कास्ट आयरन की इमारत : अम्बर पाण्डेय



हिंदी कहानी में बहुत कुछ बदल रहा है. नई सदी की कथा-शैली की विशेषताओं में एक है ऐतिहासिक पात्रों की उपस्थिति. कथाकार संदर्भित काल-खंड की भाषा और व्यवहार को अनुसंधान और अंतर-दृष्टि से इस तरह कथा में मिला देते हैं कि वह समय मूर्त हो उठता है. इस कहानी का वाचक ‘बम्बई’ में महात्मा गांधी का पीछा इसलिए करता रहता है कि उसे कुछ नाटकीय मिल जाए.
अम्बर पाण्डेय उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के मिलन पर खड़ी बम्बई की आबो हवा को तो पकड़ते ही हैं उस समय  की अनगढ़ हिंदुस्तानी को भी तलाश लेते हैं.
 
बेहद रोचक और गांधी जी को देखने का मानीख़ेज़ तरीका. कहानी प्रस्तुत है. 


कास्ट आयरन की इमारत

अम्बर पाण्डेय




 
चीकट जनेऊ, कुचैली धोती और गोबर सने खड़ाऊँ पहने मासिक वेतन को लेकर वह ब्राह्मण विवाद करता फाटक पर खड़ा था. बृहदोदर और झबरी मूँछोंवाले इस ब्राह्मण को उस काठियावाड़ी बारिस्टर ने भोजन बनाने के काम पर रख लिया. “शिव शिव कैसा मैला पण्डित है” पड़ोसन सावित्रीताई ने उसे देखकर कहा. “भांडे धोने के लिए महरी कौन है?” रसोइए महाराज ने पूछा और झाँककर भीतर देखने लगा. “बाप रे, इसे चौके में घुसाएगा यह बारिस्टर” सावित्रीताई ने दूर से महाराज की बात सुनकर माँ से कहा.

 

“मैं भांडे मसने का काज न करूँगा” महाराज बोला और हथेली पर तम्बाकू मसलने लगा. काठियावाड़ी बारिस्टर ने उत्तर दिया, “भांडे धोना मेरा दायित्व रहा”. महाराज ने बारिस्टर को ऐसे देखा जैसे किसी बावले को देखता हो, पगार दे भी पाएगा! सोचा. भांडे ख़ुद मसेगा बारिस्टर होकर! जागते ही जलपान, फिर कलेवा, चार बजे शाम चाय और रात को ब्यालू और मासिक पगार (सुन नहीं सका कितनी पगार तय हुई) और दीवाली पर दो धोती दी जाएगी. महाराज जाड़े में कम्बल लेने पर अड़ा. “बम्बई में कम्बल की क्या दरकार, बारहों मास तो उमस रहती है?” “ओढ़ूँ नहीं तो सो नहीं पाता. कम्बल दो तो रुकूँ नहीं तो चलूँ”. “दोहर दूँगा” बारिस्टर ने कहा. “ठीक है हमारे भाग्य का मारकर आप नगरसेठ बनकर बैठिए” महाराज ने कहा. मुझे लगा काम नहीं करेगा मगर कहकर वह भीतर घुस गया. उसके बाद से काठियावाड़ी बारिस्टर और महाराज की झकझक और ठहाके नित्य सुनाई पड़ने लगे.

 

परीक्षा पास करना मेरे लिए बाएँ हाथ का खेल था किन्तु मैं नाटक कम्पनी में आजीविका करूँगा ऐसा मन ही मन निश्चय कर लिया था हालाँकि घर में किसी को बताया नहीं था. मेरे विद्यालय कॉन्वेंट ऑफ़ जीजस अण्ड मेरी से लौटते समय मैं देर तक डेविड ससून वाचनालय में बैठकर ग्रीक नाटकों के अंग्रेज़ी उल्थे पढ़ा करता था किन्तु शेक्सपियर पढ़ना कठिन गुजरता. रात को काठियावाड़ी बारिस्टर और उनके रसोइये महाराज की जासूसी करता था. मैंने निश्चय किया था कि मेरा पहला नाटक मालिक और नौकर के सम्बन्धों पर होगा.

 


बारिस्टर का नाम श्रीमान मोहनदास करमचंद गांधी था और रसोइये महाराज को बारिस्टर गाँधी रविशंकर महाराज या कभी केवल पण्डितजी कहकर बुलाते थे. वह दोनों हमारी इमारत में ही दूसरे माले पर निवास करते थे. उनकी रसोई में छज्जे की तरफ़ कोई खिड़की न थी केवल ऊपर बड़े बड़े आड़े रोशनदान थे. बड़ी खिड़की परली ओर थी. इमारत कास्ट आयरन की थी जैसी वॉटसन हॉटेल की इमारत है इसलिए जिस लोहे के जंगले पर इमारत बनी थी उसके खम्भों पर मैं जब जी चाहे चढ़कर बारिस्टर गाँधी के घर का नजारा करता था. नजारे को वैसे धरा भी क्या था. कभी जौ की लपसी बनते देखो तो कभी बारिस्टर को भांडे धोते. ऐसे तो नाटक की कथावस्तु मिलने से रही, यह सोचकर मैंने बारिस्टर और महाराज का जब वे बाहर जाए तब उनका पीछा करने की ठानी.

 

एक दिन रसोई की दशा अत्यंत अस्तव्यस्त थी और बारिस्टर गाँधी सिगड़ी से भांडे धोने के लिए राख निकालते हुए महाराज पर बड़बड़ा रहे थे, “तुम्हें रोज़ी पर रखने से पहले ही सफ़ाई रखने की शर्त बदी थी और अब देखो रसोई का हाल! ख्वाह तुम हो कि मैं घर स्वच्छ न रहे तो आदमी आदमी नहीं. तुम्हारी धोती पर दूध गिरे कितने रोज़ हुए धोने का ध्यान तुम्हें नहीं. दूध हम लेते नहीं फिर क्या गिरा है यह भी ठीक ठीक पता नहीं. ऐसे काम करना है तो पगार लो और किसी कारोबारी भोजनालय में रोज़ी ढूँढो”.

 

किसी रसोइए को इतने निकट से देखने का यह मेरा पहला अनुभव था. वह इतना अस्वच्छ नहीं था जितना लगता था. वह शुद्धता में विश्वास रखता था स्वच्छता में नहीं. शुद्धता है क्या शायद महाराज को पता भी नहीं था किन्तु बारिस्टर को यह निश्चय ही पता था कि स्वच्छता क्या है इसलिए बारिस्टर के विचार की उस समय तो महाराज की अवधारणा पर विजय हुई. आगे चलकर इन दोनों के जीवन में शुद्धता स्वच्छता को दबाकर उभर आएगी ऐसा दोनों की देखकर पता लगता था. शुद्धता बारिस्टर के धुले हुए किन्तु बिना इस्तरी किए हुए कपड़ों और साफ टोपी-जूतों में दिखाई भी देती थी. महाराज की शुद्धता जैसे केवल शुद्धता के विचार में थी और जीवन में छुपी हुई थी. शुद्धता कोई आध्यात्मिक विचार है और स्वच्छता पाश्चात्य, भौतिकतावादी विचार यह कहना सरलीकृत और असत्य है. शुद्धता भी आधिभौतिक ही होती है जैसे निर्धनता आधिभौतिक होती है. गोलमटोल महाराज और दुबले बारिस्टर का शरीर शुद्ध था. शरीर स्वभाव से ही शुद्ध रहता है स्वच्छ इसे करना पड़ता है. यदि शरीर को साफ किए बिना ऐसे ही छोड़ दे तब भी यह शुद्ध रह सकता है जैसे पक्षियों और बिल्लियों के शरीर. 

  

“आदमी का आत्मा शुद्ध होना चाहिए. बर्तन-भांडे, धोती-गमछा, चूल्हा-चौका चाहे कैसा रहे” महाराज ने कहा और सिगड़ी में कोयले जमाने लगा. बारिस्टर गाँधी परात रगड़ते हुए बोले, “बाहर गंदीवाड़ा हो तो अंदर शुद्धता नहीं हो सकती. मैंने सुबह उठते ही पूरे घर में पोंछा मारा और अब देखो तुमने लौकी के छिलके यही पटक दिए. नमक कूटा तो आधा यही फैला दिया. तुम्हें नमक के मोल का अंदाजा है! एक दिन आएगा जब लोगों को नमक मिलना मुहाल होगा”.

 

महाराज का थुलथुल पेट पहले धीरे धीरे डोला और फिर उसका अट्टहास सुनाई पड़ा, “नमक की हिंदुस्तान में क्या कमी! समुद्र में नमक ही नमक है. कोई खेती करना पड़ती है क्या नमक की”. “तुम अस्वच्छ ही नहीं फ़िज़ूलखर्च भी हो और बदतमीज़ भी हो” कहकर बारिस्टर गाँधी ग़ुस्से में परात ज़ोर ज़ोर से रगड़ने लगे. “इतना घिसेंगे तो परात में छेद हो जाएगा” महाराज ने कहा और बारिस्टर गाँधी के हाथ से परात ले ली और उसे बिना पोंछे एक पीपे से उसमें आटा उलटने लगा.

 

“महाराज, तुमसे मैंने कल रात ही कह दिया था कि आज भोजन में मैं पालक डालकर पौरिज खाऊँगा” अब बारिस्टर लोटा रगड़ रहे थे. “बारिस्टर साहेब, मैं रोज रोज आटे का घोल खाकर नहीं जी सकता. उसमें भी पालक के डण्ठल ही डण्ठल. आपने रोज़ी पर रखते टेम कहा था कि जागते ही जलपान, कलेवा, ब्यालू और चाय मिलेगी. चाय का यहाँ मुँह देखने तक नहीं मिलता” परात पटककर महाराज उठा और अपने खड़ाऊँ पहनकर खटखट करता नीचे उतरकर कहीं चला गया. बारिस्टर गाँधी ने शान्ति से जई का आटा एक टिन के डिब्बे से निकाला और उसमें डण्ठल सहित पालक के बड़े बड़े टुकड़े डालकर सिगड़ी पर उसे चढ़ा दिया. वह खदकता रहा तब तक बारिस्टर तैयार हो गए.

 

(दो)

उस दिन ईसाइयों का कोई जलसा था, अदालतें बंद थी बारिस्टर कहाँ जाएँगे? जब तक बारिस्टर गाँधी जई की लपसी खा रहे थे मैं उनका पीछा करने के लिए तैयार होने चला गया. मैंने धूप में अपना बरसाती कोट पहन लिया और छाता ले लिया ताकि कोई मुझे पहचान न सके. माँ ने ज़रूर जाते बखत टोक दिया, “इतनी घाम में बरसाती क्यों पहन ली? तेरा माथा तो बराबर है!” मैं पलटा तो पिताजी के हजामत के दर्पण में अपनी परछाई मुझे दिखाई पड़ी. गोल फ़्रेम की ऐनक में चमकती मेरी आँखें दिखाई दे रही थी. मेरी वय सोलह थी और मुझे ऐनक लगाते कुछ समय ही हुआ था. डॉक्टर ने मोटे काँच की ऐनक पर्चे पर लिखी थी. अब तो बिना ऐनक लगाए मेरा जगत सहसा विलीन हो जाता था. ऐनक बनवाना उन दिनों बहुत महँगा काम था और कई कई बार दुकान पर जाना पड़ता था. तब कहीं बमुश्किल सही ऐनक बन पाती थी. किसी काँच से माथा दर्द करता तो किसी ने संसार डोलता दिखता तो कई ऐनकों से ऊँचे नीचे की पहचान चली जाती और लोग ज़ीनों से फिसलकर हड्डी तुड़वा बैठते. पन्द्रह से बीस रुपए देकर ऐनक मिलती उसे लगाकर भी दृष्टि की खोट बनी रहती थी. 

 

“मुझे पूरा विश्वास है आज वर्षा होगी” मैंने माँ को बताया और बिना उनका उत्तर सुने सीढ़ियों की तरफ़ दौड़ा. “बरसाती बूट तो भूल ही गए, गोवर्धन” मेरी फुफेरी बहन कुमुद पीछे से ठहाका मारते हुए चिल्लाई, उसके हाथों में बूट थे.

 

बारिस्टर गाँधी बहुत तेज चलते थे. वह सीढ़ियाँ उतरकर पाँयपथ पर आ चुके थे और फटाफट चले जा रहे थे. गिरगाँव से झवेरी बाज़ार सवा दो मील का रास्ता है वह बारिस्टर ने आधे घंटे में पूरा कर लिया. बरसाती और छाते में चलते हुए लोग मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे पागलखाने से फरार आदमी को देख रहे हो. अंतर बस इतना था कि पागल आदमी का दोष नहीं होता और मेरा दोष ही दोष था. क्या इस प्रकार किसी भलेमानुष का पीछा करने का मुझे अधिकार था? क्या नाटककार होने के नाते मैं चाहे जो करने के लिए स्वतंत्र था? सोचते हुए शिखा से पाँव के नख तक स्वेद से भीगा मैं बारिस्टर गाँधी के पीछे भीड़ में दौड़ा जा रहा था.

 

झवेरी बाज़ार में रेवाशंकर जनजीवनराम झवेरी की पेढ़ी पर बारिस्टर गाँधी रुके और एक नौकर से कुछ देर रास्ते पर ही बात करते रहे जो भीड़भाड़ में सुनना मुश्किल था. फिर पेढ़ी के आगे रखे पत्थर का आश्रय लेकर वे पेढ़ी की ओर बढ़े. थड़े पर चढ़कर बारिस्टर गादी के आगे बैठ गए. गादी पर एक सुकड़ा पुरुष चौकी पर मुँह झुकाए कलम से कुछ लिख रहा था. बिना इस्तरी का पुरातन कुर्ता और सिकुड़ी धोती पहने वह पेढ़ी का मुनीम मालूम देता था. गादी पर सफ़ेद झक चाँदनी बिछी हुई थी और गावतकियों पर धुले, साफ़ खोल चढ़े हुए थे. वहीं उस मुनीम के निकट हीरों से एक लड़ पड़ी थी जिससे पूरी दुकान रौशन हो रही थी. ”बारिस्टर, कहाँ रहे इतने दिनों?” मुनीम ने मुँह उठाकर बारिस्टर को देखते हुए कहा.

 

क्षण के शतांश उनका दर्शन हुआ और फिर उन्होंने मुँह बही पर झुका लिया. इतने में ही मैं जान गया वह मुनीम नहीं, पेढ़ी का सेठ नहीं किन्तु कोई ऐसा पुरुष है जिसे पेढ़ी के सेठ की तो क्या ब्रितानी सरकार की भी चिन्ता न हो. उनके नेत्र की ज्योति से जगत झिलमिलाता प्रतीत हुआ. गाल धँसे हुए थे, माथा से कोई प्रकाश भी नहीं फूट रहा था परन्तु उन्हें देखकर मुझे कुछ ऐसा लगा जैसे पुष्टिमार्गियों की हवेली में किसी उत्सव के मध्य खड़ा हूँ. वहाँ सब कुछ सफ़ेद होने पर भी ऐसा लगता था जैसे गेंदे की मालाएँ बांधकर किसी ने घी के दीये जला दिए हो.

 

“दिन में कचहरी जाता हूँ और साँझ रसोइये से माथापच्ची करने में खराब होती रही इसलिए आ नहीं सका रायचंदभाई” बारिस्टर ने जवाब दिया तो इस पुरुष का नाम श्रीमान रायचंदभाई है मैं जान गया. निकट पड़ी पोटली उस पुरुष ने चौकी पर उलटी और पानीदार मोतियों की ढेरी वहाँ लग गई. उसमें से दो एक मोती बीन बीनकर रायचंदभाई बाहर नाली में फेंकने लगे. बारिस्टर ने चकित होकर रायचंदभाई की यह लीला देखी. रायचंदभाई मुस्कुराए, “वह नकली मुक्ताएँ है काँच काट काटकर बनाई हुई” कहकर उन्होंने मुट्ठीभर मोती बारिस्टर गाँधी की हथेली पर रख दिए, “यह टंच माल है बसरे का”. बारिस्टर गाँधी ने पुनः मोती वहीं चौकी पर पटक दिए उनकी मोती माणिक में अधिक रूचि न थी. एक पर्ची पर रायचंदभाई ने कुछ लिखा, मोती पोटली में बंद किए और लाख की मुहर लगाकर पोटली का मुँह बंद कर दिया. पर्ची पोटली से बाँधकर उसे थोड़ी दूर बैठे एक बूढ़े की ओर फेंका. वह बूढ़ा वहाँ मुनीमी करता होगा, उसके साथ और भी तीन चार मुनीम बैठे थे. देश देशान्तर तक फैला व्यापार लगता था.

 

इतने में एक तरुण किन्तु मोटा व्यापारी लाल मख़मल की थैली पकड़े दौड़ता आया. मेदस्वी काया और तंग मोहरी के पायजामे में दौड़ने में उसे बहुत यत्न करना पड़ा था इसलिए चौकी पर थैली रखकर दुकान के काष्ठस्तम्भ से टिककर हाँफने लगा. उसे अंगुलियों में ढेरों रत्नजड़ित अँगूठियाँ पहने देख मैं समझ गया कि वह जवाहरों का दलाल है. रायचंदभाई ने क्षमा माँगती दृष्टि से बारिस्टर गाँधी की ओर देखा और थैली में से एक माचिस की डिब्बी बराबर पन्ना निकाला, “बहुत महार्घ मरकतमणि है” उन्होंने कहा. जवाहरों के दलाल ने तुरन्त कान उनकी ओर किए और पूछा, “क्या है?” रायचंद जी ने पर्ची पर कुछ लिखकर जवाहरों के दलाल को पकड़ाया. उसकी पुतलियाँ अचम्भे से फैल गई. वह मुनीम के पास गया और पर्ची मुनीम को दे दी. मुनीम ने पर्ची उनके पीछे बैठे एक रोकड़िए को दी. उस रोकड़िए ने गिनकर रोकड़ का मोटा ढेर जवाहरों के दलाल को पकड़ा दिया. दलाल जाते जाते पेढ़ी पर काम करते एक एक सदस्य को झुक झुककर नमस्कार करके लौट गया. 

 


बही लपेटकर रायचंदभाई ने किनारे रखी और बारिस्टर गाँधी के सम्मुख होकर बैठ गए. फिर किंचित सोचकर एक ग्रन्थ चौकी के नीचे से निकाला जिसपर बड़े बड़े लाल अक्षरों में लिखा था ‘उपासक दशांग सूत्र’. “इतना गम्भीर ग्रन्थ पढ़ने की अभी मेरी तैयारी नहीं. इससे पहले बुद्धि को शान्त रखना मुझे सीखना है. बारिस्टरी में आमदनी का टोटा है भाइयों से रुपया माँगते अब लाज आती है. उसपर हमारा मोढ़बनिया समाज मेरे विदेश जाने के पाप पर रोज रोज नए हुकम और जुर्माने निकाल रहा है” बारिस्टर गाँधी भरे बैठे थे, दुख भरी आपबीती कहते गए. “बस इतना ही कि कुछ और भी?” रायचंदभाई ने पूछा.

 

“जैसे नई वधू के बक्से में चूहा छुपकर बैठ जाता है और दिन रात उसके जोड़े कुतरता रहता है उसी तरह कामपिपासा मेरी बुद्धि को खाती रहती है. पत्नी का ध्यान बुद्धि से जाता नहीं. कैसे रहती होगी? कहाँ जाती होगी? किससे मिलती होगी?” बारिस्टर ने कहा. उन दिनों सोलह सत्रह की मेरी वय थी और मैं कामपिपासा क्या होती है यह जानने लगा था. जठराग्नि की भाँति मुझे भी कामपिपासा भी व्याकुल किए रहती थी इसलिए बारिस्टर का भाव समझते मुझे देर न लगी. “कामना है या पत्नी पर संदेह?” रायचंदभाई ने पूछा.

 

“क्या उसे भी मेरी तरह इच्छाएँ न होती होंगी” बारिस्टर गाँधी ने कहा. बारिस्टर गाँधी का मुख मैं देख नहीं पा रहा था. उनका बायाँ हाथ आकाश में उठा हुआ था और झंझावात में फड़फड़ाती ध्वजा सा वह हाथ व्याकुल था और उनके अडोल शरीर में स्थित मनोदशा का परिचय उससे मुझे भलीभाँति हो गया. चार बजने को आए थे, धूप मुक्तावली की प्रभा जैसी कोमल पड़ गई थी. साइकिल की घंटियों के बीच, भीड़ के कोलाहल, दूर रेलगाड़ियों की छुकछुक, रिक्शावानों की तेज श्वासों के फुफकारों, कोचवानों की हाँक और घोड़ागाड़ी की लय, दुकानदारों की झिकझिक और पुकारों के बीच जीवन में मुझे प्रथम बार यह अनुभव हुआ था कि संसार का सूत्र कितना कच्चा और कमजोर है. उसे इच्छा कहते है. इच्छा के कारण हम कितने दुख उठाते है और उसके पूरे हो जाने पर कितनी कम देर के लिए हमें शान्ति प्राप्त होती है- घंटे भर, दिन भर या सप्ताह भर की शान्ति.

 

भरे हृदय से मैं घर की ओर चला. रुपया मेरे पास नहीं था इसलिए पैदल चलना ही एकमात्र उपाय था. टांगों का निचला भाग कस गया था और अभ्यास न होने के कारण यों दुख रहा था जैसे हड्डियाँ टूट जाएँगी. रह रहकर अपने भविष्य का विचार आने लगा. क्या मेरा भविष्य भी बारिस्टर गाँधी की तरह दो कमरों के घर में अकेले भांडे धोते बीतेगा. नारी और रोकड़ का टोटा जीवन खाएगा. महाराज का मुँह जागते ही देखना होगा और दिन रोटी-पानी की व्यवस्था करते खपेगा. वयस्क होने का रोमांच और उसकी यंत्रणा का एक साथ मैंने बारिस्टर गाँधी और रायचंदभाई की बातचीत में साक्षात्कार कर लिया था. पैरों की वेदना और तीव्र प्यास से अधिक जिसने मुझे श्रान्त कर दिया था उसके लिए इतने वर्षों बाद आज तक मैं शब्द नहीं ढूँढ पाया. सम्भवतया वह मेरे अनुभव की महानता और मेरे अस्तित्त्व की क्षुद्रता के बीच की दूरी ही थी.

 

घर पहुँचते पहुँचते बत्तियाँ जल गई थी हालाँकि अस्ताचल में क्षीण ज्योति अब भी शेष थी. जाते समय बरसाती और छाते को लेकर मैं कितना संकोच अनुभव कर रहा था और लौटते समय इसका ध्यान तब आया जब घर पहुँचकर मैंने बरसाती उतारी और पसीने से एकदम गीली बंडी को ठण्डी हवा लगी. इस समय कुमुद अपनी सहेली के घर कढ़ाई करने जाती थी. रविशंकर महाराज द्वार पर खड़ा होकर बीड़ी फूँक रहा था.

 

“अपने ठिकाने जाकर फूँको बीड़ी. यहाँ नहीं दरवाजे पर क्यों खड़े हो!” रौब जमाने की मंशा से मैंने कहा. उसने जल्दी से एक गहरा और लम्बा कश भरा और बीड़ी नीचे फेंक दी. “बहुत भीग गया है, तुझे भी थोड़ी चाय पिलाती हूँ” माँ हँसी, बरसाती और छाता लेकर बम्बई की गलियों में दिसम्बर के महीने में घूमने का हमारे पारिवारिक इतिहास में एक अत्यंत हास्यास्पद घटना के रूप टंकण होगा यह मुझे तब पता लग गया था.

 

तम्बाकू के साथ साथ अब घर घर चाय का नशा शुरू हो गया था. बिना चाय के कनपटियाँ टीसती, माथे पर बल पड़ जाते थे और चक्कर आते. शाम को घर घर चीनी नशा होता था. पिताजी चाय से घृणा करते थे. उनका मानना था कि चीनी चायपत्ती में अफ़ीम मिलाकर हिंदुस्तान भेजते है और ब्रितानी सरकार यहाँ की जनता को चाय की लत लगाकर निकम्मी कर देना चाहती है. माँ, कुमुद और मैं चाय लिए बिना जी नहीं सकते थे. पिताजी से छुप छुपकर हम लोग रोज़ शाम को और कभी कभी ज़्यादा तलब होने पर दोपहर में भी चाय पीते थे. इतने में महाराज भी अंदर आ गया और माँ ने उसे रुपया पकड़ाते हुए कहा, “चूना रखा है बस तम्बाकू लाना महाराज जी”. सुपारी, तम्बाकू और चाय की लत माँ को बम्बई आने के बाद ही लगी थी और इसमें पिताजी का बहुत रुपया जाता था. पिताजी के पूछने पर कि इतना कैसे महीने में खर्च हो गया माँ उन्हें परचून महँगा होने का हवाला देती थी.

 

एक गिलास में माँ ने महाराज को भी चाय दी और वह निर्लज्ज हमारे घर के अंदर ही मेरे स्वर्गवासी दादा जी अम्बाशंकर गिरिजाशंकर दवे की कुर्सी पर बैठकर चाय पीने लगा. प्रत्येक घूँट पीने से पूर्व वह सींसीं करता और घूँट भरने पर स्लर्प (slurp) की आवाज़ करता. डिब्बे में से मैंने चार पाँच नानखताई निकाली और चाय में डुबा डुबाकर खाने लगा. “दो नानखताई महाराजजी को भी दो, गोवर्धन” माँ ने आदेश दिया और कढ़ाई का कपड़ा, सुईधागे हाथ में लिए कुमुद भी तब तक आ गई थी. उसे भी महाराज का वहाँ बैठकर चाय पीना अच्छा न लगा था मगर उसने कुछ कहा नहीं. अपनी चाय का कप उठाकर अंदर चली गई. मैंने माँ का आदेश नहीं माना और चाय में नानखताई डुबाकर खाता रहा. इतने में महाराज ने ख़ुद ही कहा, “मैं नानबाइयों के हाथ की बनी चीजें नहीं खाता. हिंदू हॉटेल की चीजें ही खाता हूँ. पारसी या मुसलमान जगह पर पाँव नहीं रखता”. माँ घर पर ब्राह्मण कुल होने पर भी पारसियों की बेकरी में बनी नानखताई रखने पर सहसा कान्तिहीन हो गई, कहा, “बच्चे ले आते है, सुनते नहीं मगर रसोई से बाहर रखती हूँ मैं भी” गिलास बाहर जाकर नल पर महाराज ने धोया और मेज़ पर रखकर माँ के लिए तम्बाकू लेने चला गया. “माँ, यह बारिस्टर मोहनदास गाँधी का रसोइया है” मैंने कहा और उस महाराज के सीढ़ियों पर बजते खड़ाऊँ सुनकर आश्वस्त हुआ कि वह दूर निकल गया है और मेरी बात उसे सुनाई नहीं दी होगी.

 

कुमुद अंदर चाय पी रही थी. उसकी गोद में मेज़पोश पड़ा हुआ था जिसपर उसने बाबूना के फूल काढ़े थे. वह लगभग सोलह वर्ष की थी मुझसे छह मास छोटी और उसे चिढ़ाकर मुझे कैशोर का वह विकृत सुख मिलता था जिसे प्रत्येक किशोर अपना अधिकार समझता है. मैंने झटके से मेज़पोश उसके हाथों से छीन लिया और ऐसे अभिनय करने लगा जैसे वह तौलिया हो और उसके अपने पसीने से भीगे केश पोंछने लगा. कुमुद ने कप सिरहाने रखा और मेरे पीछे दौड़ी. मेज़पोश मैला हो गया था जो दूर से मैंने उसे रसोई में जलते केरोसीन लैम्प के आलोक में दिखाया और उससे दूर भागा. देर तक दो शयनकक्ष, एक विशाल स्नानघर (शौचालय नहीं था नीचे सामूहिक शौचालय में निवृत्ति हेतु जाना पड़ता था), भोजनगृह और रसोई के उस घर में हम दौड़ते रहे.

 

श्वास लेने को कुमुद भोजनकक्ष में साँस लेने को ठहरी जहाँ मेरे पढ़ने की मेज़ और पलंग बिछा रहता था. हमारे घर खाने की मेज़ नहीं थी और चौकी-आसन या पलंग पर बैठकर भोजन होता था. मैंने पीछे से जाकर मेज़पोश कुमुद के मुँह पर यों डालकर पकड़ लिया कि उसे कुछ दिखाई न पड़े और फिर उसे आलिंगन में कसकर गोल गोल घुमाने लगा. वह हँसते हुए चिल्ला रही थी, “छोड़ो, छोड़ो” और लीलावश छूटने को थोड़ा कुनमुनाकर हिलती थी. उसके भारहीन और कोमल शरीर से उठती स्वेद की गन्ध से मुझे ऐसा अनुभव हो रहा था जैसे मेरा मस्तिष्क ही नहीं है. मस्तिष्क ही क्यों कण्ठ से ऊपर जैसे मेरा मुख, मस्तक, शीश कुछ भी नहीं है. हम दोनों किन्हीं दो कबंधों की भाँति आनन्द में नाच रहे थे. माँ केरोसीनलैम्प लेकर द्वार की तरफ़ जाती दिखी. वह जल्दी में थी, “लाओ, बताओ. अच्छा तम्बाकू है कि नहीं?” महाराज तम्बाकू लेकर आ चुका था. उसके जाने के बाद माँ ने हमें फटकराना आरम्भ किया, “तुम दोनों अब बड़े हो चुके हो. ऐसे एक दूसरे की बाँह लगना नहीं सोभता अब तुम्हें. अपने ममेरे भाई के चरणस्पर्श करो, कुमुद. वह तुमसे बड़ा है और ख़बरदार जो यह धींगाकुश्ती दोहरायी”. कुमुद ने चरणस्पर्श के बहाने मेरी पिंडली का एक बाल खींचकर तोड़ दिया. “आह, माँ आह” मैं पीड़ा से कराहता उसके पीछे दौड़ा तब तक वह माँ के संग रसोई में व्यस्त होने की नाटिका करने लगी थी.

 

मेरे पिताजी देर से घर लौटते थे. वे मुंबई गुजराती नाटक मण्डली में रोकड़िया और मुनीम थे. टिकट खिड़की सम्भालना फिर टिकट संख्या से रोकड़ का मिलान करके सेठ के हवाले करते तब ग्रांट रोड से गिरगाँव में हमारे घर तक वे पैदल पैदल आते. इसमें देर रात हो जाती थी. पिताजी बाहर का जल भी ग्रहण नहीं करते थे. माँ उनके हाथ पाँव धोने के लिए बाल्टी भरकर रखती और रात को ही उनका लोटा माँज माँजकर सुवर्ण जैसा चमका देती परन्तु फिर भी वे माँ को अपशब्द कहते, उनके कार्य की पूर्वनिर्धारित व्यवस्था में किंचित भी परिवर्तन होने पर कटुवचन उचारते. कुमुद और मैं सोने का इतना अभिनय करते कि श्वास भरना भी भूल जाते. पिताजी माँ को हमारे सम्मुख कभी मारा तो न था किन्तु वे सप्ताह में लगभग दो से तीन बार बीभत्स भाषा का उपयोग तो करते ही थे. माँ भोजन खाए बिना रसोई में देर तक रोती रहती, वहीं भूमि पर कुछ बड़बड़ाती सो जाती थी, “इससे अच्छा हो कि मुझपर वे हाथ उठा दे. मेरे बाँ और बापू के लिए ऐसे अपवचन सुनने से अच्छा है मैं कल का दिन न देखूँ”. प्रातःकाल होते ही पुनः सबकुछ पूर्वावस्था में आ जाता. माँ की रसोई के काँसे, पीतल के भांडे धुले हुए एक लीक में जमे रहते. पूजा की चाँदी की थाली में चम्पकपुष्प रखे होते और चाँदी का लोटा जल से मुख तक भरा रहता. माँ के हाथ की दाल खदकने की सुगन्ध से पूरी इमारत भर जाती थी.

 

पिताजी घर पर टिकते भी न थे. सूर्योदय होते ही जाग जाते और शौचादि निपटाकर स्नान करके पूजा करने बैठ जाते. दो घंटों में पूजापाठ पूर्ण होता और उसके पश्चात् भोजन करके वे नाटक मण्डली के कार्यालय चले जाते थे. “क्या कोई दफ़्तर इतनी जल्दी खुलता होगा?” कई बार माँ मुझसे पूछती थी. “मामाजी पर उनके सेठों की गाढ़ी श्रद्धा है. तिजोरी की चाभी उनके पास रहती है. वे ही हिसाबकिताब रखते है, लेनदेन भूलचूक सब उनके माथे रहती है. जल्दी न जाए तो सेठों को उनकी पगार कैसे पूरेगी” कुमुद ज्ञानवितरण में कब पीछे रहती थी. “बेटके की चाकरी है” मैंने मुँह बनाते हुए किसी उपन्यास में पढ़ा मुहावरा कहा. “अपने बाप के बारे में ऐसी बात! दो जून की रोटी, कपड़ा, शिक्षा सब उनकी नौकरी के कारण है, गोवर्धनचन्द्र” माँ ने पिताजी का पक्ष लिया. रात्रि की घटना माँ के चित्त से ऐसे उतर गई थी जैसे रात्रि का चन्द्रमा सूर्योदय होते ही अदृश्य हो जाता है, “कल रात को पिताजी ने जो कटु भाषण किया था वह भूल गई” मैंने माँ से कहा यह जानते हुए कि इस बात से माँ को कितना क्लेश होगा. कहकर बाहर आ गया क्योंकि ऐसी कड़वी बात कहकर माँ का मुख देख पाना सम्भव न था.

 

सीढ़ी पर बैठकर मैं विचार करने लगा कि मेरा कितना ख़र्चा है जो पिताजी उठाते है. छह रोटी सुबह और आठ रात की, घी अलग, उसके बाद साग-सब्ज़ी और दाल का मोल, कपड़े दीवाली पर शेष शाला का शुल्क और पुस्तक व्यय शून्य क्योंकि मुझे बीते वर्ष पारितोषिक प्राप्त हुआ था. हाँ चाय और बिस्कुट का व्यय अवश्य था जिसके बिना जीवन चल सकता था इसलिए मैंने उसी क्षण से चाय और बिस्कुट त्यागने का निर्णय किया. रात्रि को दूध पीना छोड़ना असम्भव प्रतीत हुआ. दूध महँगा आता था इसलिए देर तक दूध का सस्ता विकल्प सोचता रहा तभी पीछे से बारिस्टर गाँधी आए. उन्हें  रास्ता देने के किए मैं तुरन्त सीढ़ी से उठ खड़ा हुआ. लाटसाहब जैसा कोट और मजबूत जूते, स्वर्णघड़ी और तराशी मूँछों में वे ऐसे पुरुष दीखते थे जैसा मैं बड़ा होकर होने का स्वप्न देखता था.

 

“नमस्कार” मैंने हाथ जोड़कर कहा, “हम आपके पड़ोसी है”. बारिस्टर गाँधी जल्दी में थे किन्तु फिर भी बात करने को ठहर गए, “तुम्हारा नाम क्या है?” मैंने दो सीढ़ियाँ उतरकर उन्हें निहारते हुए कहा, “गोवर्धनचन्द्र गंगाशंकर दवे” मैंने उत्तर दिया. बारिस्टर गाँधी ने घड़ी निकालकर देखी फिर पूछा, “बखत खोटा करने में नफा नहीं. जाओ पढ़ाई करो” और सीढ़ी उतरने लगे. मैं बारिस्टर को बताना चाहता था कि कड़वी बात कहकर माँ का मुख कैसे देखूँ इसलिए घर नहीं जा रहा; शाला का समय हो गया है, भोजन करके मुझे निकलना है. अचानक आँखों से जल गिरने लगा, नाक बहने लगी और कण्ठ भर आया. रोना क्यों आ गया मुझे स्वयं ही समझ नहीं आया. “गोवर्धन, जीमने नहीं आया अभी तक? शाला नहीं जाएगा क्या” माँ पुकारती आई. रोता पाकर उल्टे डपटने लगी, “क्यों रे बाहर आकर क्यों नैन मूत रहे है तेरे! इतना बड़ा ढींगरा हो गया पूरा पुरुष और रोता है” सुनकर मुझे और वेग से रोना आ गया.

 

इतने में दत्तू डाकिया इमारत के पते पर आई सब टपाल लेकर आ गया. सबसे अधिक पत्र बारिस्टर गाँधी के नाम थे. “आए चार दिन नहीं हुए और प्रतिदिन टपाल और तार. बारिस्टर मो. क. गाँधी कहाँ है?” दत्तू डाकिये ने पूछा. “वह तो कचहरी गए है. आप मुझे यह पत्र दे दीजिए मैं पहुँचा दूँगा” मैंने कहा. यह पत्र यदि मेरे हाथ लग जाए तो नाटक की बहुत सामग्री मिल जाएगी. मैंने देखा कई पत्र ब्रितानिया से आए थे. सम्भवतया फ़िरंगी स्त्रियों के प्रेमपत्र हो. मैंने जल्दी की, भय था कहीं महाराज न आ जाए. “पक्का पहुँचा दोगे न बारिस्टर की टपाल उसके ठिकाने. कौन सा घर है? लाओ, बताओ मैं ही डाल आऊँ” दत्तू डाकिये ने कहा.

 

“आप अकारण कष्ट न करें दत्तू दादा. मैं पहुँचा दूँगा. वैसे भी यह आपका बड़प्पन है कि यह भारी भरकम टपाल लादकर आप यहाँ तक आए” मैंने लगभग पत्र दत्तू डाकिये के हाथ से छीनते हुए कहा. “टपाल लादने के काम का तो वेतन मिलता है हाँ पर इस बारिस्टर के नाम तो ढेरों चिट्ठी तार आते है. ठीक है तुम दे देना ध्यान से. देखना बारिस्टर का एक भी पत्र इधर से उधर  हुआ तो क़ायदे का नोटिस भेजेगा” दत्तू डाकिये नीचे उतरने लगे. मैं निश्चिन्त हुआ परन्तु वह पलटा और आधा ज़ीना उतरकर पुनः ऊपर चढ़ा. “तुम्हारे बाप के नाम का भी पत्र है” दत्तू डाकिये ने डाक मेरे हाथ में पकड़ाई और चलता बना. ऊपर से रविशंकर महाराज बिलार सरीखे चुपचाप चले आ रहे थे. मैं डाक हाथ पकड़े नीचे की ओर दौड़ा. “नानोभाई, बारिस्टर साहब के नाम की कोई डाक आई क्या?” महाराज ने पूछा. हाथ में खड़ाऊँ पकड़े सबसे ऊपर वाली सीढ़ी पर खड़े थे. मैंने डाक उलटी-पलटी और सबसे मोटा लिफ़ाफ़ा महाराज को देते हुए कहा, “आपको ही देने आ रहा था. कोई ग्रन्थ है अंदर लगता है”. महाराज ने परिचय गाढ़ा करने के उद्देश्य से पूछा, “भोजन हो गया नानोभाई? तुम्हारी माताजी की टेर सुनी थी अभी”. मुझे चिढ़ हुई. रसोइया होकर उसका मुझे अनुज मानना मुझे सहन नहीं हुआ. क्रोध में मेरी जिह्वा जड़ हो जाती थी इसलिए कुछ कह नहीं सका. भीतर स्वयं को ही धिक्कारा, ‘केवल माँ को ही उत्तर दे सकता है तू गोवर्धनचन्द्र’. धोती में बारिस्टर की डाक छुपाए घर में प्रवेश किया.

 

पत्र मेरे पिता के नाम था किन्तु सम्बोधित कुमुद को था. कुमुद के पति श्री नर्मदादत्त त्रिवेदी को बम्बई में बॉम्बे बर्मा ट्रेडिंग कम्पनी में उचित वेतन पर कारकुन का पद प्राप्त हुआ था और वे क्वाँर मास पूर्ण होते ही बम्बई में आ जाएँगे; ऐसा पत्र में दर्ज था. पिताजी और मुझसे डॉकयार्ड के निकट किराए पर दो कमरे खोजने की सविनय प्रार्थना भी की थी. पत्नी को सम्बोधित करके पत्र लिखना इतना उत्तेजक था कि पढ़ते पढ़ते मुझे श्वास लेने के लिए रुकना पड़ा. मैं हाँफ रहा था. कुमुद रसोई से पत्र सुन रही थी और माँ गृहदेवताओं को नहलाते हुए. मेरा मुख उत्तेजना से आरक्त हो गया था इससे आप कल्पना करके सकते है कुमुद जो कि एक स्त्री थी उसकी क्या दशा हुई होगी.

 

उस पत्र ने मेरे जीवन में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. नर्मदादत्त जी ने यह आग्रह करके कि पिताजी और मैं उनके लिए भाड़े का खोली खोजे यह बात सबके सम्मुख स्पष्ट कर दी कि अब मैं वयस्क हो गया था. इसके साथ ही उनके अपनी पत्नी कुमुद को सीधे सम्बोधित करके पत्र लिखने से मुझे सर्वप्रथम यह अनुभव हुआ कि स्त्री और पुरुष के मध्य आत्मीयता क्या होती है. माँ भी पत्र सुन लेने के पश्चात् इस बात को लेकर व्याकुल हुई कि कुमुद अब अपने घर चली जाएगी और वह नर्मदादत्त जी के बम्बई आने को लेकर अत्यन्त उत्सुक भी थी.

 

(३)

मेरी दो सगी बहनें भी थी दीनाबेन और ललिताबेन किन्तु मैंने दीनाबेन का केवल नाम ही सुना था. दीनाबेन का विवाह मेरे जन्म से चार मास पूर्व चौदह वर्ष की वय में हुआ था और वर्षभर में प्रसव के समय उसकी मृत्यु हो गई थी. ललिताबेन के विवाह की मुझे स्मृति है. मैं आठ वर्ष का था जब उसका विवाह सर सेठ गोकुलभाई मथुराभाई मेहता की धर्मशाला में बेलाराम पाठक जी से हुआ. पिताजी से उसके पति बेलाराम पाठक का किसी बात पर मतभेद होने के कारण फिर वह कभी हमारे घर नहीं आई. मेरी माँ और मुझे भी यह छूट नहीं थी कि हम ललिताबेन के घर जाएँ. मेरा एक छोटा भाई मानक पाण्डुर रोग के कारण छह वर्ष पूर्व कालकवलित हो चुका था. इतनी सन्तानों को खोनेवाली माँ कुमुद में, जो मेरी विधवा बुआ की बेटी थी, अपनी सभी मृत सन्तानों की छवि देखती थी.

 

बारिस्टर गाँधी की डाक जो मैंने उन्हें देने के लिए ले ली वह अपनी पुस्तकों में छुपाई और नीचे से नहाने के लिए जल भरने चला गया. भोजन करते करते इतनी देर हो गई कि विद्यालय पहुँचते पहुँचते घण्टा चूकना ही था. उस दिन मैं विद्यालय जाना भी नहीं चाहता था. माँ और कुमुद भोजन होते ही कैंची, सुई धागे लेकर बैठ गई. माँ कुमुद के नए पोलके के लिए थान काट रही थी. कुमुद अपना कढ़ाई का बक्सा खोलने लगी. बाबूना के फूलों के मध्य कुसुम्भी तागे का काम निकालकर बैठ गई. वे दोनों बैठक में अपने अपने कामों में व्यस्त थी. बारिस्टर की डाक खोलने का यह उचित समय था. यदि कोई देख लेता तो प्रश्नोत्तरमाला बाँध देता. हमारे घर कभी एक साथ इतनी डाक नहीं आती थी. छठे-चौमासे पत्र आता था.

 

अंग्रेज़ी पतोंवाले पत्र पहले खोलने का निश्चय करके मैं डाक शय्या पर फैलाकर मैं पेट के बल लेट गया. माथा स्वेदबिन्दु से भरने लगा और मन ग्लानि से. क्या किसी के पत्र मुझे यों चोरी करके पढ़ना चाहिए? पहले मैंने बारिस्टर के घर में ताकाझाँकी की फिर उनका पीछा किया और अब उनकी डाक छल से प्राप्त कर पढ़ रहा हूँ. इतने में कुमुद पीछे आकर खड़ी हो गई. घबराकर मैं पलटा और डाक पर पीठ के बल लेट गया ताकि डाक मेरी पीठ के नीचे दब जाए.

 

“मामी तो मेरे जाने के बाद बहुत दुखी होंगी पर तुम तो प्रसन्न होगे न गोबर” कुमुद चिढ़ाने के लिए मुझे गोबर पुकारती थी. “मेरे मन के बारे में अनुमान लगाने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं. यह मेरा निजी विषय है” मैंने कहा, कहते हुए मेरी बायाँ घुटना जोर से हिल रहा था. मैं चाहता था कि कुमुद यहाँ से चली जाए. “निजी विषय क्या होता है?” कुमुद ने पूछा. अंग्रेज़ी पढ़ी न होने के कारण उसे निजी और सार्वजनिक के भेद का ज्ञान नहीं था. उसने मेरे घुटने पर हाथ रखा और कहा, “घुटना क्यों हिलाते रहते हो. ठीक आदत नहीं”. उसकी हथेली उष्ण थी किन्तु मुझे वर्षा के पश्चात् चट्टान की भाँति शीतल लगी. उसकी हथेली मेरे घुटने को मसल रही थी किन्तु मुझे लगा वह शव की हथेलियों की भाँति जड़ है. जिस कुमुद को जकड़कर विकृत सुख पाना मैं अपना अधिकार समझता था वह सुख मेरे अनुसार कुमुद के लिए सर्वथा निषिद्ध था.

 

रसोइया महाराज का पीछा करते हुए मुझे यह पता लगा कि वह पुंश्चलियों के फेर में है. उसके पीछे आने जाने के लिए भाड़े के रुपए मेरे पास न होने से अनुमान का ही आश्रय था. हलवाइयों के यहाँ रोटी बेलनेवाली बाइयों और महरियों पर महाराज की आधी से अधिक पगार नष्ट होती थी. बारिस्टर के जाने के बाद खड़ाऊँ, कुरता और टोपी पहनकर वह निकल जाता था. मोरूबाई नामक एक बाई तारदेव तरफ़ रहती थी. उसके घर महाराज का प्रतिदिन का आना जाना रहता था, दोपहर वहीं नष्ट होती थी. बाद में मोरूबाई जब बारिस्टर गाँधी के घर चोरीछिपे भांडे माँजने आने लगी तब उसके दर्शन हुए. भांडे करने के बजाय दोनों मजा करते थे.

 

एक बेला मैंने स्वयं अपनी दृष्टि ने महाराज को एक पुंश्चली को वापरते देखा था. नाटक में जो ब्रह्मानन्दसहोदर रसराज बनकर दृष्टिगोचर होता है वह संसार में बीभत्स रस है यह मुझे उस दिन ज्ञात हुआ. निद्रा में मैंने स्त्री और पुरुष के अनेक प्रसंगों की कल्पना की थी किन्तु रसोइए और उस रण्डी का सम्भोगयुद्ध देखकर मैं मूर्च्छित होते होते बचा. मुझे लगा मेरा अंतर पूर्णरूपेण नष्ट हो चुका है और मेरा केवल शरीर शेष है. यदि अंतर नष्ट न होता तब ऐसा घृणित दृश्य देखकर जुगुप्सा होती किन्तु मुझे वह देखकर रोमांच हुआ. महाराज के थुलथुले पेट पर चढ़ी वह नारी उछल रही थी. उसके ढीले स्तन महाराज की तोंद से रगड़ खा रहे थे. दोनों ही ऐसे शब्द कर रहे थे जैसे यह सब करते हुए उन्हें सुख न होकर बहुत कष्ट हो रहा हो.

 

मैं दौड़कर नीचे शौचालय में छुप गया. थोड़ा समय वहीं व्यतीत किया और फिर पुनः उस घृण्य क्रिया को देखने ऊपर दौड़ लगाई. अब महाराज बारिस्टर गाँधी की खाट पर विर्वस्त्र खर्राटे भर रहा था और वह पुंश्चली कमरे के एक कोने में घुटनों में शीश दिए रो रही थी. सम्भवतः उसे एक साधुपुरुष के शयनकक्ष में ऐसी नीचता करने का पश्चाताप हो रहा था. बारिस्टर गाँधी का चरित्र शुद्ध था ऐसा मैं उनका पीछा करते हुए परख चुका था. अपनी पत्नी को लेकर भले उनके मन में कामनाएँ हो किन्तु इस प्रकार की व्यभिचारिणियों की ओर वे नेत्र उठाकर कभी न देखते थे. मुझे उनकी डाक में भी कोई प्रेमपत्र नहीं मिला था. सभी चिट्ठियाँ शाकाहार सम्बन्धी प्रचार सामग्री और दो एक अंग्रेज मित्रों के कुशल मंगल जानने के पत्र थे.

 

इस बीच पुस्तकालय से मैं एक ग्रंथ लेकर घर लौट रहा था तब समुद्र के सामने छाता पकड़े और बरसाती पहने बारिस्टर गाँधी से भेंट हो गई. वे किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे. वर्षा असमय थी किन्तु बारिस्टर ने भीगने से बचने की व्यवस्था की हुई थी. मैं जानबूझकर सड़क के उसपर जाकर उनके सामने से निकलने लगा. सम्भवतः वे कुछ बात करें. मैंने प्रणाम किया. उन्होंने भी नमस्कार किया और फिर समुद्र देखने लगे. वर्षा थोड़ी देर पूर्व ही थमी थी किन्तु घटा नीचे तक घिर आई थी और अन्धकार हो गया था. कुछ देर मैं खड़ा रहा फिर चलने को हुआ तो हाथ की पुस्तक देख बारिस्टर ने रोका, “बताओ, कौन सी किताब है? पढ़ने में दीदा लग गया तुम्हारा लगता है”.

 

मैंने तुरंत उन्हें किताब सी. तुकाराम तात्या के सुबोध प्रकाश प्रेस में छपा मणिलाल नभुभाई द्विवेदी का ग्रंथ था- A Compendium of The Rajayoga Philosophy, देर तक बारिस्टर गाँधी उसे पलटते रहे फिर कहा, “तुम अंग्रेज़ी समझ लेते हो?” दौंगरा पड़ा और मैं खोमचे की आड़ लेने दौड़ा. बारिस्टर के छाते में पुस्तक सुरक्षित थी इसलिए वे धीमे, डबरों से जूते बचाते हुए आए. खोमचे पर एक पण्डित बटाटे और शकरकंद उबाल रहा था. सुवास से हम दोनों के नासापुट भर उठे थे और इससे बारिस्टर की और बात करने की वृत्ति हुई.

 

 

“इतनी गम्भीर किताब पढ़ने का मंसूबा कैसे हुआ?” बारिस्टर ने पूछा, “अंग्रेज़ी ठीक समझ न आवें तो मेरे पास बेखटके आना. जहाँ अटको मैं बताऊँगा”. भीषण वृष्टि होने लगी थी. मेरी धोती खोमचे में खड़े खड़े भी भीग रही थी किन्तु घर जाऊँ ऐसा हृदय में दूर दूर तक कोई विचार न था. मैंने बारिस्टर से कहा, “आपके पास मैं ख़ुद ही आना चाहता था. आपकी नियामत हो तो कुछ पूछना चाहता हूँ”. इतने में एक हाथ में छतरी सम्भाले और दूसरे से साइकिल चलाते आदमी ने बारिस्टर को आवाज दी और वह उस ओर दौड़े, “चलता हूँ, गोवर्धनचंद्र. इतवार प्रातःकाल तुम चाहे तो आना. नमस्ते”. 

 

बारिस्टर गाँधी से इतवार को भेंट न हो सका. शनिवार को वडोदरा से कुमुद के पति नर्मदादत्त त्रिवेदी आ गए. उन्हें देखकर मुझे ध्यान आया कि डॉकयार्ड पर उनके लिए भाड़े का मकान देखना रह ही गया और अब वे कुपित होंगे किन्तु माँ ने बताया कि पिताजी ने भाड़े का मकान पक्का करके बयाना भी दे दिया है. मुझे बहुत संताप हुआ. नर्मदादत्त जी ने पत्र में मेरा नाम स्पष्ट लिखा था और अब मुझे न ले जाकर पिताजी का मकान पक्का करना नर्मदादत्त जी के साथ ही नहीं मेरे साथ भी विश्वासघात था.

 

भोजन में अनेक व्यंजन बने थे और नर्मदादत्त जी ने स्नान करके काँसे की नई थाली पर बैठे तब उनका गौरवर्ण और काली मूँछें थाली की धातु में दाल और मेथी की भाजी, चटनियों और कढ़ी के मध्य प्रतिबिंबित होने लगी. वे रसिक वृत्ति के प्राणी थे और कुमुद रोटी, साग या मिठाई परोसने जब आती तब बहाने से वे उसका रजताभूषणों से सजा पाँव छू लेते और फिर मुझे देखकर मुस्कुराते. उसी दिन अपने दूर के सम्बन्धी की बेटी से मेरे विवाह का प्रस्ताव उन्होंने पिताजी को दिया.

 

रात्रि को देर तक माँ, कुमुद, नर्मदादत्त जी और मैं बातचीत करते रहे. बैठक में घासलेट की चिमनी को घेरे हम चारों बैठे थे. पिताजी की नींद लगते ही कुमुद चाय बनाकर ले आई. नर्मदादत्त जी ने इससे पूर्व वह पेय नहीं पाया था इसलिए वे चुस्की ले लेकर चाय पीने लगे. सबकी नींद उड़ गई. जब मैंने बताया कि अगले वर्ष एलफिंस्टन कॉलेज में मेरा जाना लगभग तय है और पारितोषिक मुझे अवश्य ही प्राप्त होगा नर्मदादत्त जी ने एलफिंस्टन कॉलेज को अविद्या और अधर्म का गढ़ बताया, “क्या तुम्हें पता है हमारे सम्प्रदाय को कलंकित करनेवाले करसनदास मूलजी की जीवनी लिखनेवाला दुष्ट महीपतराम रूपराम नीलकण्ठ एलफिंस्टन कॉलेज का ही विद्यार्थी रहा है”.

 

कुमुद धर्मभीरु थी उसके मुख से अनायास निकल पड़ा, “पुष्टिमार्ग को कलंकित करनेवाला कौन हो सकता! नवनीतप्रिय का कौन शत्रु हो सकता है!” बात पूरी करते करते लज्जा से उसके कान लाल हो गए. पति से परिजनों के सम्मुख नववधुएँ बात न करती थी. नर्मदादत्त अपनी नववधू का स्वयं से कहा प्रथम पूर्ण वाक्य सुनकर पुलकित हो रहे थे.

 

“अख़बारवाले सत्य न लिखकर नाना मतों की स्तुतियाँ लिखने लगेंगे तो अख़बार और भजनपुस्तिका में क्या अंतर रह जाएगा. करसनदास मूलजी ने सत्य को स्पष्ट लिखकर लेखकों के लिए एक निर्भय आदर्श की स्थापना की थी” मैंने कहा. मैंने महीपतराम रूपराम नीलकण्ठ की पुस्तक उत्तम कपोल करसनदास चरित्र पढ़ी थी. माँ ने फौरन मुझे टोका, “बड़ों की बात सुनना चाहिए न कि यों फटफट उसका जवाब देने चाहिए”.

 

नर्मदादत्त जी को माँ की उनके पक्ष में पैरवी अच्छी न लगी इसलिए कहा, “तब तो तुम मानते हो कि पुष्टिमार्ग के आचार्य जदुनाथ ब्रजरतन जी महाराज कामुकवृत्ति के एक चरित्रहीन व्यक्ति थे!” प्रश्न न था केवल नर्मदादत्तजी का  विस्मय और स्वयं को तर्कशिरोमणि जानने की विजयी शान्ति थी.

 

“अदालत में नतीजा उनके उल्टे पड़ा था. वे हार गए थे और उनके चरित्र पर आक्षेप करनेवाले सही सिद्ध हुए थे” मैंने चिमनी के प्रकाश में नर्मदाप्रसाद जी को देखते हुए कहा.

 

उनके ललाट की शिराएँ खिंच गई. वे तर्क न करते थे और यों अपनी बात कहते जैसे वह व्यक्ति कहता है जिसे पता होता है कि वह झूठ कह रहा है इसलिए अतिरिक्त विश्वास से बात करता है, “क्या तुम्हें इतना तक नहीं पता कि फ़िरंगी बारिस्टर के गाउन का सिरा जदुनाथ महाराज के शुद्ध शरीर से छू जाने पर वे भरी अदालत में फ़िरंगी बारिस्टर बिगड़ पड़े थे और बारिस्टर ने उनसे रार ठान ली. फ़िरंगी जज क्या किसी हिंदू के पक्ष में नतीजा सुनाते!” नर्मदादत्त जी का गौरवर्ण भावावेश के कारण रक्तिम हो गया था और अंगुलियाँ काँप रही थी.

 

“और क्या आपको यह नहीं पता कि गौड़सारस्वत ब्राह्मण और शुद्ध अचार-विचारवाले डॉक्टर भाऊ दाजी लाड ने उनके ख़िलाफ़ अदालत में गवाही दी थी और कहा था कि जदुनाथजी की सिफ़लिस का उपचार उन्होंने किया है” मुझे भी आवेश आ गया था और मैं कहता गया, सत्य में एक अग्नि होती है जिसे कहते कहनेवाले की जिह्वा जले न जले सुननेवाले के कान अवश्य जल जाते है.

 

“सिफ़लिस क्या होती है” कुमुद ने निर्दोष भाव से पूछा. माँ भी प्रश्नसूचक भाव से देख रही थी. मैं लज्जा से भर उठा. नर्मदादत्त जी ने तब उदारता का परिचय देते हुए बताया कि सिफ़लिस एक प्रकार का रोग है जो चरित्रहीन होने पर हो जाता है. कुमुद संकोचवश चाय के कप उठाकर मोरी की तरफ़ जाती बनी. नर्मदादत्त ने अब पुनः मुझे सम्बोधित किया, “यह तुम्हारा केवल मत है, गोवर्धनचन्द्र. सत्य है मैं कैसे मान लूँ?”

 

बहस बढ़ती देख माँ ने कहा कि रात बहुत हो चुकी है और अब सो जाना चाहिए. मैंने चिमनी उठाई और नर्मदादत्त जी को कुमुद के कमरे में ले जाने लगा. कुमुद रसोई में छुपी बैठी थी. यह वयस्क होने के पश्चात् उसकी पति के संग प्रथमरात्रि थी. नर्मदादत्त जी को जैसे इसे लेकर विशेष उत्सुकता नहीं थी या वे इसे अप्रकट रखना चाहते थे. कुर्ता उतारते हुए उन्होंने मुझे पुनः बहस में घसीटने के उद्देश्य से कहा, “तुमने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया, गोवर्धन चन्द्र. अपने मत को सत्य मानने का यह कैसा दुराग्रह है तुम्हारा जो हिंदू धर्म को अपमानित होते देख सकता है पर अपना दुराग्रह नहीं त्याग सकता”.

 

जब तक कि वे कपड़े बदले चिमनी लेकर वहाँ खड़े रहना मेरी विवशता थी और उत्तर दिए बिना निस्तार भी न था, “आप मेरी बनेवी है, मेरे पूज्य है इसलिए विनयसहित मैं इतना ही आपसे कहना चाहता हूँ कि भाऊ दाजी लाड का यह कहना कि उन्होंने जदुनाथ महाराज की सिफ़लिस का उपचार किया था, उसका कचहरी के कागदों में दर्ज होना और मेरा यहाँ उसके बारे में आपको कहना यह तथ्य है या तथ्यात्मक सत्य. तथ्य को मत कहने से तथ्य न मत सिद्ध होता है न असत्य. जो घट चुका वह बदला तो नहीं जा सकता इसलिए वह उसी प्रकार दर्ज होगा जैसे घटा था”.

 

“और न हो तो?” नर्मदादत्त जी ने कहा हालाँकि अब उनका स्वर कोमल पड़ गया था, “हो सकता है यह हिंदूधर्म को नष्ट करने का षड्यंत्र हो”.

 

“नष्ट होने के भय से जो धर्म ग्रस्त होते है प्रायः वे नष्ट हो चुके होते है. जिस इमारत का थोड़े से सुधार और मरम्मत से गिरने का जोखम हो उस इमारत को छोड़ ही देना चाहिए” मैंने कहा किन्तु नर्मदादत्त जी पूरा वाक्य सुन नहीं पाए थे. माँ कुमुद को लेकर द्वार पर खड़ी थी और कुमुद को भीतर धकेल रही थी. धर्म को लेकर आधी रात को कठोर वाणी में विवाद करनेवाला पुरुष, मैंने देखा, अपनी नववधू को देखकर संकोच से भर उठा था.

 

दूसरे दिन बक्सा-पेटी, पोटलियाँ और बर्तन बाँध दिए गए थे और कुमुद के जाने का समय हो गया था. माँ रो रही थी पिताजी ने कहा, “एक ही शहर में रहेगी. जब चाहे नर्मदादत्त लेकर आते रहेंगे”. कुमुद की आँखों से टपाटप अश्रु गिर रहे थे. अंजनरचित नेत्रों के कारण कपोल काले पड़ गए थे और शृंगार अस्तव्यस्त हो गया था. नर्मदादत्त और पिताजी फटाफट सीढ़ियाँ उतर गए और माँ द्वार पर खड़ी रही. सन्ध्या हो चुकी थी और सीढ़ियों पर अन्धकार था. कुमुद का स्वर ऐसा सुनाई दे रहा था जैसे बहुत दूर से आ रहा हो, “मुझसे स्नेह करना कभी न छोड़ना, गोवर्धन. मेरे घर आएगा न भोजन करने. जब जी चाहे आ जाना”. जहाँ पर हृदय बताया जाता है उस स्थान पर मुझे अनुभव हुआ कोई पाषाण रखा हुआ है. कुछ देर पूर्व मेरे विवाह की बात चली थी, मैं बड़ा हो गया था और एक पुरुष को रोना शोभा नहीं देता ऐसा सोचकर मैं मौन रहा. घोड़ागाड़ी पर लालटेन जल रही थी. अन्धकार से उतरकर जब वह आँख में पड़ी तो हमारी आँखें चौंधिया गई. आलोक और तिमिर के खेलों को यदि संसार कहा जाता है तो जीवन निश्चय ही तीव्र प्रकाश से होनेवाला क्षणिक अंधापन है. 

 

(४)

डेविड ससून वाचनालय में एक दिन बारिस्टर गाँधी मिल गए. तब तक मैंने निर्णय कर लिया था कि मैं महाविद्यालय में इतिहास पढ़ूँगा. नर्मदादत्त जी से उस रात्रि हुई बहस से मेरे सुव्यवस्थित विचार अक्रम हो गए थे. अतीत में जो घट चुका है उसके अनेक विवरण हमें प्राप्त होते है और यदि सभी वर्णन स्व की छाया में लिखे गए है तब क्या सत्य हमें कभी प्राप्त नहीं हो सकता और क्या घटना का केवल वर्णन ही व्यक्तिनिष्ठ होता है उसका साक्षात्कार नहीं? हम देखते भी वही है जो देखना चाहते है या कम से कम यह चाह हमारे देखने को सीमित तो करती ही है.

 

हिन्दूजाति को घृणित यहाँ तक कि नपुंसक कहनेवाले जेम्स मिल का तीनों खण्डों में प्रकाशित ग्रंथ The History of British India का प्रथम भाग मुझे पुस्तकालय से प्राप्त हो गया था दूसरे दो भाग मैं मेज़ में पलटकर देख रहा था. नाटककार बनने के लिए अपनी जाति के अतीत को जानना ज़रूरी है यह मुझे ग्रीक त्रासदियाँ पढ़कर पता लग चुका था. अब प्रश्न था उसे जानना जो सच में घटित हुआ था न कि उन घटनाओं के स्वार्थवश गढ़े गए वर्णनों को पढ़ना. “सच कहीं पर है मगर हम उसे नहीं जान सकते इसका दुःख अपने बाप के मरने के मातम से कहीं डरावना कहीं ज़्यादा होता है” मैंने बारिस्टर गाँधी से कहा. उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया और देर तक मुझे मौन देखते रहे. मैंने ही बात आगे बढ़ाई, इसमें हिंदूजाति को गंदी, धोखेबाज, झूठी और क्या क्या नहीं कहा गया है. हिंदुओं को हिजड़ा तक कह दिया है जेम्स मिल ने”. 

 

“क्या तुम्हें नहीं लगता हिजड़ा भी राम का बनाया जीव है और वही इज्जत उसका हक है जितना आदमी को इज्जत का हक है. तब कोई हिजड़ा समझे तो हतक क्यों मानना” बारिस्टर ने कहा.

 

“प्रश्न हिजड़ा होने का नहीं. बेइज्जती जो हम है उसकी अनदेखी करके हमें कुछ और कहने का है. बेइज्जती इसमें है कि कोई हमें वह न माने जो हम खुद को मानते है” कहते कहते बात मुझपर भी खुली कि हम उसी भाँति जाने जाना चाहते जैसे हम समझते है कि हम है तो क्या हमारा स्वयं के विषय में ज्ञान भी सत्य नहीं. उसपर भी हमारे अहंकार की छाया पड़ती है. मुझे लगा बारिस्टर ने मेरी बात नहीं समझी, मैं इतना दुखी इतना विकल था कि मुझे अपनी भाषा अपूर्ण लग रही थी. मुझे लग रहा था कि जो मैं अनुभव कर रहा हूँ वह व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ.

 

आगामेम्नॉन (Agamemnon) त्रासदी में वचन है, To be born is to be heir to grief, शोक जन्म से हमें मिल जाता है जन्म से मिली आँखों की तरह. तब तो बारिस्टर मेरे शोक को समझ सकते थे. आते जाते उन्हें मैं पुस्तकें पढ़ते देखता था. घर में नौकर के होते भांडे धोते, पोंछा मारते देखता था. उनके जीवन में मुझे भले अध्यात्म न दिखता था किन्तु मशीनों से, नवीन संसाधनों से, सुखों के त्याग से वे जीने की नई तरतीब तो गढ़ रहे थे. कुमुद को जब मैंने बताया था कि महाराज के होते वे भांडे स्वयं धोते है और महाराज को नौकरी पर रखते हुए उन्होंने भांडे धोने का जो वचन दिया था वे आजतक निभा रहे है तब कुमुद हँसी थी और उसने कहा था कि वे सनकी है. अधिक शिक्षा दीक्षा और विदेश यात्रा के कारण उनकी बुद्धि अपने स्थान से सरक गई है. साथ में यह भी कहा था कि युवावस्था में पत्नीवियोग के कारण भी सम्भवतया उनकी यह अवस्था हुई हो.

 

मैं कुमुद की बात पर उस समय तो हँसा था क्योंकि मैं उसके साथ हँसने का अवसर नहीं छोड़ना चाहता था, कभी छोड़ता नहीं था; वह मेरे जीवन के सबसे सुन्दर क्षण होते थे किन्तु मैं उसकी बात से सहमत नहीं हो सका था और आज तक हो नहीं सका. बारिस्टर खोजी थे और हो सकता है कि वे जीवनभर खोजते रहे और उन्हें कुछ न मिले किन्तु खोज नाम्नी इस क्रिया को पाना कुछ और मिलने से कहीं बढ़कर और कहीं महान होगा.

 

“यदि हम खुद को हमेशा दूसरे की नजर से देखेंगे-जानेंगे तो उसके ग़ुलाम हो जाएँगे और फिर इस बात की जरूरत ही क्या रहेगी कि हम खुद के बारे में क्या सोचते है” बारिस्टर ने कहा. हमारी अनेक पूर्व भेंटों में यह प्रथम थी जब वे घड़ी निकालकर नहीं देख रहे थे न कहीं जाने की जल्दी में थे. उन्हें समय नष्ट होने का जो भय सदैव लगा रहता था वह उस दिन न था.

 

“गुलाम होने का जोखम उठाकर भी हमें खुद को दूसरे की नजर से देखना ही चाहिए वरना हम अपने दसों तरफ खुद का जेलखाना बनाकर उसमें बंद हो जाएँगे” मैं अपना वाक्य पूर्ण कर भी न पाया था कि बारिस्टर अधीर होकर खड़े हो गए और कहने लगे, “जल्दी से यह किताबें अपने खानों में रखकर आ जाओ. तुम्हारे सवालों के जवाब कवि की दुकान पर जाकर ढूँढेंगे”. मैं तुरतफुरत वह भारी ग्रन्थ उनके स्थान पर रख आया. मैं जान गया था कि हम झवेरी बाजार में रायचंदजी की पेढ़ी पर जाएँगे.

 

प्याऊ पर हम दोनों ने जीभर जल पिया. मैंने मूड़ी और मूँगफली की एक पूँगी बँधवा ली और हम दोनों चल पड़े. “तुम भी बेइज्जती से उतना ही डरते हो जितना मैं; ऐसा लगता है. बेइज्जती के बारे में बहुत सोचता रहता हूँ कि वह आखीर है क्या? दूसरे की नजर से खुद को देखना बेइज्जती की वजह बनता है. हम अपनी नजर से खुद को देखे परखे तो कोई हमारी बेइज्जती कैसे कर सकता है!” बारिस्टर बहुत तेज चलते थे और उनके कदम से कदम मिलाकर चलूँ भी और उनकी बात भी समझ लूँ यह मेरे लिए सम्भव न था.

 

किसी मनुष्य से और मनुष्य से ही क्यों बल्कि किसी भी प्राणी के साथ एक समय और देश में विद्यमान होना मात्र इसका आनन्द ही जीवन का आनन्द कहा जा सकता है जैसे मैं १८९१ के दिसम्बर में दिनांक २७ को सायंकाल बारिस्टर गाँधी के साथ कवि रायचंद से मिलने झवेरी बाजार जा रहा था. आकाश में अनामधन्य पक्षियों का एक झुण्ड समुद्र से मछलियाँ खाकर बॉम्बे में गूलरों और पार्श्वपिप्पल के वृक्षों पर बने अपने नीड़ों को लौट रहा था. कौव्वें दुकान के आगे लगी टपरियों पर बैठे आंगन्तुकों को अपनी ग्रीवाएँ मटका मटकाकर जब तब निहार लेते थे. दूर पारसियों के दख़मे से अपने विशाल पंख फैलाए आकाश को अन्धकार से भरते गिद्ध उड़ रहे थे.

 

बिल्लियाँ हवा में गुलाटियाँ खाकर भूमि पर सीधी और आत्मविश्वास से उतरकर कसाइयों की गली में गुम हो जाती थी. कहीं कोई बिलार संसार से अनभिज्ञ अपनी प्रेयसी के ध्यान में लीन कबूतर का झपट्टा मारकर शिकार कर रहा था तो कहीं जामुन के वृक्ष पर तोतों की भीड़ लगी थी. एक इमारत की छत पर, जिसके नीचे अंग्रेजों के नाई ससून अण्ड संस सलून है, बंदर किसी मारवाड़ी गृहिणी के सुखाए आलू के पापड़ चट कर रहे थे. इस असंख्य जीवों और आठ लाख बीस हजार जनों के बीच बारिस्टर के संग विद्यमान होने का अनुभव ही उस समय मेरे जीवन का अर्थ था. इस सायंकाल तक, बम्बई के डेविड ससून वाचनालय तक और उस मेज़ तक आने में जहाँ से बारिस्टर मुझे देख सकते हो, मैंने कितने लम्बी यात्राएँ की थी.

 

इस सायंकाल की अनन्त पुनरावृत्ति होती रहेंगी. मेरी माँ मेरे लिए हमारी रसोई में कच्चे केलों की मेरी प्रिय सब्ज़ी बना रही होगी, पिताजी मुंबई गुजरात  नाटक मण्डली के नूतन नाट्यप्रबंध का टिकट बेचते होंगे. कुमुद नर्मदादत्त जी के लिए चायपत्ती उबाल रही होगी. अवश्य ही उसने नर्मदादत्त जी को चाय के नशे का आदी बना दिया होगा ताकि स्वयं मजे में जब जी चाहे चाय पी सके. बारिस्टर गाँधी के रसोइया महाराज ने दोपहरभर जमकर मोरूबाई को बापरा होगा और अब थककर सो रहा होगा और अपने पुंश्चली होने की ग्लानि के कारण मोरूबाई उस दिन की भाँति आज भी रो रही होगी.

 

बारिस्टर की जो डाक मैंने चुराई थी वह मेरे बिस्तर के नीचे छिपी होगी, जिसमें शाकाहार के गुणों को बखानते पत्र और पुस्तिकाएँ है. माँ ने जो दोपहर में अपनी साड़ी, मेरी और पिताजी की श्वेत धोतियाँ और कुर्तें धोकर छज्जे पर सुखाए होंगे वे इसी झंझा में उड़ते हुए सूख रहे होंगे और उनपर जाती हुई ज्योति की अरुणरेखें काँपती होंगी. पीपों में हमारा महीनेभर का आटा, कोठी में वर्षभर का गेहूँ भरा होगा. थोड़ी सी ज्वार और बाजरा होगा और सप्ताहभर का तेल और चावल. मटके में जल होगा जिसे माँ ने पुनः किनोरों तक भर दिया होगा. दूसरे मटके में नमक की डलियाँ होंगी. काँच की बरनी में गुड़ की भेलियां भरी होंगी जैसे इस ईरानी दुकान की बरनियों में बिस्कुट, लेमनचूस और शक्कर-नमक चढ़ी इमलियाँ और आँवले भरे हुए है. यहाँ झाड़ू बाहर पड़ी हुई है किन्तु हमारे घर पर मेरी माँ ने झाड़ू गहने की तरह सहेजकर, छुपाकर रखी होगी.

 

दो हाथों में छह छह दोनों पर जलपान सम्भाले यह छोकरा भी इस समय इस संसार में है जिस समय में मैं हूँ. अंग्रेज अफ़सर, ऊँचे हिंदुस्तानी साहब, उनके कारकुन और अर्दली सब अपने अपने दफ़्तरों से निकल रहे है. दिनभर अंदर अंधेरों में रहने के कारण आँखें मिचमिचाते वे चारों ओर देखते है और उनकी पुतलियाँ बारिस्टर गाँधी और मुझपर से गुजरती समुद्र तक जाती है और फिर अपनी घोड़ागाड़ी ढूँढने लगती है. अदालत से अपने बंगलों और चालों को  जज, मुंसिफ, सरिश्तेदार, वकील, हिमायती, बारिस्टर, सॉलिसिटर, वादी-फरियादी, क्लर्क और चपरासी लौट रहे है. दर्जी किसी मोटे शेठ का नाप ले रहा है तो उसका नौसिखिया असिस्टेंट एक पर्ची पर नाप के आँकड़े लिखता जाता है. बारिस्टर अपने विचार में पूर्णतः लीन चले जा रहे है. उनकी पतलून का निचला भाग उनके झटके से पाँव उठाने के कारण फड़फड़ाता है.

 

 

आतश बहराम में चन्दन जलने की गन्ध जो बीच हवा में झाड़ियों पर पके हुए बेर की भाँति लटकी हुई है इसका अस्तित्त्व मुझे उसी दिन प्रथम बार उतनी ही तीव्रता से अनुभव हुआ जितनी तीव्रता से मैं स्वयं को अनुभव करता हूँ. यह गन्ध तो अपरोक्ष है जबकि मैं तो स्वयं के लिए सदैव परोक्ष रहा आया हूँ और रहूँगा. इतने मनुष्य, जीव, वस्तुएँ और घटनाओं के बीच स्वयं को पा लेना इतना अद्भुत था और उस सायंकाल तो मेरे साथ बारिस्टर गाँधी भी थे. मुझे पता था यह मेरा संसार है क्योंकि मेरे साथ ही इसने जन्म लिया है और मेरे साथ ही यह खो जाएगा. मैं इसके बिना और यह मेरे बिना असत् है. कवि रायचंद की पेढ़ी पर पहुँचने से पूर्व ही मैं वह समझ चुका था जिसपर विचार करने हम वहाँ जा रहे थे और ऐसा अनुभव होता था कि बारिस्टर भी इसे समझ गए है.

 

पहुँचते पहुँचते सूर्यास्त हो गया था. पेढ़ी समेटी जा रही थी. गल्ला और माल कवि रायचंद जी के साथ जा चुका था और बहियाँ और खातों का मिलान भी हो चुका था. गादियाँ लपेटकर रख दी थी. श्रीगणेश और लक्ष्मी के चित्र के आगे सन्दीप रखा हुआ था. “पहुँचने में अबेर हुई. कवि घर को निकल गए” बारिस्टर गाँधी ने मुझसे कहा. वे उस स्थान को देख रहे थे जहाँ रायचंदजी बैठते थे; वहाँ पर गावतकिए और गादी मोड़कर रखी हुई थी. “बखत की पाबन्दी मैं हमेशा रखता हूँ आज मन की सुनकर चला आया”.

 

“रायचंदबाबू कहते है मन से हमेशा उल्टा चलना चाहिए” एक मुनीम ने कहा, बूढ़ा था, सफेद बाल, कान का ऊपरी भाग कटा हुआ था और उसके ऊपर कलम खोंसे था. सफेद धोती, सफेद कुर्ता और उसपर काली बंडी पहने वह जाने की तैयारी में था. “मेरे पड़ौसी है गोवर्द्धनचन्द्र दवे, नागर ब्राह्मण है. इन्हें कवि से मिलाने लाया था. सच सबके अपने अपने है या एक सच है इसपर बहस चल पड़ी थी” बारिस्टर ने कहा, “तुम्हें मुनीम जी के पाँव छूना चाहिए. नागर ब्राह्मण  है”. मैंने मुनीम मेहता के चरणस्पर्श किए. वे संस्कृत में आशीष वचन कहने लगे.

 

“मुझे तुम मोटोभाई कहकर पुकारा करो. बारिस्टर अदालती शब्द है” बारिस्टर गाँधी ने लौटते हुए मुझसे कहा. “मोटोभाई” मैंने दोहराया. हम दोनों हँसे. समुद्री पवन शीतल था जैसे दूसरी ओर से आता हो. बम्बई में ऐसा तापमान दुर्लभ है. सत्य पर हमारा विवाद अपूर्ण रह गया था और उसके बाद ऐसा दिन आया भी नहीं कि यह बात पुनः होती. दूसरे विषयों ने पकड़ लिया. मुझसे बारिस्टर गाँधी ने पूछा, “क्या पढ़ाई करने का मंसूबा है?”

 

“इतिहास” मैंने उत्तर दिया. “वह क्यों?” बारिस्टर ने फौरन पूछा. “मैं नाटककार बनना चाहता हूँ” मैंने उत्तर दिया किन्तु बारिस्टर मौन रहे. ऐसा लगा नाटककार बनने के विषय में उनके अच्छे विचार न थे या इसके बारे में उन्होंने कभी कुछ सोचा न था. बात बीच में रुक गई सो मैंने उसे बढ़ाने के लिए कहा, “ब्रितानिया जाकर पढ़ने की न मेरी हैसियत है न कूवत”. “बारिस्टरी में बहुत माथापच्ची है. ईमान रखकर बारिस्टरी करना टेढ़ी खीर है” इतना कहकर वे पुनः मौन हो गए. जिस गली में हम चल रहे थे वह भी नीरव पड़ी थी. आते समय जो कोलाहल और अगणित जनों का आवागमन था वह अब न था हालाँकि रात बहुत न हुई थी. घोड़ागाड़ियाँ, साइकिलें फर्र से हमारे निकट से निकल जाती थी. घरों से दीपकों और गैसलाइटों का क्षीण आलोक सड़क तक आ रहा था. बीच बीच में म्यूनिसिपैलिटी के लैम्पपोस्ट के आसपास पढ़ाकू विद्यार्थियों और उपन्यास के नए बने प्रेमियों का जमघट लगा था जिनके बीच कंधों पर जैसे अख़बार के पंख लगाए कुछ प्रौढ़ बीत चुके दिवस के समाचार पढ़ रहे थे.

 

बारिस्टर को घर पहुँचने की जल्दी न थी वे चलते ही तेज थे. उनके भांडे माँजने की शारीरिकता, उनका अपने कपड़े खुद धोने की, पैदल चलने की, रसोइया होने के बाद भी कई बार रांधने में जिस शारीरिकता के मैंने दर्शन किए थे उसके कारण मैं उनकी आत्मा का परिचय पा सका था. इतवार के दिन जब वे अपनी हजामत का बक्सा लेकर खिड़की पर बैठ अपनी मूँछें कतरते थे या कोयले का खर्चा बचाने के लिए पतलून इस्तिरी न करके धोकर उसे सीधा लटकाकर सुखाते थे तब ऐसा लगता था जैसे उनका शरीर पारदर्शी हो गया है और उनके शुद्ध हृदय का मुझे दर्शन हो रहा हो. उनके पारदर्शी शरीर में उनका हृदय भी पारदर्शी दिखता था जिसमें उठते-खोते विचार और भावनाएँ इतनी स्पष्ट दिखाई देती थी जैसे वह हृदय न होकर कोई पत्र हो जो मेरे बड़े भाई ने केवल मुझे लिखा था. हमारी भेंटें बहुत कम होती थी और न ही हम दोनों में कोई घनिष्ठता ही थी और हो सकता है उनके सुविचारों की मैं मात्र कल्पना कर रहा था. सम्भव है कि वे मेरे विचारों के विपरीत हो, कचहरी में असत्यभाषण करते हो, पैसों के लिए अपराधियों को जेलखाने से बचाते हो और दलालियाँ पेशगी देते हो या दार्शनिक स्तर पर उनके विचार अस्पष्ट हो, वे सचमुच में कुमुद के कहे अनुसार सनकी हो. यह सब सम्भव था किन्तु मेरी युवावस्था के आरम्भ में वे ही ऐसे व्यक्ति थे जिनका अस्तित्त्व मेरे आदर्शों की कल्पना का वहन कर सकता था या वहीं मेरी कल्पना अपना पूर्ण विकास पाती थी.

 

हमारे घर की इमारत के निकट पहुँचते ही उन्हें अपनी रसोई के ऊँचे, आड़े रोशनदान से धुआँ निकलता हुआ दिखाई दिया. उन्होंने चम्पक के वृक्ष तक पहुँचते पहुँचते घूरे के ऊपर से छलांग लगाई और ज़ीने की ओर दौड़े, “गोवर्द्धन चन्द्र, फिर मिलेंगे” यों कहकर उनका दायाँ पाँव ज़ीने की दूसरी सीढ़ी पर पड़ा. बाएँ पाँव का जूता ढीला था वह खुलकर हवा में उछला और बारिस्टर असंतुलित हो गए. उनके हाथ से छाता छिटककर खुल गया और पीछे की ओर आकाश में तैरने लगा. वे खुद भी पीछे की ओर गिरने लगे. टोपी उड़ गई और उनकी स्वर्णघड़ी जेब से निकलकर लड़ी से बँधी उनके मुँह की ओर उठी. घुमावदार लकड़ी के ज़ीने की रेलिंग उनकी पकड़ में न आ सकी और वे कुर्सी के निकट गिर गए. मैं उनकी ओर दौड़ा.

 

जब तक मैं पहुँचा वे खड़े हो गए थे. मैंने उनकी टोपी से धूल झटककर उन्हें दी और उनका छाता उठाने लगा. बारिस्टर हाँफ रहे थे. उन्होंने कहा, “तुम जल्दी से ऊपर जाओ और महाराज से कहो मैं पौरिज खाऊँगा. मेरे पैर में दुख है मुझे चढ़ने में देर होगी तब तक वह मेरे लिए कहीं रोटी न बना दें”. मैं ऊपर भागा. मैंने पौरिज कभी खाया नहीं था. उसके बारे में अंग्रेज़ी पुस्तकों में पढ़ा अवश्य था और उसके बारे में मेरा केवल इतना अनुमान था कि वह दलिए की भाँति स्वादहीन पदार्थ है जो अनाथालयों और अस्पतालों में खिलाया जाता था और बारिस्टर गाँधी के रसोइया महाराज को उससे घृणा थी.

 

महाराज आसन बिछाकर तुलसीमाला पर कोई जप कर रहा था. सिगड़ी पर दाल उबल रही थी. महाराज के निकट एक दीपक और सिगड़ी के निकट तेल की चिमनी जल रही थी. मेरे घुसते ही कमरे से एक बिल्ली पतीली से मुँह उठाकर दूधभरी मूँछें लिए भागी. “महाराज, महाराज” मैंने आवाज लगाई. महाराज ने फौरन आँखें खोलकर मुझे देखा, “क्या हुआ साहब? इस बखत यहाँ?”

 

“बारिस्टर ने कहा है कि उनके लिए रोटी मत बनाना वे पौरिज खाएँगे” मैंने महाराज ने कहा. महाराज ने पुनः आँखें मूँद ली, “रोटी तो बन चुकी. दाल और लौकी की सब्ज़ी भी”. इतने में बारिस्टर भी आ गए, “मैंने तुमसे अदालत जाने से पहले ही कह दिया था कि मैं आज पौरिज खाऊँगा”. महाराज फौरन खड़ा हो गया और सिगड़ी की तरफ़ दौड़ा, “ध्यान नहीं रहा, साहब”. बारिस्टर गाँधी की त्यौरियाँ नासिका के ठीक ऊपर सिमट आई, “खाने को लेकर मैं कुछ प्रयोग कर रहा हूँ मगर तुम रोज़ घी चुपड़कर दर्जनभर रोटियाँ, घी से भरी दाल-भाजी बनाकर रख देते हो”.

 

“हमारे देस में यह भोजन बापदादा के जमाने से खाते आ रहे है. यही हमारी मिट्टी में होता है. आटे की लपसी रोज रोज खाइएगा तो बदन में धातु कैसे बनेगी! बुढ़ा जाओगे बारिस्टर साहब. मगज और बदन में जोर रहे इसलिए घी जरूरी है. घी तो अमृत है अमृत” महाराज ने सिगड़ी से दाल उतारते हुए कहा. बारिस्टर जूते पहनकर अंदर आ गए थे इसलिए बाहर अपने जूते रखकर आए और कमरे के अगले भाग में पोंछा लगाने लगे. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं रूकूँ या जाऊँ और यदि जाऊँ तो बारिस्टर गाँधी से विदा कैसे लूँ. वे क्रोध में फ़र्श रगड़ रहे थे. फिर नीचे से बाल्टी भरकर लाए और हाथ पैर धोने लगे.

 

“आप दोनों की थाली लगा दूँ या पौरिज बनाएँगे?” महाराज ने पूछा. पतलून उतारकर धोती बाँधते हुए बारिस्टर ने कहा, “हम दोनों पौरिज ही खाएँगे. रोटी जो बन गई है मैं कल खा लूँगा. खाना घूरे पर जाए यह मुझे स्वीकार नहीं न मेरे कारण तुम बासी रोटी खाओ यह स्वीकार है. तुम खा लो, मैं गोवर्धन और अपने लिए पौरिज बना लूँगा”. धोती पहने हुए बारिस्टर को देखने का यह पहला अनुभव था. माँ ने घर पर मेरे लिए भोजन बनाया होगा फिर भी मैं पौरिज खाने में कैसा होता है यह जानने के लिए रुका रहा.

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अम्बर पाण्डेय
कवि-कथाकार
‘कोलाहल की कविताएं’ के लिए २०१८ का अमर उजाला थाप’ सम्मान. 
ammberpandey@gmail.com


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  1. बहुत शानदार कहानी। कथ्य और शिल्प दोनों में। सारगर्भित।

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  2. उम्दा कहानी,
    सुबह के पूरे तीस मिनिट .....ज़ेहन पर लम्बे समय तक यह इमारत और उसकी तरतीब तारी रहेगी।
    परकाया प्रवेश का विशुद्ध उदाहरण है यह कहानी।
    कथानक,भाषा,
    सम्प्रेषण,प्रवाह और बनक के तो क्या ही कहने!

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  3. Ammber Pandey जी की कहानी पढ़ना आपको उस युग में ले जाता है। तत्कालीन बम्बई में रह रहे गुजराती समाज और आधुनिकता व परंपरा की अन्त: क्रियाओं का बखूबी चित्रण हुआ है इस कहानी में। गान्धीजी के भोजन सम्बंधी fads या प्रयोगों, उनके मन में उठते रहे संदेह आदि को कहानी में अच्छे से संजोया है। अम्बर की मनुष्य के मनोभावों पर गहरी पकड़ है। इसको गोवर्धन और कुमुद के कोमल मन में उठते भावों और 'पुंश्चली' की ग्लानि में देखा जा सकता है। कहानी का सबसे सशक्त पक्ष है चरित्र चित्रण। हालांकि भाषा को भी वे बिल्कुल समसामयिक और विश्वसनीय बना देते हैं।

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  4. अपर्णा अनेकवर्ण7 अक्टू॰ 2020, 10:51:00 am

    शुक्रिया इस कहानी के लिए, समालोचन और अम्बर पांडेय दोनों का ही। बहुत दिनों बाद हिंदी में कहानी पढ़ी और आनंद अा गया।

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  5. अगर कहानी से अंबर का नाम हटा भी दिया जाता तो आसानी से पहचान पाता कि यह अंबर ने लिखा है। इनकी कविताओं से बहुत पुराना परिचय है और हम इनके घोर प्रशंसक है। अपने लेखन में किए गए इनके प्रयोग हमें चमत्कृत करते हैं । हम उन प्रयोगों को इनकी शरारतों की संज्ञा देते हैं । ऐसे खाटी कवियों को देखते हुए ही हमने कथा की राह पकड़ी थी लेकिन इधर देख रहा हूं कहानी में जिस तरह से यह अवतरित हुए हैं अद्भुत है । इस कहानी में जो प्रयोग हुआ है वह अंबर जैसा प्रतिभाशाली साहित्यकार ही कर सकता है । कविता हो या कहानी अंबर लकीर के फकीर नहीं है इन्हें चाहिए नई नदी , नया पाट, नई नाव । गांधी तक अपने पात्र के साथ-साथ जिस तरह उन्होंने अपने पाठक को पहुंचाया है उसे कभी भुलाया नहीं जा पाएगा । आपके परिचय में लिखा ही कवि कथाकार तो कविराज तीन साल कथा से निपट ले हम कथाकार कवि लिख लेंगे। आपके इस नए अविष्कार के लिए पुनः बधाईकविराज।

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  6. प्याऊ पर हम दोनों ने जीभर जल पिया मैंने मूड़ी और मूँगफली की एक पूँगी बँधवा ली और हम दोनों चल पड़े, “तुम भी बेइज्जती से उतना ही डरते हो जितना मैं, ऐसा लगता है.... बेइज्ज़ती के बारे में बहुत सोचता रहता हूँ कि वह आखिर है क्या? दूसरे की नज़र से खुद को देखना बेइज्ज़ती की वजह बनता है... हम अपनी नज़र से खुद को देखे परखे तो कोई हमारी बेइज्जती कैसे कर सकता है!” बारिस्टर बहुत तेज चलते थे और उनके कदम से कदम मिलाकर चलूँ भी और उनकी बात भी समझ लूँ यह मेरे लिए सम्भव न था....
    वाह
    पढ़ लिया एक ही बार में
    छूट गया सब काम
    अरूण सर और समालोचन को ख़ूब ख़ूब धन्यवाद
    दिन सफल हुआ

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  7. संदीप नाईक7 अक्टू॰ 2020, 3:24:00 pm

    ◆◆◆
    एक अतितजीविता का बोध तुम्हारे भीतर बढ़ते जा रहा है, मुम्बई, कलकत्ता, इंदौर या कोई नाशिक जैसा प्राचीन शहर जो तुम्हारे भीतर धड़कता है बेताबी से - प्राचीन वैभव, राजे रजवाड़े, संस्कृति, सभ्यता, गलियां, इतिहास, हिंदी - मराठी युग्म के शब्द, अँधेरे में रोमांच, आधी - अधूरी तमन्नाएं, निर्वासित जीवन के दोषयुक्त गलियारों में घूमते और पौराणिक वेद, पुराणों एवं ऋचाओं में धर्म आख्यानों की व्याख्याएं खोजते, आज के समय में समकालीन साहित्य राजनीति और आज़ादी के आंदोलनों में सावरकर, गांधी, नेहरू से लेकर छोटे मोटे बनिये, व्यापारी और खोमचा लगाने वाले रेहड़ी पर रोज काम करने वाले,हिजड़ो, वेश्याओं और मुजरा करती बाइयों के अनगढ़ किस्से - इन सब चरित्रों पर तुम्हारी पकड़ तो है, भाषाई बाज़ीगरी और आवेश और भावावेश में सन्न से आघात करते या झेल जाने का भी माद्दा है तुममें पर इस सबसे कहना क्या चाहते हो वह अभी समझ नही आ रहा
    मैं इन चारों कहानियों के पहले सन 1998 - 99 ,की कविताओं से और कालांतर में विवादित और आग उगलती द्रोपदी सिंघाड़, तोताबाला की कविताओं, पेड़ों से लेकर प्रेम, वासना, गूदा / गुदा और अन्य कविताओं के बरक्स देखता हूँ और भाषा, सौन्दर्य का विकास, कहन, कथन की शैली और धीरे से किस्सागोई में तब्दील होते जा रहे कवि को समझने का यत्किंचित प्रयास कर रहा हूँ
    एक बेचैनी बहुत स्पष्ट नज़र आती है, जो निश्चित ही स्वाभाविक है - इस समय जब पूरी दुनिया में सांस लेना लगभग नामुमकिन और असम्भव होता जा रहा है, मौत का तांडव चहूँ ओर व्याप्त है, आज़ादी, अभिव्यक्ति और अभिनय के बीच जिंदगी का चौथा कोण हर कोई खोज रहा है - वहाँ अतीत में जाकर उन परिस्थितियों की परिकल्पना करना, उनमें जीना, रिश्तों की सुवास और उन भंगिमाओं को शब्दों के माध्यम से वृहद कैनवास रचते हुए ' परसौनीफाई 'करना निश्चित ही कौशल और दक्षता तो है पर यह तडफ़ कही ले नही जा रही - खासकरके कहानियों में जो चमत्कारिक वितान है - वह एक सांस में लंबे समय तक कहानी को साथ लेकर तो चलता है , पर एक बंद गली के अंधेरे कोने में कहानी पाठक को हौले से छोड़ देती है और वो असहाय सा होकर मुक्ति के लिए तड़फता है, पाठक उस कोने से जब उजास की ओर लौट रहा होता है तो बेबस है और उसे लगता है कि वह किसी सर्कस या मदारी के खेल से खाली हाथ लौट रहा है सब कुछ लुटाकर - वह मदहोश है और कुछ भी कहने बोलने या समझने की स्थिति में नही है
    सम्भवतः अपनी कमजोर समझ से यह मैं उस पार देख नही पा रहा , पर एक धुन्ध तो है जो सब कुछ झीना कर रही है, अवसाद और संताप बढ़ा रही है
    लिखना नही चाहता था पर पूछना जरूर चाहूँगा बकौल मुक्तिबोध कि " अम्बर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है "

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  8. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 08.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  9. दयाशंकर शरण7 अक्टू॰ 2020, 6:01:00 pm

    किसी मिथकीय चरित्र पर लिखना किसी भी लेखक के लिए कठिन भी होता है और जोखिम भरा भी । जोखिम भरा इसलिए कि उस चरित्र की पैठ लोक-चेतना में इतनी गहरी होती है कि जरा-सा विचलन भी कई अप्रिय विवादों को जन्म दे सकता है । और वह भी तब जबकि कथा नायक स्वयं 'गाँधी' हों। इसके लिए बहुत-हीं सधे और सिद्धहस्त हाथों के अलावा एक दृष्टि-संपन्न आलोचनात्मक विवेक और इतिहास दृष्टि का होना भी जरूरी है,जो कथा में बखूबी दीखता है । यह संतोष की बात है । गाँधी के जीवन के एक विशेष काल-खण्ड को ,जब उनका व्यक्तित्व-निर्माण एक अलग हीं साँचे में ढल रहा था, देखना और महसूसना दिलचस्प है । लेखक को बधाई !

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  10. आशुतोष दुबे8 अक्टू॰ 2020, 7:30:00 am


    यह एक प्रदीर्घ कथावितान है। जैसे किसी उपन्यास का अंश। इसके आगे और पीछे भी बहुत कुछ है जो यहाँ नहीं है और यहाँ से जुड़ने की प्रतीक्षा में है। अम्बर के दृश्यविधान बहुत आकर्षक होते हैं। जैसे मैंने इस आख्यान को सीपिया में 'देखा'। यह कहानी गाँधी के पीछे जाते गोवर्द्धन के पीछे पीछे खुद चलने लगती है। यह शिफ्टिंग जिसमें गाँधी अपनी दमित वासना से पीड़ित हैं और किशोर गोवर्द्धन कुमुद के प्रति अपनी अप्रकट और अपरिभाषित आसक्ति से और रसोइया महाराज अपनी प्रकट केलियों में, बताती है कि कथा का कैनवास कितना व्यापक है। बल्कि मैं कहूँ कि कथा यहाँ वस्तु नहीं है वस्तुओं का समवाय है जिसकी यहाँ सिर्फ़ एक झलक भर है। हिन्दी कहानी और उपन्यास अब महत्वाकांक्षी हो रहे हैं और उन्हें उन्हीं बिसूरते कथासूत्रों की अपर्याप्तता और बासीपन का तीखा बोध है जो अब भी अनेक अल्पजीवी कहानियों का प्रसन्न और आत्मतुष्ट उपजीव्य बने हुए हैं। अम्बर ने अनेक ऐतिहासिक चरित्रों को अपने कथाजगत में 'सामान्य' मनुष्य की असामान्यताओं के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है जिस पर समग्रतः पढ़ कर ही कुछ कहा जा सकेगा मगर यह रास्ता बिल्कुल नया है, और इस पर चलना गहरे अध्ययन, अंतर्दृष्टि और अभूतपूर्व कौशल की मांग करता है।

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  11. मैंने दम साधे इस कहानी को पढ़ा और निःशब्द हूँ।
    संदीप की टिप्पणी भी।
    पाठक को कहीं ले जाने का दायित्व लेखक का नहीं होता।
    अम्बर की भाषा खड़ी बोली की तमाम सीमाओं को फांदते हुए केवल भाषाई कौंध और विद्युत सरीखी सनसनी भी दे जाए तो भी क्या कम है?
    पहली दो कहानियों की जो सीमाएँ साफ़ नज़र आती थीं वे भाप की तरह उड़ जा रही हैं। वे कहानियां इतनी ambitious थीं कि उनका डगमगा जाना स्वाभाविक था। अम्बर तक लदे हुए माल असबाब से जैसे कोई वाहन। लेकिन उनमें भी ग़ज़ब की तराश पैदा हो सकती है। यह कहानी पिछली कहानी के शिल्प से भी अधिक तराशी गई है।
    तोताबाला की अनंत यात्राएँ हमें भी कहाँ कहाँ लिए जाती हैं, इसकी क्या खोज और क्या ख़बर!
    अम्बर, तुम तो बस लिखते ही रहना: शेष खेल तमाशे उसी की लिए रचे जाएँ।

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  12. शिव किशोर तिवारी8 अक्टू॰ 2020, 7:34:00 am

    Tewari Shiv Kishore
    कथा-कौशल, विवरण की विश्वसनीयता, ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं के विषय में सम्यक् शोध, व्यक्तियों और समूहों की प्रवृत्तियों के लिए व्यंजक रूपकों का चुनाव आदि अनेक आकर्षक गुण इस कहानी में प्रकट हुए हैं । कहानी के अंत में गांधी का गोवर्धन से पूछे बिना यह मान लेना कि वह उनके विचित्र भोजन को ग्रहण करने को तैयार होगा और गोवर्धन का सचमुच कौतूहल-वश इस साहसिक कर्म के लिए तत्पर हो जाना भी व्यंजक और किंचित् 'आयराॅनिक' है। यह असंशय बाद के हठी महात्मा की पहचान ही बन गया।
    बहुत तरह से आतंकित करने वाली कहानी है - भाषा, शैली, विषयवस्तु पर अधिकार, नवीनता, प्रयोगधर्मिता सब अव्वल है। फिर भी पूछना पड़ रहा है - मुद्दआ क्या है? कथानक आवश्यक नहीं है, एक कोई निश्चित कथ्य भी आवश्यक नहीं है पर कहानी क्यों लिखी गई है यह पता चलना चाहिए। यह कहानी लिखने की जरूरत क्यों पैदा हुई? एक 17 साल का लड़का नाटककार बनना चाहता है। उसे लगता है कि जाति के इतिहास को समझना नाटक लिखने के लिए आवश्यक है। उसे हिन्दुओं को हेय बताने वाली अंग्रेज़ी में लिखी किताब मिलती है। एक अदालती मामला भी उसकी जानकारी में है जिसमें एक समादरणीय पुष्टिमार्गी सन्त को सिफलिस ग्रस्त पाया जाता है। गोवर्धन उस युग के (कदाचित् इस युग के भी) पढ़े-लिखे हिन्दू युवा का प्रतिनिधि है जिसे अपने धर्म और समाज में सब कुछ कदर्य मालूम होता है, परंतु जो कुछ ऐसा पाना चाहता है जिसको लेकर वह अपनी जाति पर गर्व कर सके। जब वह कवि रायचंद को पहली बार देखता है तब पहचान नहीं पाता। रायचंद के बारे में उसे कुछ मालूम भी नहीं है, यद्यपि उनकी असाधारणता का बोध उसे होता है। रायचंद को कहानी में लाने से कहानी में कोई अन्तर नहीं पड़ता । रायचंद से रहस्यमय ढंग से प्रभावित होने के बावजूद गोवर्धन गांधी से उनके बारे में कुछ नहीं पूछता। यह कहानी में एक मोड़ हो सकता था पर लेखक ने उसे जाने दिया है। गोवर्धन गांधी के
    साथ अपना अंतर्द्वंद्व साझा करता है परंतु कोई समाधान नहीं मिलता।
    फिर?
    फिर कुछ नहीं । कहानी की समस्या अधर में लटकी रह जाती है और हम केवल इतिहास-रस पीकर संतोष करते है।

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  13. 1.)...अतीत का इतना सटीक चित्रण आसान नहीं होता,पर अम्बर हमेशा की तरह यहाँ भी खरे उतरते हैं। इंग्लैंड से बेरिस्टर होकर आए युवा गांधी मुंबई में वकालत के लिए अपनी जमीन तलाश रहे हैं,उस समय यानी आज से 150 साल के आसपास का समय ,उस समय का मुंबई का जनजीवन,खास कर के लोहे के जाली वाले रवेश वाली चोल में रहते गुजराती परिवारों का जीवन,रत्नों के गुजराती व्योपारी, पारसियों की गुजराती नाटक कंपनियां, स्त्रियों की स्थिति आदि आदि...छोटी से छोटी डिटेल्स में भी लेखक कहीं भी कमजोर नहीं दिखते।
    पर यह तभी ही संभव हो पाता है जब लेखक एक साथ बहुतेरी भाषाओं से और भाषा संस्कृति से सरोकार रखते हो। निश्चित ही लेखक ने यह लिखने के लिए उस समय के गुजराती समाज ( मुंबई में रहने वाले) के बारे में सघन अध्यन और अनुसंधान किया ही है। कुछ गुजराती पुस्तकों का अभ्यास भी किया ही होगा। जो यह कथा में बहुत पकड़ के साथ प्रस्तुत हुआ है।
    मुझ जैसे गुजराती साहित्य से जुड़े व्यक्ति तुरंत ही ध्यान देगा कि अम्बर का यह कथानक गुजराती के मूर्धन्य उपन्यास कार श्री गोवर्धनराम त्रिपाठी जी के विख्यात उपन्यास "सरस्वती चंद्र" जिस के ऊपर से फ़िल्म भी बनी थी ,शैली कथाशिल्प के संदर्भ में बिल्कुल उनके पासंग में बैठता है। (देखिए चरित्रों के नाम कुमुद,राय चंद,गोवर्धन चंद्र आदि...)
    2.)...एक बात ओर दिख रही है लेखक को कहीं न कही पटकथा लेखन का अनुभव या प्रसिखसन जरूर है। तभी सारे चरित्रों का चित्रण इतना सशक्त है।
    3.)...कथा में तीन पुरुष अपनी उम्र के अलग अलग पड़ाव पर अपने "काम" संबंधित प्रश्नों से रूबरू है एक किशोरवस्था की उत्सुकता लिए हुवे, रसोईया महाराज अपनी पिपासा शांत करने रास्ता निकलता हुवा और गांधी महाशय अपने प्रश्नों के साथ अपनी पत्नी के बारे में इस संबंधित उत्तर पाने की कोशिश में...पर गांधी "बेहोशी" में नहीं है सतर्क है तो नूतन सीखते हैं और जीवन में लाने की कोशिश करते रहते है। इसलिए ही तो ...कथा का शीर्षक कितना सही है..."कास्ट आयरन की इमारत"..... मोहन से महात्मा की घड़त ऐसे ही हुई....जिस कुछ प्रसंगों का चित्रण अम्बर ने किया है लाजवाब है..मैं तो कहूँगी अक्षर मातृका शक्ति लेखक पर बहुत महेरबान है।
    4.)...स्वछता-शुद्धता,धर्म,सत्य,तथ्य,मंतव्य,संयम इन सारे शब्दों का मूल्य और समझ पर लेखक की पकड़ पूरे कथानक मैं गाढ़े अक्षर में दिख रही है लेखक चरित्रों के मुख से अभी के समाज को भी संदेश देने में सफल रहे हैं।
    5.)...चलते चलते कहना चाहूँगी की यह कथा वैसे भी कोई उपन्यास का खंड लग ही रही है तो यह हमें उपन्यास के रूप में भी पढ़ने को मिले....अम्बर भाई एक पाठक की अपेक्षा बढ़ गयी है !!!! अम्बर भाई अपनी यही शैली रखना,ईसे अपनी हस्ताक्षर शैली बना लो तो अच्छा रहेगा।

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  14. बहुत सुंदर बहुत आकर्षक !

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  15. यह कुछ भी हो सकता है। उपन्यास अंश, इतिहास लेखन, मेमॉयर या कहानी। पर ग़ज़ब है और आपको बाँधती है। गोवरद्धन जिस क्षण अपने आप को पाता है, वही कहानी का अंत है एक तरह से। यह असल में अपने को पाने की ज़द्दोज़ेहद दर्शाती कहानी है। उस क्षण को कहानीकार ने बेहतर ढंग से चित्रित किया है। और गांधी के ठोकर खा कर लुढ़कने का वर्णन तो लाजवाब है। सचमुच गांधी के चरित्र को लेकर आत्मखोज विषय पर कहानी लिखने का विचार ही लेखक की क्षमता बताता है। आत्मखोज । यही तो गांधी ने किया पूरी ज़िंदगी। लेख को बाधाई।

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  16. आज पढ़ी। आंतरिक और बाह्य जगत की यात्राओं और उनके बीच की आवाजाही को एक ऑथेंटिक टाइम और स्पेस में विश्वसनीय ढंग से रखा गया है। एक किशोर के नाटककार बनने की तैयारी का स्लाइस ! स्वाद तो है मगर स्लाइस की अपूर्णता भी मुखर। कहीं यह कोई अंश तो नहीं?

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