नामवर सिंह का जे. एन. यू. आना और विश्वविद्यालय की व्यवस्था में हिंदी साहित्य के पठन - पाठन के प्रति उनके समर्पण और संघर्ष की कथा यहाँ आप पढ़ते हैं.यह एक ऐसा विषय है जिस पर मतान्तर रहा है. अतिओं के छोर पर वैसे भी नामवर जी रखे जाते हैं.
इस बातचीत में विस्तार, गहराई और एक जुड़ाव के साथ नामवर सिंह हैं. हिंदी अध्यापन पर इस तरह की सामग्री देखने को नहीं मिलती है, अमूमन. सुमन केशरी की इस महत्वपूर्ण बैठकी में जे.एन.यू में नामवर सिंह का एक युग ही आ गया है.
यू.पी.एस.सी. जैसी ही संस्था यूनिवर्सिटी के लिए भी बनाई जानी चाहिए..
नामवर सिंह से सुमन केशरी की बातचीत
______________
सुमन केशरी:
सुमन केशरी:
आप जोधपुर से जे.एन.यू. आए
थे.
नामवर सिंह:
जोधपुर के अप्रिय
प्रसंग की चर्चा न ही करें तो अच्छा है. उस प्रसंग का सम्बन्ध
‘आधा गाँव’ को लेकर है. वहाँ किताब कोर्स में
लगाने का विरोध हुआ था. अन्यथा जोधपुर का ऋण मेरे ऊपर है, क्योंकि
जोधपुर ने पहली बार मुझे प्रोफेसर बनाया बिना इंटरव्यू के. मेरी
अनुपस्थिति में मैं वहाँ चुना गया था. मुझे ऑफर देने में, निर्णायक
भूमिका में, विशेषज्ञ के रूप में बुलाए गए विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन
के उपकुलपति श्री शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ थे और कुलपति थे प्रो. वी.वी. जॉन, जो
अहिन्दी भाषी थे और जिनका ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में
एक नियमित कॉलम छपता था. वे अंग्रेजी साहित्य के बहुत अच्छे विशेषज्ञ थे. उनके
और राजस्थान के बारे में बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं. वे
साहित्य प्रेमी थे और ‘कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ के
एडीटर थे, जहाँ से ‘क्वेस्ट’ नाम की एक पत्रिका निकलती थी. वे
राजनीतिक रूप से कम्यूनिस्ट विचारधारा के विरुद्ध रहा करते थे. सुमन
जी ने उनसे बता दिया था कि और सब ठीक है लेकिन वह (मैं) राजनीतिक
रूप से कम्यूनिस्ट है. वह कम्यूनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ चुका है.
वी.वी. जॉन
ने हँसते हुए कहा कि ‘‘है तो रहा करे, मुझे तो कन्वर्ट नहीं
कर देगा और अगर वो अच्छा स्कॉलर है, विद्वान है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है, मैं
तो ऐसे ही लोगों को ले आना चाहता हूँ.’’ और इस तरह से उस
विश्वविद्यालय में बहुत से पदों पर अच्छे स्कॉलर आए, जैसे-संस्कृत
के प्रो. जोशी, अंग्रेजी के उषा कृष्णमूर्ति, जो
केरलवासी थे. विज्ञान विभाग में भी उन्होंने ऐसे कई लोगों को रखा. प्रो. जॉन
उस विश्वविद्यालय में इस तरह कई लोगों को ले आए और जोधपुर यूनिवर्सिटी ज्यादा
आकर्षक, बल्कि जयपुर यूनिवर्सिटी से ज्यादा आकर्षक हो गई थी. प्रो. जॉन
विद्याप्रेमी, अच्छे एकेडमीशियन और पक्के क्रिश्चियन थे. संडे
को नियमित चर्च जाते थे, कैथलिक थे, केरला के थे. जब
उन्होंने कम्पेरेटिव लिटरेचर का एक नया डिपार्टमेंट खोला तब वे साठ साल के हो चुके
थे. वे अज्ञेय को इस डिपार्टमेंट में ले आए, इसमें
उन्होंने मेरी राय ली थी.
एक बड़ा ही बौद्धिक वातावरण था. मैंने जो जोधपुर में शुरू किया था उसे करने के लिए ही सम्भवतः आगे मुझे जे.एन.यू. आना था. तो उन्होंने वहाँ पूरी छूट दी कि ‘‘एकदम नया कोर्स बनाओ.’’ मैंने सारे कोर्स बदलकर जोधपुर में एक नए ढंग का कोर्स बनाया-बी.ए. का थ्री ईयर कोर्स बनाया, प्री यूनिवर्सिटी का कोर्स बनाया, फिर उनके लिए किताबें तैयार कीं. आज भी मेरे पास उनकी कॉपियाँ होंगी. मैंने करीब एक दर्जन किताबें तैयार कीं. प्री यूनिवर्सिटी कोर्स से लेकर बी.ए. तक के कोर्स के लिए. गद्य-पद्य संकलन भी तैयार किए. चूँकि वहाँ रहते हुए मैं वहाँ के पब्लिक सर्विस कमीशन का मेम्बर भी था और राजस्थान बोर्ड में हिन्दी कमेटी का चेयरमैन था, अतः कोर्स तैयार करते समय मैंने ये बराबर ध्यान में रखा कि वहाँ के पास किए लड़के यहाँ पब्लिक कमीशन में आ सकें.
एक बड़ा ही बौद्धिक वातावरण था. मैंने जो जोधपुर में शुरू किया था उसे करने के लिए ही सम्भवतः आगे मुझे जे.एन.यू. आना था. तो उन्होंने वहाँ पूरी छूट दी कि ‘‘एकदम नया कोर्स बनाओ.’’ मैंने सारे कोर्स बदलकर जोधपुर में एक नए ढंग का कोर्स बनाया-बी.ए. का थ्री ईयर कोर्स बनाया, प्री यूनिवर्सिटी का कोर्स बनाया, फिर उनके लिए किताबें तैयार कीं. आज भी मेरे पास उनकी कॉपियाँ होंगी. मैंने करीब एक दर्जन किताबें तैयार कीं. प्री यूनिवर्सिटी कोर्स से लेकर बी.ए. तक के कोर्स के लिए. गद्य-पद्य संकलन भी तैयार किए. चूँकि वहाँ रहते हुए मैं वहाँ के पब्लिक सर्विस कमीशन का मेम्बर भी था और राजस्थान बोर्ड में हिन्दी कमेटी का चेयरमैन था, अतः कोर्स तैयार करते समय मैंने ये बराबर ध्यान में रखा कि वहाँ के पास किए लड़के यहाँ पब्लिक कमीशन में आ सकें.
मैंने इस तरह के
पाठ्यक्रम तैयार किए जिससे दोनों संस्थानों को फायदा हो. मैं
जोधपुर अक्टूबर 1970 में पहुँचा और जे.एन.यू. सितम्बर
1974 में आया. मैं रहता तो जोधपुर में था किन्तु जयपुर अक्सर आया-जाया
करता था. जयपुर में कई मित्र थे, लेकिन
हिन्दी के नहीं. उनमें से एक प्रोफेसर दया कृष्ण सागर के दिनों से ही
मेरे मित्र थे और इलाहाबाद के दिनों के मित्र थे प्रोफेसर गोविंदचन्द्र पांडेय. हिन्दीवालों
में प्रोफेसर सरनाम सिंह से मेरे सम्बन्ध बहुत अच्छे हो गए थे.
तो जयपुर में बड़ा
अच्छा समाज था. एक और अनुभव जो मुझे जोधपुर जाने से मिला वह था एक बड़ा
खुला हुआ नया वातावरण और सबसे बड़ी बात कि हिन्दी विभाग को नए ढंग से बनाने की
चुनौती, जिनमें कुछ नई नियुक्तियों का अवसर भी उपलब्ध था. वहाँ
प्रगतिशील लेखक संघ को भी मैंने मजबूत किया और इस तरह से एक साहित्य समाज भी वहाँ
बन गया. लेकिन जोधपुर जहाँ मैंने ये प्रयोग किए, था
तो एक छोटा-सा शहर ही और उसका प्रभाव क्षेत्रीय ही रह सकता था, अखिल
भारतीय नहीं हो सकता था. जोधपुर में रहते हुए ही साहित्य अकादमी की नई जनरल
कौंसिल बनी और संयोग से 1971
के आस-पास मैं उसका सदस्य हो गया. तो
दिल्ली से हमारा सम्बन्ध साहित्य अकादमी के चलते बना रहा. दिल्ली
से गया था तो दिल्ली का साहित्यिक वातावरण और मित्र लोग तो यहीं रह गए थे. मैं
अक्सर अप-डाउन करता रहता था. अकेला
तो था ही.
इस बीच जे.एन.यू. बन
गया था. हमारे जोधपुर के कई मित्र जे.एन.यू. आ
गए थे. इनमें योगेन्द्र सिंह भी थे. बहुत
बाद में प्रोफेसर योगेन्द्र अलघ आए जो उपकुलपति होकर आए थे. वे
पहले जोधपुर में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर थे. उन्हें
मैं जोधपुर के दिनों से ही जानता था. संयोग से उसी समय
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग में प्रोफेसर सतीशचन्द्र चेयरमैन हो गए थे. उनसे
हमारा पुराना सम्बन्ध था. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की कमेटी में मैं था. तो
एक पूरा मैदान मुझे मिला, जोधपुर में प्रोफेसर होने से, क्योंकि
अगर मैं लेक़्चरार होता तो इन कमिटियों में न होता. प्रोफेसर
होने के जितने लाभ हो सकते थे और अवसर मिल सकते थे-वो
सब मुझे मिले. तो अकसर मैं जब दिल्ली आता था तो योगेन्द्र जी से, विपिन
जी से मिलता था. विपिन को मैं सन् 1965 से
जानता था, दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग में थे. और
कई लोग थे जिनसे मेरा परिचय था.
राही मासूम रज़ा के
नाते भी कई लोग जानते थे. जोधपुर में दो-ढाई साल बीतते-बीतते
कुछ ऐसा हुआ, कुछ ऐसी राजनीति चली कि प्रोफेसर वी. वी. जॉन
को जाना पड़ा. त्यागपत्र दे दिया उन्होंने. उनके
बाद लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीति विभाग के प्रोफेसर थे-प्रो. मसलदान. वो
उपकुलपति बनकर आए. बहुत भले आदमी थे लेकिन प्रोफेसर जॉन के जाने के बाद वो
जो एक माहौल था यूनिवर्सिटी का, जाहिर है, वो तो रहा नहीं और मेरा मन भी उचाट था. लक्ष्य
तो यही था कि दिल्ली वापस आ जाऊँ.
खासतौर से जे.एन.यू. बनने
के बाद एक आकर्षण पैदा हो गया था कि यहाँ कुछ बड़ा काम करने का मौका मिलेगा. उन
दिनों जे.एन.यू. के स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ में विदेशी भाषाएँ ही पढ़ाई जाती
थीं. प्रोफेसर नागचौधरी उपकुलपति थे. उन्होंने
कहा कि जे.एन.यू. में भारतीय भाषाओं को भी होना चाहिए. मुझे
लगता है कि इसकी प्रेरणा उन्हें जापानी भाषा के लेक्चरार सत्यभूषण वर्मा साहब से
मिली होगी. वर्मा जी ने मेरे साथ काम किया था. जापानी
भाषा जानते थे इसलिए जापानी विभाग में लेक्चरार हुए. तो
गर्मियों में हिन्दी विभाग की रूपरेखा तय करने के लिए एक मीटिंग हुई जिसमें मुझे
बुलाया गया. तब तक यह नहीं कहा गया था कि मुझे यहाँ आना है. मैं
तो विशेषज्ञ के रूप में बुलाया गया था. चूकि यहाँ स्कूल और
सेन्टर का कॉन्सेप्ट है इसलिए मैंने कहा कि हिन्दी-उर्दू
को एक ही सेन्टर में रखा जाए- सेन्टर ऑफ इंडियन लैंग्वेजेज.
जोधपुर से ही मेरी यह धारणा थी कि हिन्दी और उर्दू की पढ़ाई साथ-साथ होनी चाहिए, यह दोनों ही के हक में है. दोनों की उपाधियाँ अलग-अलग दी जाएँ पर दोनों की पढ़ाई साथ-साथ हो. यह बात मैंने उस मीटिंग में रख दी. इसके बाद उपकुलपति ने मुझे बुलाया और कहा कि हम चाहते हैं कि आप हमारे यहाँ आ जाएँ. सारी कार्यवाही पूरी करने में विश्वविद्यालय को कुछ समय लगा और मुझे सितम्बर 1974 में ऑफर मिल गया. उसी समय आगरा विश्वविद्यालय के उपकुलपति बालकृष्ण राव ने मुझे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी विद्यापीठ के डाइरेक्टर पद का ऑफर भेज दिया. उन्होंने कहा कि रामविलास शर्मा यहाँ से अवकाश प्राप्त कर रहे हैं. अब तुम यहाँ आ जाओ. मैंने उन्हें बताया कि मुझे जे.एन.यू. का पत्र मिल चुका है और मैं वहीं जाना चाहता हूँ. जोधपुर के बाद आगरा का मतलब था ताड़ से गिरे खजूर पर अटके, पर राव नहीं माने. बोले-ये डाइरेक्टर की पोस्ट है. मैंने उनसे कहा कि पद महत्त्वपूर्ण नहीं है.
जोधपुर से ही मेरी यह धारणा थी कि हिन्दी और उर्दू की पढ़ाई साथ-साथ होनी चाहिए, यह दोनों ही के हक में है. दोनों की उपाधियाँ अलग-अलग दी जाएँ पर दोनों की पढ़ाई साथ-साथ हो. यह बात मैंने उस मीटिंग में रख दी. इसके बाद उपकुलपति ने मुझे बुलाया और कहा कि हम चाहते हैं कि आप हमारे यहाँ आ जाएँ. सारी कार्यवाही पूरी करने में विश्वविद्यालय को कुछ समय लगा और मुझे सितम्बर 1974 में ऑफर मिल गया. उसी समय आगरा विश्वविद्यालय के उपकुलपति बालकृष्ण राव ने मुझे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी विद्यापीठ के डाइरेक्टर पद का ऑफर भेज दिया. उन्होंने कहा कि रामविलास शर्मा यहाँ से अवकाश प्राप्त कर रहे हैं. अब तुम यहाँ आ जाओ. मैंने उन्हें बताया कि मुझे जे.एन.यू. का पत्र मिल चुका है और मैं वहीं जाना चाहता हूँ. जोधपुर के बाद आगरा का मतलब था ताड़ से गिरे खजूर पर अटके, पर राव नहीं माने. बोले-ये डाइरेक्टर की पोस्ट है. मैंने उनसे कहा कि पद महत्त्वपूर्ण नहीं है.
नए विभाग को शुरू
करने का काम मुझे ज्यादा चुनौती भरा लग रहा है, इसलिए
जे.एन.यू. ही जाना पसन्द करूँगा. तो
बालकृष्ण राव जी बोले कि ‘‘भई, वह तो मैंने तमाम विरोधों के बावजूद पास करा लिया है. यहाँ
तरह-तरह के लोग थे और मैं उन्हें लेना नहीं चाहता था, फिर
मेरी रामविलास जी से भी बात हो गई है और उन्होंने कहा है कि नामवर सिंह को ले लो. तो
अब तुम्हें यहाँ आना ही पड़ेगा. अभी ज्वाइन तो नहीं किया है जे.एन.यू. में?’’ मैंने
कहा, ‘‘ज्वाइन तो नहीं किया है,’’ तो
बोले, ‘‘हमारे यहाँ ज्वाइन करो.’’ जे.एन.यू. की
चिट्ठी मिल चुकी थी. तब मैंने उपकुलपति से कहा कि देखिए मैं कोशिश करूँगा कि
एक महीना वहाँ रहूँ और ठीक एक महीने के बाद यहाँ आ जाऊँ और इस बीच मैं बालकृष्ण
राव जी को भी मना लूँगा. उनका आदेश है, और उनकी बात भी रह
जाए, तो मैं आगरा जाऊँगा. आगरा
का क्वार्टर खाली था लेकिन मैं वहाँ गया नहीं, गेस्ट
हाउस में रहता था और शनिवार को दिल्ली आ जाता था. मेरा
सामान दिल्ली में मार्कंडेय सिंह जी के यहाँ था. वे
रेलवे में थे और स्कूल के दिनों के दोस्त थे.
रेलवे स्टेशन के पास उनका बहुत बड़ा बँगला था, जहाँ एक कमरा मेरे लिए रहता था. जब भी मैं दिल्ली आता, वहीं रहता था. मार्कंडेय जी, चन्द्रशेखर के बहुत अच्छे मित्र थे, क्लासफेलो थे. मेरे आगरा जाने के बाद डॉ. रामविलास शर्मा की विदाई हुई और उन्होंने मुझे चार्ज दिया. आगरा-दिल्ली अप-डाउन करते हुए मैं जब भी सोमवार की सुबह दिल्ली से आगरा जाता तो सीधे रामविलास जी के घर पहुँचता और इंस्टीट्यूट की अम्बेसडर कार से उनको अपने साथ ही संस्थान ले आता. यह नित्य का नियम था. यू. जी. सी. का एक प्रोजेक्ट रामविलास जी को मिला था. ज्वाइन करने के बाद मैंने इस आशय का एक पत्र उन्हें दिया कि वे विश्वविद्यालय में प्रोजेक्ट पूरा करने तक रहेंगे. करीब-करीब एक महीना मैं के. एम. इंस्टीट्यूट में रहा. फिर मैंने बालकृष्ण राव से कहा कि अब आपकी बात रह गई, आपको कोई नया डाइरेक्टर मिल जाएगा.
रेलवे स्टेशन के पास उनका बहुत बड़ा बँगला था, जहाँ एक कमरा मेरे लिए रहता था. जब भी मैं दिल्ली आता, वहीं रहता था. मार्कंडेय जी, चन्द्रशेखर के बहुत अच्छे मित्र थे, क्लासफेलो थे. मेरे आगरा जाने के बाद डॉ. रामविलास शर्मा की विदाई हुई और उन्होंने मुझे चार्ज दिया. आगरा-दिल्ली अप-डाउन करते हुए मैं जब भी सोमवार की सुबह दिल्ली से आगरा जाता तो सीधे रामविलास जी के घर पहुँचता और इंस्टीट्यूट की अम्बेसडर कार से उनको अपने साथ ही संस्थान ले आता. यह नित्य का नियम था. यू. जी. सी. का एक प्रोजेक्ट रामविलास जी को मिला था. ज्वाइन करने के बाद मैंने इस आशय का एक पत्र उन्हें दिया कि वे विश्वविद्यालय में प्रोजेक्ट पूरा करने तक रहेंगे. करीब-करीब एक महीना मैं के. एम. इंस्टीट्यूट में रहा. फिर मैंने बालकृष्ण राव से कहा कि अब आपकी बात रह गई, आपको कोई नया डाइरेक्टर मिल जाएगा.
राव बोले कि अगर मैं
नियम का सख्ती से पालन करूँ तो आपको तीन महीने से पहले नहीं छोड़ सकता. मैंने
कहा कि आपका टर्म तो खुद खत्म हो रहा है और आप दुबारा उपकुलपति होंगे या होना
चाहेंगे अथवा नहीं पर आपके यहाँ न रहने पर इस संस्थान की जो हालत होगी, वह
आप खुद जानते हैं. यहाँ की जो पॉलिटिक्स है और जिस तरह के लोग यहाँ हैं
उसमें आपकी छाया के बिना काम करना मुश्किल होगा. सोचिए, मेरा
क्या हाल होगा? फिर रामविलास जी भी यहाँ नहीं हैं, एक
प्रोजेक्ट पर ही काम कर रहे हैं. इस पर उन्होंने कहा कि ठीक है वरना मैं तो आपसे तीन
महीने की तनख्वाह रखवाकर ही छोड़ता. मैंने कहा, मैं एक काम करता हूँ, एक
महीने की जो तनख्वाह मिलनी है वो मैं लिखकर दे देता हूँ कि मैंने उसे संस्थान को
दिया.
उन्होंने संस्कृत में
गीता का एक श्लोक लिखा और दिया. वो मेरे पास है अभी भी. अक्षर
धँधले हो गए हैं. एकाध शब्द पढ़ा नहीं जाता- यथोक्तं
तत्रभवता श्रीकृष्णेन ‘‘सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्.’’...अतः
यथानिश्चितं सम्यग् विचारणानंतरं यथाऽदिष्टम् अन्तःकरणेन तथैव कर्तव्यम्. आगे
लिखा है: ‘‘शुभं भवतु.’’ हस्ताक्षर
बालकृष्ण राव: (26.10.74.)
उन्होंने रामविलास जी
की विदाई और मेरे अभिनन्दन की तस्वीरें दीं. मेरे
जोधपुर और आगरा रहते हुए ही जे.एन.यू. में उर्दू की दो नियुक्तियाँ हो चुकी थीं. मुझे
ठीक से याद नहीं है, हिन्दी की नियुक्ति मेरे सेन्टर में आने के बाद हुई थी
या फिर मैं विशेषज्ञ के रूप में आया था. क्योंकि जो चयन समिति
हुई थी, सम्भवतः मेरे आने के बाद ही हुई थी क्योंकि डॉ. नगेन्द्र
विशेषज्ञ थे, एक विशेषज्ञ देवेन्द्रनाथ शर्मा थे और मैं अध्यक्ष था. रीडर
और लेक्चरर की दो नियुक्तियाँ हुईं जिसमें सुधेश जी और शोभा जी आए. गंगा
प्रसाद विमल भी कंडिडेट थे और मैं चाहता था कि उन्हें ले आऊँ, विमल
जाकिर हुसैन में काम कर रहे थे. डॉ. नगेन्द्र ने विमल का विरोध किया, शोभा
जी चूँकि यू.जी.सी. चेयरमैन की पत्नी थीं तो लगभग तय-सा
था, और मुझे बता दिया गया था.
उन दिनों ओल्ड कैम्पस
ही था. वहाँ स्कूल ऑफ लैंग्वेजेज़ की बिल्डिंग में कमरे ही नहीं
थे. फर्स्ट-फ्लोर पर डीन का कमरा होता था. उन्होंने
बताया कि दो कमरे खाली हैं. एक आप ले लीजिए, दूसरा
कमरा जो हमारे ऑफिस के ठीक सामने है, उर्दू के किदवई साहब
ले लेंगे. बाकी लोगों के लिए कोशिश करते हैं, जब
कमरे खाली होंगे तब मिल जाएँगे. जर्मनवाले चौथे तले पर थे; फ्रेंचवाले
दूसरे तले पर, तीसरे पर कोई और था यानी जब हम आए थे तो जगह भी नहीं थी.खास बात यह कि हम
लोगों के आने के पहले ही जो दबाव पड़ा हमारे छात्रों पर...प्रवेश
प्रक्रिया के द्वारा जे.एन.यू. में हिन्दी के सात छात्र एम.ए. के
लिए जुलाई-अगस्त में ही प्रवेश ले चुके थे.
स्थिति यह थी कि छात्र हैं लेकिन पढ़ानेवाला कोई अध्यापक है ही नहीं. उर्दू का एडमीशन अगले साल हुआ था. हमारा ऑफिस और क्लासरूम एक ही था, जिसमें हम पढ़ाते भी थे. हमारे पहले विद्यार्थियों में मनमोहन, घनश्याम मिश्रा, विजय चौधरी के अलावा चार विद्यार्थी और थे जिनमें दो लड़कियाँ भी थीं. इस प्रकार हिन्दी में सात विद्यार्थी थे. उर्दू में नामांकन नहीं होने के कारण वे निश्चिन्त थे.
स्थिति यह थी कि छात्र हैं लेकिन पढ़ानेवाला कोई अध्यापक है ही नहीं. उर्दू का एडमीशन अगले साल हुआ था. हमारा ऑफिस और क्लासरूम एक ही था, जिसमें हम पढ़ाते भी थे. हमारे पहले विद्यार्थियों में मनमोहन, घनश्याम मिश्रा, विजय चौधरी के अलावा चार विद्यार्थी और थे जिनमें दो लड़कियाँ भी थीं. इस प्रकार हिन्दी में सात विद्यार्थी थे. उर्दू में नामांकन नहीं होने के कारण वे निश्चिन्त थे.
छात्रों के चयन में हमारा
कोई हाथ नहीं था, विश्वविद्यालय द्वारा चयन किया गया था. आते
ही हमारा पहला काम था पाठ्यक्रम बनाना क्योंकि विद्यार्थी आ गए थे, कोई
पाठ्यक्रम नहीं था, पढ़ाई भी नहीं हो रही थी. पहला
सेमेस्टर दिसम्बर तक खत्म करना था, जिसकी परीक्षा भी होनी थी. अध्यापकों
में सुधेश जी और शोभा जी आ गए थे. बी. एम. चिन्तामणि के पिताजी और हमारे नागचौधरी साहब के पिताजी
मित्र थे, पारिवारिक सम्बन्ध थे. इस
नाते नागचौधरी जी ने मुझे घर पर बुलाकर चिन्तामणि जी को टेम्परेरी रखने की बात की. द्विवेदी
जी के नाते भी चिन्तामणि को मैंने ले लिया. इस
प्रकार अध्यापक तो हो गए थे और पाठ्यक्रम को लेकर जो एक टेंटेटिव नक्शा मेरे दिमाग
में था, वो दे दिया. मुकम्मल कोर्स तो
दूसरे सेमेस्टर से हमने बनाया अर्थात् जनवरी-फरवरी
तक सही कोर्स बन पाया.
सुमन केशरी-
आप जे.एन.यू. में
1974 में आए, कोर्स 1975
में तैयार हुआ और इमरजेंसी भी 1975 में
ही लगी, जिसमें कुछ स्टूडेंट्स भी पकड़े गए, तो
उस समय क्या स्थिति रही? आप लोगों को पढ़ाने में कोई दिक्कत आई?
नामवर सिंह-
इमरजेंसी के समय मैं
सर्वोदय इन्क्लेव में था, कैम्पस में नहीं था. क्योंकि
उस समय तक रहने का कोई निश्चित ठिकाना नहीं था. सर्वोदय
इन्क्लेव में ही किसी ने मकान खाली किया था, जिसे
मैंने यूनिवर्सिटी के कहने से किराए पर ले लिया था. इमरजेंसी
जून 1975 में लगी थी और मैं कैम्पस आया था अगस्त या सितम्बर 1975 में. इत्तफाक
से वो मकान गोपीचन्द नारंग के घर के बगल में ही पड़ता था. उनके
कारण एक कठिनाई में पड़ा था इसलिए जिक्र कर रहा हूँ. नारंग
साहब चाहते थे कि मैं जे.एन.यू. में उर्दू के प्रोफेसर के लिए उनके बारे में कहूँ, क्योंकि
उस समय वो रीडर थे.
जैसा कोर्स जोधपुर
में बनाया था, उसका एक नक्शा मेरे दिमाग में था. तत्काल
ही डिग्री के लिए कुछ टेक्स्ट और कोर्स की आवश्यकता थी. जैसा
कि मैंने बताया कि अध्यापक केवल तीन ही थे-मैं, शोभा
जी और सुधेश जी. शोभा जी को भक्तिकाल के अलावा किसी और क्षेत्र में
दिलचस्पी थी नहीं. सुधेश जी को मैंने लिया ही इसलिए था कि कम-से-कम
आधुनिक का टेक्स्ट तो पढ़ा लेंगे, मैं कितना पढ़ा पाऊँगा. मैंने
अपने लिए इतिहास और आलोचना सम्बन्धी विषयों को रखा. इस
प्रकार एक ढाँचा तैयार हो गया. भक्तिकाल शोभा जी, आधुनिक
कविता के साथ कुछ उपन्यास और कहानी सुधेश जी, बाकी
मैं. तत्काल मैंने दो सेमेस्टर का कोर्स बनाया और उसको अप्रूव
करा लिया. हमने यह तय किया कि ‘हिन्दी
साहित्य का इतिहास’ नाम का अलग से कोई कोर्स नहीं होगा बल्कि हम इसे टुकड़ों
में बाँट देंगे और उसके समानान्तर उसी तरह का टेक्स्ट होगा. इसके
साथ ही हिन्दी में भारतीय काव्यशास्त्र और यूरोपीय सिद्धान्त, पाश्चात्य
समीक्षा का एक पर्चा भी होता था.
मैं जिस
विश्वविद्यालय से आया था, वहाँ वार्षिक परीक्षा होती थी इसलिए सेमेस्टर सिस्टम को
समझने में जरा देर लगी. सेमेस्टर सिस्टम के अनुसार कोर्स स्ट्रक्चर को समझना था
क्योंकि यह मेरे लिए बिलकुल नया था. इसलिए कुछ चीजें किदवई साहब और उर्दू के और भी लोगों के
साथ मिलकर तय कीं. हमने कहा कि कुछ चीजें हिन्दी-उर्दू
दोनों ही विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य हो पहला यह कि हिन्दी का विद्यार्थी उर्दू
अवश्य पढ़े और उर्दू लिपि में पढ़े, क्योंकि स्क्रिप्ट उसको आनी चाहिए. इसके
साथ ही कविताओं का और गद्य का एक सलेक्शन हो. इसमें
कोई फिक्स्ड टेक्स्ट नहीं था बल्कि यह टेक्स्ट टीचर इंचार्ज पर छोड़ दिया गया था. हमारा
मतलब यह था कि विद्यार्थी स्क्रिप्ट सीख ले, ग्रामर
सीख ले, शब्द-सम्पदा कुछ हो जाने पर मीर, गालिब
के कष्लाम को पढ़ सके. इस तरह टीचर कुछ चुनी हुई गजलें, नज्में, कहानियाँ
लड़कों को पढ़ाएँगे.
उर्दू में बुरा हाल
था क्योंकि उर्दू के लड़कों ने हिन्दी पढ़ने से इनकार कर दिया. उनका
कहना था कि हम हिन्दी पढ़कर आए हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार में हाई स्कूल तक हिन्दी अनिवार्य
है. केवल हिन्दीवालों ने उर्दू पढ़ी.एक और कोर्स जो हमने
अनिवार्य बनाया, वह था ‘हिन्दी-उर्दू प्रदेश की संस्कृति का इतिहास’. यह
कोर्स भी दोनों के लिए था. उर्दू के विद्यार्थी इसका भी विरोध करते थे, इसे
नहीं पढ़ना चाहते थे. लेकिन मैंने कहा कि कम-से-कम
एक कॉमन कोर्स तो रहेगा ही जिसे आधा मैं (हिन्दीवाले) और
आधा किदवई साहब (उर्दूवाले) पढ़ाएँगे. तब
तक मोहम्मद हसन साहब नहीं आए थे, क्योंकि उस समय वे नेहरू फेलोशिप पर थे. वे
एक साल बाद आए. ऐसे वे आते रहते थे. गोपीचन्द
नारंग लगे हुए थे, मुझसे बार-बार कहते थे कि मुझे
ले लीजिए. पर मैंने तय कर लिया था कि इनको तो नहीं ही लेंगे. किदवई
साहब भी उन्हें नहीं लेना चाहते थे. तब मैंने कहा कि हसन साहब को इनवाइट कर लेते हैं, प्रोफेसर
के लिए. उनके आने के बाद ही हम लोगों ने पूरा कोर्स बनाया.
पहले साल (1974-75) में
हम लोगों ने एम.फिल. का एडमीशन नहीं लिया, पहले
साल में केवल एम.ए. शुरू किया. दुर्भाग्य से
इमरजेंसी इसी बीच लग गई. इमरजेंसी लगने पर तो नक्शा ही दूसरा था. उस
समय मैं बनारस में था. हमारे मित्र मार्कंडेय सिंह ने बताया कि इमरजेंसी
लगनेवाली है और तुम दिल्ली छोड़ के जाओ.
सुमन केशरी-
लेकिन सी.पी.आई. समर्थन
कर रही थी इमरजेंसी का...
नामवर सिंह-
वो तो अलग एक कहानी
है, मैंने उसी में रिजाइन किया सी.पी.आई. से. इमरजेंसी
के दौरान सारी पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों को सेंसर के
लिए भेजना पड़ता था. पब्लिकेशन ब्यूरो पी.टी.आई. में
बैठता था. सख्त हिदायत थी सारी मैगजीनों को कि छपने से पहले उन्हें
सेंसर के लिए भेजना होगा. मैंने भी ‘आलोचना’ का
अंक सेंसर के लिए भेजा. उसे बाकायदा काले रंग से इतना मोटा-मोटा
पोतकर मेरे पास भेजा गया कि मैं नक्शा समझ गया. अजय
भवन में एक मीटिंग हुई जिसमें एक प्रस्ताव था कि प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से, जो
पार्टी द्वारा विट्ठलभाई पटेल हाऊस में लेखकों का सम्मेलन हुआ था, करीब
सितम्बर-अक्टूबर में...सेंसरशिप के पक्ष में
एक रिजॉल्यूशन हम लोगों को पास कराना है. मैं इसके विरुद्ध था. मैंने
कहा कि मैं पार्टी की मेम्बरशिप रिन्यू नहीं कराऊँगा. मतलब
मेम्बरशिप छोड़ रहा हूँ. पर्टीकुलरली एक राइटर के नाते, एक जर्नलिस्ट
के नाते इस सेंसरशिप को सपोर्ट नहीं करूँगा. बाकी
लम्बी बहस चली कि इमरजेंसी लगनी चाहिए कि नहीं लगनी चाहिए.
दूसरा नमूना ये कि हमारे यहाँ जिन लड़कों का एडमीशन हुआ था, उनके रिकॉर्ड को देखते हुए लिस्ट आई थी. उन लोगों में विजय चौधरी और चमनलाल का नाम था. शायद घनश्याम मिश्रा का भी नाम था. 1975 में जो एडमीशन हुए थे, उसकी लिस्ट भी भेजी गई थी. हिन्दी में तीन लड़के ऐसे थे जिनके नाम को ब्लैक घेरों से घेर दिया गया था, जिनका एडमीशन लेने से मना कर दिया गया था.
मैंने कहा कि मैं वी.सी. साहब
से बात करूँगा और मैंने बात की. उनसे कहा कि एक तो मेरे यहाँ लड़के कम हैं-5-7 लड़के
ही हैं, तीन ये भी चले जाएँगे तो सेन्टर का क्या होगा? मैंने
कहा कि मैं अंडर-टेकिंग ले सकता हूँ इन लोगों की, आगे
से कोई ऐसा काम नहीं करेंगे. लेकिन ये तो हमारे मुँह पर तमाचा है कि हमारे विद्यार्थी
जेल चले जाएँ. लेकिन वे बोले कि नहीं, और
कई सेन्टरों में भी ऐसा हुआ है. हमने कहा कि हुआ होगा, हम
तो गारंटी देते हैं. मैंने लिखकर वहीं टाइप करवाया, साइन
किया कि मैं इनकी रेस्पान्सिबिलिटी लेता हूँ कि ऐसा कोई भी तोड़-फोड़
का काम ये नहीं करेंगे और इन लोगों को मैंने वहाँ से छुड़ाया, बकायदे
एडमीशन हुआ. लेकिन इमरजेंसी की वजह से कोर्स स्ट्रक्चर में कोई बदलाव
नहीं आया. 1975 के अगस्त-सितम्बर का महीना था. मेरा
कमरा गेट के ठीक पास घुसते ही नीचे का पहला कमरा था. उस
समय मेनका गांधी जर्मन की छात्रा थी. सारे स्टूडेंट्स ने
इमरजेंसी के खिलाफ हड़ताल कर रखी थी. जे.एन.यू. में
आप जानते हैं कि ऐसे पॉलिटिकल मामलों में टीचर्स और स्टूडेंट्स पॉलिटिकल कमिटमेंट
के साथ, एक साथ ही रहते हैं. अध्यापक
हड़ताल तो नहीं करते, स्टूडेंट्स हड़ताल करते हैं लेकिन अध्यापकों की सिम्पैथी
उनके साथ होती है.
इमरजेंसी की आँखों
देखी घटना बता रहा हूँ. एक ब्लैक कलर की कार दौड़ती हुई आई और एस.एल. गेट
के ठीक सामने रुकी. एस.एफ.आई. (सी.पी.एम.) का प्रवीर पुरकायस्थ प्रेसिडेंट था. वहाँ
उसके साथ हड़ताल करानेवाले लोग और एस.एल. के
कई लोग थे. अचानक कार से कुछ लोग उतरे और प्रवीर को पकड़कर गाड़ी में
खींच लिया. इशारा करने के लिए मेनका वहाँ खड़ी थी, उसने
इशारा किया होगा. प्रवीर को गाड़ी में खींचकर कुछ लोगों ने पकड़ रखा था. उसके
शरीर का ऊपरवाला आधा हिस्सा कार के अन्दर और बाकी आधा बाहर था, यह
दृश्य अभी भी हमारी आँखों के सामने है. कार दौड़ती हुई एस.एल. से
एस.आई.एस. की ओर निकलती हुई गेट के बाहर चली गई. स्टूडेंट
यूनियन के लड़के चिल्ला रहे थे. मैं बाहर निकला, मुझे
अपने कमरे से बाहर निकलने में 15 सेकेंड लगे होंगे...मालूम
पड़ा कि जब मेनका आ रही थी तो हड़ताल करनेवालों ने ताना मारा था कि तुम्हारा मियाँ
क्या करवा रहा है, चूँकि उस समय मेनका-संजय की शादी हो चुकी थी. इस
पर वो भन्नाई हुई निकली. उसने तुरन्त फोन पर शिकायत की होगी. कार
और कुछ लोगों को बुलवाया, जो कि प्रवीर पुरकायस्थ को घसीटते हुए ले गए. भयानक
दृश्य था!
जे.एन.यू. में
क्या टीचर, क्या स्टूडेंट कोई इमरजेंसी का समर्थक नहीं था. सी.पी.आई. के
हों या सी.पी.एम. के, इमरजेंसी के सब विरुद्ध थे. कैम्पस
में इमरजेंसी के खि़लाफ जुलूस निकला तो विनय राय उसे लीड कर रहे थे-‘इंटरनेशनल’ गाते
हुए. इमरजेंसी के समय ही एक रात की घटना है जब हमला हुआ था. उस
समय पंकज सिंह पढ़ते थे, रात को हमारे घर ठहरे हुए थे, क्योंकि
उन लोगों को सूचना मिली थी कि आज कुछ गड़बड़ होनेवाला है. वे
मेरे यहाँ थे इसलिए बच गए थे. इमरजेंसी के मामले में जहाँ तक मैं जानता हूँ, जे.एन.यू. में
इसके पक्ष में एक भी रिजोल्यूशन पास नहीं हुआ-न
जे.एन.यू.टी.ए. की ओर से, न स्टूडेंट यूनियन की ओर से. सी.पी.आई. के
लोग जो इमरजेंसी के समर्थक भी होंगे, उनमें से भी किसी ने
कोई प्रस्ताव पास नहीं किया, ये नहीं भूलना चाहिए.
सुमन केशरी-
डॉ. साहब, यह
बताइए कि स्टूडेंट्स पकड़े जा रहे थे, फिर पढ़ाई कैसे हुई? यूनिवर्सिटी
खुलने पर एडमीशन कैसे हुआ? उस दौरान क्या-क्या हुआ?
नामवर सिंह-
हम लोग लगभग सभी
लड़कों को जेल से छुड़ाकर लाए. एक-दो सीरियस केस थे, जैसे-देवी
प्रसाद त्रिपाठी जेल में ही थे. मेरा ख़याल है, प्रवीर पुरकायस्थ आ
गए थे, सीताराम येचुरी जेल में नहीं थे, प्रकाश
करात के बारे में तो अलग ही किस्सा है.... उस समय इलेक्शन नहीं
हुआ था इसलिए स्टूडेंट यूनियन थी ही नहीं. इमरजेंसी
हटने पर देवी प्रसाद जेल से छूटकर आए. उन्हें मैं पहले से
जानता था. मुझसे उन्होंने बताया कि उन्हें आँखों के इलाज के लिए
जेनेवा जाना है पर पास में पैसा नहीं है और न ही कपड़ा-लत्ता. मैंने
200 रु. दिए थे.इमरजेंसी के बाद जे.एन.यू. में
सीताराम येचुरी प्रेसिडेंट बने. हो सकता है, इमरजेंसी के समय देवी
प्रसाद त्रिपाठी ही प्रेसिडेंट रहे हों. जब मैं जे.एन.यू. में
आया था तब आनन्द कुमार प्रेसिडेन्ट थे, उन्होंने प्रकाश करात
को हराया था. मैं बनारस से ही आनन्द कुमार को जानता था. इमरजेंसी
की भनक लगते ही श्यामाचरण दुबे ने आनन्द कुमार को बाहर भिजवा दिया था.
असल में जे.एन.यू. के
कुछ सेन्टर पॉलिटिकली डिवाइडेड थे. जैसे-एस.आई.एस. में नॉन मार्क्ससिस्ट, उसमें
कुछ नॉन कांग्रेसी और कुछ एंटी कांग्रेसी भी थे. कुछ
सोशलिस्ट विचारों के भी थे. एस.आई.एस. में लेफ्ट का कोई वैसा असर नहीं था. एस.एस.एस. में
योगेन्द्र सिंह थे. इतिहास डिपार्टमेंट में मार्क्सवादी विचारधारा के होते
हुए भी डिवाइडेड थे, सी.पी.आई. के लोग थे, सी.पी.एम. की
तरफ शायद ही कोई हो. हिन्दी में सी.पी.आई. और
सी.पी.एम. दोनों ही विचारधारा के लोग थे. राजनीति
शास्त्र में सी.पी.आई. के थे क्योंकि वहाँ पी. सी. जोशी
थे, दामोदरन थे इसलिए सी.पी.आई. का
अच्छा प्रभाव था. सी.पी.एम. के लोग अर्थशास्त्र में ज्यादा थे. यहाँ उषा पटनायक, प्रभात पटनायक थे.
इस तरह ब्रॉडली लोग
सी.पी.आई. विचारधारा को मानते थे. कोर्ट
की मीटिंग में मोरारजी देसाई भी आए थे. स्टूडेंट यूनियन के
विरोध करने पर इन्दिरा गांधी ने चांसलर पद से इस्तीफा दिया था.
जोधपुर का जो अनुभव
हमारे पास था उससे कोर्स तो बन गया था, लेकिन दबाव था उस कोर्स
को पूरा करने का, टीचर कम थे. ऐसे अध्यापक की जरूरत
थी जो आधुनिक साहित्य और थ्योरी पढ़ा सके. मैनेजर पांडेय को मैं
जोधपुर से यहाँ लाया, लेकिन उन्होंने आने में एक साल का वक्त लगाया. केदारनाथ
सिंह को लाना चाहता था. उस
समय तक उनके यहाँ से हमारे यहाँ रिश्ता नहीं हुआ था. उनकी
बेटी की शादी की बात मेरे बेटे से चल रही थी. मैंने
उनसे तय किया कि पहले आप ज्वाइन कीजिए, शादी बाद में होगी. दोनों
के लिए मुझे बहुत संघर्ष करना पड़ा. हमारे पास टीचर कम थे. सुधेश
जी यहाँ आ गए थे. उनको
तो मैं इम्फाल भेजने के चक्कर में था क्योंकि वह सेन्टर भी चलाना था. वहाँ
मैंने बाद में उदय प्रकाश को भेजा, देवेन्द्र
कौशिक को भेजा. पर
बाद में वहाँ का सेन्टर टूट गया.
केदार जी उस समय
पडरौना में थे. नागचौधरी साहब से मैंने कह दिया था कि आधुनिक कविता के
लिए बिलकुल सही आदमी हैं, कवि हैं. कामायनी, निराला आदि को अच्छे से पढ़ा सकेंगे. साथ
ही भक्ति को भी पूरा करना था. शोभा जी तो टेक्स्ट तक नहीं पढ़ा सकती थीं. आन्दोलन
हो गया था, पोस्टर लग गए थे, शोभा
जी के खिलाफ-‘देवी, तुम तो यू. जी. सी. की
बैसाखी पर आई हो’ आदि...,
यह सब इमरजेंसी में हुआ था. विजय
चौधरी और कई लड़कों ने मिलकर किया था, हड़ताल हो गई थी. विनय
राय से मैंने कहा कि भाई, मुसीबत में फँस गया हूँ. उन्होंने
कहा, यू.जी.सी. रुपया देती है, चेयरमैन की बीवी को
नहीं रखेंगे तो किसको रखेंगे? किसी तरह निभाइए. मैं
तो संकट में था, यू. जी. सी. के दबाव के कारण उनकी बीवी थीं, सुधेश
भी बस यूँ ही से पढ़ानेवाले. पोएटिक्स पढ़ानेवाला कोई था ही नहीं.
सुमन केशरी-
भक्ति पोएट्री भी
कमजोर रह गई थी.
नामवर सिंह-
चूँकि शोभा जी छोड़ती
नहीं थीं. मैंने कोर्स इस तरह बनाया था कि टेक्स्ट और टेक्स्ट के
समानान्तर उसका इतिहास.
सुमन केशरी-
टेक्स्ट उन्होंने कभी
पढ़ाया नहीं और भक्तिकालीन इतिहास पर तो उन्होंने ही अपना कब्जा रखा...
नामवर सिंह-
कोर्स में कमजोरी
रहने का कारण था कि पूरा हिन्दी साहित्य पढ़ाने वाला हमारे पास कोई था ही नहीं.
सुमन केशरी-
आरम्भिक दिनों में
काव्यशास्त्र में भी बहुत दिक्कत हुई थी.
नामवर सिंह-
मैं तो एप्रोचेज टू
लिटरेचर पढ़ाता था. भक्ति का टेक्स्ट पढ़ाना चाहता था लेकिन वो तो सारा शोभा
जी लिए बैठी थीं. आधुनिक कविता के लिए केदार जी आ गए थे तो मैं छायावाद, नई
कविता आदि को लेकर निश्चिन्त हो गया. सुधेश जी को गद्य में
रुचि थी नहीं, उनको क्या कहूँ, तो
काव्यशास्त्र और भक्ति को लेकर हमारे सामने बहुत बड़ी समस्या थी. बहुत
बाद में पुरुषोत्तम को तो मैं लड़कर ले आया. उनकी
जगह शोभा जी अरुण मिश्र को लाना चाहती थीं. खैर, जब
पुरुषोत्तम आ गए तो लगा कि अब कुछ हो सकता है. गद्य
के लिए मैं वीरभारत तलवार को ले आया. यू. जी. सी. नई
पोस्ट देने के लिए तैयार नहीं थी. हमें इतने ही लोगों से पूरा कोर्स चलाना था.
सुमन केशरी-
पुरुषोत्तम और
वीरभारत के आने तक हम स्टूडेंट नहीं थे. इसलिए हमें
काव्यशास्त्र सुधेश जी ने ही पढ़ाया था.
नामवर सिंह-
अध्यापकों के अनुसार
कोर्स को लेकर चलना था, इसलिए हमारे सेन्टर में मन-मुआफिक
कोर्स तो बना ही नहीं.
सुमन केशरी-
इसके बावजूद डॉ. साहब, जो
आपने कोर्स बनाया, और आप जैसे पढ़ाते थे वो लाजवाब है. मैं
दिल्ली विश्वविद्यालय के बेहतरीन कॉलेज-एल.एस.आर. से
जे.एन.यू.
1977 में आई थी. पहले
6 महीने में जब आप हमें एप्रोचेज टू लिटरेचर पढ़ा रहे थे, आपने
शुरुआत ही की थी कि फॉर्मलिस्ट एप्रोच क्या है? पद्धति
क्या है? बाद में समझाते हुए ‘अभी
टुक रोते-रोते सो गया है’ में
‘टुक’ की व्यंजना क्या है? और
अन्त में आपने क्लास खत्म की थी सस्यूर को पढ़ाते हुए. तब
समझ में आया कि साहित्य को हम ऐसे पढ़ सकते हैं, ये
एक एप्रोच है...
नामवर सिंह-
कारण था, जे.एन.यू. में
एक अन्तर्राष्ट्रीय विद्या की जो दुनिया है, बौद्धिक
वातावरण है, उसमें हमारा विद्यार्थी विदेशी भाषाओं के लोगों के सामने, या
राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास आदि किसी भी
विषय के विद्यार्थियों से जब मिले तो इंटलेक्चुअली वह भी सब कुछ जानता हो, वो
अपने को छोटा न समझे. यह भावना थी मेरे मन में.इंग्लिश
का हमारे यहाँ सेन्टर था नहीं, एलिमेंट्री कोर्सेज को इंग्लिश कहते थे. मीनाक्षी
जी के आने के बाद लिटरेचर आया. लिंग्विस्टिक्स भी नहीं थी हमारे यहाँ. मेरा
सपना था कि लैंग्वेज के साथ लिंग्विस्टिक्स भी हमारा हिस्सा हो, संस्कृत
भी हो. लेकिन कुछ दबावों के कारण ऐसा नहीं हुआ. संस्कृत
कोर्स एडवरटाइज किया गया था. लेकिन ऐसे लोगों के आने की आशंका थी, जिनका
आना सेन्टर के लिए घातक होता. इसलिए एडवरटाइज तो हुआ लेकिन अप्वाइंटमेंट नहीं हुआ. बाद
में संस्कृत सेन्टर अलग खुला. मैं चाहता था कि हमारा सेन्टर हिन्दी, उर्दू, लिंग्विस्टिक्स, संस्कृत
को मिलाकर हो.
अब जाकर यूनिवर्सिटी
को जो मैंने नोट दिया है, उसमें ये कि ‘सेन्टर ऑफ इंडियन
लैंग्वेजेज़’ नहीं बल्कि ‘स्कूल ऑफ इंडियन
लैंग्वेजेज़’ हो. इसका बहुत विरोध हो रहा है. कुछ
लोग चाहते हैं कि लिंग्विस्टिक्स का एक अलग स्कूल हो, तो
इस बात को लेकर तनाव है.कोर्स बनाते समय हिन्दी और भारतीय भाषाओं पर मेरे दिमाग
में बहुत कुछ था. इस बीच मुझे दो-तीन
और कोर्स बनाने के मौके मिले. एक तो यू.पी.एस.सी. का. उस समय यू.पी.एस.सी. के
चेयरमैन थे ए.आर. किदवई साहब, जो बाद में गवर्नर
बने-बिहार के. वे चाहते थे कि उनके रहते यू.पी.एस.सी. में
हिन्दी शामिल हो, जिसके लिए कोर्स मैं तैयार करूँ. यू.पी.एस.सी. के
जरिये जो सेलेक्शन कमेटी होती थी, उसमें भी मैं होता था. यू.पी.एस.सी. का
पुरानावाला कोर्स मैंने ही बनाया. दूसरा यू.जी.सी. का नेट का कोर्स. कोर्स
बनाते समय मैं हमेशा इस बात को ध्यान में रखता था कि जे.एन.यू. के
बच्चे इसे क्वालीफाई कर सकें.
दूसरी बात जो ध्यान
में रखता था वो ये कि जे.एन.यू. के बौद्धिक वातावरण में हमारा लड़का अपने को हीन न महसूस
करे. इंग्लिश कितनी जानता है या नहीं जानता, यह
महत्त्वपूर्ण नहीं है. कम-से-कम जहाँ नॉलेज की बात हो वहाँ ‘वेस्टर्न
लिटरेरी थ्योरी’, आइडियोलॉजी आदि सब उसको मालूम हो. समाजशास्त्र, इतिहास
या अन्य किसी विषय पर चर्चा हो तो हिन्दी का विद्यार्थी केवल हिन्दी का न होकर रह
जाए. इंटलेक्चुअली दूसरे लोगों से भी उसके संवाद हों, उसमें
वो पीछे न हो. मैं चाहता था कि हमारा विद्यार्थी पुरानी भारतीय परम्परा
से भी अपने को अलग न रखे. एक खुलापन हो. वैसा बैकग्राउंड भी
हो.
सुमन केशरी
लेकिन वो पुराने
बैकग्राउंड वाला जो हिस्सा था, डॉ. साहब, वो हमारा कमजोर रह गया...
नामवर सिंह
देवेन्द्र कौशिक को
जब मैं ले आया, उसने अपने अंडर संस्कृत काव्यशास्त्र पर ही काम करवाया. वे
डी. यू. से आए थे. उनके लिए हमारे यहाँ तो जगह थी नहीं. इम्फाल
से लौटकर आए और वापस चले गए. उदय प्रकाश को वहाँ रखा था, अगर
टिक जाते तो कायदे से उनको अपने यहाँ अन्तर्भुक्त कर लेते. बाद
में उदय, केदार जी को लेकर आए थे कि हमको जे.एन.यू. में
रख लीजिए. लेकिन मैंने कह दिया कि ये मेरे से नहीं होगा. उस
समय छोड़कर नहीं चले गए रहे होते तो आज जरूर प्रोफेसर होते.
सुमन केशरी-
नेमि जी वाली बात
बताइए, वे हमें नाटक पढ़ाते थे. उस
कोर्स में उन्होंने वंशी कौल को बुलाकर पूरा वर्कशॉप करवाया...
नामवर सिंह-
नेमि जी को रखा गया
था थियेटर के लिए. हमारे यहाँ नाटक पढ़ानेवाला कोई नहीं था. मैंने
नाटक पढ़ाने के लिए नेमि जी से कहा, इस नाते वे हमारे यहाँ से जुड़े. हमारे
यहाँ पेंटिंग के लिए स्वामीनाथन रह चुके थे. तब
तक ‘स्कूल ऑफ आर्ट्स एंड एस्थेटिक्स’ नहीं
बना था. कोशिश हमारी ये थी कि बाहर के लोग यहाँ आएँ, जिसमें
बड़े-बड़े राइटर और कवि भी होते थे, जो
पढ़ाते थे, कविता पाठ होता था. ये
कोशिश थी कि अपेक्षित अध्यापकों के न होते हुए भी हमारे यहाँ एक्टिविटी होती रहे
जिससे कि विद्यार्थियों को इनपुट मिलता रहे और अधिक-से-अधिक
फायदा हो. हमारे यहाँ देवेन्द्र शर्मा विजिटिंग प्रोफेसर के रूप
में साल भर रहे थे. भीष्म साहनी, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामस्वरूप
चतुर्वेदी आदि के सेमिनार, लेक्चर आदि होते रहते थे.
जे.एन.यू. को
समझने के लिए या जो भी काम उस समय हुआ, उसे जानने के लिए आप 1974-1992 तक
की ‘आलोचना’ पत्रिका की फाइल देख सकते हैं. आलोचना
में कई लोगों पर केन्द्रित विशेषांक निकले. अपने
यहाँ के लोगों से भी लेख लिखवाकर छापे हैं. जैसे-पुरुषोत्तम
अग्रवाल, मैनेजर पांडेय आदि से. मैनेजर
पांडेय की पूरी-की-पूरी किताब मैंने
छापी है. नन्दकिशोर
नवल की भी पूरी किताब मैंने छापी है. मैं ‘आलोचना’ के द्वारा अपने विद्यार्थियों के लिए पाठ सामग्री तैयार
करता था. मैं एक्टीविटी जो भी करना चाहता था, ‘आलोचना’ पत्रिका
द्वारा करता था.
सुमन केशरी-
हम लोगों के समय में
टी. एल. एस. या किसी अन्य पत्रिका अथवा पुस्तक में जो कुछ छपता था, हमारी
क्लास में जरूर उसकी चर्चा जरूर होती थी. अप टू डेट सूचना और
विश्लेषण के लिए आपकी क्लास जानी जाती थी...
नामवर सिंह-
चूँकि मेरा नियम था. मॉर्निंग
में सेन्टर, फिर खाना खाकर दोपहर में लाइब्रेरी. लाइब्रेरी
ओल्ड कैम्पस में हुआ करती थी. वहाँ लाइब्रेरी में कौन-सी
किताबें मँगवानी हैं, कौन-सी पत्रिकाएँ मँगवानी हैं, ये
बताता था और मँगवाया भी जाता था. कुछ का तो मैं खुद ग्राहक बना. कुछ
फोटोकॉपी करवाता था. फोटोकॉपी का तो मेरे पास बड़ा ढेर हो गया है. कुछ
मैगजींस का तो जोधपुर रहते ग्राहक बन गया था. बहुत
सारी विदेशी पत्रिकाएँ मैं खुद खरीदता था, कुछ
मैगजीन लाइब्रेरी से मिल जाती थीं. लाइब्रेरी हमारी शरणस्थली थी. शाम
को कुछ दोस्तों के घर पर जाता था. सबसे ज्यादा गोविन्द देशपांडे के यहाँ जाता था चूँकि
हमारे ही ब्लॉक में रहते थे,
115 नम्बर में, थियेटर
के बड़े-बड़े लोगों से वहाँ मेरी मुलाकात हुई. दूसरे
अनिल भट्टी, जर्मन के प्रोफेसर थे, उनके
यहाँ जाता था. नए लोगों में सुवीरा जायसवाल, बी. डी. चट्टोपाध्याय, नीलाद्री, मृदुला
मुखर्जी, आदित्य मुखर्जी, विमल
प्रसाद, श्रीवास्तव जी आदि के यहाँ जाता था. गोपाल
और रोमिला ये दोनों कैम्पस में नहीं रहते थे. लेक्चर
देने आती थीं रोमिला.
बहुत अच्छा माहौल था. कुछ मिलाकर जीने लायक जिन्दगी थी. मैंने मैनेजर पांडेय की विदाई के समय एक बात कही थी कि हम लोग ये तो जिक्र करते हैं कि जे.एन.यू. को हमने बनाया. यह भूल जाते हैं कि जे.एन.यू. ने हमको कितना बनाया. जे.एन.यू. का एक वातावरण है, हमारे छात्र-छात्राओं ने हमें बनाया है. उनसे संवाद के दौरान हमने बहुत कुछ सीखा है. उनके सवाल ऐसे होते थे जिनका जवाब देने के लिए तैयारी करके जाते थे ताकि हम इस लायक हों कि उनके सवालों का सन्तोषप्रद जवाब दे सकें. घनानन्द ने कहा है कि-
बहुत अच्छा माहौल था. कुछ मिलाकर जीने लायक जिन्दगी थी. मैंने मैनेजर पांडेय की विदाई के समय एक बात कही थी कि हम लोग ये तो जिक्र करते हैं कि जे.एन.यू. को हमने बनाया. यह भूल जाते हैं कि जे.एन.यू. ने हमको कितना बनाया. जे.एन.यू. का एक वातावरण है, हमारे छात्र-छात्राओं ने हमें बनाया है. उनसे संवाद के दौरान हमने बहुत कुछ सीखा है. उनके सवाल ऐसे होते थे जिनका जवाब देने के लिए तैयारी करके जाते थे ताकि हम इस लायक हों कि उनके सवालों का सन्तोषप्रद जवाब दे सकें. घनानन्द ने कहा है कि-
‘लोग हैं लागि कवित्त बनावत
मोहे तो मोरे कवित्त
बनावत’
इसलिए हमने ही छात्र
नहीं बनाए, छात्रों ने भी हमें बनाया. इस
बात को कभी नहीं भूलना चाहिए. सबसे बड़ी बात यह कि अगर ऐसे छात्र न मिले होते, उनकी
ओर से चुनौतियाँ न आई होतीं तब कहीं और होते हम लोग. इसलिए
जो मेधा, जो प्रतिभा हमको मिली जिससे हम आगे बढ़े, ऐसे
विद्यार्थी सबको मिलने चाहिए. खुद वे लोग बहुत पढ़ते थे. आप
अगर बिना पढ़े क्लास में चले जाएँ तो आपकी जुबान नहीं खुलेगी, आप
बोल नहीं सकते.
सुमन केशरी-
आपका यह कहना कि
छात्र बहुत जागरूक थे, पढ़-लिखकर आते थे, बिलकुल ठीक है. लेकिन
मुझे ऐसा लगता है कि छात्र वो मोमबत्ती है जिस पर लौ बालने का काम गुरु करता है...एक
बार लौ जला दी तो...
नामवर सिंह-
हमारे यहाँ जो लोग आए
थे, वो केवल स्टूडेंट नहीं थे. ऑलरेडी
वे परिपक्व स्कॉलर थे. अपनी स्टूडेंट लाइफ में रिसर्च के दौरान ही जो पेपर्स
उन्होंने लिखे वो ऐसे जर्नल्स में छपे जहाँ ऐसे ही नहीं छप सकते थे. जे.एन.यू. में
ऐसा हर विषय में हुआ. पर मुझे अफसोस है कि अपेक्षाकृत उर्दू में जितना होना
चाहिए था उतना नहीं हुआ. उर्दू कल्चर थोड़ी अलग, शेरो-शायरी
की कल्चर थी. हिन्दी के समानान्तर उर्दू में जो सीरियस स्कॉलर विकसित
होने चाहिए थे वो नहीं हुए. अली जावेद थे, बड़े एक्टिव थे. इनके
अलावा और भी कई लोग थे जिनसे उम्मीद थी कि कुछ कर सकते हैं लेकिन वो नहीं हो सका. कम-से-कम
विदेशी भाषाओं में एक काम जो हो सकता था वो हुआ. फ्रेंच, स्पेनिश, रशियन, जर्मन
आदि विदेशी भाषाओं से हमारा जो सम्बन्ध बना वो काफी फायदेमंद रहा. इन
विदेशी भाषाओं के लोगों से हिन्दी में हमने अनुवाद कराए जो कि ‘आलोचना’ पत्रिका
में छापे गए. ‘आलोचना’ पत्रिका में जे.एन.यू. में
पढ़ाई जानेवाली लगभग सभी विदेशी भाषाओं पर अंक निकाले गए.
इस तरह जिसे
अन्तर्अनुशासनात्मक पद्धति कहते हैं, उसे अमल में ले आए. उसी
प्रक्रिया में आगे चलकर हमने ट्रांसलेशन का कोर्स खुलवाया, जिसमें
कि कुछ नहीं हो रहा. बार-बार मैंने कहा कि हमारे कोर्स बहुत पुराने पड़ गए हैं, बदलने
की जरूरत है. बदलने का फॉर्मल तरीका एक तो पैनल है और दूसरा तरीका है
कि वर्कशॉप किया जाए जिसमें हमारे ओल्ड स्टूडेंट्स, जो
जानकार हैं तथा अच्छे पदों पर भी हैं, उन्हें बुलाया जाए. वो
अपना-अपना सुझाव देंगे जिसे रिकॉर्ड करके उसे सेन्टर से, बोर्ड
से पास करा लिया जाए. पर ऐसा कुछ नहीं हो रहा.
मैं उस समय यू. जी. सी. का मेम्बर था, डॉ. नगेन्द्र भी थे. पूरा कोर्स मैंने बनाया था. मैंने कहा कि एक तो ट्रांसलेशन का कोर्स, दूसरा हिन्दी टीचिंग का कोर्स होना चाहिए. जर्नलिज्म का भी एक कोर्स हो. ट्रांसलेशन जे.एन.यू. को दिया और डी.यू. के साउथ कैम्पस को जर्नलिज्म दिया. ट्रांसलेशन मैंने अपने यहाँ इसलिए दिया क्योंकि विदेशी भाषाओं को पढ़ाने के चलते हमारे यहाँ थोड़ी सम्भावना है. एक तिरुपति यूनिवर्सिटी को दिया. वल्लभ विद्या नगर को कम्प्रेटिव स्टडी दिया.
मिनिस्ट्री
ने अलग फंड प्रोवाइड किया था, कुछ सेन्टर खोलने के लिए.
मैंने इस कोर्स में सुझाव दिया था कि पहली नियुक्ति प्रोफेसर की करो,
फिर रीडर और अन्त में लेक्चरार. कोई भी डिपार्टमेंट
प्रेस्टीज तभी हासिल करता है जबकि वो प्रोफेसर से शुरू हुआ हो. नहीं तो वो तुच्छ समझा जाएगा. पर ऐसा नहीं हो सका,
साउथ कैम्पस का जर्नलिज्म का कोर्स बन्द ही हो गया है. मेन डिपार्टमेंट वाले इसको इनकरेज ही नहीं करते.
सुमन
केशरी-
आप लोगों
के समय आप लोगों को इतनी स्वायत्तता मिली हुई थी-चाहे यूनिवर्सिटी
बनाने की बात हो, कोर्स स्ट्रक्चर बनाने की बात हो या स्टूडेंट्स
को पढ़ाने की. यहाँ तक कि बावजूद 1975 के
संकट के आपने सारे काम किए. इसके परिणाम बेहतर स्टूडेंट्स के
रूप में आगे देखने को भी मिले. लेकिन अब तो स्वायत्तता का इतना
हनन हो रहा है. उदाहरण के लिए चाहे कोर्स स्ट्रक्चर का मामला
हो या अप्वाइंटमेंट का या फी स्ट्रक्चर का, हर जगह ऊपर से हस्तक्षेप
होता है. हाल में तो एच.आर.डी. ने नए विश्वविद्यालयों में वी.सी. अप्वाइंट करने के लिए आवेदन मँगवाए थे. ऐसी स्थिति में आपके क्या विचार हैं?
नामवर
सिंह-
असल
में स्वायत्तता दी नहीं जाती है, अर्जित की जाती है.
इसको इमपावरमेंट कहते हैं. जैसे-जब हम कहते हैं कि स्त्रियाँ अपनी स्वाधीनता/ताकत हासिल करें. यह दान नहीं है कि कोई दे दे और हम ले लें. दान जिस तरह से दिया जाता है उसी तरह से दान बन्द भी किया जाता है और दान छीना
भी जा सकता है.
जैसा
कि तुमने बताया कि वी.सी. की नियुक्ति
के बारे में नया नियम बनाया जा रहा है. इसमें चाहिए कि जे.एन.यू. का जे.एन.यू.टी.ए.ए डी.यू. का डी.यू.टी.ए. इसके अलावा देशभर के टीचर्स, स्टूडेंट सभी मिलकर इन चीजों के विरोध में संघर्ष करें. आज ही मैं ‘जनसत्ता’ में विपिन
चन्द्रा का एक लेख पढ़ रहा था, जो रायपुर वाले डॉ. विनायक सेन के मुद्दे पर था. उसमें ये बात थी कि हमारे
लोकतन्त्र में अनेक अलोकतान्त्रिक कानून बनाए गए हैं और बनाए जा रहे हैं. सरकार यह नहीं देख रही कि ये चीजें स्वयं हमारे बुनियादी संवैधानिक सिद्धान्तों
के विरुद्ध हैं, अलोकतान्त्रिक हैं. अब
इसके लिए संघर्ष करने की जरूरत है.
सुमन
केशरी-
लेकिन
सत्ताधारी सवाल खड़ा कर देते हैं कि नक्सलवाद बढ़ रहा है या टेररिज्म आ रहा है तो बहुत
जरूरी है इस तरह की चीजें बनाना.
नामवर
सिंह-
नक्सलवाद
आज तो नहीं आया है. 60 के दशक से आया है,
50 साल हो गए हैं. उग्र क्रान्तिकारी भी अंग्रेजों
के जमाने से ही हैं, ऐसा कहा जा सकता है. इसके बावजूद कलोनियल गवर्नमेंट तक ने ऐसे नियम नहीं बनाए थे, जैसे नियम हमारी लोकतान्त्रिक सरकार बना रही है. कम-से-कम शिक्षा संस्थाओं के मामले में ऐसी चीजें तो नहीं
थीं. उदाहरणस्वरूप हम उस समय के यूनिवर्सिटी एक्ट, इलाहाबाद विश्वविद्यालय आदि जगहों की स्थितियाँ देख सकते हैं. पहले यूनिवर्सिटी का वी.सी. इलेक्ट
होता था यूनिवर्सिटी कोर्ट के द्वारा, सरकार के द्वारा नहीं.
जब मैं स्टूडेंट था तब मैंने वो चुनाव देखा है. यूनिवर्सिटी के अपने नियम होने चाहिए. उनके तहत वी.सी. का चयन होना चाहिए.
हमारा
अनुमान है कि दिन-ब-दिन हम
लोग एक मुक्त अर्थव्यवस्था की ओर जा रहे हैं. अगर आपको यूनिवर्सिटी
चलाना है और किसी से (गवर्नमंट) फंड नहीं
लेना, अपने पैसे से चलाना है तो आप अपने कायदे-कानून बनाने के लिए स्वतन्त्र हैं. लेकिन इसके लिए हमें
अपना संविधान बदलना होगा. संविधान में एजुकेशन की अलग-अलग जिम्मेदारी दी गई है. कुछ सेन्ट्रल गवर्नमेंट को,
कुछ स्टेट गवर्नमेंट को, कुछ पब्लिक की गुंजाइश
अलग रखी गई है जिसे नॉन गवर्नमेंट कहते हैं. इस तरह लोग मुक्त
हैं विश्वविद्यालय खोलने के लिए. एक जमाने में सरकार उन नियमों
के बावजूद कुछ चीजों के बारे में हस्तक्षेप नहीं करती थी. जैसे-अध्यापकों की नियुक्ति के बारे में. ऐसा अब भी होता है.
जैसे-यू.जी.सी. की नियुक्तियाँ जो होती हैं, उसमें एक रिसर्च नॉमनी होता है, जिसे व्यवहार में आमतौर
से वीटो पावर मिलता है. इस पावर के तहत गलत अप्वाइंटमेंट को रोका
जा सकता है. इसके बावजूद विश्वविद्यालय में वी.सी. या डिपार्टमेंट का हेड अपनी मनमानी करते हैं.
ये मामला पेचीदा है-केवल वी.सी. की नियुक्ति का ही नहीं टीचर्स की नियुक्ति का,
स्टूडेंट्स के एडमीशन तक का. अर्थात् पूरे स्ट्रक्चर
का है. कहीं-न-कहीं
इस पर अंकुश तो होना ही चाहिए.
धीरेन्द्र-
ये लोकतान्त्रिक
प्रक्रिया मुझे लगता है कि एक योग्य व्यक्ति को लाने और चेक एंड बैलेंस बनाए रखने का
मामला है....
नामवर
सिंह-
पश्चिम
में दोनों तरह के विश्वविद्यालय हैं-सरकारी और गैर
सरकारी, प्राइवेट में यूनिवर्सिटी सरकार से पैसा नहीं लेतीं.
अपने ढंग से चलाती हैं. हार्वर्ड है, येल है, शिकागो है. मेरा मानना
है कि शिक्षा-ज्ञान के मामले में दोनों बराबर होंगे. गैर-सरकारी यूनिवर्सिटी सरकार से कोई पैसा नहीं लेती.
सुमन
केशरी-
यदि
आज की तारीख में आपको सेन्टर, सी.आई.एल. बनाने का मौका मिलता है
तो आप ऐसा क्या नहीं करेंगे जो उस समय हो गया या क्या करेंगे जो उस समय नहीं कर पाए?
नामवर
सिंह-
नाकरदा
गुनाहों की भी हसरत कि मिले दाग, या रब अगर इन
करदा गुनाहों की सजा है! जो गुनाह मैंने कर दिए उसकी सजा तो मुझे
मिल रही है. अब लौट के उसी तरह का सेन्टर तो नहीं होगा.
आज की जरूरतों के हिसाब से नए ढंग का कोर्स होगा जो पुराने कोर्स से
एकदम अलग होगा.
सुमन
केशरी-
क्या
होगा?
नामवर
सिंह-
ढाँचा
बिलकुल अलग होगा. उसके हिसाब से आइटम भी बदल जाएँगे.
मेरा मानना है कि पहले दो सेमेस्टर में ‘कोर-कोर्सेज’ को ध्यान में रखकर कोर्स बनाया जाए.
बाकी दो सेमेस्टर में कई विकल्प हों. ‘कोर-कोर्सेज’ साहित्य पर केन्द्रित हों-मतलब हिन्दी लैंग्वेज और हिन्दी लिटरेचर से सम्बन्धित हों. बाकी दो सेमेस्टर में विकल्प के रूप में मीडिया, ट्रांसलेशन
एंड इंटरप्रिटेशन आदि को रखा जा सकता है. यह केवल डिप्लोमा सर्टिफिकेट
कोर्स न हो बल्कि बच्चों को इसकी कम्प्लीट ट्रेनिंग दी जाए. अगर
इस तरह के काम के लिए यूनिवर्सिटी पैसा नहीं देती है तो सेन्टर को पहल करना चाहिए कि
वे किसी प्राइवेट सेक्टर के पास जाकर अपने कोर्सेज के बारे में बताए और उन्हें स्पॉन्सर
करने को कहें.
हिन्दी के कोर्सेज को प्रोफेशनलाइज करने की आवश्यकता है, नहीं तो हमारे हिन्दी के लड़के बेकार हो जाएँगे. जो भी स्टूडेंट आगे टीचर बनना चाहते हैं उनके लिए टीचर ट्रेनिंग का भी एक कोर्स होना जरूरी है क्योंकि लिटरेचर पढ़ना एक बात है और पढ़ाना दूसरी बात. एक कोर्स विज्ञापन का भी होना चाहिए क्योंकि आजकल विज्ञापन में हिन्दी का इस्तेमाल बहुत किया जा रहा है. जैसे-‘जय हो’ नाम का गाना हिन्दी की ही मदद से बना है और यह अपने आप में दिमाग का काम है. हम चाहते हैं कि इस तरह के वोकेशनल कोर्सेज के लिए सारी सुविधाएँ हों, विद्यार्थियों को अच्छी ट्रेनिंग दी जाए. एक थ्योरी पार्ट हो, दूसरा प्रैक्टिकल हो, इसके लिए बाकायदे लेबोरेट्री की व्यवस्था भी की जाए. क्योंकि आज के जमाने में इस तरह के कोर्स की अधिक आवश्यकता है. आज के जमाने में पुराने ढंग का कोर्स नहीं चल पाएगा.
हिन्दी के कोर्सेज को प्रोफेशनलाइज करने की आवश्यकता है, नहीं तो हमारे हिन्दी के लड़के बेकार हो जाएँगे. जो भी स्टूडेंट आगे टीचर बनना चाहते हैं उनके लिए टीचर ट्रेनिंग का भी एक कोर्स होना जरूरी है क्योंकि लिटरेचर पढ़ना एक बात है और पढ़ाना दूसरी बात. एक कोर्स विज्ञापन का भी होना चाहिए क्योंकि आजकल विज्ञापन में हिन्दी का इस्तेमाल बहुत किया जा रहा है. जैसे-‘जय हो’ नाम का गाना हिन्दी की ही मदद से बना है और यह अपने आप में दिमाग का काम है. हम चाहते हैं कि इस तरह के वोकेशनल कोर्सेज के लिए सारी सुविधाएँ हों, विद्यार्थियों को अच्छी ट्रेनिंग दी जाए. एक थ्योरी पार्ट हो, दूसरा प्रैक्टिकल हो, इसके लिए बाकायदे लेबोरेट्री की व्यवस्था भी की जाए. क्योंकि आज के जमाने में इस तरह के कोर्स की अधिक आवश्यकता है. आज के जमाने में पुराने ढंग का कोर्स नहीं चल पाएगा.
सुमन
केशरी-
आपने
कोर्स के रूप में हिन्दी लैंग्वेज़ एंड लिटरेचर के स्कोप को बढ़ाने या बदलने की बात की. लेकिन मेरा आशय यह नहीं था. कभी-कभी लगता है कि भाषा की राजनीति या धर्म की राजनीति भी कोर्स को अपने ढंग से
प्रभावित करती है. जब हम मीर या गालिब को पढ़ते हैं और जब हम कोर्स
में रीतिकालीन साहित्य हम पढ़ते हैं तो हमारी सेंसिबिलिटी मीर या गालिब के ज्यादा नजदीक
होती है. ऐसे में इनको अलग-अलग करके देखना
अर्थात् हिन्दी-उर्दू को अलग करना अपनी सेंसिबिलिटी को झुठलाने
जैसा तो नहीं है?
नामवर
सिंह-
अच्छा
हुआ तुमने यह प्रश्न पूछ लिया. मैंने डीयू का नया कोर्स
बनवाया जो पास हो गया है. मैंने कहा कि भक्तिकाल, रीतिकाल, छायावाद, नई-कविता आदि को फॉर्म के आधार पर बाँटो. एक कोर्स लिरिक
का हो जिसमें अपभ्रंश के दोहा से लेकर, सूर, कबीर के पद, रीतिकाल के सवैया, कवित्त, छायावाद के कवियों की छोटी कविताएँ तथा आज के
कवि भी जो लिख रहे हैं सब एक साथ हों. इसे हम ऐतिहासिक डॉक्यूमेंट
के रूप में न पढ़ें बल्कि आज की कविता मानकर पढ़ें तो देखेंगे कि उसमें एक सम्बन्ध जुड़
जाएगा. साथ ही यह भी देखेंगे कि उसमें एक परम्परा है या कहीं
चेंज होता है. जैसे-सूर के पद, कबीर के पद को आज भी गाया जाता है और उस म्यूजिक को हम आज का मानकर सुनते हैं.
उसी तरह से मैंने कहा कि लम्बी कविताओं को अगर पढ़ाते हो तो ‘रामचरितमानस’ से लेकर ‘मुक्तिबोध’
की लम्बी कविता तक एक कोर्स होना चाहिए.
सुमन
केशरी-
मैं
मीर और गालिब की बात कर रही हूँ कि जो उर्दू की परम्परा है, उसमें क्या हो?
नामवर सिंह-
गजल
का एक कोर्स होना चाहिए, जिसमें मीर से लेकर फैज़ अहमद फैज़
या आज के दौर में भी कोई गजल लिख रहा हो, सभी को एक साथ पढ़िए.
नज़्म का भी दूसरा अलग कोर्स हो. हमने कहा कि फॉर्म
के आधार पर विभाजित कीजिए, ‘डिकेड और एज’ के आधार पर नहीं.
सुमन
केशरी-
अगर
हम फॉर्म के अनुसार करते हैं तो चाहे वह भाषा हो या सेंसेबिलिटी हो, ऐसा नहीं लगता कि उसके साथ न्याय नहीं कर पाएँगे. जैसे-हम भूषण को पढ़ रहे हैं तो भूषण की सेंसेबिलिटी एक डिफरेंट सेंसेबिलिटी है.
नामवर
सिंह-
रहा
करे.
आज जो ‘वर्थवाइल’ बचकर आया
है महत्त्व उसका है, वरना इस आधार पर संस्कृत को अब खत्म कर देना
चाहिए.
सुमन
केशरी-
नहीं-नहीं, मैं ये बात नहीं कर रही. मेरा मानना है कि जैसे भूषण का जो काल था या जिसके लिए वे लिख रहे थे,
ठीक है, हम उसको लिरिक्स में पढ़ रहे हैं लेकिन
भूषण की सेंसेबिलिटी और घनानन्द की सेंसेबिलिटी अलग होगी.
नामवर
सिंह-
देखो, ऐसा है, इस पर जर्मन में पूरा-का-पूरा सिद्धान्त है रिसेप्शन थ्योरी. रचना पुरानी हो या
नई हो महत्त्वपूर्ण यह नहीं है बल्कि हम रिसीव कैसे कर रहे हैं, यही इम्पॉर्टेंट है. हो सकता है कि हम आज के पोएट की
अपेक्षा कबीर को ज्यादा रिसीव करें. तो ‘रिसेप्शन इज मेन थिंग’. समझने का मतलब है किसी चीज को
अपनी जमीन पर उतार लेना. इसी को अवतार कहते हैं, केवल भगवान ही अवतार नहीं लेते हैं, कविता भी अवतार लेती
है. इसलिए भगवान को हम निर्गुण ब्रह्म से सगुण बनाते हैं,
टाइम से उसको बाहर करते हैं और अपनी जमीन पर उतार लेते हैं. फिर उससे जब हम बात करते हैं तब वो अपना होता है. जब
तक दूरी बनी रहेगी कालक्रम की तब तक हम उसको रिसीव नहीं कर सकते. हाउ टू रिसीव? और रिसीव करने के लिए अवतार जरूरी है.
भगवान तो बहुत बड़े थे. यशोदा ने कहा कि हम तो चाहते हैं कि तुम हमारी गोद में आकर खेलो, तभी तुम हमारे हो. इसी सिद्धान्त पर कोर्स बनने चाहिए. डी.यू. का कोर्स बनाते समय मैंने यही कहा, छोड़ो रीतिकाल और मध्यकाल. इससे दूरी बराबर बनी रहेगी और लगेगा कि हम रीतिकाल पढ़ रहे हैं. आज की बनाकर पढ़ो कविता को, आनन्द भी आएगा, तुम्हारी हो जाएगी, तुमको याद हो जाएगी. विद्या और ज्ञान का मतलब है ‘इंटिमेसी’ अन्तरंगता! किसी चीज को इंटिमेट होना चाहिए. इसलिए इतिहास के कोर्स से साहित्य का कोर्स अलग होता है क्योंकि इतिहास में बराबर सेंस ऑफ हिस्ट्री बनी रहती है. वहाँ एन्सीएंट, मिडेवल, मॉडर्न है.
भगवान तो बहुत बड़े थे. यशोदा ने कहा कि हम तो चाहते हैं कि तुम हमारी गोद में आकर खेलो, तभी तुम हमारे हो. इसी सिद्धान्त पर कोर्स बनने चाहिए. डी.यू. का कोर्स बनाते समय मैंने यही कहा, छोड़ो रीतिकाल और मध्यकाल. इससे दूरी बराबर बनी रहेगी और लगेगा कि हम रीतिकाल पढ़ रहे हैं. आज की बनाकर पढ़ो कविता को, आनन्द भी आएगा, तुम्हारी हो जाएगी, तुमको याद हो जाएगी. विद्या और ज्ञान का मतलब है ‘इंटिमेसी’ अन्तरंगता! किसी चीज को इंटिमेट होना चाहिए. इसलिए इतिहास के कोर्स से साहित्य का कोर्स अलग होता है क्योंकि इतिहास में बराबर सेंस ऑफ हिस्ट्री बनी रहती है. वहाँ एन्सीएंट, मिडेवल, मॉडर्न है.
हम तो
इतनी दूर तक मान के चलते हैं कि ‘ट्रांसलेशन स्टडीज’
के अन्तर्गत विदेशी कविता अपनी कविता हो जाती है. ट्रांसलेशन स्टडीज का मतलब है ‘क्वेश्चन ऑफ एप्रोप्रिएशन,
हाउ टू एप्रोप्रिएट’ यही मूल सिद्धान्त है.
सुमन
केशरी-
आपने
इतने कोर्सेज बनाए...इतनी कमिटियों में रहे.
डॉ. साहब, जब हम छोटे से
क्लर्क की नौकरी करने जाते हैं तब पहले लिखित परीक्षा होती है, फिर इंटरव्यू और फिर ट्रेनिंग होती है. यहाँ तक कि स्कूल
टीचर के लिए भी पहले बी.एड. करना होता है,
क्लास लेनी होती है, पास करना पड़ता है.
लेकिन हमारे यहाँ लेक्चरर बनने के लिए कुल 15 मिनट
या आधा घंटा या हद-से-हद एक घंटे का इंटरव्यू
काफी माना जाता है. भले ही वो उसके बाद पढ़ा पाए या नहीं.
यानी कि एक आदमी पन्द्रह मिनट में जाकर आपको इम्प्रेस कर दे और उसके
बाद पैंतीस साल तक पढ़ाता रहे, चाहे पढ़ाना आता हो या नहीं.
इस पर आपने कभी कुछ विचार किया है?
नामवर
सिंह-
उस पर
बहुत सोचा है. हमारा बस चलता तो कर लेते. इस मामले में हम अमेरिकन सिस्टम या ब्रिटिश सिस्टम को देख सकते हैं.
वहाँ इंटरव्यू नहीं होता है बल्कि एक सेमिनार होता है जिसमें पूरी फैकल्टी
होती है, स्टूडेंट्स होते हैं, उसमें उन्हें
भी बुलाया जाता है जो कहीं पढ़ा रहे होते हैं या जिनका उस विषय में नाम होता है.
उस सेमिनार में उनका लेक्चर होता है, सवाल-जवाब होते हैं और उसी दौरान यह तय हो जाता है कि यहाँ लायक यह व्यक्ति है या
नहीं या यह किस पोस्ट (प्रोफेसर, रीडर या
लेक्चरार) के लायक है. इस सिस्टम के तहत
उसकी योग्यता का पूरा पता चल जाता है. यहाँ भी यही होना चाहिए.
एक जो आदमी प्रतिष्ठित है उसको ऑफर करके बुला लीजिए, कोई इंटरव्यू की जरूरत नहीं है. चाहें तो उसका एक लेक्चर
करवा दें. बाकी लोगों के लिए जिनके बारे में आप निश्चित नहीं
हैं उनको सेमिनार में बुलाइए. सवाल-जवाब
हो और फिर तय हो जाए, यह एक तरीका है. इंटरव्यू
में बुलाकर 5-10 मिनट में किसी की योग्यता का पता नहीं चलाया
जा सकता.
सुमन
केशरी-
लेकिन
आप इतने बड़े पदों पर रहे, आपने इस तरह की शुरुआत करने की
कोशिश नहीं की कि ऐसा हो?
नामवर सिंह-
महात्मा
गांधी यूनिवर्सिटी के दो-तीन ऑफर मैंने इसी तरह से दिलवाए
हैं.
सुमन
केशरी-
प्रोफेसर
के लिए दिलवाए होंगे. लेक्चरार के लिए तो नहीं दिलवाए
होंगे.
नामवर
सिंह-
अभी
तो इतना ही कर सकता हूँ. यह विश्वास की चीज है और इम्पावरमेंट
की चीज है. हमारे यहाँ मुश्किल यह है कि किसी को अगर यह अधिकार
दे दो तो उसका बहुत दुरुपयोग होता है.दूसरा तरीका यह है कि जो
भी डिपार्टमेंट या सेन्टर हो उसका चेयरमैन इनिशिएटिव ले कि हमारा स्टूडेंट है.
क्योंकि दूसरों को आप जानते नहीं हैं. अगर स्टूडेंट्स
में से ही किसी अच्छे स्टूडेंट की नियुक्ति आप करते हैं तो ठीक है. जे.एन.यू. में शुरुआती दौर में अधिकांशतः यहीं के स्टूडेंट्स को लिया गया.
सुमन
केशरी-
डॉ. साहब मैं कह रही हूँ कि नियुक्ति में ट्रांसपैरंसी बनी रहे. जैसे सौ एप्लीकेशंस आए, आपने उसको स्क्रीनिंग करके कुछ
पैरामीटर बना लिया, उसके आधार पर आप आठ-दस लोगों को चुन लिया, उनका ही सेमिनार करवा दिया तो
इसमें बहुत ज्यादा समय तो जाएगा नहीं.
नामवर
सिंह-
ऐसा
है कि कोई भी चीज देखने में अच्छी लगती है, ‘फुल प्रूफ’
कहीं नहीं होता. हमारा समाज इस मामले में इतना
गड़बड़ हो गया है कि भगवान नाम की कोई चीज है, ऐसा डर खत्म हो गया
है. बड़ी भद्र बेहयाई के साथ इसका लोग दुरुपयोग करेंगे.
इसलिए फुल प्रूफ तो बहुत मुश्किल है.
सुमन
केशरी-
कम-से-कम दस लोगों के सामने तो होगा सही कि इसने ऐसा पढ़ाया
था.
नामवर
सिंह-
मैंने
तो बताया ही कि ये तरीका होते हुए भी इसमें कई गड़बड़ियाँ हैं. इंग्लैंड, अमेरिका में भी ऐसा होता है, कई कहानियाँ मुझे पता है.
सुमन
केशरी-
गड़बड़ियाँ
तो होती ही हैं. तय करके बता दिया जाता है कि हम आपसे ये सवाल
पूछेंगे, आप तैयार कर लीजिए.
नामवर
सिंह-
सारी
चीजों को फुल प्रूफ करना तो बड़ा मुश्किल है. लेकिन जहाँ स्ट्रक्चर
मजबूत है वहाँ ऐसा सीधा सम्भव नहीं है. उदाहरण के लिए जे.एन.यू. में मनमानी करके वी.सी. किसी को नहीं बुला सकता. फैकल्टी
मेम्बर के सहयोग के बिना वी.सी. अपनी पसन्द
के किसी आदमी को अप्वाइंट नहीं कर सकता. ‘चेक एंड बैलेंस’
जिसे कहते हैं वह बहुत जरूरी है. लेकिन यह कैसा
हो? कैसे हो? यह बड़ा पेचीदा मसला है.
चुनने
की प्रक्रिया को लेकर इस वक्त देश में यू.पी.एस.सी. ही ऐसी संस्था है जिस पर
कोई अँगुली नहीं उठाई जा सकती है. अभी तक यह संस्था सन्देह के
दायरे में नहीं है. चूँकि मैं यू.पी.एस.सी. की कई कमिटियों में रहा
हूँ इसलिए देखा है कि कैसे-कैसे लोगों को चेक किया गया है.
किस तरह से दबावों का सामना किया जाता है. इसी
वर्ष देख लीजिए. तीनों टॉपर लड़कियाँ हैं जिनमें से एक ने तो हिन्दी
माध्यम से ही इतना उँचा स्थान पाया...मैं
तो कहता हूँ, यू.पी.एस.सी. जैसी ही संस्था यूनिवर्सिटी
के लिए भी बनाई जानी चाहिए. विशेषकर सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी के
लिए तो और भी जरूरी है. यूनिवर्सिटी को स्वायत्तता भी मिलनी चाहिए.
मैं समझता हूँ कि इससे बहुत सारा भ्रष्टाचार दूर हो जाएगा. मतलब या तो सारी यूनिवर्सिटी को कम्पलीट ऑटोनॉमी दे दीजिए या फिर एक कमीशन.
इसी तरह वी.सी. का चुनाव
यूनिवर्सिटी कोर्ट करे जैसा बी.एच.यू.
में मैंने देखा है. वहाँ के वी.सी. यानी राधाकृष्णन का उम्मीदवार हार गया और राधाकृष्णन
ने रिजाइन किया हमारे सामने. इसलिए सिस्टम तो बनाए जा सकते हैं,
लेकिन ‘चेक एंड बैलेंस’ की
नीति जरूरी है.
सुमन
केशरी-
डॉ. साहब, इस बातचीत के लिए मैं आपकी बहुत आभारी हूँ कि आपने
इन विभिन्न मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त किए.
(बातचीत
में सहयोग-धीरेन्द्र बहादुर सिंह और सुधा निकेतन रंजनी )
____________________________
सुमन केशरी : १५ जुलाई १९५८, मुजफ्फरपुर,बिहार.
शिक्षा दिल्ली
विश्वविद्यालय, जेएनयू और यूनिविर्सिटी आफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया से.
कविताएँ. लेख , संपादन
विज्ञान और
प्रौद्योगिकी विभाग में सचिव.
ई-पता. sumankeshari@gmail.com
(यह बातचीत २००९ में 'जे.एन.यू. में नामवर सिंह पुस्तक के लिए की गई थी)
(यह बातचीत २००९ में 'जे.एन.यू. में नामवर सिंह पुस्तक के लिए की गई थी)
शानदार साक्षात्कार के लिए सुमन जी को बधाई। सच में इसे पढ़ना जेएनयू के निर्माण की कथा पढ़ने जैसा है। नामवर जी की सोच और समझ के कई ऐसे खुलासे भी हैं जो उनके बारे में चलने वाली कई बहसों में भाग लेने वालों को जरूर पढ़ने चाहिएं। आभार।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन साक्षात्कार ...इसलिए भी कि नामवर जी से बातचीत के दौरान अक्सर लोग सब कुछ समेट लेने का मोह नहीं छोड़ पाते हैं , और ऐसे में कोई भी चीज ठीक से पकड़ में नहीं आ पाती | चुकि उनके कर्मक्षेत्र का दायरा इतना बड़ा है कि किसी भी एक साक्षात्कार में वह समा ही नहीं सकता ...| और उनका ही क्यों , उनके स्तर के किसी भी साहित्यकार का भी | सुमन जी ने बिलकुल सधे तरीके से अपने प्रश्नों के सहारे नामवर जी को केंद्रित किया है ..| नामवर जी का यह कहना मुझे बहुत पसंद आया कि "हमने ही छात्र नहीं बनाये, छात्रों ने भी हमें बनाया |" और भी बहुत कुछ जानने -समझने लायक है , इस साक्षात्कार में ...| बधाई सुमन जी और उनकी टीम को ...
जवाब देंहटाएंअच्छी बातचीत . जोधपुर से जेएनयू का सफ़र ..क्युरिकुलम , उसकी समस्याएँ , चयन .. निर्माण के अन्यान्य सोपान और एक व्यक्तित्व से अन्तरंग परिचय देता साक्षात्कार . जेएनयू को काफी करीब से देखने को मिल रहा है . खासकर हिंदी विभाग को .. इस विभाग से जुड़ी राजनैतिक विचारधारा और दर्शन .. विद्यार्थियों का अलग तरह से निर्माण यहाँ की विशेषता है .. linguistics की बात यहाँ उठी तो एक बात अपनी तरफ से कहने का भी मन हुआ .. हिंदुस्तान में भाषाओँ को लेकर भाषा -प्रयोगशालाओं का अभाव है . ले देकर अंग्रेजी की एक प्रयोगशाला है जो बेंगलोर में है . Universities का कितना ध्यान इस तरफ गया है , नहीं पता ..
जवाब देंहटाएंसुमन जी इस साक्षात्कार को पढकर न केवल नामवर जी के जीवन और व्यक्तित्व के कई अनछुए पहलु पढ़े बल्कि जे एन यू की कार्यपद्धति , वातावरण , प्रवक्ताओं के छात्रों के साथ सम्बन्ध का भी खासा ज्ञान हुआ .. यह साक्षात्कार सिर्फ जे एन यू का कोई छात्र या छात्र ही ले सकती थी.. हम भी मानो साथ में शामिल हो गए.. शुक्रिया अरुणजी..
जवाब देंहटाएं"बहुत बाद में पुरुषोत्तम को तो मैं लड़कर ले आया. उनकी जगह शोभा जी अरुण मिश्र को लाना चाहती थीं" - यह नामवरजी कि गलत बयानी है. मेरी नियुक्ति केदारनाथ जी ने की थी, वे चैयरमैन थे, और जब मैंने ज्वाइन नहीं किया तो पुरुषोत्तम ने ज्वाइन किया क्योंकि वे चयन-सूची में दूसरे स्थान पर थे.
जवाब देंहटाएंआधुनिक साहित्य के समर्थ आलोचक और विश्व-विद्यालयी शैक्षणिक प्रक्रिया में हिन्दी के एक दूरदर्शी आचार्य के रूप में डॉ नामवरसिंह की जो ऐतिहासिक भूमिका रही है, उसके महत्व को समझने में यह साक्षात्कार निश्चय ही एक जरूरी स्रोत के रूप में बहुत-सी बातों का खुलासा करता है। उच्च शिक्षा के स्तर पर हिन्दी साहित्य के आदर्श आदर्श पाठ्यक्रम का निर्माण, उसकी शिक्षण प्रक्रिया, शिक्षार्थियों के सर्वांगीण विकास और शिक्षकों के चयन की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की दृष्टि से क्या कुछ किये जाने की जरूरत है, ऐसे तमाम महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर नामवरजी की सोच कितनी गहरी और व्यापक रही है, यह संवाद उसे बहुत सहज तरीके से उजागर करता है। सुमनजी और अरूण को बधाई।
जवाब देंहटाएंबतकही के आस्वाद में कथा-रस के तमाम आरोहों-अवरोहों के साथ बिंधा हुआ संवाद.... सुमन जी और अरुण जी को आभार.
जवाब देंहटाएंयह काफी जीवंत संवाद है. अरुण जी ने इसे ऐसे वक़्त में लगाकर अच्छा किया जब नामवर जी पर बातें हो रही हों.
जवाब देंहटाएंनामवरजी का वि.वि. के लिए यूपीएससी संस्था बनाने का सुझाव वस्तुतःशिक्षा को राज्य के अधिकारक्षेत्रत् से निकालकर केन्द्र के हाथ में देने वाला, लोकतंत्र विरोधी और संघीयतंत्र का निषेध करने वाला सुझाव है। यह संविधान की मूल स्प्रिट के ही खिलाफ है।
जवाब देंहटाएंजगदीश्वरजी, केन्द्रीय विश्वविद्यालय वैसे किस राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं? यूपीएससी जैसी संस्था का गठन केन्द्रीय सेवाओं में निष्पक्षता और पारदर्शिता लाने के लिए किया गया है, ये संघीय ढांचे के खिलाफ कैसे हो गई? हर स्वायत्त सेवा या लोक संगठन की अपने रिक्रूटमेंट रूल्स और अलग प्रक्रियाएं होती हैं, नामवरजी ने वि वि के लिए यू पी एस सी जैसी स्वायत्त एजैन्सी का सुझाव दिया है, ताकि लोगों की या सत्ता की मनमानियों से संस्थान को बचाया जा सके। यह प्रक्रिया लोकतंत्र विरोधी कैसे हो गई भाई? आप नामवरजी से इतने खफा हैं, यह जानकर हैरानी है।
जवाब देंहटाएंनंदजी मैं नामवर जी से खफा नहीं हूँ,वे मेरे गुरूजी हैं। मेरे पास उनका कोई विकल्प नहीं है। हम यहां श्रद्धा में बातें न करें तो बेहतर होगा। नंदजी, इस तरह की संस्था का सुझाव यूजीसी दे चुकी है और वो सभी राज्यों से खारिज हो चुका है।दूसरी बात यह कि विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता इससे नष्ट होगी। अभी विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं। वे सरकार के अधीन नहीं हैं।सवाल यह है कि वि.वि. कौन चलाए ?IASया सेना के लोग या विदेश सेवा के लोग, ये तीनों विकल्प बुरे विकल्प हैं,लोकसंघ सेवा आयोग के चुने आईएएस कैडर का भ्रष्टाचार जगजाहिर है। कम से कम यह सच मान लें कि संघ लोकसेवा आयोग के चुने भ्रष्ट अफसरों की संख्या और लूट की संपत्ति की मात्रा 60सालों में वीसी या शिक्षकों की लूट की तुलना में सैंकड़ों गुना ज्यादा है। नए सिस्टम में हो सकता है वि. .वि.को स्वायत्तता रहे,लेकिन नियुक्ति के काम के लिए प्रोफेसर तो ये ही जाएंगे। चाहे जो ढ़ांचा बना लो, जाएंगे मौजूदा प्रोफेसर ही। इनके मिजाज में शिक्षा को लेकर गंभीरता नहीं है।जिलाशासक हों या अन्य कोई लोग या यूपीएससी में साक्षात्कार लेने वाले लोग उनमें भी सब्जैक्टिव एलीमेंट काम करता है। आपने सही कहा है रोग की असली जड़ पर बात करें तो बेहतर होगा। आप ही कहें भ्रष्टाचारमुक्त और ऑब्जेक्टिव शिक्षक चयन प्रक्रिया क्या होगी ? यह बहुत कुछ चयन करने वाले की समझ पर निर्भर करता है कि वह किस तरह के लोगों का चयन करता है। वह कितना अकादमिक आधार और कितना सब्जैक्टिव आधार पर सोचता है। सब्जेक्टिव आधार को हम कम करने को तैयार नहीं हैं। सब्जैक्टिव संबंधों के आधार पर,राजनीतिक संबंध और लॉयल्टी के आधार पर लोकसंघ सेवा आयोग से लेकर हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट तक में जज के पद पर चुने जाते हैं। ऐसे में कैसे संभव है निष्पक्ष प्रक्रिया ?
जवाब देंहटाएंनंदजी, नामवरजी यूटोपिया में रहते हैं। वे शिक्षक-कर्मचारी आदि संघों को भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुट करना चाहते हैं आयरनी यह है कि ये संगठन खुद भ्रष्टाचारण के माध्यम हो गए हैं। किसकी बात कर रहे हैं आप, .यहां पूरे कुएँ में भांग पड़ी है।सवाल यह है कि जो व्यक्ति ईमानदार दिखते हैं, नामी-ज्ञानी हैं ,और आए दिन अपने साक्षात्कार और लेखों में अकादमिक गुणवत्ता का राग अलापते हैं, वे ही सब चयन समिति में जाते हैं तो एक अनपढ़ या औसत किस्म के व्यक्ति का चयन करके आते हैं। यह स्थिति आखिरकार आई क्यों ?इस तरह के विद्वानों के कर्म और विचार में जो खाई है वह खाई कोई भी सिस्टम बना लें, तब तक कम नहीं होगी जब तक इस तरह के लोग अपने विचार और कर्म में एकता और आस्था पैदा नहीं करते। यह ईमानदार व्यवस्था के साथ निजी ईमानदारी को बचाए रखने का सवाल भी है। सामयिक माहौल और व्यक्तियों के कर्म और विचार की खाई देखकर आशा की कहीं कोई किरण नजर नहीं आती। कोई बेचैनी या प्रतिवाद नजर नहीं आता।बौद्धिक ईमानदारी व्यक्तिगत पहलकदमी की मांग करती है। मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा इस पहलकदमी को भूल गया है या पहलकदमी करना नहीं चाहता।तिकड़मों ने ईमानदारी को अपदस्थ कर दिया है। वह अपनी कमी को व्यवस्था की कमी बताकर अपने को पुण्यात्मा या ईमानदार पेश करने का ढ़ोंग करता रहा है।नंदजी ,जो शिक्षा नीति अभी प्रचलन में है ,उसका दूसरा खंड देखें , इस खंड में उन बेईमानियों,अकादमिक पापों और शिक्षकों की बुरी बातों को लिखा गया है इसके कुछ अंश आपने या नामवरसिंह ने कहे हैं। नामवर सिंह ने कोई नई बात नहीं कही है। शिक्षा की धांधलियां और बेईमानियां नई शिक्षानीति के दूसरे खंड में हैं। इस खंड की सिफारिशों को शिक्षक-कर्मचारी समुदाय ने कभी बहसयोग्य तक नहीं समझा,रही बात लागू करने की तो उस खंड में बतायी गड़बड़ियों को दूर करने की बात भी किसी ने नहीं की। एक और बात कि नई शिक्षानीति को लागू ही न किया जाए ,यह मांग और किसी की नहीं वामदलों की थी। उल्लेखनीय है मैं उस समय जेएनयू छात्रसंघ का अध्यक्ष था और हमारा यही स्टैंड था कि नई शिक्षा नीति लागू न की जाय।संभवतः नामवर सिंह ने भी उस दौर में ऐसा ही स्टैंड लिया था।
बहुत बढिया साक्षात्कार.........इस साक्षात्कार से यह बात निकल कर आई है कि नामवर जी को ज.ने.वि. में जिस कार्य के लिए उन्हें लाया गया था उन्होंने पूरी ईमानदारी से विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अंजाम दिया उसी का परिणाम है कि आज इस विश्वविद्यालय से अनेकों विद्वान आज विभिन्न विश्वविद्यालयों तथा लेखन में पूरे समाज तथा साहित्य के क्षेत्र् में एक नई लकीर खींच रहे हैं जिनमें एक श्री जगदीश्वर चतुर्वेदी भी हैं. जहां तक कालेजों में नियुक्ति का मामला है उसे तो तुरंत बदले जाने की आवश्यकता हैं क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे संस्थान में आम धारणा यही है कि यहां पर नियुक्तियां योग्यता से अधिक गुटबंदी, चमाचागीरी या विचारधाराओं के आधार पर होती है. ठीक है कि संघ लोक सेवा आयोग के चयन पर कई बार अंगुलियां उठी हैं परन्तु दिल्ली विश्वविद्यालय के वर्तमान व्यवस्था से तो कई गुणा अच्छी होगी.
जवाब देंहटाएंबेबात ही यह बहस बढ़्ती जा रही है तो कुछ कह लिया जाय । पहले तो यह कि नामवर जी ने शिक्षा प्रशासन और चयन प्रक्रियाओं पर तीन साल पहले इंटर्व्यू में चयन की प्रक्रिया पर यूं ही चलताऊ ढंग से कुछ कह दिया तो उसे वेदवाक्य की तरह लेकर बहस छेड़ देना कोई सार्थक बात नहीं हैं । नामवर जी इस मामले में वैसे ही नौसिखुए माने जाएंगे जैसे हम-आप । उनको इधर हर चीज का इलाज यू.पी.एस.सी. में दिख रहा है तो इसके कुछ इतर कारण होंगे । इसके बारे में जगदीशवर जी ने संकेत में जो कहा वह काफी है । यू.पीएस.सी. की बात तो जाने दीजिए यहां तो सर्वोच्च न्यायालय के पिछले १७ में से आधे से अधिक मुख्य न्यायाधीश भ्रष्ट आचरण के घेरे में हैं ।
जवाब देंहटाएंवि.वि. प्रशासन और प्रक्रियाओं में सुधार के मामलों में यशपाल जैसे लोग और इस बीच बने कई कमीशन सुझाव देते रहे हैं । उनमें से अनेक गंभीर हैं । लेकिन इस भ्रष्ट तंत्र के चलते वे सब रद्दी की टोकरी में पड़े हैं ।
जहां तक व्यक्तिगत तौर पर नामवर जी की भूमिका की बात है तो नियुक्तियों में उनका आचरण कोई आदर्श नहीं रहा है । नगेन्द्र, नामवर जैसे लोगों की कॄपा से ही आज अधिकांश विभाग प्रतिभाओं से शून्य नजर आते हैं ।
और सबसे बड़ी बात यह कि हिंदी में नामवर उस दूसरी परंपरा के जनक रहे हैं जो साहित्य साधना से अलग जोड़-तोड़ पर केंद्रित रहती है । नामवर की इस परंपरा को बड़ा समर्थन मिलता है, यह हिंदी के लिए चिंता की बात है । पहली में रामविलास जैसे लोग आते हैं ।
बनारसी नामवर जी को आईने में उतार लिया गुरू माँ ने.बड़ी ही व्यंजना प्रधान बात-चीत बन पड़ी है.पान की गिलौरी में ही फंसी रह जाने वाली नामवरी शरारतें साक्षात् हो उठी हैं.और अवतार के उनके दर्शन से तो मुझे तुलसी को समझने का एक नया सूत्र ही मिल गया है.पूरी पढ़त में कौशल ये कि,बात और चीत के बीच द्वंद्व अंत तक तना हुआ है.पचडों में न फँसकर,अपने समय के शीर्षस्थ आचार्य से एक सार्थक और ऐतिहासिक बात-चीत.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सारगर्भित साक्षात्कार , सुमन केशरी दी का विशेष धन्यवाद जिनहोने इतने सुंदर सवाल उठाए , इमरजेंसी से ले कर साहित्य पढ़ने - पढ़ाने का ढंग और आज हो रही नियुक्तियों पर जैसे सवाल सुमन दी ने उठाए और नामवर जी के जवाबों को पढ़ा , कई दुविधाएँ स्पष्ट हो गयी , reception theory हो, एप्रोच तो लिटरेचर , हर मुद्दे पर नामवर जी के विचार जानकर बहुत कुछ सीखने को मिला , आभारी हूँ सुमन दी कि आपने हम जैसे नए और बिलकुल अनजान लोगों को जे एन यू के पूरे इतिहास के साथ साथ , देश काल और साहित्य से जुड़े कुछ जरूरी मुद्दों का ज्ञान कराया .... नयी नियुक्तियों के विषय में तो आपके और नामवर जी के विचारों से पूरी तरह सहमत ... कई बार तो इंटरव्यू से पहले ही तय होती है नियुक्तियाँ , सेमिनार द्वारा वाकई सही योग्यता निर्धारित करना आसान होगा और कई प्रतिभाओं को बिना किसी पूर्वाग्रह के अवसर मिल पाएगा ... , साथ ही साहित्य को रोजगार से जोड़ने के उनके सुझावों को शीघ्र अपनाए जाने की ज्यादा अत्यंत आवश्यकता है , हालांकि अँग्रेजी साहित्य ने इस दिशा में कदम बढ़ा दिया है ....समालोचन पत्रिका और अरुण देव जी का बहुत धन्यवाद इतनी पठनीय , रोचक और ज्ञानवर्धक सामग्री उपलब्ध करवाने के लिए ,नामवर सिंह को इतनी समग्रता से जानना एक युग को जानने सरीखा है ...
जवाब देंहटाएंlove you suman. Great questions.
जवाब देंहटाएंhttp://ek-ziddi-dhun.blogspot.in/2009_07_01_archive.html
जवाब देंहटाएंकृपया ब्लॉग पाठक इसे भी पढ़ें-/www.facebook.com/notes/jagadishwar-chaturvedi/जेएनयू-की-विलक्षणता-है-छात्रस्प्रिट-जगदीश्वर-चतुर्वेदी/372993369402747
जवाब देंहटाएंसमालोचना पर आपके द्वारा लिया गया नामवर सिंह का साक्षात्कार पढ़ा. स्कूल ऑफ़ इंडियन लंग्वेजेस का पूरा इतिहास पढने को मिला. साथ ही यह जानकारी भी हुई की जे एन यू में शिक्षा का स्तर कैसा रहा है और पाठ्यक्रम का चयन कैसे किया गया .नामवर सिंह को पढना और सुनना बेहद रोचक रहा है .यहाँ आपने उनके जे एन यू के शुरुआती संघर्ष और इमरजेंसी के दिनों के अनुभव साझा किये ..उसके लिए आपको और समालोचना (अरुण देव जी ) को धन्यवाद् ......
जवाब देंहटाएंक्षमा सिंह -वाराणसी
कभी भी कहीं भी नामवर जी से बातचीत कई ऐसे मुद्दे खोल ही देती है जिस पर आप दिनों दिन सोचें और सीखें अपने तईं कि क्या लें क्या छोड़ें...यह बातचीत और इसपर हुई बातें सच में कई सूत्रों को सामने ले आती हैं...मैं आभारी हूँ कि लोगों ने अपनी बातें सामने रखीं....
जवाब देंहटाएंएक युग था पूरा इस साक्षात्कार में ! समालोचन की और सुमन केशरी जी की जितनी भी तारीफ़ की जाये इस कार्य के लिए कम है ! दो बार में इसे पढ़ा मगर ये जान पाया कि कैसे कैसे लोग हमारे कर्णधार थे तब हिन्दी के हर विद्यार्थी को यह साक्षात्कार पढ़ना चाहिए !
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