बाबुषा कोहली
6 फरवरी, 1979, कटनी
पत्र पत्रिकाओं में गद्य-पद्य प्रकाशित
सम्प्रति : अध्यापन,जबलपुर, मध्यप्रदेश
"बाबुषा की कविताओं की तासीर कुछ ऐसी है कि वसंत में कोयल की कूक को खुरच-खुरच कर बगीचों के हवाले करती है, बेचैनियों को उठाकर सीप में धर देती है कि मौला सुबह होने के पहले अपनी हथेलियों पर मोती पा जाए. मल्लाह पतवारों का आशिक है पर बाबुषा झटके में पतवार पानी में बहा देने को आमदा. पता नहीं कौनसी चाबियाँ अपनी कमर में खोंस चलती है ये कवयित्री कि झम से आठ ताले में बंद मिट्ठू औरत बन आकाश को उड़ चले और अपने पाँव के अंगूठे पर टोटका बाँधने बैठ जाए. एक अबोध की तरह इसे स्लेट नहीं पूरी दीवार की दरकार है ..दीवार नहीं आकाश की दरकार है. आदमी की आँखें ट्राईक्रौमेटिक हैं, तो तीन रंगों के बरक्स वह बाकी के रंग तैयार करता है,पर बाबू है कि एक अपना अलग रंग घोलती चलती है ..अब अबूझ ही है मेरे लिए यह रंग."
अपर्णा मनोज
प्रेम गिलहरी दिल अखरोट
स्वप्न में लगी चोट का उपचार नींद के बाहर खोजना चूक है.
होना तो यह था कि तुम अपने दिल की एक नस निकालते और मेरी लहूलुहान उंगली पर बाँध देते. तुम मेरी हंसली पर जमा पानी उलीचते और वहां थोड़ी- सी धूप रख देते. पर हुआ यह कि जिन पर्वतों पर मैंने तुम्हारा नाम उकेरा, वहां से नदियाँ बह निकलीं और मेरी गर्दन से जा चिपकी कागज़ की एक नाव.
एक शाम मैं तुम्हारी उंगली पकड़े क्षितिज तक पैदल चली थी. उस दिन तुम्हारा क़द मेरे पिता जितना बढ़ गया था.
उस रात मैं नदी में अपनी पतवारें फेंक आयी थी .
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दीवारों पर लिखना और पौधों को पानी देना मुझे अच्छा लगता है.
होना तो यह था कि उन दिनों की तरह ही मैं तुम्हारी पीठ पर हमेशा नक्क़ाशीदार आयतें लिखा
करती और छाती को उम्र भर सींचती रहती. पर
हुआ यह कि छठी की चाँद रातों में मैंने
तुम्हारे छाती पर उगाये जूठे सेब और तुम्हारी पीठ से टकरा-टकरा कर लौटती रहीं मेरी
चीखें.
उन दिनों लोहड़ी की आग की तरह जंगलों में टेसू दहक रहे थे जबकि मैं
तुम्हारे पाँव के अंगूठे पर टोटका बाँध रही थी.
जिस दिन तुम मेरी चीख को अपनी छाती पर उतरने दोगे उस दिन मैं बरगद के
कान में अपने कान के पीछे वाली नस की असह्य पीड़ा का विसर्जन कर दूंगी.
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माँ ने छुटपन में बताया था
कि मैं ईश्वर की प्रिय संतान हूँ.
होना तो यह था कि कबाड़ में मिले उस दीपक को धरती पर घिसते ही धुएं के पीछे से एक देवदूत प्रकट होता और मेरे आदेश का दास बन जाता. पर
हुआ यह कि पत्थर पर रगड़ खाने से कांसे की देह पीड़ा से कराह उठी.
ऐन उसी दिन मेरे कान के पीछे
एक हरी बेल उभर आयी.
'माइग्रेन' का कोई रंग होता तो वह निश्चित ही हरा
होता. एकदम प्रेम जैसा.
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इस बात को एक अरसा गुज़रा जब डॉक्टर ने 'मायोपिया'
से लेकर इथियोपिया तक की
बातें कीं और मेरी आँखों पर ऐनक चढ़वा दी. होना तो यह था कि उन 'ग्लासेज़' को पहन कर अब तक मुझे दूर का दिखने
लगना था पर हुआ यह कि ये चश्मा भी मेरे किसी काम का न निकला.
पहले तो रास्ते ही नहीं दिखते थे और अब बड़े-बड़े गड्ढे और जानलेवा
मोड़ भी नज़र नहीं आते..
दुआ
"मेरे शहंशाह !
तुम्हारी कमीज़ में टंके हुए बटन क़ीमती लगते हैं..
पानी के बटन सीने का हुनर रखने वाले तुम्हारे दर्ज़ी को मेरे शहर के
उस दरिया की उमर लग जाए जिसे फ़रिश्तों ने कभी न सूखने की दुआ दी है ! "
ये कहते हुए लड़की ने अपनी हथेली चूम कर उंगलियाँ आँखों पर रख लीं और
अपने शहंशाह के नाम एक दुआ पढ़ी.
"
सातों आसमानों के मालिक,
ऐ परवरदिगार,
बस इतना कर दे कि मेरे बादशाह की कमीज़ के बटन कभी न टूटें !
आमीन ! "
सीपियों में रखी बेचैन सिसकियाँ मोतियों में ढल चुकीं थीं.
कच्ची नींद का पक्का पुल
वह बिना पटरियों का पुल है, जिस पर धडधडाते
हुए स्टीम इंजन वाली एक ट्रेन गुज़रती है. जलते हुए कोयले की गंध वातावरण में
चिपकी रह जाती है. कुछ चिपचिपाहटें पानी की रगड़ से भी नहीं धुलतीं.
चौड़े कन्धों वाला वो लड़का अक्सर पुल पर आता है और देर तक ठहरा रहता
है. चमकती हुयी उसकी आँखों में तलाश और ठहराव के भाव साथ - साथ दिखते हैं. कॉलरिज
के ऐलबेट्रॉस का नाखून ताबीज़ की तरह उसके गले में हमेशा बंधा रहता है. देर तक नदी
को निहारता हुआ वो ख़यालों के जंगल में कुछ तलाशता है. ऐसा लगता है जैसे उसकी उसकी
आँखें नदी की देह के भीतर जल रही आत्मा की लौ खोज रही हैं. फिर पुल के ऐन बीचोबीच
ठहर कर वो नदी में पत्थर फेंकने लगता है. अपने होंठ गोल करके हवा के तार पर 'बीटल्स' की धुन छेड़ते हुए वो लापरवाही से
ट्रेन के पैरों के निशान पर एक नज़र डालता है और मुंह फेर लेता है. नींद की घाटियों
में देर तक उसकी सीटी की आवाज़ गूंजती है. कभी- कभी वो भूखी मछलियों के लिए नदी में
आटे की गोलियां डालता है और मछलियों की दुआएं जेब में डाले पैरों से पत्थर ठेलता
हुआ सांझ के धुंधलके में गुम हो जाता है.
इन घाटियों में चलने वाली पछुआ हवाओं के बस्ते में बारिशें भरी हुयी
हैं. जब-जब ये मतवाली हवाएं अपना बस्ता खोलती हैं, नदी
का पानी पुल तक चढ़ जाता है.
इंजन का काला धुंआ ट्रेन के पीछे सड़क बनाता चलता है. बारिश में सडकें
बदहाल हो जाती हैं . धुंए की सड़क आत्मा के इंद्र के प्रकोप से मिट जाती है.
मछलियाँ घर बदलने की जल्दी में है. नदी के पानी की दीवारें छोड़ कर
जल्दी ही किसी मछेरे के जालीदार दीवारों वाले घर में रहने चली जाती हैं. मछलियाँ
दीवारें तोडती नहीं बल्कि घर छोड़ देती हैं.
नींद में दिशाएं अपनी जगह बदलती रहती हैं. यह पता ही नहीं चल पाता कि
सीटी से 'बीटल्स' की
धुनें बजाने वाला लड़का किस दिशा से आता है और कहाँ गुम हो जाता है. पीछे छूट जाता
है अकेला खड़ा एक पुल, जलते कोयले की गंध और पुल के ऊपर से बह
रहा नदी का पानी.
मैं कोयले की गंध को खुरच-खुरच कर निकालती हूँ और उसकी सूख गयी
पपड़ियों को चूम लेती हूँ. उस सूखेपन को अपनी मुट्ठी में मसलकर उसकी राख़ अपने
माथे से लगाती हूँ..हर दिन.
स्वप्न तुम्हारी और मेरी आँखों के बीच बना पुल हैं.
हरियाला बन्ना आया रे
पत्तियों से ज़्यादा क्लोरोफ़िल उनकी परछाईं की नसों में दौड़ता है .
पेड़ से कहीं ज़्यादा हरी होती है पेड़ की छाँव. दुर्गम और लम्बी दूरियों के यात्री
इस हरेपन को पहचानते हैं.
रंग हमेशा अपने रंग के नहीं होते. गाढ़ेपन का लेप और समय की खुरचन
रंगों के रूप बदलती है.
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मुझे किसी यात्रा पर नहीं निकलना था और मैं ठीक तुम्हारी आँखों के
सामने खड़ी थी. तुमने इतनी जोर से मेरा हाथ पकड़ा था जैसे तुम मुझे आख़िरी बार देख
रहे हो. तुम्हारे हाथ की कसावट से मेरी कलाई पर हरे निशान उभर आये थे. कलाई के
निशान तो कब के मिट गए पर मन पर चढ़ा हरा रंग छूटता नहीं.
ये कोई नौ सौ साल पुरानी बात है.
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हाइड्रस नक्षत्र के तारे उस दिन आपस में कानाफूसी कर रहे थे. दक्षिण
से आती हवाओं ने उनकी बुदबुदाहट मेरे कानों तक पहुंचाई. बूढ़ा तारा समूह के युवा
तारों को उस पहली किताब के बारे में बता रहा था, जिसमें
पृथ्वी के नीला ग्रह होने की बात लिखी है जबकि युवा तारे विस्मित आँखों से पृथ्वी
का हरापन देख रहे थे.
उस दिन 'लवर्स ओक' की
छाँव में तुम मेरा हाथ थामे खड़े थे.
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धरती मेरे तकिये से बनी होती तो इसके किसी हिस्से में कभी सूखा न
पड़ता. मुझे मालूम था कि अन्तरिक्ष एक छोटा सा रूमाल है जो मेरे आंसू पोंछ न
सकेगा.
अमेज़न के जंगल मेरे तकिये से ज़्यादा हरे नहीं हो सकते.
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मैं हरे रंग को पहचानती तो थी पर जानती नहीं थी.
जिन रेगिस्तानों में तुमने मुझे चूमा, वहाँ
शाद्वल बन गए. इसी तरह मेरा हाथ थामे रेगिस्तानों में खानाबदोशी करते रहे तो
हाइड्रस के बूढ़े तारे को किताब का वह पन्ना फाड़ना होगा और युवा तारों को पृथ्वी
के बदले हुए रंग की कथा सुनानी होगी.
तन पर कुछ भी पहनूं- ओढूँ पर मेरी आत्मा ने तुम्हारा बुना हुआ हरा
लिबास पहना है.
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नौ सौ सालों तक लगातार मुझे तुम्हारी पुकार सुनायी देती रही. मैं
बेचैन हो कर उठ जाती और नींद में ही चलने लगती थी.
एक रोज़ एक सूखे कुएं के कान में मैंने कहा कि मैं कितनी बड़भागी हूँ.
मेरे प्रेमी ने मेरा नाम चीखों में बदल दिया है. कुआं जीवन का अनुभव रखता था. वह
मुझे दुर्गम मार्गों की कथाएँ सुनाने लगा. मुझे हँसी आ गयी. मैंने उसे बताया कि
मैं सड़कों पर नहीं अपने प्रेमी की पुकार पर चलती हूँ. यह सुनते ही उस कुएं की
आँखों से आंसुओं की धार बह निकली. मैं उस अभिशप्त कुएं में तब तक तुम्हारा नाम
पुकारती रही जब तक कि वह अपनी जगत तक न भर गया.
उधर कुएं का पानी बढ़ता रहा इधर मैं भीगती रही.....
नींद में नानी से गुफ्तगू ( दो टुकड़े )1. इन्सोम्निया
मोतियों की तासीर ठंडी होती है. किसी के ग़ुस्से पर मोती की सफ़ेदी यूँ
असर करती है मानो बहते ज़ख्म पर रुई का फाहा धरा हो. ऐसा नानी कहती थीं और शायद
इसीलिए नानू के सीधे हाथ की आख़िरी उँगली पर उन्होंने मोती की मुंदरी पहनवा रखी थी.
इधर मैंने अपने 'उनकी' दसों
उँगलियों में मोती पहना रखे हैं. तब भी कोई असर नहीं ! ग़ुस्सा ऐसा कि हर वक़्त जान
लेने पर आमादा..
हुह !
फिर एक रात मेरी कच्ची नींद में नानी ने दस्तक दी और इसका राज़ भी
फ़ाश कर गयीं.
"ग़ुस्से का बस नहीं, क़िस्मत का भी तेज़ है वो. तूने उसे जो
मोती पहनाए हैं, वो बेशक़ीमती हैं. पर ज़रूरी तो नहीं कि
दुनिया के सब मोतियों की तासीर ठंडक वाली ही हो ? तेरे
मोतियों से तो गर्म लपटें निकलती हैं. मैंने तुझे ग़ुस्से का इलाज बताया था,
किसी को राख करने का तो नहीं ! "
नानी मरने के बाद भी बहुत बोलती हैं.
"अंसुवन के मोती चुने, माला पिरोई
अंखियों में रात गयी, छिन भर न सोई
बलम जी ! तुम हो बड़े निर्मोही ! "
रात के आख़िरी पहर ख्वाब की सांकल टूटी. तब तक नानी जा चुकी थी.
अभी कुछ ही मोती तकिए पर ढुलके थे कि गिलाफ़ों पर अंगार बरसने लगे.
दहकती हुयी एक लपट ऊंचे उठ कर आसमान के माथे पर जा चिपकी और चिड़ियों ने सुबह की
आमद की ख़बर दी .
रातें जल कर राख हुईं तब कहीं जाकर सुबह बनी।
"
नानी, अब तुम चैन से सो जाओ कि इन आँखों की
लपट से बना लाल मोती सदियों चमकता रहेगा.
मेरे महबूब का नाज़ सलामत रहेगा !"
"शाब्बाश ! मेरे अंगने की रौनक़ !
ख़ुदा न करे तू कभी सोए ! जो कभी तेरी आँख लग जाए तो सुबह कैसे होगी ?
तू यूँ ही अपने तकिए पर मोती गढ़ती रहे !
यही दुआ है मेरी जान कि तुझे कभी नींद न आए ! "
नानी की फैली हुयी हथेलियों पर ख़ुदा ने दस्तख़त किए.
2. मेरे केंचुए. तुम्हारी मछलियाँ
2. मेरे केंचुए. तुम्हारी मछलियाँ
वह नींद में बनी
हुयी जगह है, जहां से मैंने चलना शुरू किया था.मैं
नींद की यात्री हूँ. मेरी नाभि के चारों ओर एक केंचुआ रेंगता रहता है. नींद मेरे
जीवन का ठेठ अनुवाद करती है.
मेरे भीतर फैला
हुआ यह लिसलिसापन तुम्हें खो देने का भय है. मैं नींद में ही केंचुए पर मुट्ठी भर
नमक छिड़क देती हूँ. इस यात्रा के हर ठहराव पर मुझे अपने पैरों के आस -पास बिखरा
हुआ नमक दिखाई देता है. नानी कहती थीं कि धरती पर नमक नहीं गिराना चाहिए वर्ना
भगवान आँखों से नमक उठवाता है.
नींद में कितने
ही टूटे पुल मैं पार कर चुकी हूँ. मेरे पैरों से रिसते लहू से बीहड़ जंगलों के बीच
एक राह बन गयी है. मेरी यात्रा बार - बार बाधित होती है. तुम सूखे पत्तों को फूँक
मारकर हवा में उड़ा देते हो और तुम्हारे मुंह की हवा से सांस लेकर पत्ते फिर से जी
उठते हैं.
हरे रंग के
कन्धों पर अदृश्य भुजाएं होती है, जो ठहरे हुए यात्री का हाथ थाम कर आगे
की ओर खींचती है.
तुम नींद के उस
पार खड़े हो.
जागते हुए मेरी
पीठ पर मछली- सा एक चुम्बन मचलता है.
यह तुम्हारे
होने का उत्सव है.
मैं दुनिया के
सारे केंचुओं को मार डालना चाहती हूँ.
तुम दुनिया के
सारे सूखे पत्तों को हरा कर देना चाहते हो.
जबकि मेरी आँखों
में हिलोरे भरते नमक के अथाह समंदर का रहस्य नानी बरसों पहले बता गयी थीं.
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बाबुषाजी के लेखन में भावों की सांध्रता है, थोड़ा लिखा भी पर्याप्त का सुख देता है।
जवाब देंहटाएंनानी की फैली हथेलियों पर खुद दस्तखत कर रहा था और मैं काजल की डिबिया लेकर उसके पीछे भाग रही थी ..पर नानी कहाँ जा छुपीं ..
जवाब देंहटाएंएक कुँए से रूहानियत की आवाज़ आ रही थी ..मैं उसकी जगत पर बैठी रही . मेरे पास जीवन का टेड़ा -मेडा डोल था .एक बलखाई रस्सी थी ..रस्सी से बंधा डोल नाचता हुआ पानी की ज़मीन से टकराया . एक अनजान प्रेमी का दिल था ये कि डोल में बवंडर भर गया ..कुँए को अपने गोल में भरता हुआ जगत के बाहर आ गया ...बाबुशा की हथेलियों पर लिखा इसने कि अबोध तू कहाँ भागे जा रही है ..कुँए की पुकार तेरे पैरों की आवाज़ है और ये बवंडर तूने पैदा किया है ....देख बह जायेगी दुनिया और सड़कें अपना बनना भूल जायेंगी ....
खुशियों से भरा रहे बाबू का दामन . जन्मदिन की शुभकामनाओं के साथ
मेरे पुरखे तुलसी के गाँव से हैं. सो एक बार मैं भी राजापुर घूमने चली गयी. वहाँ नदी किनारे उनकी बड़ी सी प्रतिमा है. महापंडित 'मानस' का पाठ कर रहे थे. वहाँ से लौटते हुए कार के पीछे भूखे -फटेहाल बच्चे दौड़ने लगे. मेरा दिल टूट गया.
जवाब देंहटाएंरात बारह बजे मुझे लगता है कि स्वप्न का बड़ा अर्थ है. मुझे इसे लिखना चाहिए. सुबह बारह बजे रद्दी वाले को अखब़ार देते हुए मैंने देखा कि 'मानस' कौड़ियों के भाव रद्दी में बिक रही थी. मुझे लगा लिखना व्यर्थ है. मेरा दिल टूट गया.
दिसंबर 2012 में दो डायरियां छत पर जलाते हुए मैंने महसूस किया कि ये अनोखे किस्म की आज़ादी थी. पर मैं पूरी तरह आज़ाद नहीं हुयी. अभी कुछ हथकड़ियां बाक़ी हैं. लिखना आज़ादी है. अपने लिखने से बंधना सबसे निकृष्ट प्रकार की दासता. मैं लगातार एक प्रक्रिया में हूँ. आज़ादी के लिए संघर्ष करने जैसा कुछ..
मैं अपने बारे में सबसे ज्यादा अनिश्चित हूँ और मुझे हरगिज़ नहीं पता कि अगले पल अपनी ही कही या लिखी कौन सी बात खारिज करने वाली हूँ. मेरा भरोसा नहीं किया जाना चाहिए.
मुझे जूलियन मेंटल की रेड फ़ेरारी खरीदने की इच्छा थी. मैं एक लम्बी सैर पर जाना चाहती थी. हालांकि मैं सैर पर ही हूँ. थैंक्स समालोचन ! जश्न-ए -फ़रवरी जारी है और टुकड़े टुकड़े केक रोज़ खा कर कहती हूँ ! अहा !
इसे ज़रूर पढ़ा जाए पर इसे भुला दिया जाए क्योंकि सचमुच मृत्यु का इलाज कोई कविता, कहानी नहीं करती.
आह ...वाह क्या सुखद अनुभूति है और क्या खरी बात कही है माँ ने कि "अपने लिखने से बंधना सबसे निकृष्ट प्रकार की दासता है" यह बात आजसे पहले कभी नहीं सुनायी दी शायद और कोई न कह सकेगा कौन होगा जिसे 'स्थापित' होने की चाह नहीं होगी .... किसी को मुक्ति अभीष्ट है ये पन्ने सहेज लेना समालोचन ये पूँजी बार बार नहीं मिलेगी
जवाब देंहटाएंउसके कानों में
इन्द्रधनुष की बालियाँ हैं
घनघमंड उसकी आँखों में बसते हैं
उसके आँसुओं से
दुनिया भर के मानसूनी जंगलों को
जीवन मिलता है
हरा सावन
हरी चूड़ियाँ
हरी हरी मेहँदी ... और
जब वो नाचकर गाती है 'हरियाला बन्ना आया रे'
तब
मैंने कई बार देखा है
वहाँ की ज़मीन हरी हो जाती है
कई बार जब वो अपने लिए
एक अदद हरा समन्दर खोजने निकलती है
एक साधू बाबा
उसकी राहों को बुहारता हुआ अक्सर दिख जाता है
ब्रह्माण्ड के अंतिम छोर पर
हरे ग्रह की ओर जाती हुई
मेरी माँ
ढाई क़दमों में ही नाप लेती है
इस कायनात को
फ़कीर मुस्कराता है
और माँ भी !
फिर भी उसे खुद से शिकायत है
कि
ये आसमान नीला क्यों है
और
उसकी चमड़ी का रंग
हरा क्यों नहीं है !
अपनी पसंद के जादुई अनुभव-संसार में बनते बिखरते अकल्पनीय प्रसंगों की अवसादग्रस्त स्मृतियों से बुनी यह काव्य-श्रृंखला हिन्दी के नये काव्य-परिदृश्य में विस्मय ओर अबूझपने को नया विस्तार देती है। निश्चय ही इस कवयित्री के पास अपनी तरह के भाषिक संवेदन और बयानगी को सार्थक दिशा दे पाने की अकूत संभावनाएं अब भी शेष हें, वह आगे क्या आकार गहण करती है, उम्मीद बनाये रखनी चाहिये।
जवाब देंहटाएंअगर आपको नहीं पता कि जीवन की कड़वाहट को कैसे रसास्वादन करना है तो आपको बाबुषा सदैव अम्लीय या क्षारीय लगेंगी ...पर मुझे उनकी सांद्रता सदैव आकर्षित करती है |कुछ अबूझ ..कुछ भेद ....इक ज़िद .. जिसे खोलते जाओ परत दर परत और नए विचार सामने आते जाते हैं गम्भीरता से सोचो तो लगता है तल्ख यथार्थ यही तो है ...सच ही तो लिखा....वो कहा गया है न कि
जवाब देंहटाएंदिल भी एक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह,
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या कुछ भी नहीं .... हार्दिक शुभकामनाएं बाबुषा को !!!
स्थूल और सूक्ष्म का महीन विश्लेषण बाबुषा को एक बेहतरीन कवयित्री बनता है ..ये कवितायेँ हलकी है और भारी भी , तनु हैं और सान्द्र भी ..
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंदेर से सही इंसाफ का परचम लहराएगा - ब्लॉग बुलेटिनआज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबाबुषा के पत्र का यह वाक्य --लिखना आज़ादी है -- मुझे बहुत कुछ कहता जान पड़ता है । पर उन का अन्य
जवाब देंहटाएंवाक्य --लिखे से बँधना एक दासता है --- मुझे पसन्द नहीं आया । व्यक्ति सोच कर जो लिखता है ,उस के
विश्वास का सूचक है । उस से बँधना या उस पर टिके रहना उस की ईमानदारी का प़माण है ।वह दासता
नहीं ईमानदारी है ।
मैं बाबूषा कोहली का गद्य भी पढ़ना चाहूंगा|
जवाब देंहटाएंबाबुषा के यहां इतना हरियल-सुआपंखी संसार है कि मुझे यह सब पढ़ते हुए अपनी तमहारिणी का 'सर-सब्ज-पसंद-संसार' और हरा कुरता याद आ गया... अरे कहां-कहां चली आती है ये मेरी तमहारिणी... जियो बाबुषा...
जवाब देंहटाएंबाबुषा की भाषा खिंचती है......शब्दों को बरतने के अलहदा तमीज देखने में आती है.... यह मौलिकता काबिले गौर है.........बधाई.....
जवाब देंहटाएंबबुषा की कविताओं के शब्दों को उनके अर्थ से नहीं वरन उनकी महक से उनकी आहट भांप लेती हूँ ...बिलकुल नवोन्मेष लिए एक अलहदा रचनाकार ..बधाई
जवाब देंहटाएंवाह, मज़ा आ गया! जैसे किसी मेले में अपने मनचाहे झूले पर झूलने का मज़ा। बाबुशा की कविताओं में मासूमियत, सच्चाई और सपनों का अनोखा मेल है। और शैली ऐसी आकर्षक जैसे किसी नवजात की चमकीली आँखें।
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