“To be a poet is a condition, not a profession.”
Robert Graves
समकालीन महत्वपूर्ण कवियों पर आधारित स्तम्भ
‘मैं और मेरी कविताएँ’ के अंतर्गत आपने निम्न कवियों की कविताएं पढ़ीं और जाना कि वे कविताएं
क्यों लिखते हैं.
इस क्रम में अब अनुराधा सिंह
अनुराधा सिंह ने अपने वक्तव्य में लिखा है कि कवियों को ग़ैर ज़रूरी होना आना चाहिए. कविता भी जिसे हमें जरूरी नहीं समझते, भूल चुके हैं जो लगभग अदृश्य सा है वहां जाती है, उसके पास चुप्पे की तरह बैठती है और जो मद्धिम स्वर में लगभग अस्पष्ट सा है उसे सुनती है. इन कविताओं को पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है. ‘रेलवे के प्रतीक्षालय में बेसुध सो रही औरत’ के भी कितने मायने हो सकते हैं. वह अपने बेसुध होने में भी चुनौती बन जाती है. तो कहीं ट्रेन खुलने के भी कई अर्थ खुलते जाते हैं.
अनुराधा सिंह ने अपने वक्तव्य में लिखा है कि कवियों को ग़ैर ज़रूरी होना आना चाहिए. कविता भी जिसे हमें जरूरी नहीं समझते, भूल चुके हैं जो लगभग अदृश्य सा है वहां जाती है, उसके पास चुप्पे की तरह बैठती है और जो मद्धिम स्वर में लगभग अस्पष्ट सा है उसे सुनती है. इन कविताओं को पढ़ते हुए यह बार-बार लगता है. ‘रेलवे के प्रतीक्षालय में बेसुध सो रही औरत’ के भी कितने मायने हो सकते हैं. वह अपने बेसुध होने में भी चुनौती बन जाती है. तो कहीं ट्रेन खुलने के भी कई अर्थ खुलते जाते हैं.
प्रस्तुत
है अनुराधा सिंह की कविताएं और ‘मैं कविता क्यों लिखती हूँ.’
मैं
कविता क्यों लिखती हूँ ?
अनुराधा सिंह
पाँच
शब्दों का सरल सा लगता यह प्रश्न इतना दुष्कर है कि मैं पिछले पूरे साल इसकी आँखों
में देखने से बचती रही हूँ. बार-बार इस ज़रूरी प्रश्न को टालकर दूसरे ग़ैरज़रूरी काम
करती रही हूँ.
इधर
मुझे और शिद्दत से लगने लगा है कि कवियों को अटेंशन डेफिसिट डिसऑर्डर से ग्रस्त
होना चाहिए वरना वे दुनियादार लोगों की बातें ध्यान से सुनने और मानने में,
लंबे-लंबे अनुवाद पूरे करने में,
किताबों की धूल रहित कतारें सजाने में,
उनका एक-एक शब्द पढ़ने में (जबकि कुछ काम
इंट्यूशन के ज़िम्मे छोड़ना चाहिए), घर
साफ़ व व्यवस्थित रखने में, दोषरहित
प्रसाधन करने में ही चुक जायेंगे. कवियों को ग़ैर ज़रूरी होना आना चाहिए.
खाल
की अलग-अलग रंगत हो तो भी हर घाव से लाल रक्त और माँस ही झाँकता है.
दुनिया के सब तथाकथित ज़रूरी कामों के बीच से बहुत ज़रूरी कविताएँ झाँकती रहती हैं,
खून सी गाढ़ी,
ज़िंदा माँस सी गर्म और चटख. कवि का काम
घावों पर टाँके लगाना नहीं, उन्हें
सलीके से कागज़ पर सजा देना है.
मैं
कविता इसलिए लिखती हूँ कि मुझे इस शोर और भीड़ भरे शहर की धुएँदार हवा में अपने लिए
जंगल, झरने,
तितलियाँ बना लेना अच्छा लगता है,
मुझे उदास शामों को एक खो कर मिले प्रेमपत्र
में तब्दील कर देने का शग़ल है, मुझे ऐसे आदमी गढ़
लेना बहुत अच्छा लगता है जो कई सदियों तक ग़लतियाँ करने के बाद कम से कम अब सामने
बैठ कर अपनी सज़ाएँ सुनें, मुझे
रोज़ अख़बार में बलात्कार और नरसंहार की खबरों से न चौंकने वालों को दो पंक्ति की
कविता से झिंझोड़ना अच्छा लगता है.
मैं
कवि न होती तो भला कैसे कह पाती कि –
‘कबसे उसे ही ढूँढ़ रही हूँ मैं
जिसने
पुरुषों के दिल का रास्ता पेट से होकर जाता बताया था’
कविता
में विमर्श वैसे ही आना चाहिए जैसे सर्दी खाँसी ग्रस्त बालक को एक ढक्कन भर
ब्रांडी पिला दी जाये. मुझे ढक्कन भर ब्रांडी जैसी कविताएँ लिखना अच्छा लगता है.
मैं उत्तरप्रदेश के एक उद्दण्ड शहर की लड़की, पितृसत्ता का ऐसा कौन सा भयावह स्वरूप है जिसे मैंने देखा या सुना नहीं. उस पर, लिखना जल्दी शुरू किया. जीवन का एक भी सुंदर पल या चोट ऐसी नहीं जिसके निशान मेरे लिखे की देह पर न नक़्श हों. कविता इसलिए भी लिखती हूँ कि भाषा के बाहर सिर्फ़ निशान जायें चोट नहीं, सिर्फ़ सुगंध जाये प्रेम नहीं, सिर्फ़ कविताएँ जायें मैं स्वयं नहीं. प्रेम और घृणा पर एक सपाट सार्वजनिक वक्तव्य देना मेरे लिए असंभव है. राजनीति पर भी.
मेरे लिए कवि होने का निजी अर्थ यह है कि मैं दुनिया से घटती चीजों से आतंकित होऊँ. आज कोविड के प्रकोप से लाखों श्रमिकों, पत्रकारों, किसानों, साधारण नौकरीपेशा, छोटी दुकान, रेहड़ी रखनेवालों के रोज़गार समाप्त हो रहे हैं. समीप से देखने पर मुझे यह दृश्य रोग और मृत्यु से भी भयावह दिख रहा है.
जीवन से सम्मान और मृत्यु से गरिमा घटाई जा रही है. इन दोनों कामों को यूँ अंजाम देने के लिए हमारा कायर होना आवश्यक था. मैं कविता इसलिए लिखती हूँ बहुत साधारण जीवन को भाषा की चमक और ताप दे सकूँ, मृत्यु को प्रतिशोध का उत्सव न बनाऊँ.
एक दिन सपने में देखा कि दुनिया ने अपनी नाज़ुक लंबी उंगलियाँ मेरी गुदाज़ छोटी से हथेली में रख दी हैं, मैं थरथरा कर उठ बैठी, यह अगर उसका प्रेम-निवेदन है तो मैं नहीं कर सकती. अभी तो तुम्हें मुझे देखना सीखना है दुनिया! मुझे चलते देखना, सोते देखना, खाते देखना, पढ़ते देखना. प्रेम भूल जाओ अभी तुम्हें औरतों को सार्वजनिक जगहों पर बहुसंख्य होते देखने की आदत डालनी है. और यह शुरुआत है, अभी तुम्हें नये-नये कान मिले हैं. मुझे सुनना सीखो.
और मैं फिर कहूँगी कि मुझे कुछ देर के लिए स्वार्थी और आत्मकेंद्रित होना पड़ेगा. आप इसे अभिधा में पढ़ सकते हैं पर मैं एक बार में एक ही औरत की बात कर पाऊँगी. इतना भी हो सके तो ठीक है, हमारे फ़ोटोकॉपियर तैयार हैं.
अनुराधा
सिंह की कविताएँ
१.
दुनिया
क्यों चाहिए तुम्हें गुलमोहर
लकड़ी
के लिए शीशम काफी था
रंग
के लिए आग
पत्ते
बहुत तो थे खिड़की के पर्दों पर
दुनिया,
क्यों चाहिए था तुम्हें गुलमोहर
वार्निश
लकड़ी के साथ उसके
पेड़
को भी छिपा लेती है
लोग
अंतिम यात्रा पर जाने से पहले तक
अपने
ताबूत की लकड़ी नहीं चुनते
मेजों
के लिए भी काफी थे शीशम, चीड़, सागौन
दुनिया,
क्यों चाहिए था तुम्हें गुलमोहर
यह
पेड़ जो अप्रैल में आग लगा देता है आसमान के सीने में
यह
पेड़ जो मीलों दूर से दिप्-दिप् जलता है दावानल सा
यह
पेड़ जो बगावत है हरे की एकरसता के ख़िलाफ़
कहो,
यह पेड़ तुम्हें इसलिए तो नहीं चाहिए था कि
तुम
इसे कुर्सी बना दो और
बैठ
जाओ इसके ग़रूर पर अपनी भारी मग़रूर
पुश्त
रखकर.
२.
वेटिंग
रूम में सोती स्त्री
हरे
मखमली पत्तों पर
सहेजा
चम्पा
का शीलवान फूल नहीं
अज्ञात
रेगिस्तान में
जहाँ
तहाँ भटकता
ख़ुदमुख़्तार
रेत का बगूला है
रेलवे
के प्रतीक्षालय में
बेसुध
सो रही औरत
मानो,
अगली किसी ट्रेन का टिकट
उसके
बस्ते में नहीं
मानो,
इस शहर में कहीं जाना ही नहीं उसे
किसी
घर में उसके दूर देस से लौट आने की
प्रतीक्षा
नहीं हो रही
मानो,
करवटें नहीं बदल रहा
कोई
प्रेयस
कहीं
उदास सफेद सिलवटों पर
चूल्हे
पर खदबदाती दाल कहीं विकल नहीं कि
कोई
आये
चमचा
ही घुमा जाए
मानो,
नहीं है किसी दफ्तर के
बेचैन
आँकड़ों को
उसके
एक सही का इंतज़ार
ऐसे
सो रही है वह निश्चिन्त
सूरज
भी चढ़ आया है आज इस तेज़ी से
कि
आस पास बैठी औरतें
दिन
चढ़े तक सोती इस औरत के
चाल
चलन को लेकर हलकान होने लगी हैं
ऐसे
तो यह
किसी
रात प्रेम भी कर लेगी घर से बाहर
कैसी
औरत है
इसे
अपने थान पर पहुंचने की जल्दी नहीं
इसका
कोई खूँटा है भी या नहीं
बिना
नाथ पगहा सोती है क्या कोई औरत
ऐसे
चित्त, ठीक पृथ्वी की छाती पर.
रेलवे
के वेटिंग रूम में सोती हुई अकेली स्त्री
जवाबदेह
नहीं
चाय
की असमय पुकार की
वह
औरतों के
अकारण
रात भर घर
से बाहर रह सकने
की
अपील पर
पहला
हस्ताक्षर है.
३.
मटर
का कीड़ा
मटर
की बंद फली
उस
एक तिहाई इंच के हरे कीड़े की
पूरी
दुनिया है
पांच
दाने हैं
अकूत
सम्पदा जीवन के लिए
दस
रुपये पाव, तुम्हारे और दुकानदार के
बीच
का विनिमय है
मटर
के कीड़े का अनुबंध तो ईश्वर से है
जिसने
दाने के गर्भ में
आरोपित
किया है उसे
तुम्हारे
फली खोलते ही
उसे
मजबूरन शामिल होना पड़ा है
तुम्हारे
विपणन संसार में
वरना
फली में
वह
अपनी दुनिया का बाहक़ बाशिंदा था
उसकी
औकात एक कीड़े से कहीं ज़्यादा थी.
४.
क़ुर्ब
एक
आदमी बंदूक उठाता है
अपनी
रक्षा में रह रही स्त्री को
भून
देता है
एक
औरत पहनाती है पुष्पहार
करते
हुए चरणवंदन, अपनी देह में लगा
बटन
दबा देती है
परखच्चे
उड़ जाते हैं जीवन के
शेष
रह जाता है सफ़ेद लोट्टो जूता
तुम
मेरे पास हो इतने
कि
मैं हवाओं की सहज गंध भूल गयी हूँ
इतने
कि मेरे होंठ काँपते हैं
तुम्हारी
दृष्टि की हलचल से भी
इतने
कि हमारे मध्य
अब
स्पर्श का स्वप्न भी शेष नहीं
इतने
कि
नहीं
देख पा रही
तुम्हारा
हाथ बन्दूक के घोड़े पर है
या
धमाके के बटन पर.
५.
गुम
चोट
मरहम
ने कहा
खून
से नहीं, गुम चोट से डरना
फिर
मरहम ने
गुम चोट की
प्रेम
ने कहा विरह से नहीं
अपमान
से डरना
और
विरह
अघोषित
अपमान था
प्रेम
का
वह
आदमी जिसे कहना चाहिए था
मोह
और विराग साफ़-साफ़
चुप
रहा
मौन,
जो सहमति हो सकता था प्रेम में
छल
में हिंसा हो गया.
६.
करो
मुझे नज़रंदाज़
नज़रअंदाज़
तो सभी कर रहे हैं इन दिनों
सबको
विडंबना
है कि ईर्ष्या से अधिक नज़रअंदाज़
प्रेम
में किया जा रहा है
मेह
जंगल पर बरसने के लिए
रेगिस्तान
की अनदेखी कर रहे हैं
हवाएं
राजप्रासादों में बहने के लिए
कर
रही हैं मलिन बस्तियों की उपेक्षा
तुम
भी करो, कि तिरस्कार
व्यक्ति
के विकास का परचम है
लहराता
हर समर्थ पुतली में
करो
जब तक प्रेम भय आदर किसी हेतु
मैं
हूँ तुम्हारी मुँहचितु
करो
जैसे
साँस करती है मरती हुई देह का तिरस्कार
राहगीर
नहीं देखता सूखी पत्तियों को चरमराते हुए
अघाया
आदमी उठ खड़ा होता है जूठे थाल से मन फेर
जैसे
मैं अपनी अव्यक्त अपेक्षाओं को
अनसुना
करती आई हूँ आज तक
देखो
मुझे उस अनभीष्ट दृष्टि से
जो
कांच को देखती है आर-पार
लेकिन
यह क्या, तुम तो दूर जाते हुए
लौट-लौट
आते हो मेरी असार कामनाओं तक
यह
क्या कि कनखियों से पढ़ते रहते हो
मेरा
वर्तमान, बाँचते हो भविष्य की संभावनाएं
यह
क्या कि तुम्हारी कनपटियाँ ललछौहीं हो आती हैं
मेरे
न होने की आँच भर से
अबकी
यूँ फेरो पीठ मुझ पर
कि
चेहरे का रंग न उड़े
आँख
में नमी न उतरे
एक
हरारत न दौड़ जाये आपादमस्तक
अब
से कुछ ऐसे करो नज़रंदाज़
कि
मेरे हिस्से
तुम्हारा
आशीष
या
श्राप कुछ भी न आए .
७.
नीम-कश
गोली
जो फँस गयी
पसलियों
के बीच
देर
तक सुलगती रही
बुझने
के बाद भी
जलाती
रही
छिप
कर
खींच
कर खोले गए बाल
रक्तस्नात
होकर ही बंधे वेणी में
कोई
प्रतिशोध न ले
तो
सोचना चाहिए
उसने
अपना काम किसे सौंप दिया है
दाब
कर घोंट दी गयी चीख
गूंजती
रही अट्टालिकाओं से भग्नावशेषों तक
लौटती
रही दुनिया में
बनकर
भूकंप
और अनिद्रा
सुन
लेनी चाहिए बात पूरी
अधूरी
बातें हो जातीं हैं कुंद
भोथरे
हथियार से नहीं
वार
शत्रु पर ही हो
आर-पार
होना चाहिए
अधखुबा
तीर आत्मा में अटक जाता है
नहीं
बंधाना चाहिए
रुंआसे
आदमी को ढांढ़स
देर
से रुका पानी
धरती
का कलेजा चीर कर बाहर आता है.
८.
पानी
शऊर है
रेशम
जानता है लिपटना
एक
सी ही अनंतरता में
पहले
ककून से
फिर
देह से
रेशम
मृत्यु
और उत्सव
हर
रंग में है समभाव
रेशम
कपड़ों में बुद्ध है
पानी
जानता है
बाहर
बह जाना
और
बचे रहना भीतर भी
शिराओं
में आँख में चट्टान में
पानी
शऊर है हाथ छोड़कर
मन
में बने रहने का
मृत्यु
जानती है
झाँकना
जीवन
के बीचों बीच
पढ़ते
हुए अपने न होने की
आश्वस्ति
हमारे चेहरों पर
बांधती
रहती है लगातार असबाब
आ
धमकने को
अचानक
एक दिन .
९.
मेरी भी ट्रेन खुल गयी
है
बनारस से दिल्ली आने जाने वाली
किसी- किसी गाड़ी में
बैठा हुआ
एक आदमी
फोन करके
बाक़ायदा बताता था कि
ट्रेन खुल गयी है
यह बात वह बड़े ही निष्ठापूर्वक
बताता था हर बार
मेरी बोली में ट्रेन
चल देती है
जिसका समाचार एन उसी
वक़्त
किसी अपने को देना
वैसा ज़रूरी नहीं
जैसे ट्रेन खुलने पर
देना होता है
ट्रेन खुलने में
जीवन की तमाम विपदाओं
से
बगटुट भाग निकलने का जो
भाव है
उसके लोहे के निरंतर
बढ़ते शोर में
जीवन की कारा से मुक्ति
का जो उद्घोष है
वह ट्रेन के चल देने
में कहाँ
उसने मुझसे बस इतना कहा
कि
माँ के जीवित रहते वह
ट्रेन खुलने की
सूचना उसे ही दे दिया
करता था
अब दुनिया में ऐसा कोई
बाक़ी नहीं जिसमें यह
जिज्ञासा शेष हो
चीज़ें हमेशा कुछ ऐसे
घटीं कि
मैं उस शहर में
हवाई जहाज से गयी और
आयी
जहाँ जाने के लिए किसी
ट्रेन में
बैठना था मुझे
और किसी से कहना था
देखो मेरी भी ट्रेन खुल
ही गयी आख़िर.
१०.
अरक्षणीय
मैं वह रेखा
जो तुम्हारी ज्यामिति से बाहर निकल गयी है
तुम्हारी खगोल विद्या से बाहर का तारा हूँ
मैंने कमरे के भीतर आना चाहा था बस
तुम्हारी शाला की विद्यार्थी नहीं
तुम्हारी खगोल विद्या से बाहर का तारा हूँ
मैंने कमरे के भीतर आना चाहा था बस
तुम्हारी शाला की विद्यार्थी नहीं
कैसे अटूँ तुम्हारे
प्रमेय के किसी स्टेप में
जबकि मेरा भी एक हिसाब है
जो पराजयवश नहीं हल किया मैंने
यही दो और दो को पाँच कहने से मना करता है
गणित मेरा प्रिय विषय कभी नहीं रहा
जबकि मेरा भी एक हिसाब है
जो पराजयवश नहीं हल किया मैंने
यही दो और दो को पाँच कहने से मना करता है
गणित मेरा प्रिय विषय कभी नहीं रहा
मैं अपनी गढ़न में
पृथ्वी की मूल निवासी
लगातार भी सिखाया जाये
कि क्या कहना कितना छिपा लेना है
सीख नहीं पाऊँगी
झूठ लिखते वक़्त भी
सच बोल सकने का साहस होना चाहिए
लगातार भी सिखाया जाये
कि क्या कहना कितना छिपा लेना है
सीख नहीं पाऊँगी
झूठ लिखते वक़्त भी
सच बोल सकने का साहस होना चाहिए
मिट्टी को उग कर, पानी को डूब कर देखना
अर्वाचीन है
कुछ ऊबड़ खाबड़ लोग ही
दुनिया को रहने लायक समतल बना रहे हैं.
कविता का स्टीरियोटाइप
तय करने की
तुम्हारी क़वायद बेकार गयी
मेरा बसंत तो एक उजाड़ की बाहों में खिलता है
तुम्हारी क़वायद बेकार गयी
मेरा बसंत तो एक उजाड़ की बाहों में खिलता है
डरती हूँ उस आदमी से जो कहेगा
जाओ, एक औरत से क्या लडूँ
जान जाती हूँ, अब वह मुझसे पुरुष की तरह लड़ेगा
आखिरश, तुम्हारे गिलास की तली
में बच रहा नशा नहीं
विक्टोरिया प्रपात से छिटक गयी बूँद हूँ
उग रही हूँ हरे रंग में जाम्बिया के जंगल में
नहीं डर रही पानी की विराट सत्ता से .
विक्टोरिया प्रपात से छिटक गयी बूँद हूँ
उग रही हूँ हरे रंग में जाम्बिया के जंगल में
नहीं डर रही पानी की विराट सत्ता से .
११.
कितनी पुरुष हो
जाना चाहती हूँ मैं
माँ ने एक साँझ कहा
संभव हुआ
तो अगले जनम मैं भी
इंसान बनूँगी
इस पूरे वाक्य में
मेरे लिए
बस एक राहत थी कि
माँ
इंसान होने का कोई
बेहतर अर्थ भी जानती थी
उसने एक के बाद एक
चार लड़कियाँ पैदा कीं
यह उस बुनियादी इच्छा के खारिज होने की शुरुआत थी
यह उस बुनियादी इच्छा के खारिज होने की शुरुआत थी
फिर भी औरतें पूछती
ही रहीं
हाय राम, बच्चा एक
भी नहीं
और वह अविनय और
अविश्वास से
शिशुओं का लार और
काजल पोंछ लेती रही
अपने गाल से
माँ की स्त्री में
कई परतें हो गयीं थीं
सबसे ऊपर वाली
क्लांत और उदास
इच्छाओं की ज़मीन पर
खोदती रहती जुगाड़ के कुएँ
चिंता से चूम भी
लेती रही बेटियों को यदा कदा
जबकि बीच में दबी
स्त्री मान चुकी थी कि
कोई बच्चा नहीं जना
उसने अब तक
हर बार अपनी प्रसव
पीड़ा को बंध्या मान
चाहती रही वंश
कीर्ति
सबसे भीतर वाली
स्त्री को फूल पसंद थे
ताँत पान और
किताबें भी
यह उसके मनुष्य
होने की कामना का विस्तार था
और इतने गहरे दबा
था कि बंजर हो चला था
आजन्म माँ की दायीं
आँख से एक निपूती औरत
और बायीं आँख से एक
इंसान झाँकते रहे
तो सुनो दुनिया बस
इतनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ
कि तुम्हारे हलक
में उंगलियाँ डाल कर
अपनी माँ के इंसान
बनने की अधूरी लालसा खींच निकालूँ.
________________________
अनुराधा सिंह
सुपरिचित कवयित्री और अनुवादक
प्रमुख पत्रिकाओं और वेब पत्रिकाओं में
कविताएँ, आलेख,
अनुवाद और
पुस्तक समीक्षाएँ लगातार प्रकाशित.
अश्वेत और तिब्बती कवियों के अनुवादों
के अलावा बेनेडिक्ट ऐंडरसन, टेड ह्यूज़ और कैथलीन रूनी के हिंदी अनुवाद
विशेषकर उल्लेखनीय.
भारतीय ज्ञानपीठ से ‘ईश्वर नहीं नींद
चाहिए’ नामक कविता संग्रह प्रकाशित. वर्ष 2019 का 15वाँ शीला सिद्धान्तकर सम्मान इस कविता
संग्रह को दिया गया है. तिब्बती समुदाय के निर्वासन की समस्या और निर्वासित कवियों
पर संकलित और अनूदित सामग्री पर आधारित पुस्तक शीघ्र प्रकाश्य.
सम्प्रति
मुम्बई में प्रबंधन कक्षाओं में बिज़नेस कम्युनिकेशन का अध्यापन.
anuradhadei@yahoo.co.in
मुम्बई में प्रबंधन कक्षाओं में बिज़नेस कम्युनिकेशन का अध्यापन.
anuradhadei@yahoo.co.in
अनुराधा सिंह की कविताएँ पढने के बाद इस श्रृंखला के सारे कवियों को पढ़ा और देखा. अनुराधा सिंह की कविताएँ कमाल की हैं. यह पूरी सीरिज ही अद्भुत है.
जवाब देंहटाएंअरुण देव संपादन नहीं करते वह एक कलाकृति रचते हैं. जादुई प्रस्तुति है. इस तरह से कविता का सेलिब्रेशन आज तक मैंने नहीं देखा. मुझे गर्व है कि मैं अरुण देव के समय में हूँ.
बहुत अच्छी कविताएँ है। अनुराधा जी स्त्रियों के विषय में बात करते करते संसार के सब मनुष्यों और फिर सब जीवों के विषय में बात करने लगती है।
जवाब देंहटाएंअच्छी कविता प्रतिभा या अभ्यास से लिखी जाती है मगर महान कविता का मूल करुणा है। अनुराधा जी की कविता का स्त्रोत उनकी बड़भारी प्रतिभा, उनके अध्यवसाय के ऊपर उनकी करुणा है।
कहना न होगा अनुराधा जी उस करुणा को पा लिया है जो दुनिया के श्रेष्ठतम साहित्य का कारण बनती है।
ट्रेन पर दो कविताएँ हैं। 'वेटिंग रूम में सोती स्त्री' अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंअनुराधा सिंह हमारे समय की महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उनका संग्रह 'ईश्वर नहीं नींद चाहिए' ज्ञानपीठ से मँगाया है और एक बार पढ़ चुका हूँ। उनकी कविताओं का स्त्रीवाद व्यावहारिक स्तर पर उद्वेलित करता है, सिद्धांत में ही छोड़ आने का अवकाश नहीं देता। बधाई।
जवाब देंहटाएंArun Dev sir,thanks alot for introducing such a wonderful poet!I was totally mesmerized by her expression.
जवाब देंहटाएंअनुराधा जी की कविताएँ चमत्कृत करती हैं।गहरे और बहुत गहरे उतर कर लिखी गई कविताओं की तासीर लम्बे समय तक बनी रहने वाली है।अरुण देव जी का संकलन बेहद सुंदर और सुरुचिपूर्ण है।आपदोनों को बहुत बधाई। अम्बर पांडेय जी की टिप्पणी बहुत अर्थवान और निचोड़ है प्रस्तुत कविताओं का।
जवाब देंहटाएंसम्पन्न करने वाली वाली कविताएँ। अनुराधा सिंह के कथ्य में ताज़गी और शिल्प में विरल सधापन रहता है जिसकी वजह से उनकी कविताएँ हमेशा अपने प्रति उत्सुक बनाए रखती हैं। बस एक बात : स्त्री के(माँ के) इंसान होने के बारे में दुनिया के हलक में हाथ डालकर पूछने जितना पुरुष बनने की कामना भी किसी स्त्री में क्यों हो? यह काम वह स्त्री रह कर ही करे।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविताओं के लिए कवि और आपको साधुवाद।
अनुराधा जी के कहन का अपना एक अंदाज़ है। उनकी कविताएं हमेशा ही उत्सुकता जगाती हैं।बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंवक्तव्य ने अपने लिखे जाने में अनुराधा के मनप्राण को खूब मथा है। सच कहूँ तो यह काम किसी कवि के हिस्से में डालना दुस्साहस का काम है। फिर भी चूंकि यह ज़िद एक कवि की ही देहरी से बारबार अन्य कवियों की असमंजस भरी दिनचर्या में गिलहरी की तरह ताकझांक करने आती रही, कुछ कवियों ने इस गिलहरी को एकदम नए नवेले आहार परोसे।
जवाब देंहटाएंकुछ ने असमंजस नाम की गिलहरी को असमंजस ही परोस दिया।
कुछ अभी तक यह सोच रहे हैं वे बन पड़ा तो अपने लिखे वक्तव्य को समालोचन के लिए सिरे से फिर कभी लिखेंगे।
फ़िलवक्त बस इतना कहूँगी कि मैं इस क्षण तूफानी बारिश से घिरी इस पूरे पाठ में डूब ही गयी कमोबेश। वक्तव्य ही कविताओं का फव्वारे जैसा जान पड़ा❗
दूसरी बात जो मैं सबसे पहले स्वयं से कहती हूँ, और अपने प्रिय कवियों से भी कि कविताओं पर आपका दस्तखत होना ज़रूरी है। अनुराधा की कविताओं की सांद्रता और दृष्टि मेरे लिए क़ाबिले-रश्क़ है। और मैं तुरंत उनकी और रचनाएं पढ़ना चाहूँगी। एक संग्रह आया है न हाल ही में उनका?
मैं उनसे नहीं, खुद से एक बार फिर कहती हूँ, मुझे अब भी सबसे अधिक ज़रूरी लगता है कि शिल्प पर लगातार बेरहमी से काम करना ज़रूरी है।
कभी कभी एक उत्कृष्ट पाठ के शिल्प में कवि के अपने विशिष्ट दस्तख़त धुंधले से ही दीख पड़ते हैं।
फिर कहती हूँ: यह बात मैं खुद से कह रही हूँ। इसलिए अभी कविता नही लिख पा रही। अपनी लिखी कुछ कविताओं का धुंधला दस्तख़त मुझे अभी तक साल रहा है।
अनुराधा, आभार आपका। आप मुझे अपने संग्रह को प्राप्त करने का उपाय सुझाएँ।
इतनी एकाग्रता से पड़ी है कि और एकाग्रता से पड़ना चाहता हूँ, बहूत अच्छी , कोई लफ्ज़ बन नही पा रहा कि कैसे कहूँ कि कविता ऐसी होती है
जवाब देंहटाएंBahut achhi kavitayen Anuradha. Aisa prateet hota hai kisi ruanse vyakti ko aansu baha sakne ka itminan de rahi hon!
जवाब देंहटाएंअनुराधा सिंह की कविताएं चिंतन की कविताएं हैं बहुत सहज विषयों के साथ ।सहज बिंब और विषय कितनी सहजता और विनम्रता से सामाजिक होते हुए आत्मा वलोकन के द्वार खोलते हैं यह एक सुखद आश्चर्य ही है।
जवाब देंहटाएंकवयित्री को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ ।
वेटिंग रूम में सोती स्त्री मुग्ध और आश्वस्त करने वाली कविता है.. बहुत प्यारी बहुत दूर तक जाने वाली.. बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत ही खूबसूरत कवितायें और आकर्षक प्रस्तुति के लिये बधाई व अभिनन्दन स्वीकारें! अनुराधा इस दौर के कवियों में प्रथम पंक्ति में हैं। उनकी कविताएं समग्र जीवन की कविताएं हैं। इन दिनों कई कवियत्रियां अच्छी कविताओं से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।इनकी कविताएं सिर्फ़ स्त्री पीड़ा की कविताएं नहीं हैं। किसी विमर्श का दावा किये बगैर इन्हें पूरे जीवन परिदृश्य में जोड़ कर पढ़ा जाना चाहिए। कविता का समकालीन परिदृश्य इन कविताओं से निखर कर सामने आ जाता है। मैं अनुराधा जी को बधाई देता हूं और समालोचन परिवार के प्रति आदर व्यक्त करता हूँ।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंसमस्त कविताएं विशिष्ट बिंब विधान, सहजता और हमारे होने की प्रश्नाकुलता की अभिव्यक्ति हैं जो पाठक के पटल पर गीली रेखाओं की नयी ज्यामितीय निर्मित करती हैं ।
अनुराधा जी की कवितायें चेतना की दृष्टि और अस्तित्व से परिपूर्ण एक नयी भाषा को जन्म देती हैं. उनके वक्तव्य ने अपने कवि-मन की गिरहें भी बहुत खूबसूरती से खोली हैं.
जवाब देंहटाएंअनुराधा की कविताएँ सोचती हुई नम आँखों की कविताएँ हैं और लम्बे समय तक चुप रहे ऐसे पपड़ियाए ओठों की कविताएँ जो जीवन - जगत् की हर विडम्बना पर काँपे पर तब तक इंतज़ार किया जब तक जगबीती आपबीती की कसक से थर्रा न उठी
जवाब देंहटाएंनए कवियों में अनुराधा सिंह की कविताएं अलग से पहचान में आती हैं । बहुत सरल, सहज और संयत लहज़ा अर्जित किया है अनुराधा सिंह ने । स्वाभाविक कविताएँ । एक स्त्री की कविता होते हुए भी ये कविताएँ स्त्रियोचित और स्त्रीवादी नहीं है जबकि इनकी कविताओं में स्त्री की आवाजाही और स्वाभाविक उपस्थिति है । रेलगाड़ी पर बहुत यादगार कविताएँ लिखी गईं हैं उनमें खुलने वाली रेलगाड़ी और रेलवे स्टेशन पर सोई हुई स्त्री जैसी कविताओं को भी शामिल किया जा सकता है । अनुराधा सिंह की कविताओं में बिम्ब हैं लेकिन वे अलग से नहीं चमकते बल्कि वर्णन में शामिल हो जाते हैं । तरलता और करुणा भी भाषा में बहती हुई हैं । अनुराधा सिंह और समालोचन का आभार इन सुंदर कविताओं को पढ़वाने के लिए |
जवाब देंहटाएंहमारे समय की बेहद महत्वपूर्ण रचनाकार के पास आलोचक की चेतना और रचनाकार का ह्रदय है .रचना करते हुए खुद को तौलते जाना उनकी कविताओं का वैशिष्ट्य है .बेहद सधी भाषा में ,धैर्य से बहुलार्थी कविता लिखना उनका स्वभाव है .अद्भुत सम्प्रेषण करने वाली कवितायेँ ,मेरी बहुत सद्कामनाएं उनके लिए.
जवाब देंहटाएंकुछ कविताएँ बेवजह लंबी हो गई है. अंग्रेज़ी शब्द खटकते हैं.
जवाब देंहटाएंकहीं पढ़ा था कि अच्छी कविता बार-बार पढ़े जाने की मांग करती है । ऐसा इसलिए कि कविता हरबार हमारे सामने अर्थ की कोई नयी संभावना या नयी खिड़की खोल देती है । किसी नये क्षितिज का आभास उसे फिर से पढ़ते हुए अगर महसूस होने लगे तो यह कविता के पक्ष में है और उसकी नयी संभावनाओं की तस्दीक़ भी । अनुराधा सिंह की कविताएँ इस कसौटी पर खरी उतरती हैं । ये कविताएँ ज्वारभाटे की तरह बाह्य यथार्थ से जद्दोजहद और आत्मसंघर्ष करते हुए अवचेतन तक जाती हैं और फिर वहाँ से कुछ टटके बिंब लेकर लौट आती हैं । एक स्त्री होना मानो एक समुद्र होना हो । उस स्त्री होने की यातना जीवन के संघर्षों और उसकी गहन अनुभूतियों से फेनिल हो कविता में जब निथरती है, तो वह उतनी सहज-सरल नहीं होती । वह कविता के भीतर पककर एक भिन्न स्वाद देती है । उस स्वाद में मिठास कम कड़वाहट अधिक होता है । लेकिन एक अलग धरातल पर ये कविताएँ अंत:सलिला फल्गु नदी की तरह भी हैं ।
जवाब देंहटाएंयूं तो अनुराधा सिंह की कई कविताएं बहुत अच्छी लगीं पर कितनी पुरुष हो जाना चाहती हूँ, लाजवाब है।
जवाब देंहटाएंइतनी सुंदर कविताएं प्रकाशित करने के लिए अरुण जी को धन्यवाद। वेटिंग रूम वाली कविता भी अच्छी लगी।
बेहद सारगर्भित आत्म वक्तव्य में अनुराधा बिल्कुल सही कहती हैं कि दुनिया के सब तथाकथित ज़रूरी कामों के बीच से बहुत ज़रूरी कविताएँ झाँकती रहती हैं.... मैं(हर कवि, यह मेरा आग्रह है) कविता इसलिए लिखती हूँ कि बहुत साधारण जीवन को भाषा की चमक और ताप दे सकूँ .... पर जब वे कहती हैं कि कविता में विमर्श वैसे ही आना चाहिए जैसे सर्दी खाँसी ग्रस्त बालक को एक ढक्कन भर ब्रांडी पिला दी जाये तो इस वक्तव्य पर मेरा खास तौर पर ध्यान ठहर जाता है। बचपन से हमने भी यही सुना है कि एक बार बच्चे को ब्रांडी दे दी गई तो उसके बाद किसी और दवा का असर नहीं होता.... इसीलिए यदि ब्रांडी को अनुराधा सभी विसंगतियों को दुरुस्त करने वाली विचार सांद्रता के रूप में लेती हैं तब तो ठीक अन्यथा उसकी सोच समझकर प्रतीकात्मक और न्यून उपस्थिति के आग्रह पर इन कविताओं के संदर्भ में जरूर गौर किया जाना चाहिए।हालाँकि अनुराधा ने स्पष्ट नहीं किया है लेकिन मैं उनकी कविताओं में इंसानियत के श्रेष्ठतम मूल्यों के और भारतीय मध्यवर्ग में स्त्री पुरुष बराबरी और सम्मान के आग्रह को विमर्श के रूप में लेता हूँ।
जवाब देंहटाएंवैसे मैं अनुराधा की अब तक प्रकाशित अधिकांश कविताओं से गुजरते हुए प्रेम को उनका सबसे बड़ा और केंद्रीय सरोकार समझ पाया हूँ - वे व्यापक इंसानी सरोकारों की बड़ी सी हवेली में विचरण करते हुए स्त्री पुरुषों के अंतःपुर में झाँकने की खिड़की खोलती है पर सनसनी पैदा करने के लिए चटखारे लेते हुए उनकी अंतरंगता पर रौशनी फेंक कर उनकी निजता में हस्तक्षेप नहीं करतीं बल्कि उनके बीच की अवांछित विभक्ति और ट्रस्ट डेफिसिट की बड़ी बारीक और निहायत विश्वसनीय बिम्बों के साथ शिनाख्त करती हैं - गुम चोट ( मोह और विराग के स्थान पर मौन का छल और हिंसा ) और कुर्ब ( हवाओं की सहज गंध और स्पर्श के स्वप्न को निर्ममता के साथ कुचल देना ) और करो मुझे नजरअंदाज (प्रेम में ईर्ष्या से अधिक नजरअंदाज , न आशीष न श्राप आये मेरे हिस्से ) कुछ उदाहरण सामने हैं। मुझे लगता है कि ऐसा करते हुए उनका आग्रह निरंतर इन बर्तावों के पूरा पूरा उलट होने का रहता है - यह गहरी भावनात्मक आपदा के समय में उनके हाथ में थामा हुआ एक सफ़ेद परचम है जो इंसानियत और नमी के फिर से लहलहाने का आर्तनाद है। अपनी कविताओं में प्रेम के कुटिल, छलपूर्ण और अधूरे चित्र को दिखा कर वे बार बार उनके उदात्त , भरोसेमंद और सम्पूर्ण होने की माँग करती हैं। इन बेहद अर्थपूर्ण और स्पष्ट वैचारिकी वाली कविताओं के लिए अनुराधा को फिर से बधाई - समालोचन ने उन्हें पढ़ने का मंच उपलब्ध कराया , शुक्रिया।
---- यादवेन्द्र
अद्भुत कविताएं हैं। स्त्री जीवन को व्यक्त करने की एक अलग भाषा संभव की है कवयित्री ने, जो उन्हें समकालीनों में विशिष्ट पहचान देती है। उनका संग्रह मंगवाकर पढ़ूंगा।
जवाब देंहटाएं'मटर का कीड़ा' प्रथम दृष्ट्या बड़ी भली कविता लगी। बाक़ी कविताएं भी अच्छी हैं। इनमें ज़बानो-बयान की सफ़ाई के अलावा एक सेंस आफ़ ह्यूमर भी है जो जीवंतता और enlightened sensibility (प्रबोधन कैसे लिखूं!) की निशानी है।
जवाब देंहटाएं2. लफ़्ज़ गुम है न कि ग़ुम।
बहुत ही शानदार लाजवाब सुन्दर रचनाऐं प्लीज मेरी रचनाओं पर भी अपनी राय दे
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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