अम्बर पाण्डेय के कवि से हम सब परिचित हैं. अब
कथाकार अम्बर पाण्डेय अपनी कहानी– ‘४७१४ नहीं बल्कि ४७११’ के साथ प्रस्तुत हैं.
पिछले अंकों में बटरोही की कहानी के सन्दर्भ में यह बात उठी थी कि कहानियाँ निरी
कथाएं नहीं रहीं, उनमें गाथा, इतिहास, मिथक, राजनीतिक-समय आदि-आदि का समिश्रण हो
रहा है. काफ्का, हिटलर के यातना शिविर और ब्रिटिशकालीन भारत तक विस्तृत यह कहानी एकदम
समकालीन भी है. भाषा और दिलचस्प बुनावट ने इस कहानी के पठन-अनुभव को मारक और सघन
कर दिया है.
अद्भुत और अद्वितीय जैसे शब्द अब असरदार नहीं
रहे. इस कहानी के विषय में जल्दी में कुछ कहना जल्दीबाजी होगी. यह ख़ास कहानी समालोचन
पर आपके लिए.
४७१४ नहीं बल्कि ४७११
अम्बर पाण्डेय
(दादीबई शाओना हिलेल के लिए)
अंकज्योतिषी के अनुसार पन्द्रह मार्च १९३८ का दिन मेरे लिए
सबसे शुभ होना था. छह मतलब शुक्र और पूरी तारीख़ का जोड़ तीन मतलब बृहस्पति.
प्रितोम्नोश्ट के दफ़्तर में मुझे उसी दिन बुलाया गया था. उसी दिन मैंने मिलियना
येसेंस्की को पहली बार देखा था. ऐसा नहीं है कि मेरा वह पहला प्रेम था या मुझे
मिलियना येसेंस्की से पहली दृष्टि में प्रेम हो गया था. इस प्रेम को मैंने धीरे
धीरे अपने अंदर विकसित किया था. यह प्रेम कैशोर उद्वेग नहीं बल्कि सत्रह साल के
ज़ीनियस की प्रौढ़ कृति थी.
हो सकता है कि आपको मेरी कहानी जल्दी जल्दी में लिखी लगे.
मेरे पास काग़ज़ नहीं है और इसे मैं अपने पासपोर्ट के पिछले पन्नों पर लिख रहा हूँ.
मुझे पता है यहाँ से मैं कभी नहीं निकल पाऊँगा और न मैं निकलना चाहता हूँ. मिलियना
येसेंस्की रवेन्सबर्क में है और मैं तरीन्सस्ताद्त्स जाने के लिए तैयार हूँ. मैं
काफ़्का के जिस उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ का चेक में अनुवाद करने के
लिए पैदा हुआ था वह मैं कर चुका. मैं कितना चाहता था कि काफ़्का के उपन्यास गोलम
ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ का मेरा चेक में किया गया अनुवाद मिलियना येसेंस्की एक बार
पढ़ सके. यह कभी नहीं हो सकेगा. अफ़वाह है कि मिलियना येसेंस्की रवेन्सबर्क में
किसी मेडिकल परीक्षण के दौरान अंधी हो चुकी है.
आपको विश्वास नहीं होगा कई बार रातों को केवल उसकी आँखें
सपने में देखते हुए मुझे स्वप्नदोष हुआ है. मैं मिलियना येसेंस्की की निर्वस्त्र
कल्पना भी नहीं कर सकता. मेरे प्रिय लेखक काफ़्का की प्रेमिका मेरे लिए अपनी माँ
के कम नहीं होना चाहिए मगर वासना के गोलम के मैं पूरी तरह नियंत्रण में था और शायद
तरीन्सस्ताद्त्स के यातना शिविर में ख़ुद को तकलीफ़ देकर मैं अपने पापों से मुक्ति
पा सकता था. येशीवा से मानदेय मिलना बंद हो चुका था और मेरा गुज़ारा घर की पुरानी
चीज़ें बेच बेचकर हो रहा था. यहूदियों के लिए सोना या चाँदी बेचना वैसे भी बहुत
मुश्किल हो गया था मगर बर्तन और रद्दी अच्छे बिकते थे. मैं भी नाज़ी पुलिस के आने
की प्रतीक्षा करता रहता था. रूज़ेना मेरी सात साल की छोटी बहन को मैं हमेशा तलघर
में बंद रखता था. मम्मी को वह तरीन्सस्ताद्त्स ले गए है या रवेन्सबर्क यह हमें
नहीं पता था और यह भी नहीं कि वह जीवित है भी कि नहीं. एक बार पापा के नाम से एक
पत्र हमें ज़रूर मिला था जिसमें दो नाख़ून थे. मुझे पहले लगा वह मम्मी के नाख़ून
है. फिर मैंने ख़ुद को यह विश्वास दिलाना शुरू कर दिया कि यह मेरे किसी शैतान
दोस्त की शरारत है हालाँकि नाख़ून किसी औरत के ही थे.
यह मेरे प्रेम की कहानी है न कि शोआ की त्रासदियों का बखान
जो आपने जगह जगह बहुत पढ़ा होगा. मैं इस बात के लिए जाना नहीं जाना चाहता कि मैंने
कितनी यंत्रणाएँ सही और जीवित रहा या मर गया बल्कि मैं इसलिए जाना जाना चाहता हूँ
कि मैंने काफ़्का की एक प्रेमिका से एकतरफ़ा मगर किसी विक्षिप्त की तरह प्रेम किया.
त्रासदी से कहीं ऊपर मेरे लिए प्रेम था जैसे अलमारी में मैं तो-रॉ के ऊपरवाले
शेल्फ़ में काफ़्का की किताबें रखता था.
फिर एक दिन एक बुड्ढा हमारे घर एक चिट्ठी देने आया. मेरी
माँ की हस्तलिपि थी, “प्यारे बेटे और
प्यारी बिटिया रूज़ेना, जीवन में कभी
ख़ुद को मेरे जाने के लिए दोष मत देना. दोष मेरा ही है कि मैंने उचित सावधानी नहीं
बरती और मुझे पकड़ लिया गया. अब जब मैं तुम्हें यह अंतिम पत्र लिख रही हूँ तो ऐसा
लगता है कि यह हमारा भाग्य ही है. दिन अच्छे नहीं रहे तो बुरे भी नहीं रहेंगे.
तुम्हारी माँ.”
जल्दी जल्दी में किसी तरह काग़ज़ पर घसीटकर माँ ने यह पत्र
यातना शिविर के उस चौकीदार को दिया होगा. चौक़ीदार जर्मन था मगर अब भी पूरी तरह
यहूदियों के ख़िलाफ़ नहीं था. असल में उसने बताया कि उसे स्तालिन बहुत पसंद था और
नाज़ियों की तरह विचारविहीन हिंसा से उसे चिढ़ थी. उसके अनुसार यहूदियों को
न्यायालयों से उनके अपराधों का दंड मिलना चाहिए और कार्यकारिणी का राष्ट्र के सभी
निर्णय स्वयं लेना उसे असंवैधानिक लगता था. मैंने उस पत्र के बारे में कभी अपनी
छोटी बहन को नहीं बताया. उसका कमरा मैंने गुड़ियों, खिलौनों और परीकथाओं की किताबों से भर दिया था.
हमारे जाने का समय किसी भी दिन आ सकता था इसलिए मैंने अपने
अनुवाद की पांडुलिपि लंदन के एक यिडिश प्रकाशन को भेजने का निर्णय लिया जबकि मैं
जानता था कि वह लोग चेक अनुवाद कभी नहीं छापेंगे. ब्रूनो के पापा अपने परिवार को
लेकर फ़्रान्स होते हुए ब्रितानिया जानेवाले थे उन्हें ही मैं अपने अनुवाद की
पांडुलिपि देने गया.
“क्या हम आपके साथ नहीं चल सकते?” अपने अनुवाद की पांडुलिपि देते हुए मैंने ब्रूनो के पापा से
पूछा. वह हमारे दूर के रिश्तेदार भी लगते थे.
“शाम तक तैयार होकर यहीं आ जाओ” उन्होंने कहा और मैं पांडुलिपि छोड़कर अपने घर रूज़ेना को
लेने निकल पड़ा. रास्ते में मुझे तरह तरह के विचार आते रहे. क्या जाना उचित होगा!
माँ कभी लौटकर आई तो? ब्रूनो का तो
पूरा परिवार जा रहा है. मिलियना येसेंस्की भी तो आ सकती है. ज़रूरी नहीं कि सब के
सब मर जाएँ. आख़िर इतने लोग कभी एक साथ मरते है क्या. प्रेम के लिए तो प्राण दिए
जाते है और मैं बचाकर भाग रहा था! यही सोचते सोचते जब मैं घर लौटा तो रूज़ेना घर
पर नहीं थी. तलघर पर ताला वैसा का वैसा लगा था मगर अंदर कोई नहीं था.
मेरी बहुत सी किताबें भी या तो ग़ायब थी या अधजली यहाँ वहाँ
पड़ी हुई थी. काफ़्का के उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ की मूलप्रति भी
ग़ायब थी. उस दिन पहली बार मुझे अनुभव हुआ कि मेरी बहन मेरे लिए किसी भी किताब से
बढ़कर थी. दुनिया की कोई किताब या पुस्तकालय छोटे से छोटे जीवन से भी बढ़कर नहीं
हो सकता. ‘काफ़्का की किताब को मारो
गोली मुझे बस मेरी छुटकी रूज़ेना किसी तरह मिल जाए’ मैं सोचता हुआ उसे हर जगह ढूँढता रहा. ट्रकों में बच्चे
भरकर ले जाए जा रहे थे और मैं रूज़ेना रूज़ेना चिल्लाता उसे ढूँढता रहता. महीनेभर
तक मैं यही करता रहा.
ब्रूनो का परिवार तरीन्सस्ताद्त्स भेज दिया गया. मेरे अनुवाद
की पांडुलिपि पुलिस ने ज़ब्त कर ली थी. काफ़्का से नाज़ियों को वैसे भी चिढ़ थी
मगर बस छोटे मोटे अफ़सरों को. बड़े अफ़सर तो उन्हें जानते भी नहीं थे. नाज़ी
ज़्यादा पढ़ते लिखते नहीं थे. उनका साहित्य प्रॉपगैंडा, सुविधानुसार गढ़ा गया इतिहास और छद्मसमाचार होते थे. रोज़
नई नई अफ़वाहें वह उड़ाते थे जिसका मूल विचार यह होता कि कैसे यहूदियों ने उनपर
इतने वर्षों तक अत्याचार किया. ईसा मसीह को सूली पर चढ़वा दिया और उनके धर्म को
नष्ट करने की कोशिश की. कैसे यहूदी जर्मनों को समूल नष्ट करने के लिए
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर षड्यंत्र कर रहे है.
फ़ील्ड मार्शल विल्हेम कीतल ने बारह सितम्बर १९४१ को घोषणा
की, “बोलशेविकों के विरुद्ध
संघर्ष सबसे अधिक यहूदियों के ख़िलाफ़ होगा क्योंकि यहूदी ही बोल्शेविक क्रान्ति
के जनक है. इन लोगों के पृथ्वी से समूल नाश के लिए अब केवल एक निर्दय और ऊर्जस्वी
आक्रमण आवश्यक हैं.”
यहूदी बोल्शेविक क्रान्ति करके कैसे जर्मनी के न केवल
बुर्ज़ुआवर्ग को बल्कि यूरोप की महान संस्कृति को नष्ट करनेवाले है ऐसे नए नए
पैम्फ़्लेट रोज़ प्राग की दीवारों पर लगा दिए जाते. कम पढ़ेलिखे लोग जो मज़दूरी
करते थे, छोटे मोटे कारोबार या
क्लर्की करते थे ऐसे प्रॉपगैंडा के शिकार होते. उनके क्लब और अड्डे यहूदियों से
व्यापार न करने की घोषणा करते थे तो कभी यहूदियों के पूर्ण आर्थिक बहिष्कार का
माँग करने लगते.
सस्ते मीडियम वेव रेडियो के आने के बाद तो हमारा जीना ही
मुहाल हो गया. फ़्यूरा (fuhrer) के भाषणों को
स्कूलों, विश्वविद्यालयों और
सरकारी संस्थाओं में सामूहिक रूप से सुनना आवश्यक था अन्यथा अधिकारी के विरुद्ध
जाँच बैठा दी जाती और कभी कभी उसे भ्रष्टाचारी घोषित करके जेल तक दे दी जाती थी.
राष्ट्रवादी सिनेमा की बाढ़ आ गई थी. मरी मेरी पहली गर्लफ़्रेंड
जिसे मैंने यीदिश सिनेमा देखते हुए चूमा था वैसी यीदिश टाकीज जर्मनों के आने के
बाद बंद ही हो गई. लोग उन्हें स्त्रैण सिनेमा बताते क्योंकि उनमें रोना धोना बहुत
होता था. स्त्रियों के पात्र अधिक होते थे और लड़ाई झगड़े बहुत कम. फिर दुश्मन
देशों को जीतने, देश पर प्राणों
के बलिदान की सिनेमा का दौर शुरू हुआ. कोमलता यदि थोड़ी भी सिनेमा में थी तो वह
ख़त्म हो गई हालाँकि स्कर्ट उठा उठाकर नाचनेवाली हंगारी नर्तकियाँ की चड्डियाँ देख
देखकर शराबी सिनेमाहाल में बहुत हस्तमैथुन करतें.
यहूदी और रोमानी जिप्सियों को बलात्कारी बताने का
प्रॉपगैंडा भी बहुत चला. मेरे ईसाई दोस्त मुझे भी किसी छोटी बच्ची को देखते हुए
देखते तो हँसते और मेरे लिंग की ओर इशारे करते. उन्हें लगता कि छोटी बच्चियों को
देखकर मैं उत्तेजित हो जाता हूँ जबकि उन्हें देखकर मुझे केवल रूज़ेना की याद आती.
मेरी छोटी बहन जो एक दोपहर अचानक ग़ायब हो गई थी. पता नहीं वह कौन सा पाप था जिसके
कारण मैं अब भी प्राग में स्वतंत्र घूम रहा था क्योंकि मैं यातनाशिविर में जाकर
जल्दी से जल्दी मर जाना चाहता था.
दूर भारत के नेता महात्मा गांधी का विचार कि यहूदियों को
इससे पहले कि नाज़ी उन्हें मारे सामूहिक प्राणोत्सर्ग करके फ़्यूरा का क्रोध शान्त
कर देना चाहिए मेरे मन में अनेक बार कौंधता था. अहिंसा का विचार उन दिनों मुझे
आंदोलित किए रहता था और उसके पीछे था बीस वर्ष की भारतीय सुंदरी के पीछे मेरा पागल
होना. क्या सच में हम यहूदी कामुक और अनैतिक होते है कभी कभी मैं सोचता था क्योंकि
मिलियना येसेंस्की से पंद्रह मार्च १९३९ को मिलने से पूर्व मैं पिता जवाहरलाल
नेहरु के संग भारत से प्राग आई इंदिरा नेहरु की अख़बार में छपी फ़ोटो देखकर उसके
प्रेम में ज़बरदस्त रूप से पड़ गया था. मैं सोलह वर्ष का था और वह लगभग बीस वर्ष
की लगती थी. इंदिरा के पिता जवाहरलाल नेहरु का म्यूनिखपैक्ट की निंदा करना भी
इंदिरा के प्रति मेरे प्रेम के अनेक कारणों में से एक कारण था.
जिस कैफ़े में वह चाय पीने जाती वहाँ मैं येशीवा से छुट्टी
मारकर उसे देखा करता. हल्की बरसात के कारण शाम से पहले ही अँधेरा हो जाता और अंदर
बैरे बत्तियाँ जला देते. पीली रौशनी बाहर काँच और भीतर के दर्पणों में झलमलातीं.
इतनी काली आँखें मैंने तब तक नहीं देखी थी. उसके बाद मैंने भारत के बारे में बहुत
सी जानकारियाँ जमा करना आरम्भ किया. अंग्रेज़ी मैं समझ लेता था और भारत के बारे
में ज़्यादातर किताबें अंग्रेज़ी में थी. एक यहूदी प्रोफ़ेसर (जिसकी नौकरी बारूद
विशेषज्ञ होने के कारण अब तक नहीं गई थी) विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से मुझे वह
किताबें लाकर दे दिया करते थे. उन दिनों कोई यह नहीं पूछता था कि आप क्या और क्यों
पढ़ रहे हो.
येशीवा में स्कॉलरशिप पर पढ़नेवाले एक यहूदी किशोर का दूसरे
विश्वयुद्ध के समय में क्या भविष्य हो सकता था! मैंने कभी इंदिरा से बात करने की
कोशिश भी नहीं की. एक बार वह मुझे कैफ़े के बाहर खड़ा देखकर मुस्कुराने लगी और
उसने अपनी चेक सहेली से कुछ कहा. चेक सहेली ने पलटकर मेरी और देखा. उसने इन्दिरा
को जवाब दिया. मुझे नहीं पता कि चेक सहेली ने क्या कहा मगर मुझे तुरंत मेरा यहूदी
होना याद आ गया और मैं घर की ओर दौड़ा. मेरी किताबें और छतरी पाँवचलापथ पर गिर गई.
मैंने पलटकर देखा इंदिरा और उसकी चेक सहेली मुझे देख रही थी. शर्म से मेरी आँखों
में आँसू आ गये. मैंने अपनी टोपी अपनी पलकों पर चढ़ा ली. अँधेरा छा गया और शाम के
मंद प्रकाश की एक कोमल किरण मेरे हृदय के भीतर आने लगी, उस आलोक में वहाँ कितना दुःख है केवल यही दिखाई पड़ता था.
संसार का सबसे अहिंसक आदमी महात्मा गांधी संसार के सबसे
हिंसक फ़्यूर को प्रिय मित्र कहकर सम्बोधित करता था और फ़्यूर को तुरंत प्रभाव से
देश में चलाए यहूदियों से देश को स्वच्छ करने के अभियान को बंद करने की प्रार्थना
करता था. यहूदियों से उसकी प्रार्थना यह थी कि वे बिना प्रतिरोध सभी यंत्रणाएँ सहे
क्योंकि इससे उनकी आत्मा शुद्ध होगी और यह एक प्रकार से यूडयेवाहे (Jehovah
या YHWH) को धन्यवाद ज्ञापन या हमारा प्रायश्चित होगा. कौन से पापों
का प्रायश्चित होगा यह मुझे अभी तक समझ नहीं आया था क्योंकि लालच, वासना और क्रोध यहूदियों में जर्मनों जितना ही
था या शायद उनसे कम हालाँकि रेडियो, पैम्फ़्लेट और अख़बारों में पढ़ पढ़कर मैं ख़ुद भी विश्वास करने लगा था कि हम
लोगों में बलात्कार, चोरियों और
भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति होती है. इंदिरा के देश से आनेवाले समाचार भी मुझे
आनेवाले त्रासदियों के आभास से भर देते.
१९३९ में हिंदू महासभा में वीर सावरकर ने जो भाषण दिया था
उसका अनुवाद लंदन से अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था, “भारतीय मुसलमान अपने हिंदू पड़ौसी से अधिक देश के बाहर के, दुनियाभर के
मुसलमानों को अपना मानते है; जैसे जर्मनी के
यहूदी अपने जर्मन साथियों से अधिक अन्य देशों के यहूदियों को अपना अधिक मानते थे”
वीर सावरकर को यहूदियों के विषय में जो कुछ भी
जानकरियाँ थी वह बिकी हुई प्रेस और छद्म इतिहास के कारण थी. हिन्दू, जो कि इंदिरा भी थी, यहूदियों के बारे में ऐसा सोचते है यह जानकर मेरा मन विषाद
से भर जाता था क्योंकि मुझे लगता इंदिरा भी हमारे बारे में यही सोचती है. वह समय
ही ऐसा था कि लोग समूह में सोचते थे और समूह के विचार को व्यक्ति अपना मानने पर
मजबूर किया जाता था.
उस दिन हमारे मोहल्ले में गेस्टापो का छापा पड़ा था हालाँकि
हम लोगों ने कभी छुपने का प्रयास नहीं किया था लेकिन हमें पुलिस भगोड़ा अपराधी
घोषित कर रही थी. रातभर से पूछताछ हो रही थी. यदि मम्मी जीवित है तो शायद
यातनाशिविर में कभी मिल सके और रूज़ेना! काश वह मर गई हो. रूज़ेना बहुत कोमल है
उसे जल्दी ही मर जाना चाहिए क्योंकि वह इतनी यंत्रणाएँ नहीं सह सकती. हम यंत्रणाएँ
सहते है तो ज़्यादा से ज़्यादा क्या हो सकता है? हम मर जाते है फिर मैं रूज़ेना के पहले ही मरने की
प्रार्थना क्यों करता हूँ ? क्योंकि मृत्यु
से यन्त्रणादायक कुछ और भी है- मानवीय गरिमा से च्युत होना.
१५ मार्च १९३९ की उस दोपहर मैं कितना प्रसन्न था और मूर्ख
भी क्योंकि मुझे नहीं पता था कि प्राग पर जर्मन आधिपत्य हो चुका है. मैं मिलियना
येसेंस्की पर मुग्ध उसकी आँखें देखे जा रहा था. उस दोपहर हमने ग्रीन टी पी थी और
मैंने मिलियना येसेंस्की की चाय में शक्कर के पाँच क्यूब घोले थे. उसी दोपहर
मिलियना येसेंस्की ने मुझे फ़्रांत्स काफ़्का का जर्मन उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट
नम्बर ४५१३ चेक में अनुवाद करने के लिए दिया था. उसी दिन मिलियना येसेंस्की ने
मुझे डाँटा भी था कि मैं क्यों उसे घूरे जा रहा हूँ जबकि वह उम्र में मुझसे बीस
बाईस वर्ष बड़ी है.
उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ उन्नीसवीं सदी के
आरम्भिक दिनों में प्राग की कहानी है जहाँ एक जाँचकर्ता दल एक गोलम को पकड़ लेता
है. गोलम स्थावर वस्तुओं में प्राण फूँकने पर बना एक प्रकार का कमतर जीव है
अल्पसंख्यकों की तरह. जाँचकर्ता गोलम को गिरफ़्तार कर लेते है और शुरू होता है
ब्यूरोक्रेसी का अनन्त चक्र. उपन्यास में न्यायव्यवस्था की सूक्ष्मता से पड़ताल की
गई है. न्यायाधीश गोलम को कहता है कि वह गोलम साबित करे कि वह जीवित है. गोलम अंत
तक यह साबित नहीं कर पाता कि वह जीवित प्राणी है. न्यायाधीश राजकीय क़ानून के
अनुसार उसे मृत्युदण्ड देता है.
जीवित की गरिमा मृत से हमेशा अधिक होती है यह मुझे
तरीन्सस्ताद्त्स यातना शिविर तेरेज़ीन पहुँचकर पता चला. वहाँ पर संगीत था, बग़ीचे और बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक भी.
अधिकांश लोग बूढ़े या घायल थे और बच्चें थे.
तरीन्सस्ताद्त्स यातना शिविर यहूदियों द्वारा ही शासित था.
मुझे बहुत भोजन दिया जाता था क्योंकि मुझे कठोर श्रम करना पड़ता था और बूढ़ों को
बहुत कम भोजन दिया जाता. सभी को लगता था कि बच्चें और युवा ही यहूदियों का नया देश
फ़िलीस्तीन बनाएँगे. बच्चों को पढ़ाने के लिए यहूदी वैज्ञानिक, लेखक और बहुत से बुद्धिजीवी थे. एक दिन एसएस के
कुछ अधिकारी एक ट्रक भरकर बच्चें ले गए. माएँ पीछे पीछे दौड़ने लगी, वह पूछना चाहती थी कि बच्चों को कहाँ ले जा रहे
है, ड्राइवर बड़बड़ाता रहा,
“पूर्व पूर्व”. उस दिन के बाद पूर्व का अर्थ हमारे लिए मृत्यु हो गया.
प्राग में जब मैं आज़ाद था तब मरना चाहता और यहाँ आकर मैं
जीना चाहता था. एक दिन मेरा मोटा चश्मा मुझसे ले लिया गया और मोटा चश्मा लगाने के
कारण मुझे आस्चवित्ज़ II बिर्ख़ेनाउ भेजने
का आदेश हुआ. यात्रा के विषय में मुझे बहुत कुछ याद नहीं. मैं शायद बेहोश हो गया
था. आस्चवित्ज़ II बिर्ख़ेनाउ में तेरेज़ीन की तरह शोरशराबा नहीं था. किसी ने बताया कि कोई बड़ा
अफ़सर वहाँ पड़ताल के लिए आया था. ट्रक से उतरते ही हमें कपड़े उतारने का आदेश
दिया गया. प्यास और ठण्ड दोनों ही बहुत लग रही थी. एक लाल ईंटों की सुन्दर इमारत
की तरफ़ सभी को लाइन बनाकर जाने का आदेश हुआ. “रोगाणुनाशन” इमारत के ऊपर
लिखा था. मुझे बहुत ख़ुशी हुई क्योंकि मैं बहुत दिनों से नहाया नहीं था और
यातनाशिविर में घुटने घुटने मल में खड़े होकर मलत्याग करने के कारण विचित्र सी
बदबू और गन्दगी अनुभव होती रहती थी. आज सभी रोगाणुओं का नाश हो जाएगा और शरीर
स्वच्छ हो जाएगा ऐसा सोचकर मैं अपनी प्यास भूलकर पंक्ति में खड़ा हो गया.
अंदर तो और भी गंदा था. चार पाँच यहूदी नौकर अंदर से शव उठा
उठाकर ला रहे थे. एक बुड्ढा चिल्लाने लगा, “मैं नहीं जाऊँगा मैं नहीं जाऊँगा”. एसएस अधिकारी गरिमा और शान्ति का बहुत ध्यान रख रहे थे.
बुड्ढा चिल्लाकर उस गरिमा को भंग कर रहा था. एक औरत ने आकर उसके चूतड़ पर ऐसी लात
मारी कि वह वहीं गिर गया और बर्फ़ पर फिसलता हुआ एक पिलर से टकराया. उसका एक पैर
बिलकुल मुड़ गया और वह अचानक शांत हो गया. वह जीवित था और जीवित की गरिमा मृत से
हमेशा अधिक होती है. वह घिसट घिसटकर चलता हुआ ख़ुद ही गैस चेम्बर में घुस गया.
वहाँ भीड़ बहुत थी. मुझे नहीं पता था कि मनुष्य मरने में
इतना अधिक समय लेता है. हम लोग उस भीड़ में एक दूसरे से चिपक चिपककर बैठे मरने की
प्रतीक्षा कर रहे थे मगर हम बेहोश भी नहीं हो पा रहे थे. मेरे पास बैठे एक कंकाल
हो चुके व्यक्ति ने मुझसे पूछा, “आपका नाम क्या है?”
जैसे अब भी उसे आशा थी कि वह जीवित बच जाएगा या
हो सकता हो कि उसके सुसंस्कार उससे ऐसा कहलवा रहे हो. मैंने बहुत देर तक जवाब नहीं
दिया. दूसरे लोग निर्लज्जों की भाँति जीवित रहने के लिए चिल्ला रहे थे. वह ईश्वर
को बुला रहे थे. दीवार से सटकर खड़े लोग दीवार चाट रहे थे या शायद दीवार को काटने
की कोशिश कर रहे थे. एक दूसरे के मुँह पर थूक उड़ाने और अपनी बचीकुची गरिमा खोने
के अलावा वे कुछ भी नहीं कर पा रहे थे.
उसने फिर पूछा, “हेलो, प्लीज़ आपका नाम बताएँगे?”
शायद वह समय काटना चाहता था.
“मिलियना काफ़्का” मेरे मुँह से अचानक निकला.
“यह कैसा नाम है! यह तो लड़कियों का नाम है” उस आदमी ने आहत स्वर में कहा. उसे लगा मैं
मज़ाक़ कर रहा हूँ और उसके लिए वह बिलकुल भी तैयार न था. वह कोई मज़ाक़ करने का
समय नहीं था. मैंने जवाब देना चाहा मगर मेरा गला अकड़ चुका था. ऐसा लग रहा था
श्वासनली में कोई पत्थर अटक गया हो. मेरा शरीर ज़ोर ज़ोर हिलने लगा जैसे मुझे
मिरगी का पहला दौरा पड़ा हो. फिर दो मिनट के लिए कुछ शांति मिली तब मैंने उससे कहा,
“अगर मिलियना की काफ़्का से शादी हो जाती तो...”
वह आदमी सो चुका था या शायद मर चुका था या केवल
बेहोश था.
“मिलियना येसेंस्की भी इसी समूह की थी. वे त्रोत्स्कायिस्त (trotskyists)
थे और उनके विरुद्ध हमें कड़ा संघर्ष करना पड़ा.
वे लोग छद्म इतिहास गढ़ते थे, अफ़वाहें फैलाते
थे, राष्ट्र के विरुद्ध
कुप्रचार करते थे और जर्मनी की महान परम्परा और यहाँ के महान ऐतिहासिक व्यक्तियों
को कलंकित करते थे.” रवेन्सबर्क यातना शिविर में मरनेवालों की सूची
में इस तरह एसएस ने मिलियना येसेंस्की का परिचय दिया है.
जबकि शिविर की लड़कियाँ उसे ४७११ कहकर पुकारती थी जो जर्मनी
का सबसे अच्छा और देर तक टिकनेवाला कोलोन है. बहुत समय तक मिलियना येसेंस्की को
लोग काफ़्का की प्रेमिका की तरह ही याद करते रहे बल्कि लोग उसे केवल उसके प्रथम
नाम मिलियना के नाम से पुकारते थे जैसे उसने केवल काफ़्का से साल दो साल तक प्रेम
करने के अलावा जीवन में कुछ किया ही न हो. मिलियना येसेंस्की स्तालिन के ख़िलाफ़
थी. वह लोगों को दिखावे के मुक़दमों में फँसाकर, उनसे ज़बरदस्ती अपराधस्वीकृतियाँ लिखवाकर उन्हें गुलाग
भेजने के ख़िलाफ़ थी.
मिलियना येसेंस्की काफ़्का की पहली अनुवादक थी और मैं दूसरा जिसने काफ़्का के अब लुप्त उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ का चेक में अनुवाद किया था. मैंने अंकज्योतिषी और कबाला पर भी एक छोटी सी किताब लिखी. मैं आपको अपना नाम बताना तो भूल ही गया. मेरा नाम था ८५८५.
मिलियना येसेंस्की काफ़्का की पहली अनुवादक थी और मैं दूसरा जिसने काफ़्का के अब लुप्त उपन्यास गोलम ऑफ़ स्ट्रीट नम्बर ४५१३ का चेक में अनुवाद किया था. मैंने अंकज्योतिषी और कबाला पर भी एक छोटी सी किताब लिखी. मैं आपको अपना नाम बताना तो भूल ही गया. मेरा नाम था ८५८५.
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पिछले वर्षों में अम्बर जिस तरह से लगातार अश्लील और निरर्थक साहित्य लिख रहे, उसकी तुलना में यह कहानी उनके साहित्यिक और राजनैतिक समझ का बेहतर प्रतिनिधित्व करती है। यह कहानी रॉबर्तो बोलान्यो के कथा शैली की याद दिलाती है। बोलान्यो अपनी कहानियों (विशेषकर उपन्यासों) में साहित्य के स्थापित चलनों का लगतार अतिक्रमण करते रहते हैं और उनका साहित्य, साहित्य के उनके जुनूनी अध्ययन का प्रतिफल है। काफ़्का, मिलेना से लेकर गांधी और इंदिरा तक फैले हुए भूगोल में यह कहानी अतीत और वर्तमान पर एक कमेंट्री की तरह है। कुल मिलाकर अच्छी कहानी है। सम्पादक ने यह लिखना क्यों जरूरी समझा कि इस कहानी पर अद्भुत और अद्वितीय लिखना सही नहीं है? क्या हमारी शब्दावली इतनी निर्धन है कि किसी भी तरह के साहित्य की श्रेष्ठता रेखांकित करने के लिए इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल किया जाए?
जवाब देंहटाएंकुल मिलाकर अच्छी कहानी है। और चूंकि यह कहानी मेरे प्रिय कथाकारों को अपना विषय बनाती है और सम्पादक ने मुझे इसमें टैग किया तो इसपर मुझे थोड़ी हैरानी है क्योंकि अम्बर पांडेय का मैं प्रसंशक नहीं रहा कभी भी।
कहानी सधी हुई भाषा में लिखी गयी है और ज़रा भी सेंटिमेंटल नहीं है, वर्तमान हिन्दी लेखन के सन्दर्भ में यह अपनेआप में एक बड़ी बात है। सेक्स और सेक्स-अंगों के साथ लेखक का ऑब्सेशन यहाँ भी नज़र आता है। निजी तौर पर मुझे कहानियों में ऐतिहासिक सन्दर्भों-प्रसंगों को एक सीमा से अधिक लाना पसन्द नहीं है। जो रूसी/सोवियत तथा भारतीय सन्दर्भ-प्रसंग इस कहानी में डाले गये हैं वे कहानी में कुछ मूल्यवान योगदान कर रहे हैं ऐसा नहीं लगता। वे लेखक की ज्ञान-प्रदर्शन की प्रवृत्ति को ही ज़ाहिर करते हैं। ऐसे सन्दर्भों-प्रसंगों के आधिक्य के कारण ही कहानी लेखक के हाथ से छूट जाती है, ऐसा लगता है। यह एक वाकई मार्मिक कहानी हो सकती थी।
जवाब देंहटाएंअम्बर जी राइटर तो वैसे वाले है जैसा अब तक भारत में हुआ ही नहीं मगर सुनते है स्वाभाव से काफ़ी बदमिज़ाज और चिड़चिड है।
जवाब देंहटाएंउनकी रस से पूरी कविताओं में भी एक प्रकार का पाश्चात्य बिज़्ज़ार पेसिमिज़म मुझे हमेशा मिला।
साहित्य में वह अमर होंगे मगर शरीर जल्दी ही छोड़ देंगे। ऐसे लेखक को बहुत सम्भालकर रखना पड़ता है।
अम्बर पांडे मेनस्ट्रीमींग के लिए आतुर दिख रहे हैं। हिंदी कथा के मेनस्ट्रीम में कहानी अवश्य सराही जायेगी। कौन जाने 'वारेन हेस्टिंग्स का साँड़' की तरह युगांतरकारी भी मानी जाय, यदि भविष्य में भी इसी राजनीतिक-साहित्यिक सूझबूझ से लिखते रहे।
जवाब देंहटाएंइस कहानी का शिल्प दिखावा अधिक है, किसी कथ्य के निरूपण का यंत्र कम। गोलम का रूपक किस उद्देश्य से लाया गया है यह बिलकुल स्पष्ट नहीं है। मिलेना के प्रति आसक्ति और इन्दिरा के प्रति आकर्षण का क्या निहितार्थ है? गांधी के पत्र (1940) और सावरकर की किताब (1923) में क्या साझा है? यह बहुपठित चेक लड़का 'वीर सावरकर' क्यों कहता है? कहानी का एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व एक काल्पनिक उपन्यास का चेक अनुवाद है जो ज़ब्त हो जाता है। इस वृत्त को यूँ ही डाल दिया गया है, इसकी कोई व्यंजना नहीं मिलती। कहानी का शीर्षक ऐतिहासिक मिलेना के बारे में है पर क्यों है यह ढूँढ़े नहीं मिलता।
मैं अम्बर पांडे का प्रशंसक हूँ। पर आशा करता हूँ कि जनवादी एकल्चरेशन का लोभ यहीं रुक जायेगा।
सर, मुझे हिंदी के जनवादी लेखक कभी फूटी आँख नहीं सुहाए।जनवादियों ने जो सरलीकरण किया वह एक प्रकार की warning ही रही है मेरे लिए हमशा मगर इसके साथ ही भारत की वर्तमान राजनीति भी मुझे बहुत डरावनी लगती है।
जवाब देंहटाएंअम्बर का यह रूप प्रशंसनीय भी है और उसके वृहद पठन पाठन का हिस्सा भी
जवाब देंहटाएंअम्बर पर अश्लीलता का आरोप लगाने वाले भूल जाते है कि जैसा समाज होगा वैसे ही लिखा जाएगा और यह अश्लीलता लोगों के दिमाग़ में है नाकि रचना, भाषा या कथ्य में
यह कहानी एक बड़े फलक पर रची गई है कहना गलत ना होगा कि यह राजनैतिक सूझबूझ और विचारधारा की परिपक्वता के साथ समसामयिक राजनीति पर मानीखेज टिप्पणी भी है, इसमें सावरकर है, इंदिरा है , नेहरू है, और तानाशाही की पीड़ा झेलते नागरिक है और यह उस वक्त को पकड़ने की कोशिश करती है जब प्रेम से लेकर सच बोलने वालों और मेहनतकश अवाम को , निहत्थे और निर्दोष लोगों को बेवजह मारा जा रहा है, बहरहाल, यह तपती गर्मी में लंबे समय तक टिकी बरसात की झड़ी है जो कोना कोना भिगोकर सबको तृप्त कर रही है
आज पापड़ बड़ी उद्योग की तरह जो घटिया लम्बी और निरर्थक कहानियाँ बुनकर लोग पुरस्कार और फर्जी प्रशंसाएं बटोर रहें है, प्रगतिशीलता के नाम पर चाटुकारी कर , जातीय दम्भ और वैचारिक कन्फ्यूजन में नकली संसार परोस रहें है और अपनी गंवई मानसिकता और अकड़ से दुनिया को बेवकूफ समझने वाले आत्म मुग्ध लोग खुद को खुदा समझकर बैठ गए है उन्हें यह पढ़ना चाहिए कि कहानी में भाषा, शिल्प, कथ्य, फ्लो और कथन क्या होता है - सिर्फ पात्रों, कुत्ते,बिल्ली और गिलहरियों को या मैकेनिक को केंद्रीय पात्र बनाकर कथा संसार नही रचा जाता और ना ही दो कौड़ी की कमजोर विचारधारा जो सबके आगे बिछ जाएं, से कहानी का फलक विस्तृत होता है - पढ़ना पड़ता है , वैश्विक समझ से दो चार होना पड़ता है - प्रकाशक और घटिया लोगों की चापलूसी करके या किताबें भेज कर अमर नही हुआ जाता
ख़ैर,
बढिया अम्बर, बहुत खूब, खूब लिखो यश कमाओ
छटपटाहट इतिहास में भी वर्तमान में भी।आज की कथा को बीते कल की कथा नहीं लिख पाया लेखक।उसे जो दिख रहा है वहीं कह रहा है..बहुत डिसटर्ब करती है कहानी।यही इसकी खासियत है और यही समायनुकुल है।
जवाब देंहटाएंदिनों बाद कुछ भीतर छुआ। अच्छी कहानी। हालांकि पात्रों उनके नामों और परिवेश के भीतर और गहरे उतरने के लिए। एक बार और पढ़ना चाहूंगा। बाकी फौरी तो यह की पढ़ा तो अंत तक पहुंचने का लालच नहीं छोड़ेंगे। एक कवि का कथाकार रूप बहुत अलहदा लगा। बधाई अम्बर
जवाब देंहटाएंअम्बर को व्यक्तिगत प्रतिक्रिया देना ज़्यादा उचित लगा। संवाद चल रहा है। वह एक नयी जगह से लिख रहा है। शायद उस जगह को समझने में कुछ वक्त लगे। तब तक अम्बर के लेखन को धैर्य से पढ़ते रहना होगा। पासपोर्ट के अंतिम पन्नों पर लिखा यह पाठ नहीं है फिलवक्त। हो भी क्यों? काफ़्का का अंतिम लिखित वाक्य था: "Lemonade everything is infinite..." सभी ओर से खुला यह वाक्य जिस जगह से लिखा गया, वैसी जगह को शिल्पित करना जोखिम भरा काम है।
जवाब देंहटाएंअम्बर को २०१६ से पढ़ रहा हूँ। उसकी फ़ेस्बुक वॉल पर टिप्पणी करने से हमेशा बचता हूँ क्योंकि वहाँ पर थोड़ी सा भी क्रिटिसीज़्म के कारण उसकी विशाल महिला फ़ैन फ़ालोइंग के डंडे पड़ने के आसार रहते है।
जवाब देंहटाएंअम्बर रंजना पाण्डे की हर रचना विशिष्ट रही है छह उसकी शुरुआती क्लासिकल शैली की कविताएँ रही हो या दोपड़ी- तोता की कविताएँ, उसका बनारस पर लिखा उपन्यास हो या माँ सारदा पर लिखा उपन्यास। जिसे अपने लेखकीय हठ के कारण वह शारदा कहता रहा जबकि सही शब्द सारदा है। ख़ैर।
अम्बर भारतदेश को टैगोर की तरह दुनिया तक पहुँचा सकता है बशर्ते वह सेक्स, फ़्लर्टिंग, प्यारमुहब्बत में न पड़े। उसकी शारीरिक सुंदरता उसकी सबसे बड़ी दुश्मन है क्योंकि असली पाठक उस तक अपनी बात पहुँचा ही नहीं पाता। वह महिलाओं से ही इतना घिरा रहता है। अगर इन महिलाओं ने उसे नहीं छोड़ा तो वह डोरियन ग्रे बनकर रह जाएगा और अगर वह इनसे आज़ाद हो गया तो साहित्य में उसका सानी दूर दूर तक नहीं हो सकता।
कुछ लोग व्यक्तिगत जीवन में उसे बदमिज़ाज बताते है ऐस किसी ने ऊपर टिप्पणी भी की है और उसकी फ़ेस्बुक पर दूसरों पर आक्रमण करती पोस्ट्स पढ़कर लगता भी यही है के वह महिलाओं के अलावा अपने हमउम्र पुरुषों पर अपना क्षेत्र स्थापित करनेवाले नरजानवरों की तरह व्यवहार करता है। अम्बर महान होगा मगर वह बहुत जंगली भी है। वह पहेली है मगर बहुत फ़्रस्ट्रेटिंग, बहुत कुंठित करनेवाली पहेली।
योगेन्द्र जोशी
यह कहानी अलग तर्बियत की माँग करती है। इसे स्थापित और प्रचलित फ़र्मे में फँसा कर देखना व्यर्थ होगा। हिंसा, अमानवीयता और दमन की स्पष्ट मौजूदगी के बावजूद यह पाठक को भावुक होने की मोहलत नहीं देती। पता नहीं कि अंबर ने यह शिल्प सायास/सचेत ढंग से अपनाया है या इस संवेदना और अनुभूति को इसके बग़ैर व्यक्त ही नहीं किया जा सकता था!
जवाब देंहटाएंऔर यह सच है कि ऐसी कहानी को 'अद्भुत और अद्वितीय' जैसे विशेषणों से संबोधित करना नाकाफ़ी है– जब यह प्रचलित और पूर्वानुमानित के पास जाती ही नहीं तो वैसे शब्द इसे कैसे पकड़ पाएँगे?
अम्बर की रचनाओं की फैन रही हूँ चाहे कविताएं हो या कहानी में उन्हें 2015 से पढ़ रही हूँ तोतावाला ,भंडपीर इंदौरी ,रागमाला ,माँमुनि उपन्यास का इतंजार है कोलाहल की कविताओं ने मन मोह लिया पाठकों का ।
जवाब देंहटाएंअम्बर की व्यवहार कुशलता और उम्दा लेखन उसको युवा लेखकों में अपनी अलग पहचान दिलाता है उनकी कडी मेहनत उन्हें आज इस मुकाम पर ले आई है उनके प्रशंसको की संख्या बड़ती जा रही है जिसमें महिला पाठकों की संख्या अधिक है तो युवाओं में खलबली होगी ही।
कवि को अनेक बधाई .
Ambar ka jawab nahin. Ek Shaanfar kahani.
जवाब देंहटाएंYou may also like: Whatsapp plus vs gbwhatsapp & Games like stick war legacy
इस कहानी को बीते दिनों दो बार पढ़ चुकी थी।
जवाब देंहटाएंपरन्तु जब आज दूसरी कहानी पढ़ी तो इसकी लड़ियाँ अपने आप सुलझती गयी..शुक्रिया अम्बर,रचो कि रचना जरूरी है खुद को भीतर से खाली करने के लिए...दुआएं💐
अम्बर हमारे समय का महत्वपूर्ण लेखक हैं यह कहानी कह रही है
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