “गोमांस का सेवन करनेवाली तू मोशेची
कुत्री, गाय के शुद्ध दुग्ध और देसी घी से बने
केक के लिए पूछती है- कोशर तो है?”
वह अचानक भूमि पर गिर पड़ी. मुझे लगा
मर गई इसलिए वहाँ से भाग आया. फिर कन्याहंता होकर जीने से अच्छा है आत्महंता होना
इसलिए फाँसी लगाने का बीते कुछ दिनों से सोच ही रहा था कि मन किया पहले आपसे मिल
लूँ.” “शाओना हिलेल जीवित है.” सावरकर कहकर मुस्कुराये. अच्छा तो उस
गोमांसभक्षिणी का नाम शाओना हिलेल है, नाना ने मन में सबसे पहले यही विचार आया. हाथ की कॉपी सावरकर ने एक
तरफ़ रखी और क़लम बुशर्ट में खोंसते हुए बात आगे बढ़ाई, “गाय घास भी खाती रहती है और मलत्याग भी
करती रहती है. थकने पर अपने ही मूत्र और मल में पसरकर न केवल बैठ जाती है बल्कि
पूँछ मारमारकर वह मलमूत्र से अपना पूरा शरीर गंदा कर लेती है. यह कैसा दिव्यजीव है
जिसे स्वच्छता तक का ज्ञान नहीं और इस गौमाता का मूत्र और मल पवित्र करनेवाला और
बाबासाहेब आम्बेडकर की छाया तक अशुद्ध करनेवाली है. ऐसा माननेवाले मनुष्यों की
बुद्धि कितनी भ्रष्ट हो चुकी है, इसका अनुमान तुम स्वयं ही लगा सकते हो, त्र्यम्बक. घर जाकर विश्राम करो और विचार करो. यदि उसी लड़की से
विवाह करना है तो निर्णय करके मुझे बताओ. मैं सब व्यवस्था कर दूँगा.” “उससे विवाह करने के अलावा जीवित रहने
के लिए मेरे पास कोई और चारा नहीं, भाऊ”
नाना
के मुँह से अनायास यह शब्द निकले और वह मुँह झुकाए ही बैठे रहे. संकोच के कारण वह
घर जाने के लिए उठने का भी साहस नहीं पा रहे थे.
यमुना वहिनी थालीपीठ और ठेंचा ले आई, “कोई बिस्तर झाड़ने और अलमारी में कपड़े
अबेरनेवाली तो आएगी अब. धर्म जाति कोई हो”, उन्होंने चौके से सब बात सुन ली थी. थालीपीठ
देखते ही सावरकर और नाना संसार को भूल उसपर टूट पड़े. दोनों इतनी जल्दी खा रहे थे
कि यमुना वहिनी को एक थालीपीठ के दो भाग करके दोनों को देना पड़ रहा था, “तुम्हारी यहूदन यह सब न बना सकेगी.
प्रातः-सन्ध्या अंडे उबालकर देगी” यमुना वहिनी ने ताना कसा. सावरकर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगे, “उसके हाथ का गोमांस छोड़ सब खा लेगा
त्र्यम्बक, कालकूट भी पी लेगा उसके हाथ का दिया.” खा-पीकर नाना लौट आए क्योंकि हिंदू
महासभा के कार्यकर्ताओं और नेताओं की भीड़ इकट्ठा होना आरम्भ हो चुका था.
मुस्लिम लीग के साथ मिलकर हिंदू महासभा
बंगाल आदि राज्यों में सरकार बनाई थी. नाना के लिए सावरकर का यह निर्णय बहुत
विचित्र था. एक ओर वह भारत की पुण्यभू को हिंदुओं की धरती बताते थे तो दूसरी ओर
मुस्लिम लीग के साथ मिलकर राज्यसरकारें बनाते. प्रेम में कोई विचार बहुत देर तक
टिकता नहीं. नाना सोचने लगे कि उस यहूदी लड़की के साथ जीवन कैसा होगा और सबसे
बढ़कर चितपावनसमाज इस लग्न को अपनी जाति से खोई कन्या का अपनी जाति में
पुनर्प्रवेश मानेगा या नाना को जातिच्युत होना पड़ेगा.
कुछ दिनों बाद एक रविवार सावरकर को
दोपहर कुछ ख़ाली समय मिला. अन्य दिनों के अपेक्षा घर में भीड़ न थी. उन्होंने नाना
को बुलाया. “क्यों रे, त्र्यम्बक्या आजकल तुझे अपने भाऊ से
मिलने का मन नहीं करता?” वह
बाहर पोर्च में भूमि पर अख़बार फैलाये उसपर झुके बैठे थे. नाना वहीं भूमि पर बैठने
लगे तो सावरकर ने रोका और अंदर जाने का संकेत किया. पीछे पीछे ख़ुद भी आए. सामने
के आदमक़द दर्पण जो यमुना वहिनी ने रखा था उस में नाना के प्रतिबिम्ब को देखकर
सावरकर ने कहा,
“हजामत
बनाकर नहीं आया. जा, हजामत
बनाकर और कोट पहनकर आ. मोरिस फ्रईडमन से मिलने चलना है.” “वह कौन है?” नाना ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए
पूछा. “पोलंड का प्राण बचाकर आया यहूदी है और
अब महर्षि रमण से प्रभावित होकर हिंदू हो गया है. नया नाम रखा है स्वामी भारतानन्द. तेरे प्रिय गांधी का भी
अनुयायी है. शाओना हिलेल के सम्बंध में उसी से बात करना होगी.”
नाना ने उस दिन साबुन का उपयोग न कर
जैतून का बहुत सारा तेल गालों पर लगाकर हजामत बनाई. थोड़ा सा इतालवी आफ़्टरशेव
लगाया और अपना सबसे अच्छी काट का कोट और महँगे जूते पहनकर मोरिस फ्रईडमन से मिलने
निकल पड़े. वे लोग नेपियन सी रोड स्थित औंध राजघराने के बंगले पर पहुँचे जहाँ
मोरिस फ्रईडमन उर्फ़ स्वामी भारतानंद ठहरे हुए थे. बाहर बग़ीचे में ढेरों प्रकार
के गुलाब ही गुलाब खिले हुए थे और एक बलिष्ठ बूढ़ा लंगोट कसे कोई अतिजटिल योगासन
लगा रहा था. “वह रहे” नाना ने सावरकर से कहा. “अरे वह तो औंधनरेश भवनराव श्रीनिवासराव पंत प्रतिनिधि है. उनका
सूर्यनमस्कार नामक योगविधि के अविष्कार का दावा है. नमस्कार, हिज़ हायनेस, कृपया इस युवक को सूर्यनमस्कार सिखाने
का कष्ट करें. इसकी बुद्धि प्रेम नामक रोग ने नष्ट कर दी है” सावरकर ने हाथ ऊँचे करके औंध नरेश को
नमस्कार किया.
“यू,
यंगमैन, कम हियर” औंध नरेश का कहा नाना टाल न सके और नाना को योगासन सीखने जाना ही
पड़ा. सावरकर अंदर ही पौन घण्टा तक बात करते रहे. जब सावरकर बाहर आए तो नाना को
देखकर गगनभेदी अट्टहास करने लगे. नाना लाल लंगोट में गरुड़ासन में खड़े पसीना
पसीना हो रहे थे. इतालवी आफ़्टरशेव की जगह पसीने ने ले ली और कोट, जूते पता नहीं कहाँ थे. सावरकर ने
संकेत ने नाना को बुलाया. सावरकर के साथ अड़तीस-चालीस वर्षीय एक दुबलापतला सुदर्शन
पुरुष खड़ा था. उसने गांधी की तरह गोल फ़्रेम का चश्मा लगाया था और वह सफ़ेद पूरी
बाँहों की क़मीज़ पहने था जिसकी बाँहें अंग्रेज़ी फ़िल्मों के नायकों की तरह ऊपर
चढ़ी हुई थी. नाना को बहुत संकोच हुआ. वह पसीना पसीना लाल लंगोट कसे वहाँ आए.
उन्हें लगा इस अवस्था में प्रथम भेंट ने उनके विवाहप्रस्ताव स्वीकृत होने की
सम्भावना शून्यप्रायः कर दी थी. जब नाना ने हाथ जोड़कर मोरिस फ़्रईडमन को नमस्कार
किया तो देखा सावरकर नाना को मुग्ध देखे जा रहे थे, “अरे त्र्यम्बक तेरा शरीर तो बहुत सुगठित है. यह
स्वामी भारतानंद जी है इनके चरणस्पर्श करो.” लाल लंगोट कसे कोई युवा पुरुष मोरिस फ़्रईडमन के चरण स्पर्श करे यह
उन्हें सह्य न था,
उन्होंने
दूर से ही आशीर्वाद दिया. नाना दौड़कर कपड़े पहनने चले गए.
कोट, जूते और केश कंघी करके जब लौटे तो सावरकर ज़ोर ज़ोर से मोरिस
फ़्रईडमन को कुछ कह रहे थे, “यहूदियों की अपने देश की संस्कृति में घुलमिल न जाना ही उनकी सबसे
बड़ी दुर्बलता रही है. हमारे देश में मुसलमानों की भी यही स्थिति है. उनका व्यापार, सम्बन्धी, समाज सब यहीं है मगर पुण्यभू उनकी दूर
अरब में है. भारतभू को उन्होंने अपनी पितृभू-पुण्यभू कभी माना ही नहीं. क्या अकारण
है कि आपलोगों को पूर्वी यूरोप में इतना अपमान सहना पड़ रहा है.” नाना ने बात बदलना चाही, “भाऊ, अंदर राजासाहेब चाय के लिए बुला रहे है”. “आप सामुदायिक हत्या को अपमान कह रहे है! पहले वहाँ भीड़ एक या दो
यहूदियों को घेरकर मारती रही थी मगर अब वहाँ का शासन इसे बड़े पैमाने पर कर रहा
है. वह हज़ारों की संख्या में यहूदियों को मार रहे है” मोरिस फ़्रईडमन की आवाज़ सूखी हुई थी, जैसे बहुत दूर से आती हो या उन्होंने
बहुत देर से पानी न पिया हो. नाना को समझ नहीं आया कि सावरकर यह प्रसंग क्यों ले
बैठे. “त्र्यम्बक, मोरिससाहेब का कहना है कि हम यहूदी
बाल्यावस्था में अपनी लड़कियों का लग्न नहीं करते इसलिए मैं इन्हें समझा रहा था कि
भारतवर्ष में यहूदियों को यहाँ के बहुसंख्यक समाज की रीतिनीति अपनाकर उन जैसा बनने
में संकोच नहीं करना चाहिए. पूर्वी यूरोप की संस्कृति को आत्मसात न करने के कारण
ही वहाँ इनपर इतने अत्याचार हो रहे है.” नाना को भी युवती होने पर लड़की के विवाह करने की बात कुछ समझ नहीं
आई. उनकी बुद्धि सचमुच प्रेम में नष्ट हो चुकी थी. “आबकारी विभाग में त्र्यम्बक दिगम्बर काणे बहुत बड़ा अफ़सर है. पहली
पत्नी के स्वर्गवासिनी हुए कुछ ही समय बीता है और कोई संतान भी नहीं. मेरा विश्वास
है त्र्यम्बक दिगम्बर काणे को यहूदी धर्म के विषय में इतना ज्ञान है जितना हिन्दू
समाज में रहते हुए भी शाओना हिलेल को न होगा.” सावरकर की यह बात नाना को बहुत रुची.
उन्हें अचानक अनुभव हुआ कि उनका प्रेम
कितना एकांगी है. शाओना को तो उनके अस्तित्व का भी ज्ञान न होगा. फिर उन्हें
सावरकर पर क्रोध भी आया. नाना के यहूदी धर्म के विषय में अध्ययन करने की बात बताकर
जैसे सावरकर ने उनकी कोई बहुत आंतरिक बात मोरिस फ़्रईडमन को कह दी थी. नाना को
सबके सामने वेध्य और निर्बल कर दिया था. “मैंने लड़की के विषय में सबकुछ आपको बता दिया है. आप काणे जी को भी
सब ब्यौरे बता दे और तब तक मैं लड़की के बड़े भाई से इसकी चर्चा करके आपको बतलाता
हूँ” मोरिस फ़्रईडमन ने कहा और हाथ जोड़
लिए. मोरिस फ़्रईडमन गांधी के लिए नवीनतम तकनीक पर चरखे बनाया करते थे.
महर्षि रमण से वेदान्तचर्चा करते थे.
उनकी चर्या सहज थी. आज सावरकर से बात करके उन्होंने भारतीय चिन्तन का एक दूसरा रूप
देखा था और वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि यह भारतीय चिन्तन ही है या यूरोपीय
शिक्षा के कारण सावरकर के विचारों में एक प्रकार की सैन्य कठोरता आ गई है. वह
सावरकर और नाना को देर तक जाते देखते रहे. दोनों ही बहुत आकर्षक पुरुष थे. ऐसा
पौरुष भारत में उन्होंने अब तक देखा न था. हिंदुओं को वह यहूदियों के निकट पाते
थे. वह स्वयं यहूदी थे और जानते थे कि यहूदियों की तरह ही हिन्दू शरीर को बहुत महत्त्व
नहीं देते. हिन्दू उन्होंने अक्सर अतिधार्मिक हसीदी यहूदियों की तरह दुबलेपतले और
शरीर से बेपरवाह देखे थे. उन्हें लगता हिन्दूचिन्तन यहूदीधर्म का विकसित रूप है.
सावरकर ने निश्चित ही उनके कुछ भ्रम आज तोड़ दिए थे.
औंधनरेश ने अपनी मोटरकार नाना और
सावरकर को घर जाने के लिए दे दीं. संग एक मराठा चालक भी आया. उसके सम्मुख नाना को
मराठी में बात करने में संकोच है यह भाँपकर सावरकर ने अंग्रेज़ी में बताया, “सुन त्र्यम्बक्या”. “जी भाऊ” नाना
की सभी इन्द्रियाँ कान हो गई थी क्योंकि उन्हें पता था कि सावरकर अब शाओना हिलेल
के बारे में मोरिस फ़्रईडमन की कही बात बताएँगे. “शाओना हिलेल पोल है. वह बग़दादी यहूदन नहीं है और मराठी या अंग्रेज़ी
बहुत कम जानती है. उसके माँबाप पूर्वी पोलंड पर सोवियत हमले के समय पोल सेना से
सम्बन्धों के कारण गुलाग भेज दिए गए थे. बहादुर फ़ौजी अफ़सर वादीशॉ आंदर्स की मदद
से कुछ पोल और यहूदियों को यह मोरिस फ़्रईडमन हिंदुस्तान, ईरान और फ़िलिस्तीन ले आया. शाओना पहले
बांद्रे में एक पोल अभिनेत्री के यहाँ रखी गई मगर उसके हसीदी भाई की आपत्ति के
कारण अब उसे सिनेगॉग के रैबाई के यहाँ रखा गया है. माँबाप की कोई ख़बर नहीं. शायद
उनकी मृत्यु हो चुकी है”.
मेरी नानी शाओना हिलेल की पोलंड से
भारत तक की इस यन्त्रणादायक यात्रा के बारे में सुनकर नाना विवाह शीघ्रातिशीघ्र
करने को उत्सुक हो गए. “ईश्वर
ने शाओना की प्राणरक्षा संभवतः मेरी धर्मपत्नी बनने के लिए ही की और उसे
हिंदुस्तान में ला पटका” नाना
ने उल्लास से कहा फिर उनका स्वर अचानक मंद पड़ गया, “फिर भी उसका गोमांसभक्षण करना मेरे लिए उससे
लग्न करने न करने का निर्णय न कर पाने का बहुत बड़ा कारण है. आख़िर हिंदू है कौन? जो गाय को अपनी माता मानता हो” नाना ने कहा और मोटरकार से बाहर देखने
लगे. समुद्र उन्हें दिव्य भी लगता था और भयंकर भी. “गाय को माता बस साँड, बैल और बछड़े मानते है. तुम अब चुप भी करो” सावरकर ने कहा. नाना चुप रहे. मोटरकार
समुद्र किनारे चलती रही.
“इस विवाह के लिए मेरी बहन और मैं बहुत दबाव में तैयार हुए है. सब इसे
हमारा भविष्य उज्जवल करने का मार्ग बता रहे है. मैं हसीदी* यहूदी हूँ. मेरे लिए
अपनी बहन का विवाह गोयम* से करना कल्पना से परे था मगर अब हमारी स्थिति इतनी गई
गुज़री है कि इसके लिए हमें तैयार होना पड़ा” ब्रूनो हिलेल ने कहा. वह शाओना हिलेल का बड़ा भाई था और पुणे के
सिनेगॉग में यहूदी रीति से पशुबलि देना सीख रहा था. इसमें उसके शिक्षक आज के
प्रसिद्ध भारतीय-इसराएली कलाकार अनीश कपूर के नाना थे. “विवाह वैदिक रीति से दादर के
श्रीगणेशमंदिर में होना निश्चित हुआ है” यमुना वहिनी ने कहा. वह सोने के कंगनों के लिए शाओना की कलाइयों का
नाप लेने आई थी. “जब तक विवाह नहीं होता मैं यहूदी ही
रहूँगी और मेरा विवाह सिनेगॉग में ही होगा अन्यथा मैं और मेरे भाई के पास समुद्र
में कूदकर जान देने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचेगा. मेरे मातापिता का इतना मान
तो आपको रखना ही होगा” शाओना
ने चिड़चिड़े स्वर में कहा. वह मराठी इतनी ग़लत बोलती थी कि किसी को कुछ समझ नहीं
आया. उसके भाई ने उसकी बात तीन-चार बार प्रयास करके नाना और सावरकर को समझाई.
“कोई बात नहीं. पहले हम एक विवाह सिनेगॉग में भी कर सकते है” इससे पहले कि सावरकर कुछ कहते यमुना
वहिनी ने शाओना के प्रस्ताव पर हामी भर दी. नाना बस शाओना को देखते रहे. वह बहुत
दुबली थी और चिड़चिड़ी भी जैसे भूखा व्यक्ति हो जाता है. उसे देखकर लगता था वह
किसी भी प्रकार जहाँ वह है वहाँ से भाग जाना चाहती है. नरक इतना सुसंस्कृत और
शान्त हो सकता है शाओना ने इसकी कल्पना भी न की थी. उसका भाई शान्त बैठा रहा. जिस
धर्म की रक्षा उसने पोलंड में इतने शत्रुतापूर्ण वातावरण में की थी जहाँ यहूदी को
मार देना मक्खी मारने जितना सरल था, उसी धर्म की रक्षा वह भारत जैसे देश में नहीं कर सका था. उसे अपने
मातापिता याद आने लगे. उसने यिद्दिश भाषा में शाओना को एक बात कही, “शाओना, जब ईश्वर किसी का मन दुखाना चाहता है उसे बहुत सारा ज्ञान दे देता है”. घर लौटते हुए सावरकर बहुत प्रसन्न थे, “विचारों पर अडिग रहने का जो साहस
त्र्यम्बक की होनेवाली पत्नी में यदि वह भारतीय स्त्रियों और पुरुषों में होता तो
यह राष्ट्र आज न जाने कहाँ होता”. नाना ने कोई उत्तर नहीं दिया. वह शाओना हिलेल को नौ हाथ की नीली
पैठणी साड़ी में देखने की कल्पना करते रहे.
प्रथम रात्रि बीत जाने पर शाओना ने
नाना से पूछा, “आपने उस दिन मेरा गला घोंटने का प्रयास
क्यों किया था?”
“क्योंकि
मेरा प्रेम किसी कीट की भाँति मेरे मस्तक को खाए जा रहा था” नाना ने उत्तर दिया और पलंग से कूदकर
खड़े हो गए उन्हें अपने मातापिता को अपने विवाह का समाचार देते हुए पत्र लिखना था.
सावरकर ने उन्हें विवाह के बाद अपने मातापिता को विवाह का समाचार देने के लिए कहा था. नौकरानी ने आकर
शाओना का शृंगार कर दिया, उसे नौ हाथ की पैठणी बाँधना सिखा दी, बाल गूँथ दिए और नाना ने गहने दे दिए. यमुना वहिनी ने विवाह से दो
दिन पहले ले जाकर शाओना की नाक छिदवा दी थी क्योंकि सधवा का त्योहारों पर नथ पहनना
आवश्यक था. नथ पहनना शाओना के लिए किसी शारीरिक दण्ड के कम न था.
“शृंगार हो गया तो चले यमुना वहिनी पूरणपोली और अनारसे लिए हमारा
रास्ता देख रही होंगी” नाना
के कहा और हाथ बढ़ाया. नानी को नौकरानी के सामने पति का हाथ पकड़ने में संकोच हुआ
जिसे नाना हिन्दूस्त्री जैसी लज्जा समझकर अत्यन्त प्रसन्न होने लगे. सावरकर ने
अपनी व्यस्त दिनचर्या में त्र्यम्बक की नई बहू के संग भोजन करने का समय निकाला है, यह जानकर नाना बहुत हर्षित हो गए.
सावरकर ने यमुना वहिनी से कहा, “सबका भोजन यहीं टेबुल पर लगाओ. स्त्रियाँ भी संग यहीं खाएँगी.” “पूरणपोली ठण्डी अच्छी न लगेगी” यमुना वहिनी अपनी पाककला को लेकर विशेष
सजग रहती थी और ठण्डी पूरणपोली खाकर शाओना यह समझे कि पूरणपोली स्वादिष्ट नहीं
होती या यमुना ताई को खाना बनाना नहीं आता यह दोनों स्थिति ही उन्हें बर्दाश्त न
थी. “ठण्डी भी रहे तो दोष नहीं. त्र्यम्बक
की बहू का सबसे आंतरिक परिचय हो इस भोज का यही उद्देश्य है न कि गर्मागर्म
पूरणपोली भकोसना”
सावरकर
ने कहा और अधीर होकर ख़ुद ही बर्तन रसोई से उठा उठाकर टेबुल पर जमाने लगे. “तुम्हारे मातापिता देशभक्त क्रांतिकारी
थे यह जानकर मैं इतना प्रसन्न हूँ कि बताने में मेरी भाषा कम पड़ती है.
जिस पोलंड में पोलों के खिलाफ होकर पोलंड के यहूदी सोवियत रूस का साथ दे रहे थे वहीं तुम्हारे मातापिता ने पोल सेना के लिए जासूसी की. अवश्य ही निकट भविष्य में यदि समय मिला तो मैं इसपर कादम्बरी लिखूँगा” सावरकर ने अत्यन्त उत्साह से शाओना की थाली में पूरणपोली और नींबू का अचार परोसते हुए कहा इतने में बर्तन यमुना वहिनी ने सावरकर के हाथ से ले लिया. नाना समझ गए कि यमुना वहिनी को भय था कि सावरकर को घर का इस तरह काम करते देख शाओना बहू उनके देवर त्र्यम्बक से भी ऐसे ही काम करवाएगी. “मेरे मातापिता ने ग़लत किया. उन्हें सोवियत संघ का स्वागत करना चाहिए था. एक तरफ़ नाज़ी थे और दूसरी तरफ़ सोवियत संघ तो सोवियत संघ का ही पक्ष लेना था. जीवित तो रहते. वैसे भी पोलों ने हमपर कम अत्याचार नहीं किए थे. सड़क पर पोलों का किसी भी यहूदी आदमी या औरत पर काल्पनिक आरोप लगाकर हत्या करना आम बात थी.
जिस पोलंड में पोलों के खिलाफ होकर पोलंड के यहूदी सोवियत रूस का साथ दे रहे थे वहीं तुम्हारे मातापिता ने पोल सेना के लिए जासूसी की. अवश्य ही निकट भविष्य में यदि समय मिला तो मैं इसपर कादम्बरी लिखूँगा” सावरकर ने अत्यन्त उत्साह से शाओना की थाली में पूरणपोली और नींबू का अचार परोसते हुए कहा इतने में बर्तन यमुना वहिनी ने सावरकर के हाथ से ले लिया. नाना समझ गए कि यमुना वहिनी को भय था कि सावरकर को घर का इस तरह काम करते देख शाओना बहू उनके देवर त्र्यम्बक से भी ऐसे ही काम करवाएगी. “मेरे मातापिता ने ग़लत किया. उन्हें सोवियत संघ का स्वागत करना चाहिए था. एक तरफ़ नाज़ी थे और दूसरी तरफ़ सोवियत संघ तो सोवियत संघ का ही पक्ष लेना था. जीवित तो रहते. वैसे भी पोलों ने हमपर कम अत्याचार नहीं किए थे. सड़क पर पोलों का किसी भी यहूदी आदमी या औरत पर काल्पनिक आरोप लगाकर हत्या करना आम बात थी.
इस बीच माँसाहारी पोल अचानक
पशुअधिकारों के प्रति सचेत हुए और सिनेगॉग में होनेवाली पशुबलि को आसुरी बताने
लगे. इसके लिए वह अख़बारों में लम्बे लम्बे लेख लिखने लगे. हमारे धर्म का कोई पक्ष
उन्हें स्वीकार न था. उनका साथ देना मेरे पिता की मूर्खता ही थी. जीवन है तो धर्म, राष्ट्र सब है” शाओना ने पूरणपोली तोड़ते हुए कहा. सभी
को उसकी मराठी समझने में मुश्किल होती थी और कोई एकदम से प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं
कर पाता था. पूरणपोली मीठी होने पर उसने नाक सिकोड़ी. उसने कल्पना नहीं की थी कि
पूरणपोली मीठी होगी और मुख्यभोजन में परोसी जाएगी. “हो सकता है वे जीवित हो और याद रखो राष्ट्र के लिए प्राण देनेवालों
की कीर्ति अमर होती है” सावरकर
बहुत धीरे खा रहे थे. उनका सारा ध्यान शाओना की ओर था. “मरने के बाद बस शव शेष रहता है, मिस्टर सावरकर” शाओना ने कहा. मिस्टर सावरकर सम्बोधन
सुनकर नाना और यमुना वहिनी चौंकें मगर सावरकर प्रमुदित ही हुए, उन्हें इंग्लंड में बिताए अपने
युवादिनों का स्मरण हो आया. “भाऊ या दादा कहो. यहाँ मिस्टर-मिसेज़ कहने का रिवाज नहीं है” नाना ने टोका.
“वह मुझे कुछ भी कहकर पुकारे मैं बहू को शेवंती कहकर ही पुकारूँगा.
पंडित दीनानाथ मंगेशकर की पत्नी का यही नाम है. बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाती है वे” सावरकर ने नींबू का अचार चाटते हुए
कहा. “श्रावणी बहुत सुंदर नाम है. शेवंती तो
पुरातनपन्थी लगता है” यमुना
वहिनी बोलीं. “मैंने सुशीला सोचा था” नाना ने कहा मगर यह सब बातें शाओना को
ठीक से समझ नहीं आई. इतनी जल्दी जल्दी बोली गई मराठी वह समझ नहीं पाती थी.
नाना ने पहले मराठी में फिर अंग्रेज़ी
में समझाया, “शेवंती, श्रावणी या सुशीला कौन सा नाम तुम्हें अच्छा लग रहा है? बताओ उसी नाम से तुम्हें पुकारेंगे”. थाली आगे सरकाई और शाओना चीख़ी, “उनकी बेटी इतनी पसंद थी कि मजबूर करके
शादी की मगर उनका दिया नाम स्वीकार नहीं” वाक्य पूरा भी न हुआ था कि उठकर भाग गई. पानी तक नहीं पिया. यमुना
वहिनी पानी का गिलास लेकर उसके पीछे दौड़ी. नाना ने लज्जा से मुँह झुका लिया. क्या
यह वही स्त्री है जो रातभर उनसे लिपटकर सोई थी, जिसने रातभर प्रेम से भरे वचन कहे थे और आज इसने भाऊ का अपमान किया
और भरी थाली बढ़ाकर भाग गई.
क्या इस लड़की से लग्न रचाकर उन्होंने
अपने जीवन की सबसे बड़ी भूल की है! सावरकर चुपचाप खाते रहे. शाओना रोते हुए सड़क
फलाँघकर अपना घर ढूँढने लगी. उसे यहाँ आए मात्र एक रात बीती थी और उसका न केवल नाम
बदल गया था बल्कि वह अपना घर भी ढूँढ नहीं पा रही थी. नाना ने अपनी पत्नी का
सुशीला नाम बताकर अपने मातापिता को पत्र भेज दिया था. पत्र में स्पष्ट लिखा था कि
उनकी बहू यहूदी और अनाथ थी मगर उसके कुलगोत्र का समुचित ज्ञान उसे और उसके भाई को
है. उसका भाई यहूदियों के प्रार्थनाघर में यज्ञविधि (यह झूठ था. शाओना का भाई
पशुबलि का यहूदी विधान सीख रहा था) सीख रहा है. यह भी झूठ लिखा था कि शाओना ने
हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है और उसका नया नाम सुशीला है.
बहुत समय बीतने पर नाना को अपने पिता
का पत्रोत्तर मिला था. वह बार बार इसे कोट की जेब से निकालकर पढ़ते और फिर तह करके
जेब में रख लेते. दफ़्तर में दिनभर उन्होंने यही किया, वह निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि पत्र
सुशीला (पूर्वनाम शाओना) को पढ़कर सुनाए या नहीं. घर पहुँचे तब चाय उबलने की गन्ध
घरभर में भरी थी. शाओना हरी चाय बिना दूध और शक्कर के पीती थी. नाना को अंग्रेज़
अफ़सरों की तरह दूध और शक्कर के साथ चाय पसंद थी मगर उसदिन उन्होंने भी हरी चाय
पीने की इच्छा जताई. शाओना दो कप चाय बनाकर ले आई. वसन्त के दिन थे. दूर बच्चों के
खेलने का शोर कानों तक आ रहा था. मोटरकार और बसों के हॉर्न बीच बीच में बजते थे.
अंततः नाना ने शाओना को पत्र पढ़कर सुनाया-
श्रीगणेशप्रसन्न:
प्रिय त्र्यम्बक,
तुम्हारे यहूदी स्त्री को पत्नी बनाने का समाचार प्राप्त हुआ. तुमने यह विवाह करके हमारा शुद्ध वेदपाठी चितपावनकुल नष्ट कर दिया. हम जीवन की इस अवस्था में यहूदी बहू स्वीकारकर अपने धर्म विनष्ट नहीं कर सकते. तुमने युवावस्था की वासनाओं के वश में आकर यह विवाह किया होगा किन्तु हम ऐसी कौन सी तीव्र भावना से विवश होकर किसी म्लेच्छ को गले लगाएंगे, यह तुम पत्र लिखने से पूर्व ही जानते होगे. न बहू को देखने की हमारी कोई इच्छा है न तुम्हारे होनेवाली संतानों की. सम्भवतया तुम्हारी माँ कभी तुम्हारा मुख देखना चाहे.
तुम्हारे यहूदी स्त्री से विवाह पर मातापिता होने के नाते हमारा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे संग रहेगा. फूलो-फलों.
तुम्हारा पिता दिगम्बर आह्लाद काणे
वसन्तपंचमी
“मैं समझती हूँ उन्होंने ऐसा क्यों कहा और मेरे लिए आपके पिता हमेशा
उतने ही आदरणीय रहेंगे जितने मेरे लिए मेरे पिता थे” शाओना ने लंदन से आए सफ़ेद कप से चाय पीते हुए कहा. पिछले एक महीने
में ही उसने घर संभाल लिया था. नए कप-बशियाँ, चादरें-गिलाफ, परदे, फ़र्नीचर
सब कुछ सादा मगर क़ीमती था. इतने थोड़े पैसों में वह यह सब कैसे जुटा सकी नाना के
लिए यह बहुत बड़ी पहेली थी. इतनी सुरुचि, सफ़ाई और सुघड़ता यदि नाना की माँ देख पाती तो कितना प्रसन्न होती
जैसे सावरकर प्रसन्न होते है, “उन्हें इतना आदर दे सकती हो तो भाऊ से क्यों खिंची खिंची रहती हो” नाना ने अवसर पाकर सावरकर की बात छेड़
दी. उस दिन भोजन से शाओना का यों उठकर चला आना वह भूले नहीं थे जबकि सावरकर
राजनीति में व्यस्त हो गए थे और यमुना वहिनी घर के कामों में व्यस्त होकर वह घटना
भूल चुकी थी.
“क्या किसी से विपरीत विचार रखना अनादर का सूचक है” शाओना ने यह बात एक जटिल, किताबी मराठी में कही. बहुत देर तक
नाना बात ही समझने की चेष्टा करते रहे और उत्तर न दे पाए जिसे शाओना ने उनकी
असहमति माना, “तुम्हारे मातापिता जो कर रहे है वह
उनके कुल की पीढ़ियों से चली आ रही रीति यों तुम्हारे तोड़ देने पर क्रोध है मगर
तुम्हारे सावरकर भाऊ से मैं सहमत नहीं हो सकती. उस दिन जब वे हमारी शादी की बात
करने आए थे तब उन्होंने कहा कि वे नास्तिक है और अब मेरा धर्मपरिवर्तन करवाना
चाहते है. मेरे लिए उन्होंने सेवंती नाम तक सोच लिया” शाओना भावातिरेक संभाल नहीं पाती थी.
उसकी कनपटियों की नसें भूल जाती, वह हाथपैर फेंकफेंककर बातें करने लगती और ऐसा लगता वह क्रोध और यातना
के बीच फँस गई है और निकल नहीं पा रही.
“एक नास्तिक आदमी किसी पराई औरत के धर्म को लेकर इतना सोचता ही क्यों
है!” शाओना ने कहा और कप ज़ोर से टेबुल पर
रखा फिर जल्दी से ख़ुद ही उठाकर देखने लगी कि कहीं फूट तो नहीं गया. “मैं तो पराया नहीं. यदि मैं तुम्हें
सुशीला नाम से पुकारना चाहूँ तो?” नाना ने एक ही घूँट में वह कड़वा पेय पीकर कप धीरे से रख दिया. “और अगर मैं तुम्हें श्लोमुच नाम से
पुकारूँ तो?” शाओना ने उत्तर देने में एक क्षण की
देर न की. “हमारे बच्चे हिन्दू धर्म का ही पालन
करेंगे. यदि यह भी तुम नहीं मानती तो अपने भाई के घर पूना तुम्हें कल छोड़ आऊँगा” नाना कहते हुए उठ खड़े हुए. शाओना वहीं
बैठी रही. नाना देर तक नहाते रहे. नौकरानी ने ही उन्हें इस्त्री किया हुआ पजामा और
बनियान दी. उनका खाना टेबुल पर लगाया और उसके ऊपर लगी बत्ती जलाई. मेरी नानी कहती
थी उसी रात उनके पेट में बड़े मामा आए होंगे इसलिए बड़े मामा बचपन से ही आपराधिक
प्रवृत्ति के रहे. उन्हें देखते ही नानी ने जान लिया था कि यह बच्चा हिन्दू होगा.
मेरे बड़े मामा जर्मनों की तरह सुन्दर और लम्बे है.
५ फ़रवरी १९४८ की रात आठ बजे मसीना
अस्पताल मटर्निटी वार्ड, प्राइवेट
रूम नम्बर २४ में नानी अपनी तीसरी संतान को जन्म के छह घंटे बाद जब दूध पिला रही
थी अचानक नाना धड़धड़ाते कमरे में घुसे. समुद्री हवाएँ फ़रवरी में हल्की हो जाती
है, रातें ठंडी मगर नाना के बाल पसीने से
भीगे थे. वह छरहरे थे और इतने अच्छे कपड़े पहनते थे कि देखते ही लोग ख़ासकर औरतें
अपनी जगह अचानक ठिठककर खड़ी हो जाती थी. नर्स भी जो इंजेक्शन ठीक कर रही थी ठिठक
नाना को देखती रही. नानी नाना को देखते ही भाँप गई कोई परेशानी की घड़ी है. छह साल
संग रहकर वह नाना की नस नस जानने लगी थी. “सिस्टर प्लीज़ दो मिनट” नानी ने सिस्टर से कहा. सिस्टर बाहर चली गई मगर पलट पलटकर उस भद्र और
व्यग्र पुरुष को देखती जा रही थी.
“भाऊ को पुलिस ले गई. गांधी की हत्या का आरोप लगाकर” नाना ने कहा और नानी से लिपट लिपटकर
रोने लगे. बीच में दूध पीता बच्चा कुनमुनाया. “दूर हटो, दूध
पी रहा है. हमारी तीसरी संतान बेटा हुई है” नानी ने कहा और अपनी दूसरी संतान (मेरी बड़ी मौसी) यशोधरा को भी
बिस्तर पर बैठा लिया. अपने पिता को रोते देख नानी के दोनों बड़े बच्चे चार साल के
बड़े मामा तात्या त्र्यम्बक काणे और दो साल की बड़ी मौसी यशोधरा डर गए थे. दोनों
माँ को घेरकर खड़े थे. नाना को अपनी सद्यजात सन्तान के विषय में कोई रुचि न थी. वह
बस भाऊ के लिए चिंतित थे. “यमुना वहिनी भी अपने किसी सम्बन्धी के घर गई है. भीड़ ने भाऊ के घर
पत्थर फेंक फेंककर खिड़की दरवाज़े तोड़ दिए और आगज़नी की भी कोशिश की” नाना ने अपना मुँह नानी के कन्धे से
उठाकर कहा. “देखो, कितना कमज़ोर है. तुमसे डर गया और अब दूध नहीं पी रहा” नानी ने बच्चे का मुँह अपने स्तन में
देते हुए कहा. “तुम कितनी कृतघ्न हो, सुशीला. जिस आदमी ने हमारी शादी करवाई
वह आज अकारण जेल में है और तुम्हें अपने इस दस घंटे पहले हुए बच्चे की पड़ी है” नाना खड़े हो गए.
नानी चिल्लाई, “सिस्टर सिस्टर, सुई लगा दो”. १९५७ को नानी ने अपनी सातवी और अंतिम
संतान मेरी माँ को जन्म दिया. सबसे छोटी होने के कारण मेरी माँ नानी के साथ
सिनेगॉग जाती. नानी उन्हें यहूदी प्रार्थनाएँ याद करवाती, हिब्रू सिखाने के लिए सिनेगॉग से
मास्टर आता और दोनों शबात मनाती थी. बाक़ी सभी बच्चे हिन्दू थे. अब तक सावरकर के
यहाँ आना जाना बहुत कम हो गया था. सावरकर कभी कभी घर आते तो नानी उनके लिए बॉम्बे
डक मछली बनाती और बेगल. नाना शाकाहारी थे यमुना वहिनी घर से उनके लिए पूरणपोली
लाती.
नानी के भाई ब्रूनो मामा शंघाई के
सिनेगॉग में काम करने लगे थे मगर छुट्टियों में नानी से मिलने ज़रूर आते थे. उस
साल भी वह आए हुए थे. मेरी माँ ढाई साल की थी और नाना ने दादरपारसी कॉलोनी में एक
दोमंज़िला मकान ख़रीदा था. सात बच्चों को लेकर उस किराए के मकान में रहना सम्भव
नहीं हो पा रहा था. “त्र्यम्बक्या, गणेशस्थापना तक यही रहो पीछे दादर
जाना. मैं कितने दिन और हूँ” सावरकर ने कहा. यमुना वहिनी बहुत कमज़ोर हो गई थी. सावरकर सदन लोगों
का आना जाना तो बढ़ गया था और सावरकर सबसे मिलते भी थे मगर कोई अब उनके हृदय को
नहीं छू पाता था. नाना उन्हें आज़ादी के पहले के बम्बई की याद दिलाते थे. नानी
उन्हें अब भी पसंद नहीं करती थी “नास्तिक होकर भी मिस्टर सावरकर का धर्म में इतना हस्तक्षेप मुझे कभी
स्वीकार नहीं हो सकता” वह
कहती थी. फिर गणेश स्थापना से कुछ दिन पहले नाना के दफ़्तर से एक नौकर ने आकर ख़बर
की कि नानी सभी बच्चों को लेकर तुरंत दादरपारसी कॉलोनी के मकान पहुँचे और बीच में
दो दफ़ा रिक्शा बदले. ब्रूनो मामा शाम की प्रार्थना कर रहे थे.
“तात्या ने तो कभी घर पर रहना सीखा ही नहीं. अब इसके पिताजी मेरा माथा खाएँगे कि उसे साथ क्यों नहीं लाई” नानी ने कहा और कपड़े बदल लिए. ब्रूनो मामा की प्रार्थना ख़त्म होते ही माँ और उनके पाँचों भाई बहन तीन रिक्शों में सवार होकर नानी और ब्रूनो मामा के साथ निकल पड़ें. नानी पैसा बहुत बचाती थी और दो बार तीन तीन रिक्शें बदलना बहुत महँगा पड़ता इसलिए वह सीधे ही दादरपारसी कॉलोनी पहुँची. दरवाज़े पर ताला लगा था और चाबी नाना अपने पास रखते थे. सब बच्चे वही बग़ीचे में बैठ गए और क़ुल्फ़ी क़ुल्फ़ी की रट लगाने लगे. ब्रूनो मामा झट क़ुल्फ़ी और मूँगफलियाँ ले आए. फिर अँधेरा गाढ़ा होने पर नाना ने अंदर से खिड़की की साँकल बजाई. माँ ने पलटकर देखा तो नाना हाथ में मोमबत्ती लिए सबको पीछे के दरवाज़े से अंदर आने का संकेत कर रहे थे. बच्चें चिल्लाकर पीछे की ओर दौड़े तो नानी ने टोका. वह और ब्रूनो मामा समझ गए थे कि कोई गम्भीर घटना घटी है जो यों चोरीछिपे बुलाया और दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकर नाना अंदर बैठे है. अंदर एक मोमबत्ती जल रही थी और फ़र्श पर आलथीपालथी मारकर मेरे बड़े मामा बैठे हुए थे.
“तात्या ने तो कभी घर पर रहना सीखा ही नहीं. अब इसके पिताजी मेरा माथा खाएँगे कि उसे साथ क्यों नहीं लाई” नानी ने कहा और कपड़े बदल लिए. ब्रूनो मामा की प्रार्थना ख़त्म होते ही माँ और उनके पाँचों भाई बहन तीन रिक्शों में सवार होकर नानी और ब्रूनो मामा के साथ निकल पड़ें. नानी पैसा बहुत बचाती थी और दो बार तीन तीन रिक्शें बदलना बहुत महँगा पड़ता इसलिए वह सीधे ही दादरपारसी कॉलोनी पहुँची. दरवाज़े पर ताला लगा था और चाबी नाना अपने पास रखते थे. सब बच्चे वही बग़ीचे में बैठ गए और क़ुल्फ़ी क़ुल्फ़ी की रट लगाने लगे. ब्रूनो मामा झट क़ुल्फ़ी और मूँगफलियाँ ले आए. फिर अँधेरा गाढ़ा होने पर नाना ने अंदर से खिड़की की साँकल बजाई. माँ ने पलटकर देखा तो नाना हाथ में मोमबत्ती लिए सबको पीछे के दरवाज़े से अंदर आने का संकेत कर रहे थे. बच्चें चिल्लाकर पीछे की ओर दौड़े तो नानी ने टोका. वह और ब्रूनो मामा समझ गए थे कि कोई गम्भीर घटना घटी है जो यों चोरीछिपे बुलाया और दरवाज़े पर बाहर से ताला लगाकर नाना अंदर बैठे है. अंदर एक मोमबत्ती जल रही थी और फ़र्श पर आलथीपालथी मारकर मेरे बड़े मामा बैठे हुए थे.
“तात्या, क्या
किया इस बार?” नानी ने पूछा. बड़े मामा प्रतिदिन किसी
से झगड़ा करते थे या कभी शराब तो कभी सिगरेट पीते पकड़े जाते. बच्चें सब शान्त
होकर बड़े मामा को घेरकर बैठ गए. बड़े मामा थोड़ी देर मुँह झुकाकर चुपचाप बैठे रहे
फिर जोर ज़ोर से देर तक चिल्लाने से फटी
हुई आवाज़ में कहा, “मैंने
नहीं किया. मैंने नहीं मारा”. नाना की आँखों से आँसू बह रहे थे फिर भी साफ़ आवाज़ में उन्होंने
कहा, “अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर इसने
किसी दुकानदार की हत्या कर दी”. नानी देर तक बड़े मामा को देखती रही, “ब्रूनो भाई इसे हत्या कैसे मान सकते है! यह तो
दुर्घटना हुई.”
“डंडे
और बूटों से पीटकर मार डाला इसने” नाना ने और स्पष्ट करके बताया जो वह दूसरे बच्चों के सामने बताना
नहीं चाहते थे. “नहीं. युवा बच्चों में मारकूट होती
रहती है. यह दुर्घटना है केवल, ऐन ऐक्सिडेंट” नानी ने पास पड़ी दूसरी मोमबत्ती जलाते हुए कहा. “आई, वह दुकानदार बुड्ढा, साला सनकी था” बड़े मामा खड़े हो गए. “पोलंड में तो कितने ही यहूदियों को लड़के ऐसे मार देते थे
सड़क-चौराहों पर. कुछ नहीं होगा. पुलिस दुर्घटना लिखेगी केस ख़त्म” नानी ने कहा और कुछ और मोमबत्तियाँ
ढूँढने लगी. उस मकान में अब तक बिजली नहीं लगी थी.
“शाओना, ये
पोलंड नहीं है. भारत एक लोकतंत्र बन चुका है. यहाँ सबके जीवन का मूल्य बराबर है” ब्रूनो मामा ने नानी को समझाने का
प्रयत्न किया मगर नानी अड़ी रही. सात दिन वहाँ पर छुपे रहने के बाद गजानन विष्णु
दामले की सलाह पर बड़े मामा ने आत्मसमर्पण कर दिया. बड़े मामा को चौदह साल की जेल
हो गई. नानी ने कभी नहीं माना कि वह हत्या थी. “भीड़ के पीटने से अगर कोई मर जाता है तो वह दुर्घटना तो है. वह
व्यक्ति ह्रदयाघात के कारण मरा था. मेरे तात्या के संग भारत सरकार ने अन्याय किया
है. अंग्रेज़ों में क़ानून की समझ थी. ग़ुलामी से नष्टबुद्धि ये हिंदुस्तानी क्या
राज करेंगे” नानी अंत तक यही कहती रही, “बर्बर जाति है यह. सरकारी दफ़्तर और
अदालत खोल लेने से कोई जज नहीं बन जाता. इसके लिए तोराह की बारिकियों का बरसों
अध्ययन करना पड़ता है.” इस
घटना के बाद अति व्यग्रता से नानी ग्रस्त हो गई. कोर्ट केस के समय केवल यही सोचने
से कि बड़े मामा को सज़ा होगी या नहीं उन्हें व्यग्र रहने का विकार ही हो गया. वह
बस पकड़कर रोज़ सिनेगॉग और बड़े मामा से मिलने जेल जाने लगी. दिनभर हिब्रू में
धार्मिक किताबें पढ़ती. अपने छह बच्चों पर ध्यान देना उन्होंने बिलकुल छोड़ दिया
था.
फिर बहुत सालों बाद १९६९ में एक दिन
मोरिस फ़्रईडमन नानी से मिलने आ पहुँचे. वह उतने बूढ़े थे नहीं जितने बूढ़े लगते
थे बस बहुत कमज़ोर हो गए थे. नाना ने उन्हें घर पर ही कुछ दिनों के लिए रोक लिया.
मेरी माँ बताती है कि मोरिस अंकल बहुत मज़ेदार थे. मोरिस अंकल कैसे लाल लंगोट पहने
हुए नाना से औंध नरेश के बंगले में मिले थे वह अभिनय करके बताते और सब बच्चें
लोटपोट हो जाते. इतने दिन बाद घर में कोई हँसा था. मोरिस अंकल कभी चार्ली चैप्लिन
बनते तो कभी बस्टर कीटन. एक दिन खाने की मेज़ पर जब नाना बच्चों को मराठी में अपने
पिता का कोई स्मरण सुना रहे थे तब मोरिस फ़्रईडमन ने नानी से यिद्दिश में कहा, “मराठी लोग का यह बहुत बड़ा कुटैव है कि
अगर एक भी समझनेवाला मिल जाए तो वे मराठी में बोलने लग जाते है भले दूसरा उसका एक
शब्द तक न समझे.
शाओना, आज से हम भी यिद्दिश में बात करेंगे”. नानी को ठसका लगा और वह खाँसने लगी. तीस वर्षों से उन्होंने
यिद्दिश में बात नहीं की थी. अंतिम बार उन्होंने यिद्दिश में ब्रूनो से बात की थी
जब वह शादी नहीं करना चाहती थी और ब्रूनो ने यिद्दिश में कहा था कि शादी न करने पर
शायद ब्रितानी सरकार उन्हें वापस पोलंड भेज दें. अपनी मामी* और अपने पापा से वह
यिद्दिश में बात करती थी और ब्रूनो ब्रूदर* से. मोरिस फ़्रईडमन से तो शायद वह
यिद्दिश में एक वाक्य तक सही न कह सकती मगर अचानक यिद्दिश में उनके मुँह से निकला, “गेरेख़्ट, हर मोरिस फ़्रईडमन.” उसके बाद अचानक नानी बहुत ज़्यादा
बोलने लगी.
वह रातदिन यिद्दिश में बड़बड़ाती रहती
जबकि यिद्दिश केवल मोरिस फ़्रईडमन को आती थी और वह दिनभर स्वामी निसर्गदत्त महाराज
के पास रहते. एक रात जब मोरिस फ़्रईडमन स्वामी निसर्गदत्त महाराज के मिलकर लौटे तब
नानी ने उनका खाना लगाते हुए उनसे यिद्दिश में पूछा, “यह स्वामी आपको सिखाता क्या है?” “मराठी मध्ये बोला. मला समजेल” नाना भी कभी कभी मोरिस फ़्रईडमन के साथ
स्वामी निसर्गदत्त से मिलने जाते थे. बड़े मामा के जेल जाने के बाद और सावरकर के
मरणोपरांत नाना अधिकांश समय चुपचाप रहने लगे और दर्शन की किताबें पढ़ते रहते थे.
निसर्गदत्त महाराज उनके अन्धकार में पड़ रही एक क्षीण ज्योति थी. “Causality is in the mind
only; memory gives the illusion of continuity and repetitiveness creates the
idea of causality. When things repeatedly happen together we tend to see a
casual link between them. It creates a mental habit, but habit is not
necessary. When you see the world you see the God. There is no seeing God,
apart from the world. Beyond the world to see God is to be God” मोरिस फ़्रईडमन ने अबके अंग्रेज़ी में
कहा.
नानी को अंग्रेज़ी समझने में देर लगती
थी
मगर नाना सुनकर अपनी कुर्सी के कूद पड़े, “हाँ, हाँ आज यही तो कहा था”.
मगर नाना सुनकर अपनी कुर्सी के कूद पड़े, “हाँ, हाँ आज यही तो कहा था”.
नानी थोड़ी देर बाद बोली, “ये संसार ईश्वर ने नहीं बनाया है. इसे
शैतान ने रचा है. शैतान ईश्वर को जड़ पदार्थ में बन्द करना चाहता था और ऐसे शैतान
ने यह संसार बनाया. यही कारण है कि यहाँ इतनी यातनाएँ, इतनी अतार्किकता और अंत में रक्तपात
है. यही कारण है कि हमें यहाँ पर जीवन या संसार में घटनेवाली किसी भी घटना का कारण
नहीं पता, जो दण्ड हम भुगत रहे है उसके अपराधों
के बारे में हम कुछ नहीं जानते. सोचो क्या ईश्वर इतना ठण्डा, इतना असंगत हो सकता है! यहाँ पर जिसे
ईश्वर के होने का पता लग जाता है किसी किताब में पढ़कर या कहीं सुनकर नहीं बल्कि
अपने अंतरतम में जिसे ईश्वर का अनुभव हो जाता है उसे शैतान बहुत दुःख देता है
क्योंकि ईश्वर को जानना शैतान के बनाए संसार में शैतान को चुनौती देना है. मृत्यु
ही उसे इस अतार्किक, असंगत
यन्त्रणा से मुक्ति दे सकती है.
मेरे मातापिता को ईश्वर का पता था; तो क्या हुआ? वह गुलाग की बर्फ़ में ज़िंदा जम गए.
कोई क़द्दिश पढ़नेवाला भी नहीं था. ईश्वर को तो हमारे अस्तित्व का पता तक नहीं और
न वह कभी जान पाएगा. हम उसके बिना पैदा हुए है और उसके बिना मर जाएँगे. मोरिस, हम ईश्वर के लिए है ही नहीं. वी डोंट
इग्ज़िस्ट फ़ॉर गॉड”.
किसी ने कुछ नहीं कहा. खाना ख़त्म किया
और सब सोने चले गए.
पिछले साल ४ दिसम्बर २०१८ की दोपहर
नानी का देहान्त हो गया. उनके बच्चों ने उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति से किया
हालाँकि मैंने उनके लिए क़द्दिश पढ़ी क्योंकि १९९८ में जब मेरी उम्र चौदह साल थी, बम्बई के ब्रीचकैंडी अस्पताल में
उन्होंने मेरा यहूदी रीति से ख़तना* करवा दिया था और मेरा नाम रखा-इज़ायश* हिलेल (IZAJASZA HILLEL) . “मगर मेरा नाम तो अम्बर पांडेय है” मैंने कहा. नानी ने जवाब दिया, “हमारे धर्म में यहूदी माँ होने पर ही बच्चे
यहूदी होते है. मेरे कारण तुम्हारी मम्मी यहूदन और उसके करण तुम”. लोकल अनेस्थिसिया का इंजेक्शन लगने
के कारण सुन्न हुए लिंग को लेकर मैं अधिक चिंतित था मगर नानी सर्जरी के बाद टैक्सी
में मुझसे कुछ न कुछ कहे ही जा रही थी. आख़िरकार मैंने जवाब दिया, “हिंदुओं में तो बाप का धर्म और जाति
चलती है न”. नानी हँसी और अंग्रेज़ी में बोली, “डोंट यू फ़र्गेट इज़ायश, वी ऑर चूजन पीपल”.
ammberpandey@gmail.com |
*हसीदी- यहूदियों का एक अत्यंत
रूढ़िवादी समुदाय.
*गोयम- जो यहूदी न हो.
*मामी- माँ (यिद्दिश).
*ब्रूदर- भाई (यिद्दिश).
*क़द्दिश- मृत्यु और अन्य कुछ अवसरों पर
पढ़ी जानेवाली यहूदी प्रार्थना.
*यहूदी रीति का ख़तना- यहूदियों का
ख़तना मुसलमानों में होनेवाले ख़तने से अलग होता है.
*इज़ायश- हिब्रू बाइबल का एकमात्र
शाकाहारी पैग़म्बर. पोलिश नाम. लेखक के शाकाहारी होने के कारण उसे इज़ायश नाम दिया
जाता है.
Ammber Pandey की यह कहानी चमत्कृत करती है , इस कहानी का कथानक विशुद्ध राजनैतिक, ग्लोबल, शोषण, स्त्री और जेंडर के मुद्दों के बीच से होता हुआ मुम्बई, सावरकर और जातिवादी समाज की दुर्दांत व्यथा को चित्रित करता है
जवाब देंहटाएंयह समालोचन पर दूसरी कहानी है एक माह बाद जो आपको एक सांस में पढ़ने को मजबूर करती है - यह पढ़ी जाना चाहिए और खासकरके उन लोगों को पढ़ना चाहिए जो बगैर श्रम किये कहानी पे कहानी पेले जाते है और उसमें एक जैसा कथानक और बिम्ब रचते है, यह अम्बर की अध्ययनशीलता, शोध का उद्यम और व्यापक वैश्विक दृष्टि, इतिहास और इस सदी की शुरुवाती उथलपुथल का निचोड इसमें शामिल है
जियो अम्बर , तुम हर बार चमत्कृत ही नही करते बल्कि दो बार से वीर सावरकर को लेकर जो समझ बन रही है, गाय , गौ, गोबर, गौमूत्र और गौमाता का जो आख्यान तुम वर्णित कर बड़ी समझ बना रहे हो वह हिंदी के किसी लेखक में दम नही कि इस विहंगमता से अपनी बात तार्किकता और प्रमाणों से कह सकें
अरुण देव जी का शुक्रिया कि यह साहस समालोचन में है कि इतने बड़े फलक और समयांश पर फैली कहानी को जगह दे रहें हैं
अभी आधी ही पढी है ..दिन शुरू भी ठीक से नहीं हुआ था कि इस कहानी ने धर दबोचा। पानी तक नहीं पिया अभी। अम्बर की पिछली कहानी और इस कहानी में ज़मीन आसमान का अंतर है। यह पाठ शम्सुर्रहमान फ़ारूकी की याद अनायास ही दिला गया।
जवाब देंहटाएंवह कोई जगह जहाँ तथ्य और गल्प घंघोल दिए जाते हैं. रोचक. मगर ऐतिहासिक पात्रो की कथात्मक अन्विति रह जाती है. हाँ, हम उनके आभामंडल के परे उन्हें सामान्य मनुष्यों की तरह देखने लगते हैं.
जवाब देंहटाएंअम्बर औपन्यासिक फलक के कथाकार हैं. वे अपनी हर कथाकृति में खुद को नया कर लेते हैं और यह उम्मीद बंधाता है कि अगली बार उनकी कोशिश और मुकम्मिल होगी।
इस कहानी को बार बार ढूंढने में काफी समय लगा । कहानी क्या यह तो उपन्यास ज्यादा लगा । है चमत्कृत करने वाली । बीच में छोड़ना असम्भव । पहली कहानी और दूसरी कहानी में विषय अलग हैं लेकिन ट्रीटमेंट एक जैसा । ऐसी कहानियाँ वर्ग विशेष के लिए हैं । अम्बर ने कहानी बुनी बहुत अच्छी है । यह कहानी बहुत अच्छी है और पढ़ने में बिल्कुल सच्ची लगती है । एक वाक्य बहुत अच्छा लगा जो सावरकर के लिए कहा गया कि नास्तिक व्यक्ति दूसरे के धर्म और नाम को बदलने की सोच भी कैसे सकता है
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13-09-2019) को "बनकर रहो विजेता" (चर्चा अंक- 3457) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। --शिक्षक दिवस कीहार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अम्बर...तुम वाकई अम्बर हो..❤️
जवाब देंहटाएंझपकी भी आई पर तुम्हारे कथा गाथा को पढ़े वगैर कैसे सो सकती थी...कथा खत्म होने तक पाठक को जोड़े रखती है ये कहानी..स्नेहाशीष
कहानी को पूरा पढ़ा। वह बीच में अपने गहरे वितान से उठने की छूट नहीं देती। ऐसे प्रतीत हुआ कि किसी वृहद् और घनीभूत कथानक वाले उपन्यास को रातभर जागकर पढ़कर उठा हूं। घटनाओं, स्थियों और चरित्रों को जिस विधि से गढ़ा गया है वह दर्शनीय है।
जवाब देंहटाएंकिंतु कहानी में केवल इतना नहीं है। इसमें संवादों और विवादों के लिए प्रर्याप्त अवकाश है। इसके लिए मैं यह नहीं कह सकता कि लेखक ने यह अवकाश अपने लिए सायास रखा है अथवा नहीं रखा है। हां, कहानी के विचार में जोखिम उठाने के आग्रह से वे किसी तरह अपरिचित नहीं थे, ऐसे मेरा दृढ़ मत है।
बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर कुछ पढ़ने का अवकाश हुआ और इसका एक कारण यह कहानी है। कहानी की ही तरह कहानी की रचना प्रक्रिया भी अद्भुत रही। इस दौरान भी विमर्श चलता रहा है और मुझे लगता है कि यह इस पीढ़ी में हिंदी कहानी लेखन के नये अध्याय का आरम्भ है, अब इसके बाद ऐसी अनेक कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी। अम्बर पांडेय की कविताओं की तरह कहानी में भी सतत सार्थकता रहती है। वे अपनी रचनाओं के ज़रिए इतिहास में छिपी वर्तमान की जड़ें खोद निकालते हैं और यह वे ऐसी सहजता से करते हैं मानो वे स्वयं इस सबका हिस्सा हों।
जवाब देंहटाएंअम्बर हमेशा की तरह विस्मित करते हुए यह कहानी इतिहास से वर्तमान में सहजता से प्रवेश करवाती है पाठक को पकड़े रखती है ..... एक बार न पढ़ कर बार बार पढ़े जाने के लिए मजबूर करती है.....आपको आना चाहिए वापिस अम्बर
जवाब देंहटाएंनिस्संदेह विश्वस्तरीय कहानी।
जवाब देंहटाएंकहानी पढते समय एक एक फ्रेम में विज्युलाइजेशन हो रहा था और मन कह रहा था कि कोई श्रेष्ठ डायरेक्टर इस कहानी का नेटफिलिक्स के लिए फिल्मांकन करे तो क्या कहने��
इसी ब्लॉग पर पढी दोनो कहानियों को पढकर अब पूरा विश्वास और प्रसन्नता हो रही कि युवा श्रेष्ठ कवि एक श्रेष्ठ कहानीकार के रुप में भी स्थापित हो रहा है।
इस समय जब साहित्य जगत की सभी विधाओं में मंदी का दौर चल रहा है... कविता और कहानियों के नाम पर बहुत से लोग अनाप-शनाप कुछ भी लिख रहे हैं।
ऐसे में अम्बर एक उम्मीद की किरण की तरह नज़र आते हैं।
बहुत बहुत बधाई प्रिय अम्बर ����खूब लिखो ।
कहानी तो विश्वस्तरीय है ही मुझे यह भी कहने दिया जाए कि समालोचन भी विश्वस्तरीय है. पूरी दुनिया में इस तरह की कोई वेब पत्रिका नहीं है.
जवाब देंहटाएंनिश्चित ही हिंदी में एक नई प्रजाति को देख लेने जैसा अनुभव है। जिन उर्दू अदीब का ज़िक्र मैंने पहले कमेन्ट में किया था, वे तो और भी प्रसन्न होंगे इसे पढ़कर। उर्दू अदब में जो अकेलापन वे महसूस करते होंगे, हिंदी के ऐसे अद्भुत पाठ को पढ़ वे यक़ीनन खुश हो जाएंगे। अन्य पाठक "कई चाँद थे सरे आसमान" का स्मरण करें। और अगर यूं ही चलता रहा तो जो हल्का सा kitsch बीच-बीच में फ़ारूक़ी सा'ब के आख्यानों में मिलता है, और जो अम्बर की पिछली कहानी में भी थोड़ा-थोड़ा नज़र आ रहा था, अम्बर इस तबियत की kitsch से उबरने में आगे भी हमेशा सफल होंगे।
जवाब देंहटाएंअम्बर पाण्डेय की इस कहानी में वर्तमान भारत
जवाब देंहटाएंका आना आरोपित और अवांछित लगता है। कहानी की सहजता बाधित होती है। कहानी का फलक निस्संदेह बड़ा होता यदि कहानी कहानी की तरह कही जाती। जाति धर्म की गूढ़ जड़ता का वृत्त रचती इस बड़ी कहानी को कमजोरियों से बाहर निकालिये।
यह कहानी इसके पहलेवाली कहानी से मीलों आगे है।
जवाब देंहटाएंपहली पत्नी की मृत्यु के समय 'नाना' की उम्र 30 वर्ष की है पर यहूदी लड़की से प्रेम 25 की उम्र में होता है, याने संभवतः प्रथम विवाह के दौरान। कथाकार ने अगर यह जान-बूझकर डाला है तो पहली पत्नी के प्रति नाना का दृष्टिकोण उससे अधिक जटिल है जितना हीरे के बुंदों पर आपत्ति करने से संभव है।
आधुनिक नाना और बुद्धिवादी सावरकर की सांस्कारिक जड़ता की आयरनी बारीकी से अंकित हुई है । घूँसामार ढंग की आयरनी जो आजकल हिंदी में चलती है, उससे बहुत ज़्यादा महीन और सांघातिक।
कहानी में समाज, राजनीति और संस्कृति के 1941 से 1948 तक के कालखंड की जो जटिलताएँ और अंतर्विरोध व्यक्त हुये हैं उनका समकालीन विस्तार भी है (आख़िर नानी तो अभी मरी है!)। भीड़ द्वारा हत्या को नानी हत्या नहीं दुर्घटना कहती है। 'कंडिशनिंग' (पोलैंड में भीड़ द्वारा यहूदियों की हत्याओं का बाल्यकाल में स्वीकार) कितनी भयावह हो सकती है! वर्तमान को किसी कहानी में फूहड़ ढंग से आविष्कृत करना मुझे पसंद नहीं है। पर यह कहे बिना नहीं रहा जाता कि पिछले कुछ वर्षों की अमानवीयताओं की अनुगूँज इस कहानी में सुनाई देती है।
मुझे यह कहने में कोई द्विविधा नहीं है कि अंबर पांडेय की यह कहानी विश्वस्तरीय है।
निस्सन्देह गूढ़ता के साथ तत्कालीन प्रभाव डालने की कोशिश की गई है, फिर भी मुझे यह कहानी अच्छी नहीं लगी । इसमें तार्किता का अभाव लगा । उम्र की असंगति तो नजर आई साथ ही लेकिन हसीदी यहूदी वाली बात डालकर एक कोम की कट्टरता दिखाने की कोशिश भी सफल नहीं हो पाई । एक तरफ कट्टर हिन्दू से विवाह का तालमेल हो जाना लगभग अजीब लगा तालमेल ताउम्र बना रहा बिना खटफट के । तालमेल मजबूरी में हो गया कोई बात नहीं, दूसरी और एक तरफा प्यार था वह भी मान लिया फिर भी व्यक्तित्व की कुछ चीजे छूटती नहीं है । यदि वे बातें इसमें जुड़ जाती तो अच्छा रहता (मेरा इशारा आप समझ गए होंगे) । उदय प्रकाश की कहानियों का प्रभाव जरूर देखने को मिला । किसी प्रवृत्ति को एक वक्तव्य में समझाना अस्पष्ट लगा और कही कोई बात अधिक विस्तृत लगी । फिर भी यह कहानी अपना महत्त्व रखती है । किसी को पिटने के बाद मर जाना अपराध नहीं है, चाहे व गहरी चोट लगने से मरा हो या डर कर हृदयगति रूकने से । तत्कालिन समय अच्छा चरितार्थ होता है ।
जवाब देंहटाएंतत्कालीन समय में अच्छा चरितार्थ होता है । (सम्पादित करने का विकल्प जरूर दीजिएगा)
हटाएंकहानी पढ़ निःशब्द हूँ!
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.