(फोटो आभार मनीष गुप्ता)
“What is that you express in your eyes? It seems to me more than all the print I have read in my life.”
Walt Whitman
समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ ‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने ‘आशुतोष दुबे’ और ‘अनिरुद्ध उमट’ की कविताएँ और वे कविता क्यों लिखते हैं पढ़ा. आज रुस्तम सिंह की कविताएँ और वक्तव्य प्रस्तुत है.
सच्चा-खरा
कवि किस तरह से अपने आप से पूछता है और तलाशता है कि आख़िर वह कविता क्यों लिखता
है, यह सब इस उत्तर में आपको दिखेगा. कविता की तरफ जाने का यह भी एक रास्ता है.
कवि और दार्शनिक, रुस्तम (30 अक्तूबर 1955) के पाँच कविता संग्रह और अंग्रेज़ी में उनकी तीन
पुस्तकें प्रकाशित हैं. उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में भी अनूदित हुई हैं. उन्होंने नार्वे के कवियों उलाव हाउगे व लार्श
अमुन्द वोगे की चुनी हुई कविताओं का अनुवाद हिन्दी में भी किया है.
मैं
और मेरी कविताएँ (३) : रुस्तम
_________________________________________
बस लिखना चाहता हूँ.
मैं कविता क्यों लिखता हूँ.
इस प्रश्न में कम से कम दो धारणाएँ अंतर्निहित हैं. पहली यह
कि हर कवि को पता होता है कि वह कविता क्यों लिखता है या लिखती है. और दूसरी यह कि
हर कवि का कविता लिखने के पीछे कोई उद्देश्य होता है. यह दूसरी धारणा बहुत स्पष्ट
रूप में इस प्रश्न में नज़र नहीं आती, पर ध्यान से देखें तो हम पाते हैं कि वह वहाँ है. परन्तु ज़रूरी नहीं कि हर कवि
को पता हो कि वह कविता क्यों लिखता है.
चौदह वर्ष की उम्र में जब मैंने अपनी पहली ऐसी दो कविताएँ
लिखीं जिन्हें मेरी अपनी कविताएँ कहा जा सकता था, तो मैं न तो यह जानता था कि मैं कविताएँ क्यों लिख रहा था
और न ही यह कि उन्हें लिखने के पीछे मेरा क्या उद्देश्य था. मैं बस कविताएँ लिखना
चाहता था. उसी तरह जैसे उन दिनों और उससे पहले भी मैं अन्य कवियों की कविताएँ पढ़ना
चाहता था. हालाँकि मेरे पढ़ने के लिए कविताएँ आसानी से उपलब्ध थीं, ऐसा बिल्कुल नहीं था.
जब मैं नौ बरस का हुआ तब तक हम गाँव में रहते थे. और हम
पढ़ने के लिए एक दूसरे, बड़े गाँव के
सरकारी प्राइमरी स्कूल में जाते थे जहाँ चार-पाँच गाँवों से बच्चे आते थे. यह गाँव
पंजाब में था. मेरी माँ अनपढ़ थीं और मेरे पिता पाकिस्तान की सरहद पर तैनात थे.
इन्हीं दिनों मेरे पिता ने नौकरी छोड़ दी और हम हरियाणा के एक कस्बे या छोटे शहर
में आ बसे. हमारे घर में एक भी साहित्यक किताब नहीं थी और मेरे पिता उर्दू का
अखबार पढ़ते थे. उस कस्बे में कोई भी सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं था. हमारे सरकारी
स्कूल में लाइब्रेरी के नाम पर पुस्तकों की एक अलमारी थी जिस पर हर वक्त ताला लगा
रहता था. हमारे हिन्दी के अध्यापक के हाथ में कभी-कभी “धर्मयुग” या “साप्ताहिक हिन्दुस्तान” पत्रिकाएँ नज़र
आती थीं. मुझे याद है जब मैं सातवीं या आठवीं कक्षा में था तो एक बार जब अध्यापक “धर्मयुग” को मेज़ पर छोड़कर बाहर गये, तो मैंने उसे उठाकर जल्दी से उसमें छपी एक कविता पढ़ी जो
मुझे बहुत अच्छी लगी.
उन दिनों कविताएँ पढ़ने के दो ही स्रोत मेरे पास थे. एक तो
हिन्दी तथा पंजाबी की हमारी पाठ्यपुस्तकें (आठवीं कक्षा तक मैंने पंजाबी भी पढ़ी)
जिनमें कविताओं के अलावा कहानियाँ, संस्मरण व
यात्रा-वृतान्त होते थे. दूसरा, बच्चों के लिए “चंपक”, “पराग” व “नंदन”
इत्यादि पत्रिकाएँ जो
हमारे अखबारवाले के पास होती थीं. मैंने निराला, महादेवी वर्मा, भवानी प्रसाद मिश्र तथा दिनकर इत्यादि की कविताएँ पहली बार स्कूल की पाठ्यपुस्तकों
में ही पढ़ीं. दूसरी तरफ, “चंपक”, “पराग”, “नंदन” इत्यादि
पत्रिकाओं में बच्चों के लिए लिखी गयी बहुत साधारण किस्म की कविताएँ होती थीं.
यह सब बताने के पीछे मेरा उद्देश्य यह था कि बचपन में जब भी
और जैसी भी कविताएँ पढ़ने का अवसर मुझे मिलता था, उन्हें पढ़ने के बाद मैं ख़ुद कविताएँ लिखना चाहता था और
उन्हें लिखने की कोशिश करता रहता था. पर उस उम्र में भी मैं देख पाता था कि मेरी
लिखी कविताएँ लगभग वैसी ही होती थीं जैसी कविताएँ मुझे पढ़ने को मिलती थीं और
उन्हें मेरी अपनी कविताएँ कहना कठिन था.
पर यहाँ लगभग वैसा ही प्रश्न उठता है जैसा मुझे पूछा गया है
: बचपन से ही मैं कविताएँ क्यों लिखना चाहता था? और इससे जुड़ा हुआ इससे भी अधिक मूल प्रश्न : मुझे
पढ़ना-लिखना विरासत में नहीं मिला था, तब भी मैं बचपन में ही, और किसी भी चीज़
से ज़्यादा, कविताएँ ही क्यों पढना
चाहता था?
मेरा ख़याल है कि इन प्रश्नों का उत्तर नहीं दिया जा सकता.
यह इच्छा क्यों मुझमें थी, वह कहाँ से आयी,
इस पर विचार करना फ़िज़ूल है. और जैसे कि मैं
पहले भी इशारा कर चुका हूँ, हमारे परिवार,
और गाँवों में रहने वाली हमारी बिरादरी में भी,
साहित्य पढ़ने की कोई प्रथा नहीं थी. और अखबार
भी केवल मेरे पिता ही पढ़ते थे, वो भी कस्बे में
आ जाने के बाद. वे दसवीं तक पढ़े हुए थे.
चौदह से अठारह की उम्र के दौरान मैं कविता नहीं लिख पाया.
परन्तु अठारह की उम्र में मैंने फिर से लिखना शुरू किया. उन दिनों मैं प्रसिद्ध
अमरीकी कवि वाल्ट व्हिटमैन को बहुत पढ़ रहा था और उनकी कविताओं का प्रभाव
मेरी कविताओं पर साफ़ नज़र आता था. धीरे-धीरे मैं इस प्रभाव से निकल गया, परन्तु मुझे पता था कि मैं ज़्यादा अच्छी
कविताएँ नहीं लिख पा रहा था.
ये वे दिन थे जब मैं एक वर्कशॉप में मेकैनिक, वेल्डर तथा खराद चलाने का काम कर रहा था,
क्योंकि मैंने दसवीं के बाद पढ़ना छोड़ दिया था.
दो साल तक यह काम करने के बाद मैंने फिर से पढना शुरू किया. तब तक एक सरकारी कॉलेज
हमारे कस्बे में खुल गया था. जो वर्ष मैंने कॉलेज में बिताये उस दौरान मैंने कॉलेज
की लाइब्रेरी से ख़ूब पुस्तकें पढ़ीं, जिनमें कविता की पुस्तकों के अलावा उपन्यास, कहानियाँ, लेख तथा दर्शन की
पुस्तकें शामिल थीं. इन सालों में अंग्रेज़ी से येट्स व इलियट तथा हिन्दी से निराला,
शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन व त्रिलोचन मेरे पसन्दीदा कवियों के तौर पर उभरे. बाद के सालों में
कुछ और कवि भी इस सूची में जुड़े जिनमें सेज़ार वय्याखो, बोर्ग्हेस तथा कुछ हद तक पाब्लो नेरुदा प्रमुख हैं.
इसके बाद मैं सेना में अफसर बनकर चला गया तथा छह साल जो
मैंने वहाँ बिताये उस दौरान भी मैं कविताएँ लिखता रहा. लेकिन मुझे तब भी स्पष्ट
नहीं था कि मैं कविताएँ क्यों लिखता था या क्यों लिखना चाहता था. मैं अभी सेना में
ही था जब मैंने अपना पहला कविता संग्रह स्व-प्रकाशित किया. उसका शीर्षक था “अज्ञानता से अज्ञानता तक”. उस वक्त मैं 26 वर्ष का था. 27-28 की उम्र में, जब मैं कैप्टेन
था, मैंने सेना से त्यागपत्र
दे दिया और एक बार फिर से पढाई शुरू की. मैं ऍमफिल व पीएचडी करने पंजाब
विश्वविद्यालय, चंडीगढ़, आ गया और अगले पाँच वर्ष वहीं हॉस्टल में रहा.
यहाँ मैं कैंपस की राजनैतिक व बुद्धिजीवी-सांस्कृतिक
गतिविधियों से जुड़ गया तथा कुछ और कवियों के साथ मिलकर कुछ साहित्यक गतिविधियाँ भी
करने लगा. इस तरह एक तरफ जहाँ मैं एस.एफ.आई. और सी.पी.आई. (एम) का
सदस्य बना (कुछ वर्ष बाद मैंने यह सदस्यता छोड़ दी), वहीं दूसरी तरफ लाल्टू, सत्यपाल सहगल तथा मैंने मिलकर “हमकलम” नाम की एक
साइक्लोस्टाइल कविता-पत्रिका निकालनी शुरू की. यही वे दिन थे जब मैं भी उस तरह की
कविताएँ लिखने लगा जिन्हें जनवादी-प्रगतिशील कविताएँ कहते हैं. और इस तरह
शायद पहली बार मेरी कविताओं के लिखे जाने के पीछे कोई उद्देश्य था. और शायद इसी
कारण हिमाचल के जनवादी तथा प्रगतिशील संघों ने मुझे भी कविता पाठ के लिए बुलाया.
मुझे याद है कि मैं इसी सिलसिले में मंडी में था जब वहाँ त्रिलोचन जी से मेरी पहली
मुलाक़ात हुई. वे भी उस कविता पाठ में आमन्त्रित थे.
इसके बाद मेरी कविता में फिर एक मोड़ आया और जो दौर तब शुरू
हुआ वह काफी लम्बे समय तक चला. इस दौर में जो कविताएँ लिखी गयीं वे मेरी भावनाओं व
उन पर मेरे मनन का नतीजा थीं. अब सोचने पर मैं कह सकता हूँ कि मैं ये कविताएँ
क्यों लिख रहा था : उन दिनों मेरी भावनाएँ इतनी कष्टपूर्ण थीं और उन पर होने वाला
मेरा मनन इतना गहरा था कि मैं उन भावनाओं व उन पर होने वाले अपने मनन को प्रकट
करना चाहता था, उन्हें कहना
चाहता था, आवाज़ देना चाहता था. और
मेरे लिए ऐसा करने का सब से आसान तरीका कविता लिखना था --- साहित्य की यह एक ऐसी
विधा थी जिसे रूप देना मैं काफी हद तक सीख चुका था. जब इस दौर की शुरुआत हुई तब
मैं 34-35 वर्ष का था.
मेरा ख़याल है कि मेरी सबसे इंटेंस कविताएँ इसी दौर में लिखी
गयीं. लगभग 15 वर्ष बरकरार
रहने के बाद यह इंटेंसिटी चली गयी, और मैंने देखा कि
धीरे-धीरे मेरी कविताओं के सरोकार, एक बार फिर,
मुझसे बाहर की, शुरू में मेरे आसपास की लेकिन फिर उससे परे की भी दुनिया से
जुड़ने लगे. मुझे लगता है कि मैं अब भी इसी दौर में हूँ, लेकिन आजकल फिर मुझे यह पता नहीं है कि मैं कविताएँ क्यों
लिख रहा हूँ या क्यों लिखना चाहता हूँ. अभी भी बस लिखना चाहता हूँ.
(02—2—2019)
रुस्तम की बारह कविताएँ
मन मर चुका है
मन मर चुका है.
पर देह अब भी ज़िंदा है.
मैं मृत्यु को
पुकारता हूँ.
वह जवाब नहीं देती.
ईश्वर की
मानिन्द
वह भी बहरी है.
या फिर
वह एक क्रूर
तानाशाह है
जो अपनी इच्छा से उतरती है.
और मैं रोज़ उठता
हूँ
तथा
जीवन और मृत्यु
को ---
दोनों को कोसता
हूँ,
गाली देता हूँ.
एक अन्धी दीवार
पर
पत्थर मारता हूँ.
लावा उबल रहा है
लावा उबल रहा
है,
उफ़न रहा है,
बढ़ रहा है मेरी
ओर.
समुद्र हाँफ रहा
है,
गरज रहा है,
खाँस रहा है,
चढ़ रहा है,
गोल-गोल घूम रहा
है,
झूम रहा है इधर-
उधर.
नदियाँ, झीलें
उतर गयी हैं
या बिफ़र गयी हैं.
पशु प्यासे हैं
या डूब रहे हैं.
पक्षी गिर रहे
हैं पेड़ों से.
पेड़ मर रहे हैं.
कितना अजब दृश्य
है !
जीवन सिमट रहा
है अन्तत: !
कल फिर एक दिन होगा
कल फिर एक दिन होगा.
कल फिर मैं
चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.
पृथ्वी थम जाये
और धमनियों में
बहता हुआ खून
जम जाये अचानक.
गिर पड़े यह जीवन
जैसे गिर पड़ती
है ऊँची एक बिल्डिंग
जब प्रलय की
शुरुआत होती है
और समाप्ति भी उसी क्षण.
कल फिर एक दिन
होगा.
कल फिर मैं
चाहूँगा कि डूब जाये सूरज
अन्तिम बार.
यह वक्त नहीं जो चलता था
यह वक्त नहीं जो चलता था.
ये हम थे जो चलते थे, जो बूढ़े हो जाते
थे, फिर मर जाते थे;
ये चीज़ें थीं जो चलती थीं, जो घिस-पिट जाती
थीं, फिर ख़त्म हो जाती थीं.
वक्त नहीं, हम गुज़र जाते थे.
वक्त को किसने देखा था ?
क्या पता वह था भी कि नहीं.
तुम देखना चाहते हो
तुम देखना चाहते हो
वास्तव में कुछ सुन्दर?
तो चट्टान को देखो.
भूचाल आते हैं.
पानी बरसता है उसके ऊपर.
सूर्य पड़ता है.
वह तिड़क जाती है,
ज़रा सरक जाती है,
या खड़ी रहती है माथा तानकर.
उसके सहस्र रंग
चमकते हैं
आसमान में.
जो मेरे लिए घृणित है
जो मेरे लिए घृणित है,
वही तुम्हें प्रिय है-
वही तुम्हें प्रिय है-
दुःख क्यों है ?
इसलिए नहीं कि इच्छा है,
बल्कि इसलिए कि जीवन है.
इसलिए नहीं कि इच्छा है,
बल्कि इसलिए कि जीवन है.
मैं चाहता हूँ कि जीवन ख़त्म हो जाये.
सिर्फ मिट्टी और चट्टानें और पत्थर यहाँ हों.
तथा पर्वत. और बर्फ़.
और--
उफनता लावा.
तथा पर्वत. और बर्फ़.
और--
उफनता लावा.
मैं चाहता हूँ कि पृथ्वी अपने उद्गम की तरफ लौट जाये.
आग का
घुमन्तू गोला.
आग का
घुमन्तू गोला.
फिर बिखर जाये आसमान में.
फिर,
आसमान भी न रहे.
आसमान भी न रहे.
जीवन, जीवन
जीवन, जीवन,
यह तुमने ही किया है.
यह तुमने ही किया है.
लहू का यह प्याला
जो उम्र भर मैंने पिया है.
क्षत-विक्षत
यह जो मेरा हिया है.
यह किसने मुझे दिया है ?
किसने ?
जो उम्र भर मैंने पिया है.
क्षत-विक्षत
यह जो मेरा हिया है.
यह किसने मुझे दिया है ?
किसने ?
ओ शैतान !
तुम्हीं तो रहते हो
मेरे भीतर !
मेरी धमनियों में तुम्हीं बहते हो.
तुम्हीं तो रहते हो
मेरे भीतर !
मेरी धमनियों में तुम्हीं बहते हो.
और मैं
निर्बल यह जीव
नाचता हूँ
तुम्हारे ही
इशारों पर.
निर्बल यह जीव
नाचता हूँ
तुम्हारे ही
इशारों पर.
लो मैं फेंकता हूँ तुम्हें
उसी अन्धकार में
जहाँ से आये थे तुम
मुझे बनाने !
उसी अन्धकार में
जहाँ से आये थे तुम
मुझे बनाने !
जाओ !
और फिर लौटकर नहीं आओ !
शहर के जानवर
1.
सड़क पर बैठी हैं गायें
सहज आकार में,
इक-दूजे को छुए हुए.
सहज आकार में,
इक-दूजे को छुए हुए.
जुगाली कर रही हैं
और कितनी शान्त हैं !
और कितनी शान्त हैं !
दोनों ओर
गुज़र रही हैं गाड़ियाँ.
गुज़र रही हैं गाड़ियाँ.
2.
गर्मी के दिनों में
सबसे ज़्यादा मरती हैं
गली की गायें.
सबसे ज़्यादा मरती हैं
गली की गायें.
कचरा खा-खा कर
कैसे ऊबड़-खाबड़
हो गये हैं उनके पेट.
कैसे ऊबड़-खाबड़
हो गये हैं उनके पेट.
3.
खाना माँगते हैं
मार्किट के कुत्ते.
मार्किट के कुत्ते.
मैं फेंकता हूँ बिस्किट,
वे होड़ते हैं आपस में.
वे होड़ते हैं आपस में.
फिर आपस में ही
खेलने लगते हैं.
खेलने लगते हैं.
4.
बिल्लियाँ ढूंढती हैं
बच्चे जनने के स्थान.
बच्चे जनने के स्थान.
कभी-कभी
मैं भगा देता हूँ उन्हें.
मैं भगा देता हूँ उन्हें.
वे शिकायत भरी आँखों से
देखती हैं
देखती हैं
मेरी आँखों में.
5.
बिल्ली
बैठी होती है
छत की मुँडेर पर.
बैठी होती है
छत की मुँडेर पर.
वहाँ तक पहुँचता है
आम का पेड़.
आम का पेड़.
अक्सर वहाँ
पड़े मिलते हैं
किसी पक्षी के पंख.
पड़े मिलते हैं
किसी पक्षी के पंख.
छूती नहीं मुझे कोई हवा
छूती नहीं
मुझे कोई हवा.
मुझे कोई हवा.
मुझे देखते ही
पानी
खौलने लगता है.
पानी
खौलने लगता है.
मुझमें से फूटती हैं
असंख्य
चिंगारियाँ.
असंख्य
चिंगारियाँ.
एक आग है मेरे भीतर,
मेरे भीतर.
मेरे भीतर.
ओह मैं जल रहा हूँ,
मैं जल रहा हूँ !
मैं जल रहा हूँ !
ओह मैं जल रहा हूँ !
स्पेन के एक गाँव में
दो बूढ़े होते लोग
घर के छोटे-से लॉन में
कुर्सियों पर बैठे थे.
मुझे नहीं लगा कि वे आपस में कोई बातचीत कर रहे थे,
न ही वे कुछ पढ़ रहे थे.
वे बस
पश्चिम में
सूरज की ओर
मुँह किये बैठे थे,
धूप सेंक रहे थे,
गर्मियों की शाम की हल्की गर्म, मीठी, दुर्लभ धूप.
उन्हें देखकर बस इतना समझ आता था
कि वे लम्बे समय से आपस में परिचित थे.
वहाँ बैठे हुए वे असहज नहीं लग रहे थे, बल्कि यूँ कि जैसे वाकिफ़ थे उस जगह के कोनों-खूंजों से; एक-दूसरे की अच्छी-बुरी आदतें भी ख़ूब जानते थे और उन्हें सहते थे.
घर के छोटे-से लॉन में
कुर्सियों पर बैठे थे.
मुझे नहीं लगा कि वे आपस में कोई बातचीत कर रहे थे,
न ही वे कुछ पढ़ रहे थे.
वे बस
पश्चिम में
सूरज की ओर
मुँह किये बैठे थे,
धूप सेंक रहे थे,
गर्मियों की शाम की हल्की गर्म, मीठी, दुर्लभ धूप.
उन्हें देखकर बस इतना समझ आता था
कि वे लम्बे समय से आपस में परिचित थे.
वहाँ बैठे हुए वे असहज नहीं लग रहे थे, बल्कि यूँ कि जैसे वाकिफ़ थे उस जगह के कोनों-खूंजों से; एक-दूसरे की अच्छी-बुरी आदतें भी ख़ूब जानते थे और उन्हें सहते थे.
फिर भी वे मुझे दो क्षण-भंगुर मूर्तियों-से लगे
जो कभी भी ढह सकती थीं.
कभी भी गिर सकता था उनका करीने से सहेजा हुआ घर.
उनकी दुनिया
किसी भी क्षण
ग़ायब हो सकती थी.
जो कभी भी ढह सकती थीं.
कभी भी गिर सकता था उनका करीने से सहेजा हुआ घर.
उनकी दुनिया
किसी भी क्षण
ग़ायब हो सकती थी.
घर वैसे ही खड़ा है
घर वैसे ही खड़ा है जैसे कि वह कई साल पहले भी यहीं खड़ा होगा.
खिड़कियाँ खुली हुई हैं. धूप अन्दर आ रही है.
चीज़ें
अपनी-अपनी जगह पर उसी तरह से पड़ी हैं
जैसे कई साल पहले भी वे पड़ी होंगी.
खिड़कियाँ खुली हुई हैं. धूप अन्दर आ रही है.
चीज़ें
अपनी-अपनी जगह पर उसी तरह से पड़ी हैं
जैसे कई साल पहले भी वे पड़ी होंगी.
अलमारियाँ, पुस्तकें, शेल्फ. और
भी बहुत कुछ.
बैठक के एक कोने में दो कुर्सियाँ हैं.
उनमें से एक पर एक बूढ़ा व्यक्ति बैठा है. दूसरी ख़ाली है.
लगता नहीं कोई आयेगा.
कुछ ही समय पहले
कुछ ही समय पहले दो लोग यहाँ रहते थे.
मैंने सुना है कि वे अजनबी थे इस संसार में.
"उन्होंने कुछ नहीं सीखा. कुछ भी नहीं कमाया.
जैसे आये थे, वैसे ही चले गये.
इसीलिए यह घर इतना ख़ाली है.
उनका चिन्ह, कोई संकेत इसमें नहीं.
न ही उनका साया."
________________
ईमेल : rustamsingh1@gmail.com
मैंने सुना है कि वे अजनबी थे इस संसार में.
"उन्होंने कुछ नहीं सीखा. कुछ भी नहीं कमाया.
जैसे आये थे, वैसे ही चले गये.
इसीलिए यह घर इतना ख़ाली है.
उनका चिन्ह, कोई संकेत इसमें नहीं.
न ही उनका साया."
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कवि और दार्शनिक, रुस्तम (30 अक्तूबर 1955) के पाँच कविता संग्रह प्रकाशित हुए
हैं, जिनमें से एक संग्रह में किशोरों के लिए लिखी गयी कविताएँ हैं.
उनकी कविताएँ अंग्रेज़ी, तेलुगु, मराठी, मल्याली, पंजाबी, स्वीडी, नौर्वीजी तथा एस्टोनी भाषाओं में अनूदित हुई हैं. रुस्तम उनके
पर्चे राष्ट्रीय व् अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं. उन्होंने
नार्वे के कवियों उलाव हाउगे व लार्श अमुन्द वोगे की चुनी हुई कविताओं का अनुवाद
हिन्दी में किया है. ये दोनों पुस्तकें वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, से प्रकाशित
हुई हैं.
वे भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला, तथा
विकासशील समाज अध्ययन केंद्र, दिल्ली, में फ़ेलो रहे हैं. वे "इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली", मुंबई, के सह-संपादक
तथा श्री अशोक वाजपेयी के साथ महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, की अंग्रेजी
पत्रिका "हिन्दी : लैंग्वेज, डिस्कोर्स,राइटिंग" के संस्थापक संपादक रहे हैं. वे जवाहरलाल नेहरू
विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली, में विजिटिंग फ़ेलो भी रहे हैं.
ईमेल : rustamsingh1@gmail.com
पता नहीं इन कविताओं को कैसे लिखा गया होगा। इतना रहस्य है इस दुनिया में। कविता लिखना भी उसी रहस्य का एक अंश मात्र है। अंत की कगार पर बैठा हुआ मनुष्य जो जीवन और मृत्यु दोनों को गाली देता है, दीवार पर फेंके हुए पत्थरों को फिर फिर बीन लाता है, अपनी टुकनिया में सहेज लेता है बारंबार। वही वापिस बीन लिए गए पत्थर ही ये कविताएँ होंगी, नहीं?
जवाब देंहटाएंसंभव है कि मैं अतिसरलीकरण कर रहा होऊं... पर रुस्तम की इन कविताओं में शिल्प की चमत्कारिक भंगिमाओं का सहारा लिए बग़ैर इच्छित भाव तक सीधे पहुंच जाने की जो सिफ़त दिखाई देती है, वह शायद उनकी ऑर्गेनिक संवेदना की उपलब्धि है। मैं यहां ऑर्गेनिक का प्रयोग कुछ-कुछ ग्राम्शी के संदर्भ में कर रहा हूं। मतलब एक ऐसा कवि और चिंतक जो जीवन के तमाम मौसमों, अपने समय और समाज की गतिकी को आत्मसात करते हुए विकसित होता है।
जवाब देंहटाएंरुस्तम की ये कविताएं इतनी प्रत्यक्ष, इतनी पदार्थमय और इतनी विकल शायद इसलिए हैं कि वे अपनी संवेदना को किसी पूर्व-निर्धारित सांचे में नहीं फंसने देते।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (07-01-2019) को "प्रणय सप्ताह का आरम्भ" (चर्चा अंक-3240) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
पाश्चात्य प्रणय सप्ताह की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल गुरुवार (07-02-2019) को "प्रणय सप्ताह का आरम्भ" (चर्चा अंक-3240) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
पाश्चात्य प्रणय सप्ताह की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
हम कलम को मैने हॉस्टल नं एक ( मेहर चंद महाजन हॉल) के कॉमन रूम में देखा था । कविताएं पता नहीं समझ आई थी या नहीं , लेकिन मैं इस पर आसक्त हो गया । मुझे लगा कि खुद को एक्प्रेस करने का यह कितना सुंदर आईडिया है !
जवाब देंहटाएंहम कलम ने मुझे सहगल सरं से मिलाया । और बाद में उन से विधिवत क्लास रूम में आधुनिक हिंदी कविता पढ़ी
उन दिनों कविता को लेकर मन खूब उछलता था । लेकिन झेंपता भी बहुत था । आज कहना चाहिए मुझे थैंक्स हम कलम ।
पढ़ गया, मर्म को भरती-उघाड़ती कविताएं। रुस्तम जी को बधाई। कवि वक्तव्य बेहतरीन। समालोचन और अरुण जी को भी बधाइयाँ। शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया Arun Dev Ji. Rustam Singh ji.
जवाब देंहटाएंसुबह आपका गद्य पढ़ा।। फिर बहुत देर बाद कविताएँ भी।
सब कुछ इतना सहज, संवेदनसिक्त, और कुछ भी कहने से जो प्राप्त हुआ है आपके रचनाकर्म से वह छिटक जाएगा, सो बस उस सराबोर मन में हूँ।
जीवन ऐसे रचनाकर्म से गुजर गहन हुआ है।
बहुत मन से दुआएँ कि यह रचना संसार बना, बचा रहे।
रुस्तम को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है ।हमेशा की तरह इस बार फिर खुद को छू कर निकली । रुस्तम की कवितायों को कभी नहीं कह पाई कि यह कैसी हैं बस पढ़ती हुई खो जाती हूं ।न शब्द विचार न भाव न विषय के बारे में सोचना होता है बस बहाव और बहाव में भी अजीब ठहराव ....और इस वक्त उनको पढ़ कर मै खुद ठहराव में हूं ...
जवाब देंहटाएंआप खुद एक शांत उपस्थिति हैं और यही आपके मन के विचार को एक केंद्र बिंदु देता है.
जवाब देंहटाएंये गद्य पढ़कर उसी केंद्र पर आना भी एक सौभाग्य है.
Rustam sir ��
कोमल मन की सुन्दर बातें और कविताएँ. पढ़कर अच्छा लगा. कवि तक शुभकामनाएं और बधाई पहुँचे.
जवाब देंहटाएंये कविताएं कैसे लिखी गई होंगी... इसका जवाब क्या होता होगा। नरेश जी ने इन्हें संवेदना के बने बनाये सांचों//खांचों से बाहर की कविताएं ठीक ही कहा है।
जवाब देंहटाएंकिंचित , ये सभी कवि के अनायास अर्जित विचार की
तान और निजता को आगे बढ़ाती अधू री छोड़ दी गई
कविताएं हैं। ज्यादातर विचार-चित्र हैं। शब्दों के स्ट्रोक उन्हें
अमूर्त चित्रों की श्रेणी में ही बनाए रखते हैं। कवि के भीतरी जगत मेंं दार्शनिक स्तर पर जीवन कीगुत्थियों से लड़ने का माद्दा है।
रुस्तम जी स्पेन के एक गांव में और शहर के जानवर कविताओं के ठहरे {स्टील लाइफ स्कैच} हुए जीवन के चित्रों की सतरें खींचने के पहले/ जीवन...जीवन /कविता में ज्यादा जीवन्त हैं...
लो मै फैंकता हूँ /उसी अंधकार में/जहाँ से आये थे तुम
/मुझे बनाने..."
ऐसी कविता जो भीतर बस गये शैतान से साक्षात्कार करा रही है,उसे ललकार भी रही है। रुस्तम शैली की ईमानदार अभिव्यक्ति है।
इस कविता का शैली-वैज्ञानिक अध्धयन होना चाहिये। तभी भावक इसकी अन्य परतों तक पहुंच सकेगा।।
प्रताप सिंह, वसुन्धरा ।।
रुस्तम की कविताएँ छापने के लिए, समालोचन धन्यवाद का पात्र है। किसी दुर्लभ द्वीप जैसी यह अभिव्यक्ति, एक स्वप्न संसार है, हमें अपने लिए अपना स्वप्न संसार गढ़ने का अवसर देती.. ये बहुत आराम से पढ़ी जाने वाली कविता है, लेकिन यह ख़ुद एक बेआरामी की कविता भी है... यहाँ हमारे बाहर की दुनिया नज़र नहीं आती, पर इसके पीछे हमारे बाहर की दुनिया है.. इसका भेद हमी को खोलना है.. इन कविताओं का समाजशास्त्र पढ़ने वाले आलोचक की प्रतीक्षा है.. यह मेरी व्यक्तिगत प्रतीक्षा है.. आशा है, इन कविताओं को ऐसी कोई प्रतीक्षा नहीं है.. ये स्वयं एक प्रतीक्षा हैं, या प्रतीक्षा के बीच से उभरी एक कौतूहल सम्पन्न दुनिया है.. हमारे भीतर के ठहरे जल को झिंझोड़ती हुई। इतना कहना, इन कविताओं का गहरे में सार्थक कविता हो जाने की विनम्र घोषणा है। इतना कहना, यह कहना भी है: हम सदा एक समर्थ कवि या कविता की तलाश करते रहे हैं। रुस्तम की तरह, ऐसे कवि हमारे पास कई हैं। अब एक समर्थ पाठक की खोज की जाए। मौजूदा हिंदी साहित्य के सामने पाठक तलाशने से बड़ी चुनौती समर्थ पाठक या पाठक समूह तलाशने या तैयार करने की है। समर्थ ही नहीं, अपने आस्वादन पर मुखर होकर बात करने वाले पाठक की भी।
जवाब देंहटाएंसमय आ गया है कि रुस्तम की अनंत ख़ामोशी का मूल्य चुकाया जाए। फ़ौज में बने रहते तो कर्नल, जनरल होते। हिंदी कविता और उसका अलिखित वर्तमान इतिहास, क़ुरबानी के जज़्बे से भरे, अपने इस प्रतिबद्ध सिपाही का नाम अच्छे से, सम्मान और स्नेह से याद रख ले, तो अभी के लिए बहुत होगा।
पंजाब की पृष्ठभूमि से आए साहित्यकारों के कथा साहित्य पर, हिंदी समालोचना में, यदा कदा बात हो जाती है। तेज़ी ग्रोवर, रुस्तम और लाल्टू को बूझते लगता है, कविता पर भी बात होनी चाहिए थी । यह अभी बची है।कथाकारों की तरह ये भी, हिंदी कविता के मिज़ाज और हिंदी परिवेश को, अन्यतम तरीके से, आधुनिक बनाने में जुटे हैं। अलग-अलग अर्थों में, इन्होंने हिंदी कविता को एक विशिष्ट वैश्विक छूअन भी दी है।
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