हिन्दी में प्रेम
– कवितायें कम हैं, ब्रेक-अप पर तो नहीं के बराबर. युवा कवयित्री
बाबुषा कोहली की लंबी कविता ‘ब्रेक-अप’
इस कमी को पूरा तो करती ही है, हिन्दी कविता की बदलती संवेदना
और उसकी सबलता को भी रेखांकित करती है. प्रेम में होने का नशा और प्रेम से हट जाने
की विवशता का समकालीन दृश्य-बंध गहरी अनुभूति लिए हुए है. बाबुषा इस कविता के लिय याद रहेंगी.
लोग-बाग आपसे पूछगें
कि क्या आपने यह कविता पढ़ी ?
लंबी कविता : बाबुषा
कोहली
ब्रेक अप
1.
वो मिला था जब
उसके मन पर एक ज़िद्दी ताला पड़ा था
मेरा बचपन इतना एकरस कि उसमें आम तक चुराने की कोई घटना
नहीं दर्ज
भला किसी तालाबंद भवन में क्या सेंध लगाती
सो यहाँ - वहाँ नज़रें फेर
लेती
एक दिन वो मेरा हाथ अपने सीने तक ले गया
और दाएँ हाथ की उँगली से ताला खोल दिया
मेरे मन पर भी रही होगी कोई साँकल शायद
उसने खट खट की और बस !
एक उँगली की ठेल से मन खुल गया
हम दोनों के भीतर कोई तिलिस्मी झरना था
पेड़ों पर इन्द्रधनुष उगता
चिड़िया आँखें बंद किए गाती थी अरदास
सोहनी मटके पे ताल देती
सुबहें थीं कि हँसी हीर की
रात-रात भर चाँद नदी में तैराक़ी करता
हम हर जगह पहुँच जाना चाहते कि जैसे तीरथ पर निकले हों
छूट न जाएँ कोई देव
इष्ट रूठ न जाएँ
हर मंदिर का पंचामृत चखना चाहते
हर गुरद्वारे पर मथ्था टेकना चाहते
पर हाय री ! सड़कें भूलभुलैया
हम दूर से देख सकते थे पानी पर प्यासे रह जाते
हमारे मन के भीतर तन छुपे थे और तन के भीतर और मन
कितने तो तन थे और कितने मन
कितने तो ताले कितने डाके
कितनी तो दौड़ कितने इनाम
कितना लालच
कैसी अँधे कुएँ-सी झोली
हम प्याज़ की परतों जैसे थे
अपने ही झार से आँखें सुजाए बैठे
हम बहुत चले और बहुत चले और बहुत चले
फिर एक दिन अपने-अपने मन की ओर लौट गए
बची हुयी नौ उँगलियों के साथ जीने को
सारा जादू बंद दरवाज़े में है
ताला खुल जाए तो चाबी खो जाती है
2.
जैसे पंखे की ब्लेड काटती है अदृश्य को
अदृश्य के लहू में स्नान कर छूटता है देह का पसीना
ज़िन्दगी के और भी सब सुकून ठीक ऐसे ही भीगे हुए हैं अदृश्य
के लहू में
सुस्ताने के लिए नहीं टिकी थी उसके पहले से ही झुके कंधों
पर
सुकून ढूँढती थी मगर हथेलियों में गुम जाती थी
लकीरों के जंगल में फँसी हुयी 'एलिस' थी
उसकी हमसफ़र थी पर मैं दर-ब-दर थी
सही बात है कि पहुँचने के लिए चलते रहना चाहिए
पाँव में छाले पड़ जाएँ पर चलते रहना चाहिए
स्वप्न घायल हो तब भी चलते रहना चाहिए
मुख्य सड़कों के साथ लहू की पगडंडियाँ बन जाएँ तब भी चलते
रहना चाहिए
कि इतनी दूर तो नहीं होती कोई भी जगह
जहाँ से लौट के आने की गुंजाइश न बचे
मैं चलने से न थकी न डरी कभी
वो तो आस्तीन के छींटे हैं कि पाँव बाँध देते हैं
3.
आज एक सुनी-सुनाई कथा कहूँगी
एक पेड़ के पास से एक बच्चा गुज़रा
धूप से हलाकान था वो, पेड़ ने छाँव दी. अब उस रास्ते से गुज़रते हुए अक्सर वो पेड़
के पास आने लगा. पेड़ ने चिड़ियों की चहक दी, मीठे फल दिए. कुछ और बड़ा हुआ तो एक लड़की के प्रेम में पड़
गया. पेड़ ने अपने सारे फूल उतार कर लड़के
को दिए कि वो लड़की की चोटी के लिए वेणी गूँथ ले. कुछ समय बाद लड़की उसकी पत्नी हो
गयी. रोज़गार नहीं था. फिर पेड़ के पास गया.
अब की बार पेड़ ने लकड़ियाँ दे दीं. लकड़ियाँ बाज़ार में बेचने का काम शुरू हुआ
और जीवन चल पड़ा.
नीति कथाओं की मानें तो देने वाला और घना हो जाता है,
और बड़ा हो जाता है. मगर सत्य कथाएँ कुछ और ही
कहती हैं. दुनिया देख ली है बहुत, और सचमुच ! देने वाला आख़िर में ठूँठ रह जाता है.
इतना दिया है इस पेड़ ने कि इससे कविता निचोड़ना पाप-सा लगता
है. इस पर कुछ भी कहना ऐसा जैसे आख़िरी बार
कुल्हाड़ी चला कर इसे नष्ट कर देना.
'फ़ीनिक्स' सरीखे होते हैं
कुछ दुःख
जिस आग में झुलसते हैं उसी से फिर पैदा हो जाते
कुल्हाड़ियों से भी कहाँ मिलती है मुक्ति
जंगल-जंगल प्रेत-सी भटकती हुयी कोई बात
कुछ नहीं नष्ट होता पूरा कभी कि आख़िर में ठूँठ बचा रह जाता
है
पता है खूब मुझे कि इच्छा का ग़ुलाम होना क्या होता है
और ये भी कि हर ग़ुलाम सलामी बजाने नहीं झुकता
कितनी तरह से झुक जाते हैं लोग
होता है कोई जो लालसाओं के बोझ से झुक जाता है
कोई झुक जाता है वक़्त की बेरहम मार के आगे
कोई बेवजह ही झुकने की अदाकारी करता
नाटक पूरा होता और पर्दा झुक जाता
कभी हो जाता है साथ-साथ ही
मंच पर पर्दे का झुकना और आँख के पर्दे का उठना
बड़े ख़ूबसूरत होते हैं आत्मा से झुके हुए लोग
फलों से लदी डाली का झुकना पेड़ की नमाज़ है
झुकी नज़रों के सामने झुक जाते हैं आसमान सातों
भार से झुकना और आभार में झुकना
कि झुकने-झुकने में बड़ा फ़र्क है, पियारे !
कितना भी फेंट लो
ज़िन्दगी को इस उम्मीद में
कि अब कि बार मन-माफ़िक पत्ते आएँगे
कोई तो चाल अपने हक़ में होगी
पर क्या कहें ?
बाज़ियाँ ऐसी भी देखीं जिसमें सारे खिलाड़ी हार जाते हैं
मैं एक बेबस बूढ़े आदमी को पहचानती हूँ
उसका क़िस्सा भी क्या कहना कि वो तो पहले से ही ग़ुलाम था
बहुत आसान था बेग़म की तरह उस पर हुक्म चलाना
पर ये संतानहीन औरतें भी कहाँ-कहाँ औलाद खोज लेती हैं
बूढ़े आदमियों में छुपे चौदह साल के लड़के बहुत तेज़ छलाँग
लगाते हैं
इस डाली से उस डाली तक कूदते -फाँदते उम्र को देते पटखनी
औरत फूल सी खिलती, फलों सी उग जाती है
इच्छा के ग़ुलाम को मिल ही जाती बादशाहत
अपने साम्राज्य के झंडे झुका देती है एक औरत
झुकना, अपने आप में बात
है पूरी
ठीक वैसे ही जैसे किसी बच्चे का खिलखिलाना
और एक पूरी सदी की
प्रार्थना का सफल हो जाना
पूरी बातें बड़ी आसानी से पूरी हो जाती हैं
बिना किसी दाँव-पेंच के
बिना किसी बहस के
खेल के सारे नियम तोड़ कर राज करता है ग़ुलाम
हुकुम के चारों इक्कों पर
वो इच्छा का ग़ुलाम था
औरत उसकी इच्छा पूरी करने की इच्छा की ग़ुलाम
कहते हैं कर्ण ने तो आख़िर में दिए थे
मगर ये जो ममता
होती है न !
सबसे पहले कुंडल-कवच दे कर निहत्थी हो जाती है
और पेड़ आख़िर में ठूँठ बचा रह जाता है
4.
उसकी कमीज़ से प्रेम करती रही मैं
पसीने की तरह उसकी देह से फूटती रही
बूँद-बूँद माथे पर टपकती रही ऐसे जैसे उसकी गाढ़ी मेहनत की
कमाई हूँ
उसके नाखूनों को काटते वक़्त ख़ुद ही काटती रही अपनी बिरहिन
रातों के तर्क
उस गली से तक प्रेम करती रही जहाँ से कभी गुज़रना पड़ा हो उसे
बारिश या ट्रैफ़िक की मजबूरी में भी
उसकी मजबूरियों को कलेजे से चिपकाए फिरती रही
चिलचिलाती धूप में चलती रही मैं सूर्य से प्रेम करती रही
उसके नाम के हर पर्यायवाची से प्रेम करती रही
उस औरत से प्रेम करती रही जो सोने के पहले उसे चादर ओढ़ा
देती है
वक़्त पर उसे दवाइयाँ
देने वाली उस औरत के हाथों से प्रेम करती रही
मैं उस बच्ची से प्रेम करती रही जिसकी मुस्कराहट उसे ज़िंदा
रखती
उन तमाम औरतों से प्रेम करती रही जिनका नाम उसके क़िस्से में आया एक बार भी
उस वक़्त से प्रेम करती रही जब चौदह साल के लड़के ने नवीं
जमात की लड़की को लिखी पहली चिठ्ठी
मैं कुछ ज़रूरी तारीख़ों से प्रेम करती रही
फिर एक दिन मैं भी वही हो गयी
बह चुका पसीना
कटा हुआ नाखून
मजबूरी में ली गयी सड़क
खुराक़ पूरी हो चुकी दवा
नवीं जमात में रुक गयी लड़की
बीती हुयी तारीख़
छूटा हुआ वक़्त
उस औरत के गले मिल कर रोना चाहती हूँ एक बार
जो बहुत पढ़ गयी पर नवीं जमात से आगे न बढ़ पायी अब तक
हम सब जो उसकी पूर्व-प्रेमिकाएँ हैं, हम एक सामूहिक विलाप हैं
हम, अपने प्रेम के
दाह-संस्कार में आई रुदालियाँ हैं
और मैं उसके प्रेम का अंतिम शोक-संदेश हूँ
इस सारे रूदन के बीच कहीं एक किलकारी है
मैं सुन सकती हूँ
उसके कानों में रुई ठुँसी है
मैं उसके अजन्मे बच्चों से प्रेम करती रही
5.
उसने कहा कि खुद को मेरे हवाले कर दो
मैंने खुद को उसके हवाले कर दिया
मैं उसके हवाले रही वो हवलदार हो गया
अजीब सज़ा है
बिना किसी गुनाह के हाथों में हथकड़ियाँ पड़ गयीं
ज़िन्दगी की जमानत ली गयी
और फिर सड़कों पर छोड़ दिया गया
मैं जो उसके हवाले रही
'हवा ले' रही हूँ बाहर की
बड़ी ख़राब हवा बहती है इन दिनों
सब कुछ बहा ले जाती है
बाबा भारती ने कहा था कि मत कहना किसी से
वर्ना कोई किसी का भरोसा न करेगा
सो न कहूँगी कुछ
हवा ले रही हूँ बहुरूपिये ज़माने की
हरे रंग से निर्वासित हूँ
बरगद से झरा सूखा पत्ता हूँ
कहाँ उड़ जाऊँ पता नहीं
हवा का रुख पता नहीं
फिर से इन बंजारन हवाओं के हवाले हूँ
6.
वो लम्बी दूरी का यात्री है
हर स्टेशन पर उतर जाता, ठहर लेता है कुछ देर
फिर चल देता है
इतने लम्बे सफ़र की कुछ ख़बर मुझे भी है
वक़्त उसे अपनी अहमियत बताना चाहता और वो वक़्त को इतनी फ़ालतू
की चीज़ समझता कि 'टाइमपास' करने लगता
वक़्त बेरहम ने उसे लोहे के चने पेश किये
मगर वक़्त को मुँह चिढ़ाने के लिए उसने मूँगफलियाँ खाईं और
हवा में छिल्के उड़ाए
कितनी बार बेस्वाद चाय चखी, छोड़ी
कितने कुल्हड़ फोड़े
टिकट चेकर पूछता है , " कहाँ ?"
" कहीं भी " उसकी आँखें कहतीं
क़ीमत देता है वो चलने की
क़ीमत लेता है साथ चलने की
कुछ शहर उसका नाम पुकारते हैं और अपने भीतर बुला लेते हैं
मनमौजी सा चला जाता है
इन मुसाफ़िरों के कोई घर नहीं होते
सरायों में उम्र काट देते हैं
गुज़र जाते हैं एक बार जिन सरायों को छोड़कर
पलट कर नहीं देखते फिर कभी
किसी-किसी सराय में एक रात की रौनक ही इतनी तेज़ होती है
कि उम्र भर भी कोई घर इतनी रौशनी नहीं उगल सकता
घर कब सराय हो जाते हैं
सराय कब घर, पता भी नहीं चलता
और एक वो ! कि कहीं
नहीं ठहरता
छूट चुके स्टेशन भी कभी मुड़ कर नहीं देखता
वो वक़्त जो गुज़र गया जाने कहाँ गया है
वो वक़्त जो आया नहीं जाने कहाँ रुका हुआ है
मेरी पसलियों में जो जमा है कौन सा वक़्त है
दिल धक् धक् में नहीं टिक टिक में धड़कता है
किसके सम्मोहन के भय से भागा है वो
किसकी प्रीत के तप में जल कर भागा है वो
किसको खोजता है वो स्टेशन-दर-स्टेशन
किससे बचता है वो जीवन-दर-जीवन
क्यों वो चला जाना चाहता है 'कहीं भी'
क्यों नहीं ठहर पाता कहीं भी
पूछना मत कोई, उन बेबस आँखों को पढ़ना
बस ! उन हब्शी इशारों को पढ़ना
वो आदमी जिस ट्रेन में सवार है, क्या वो 'लेट' होती है कभी
चौदह से पचास की उम्र तक में पड़े उसके सफ़र के हर स्टेशन पर
मैं खड़ी हूँ
तेज़ दौड़ती घड़ियों को चुनौती हूँ
उस भागते हुए आदमी का मैं एक बेशरम इंतज़ार हूँ
7.
भीड़ भरी सड़क पर बड़े दीवानेपन से एक दिन उसने मेरा नाम
पुकारा. मैं भागती हुयी उसके पास तक गयी
और उस पर बेतहाशा चिल्लाने लगी. "तुम एकदम पागल हो क्या ? ऐसे मेरा नाम चिल्लाने का मतलब? सब क्या सोचेंगे?" उसने मुझे अपने
सीने में भींच लिया. "दुनियादारी की बड़ी फिकर तुम्हें ?"
दुनियादारी !
उस के सीने से हटी और उल्टे पाँव से दुनिया को जो 'किक' मारी तो दुनिया सीधे गोल -पोस्ट के बाहर. उसका नाम उठाया मैंने हाथों में,
उस पर जमी धूल झाड़ी और सजाया. उसे अपनी दुनिया
का अर्थ बताया. मुझ पर लाड़ जताते हुए उसने मेरी दुनिया में कदम रखा और प्रतिज्ञा
की कि इस जन्म तो क्या किसी जन्म में भी इस दुनिया से बाहर नहीं हो सकता. मेरी
दुनिया उसके नाम से जगमगाने लगी. मगर उस दिन जब तेज़ बुखार की हालत में मैं उसका नाम बुदबुदा रही थी बहुत धीमे -धीमे,
उसके घर की खिड़कियों के शीशे चटक गए. उसने चीख
कर कहा " तुम पागल हो गयी हो क्या ?
इस तरह मेरा नाम लेने का मतलब ? घर की खिड़कियाँ !"
घर ? दिल क्या टूटता,
साहब ? इतने दिनों बाद उल्टे पाँव की हड्डी टूट गयी.
न मैंने आम तोड़े बचपन में, न खिलौने तोड़े, न जवानी में ताले तोड़े न ही कभी क़समें- वादे ही, मगर मेरे इर्द- गिर्द टूट- फूट का समृद्ध इतिहास है. माना कि आप साबुत, सही-सलामत, शरीफ़ लोग दुनिया
चलाते हैं, मगर ये हम टूटे -फूटे लोग
ही हैं, जो दुनिया बचाते हैं. हमें सुनिए कि हम मोज़ार्ट की धुनों में
खनकते हैं, हमें सूंघ लीजिए कि हम
गुस्ताव के 'द लास्ट किस' में महकते हैं,
हम में भीग जाइये कि हम वांग कार वाई के जादुई
पर्दे पर बरसते हैं. हम इज़ा के नृत्य में पनाह पाते हैं, मजाज़ के शराब के
प्याले में डूबते-उतराते हैं, हुसैन की कूँची
में आकार पाते है, अमृता की स्याही
में घुल जाते हैं.
छतरियाँ ? हम छतों को उड़ा
चुके बारिश में टूट कर भीगे हुए लोग, हम टूटे स्वप्न के टुकड़ों को आँखों में सहेजे हुए लोग, हम टूट कर प्यार करने वाले और बिखर जाने वाले लोग, सनम की टूटी क़समों को खीसों में भरे बेवजह खीसे
निपोरते लोग, हम नियम तोड़ कर
सड़क के दाहिनी ओर चलने वाले लोग, हम बाँध के टूटने
से नदी में बह कर मारे गए लोग !
हमें टूटी खिड़कियों का भय कोई दिखाता है तो हँसी आती है.
हम टूटी हुयी गुरियों को सहेजने वाले लोग हैं. हम टूटे-फूटे
लोग साँस टूटने से नहीं डरते. किसी बच्चे की आँख का मोती टूटने से डरते हैं,
साहब !
8.
"बरसात में रग्बी खेली है कभी? खेल कर देखना."
"उंहू. मुझे नहीं खेलना."
नीली -नीली नींद में वो मेरी रग्बी ले कर भागता है. मैं
उसके पीछे-पीछे..
पेड़-पहाड़, दरख़्त, नदियाँ, चट्टानें सब के सब खेल में शामिल. वो चकमेबाज़ मुझे पर्वतों
की नोक पर गिरा देता है. "मुझे नहीं खेलना. पीठ पर घाव हो गया. ऊँचाइयों की
नोक चुभती है. नहीं..नहीं. मुझे नहीं चाहिए."
वो मेरे चेहरे पर मिट्टी लपेट देता है. मुझसे लिपट जाता है.
"ले ! रख ले अपनी रग्बी. ये रग्बी तेरी और तू
मेरी, और तू मेरी, और तू मेरी ! "
सब बरसात के खेल हैं. नीला-नीला मौसम गुज़र जाता है.
जैसे बचपन में किसी ने उसका बैट-बॉल छीन लिया हो
तब से आज तक वो हर चीज़ से खेल रहा है
उल्टी हवा से खेल रहा है आग से खेल रहा है
छोटे से छोटे खेल से पूरा कर लेता है बड़े से बड़ा बदला
बड़ी से बड़ी बात को भी किसी खेल से बड़ा नहीं मानता
खेल सा जीता है जीवन वो खेल खेल में मर जाता है
चौसर बिछा लेता है बड़ी बहर की पक्की चालें चलता है
नाज़ुक ग़ज़लों से खेल लेता है
दाँव पर लगा देता है बेंदी-टीका
कान की बाली को कौड़ी कर देता है
अच्छी लगती हैं उसे डब डब सी आँखें
काँच सी आँखों से वो कंचे खेलता है
छुप जाता है कभी कभी उलझी लटों के पीछे
पतंग बना कर आसमान में खूब उड़ाता है ख़्वाबों को
कितना खेला छुपनछुपायी, पकड़मपकड़ी
सही निशाने तीरंदाज़ी
जज़्बातों की कन्ना- दूड़ी कितना खेला
कभी छुपाया, कभी उछाला बेबस
मन को गेंद समझकर कितना खेला
दिल गिल्ली पर क्रोधी डंडा कितना खेला
छाती पर उंगली रख कर चिड़िया उड़ और तोता उड़ जी भर कर खेला
फिर एक दिन सारे खेल खत्म हो ही जाते हैं
खेल खेल में पंछी उड़ कर बहुत दूर निकल जाते हैं
9.
कहते हैं हर कथा का नायक वही होता है जिसने कथा लिखी
मेरे एकतरफ़ा बयानों को कोई न सुने
प्रेम तो आँखों में पट्टी बाँधे हुए था
इस लिहाज़ से प्रेम को न्यायप्रिय होना चाहिए
क्या दलील दूँ उसकी ओर से कि क़यामत के दिन उसे माफ़ किया जाए
ये तथ्य है कि मुकदमा उसके ख़िलाफ़ है
ये न्याय है कि उसकी वक़ालत मैं करूँ
उसने प्यार किया था
चाहे पल भर को ही सही
क़त्ल मेरा आख़िर उसका ही तो हक़ था
मी लॉर्ड ! मेरे
हत्यारे को दोषमुक्त किया जाए
क्या इतना काफ़ी नहीं कि उसके पास भी तो एक दिल हुआ करता था
दिल, जिसे डॉक्टर मशीन
से पढ़ता है
आड़ी -टेढ़ी लकीरों में पढ़ता है
मैं ठहरी अनपढ़-गँवार !
दिल से दिल पढ़ बैठी
मैं दिल को डूबती-तेज़ होती धड़कनों में पढ़ बैठी
मैं ग़लत पढ़ बैठी, मी लॉर्ड !
उसे दोषमुक्त किया जाए
हमारे हक़ में इतना तो हो कि इस मुकदमे को यहीं छोड़ दिया जाए
तीन बार तलाक़ के उच्चारण से कहीं ज़्यादा कट्टर है उसकी
चुप्पी
इतना ही कट्टर प्रेम उसका
ऐसी ही कट्टर घृणा उसकी
इतना ही कट्टर चुम्बन
इतनी ही कट्टर विरक्ति
ऐसी ही कट्टर मुक्ति
सलीब पर टंगी है उसकी मुक्ति कीलों से बिंधी हुयी
सहते- सहते कब्र में ढह जाएगा मगर खुद के बचाव में कभी
मुँह न खोलेगा
ये कमज़ोर लोग इतने कट्टर क्यों हो जाते हैं, मी लॉर्ड !
मैं इस मतलबी संसार में उसकी इकलौती वक़ील हूँ
उसका कोई बयान मैं आपको सुनवा नहीं सकती
उसकी चुप्पी उसके हक़ में सबसे बड़ी दलील है
उसकी बेबस चुप्पी सुनिए, मी लॉर्ड !
पूरी बातें बड़ी आसानी से पूरी हो जाती हैं
बिना किसी दाँव-पेंच के
बिना किसी बहस के
अधूरी बातों के मुकदमे चल जाते हैं
पक्के मकानों के भीतर ढहते कच्चे घरों पर मुकदमे चल जाते
हैं
इस क़िस्से को आधा छोड़ दीजिए
हमें अधूरा छोड़ दीजिए
और कुछ नहीं तो, हमें कोई और तारीख़ दे दीजिए, जनाब !
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बाबुषा की कुछ कवितायें यहाँ भी
http://samalochan.blogspot.in/2014/02/blog-post_10.html
बाबुषा की कुछ कवितायें यहाँ भी
http://samalochan.blogspot.in/2014/02/blog-post_10.html
बाबुषा कोहली
6 फरवरी, 1979, कटनी
पत्र पत्रिकाओं में गद्य-पद्य प्रकाशित
सम्प्रति : अध्यापन,जबलपुर, मध्यप्रदेश
baabusha@gmail.com
baabusha@gmail.com
amazing poem by babusha !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी. 'ब्रेक-अप' शब्द में जो तुच्छताएं और मलिनताएं अमूमन मिलती हैं, बाबुषा उसे एक अपूर्वानुमेय उदात्तता दे पायी हैं.
जवाब देंहटाएंबेहद खूबसूरत कविताएँ...सरल भाषा...आज पहली बार पढ़ी बाबूषा जी की कविताएँ...अब लिंक क्लिक कर रही हूँ उनकी और कविताएँ पढ़ने के लिए...निहितार्थ आप खुद ही समझ लें...शुक्रिया अरुण जी ...:)
जवाब देंहटाएंबाबुषा दुर्लभ संवेदना की कवयित्री है. उसकी प्रेम कवितायेँ आहों, आंसुओं और मुस्कानों का संगम हैं जो कभी हम सब के अनुभव का हिस्सा रही हैं. कई बार सलाह दी कुछ और सोचो या किताब छपवा डालो. पर वो सपनों में चलती और लिखती रहती है. प्रैक्टिकल साहित्यिक परिदृश्य में उसकी उपस्थिति कभी हर्षित तो कभी विचलित करती है.
जवाब देंहटाएंबाबुषा की कविताएँ मनुष्य की एनाटॉमी की कविताएँ हैं -दिल को जैसा होना चाहिए वह वैसा, दिमाग को दिल के साथ जितना होना चाहिए वह भी उतना, रक्त प्रवाह एक चाप पर अपनी गति लेता हुआ, एक उम्र की तरह बढती बाबू की कविताएँ कि उनमें बचपन से यौवन और यौवन से बुढ़ापे की सारी ध्वनियाँ हैं - बाबुषा को मैं इसलिए और ज्यादा जानती हूँ कि उनमें मानवीय उपस्थिति मेरे छूटे हिस्सों को लौटाती है -जैसे मेरी ममता लौट आई मुझ तक, जैसे प्रेम लौट आया मुझ तक, जैसे मेरी रुग्ण करुणा निरोगी हुई -यह ताकत है बाबू की . स्नेह और स्नेह बाबू को .
जवाब देंहटाएं(आंशिक रूप से संशोधित टिप्पणी - )
जवाब देंहटाएंबाबुषा की कविताएं हर बार विस्मित करती रही हैं, पर यह तो सच में विलक्षण और बेहद असरकारी कविता है - एक निर्बंध बारमासी झरने की तरह बहती इस कविता में प्रेम, समर्पण, पीड़ा, त्रास, परिहास, विस्मय, विरक्ति और इन सबसे अलग एक अटूट अन्तर्धारा की तरह बहता प्रेम, जो अपने आप में पुष्ट और परिपूर्ण होने का अपूर्व अहसास देता हुआ - जाने कितना कुछ अनकहा बयान कर देती है ये कविता। बाबूषा को इस बेजोड़ कविता के लिए सलाम।
मन की जमीं पर नंगे पैर टहलाती कविताएँ-कहीं दूब भरी नम जमीं तो कहीं फूलों की वादियाँ। काँटों की चुभन और उदासी की दलदल ने भी घेरा पर एकात्म सुख मिला पढ़ने में। थैंक्यू बाबूषा।
जवाब देंहटाएंबढ़िया लिखा .. रम गया पढ़ते पढ़ते .. बाबुषा को औघड़ कहता हूँ मैं .. अलग प्रकार की नदी है उनके अन्दर .. विस्मित हमेशा एक सही शब्द होता है उनकी कविता के लिए .. गाली गलौज भी अच्छा कर लेती है (व्यक्तिगत अनुभव मेरा) .. बाबुषा अपनी वसीयत कविता को फाड़ के फेंक दे क्योंकि उसपर दाग है और खुद को रीपीट करना बंद कर दें (देह में डूबने उतराने वाला हजार दोहराव) तो युवा कविता उपलब्धि हैं वे .. ( सी आय एम सो ऑनेस्ट .. कमबख्त अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा कहने से बाज ही नहीं आता मैं ).. ब्रेक अप पर उस बच्ची शुभम श्री ने भी मोहित करने वाली कविता लिखी हुई है .. हालांकि उस कविता के बहाने मैंने उसकी उस प्रवृति की निंदा की थी जहाँ उसने सनसनी को अपना जरुरी औजार तय किया है .. इन कविताओं (लंबी कविता !) को पढ़ते कई जगह गीत चतुर्वेदी और मोनिका कुमार को भी याद किया मैंने ..
जवाब देंहटाएंशायक भाई, फ़िलहाल आपकी ये टिप्प्णी ही दोहराव का शिकार हो गयी है. और भी कई जगहों पर देखने मिली ये. मज़े की बात बताऊँ कि अभी कुछ देर पहले मैंने बाबुषा दी को कहा कि आप तो देह में डूबने उतराने वाले हज़ार दोहराव करती हैं. जवाब में हँस कर कहती हैं, अभी तो नाखून भी नहीं लिखा. अभी तो पूरी देह लिखना है. पहले मन भर कर देह लिख ली जाए, फिर आत्मा परमात्मा की सोची जायेगी.
जवाब देंहटाएंऔघड़ तो हैं ही. सबसे अलग. आभार समालोचन इस ताज़ी हवा के लिए.
उचित शब्द नहीं मिल रहे कि क्या कहूँ। बस इतना ही कहूँगा कि भावनाओं का ज्वार उठता पढते वक्त जो जाकर थमता ही नहीं। कहीं-कहीं असहमति है परन्तु ये रचनात्मक भेद ही मात्र है।
जवाब देंहटाएंMoving poetry !! Thanks Arun Dev ji !!! Congratulations poet !!!! हम प्याज़ की परतों जैसे थे
जवाब देंहटाएंअपने ही झार से आँखें सुजाए बैठे
हम बहुत चले और बहुत चले और बहुत चले
फिर एक दिन अपने-अपने मन की ओर लौट गए
बची हुयी नौ उँगलियों के साथ जीने को
सारा जादू बंद दरवाज़े में है
ताला खुल जाए तो चाबी खो जाती है
उसकी कमीज सेप्रेम करती रही मैं.पसीने की तरह उसकी देह से फूटती रही....यह नये तरह की प्रेमाभिव्यति है..यह प्रेम करने की परम्परागत रूढि को तोड़ता है..नयी पीढी के अनुभव हैरत में डालनेवाले है..बाबुषा को इतनी अच्छी कविता के लिये शुभकामनायें..
जवाब देंहटाएंसमय की गति के साथ विचलित हो रहीं मान्यताओं ,डगमगाती आस्थाओं ,भावनात्मक अंधड मे उखड चुके विश्वास को ढोता झटपाटाता मन ,आखिरकार त्रासदी को भी शक्ति बना कर स्वप्न सृजन की कूव्वत रखता है ।मैने तो यही देखा है इस कविता मे ......एक अजीब किस्म का संवेगात्मक संवाद अपनी उपस्थिति से ही पीडा को सार्वजनिक 'टाईप' का रूप दे रहा है ।यह पीडा दुहराव से रहित है ....यही कारण है कविता एकदम नयी लग रही है बधाई अरूण सर पढवाने के लिए
जवाब देंहटाएंप्रेमके बहानेजीवन के कई रंगों को उकेड़ती है कविता.
जवाब देंहटाएंयह एक लम्बा सफ़र है जो ख़त्म हो जाता है तो लगता है अभी शुरू भी नहीं हुआ..अगली तारीख कौनसी पडी है?
जवाब देंहटाएंकवियित्री को बधाई.
raw feelings ... प्रकृति कुछ ऐसी की उसमें कोई लाग लपेट सजावट नहीं .... इस लिखाई की सुन्दरता उसका शिल्प ना होकर उसका भाव है ... जंगली ... प्राकृतिक .. विशुद्ध !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कवितायें
जवाब देंहटाएंअपनी बात अपने खास अंदाज मे कहने का खासा हुनर ,.. बहुत खूब बहुत शानदार ।
जवाब देंहटाएंअपने शिल्प में वाकई अद्भुत कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद या यूँ कहें देवी प्रसाद मिश्र के बाद इतनी सुन्दर "लम्बी कविता" पढ़ी.......
इस कविता पर बड़ा घमासान है। कविता कैसी है इसे कुछ शब्दों में नही कहा जा सकता। फौरी तौर पर तो बिल्कुल नहीं, यह संभव ही नहीं। मैंने अपने एक प्रिय कविताप्रेमी को इसका लिंक दिया है यह जानने के लिए कि उन्हें कैसे लगी यह कविता। कभी कभी गणित के सवालों की तरह हम कविताओं की कुंजी भी सामने रख लेना चाहते हैं। चित्त की अनेक अंतर्दशाओं का भाष्य है यह। अवसाद और स्मृति की एक कूक-सी इन पंक्तियों से सरसराती हुई आती है। कविता तो हर कविता में कहीं कहीं ही होती है सो इस कविता में भी वह है कई कई जगहों पर। जैसे विशालकाय शरीर में भी आत्मा उतनी जगह घेरती है, जितनी एक चींटी के चींटी जैसे शरीर में वह कहीं ठिठकी दुबकी होती है।
जवाब देंहटाएंलंबी कविताओं से अक्सर मुझे असुविधा होती है, पर इस कविता से नहीं। बधाई लंबी कविता की लंबाई को खूबसूरती से साधने के लिए। इसे फुर्सत से पढूँगा तब शायद कविता और खुले।
पप्पू फोटो वाला की टिप्पणी ... लीना मल्होत्रा ..
जवाब देंहटाएंबाबुशा की कविताएँ दिल से निकली धाराएँ हैं जो अपने प्रवाह में सतत बहती हैं अपने अनूठे शिल्प से पीड़ा को सजाने का हुनर कहिये या प्रेम के टूटने के बाद प्रेम की कसक की पराकाष्ठा .. बहुत सुन्दर कविताएँ लिखी हैं .. बधाई बाबुशा .. अरुण जी कह सकती हूँ की समालोचन पर उत्तम रचनाएँ पढने को मिली हैं . धन्यवाद आपका .. लीना मल्होत्रा
जवाब देंहटाएंबाबुषा एक तिलस्म हैं....
जवाब देंहटाएंबाबुषा को मैंने पहले भी पढ़ा है। इस लम्बी कविता को मैं एक तड़प की तरह महसूस कर रहा हूँ। एक गहरी तिक्त आह जो संगीत की तरह पहले दो खंडों में उमड़ती है, तीसरे में मन्द्र रोदन सी भारी चाल में चलती है और फिर अपने वेग में उठने लगती है। शिल्प के लिहाज से भी आत्माभिव्यक्ति को रोक कर बीच में कथा और उस कथा में आत्मव्यथा मुझे अच्छा प्रयोग लगा। सबसे अच्छी बात जो इस कविता में है, वह है उसका अजस्र प्रवाह । लम्बी कविता के पूरे आयतन में नदी के सहज बहाव सी यह कविता एक अखण्डित रौ में बहती चली जाती है अपनी अनन्त खामोशी के अथाह सागर तक। मेरी दृष्टि में यह इस कविता की एक विशेष उपलब्धि है। बाबुषा को भविष्य के लेखन के लिये भी अशेष शुभकामनायें । एक और बात, कविता में आई इसी स्थिति पर मुझे अपनी भी एक दीर्घ कविता भी याद आ गई "प्यार कहाँ बीतता है, अनिला" । एक ही जीवन, वही अनुभव और स्वर भी वैसे ही। फर्क यही कि उस वक्त हम कहाँ खड़े थे ! कविताई की भिन्नता यहीं से आती है! शुक्रिया अरुण भाई, शुक्रिया बाबुषा !
जवाब देंहटाएंनिःशब्द......
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