सबद - भेद : सूत्रधार : राजीव रंजन गिरि







भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित वरिष्ठ कथाकार संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ पर राजीव रंजन गिरि का यह आलोचनात्मक आलेख उक्त उपन्यास के सभी पक्षों की  गंभीर विवेचन करता है. भिखारी ठाकुर के देश – काल से संजीव के समकाल की यात्रा को समेटने में उपन्यास कहाँ चूक गया है, इस पर भी विचार किया गया है. राजीव रंजन की आलोचनात्मक दृष्टी और साहस को  उम्मीद की तरह देखा जाना चाहिए. 






हीरा भोजपुरी का हेराया बाज़ार में          
राजीव रंजन गिरि


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संजीव अपने समय के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं. उन्होंने ‘पूत-पूत-पूत-पूत’, ‘अपराध’, ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’, ‘लिटरेचर’, ‘आरोहण’, ‘ट्रैफिक जाम’ और ‘खोज’ जैसी कई लोकप्रिय एवं चर्चित कहानियाँ लिखी हैं. इसके साथ ही संजीव ने ‘किशनगढ़ के अहेरी’, ‘सर्कस’, ‘सावधान! नीचे आग है’, ‘धार’, ‘पाँव तले की दूब’, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’, और ‘सूत्रधार’ उपन्यास भी लिखे हैं. आखिर उनकी कथा में ऐसा क्या है, जो उन्हें उनके समकालीन कथाकारों से अलग करता है? साथ ही उन्हें बतौर महत्त्वपूर्ण कथाकार स्थापित करता है?

संजीव अपनी प्रत्येक रचना के लिए शोध करते हैं. भाषा के स्तर पर और कथ्य के स्तर पर भी. श्रम-साध्य शोध को, अपनी दृष्टि से, कथा में पिरोते हैं. गझिन बनाते हैं. संजीव जहाँ की कथा कहते हैं, मानो वहीं बस जाते हैं. कथा पढक़र पाठक वहाँ की बोली-बानी और भूगोल को भी समझ सकता है. इन सबके साथ, संजीव की वैचारिक दृष्टि भी स्पष्ट दिखती है. संजीव ने जिन मुद्दों पर लिखा है, उसी से उनकी एक अलग पहचान बनती है. उनकी रचनाएँ कलात्मकता के साथ ही उनकी पक्षधरता भी रेखांकित करती हैं. संजीव कथा के लिए जिस विषय का चुनाव करते हैं, उस पर महानगरों के ड्राइंगरूम में बैठकर नहीं लिखा जा सकता. अगर कोई लिखता है तो उस विषय के प्रति ईमानदारी नहीं बरतता. वह रचना विश्वसनीय भी नहीं होती है. अन्तत: कमजोर रचना सिद्ध होती है.

‘सावधान! नीचे आग है’, ‘धार’, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’, या फिर ‘सूत्रधार’ में संजीव ने जिन विषयों पर लिखा है; उन पर लिखने के लिए उन इलाकों में भटकने का साहस भी किया है उन्होंने. तथ्यों को प्राप्त कर, उनके रचनात्मक उपयोग की बेहतर क्षमता भी है उनमें. अपनी किस्सागोई व कलात्मकता के सहारे संजीव, उन विषयों पर, लिखने का जोखिम उठाते हैं.


२.
संजीव का उपन्यास ‘सूत्रधार’ भोजपुरी भाषा के लोक-कलाकार भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित है. इस आलेख का दो भाग हैं. पहले हिस्से में बजरिये ‘सूत्रधार’ कथाकार संजीव अपने कथा-नायक भिखारी ठाकुर के जीवन और उस जमाने को, जिस रूप में दिखाना चाहते हैं, उसे जाहिर किया गया है. यह हिस्सा संजीव के पक्ष की व्याख्या है. दूसरे हिस्से में, संजीव के देखन और दिखावन का विश्लेषण करते हुए, उसमें निहित समस्याओं की तरफ इशारा किया गया है; ताकि कथाकार के पक्ष की जाँच-पड़ताल हो सके.

भिखारी ठाकुर का जन्म बिहार के तत्कालीन सारन (अब छपरा) जिला के एक पिछड़े गाँव कुतुबपुर में हुआ था. उनके जन्म की तिथि को लेकर पर्याप्त मतभेद हैं. फिर भी कुछ लोग मानते हैं कि उनका जन्म 18 दिसम्बर, 1887 को हुआ था. वे चौरासी साल जीवित रहे. उनका निधन 10 जुलाई, 1971 को हुआ. भिखारी ठाकुर द्वारा रचे एवं मंच पर प्रदर्शित किए नाटक ‘बिदेसिया’, ‘गबर-घिचोर’, ‘बेटी-वियोग’ (कई लोग इसे ‘बेटी-बेचवा’ नाम देते हैं.) ‘भाई-विरोध’, ‘विधवा-विलाप’, ‘कलुयग-प्रेम’ एवं ‘नाई-बहार’ भोजपुरी भाषियों के बीच काफी लोकप्रिय रहे हैं. उनकी लोकप्रियता एवं नाटकों को परखते हुए, जगदीशचन्द्र माथुर ने उन्हें ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ और राहुल सांकृत्यायन ने ‘अनगढ़ हीरा’ कहा था.

अपने प्रारंभिक उपन्यासों से ही संजीव भारतीय समाज की समस्याओं पर बारीक नजर रखते आए हैं. कहना न होगा कि संजीव की अन्तर्दृष्टि उन्हें बारीकी प्रदान करती है. उनके उपन्यास ‘सूत्रधार’ को कुछ लोगों ने ‘आंचलिक उपन्यास’ की संज्ञा दी है; क्योंकि यह उपन्यास भोजपुरी भाषी लोगों की संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज एवं परम्परा को रेखांकित करता है. इस उपन्यास में भोजपुरी भाषी क्षेत्र की मिट्टी की महक है. लेकिन क्या इसकी वजह से सूत्रधार को ‘आंचलिक’ कहा जा सकता है? जवाब होगा, नहीं; क्योंकि आंचलिक उपन्यास में अंचल नायक होता है. कोई व्यक्ति-विशेष नायक नहीं होता. हिन्दी का श्रेष्ठ उपन्यास ‘मैला आँचल’, जो आंचलिक भी है; इसका बेहतरीन उदाहरण है. ‘सूत्रधार’ में भोजपुरी क्षेत्र मुख्य चरित्र नहीं है, बल्कि भोजपुरी भाषा के लोक-कलाकार भिखारी ठाकुर नायक हैं. भिखारी ठाकुर के बहाने ही उपर्युक्त तत्त्वों का समावेश किया गया है. सवाल उठता है कि संजीव बगैर भोजपुरी इलाके की संस्कृति, बोली, टोन के इस उपन्यास को लिखने में कितना सफल होते? इस सवाल पर मतभेद हो सकता है.

दरअसल, संजीव भिखारी ठाकुर को ‘भिखरिया, भिखारी, भिखारी ठाकुर, मल्लिक जी एवं राय बहादुर भिखारी ठाकुर’ तक चित्रित करना चाहते थे. अत: यह आवश्यक था कि भिखारी ठाकुर के चरित्र के विकास को विश्वसनीय बनाने के लिए, वे ऐसा प्रयोग करते. यूँ उपन्यास की रचना के लिए यह जोखिम भरा काम है. संजीव के लिए तो और भी. संजीव की अपनी बोली (मातृभाषा) अवधी है. भोजपुरी के एक कथा नायक को, ठेठ उसी की भाषा में, चित्रित करने के लिए जिन तत्त्वों की जरूरत है, उसको हासिल कर रचनात्मक उपयोग करने में लेखक का श्रम काफी बढ़ गया होगा. छपरा की स्थानीय बोली-बानी, रीति-रिवाज़, गाली, मुहावरे, परिवेश एवं खास टोन के समन्वय से रचित ‘सूत्रधार’ ज्यादा विश्वसनीय लगता है.


३.
भिखारी ठाकुर ने अपने रचनात्मक जीवन की शुरुआत भोजपुरी से की थी. अन्तिम दौर तक भोजपुरी का ही उपयोग किया. अलबत्ता भिखारी ठाकुर बाद में, हिन्दी का थोड़ा प्रयोग करने लगे थे. लेखक ने उपन्यास में इसे चित्रित भी किया है. लेकिन भिखारी ठाकुर खड़ी बोली हिन्दी का प्रयोग नहीं करते, या कर पाते हैं. उनकी हिन्दी वही है, जो एक आम भोजपुरी भाषी बोलता है. जो अपनी बोली को व्याकरण की कसौटी पर नहीं कसता. भोजपुरी युक्त हिन्दी. यह भाषा की जीवन्तता एवं लचीलेपन का सुन्दर नतीजा है. भूमंडलीकरण के मौजूदा दौर में ‘स्थानीयता’ की अस्मिता खतरे में है. भूमंडलीकरण के नाम पर सिर्फ ‘पूँजी का भूमंडलीकरण’ हो रहा है. इसी क्रम में अँग्रेज़ी भाषा का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है. भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, अवधी जैसी भाषा की कौन कहे, अब तो हिन्दी जैसी भाषा पर संकट के बादल छाये हैं. हिन्दी अब हिंगरेज़ी बनती जा रही है. सूचना-तन्त्र के विभिन्न माध्यमों के जरिये ऐसा हो रहा है. भोजपुरी तो भारतीय भाषाओं के बीच भी उपेक्षित रही है. ऐसे समय में ‘सूत्रधार’ की भाषा, सकारात्मक सन्देश देती है. आज जैसा व्यवहार अँगरेजी हिन्दी के साथ कर रही है, वैसा ही शोषणमूलक व्यवहार खड़ी बोली हिन्दी ने अपनी अन्य बोलियों (भाषा) के साथ किया है. ‘सूत्रधार’ ने प्रकारान्तर से भोजपुरी की अस्मिता को रेखांकित एवं स्थापित किया है.

‘सूत्रधार’ का प्रारम्भ भिखारी ठाकुर के जन्म से होता है. ‘सूत्रधार’ भोजपुरी इलाके की जनता के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय कलाकार भिखारी ठाकुर के जीवन को केन्द्र में रखकर लिखा गया उपन्यास है. इस प्रकार, यह एक ‘जीवनीपरक उपन्यास’ है.

भिखारी ठाकुर जैसे व्यक्तित्व को केन्द्र बनाकर उपन्यास लिखने में और भी कठिनाई है. वजह, उनकी प्रामाणिक जीवनी का अभाव. वे जीते जी ‘लीजेंड’ बन गये थे. जाहिर है, जनता ने अपने प्रिय कलाकार के बारे में खुद मिथ गढ़ लिया है. भिखारी ठाकुर के बारे में लोग भाँति-भाँति की बातें बताते हैं. जितने लोग, उतनी तरह की बातें. इन पंक्तियों के लेखक का घर भोजपुरी भाषी इलाके में है. अत: अपने गाँव के बड़े-बुजुर्गों से, भिखारी ठाकुर के बारे में, तरह-तरह की बातें सुनने को मिलती हैं. लोगों से उनके बारे में, उनकी लोकप्रियता के बारे में सुनकर अचरज होता है. ऐसे में लेखक ने, मिथ बन गये भिखारी ठाकुर के जीवन को, ‘सूत्रधार’ में जो गति एवं आकार प्रदान किया है, वह बेहतर किस्सागोई एवं वैचारिक दृष्टि का नमूना है.

जीवनीपरक उपन्यास लिखने के लिए जरूरी होता है, उपन्यास के नायक के देश-काल को पकडऩा. देश-काल की अच्छी समझ के बगैर जीवनीपरक या ऐतिहासिक उपन्यास लिखा नहीं जा सकता. यह भी सच है कि प्रत्येक रचनाकार तत्कालीन परिवेश को परखते हुए, अपनी समझ व दृष्टि के मुताबिक, तत्कालीन देश-काल यानी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की रचना करता है. वर्तमान के बोध और भविष्य के स्वप्न से भी ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को गढऩे में मदद मिलती है. लेकिन कभी-कभी वर्तमान, तत्कालीन देश-काल पर, हावी हो जाता है, तो कभी भावी स्वप्न से आक्रान्त होने के कारण भी विगत ठीक-ठीक समझ में नहीं आता; ऐसे में सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य की रचना नहीं हो पाती है. सही देश-काल को गढऩे के लिए ज्ञान के दूसरे अनुशासनों में हुए शोध व अध्ययन की जानकारी भी निहायत जरूरी होती है.

इतिहास के जिस दौर को, रचनाकार अपनी रचना में चित्रित करता है, उस देश-काल का सही चित्रण करने के लिए तत्कालीन समाज, संस्कृति, परम्परा, रीति-रिवाज़, राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज में मौजूद तरह-तरह के अन्तर्विरोध, तनाव और जटिलताओं की व्यापक समझ के बगैर सम्भव नहीं है. इसीलिए ज्ञान के दूसरे अनुशासनों से सहायता लेनी पड़ती है. काबिलेगौर बात है कि देश-काल की रचना कै मरामैन द्वारा ली गयी तस्वीर जैसी नहीं होती, क्योंकि तत्कालीन परिवेश सामने नहीं होता है. यह चित्रकार द्वारा बनाया चित्र होता है जिसे बनाने में चित्रकार तरह-तरह के रंगों को अपनी कल्पना एवं प्रतिभा द्वारा भरता है. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में भिखारी ठाकुर के व्यक्तित्व के विकास-क्रम को दिखाने के लिए, जिस परिवेश व देश-काल का निर्माण किया है, ज्यादातर विश्वसनीय है. भिखारी ठाकुर के बहाने समाज की जटिलता को, इस उपन्यास के जरिये, समझा जा सकता है.


४.
शिवकली देवी एवं दलसिंगार ठाकुर के पुत्र का नाम भिखारी ही क्यों पड़ा? इससे तत्कालीन सामाजिक संरचना के सत्तामूलक पहलू को समझा जा सकता है. नाम का भी समाजशास्त्र होता है. ‘‘नाम....? नाम पड़ा भिखारी. यूँ तो कितने अच्छे-अच्छे नाम हैं, लेकिन वे बड़ी जात वालों को शोभते हैं, फिर नाम पर कौन सिर खपाता.’’ (सूत्रधार, पृष्ठ-16 राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण) भिखारी ठाकुर का जन्म जिस परिवार में हुआ था, वह तथाकथित निम्न जाति (नाई जाति) में आता था. यह परिवार आर्थिक रू प से भी कमज़ोर था. आर्थिक एवं सामाजिक दंश झेल रहे इस परिवार को इतनी फुर्सत कहाँ कि नवजात बेटे के नामकरण के लिए सिर खपाये. इस तबके के लिए नाम तो महज बुलाने-पहचानने का जरिया है. यह तबका सामाजिक एवं आर्थिक रूप से इतना सबल नहीं है कि ‘नामकरण संस्कार’ कराये. आर्थिक दुर्बलता के कारण ‘नामकरण संस्कार’ के नाम पर पैसे खर्च नहीं कर सकता. सामाजिक रूढिय़ों के कारण सुन्दर नाम नहीं रख सकता. भिखारी जब स्कूल पढऩे जाते हैं तो (तथाकथित) बड़ी जाति के लडक़े चौंक जाते हैं.

‘‘ई के ह-अ रे?’’
‘‘नउवा!’’
‘‘नउवा...? इ हो पढ़ेगा? पढ़-लिख के तें का करेगा रे?’’
‘‘नौवा कौवा, बार बनौवा!’’ और तरह-तरह की अश्लील टिप्पणियाँ!
‘‘हजामत के बनायी?’’
‘‘नहरनी ले ले बाड़े रे, तनी नह काट दे.’’ (पृष्ठ-17)

ये पंक्तियाँ स्पष्ट करती हैं कि भिखारी की प्राथमिक पहचान एक व्यक्ति मात्र के रूप में नहीं, बल्कि एक ‘नउवा’ (जाति विशेष) के रूप में है. व्यक्ति की पहचान उसके कर्म से नहीं, अपितु जन्म से है. समाज द्वारा पूर्व निर्धारित जाति से है. तथाकथित बड़ी जाति के भिखारी के ही उम्र के भोले (!) बच्चों के मन में ये बातें इसी उम्र से भर गयी हैं. भिखारी के पढऩे से उन्हें आपत्ति क्यों है? पढक़र भिखारी शायद प्रदत्त पहचान को ठुकरा दे. अपनी नयी पहचान बनाये. समाज द्वारा पूर्व निर्धारित कर्मों को त्यागकर अपनी प्रतिभा एवं इच्छानुसार कार्य करे. तभी तो वे कहते हैं, ‘‘हजामत के बनायी?’’

भिखारी जिस समाज से आते हैं, उसका काम हजामत बनाना, न्योतना, टहलुअई करना है. स्कूल के विद्यार्थी ही नहीं गुरुजी भी इसी मानसिकता से ग्रस्त हैं. गुरुजी को  लगता है, मुफ्त का ‘टहलुआ’ मिल गया. वे ‘टीपने’ के लिए बाँह या टाँग पसार देते हैं. यही वह समय है, जब भिखारी का सरोकार परिवार से आगे समाज के अन्य लोगों से होता है. इस सरोकार से क्या सीख मिलती है, भिखारी को? भिखारी स्कूल जाना नहीं चाहते हैं. स्कूल छोड़ देते हैं. भिखारी एक दोस्त घुलटेन से कहते हैं, ‘‘नान्ह जाति के अलग से पाठशाला होखे के चाहीं.’’ इस पर घुलटेन दुसाध का जवाब है, ‘‘ओकरा में पंडीजी ना, नान्हे जात के मास्टर.’’ भिखारी के बचपन की इन घटनाओं के बाद दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्म-कथा ‘जूठन’ एवं जयनन्दन का उपन्यास ‘ऐसी नगरिया में केहि बिधि रहना’ का एक प्रसंग अनायास ही याद आता है. ओमप्रकाश वाल्मीकि से स्कूल के मास्टरजी पूरे स्कूल की सफाई कराते हैं, शेष लडक़ों को पढ़ाते हैं. जयनन्दन के उपन्यास के मास्टरजी (?), डोम जाति के अपने एक शिष्य के साथ, अप्राकृतिक यौनाचार तक करते हैं.

स्कूल छोडऩे के बाद भिखारी ठाकुर दियारे में गाय चराने जाते हैं. गाय चराने में भिखारी को आनन्द आता है. आखिर यह आनन्द क्यों आता है? दियारे में स्वतन्त्रता है. किसी की ‘टहलुअई’ नहीं करनी पड़ती है. अपने मन का करना है. कोई दबाव नहीं है. दियारे में गुंटी, चीका, कबड्डी, गुल्ली-डंडा खेलते हैं, दोस्तों के साथ. नाच-तमाशे, दुनिया-जहान की बातें आपस में करते हैं. भिखारी का विवाह हो गया है लेकिन ‘मेहरारू’ क्या होती है; इसका बोध नहीं. दियारे में ही भिखारी के कलाकार का जन्म होता है. खपटा बजाकर गीत शुरू करता है–

‘‘हम तऽ नइहर के बानी रसीली
कि लोगवा पागल कहेला ना ....’’
‘‘खटर-खटर खपड़ा बोलता, ‘खुदर-खुदर’ चुरती हाँड़ी की खीर. रस में आकर कोई गमछे का घूँघट बनाकर ठुमके लगाने लगता. एक गीत खतम होता तो दूसरा गीत छिड़ जाता. एक नाच खतम होता तो दूसरा. एक-एक गीत को कई-कई तरह से गाया जाता. अक्सर किसी-किसी की एक ही कड़ी याद रहती - एक दिन अइह-अ कान्हा, नदिया किनारे मोरा गाँव, नदिया किनारे की घन बँसवारिया...’’ (पृष्ठ 19)

स्कूल में जाति को लेकर अपमानित होने के बाद भिखारी ठाकुर को एक ‘यज्ञ’ में दुबारा अपमानित होना पड़ता है. एक ब्राह्मण को भिखारी की जाति का पता नहीं था. गौर वर्ण, सुन्दर व्यक्तित्व देखकर पुरोहितजी (!) भिखारी को ब्राह्मण का लडक़ा समझ गये थे. उनका आदेश पाकर भिखारी अल्पना बनाने लगे. थोड़ी देर में
एक दूसरे पुरोहित आये. ‘‘आते ही उसने पूछा– ई के ह-अ?’’
आवाज में इतनी घृणा थी कि भिखारी के हाथ-पाँव ठंडे हो गये, कलेजा काँपने लगा.
‘‘काहे का बात है?’’ पहले पंडीजी ने पूछा.
‘‘आपको ब्राह्मण नहीं भेटाया जो नाई के लडक़े से जग्गशाला भरस्ट करवा रहे हैं?’’
‘‘ई नाऊ है?’’
‘‘तब का! ....’’
‘‘वो बच्चा दूसरा काम देखो. एक बात सुन लो, जात मत छिपाना, पाप लगेगा.’’ भिखारी के हाथ-पाँव सुन्न. जैसे कोई चूक हो गयी हो. (पृष्ठ-22)

इसके बाद पुरोहितजी ने गंगा जल का छिडक़ाव कर मन्त्र से शुद्ध किया. जिस ‘यज्ञ’ में श्रम के सभी काम तथाकथित निम्न जाति के लोग कर रहे हों, उनके छूने से यज्ञशाला भरस्ट हो जाता है, भिखारी का भोला मन इसे समझ नहीं पा रहा था. गंगाजल नाई या कहार ढोकर ले आये थे, लकड़ी लोहार फाड़ रहा था. दूध-दही अहीर के घर से आया होगा, कलशा-परई कुम्हार दे गया होगा, दोना-पत्तल नट और डोम दे गये होंगे. आम का पल्लव मल्लाह दे गया था. बावजूद इसके यज्ञशाला भरस्ट. आश्चर्य तो यह है कि जिस गंगाजल को नाई या कहार लाया था, उसी से यज्ञशाला शुद्ध किया जा रहा था. यह है हिन्दू-समाज का अन्तर्विरोध.
मराठी के एक दलित कवि शरण कुमार लिम्बाले की कविता हिन्दू समाज का यह पाखंड रेखांकित करती है–

‘‘मस्जिद से अजान की आवाज आयी
सब मुसलमान मस्जिद में चले गये.
गिरजे की घंटियाँ बजीं
सब ईसाई गिरजे में चले गये.
मन्दिर से घंटे की आवाज़ आयी.
आधे लोग मन्दिर में चले गये,
आधे बाहर ही रहे.’’

हिन्दू धर्म के इस शोषणमूलक चरित्र को समझने के लिए अँगरेज़ी शासन के सांस्कृतिक तर्क को परखा जा सकता है. अँगरेज़ी शासक अपनी सत्ता कायम रखने के लिए जिस तर्क का सहारा लेते थे, वैसा तर्क प्रत्येक वर्चस्ववादी सत्ता गढ़ती है. अँगरेज़ अपने स्वार्थ को स्वीकार नहीं करते थे. उनके अनुसार, वे भारत को लूटने-खसोटने के लिए, अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए यहाँ शासन नहीं कर रहे थे; अपितु यहाँ के लोगों को सामाजिक-सांस्कृतिक रूप से बेहतर बनाने के लिए, कर रहे थे. चूँकि वे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं, इसलिए यह ईश्वर का आदेश है कि सबको बेहतर बनाने का जिम्मा लें. विचारणीय है कि आधुनिक युग में जिन तर्कों के जरिये अँग्रेज़ी सत्ता ने पूरी दुनिया को गुलाम बनाया; सदियों पूर्व अपने समाज के कुछ लोगों को गुलाम बनाने के लिए हिन्दू समाज ने भी उन्हीं तर्कों का उपयोग किया था. तभी तो उस यज्ञ में प्रवचन करने काशी से आये रामायणी बाबा कह रहे थे– ‘‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी! सभी प्राणी उसी ईश्वर के अंश हैं; वही जो बड़ा या वृहद् करता है - ब्री, हनताद इति ब्रह्मं! तब भी भेद और प्रभेद है. तब भाई लोग, बूझिए कि फरक कहाँ पड़ा. ई छोट बड़ कैसे भईल भाई! तो सुनिए छोट-बड़ हम और आप नहीं बनाए. ऊपर से ही बन के आया है– करई करावई भंजई सोई - ओही परमात्मा के छोट-बड़ बनावल है, हम-आप के हैं? इसमें झूठ तनिको नहीं है. बेद ब्रह्माजी के मुँह से निकला है, गीता विष्णु भगवान के साक्षात् अवतार कृष्णजी के मुख से निकली है और गोसाईंजी का रामायण पर स्वयं शंकर भगवान का दस्तखत है. ब्रह्म के तीनों महा अंश ब्रह्मा, विष्णु, महेश के बाद और कोई साखी-गवाही चाहीं?’’ (पृष्ठ 22) काशी से आये रामायणी बाबा (! ) सबसे बड़े झूठ को कैसे विश्वास के साथ आम जनता में प्रचारित कर रहे हैं?

इतिहास के उसी दौर में हिन्दू धर्म के बाह्याडम्बर, कुरीतियों, पाखंड एवं झूठ को मिटाने के लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ‘सत्यार्थप्रकाश’ की रचना की थी. इस पुस्तक में, उन्होंने रामायणी बाबा जैसे लोगों के झूठ का पर्दा फाश किया था. यह ठीक है कि दयानन्द के तार्किक दृष्टिकोण की भी सीमाएँ हैं. बावजूद इसके वे कई भ्रमों को ठीक से समझते थे. प्रवचन के जरिये प्रचारित किया जा रहा है कि ‘छोट-बड़’ ईश्वर ने ही बनाया है. मैकियावेली ने ठीक कहा था कि शासक वर्ग को अपनी सत्ता कायम रखने के लिए सुनियोजित भ्रम का प्रचार करना चाहिए. जाति-प्रथा, ऊँच-नीच को ईश्वर प्रदत्त बताना, सुनियोजित भ्रम ही तो है.

भिखारी ठाकुर जाति-प्रथा के दंश को झेलते हैं. उसके शोषणमूलक चरित्र को समझते हैं. उन्हें शोषण का बोध है. एक बार जब उनकी मुलाकात एक सूरदास से होती है. वे सूरदास के गीत की तारीफ करते हैं. सूरदास के पूछने पर कि ‘‘के ह-अ भाई?’’
जवाब देते हैं – ‘‘महाराजजी हम हईं-भिखारी, कुतुबपुर दीयर, जिला, सारन के नाई.’’


५.
भिखारी ठाकुर को ‘बेगारी’ का बोध है. ‘नान्ह जात’ पर हो रहे अत्याचार की समझ है. यहाँ जाति का दंश झेल रहे कलाकार भिखारी ठाकुर की पीड़ा अभिव्यक्त हुई है. हमारा समाज कला से आनन्दित होता है लेकिन कलाकार को महत्त्व नहीं देता. सामन्ती समाज में ऐसा होता है. वही व्यक्ति जो ‘नाच’ में शाबासी देता है, बाद में ताना मारता है. कलाकार के महत्त्व, उसकी मनोदशा, पीड़ा को नहीं समझता है. भिखारी की पीड़ा है कि ‘‘तो क्या यँू ही टहलुअई करते बीत जाएगी पूरी उमर? मन में अजीब-सी खलल है. इस फन्दे से छुटकारा पाये बिना गति नहीं. असहनीय पीड़ा, जैसे अंडे से कोई चूजा निकल आने की जद्दोजहद में हो.’’ (पृष्ठ 47) यही ‘सूत्रधार’ का केन्द्रीय तत्त्व है. भिखारी के जीवन एवं रचनात्मक संघर्ष की वजह भी यही है.

भिखारी ‘टहलुअई’ करते जीवन बिताना नहीं चाहते हैं. उन्हें यह बोध है कि इस फन्दे से छुटकारा पाये बिना गति नहीं. असहनीय पीड़ा भी होती है. कलाकार भिखारी बनने के लिए यह पीड़ा प्रेरित करती है. आखिर कैसे छूटे टहलुअई? अब ‘कलाकार’ भिखारी के जीवन की शुरुआत होती है. भिखारी के दोस्त रामानन्द सिंह, जो भाई-जैसा स्नेह देते हैं, ‘रामलीला’ की भूमिका के बँटवारे को लेकर चिन्तित हैं. रामलीला में राम की भूमिका ‘नान्ह’ जाति के लडक़े नहीं कर सक ते. ‘‘बबनवा, रामनवला, धनी और शिवहरखा-चार नाम आये. इनमें एक कोइरी, एक कुर्मी, एक दुसाध और एक राजपूत. नान्ह जातियों के लडक़ों को रामानन्द सिंह ने एक स्वर में खारिज कर दिया.’’ (पृष्ठ 50) यह है उस समाज की सच्चाई, जहाँ कलाकार भिखारी का उदय होता है. जबकि रामानन्द सिंह बाकी ‘बबुआन’ से उदार हैं. तब भी उनकी मानसिक स्थिति ऐसी है. आखिर जिस समाज में रामानन्द सिंह जैसे लोगों की मानसिक बुनावट ऐसी बनती है; उस समाज की, शेष बबुआन की, सामाजिक स्थिति की कल्पना की जा सकती है.

रामलीला के बाद भिखारी ठाकुर नाच शुरू करते हैं. वे तत्कालीन नाच मंडलियों से इत्तफाक नहीं रखते हैं. वे अलग किसिम की नाच मंडली शुरू करना चाहते हैं. यहाँ भिखारी की नाच मंडली के उद्देश्य का पता चलता है.
‘‘हम दूसरे ढंग की नाच चाहते हैं जिसमें रस-रंग तो हो लेकिन मरजाद न टूटे.’’
‘‘ऐसा कैसे होगा कि नाचो भी और घुँघटा भी बना रहे?’’ (पृष्ठ-62)

भिखारी अपने नाच को ‘तमाशा’ कहते हैं. अपने नये तमाशे के लिए खुद रचनाएँ करते हैं. नाच शुरू करने पर गाँव के लोग ताना मारते हैं. पिता भी नाराज होते हैं. दलसिंगार ठाकुर अपनी ‘मरजाद’ के भय से नाच का विरोध करते हैं. समाज में इन कलाकारों को क ई स्तरों पर संघर्ष करना पड़ता है. स्वयं भिखारी तीन स्तरों पर आजीवन संघर्ष करते रहे. जीने के लिए आर्थिक परेशानी के स्तर पर, कला के स्तर पर; तथा तीसरा, सामाजिक समानता के स्तर पर. भिखारी की कला दलसिंगार ठाकुर को पसन्द नहीं है. वजह स्पष्ट है, समाज में इन कलाकारों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है. दलसिंगार ठाकुर भिखारी को ‘बिगड़ा’ मानते हैं और अपनी पत्नी को कोसते हैं– ‘‘अभी तो हम बोल रहे हैं, कल पूरा समाज बोलेगा, लडक़ा-लडक़ी का बियाह-शादी रुक जाएगा, तब पता चलेगा.’’

‘‘जब कोई पूछेगा कि लडक़ी का बाप का करता है तो हम का क हेंगे कि नचनिया है?’’ (पृष्ठ-63)
भिखारी अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करते हैं. संघर्ष का जरिया है कला. लेकिन यहाँ तो कला की ही प्रतिष्ठा नहीं थी. कला की प्रतिष्ठा स्थापित करने की कोशिश में भिखारी नयी नाच मंडली बनाते हैं. नाच में होने वाली कहानियों के बरअक्स सामाजिक समस्याओं को केन्द्र में रखकर नयी-नयी कथा रचते हैं.

गाँव में जाति-व्यवस्था के पायदान पर चाहे कोई कहीं हो, अगर वह नाच में चला गया तो उसका एक अलग पायदान, सबसे नीचे, माना जाता था. ‘‘नचनियों, बजनियों और अछूतों की अलग पाँत बैठती थी. पहले बाभनों की पाँत बैठी दुआर पर, फिर साफ-सफाई छिडक़ाव के बाद राजपूतों की, उसके बाद दूसरी जातियों की. इसी के साथ मूल पाँत से काफी दूर हट-हटाकर पशुओं की सार के बदबू देते कीचड़ के बगल नचनियों, बजनियों, अछूतों की पाँत बैठाई होगी.’’ (पृष्ठ 121) समाज में जो स्थान तथाकथित अछूतों का था, वही स्थान इन कलाकारों का भी था.

संजीव के भिखारी ठाकुर अपनी ‘जाति-अस्मिता’ को लेकर चिन्तित हैं. भिखारी के ‘तमाशा’ की लोकप्रियता काफी बढ़ गयी. लोग ‘बेटी-वियोग’ को ‘बेटी-बेचवा’ और ‘बहरा-बहार’ को ‘बिदेसिया’ नाम से जानने लगे. ‘तमाशे’ से आगे बढक़र यह किस्सा बन गया, फिर ‘गाथा’. ‘बिदेसिया’ एक शैली बन गयी. भिखारी का ‘बेटी-वियोग’ देखकर अनेक लड़कियों ने बूढ़े दूल्हे से शादी करने से इनकार करना शुरू किया. उस समाज में भिखारी के गीत ‘‘अगुआ के पूत मरे, बभना के पोथी जरे’’ लोकप्रिय हुए. पैसा लेकर पिता की उम्र के दूल्हे से बेटी की शादी करने वाले बड़े (!) लोगों को इससे विरोध था. कई जगह काफी परेशानी हुई, नाच-मंडली को. यहीं भिखारी प्रदत्त परम्परा से टकराते हैं.

यह देखना वाजिब होगा कि नवजागरण के उस दौर में भिखारी ठाकुर जैसे व्यक्ति जो अँगरेज़ी शिक्षा के प्रभाव से पूरी तरह वंचित हैं, उनका महत्त्व क्या है? साथ ही, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से वंचित, इस लोक कलाकार की सीमाएँ क्या थीं? भिखारी ठाकुर का उद्देश्य नवजागरण लाना सीधे तौर पर भले ही न रहा हो, लेकिन उनकी रचनाओं एवं नाच में, जिन सवालों का जिक्र है, वे नवजागरण से जुड़ते हैं. छुआछूत का सवाल, स्त्रियों की पराधीनता का सवाल— नवजागरण के केन्द्र में रहे हैं.

महेन्द्र मिसिर, फेकू सिंह से मिलने पर जो चर्चा होती है, वह भिखारी को अपनी अस्मिता के प्रति सचेत करती है. भिखारी को ‘‘अचरज हुआ, यहाँ किसी ने भी ‘बेटी-वियोग’ या ‘बहरा-बहार’ की चर्चा न की. बात राजों, रजवाड़ों, काँग्रेस और ऊँची जाति के नामी वीर पुरुषों तक महदूद रही. इस गौरवशाली परम्परा में खुद को कहीं से भी जोड़ नहीं पा रहे थे भिखारी. उनके मन में बार-बार एक सवाल उठ रहा था, ‘‘इनमें नाई कहाँ है, नाई की बात तो दूर- दूसरी नान्ह जाति के लोग ही कहाँ हैं?’’ (पृष्ठ 127) यह है संजीव रचित भिखारी की चिन्ता. यह महज भिखारी की चिन्ता नहीं, बल्कि हाशिये के लोगों के पूरे समूह की चिन्ता है.

भिखारी लोकप्रिय होते हैं. बाद में सम्मान भी पाते हैं लेकिन उनके गाँव के लोग उन्हें बार-बार ‘टहलुआ’ होने का अहसास कराते हैं. नान्ह जात का बोध कराते हैं. यही वजह है कि वे कथित बड़े लोगों को केन्द्र बनाकर कुछ नहीं लिखते. अन्तत: भिखारी की यश-प्रतिष्ठा उन्हें ‘टहलुअई’ से मुक्ति दिलाती है. भिखारी अपनी प्रतिभा के बल पर, प्रदत्त परम्परा को अस्वीकार कर, अपनी कला को स्थापित करते हैं. आज भिखारी ठाकुर पर भोजपुरी भाषी जनता को विशेष रूप से गर्व है. उसी भिखारी को कितनी पीड़ा पहुँचायी गाँव-समाज के लोगों ने, ‘सूत्रधार’ इसका साक्ष्य है. उन्नीसवीं सदी के भारतीय गाँवों में व्याप्त व्यभिचार, भेद-भाव, आन्तरिक-उपनिवेश एवं शोषणमूलक व्यवस्था का दस्तावेज़ है - ‘सूत्रधार’. ‘सूत्रधार’ में न सिर्फ भिखरिया से रायबहादुर भिखारी ठाकुर के जीवन-संघर्ष को समझा जा सकता है, अपितु तत्कालीन भारतीय गाँवों की जटिलताओं को भी देखा-परखा जा सकता है.

यह है संजीव के भिखारी ठाकुर का पक्ष वाया ‘सूत्रधार’. ‘सूत्रधार’ संजीव का सृजन है, लिहाजा ‘सूत्रधार’ में चित्रित भिखारी ठाकुर संजीव की अन्तर्दृष्टि और कलात्मकता के परिणाम हैं.


६.

सूत्रधार की समस्याएँ                                

संजीव ने भिखारी ठाकुर के इस ‘जीवनीपरक उपन्यास’ के बहाने, जीवनीपरक उपन्यास के बारे में जो धारणा जाहिर की है, वह एक कसौटी है ‘सूत्रधार’ के मूल्यांकन की. संजीव ने बताया है एक जीवनी लिखना जीवनीपरक उपन्यास लिखने की तुलना में सरल होता है क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख कर छुट्टी पाया जा सकता है. जबकि जीवनीपरक उपन्यास में औपन्यासिक प्रवाह बनाते हुए मुहाने तक पहुँचाना ही पड़ता है, यहाँ द्वन्द्व और दुविधा की कोई गुँजाइश नहीं है. दो, उपन्यास लेखन भी जीवनीपरक उपन्यास लेखन की अपेक्षा सरल होता है, क्योंकि यहाँ भी तथ्यों से बँधकर नहीं रहना पड़ता.

‘सूत्रधार’ के खास सन्दर्भ में संजीव ने जो बताया है, उस पर आने से पहले संजीव की उपरोक्त दोनों धारणाओं
की बाबत कहना जरूरी है कि; अव्वल तो यह है कि ‘जीवनी में परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख कर छुट्टी नहीं पाया जाता. जो जीवनीकार ऐसा करता है, उसकी कृति दोयम दर्जे का जीवनी-साहित्य साबित होती है. ऐसी कृतियाँ श्रेष्ठ जीवनियों के तौर पर शुमार नहीं होंती. कहना न होगा कि जीवनीकार को भी अपने जीवनी-नायक की जीवनी रचने के वास्ते एक परिप्रेक्ष्य निर्मित करना होता है और उसी परिप्रेक्ष्य में अपने नायक  के  चरित्र का विकास दिखाना होता है. यह भी दिखाना होता है कि उस खास परिप्रेक्ष्य में जीवनी नायक का चरित्रगत विकास सकारात्मक है या ह्रासात्मक. उल्लेखनीय यह भी है कि जिस जीवनी में ‘परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख कर छुट्टी’ पा लिया गया होता है, वह कृति जीवनी का तथ्य व स्रोत-संग्रह मात्र होती है, जीवनी-साहित्य नहीं. अमृत राय लिखित प्रेमचन्द की जीवनी ‘कलम का सिपाही’ उत्कृष्ट जीवनी-साहित्य का प्रमाण है; जबकि प्रेमचन्द के जीवन से सम्बन्धित परस्पर विरोधी दावों के तथ्यों का उल्लेख करने वाले मदन गोपाल की कृति ‘कलम का मजदूर’ वह दर्जा नहीं पाती, जो ‘कलम का सिपाही’ को हासिल है.

संजीव का यह नजरिया भी सच्चाई से कोसों दूर है कि जीवनीपरक उपन्यास में ‘औपन्यासिक प्रवाह’ बनाते हुए किसी मुहाने तक पहुँचना ही पड़ता है, यहाँ द्वन्द्व और दुविधा की कोई गुँजाइश नहीं होती; जबकि जीवनी में ऐसा नहीं है. असलियत तो यह है कि जीवनी में भी रचनाकार को किसी मुहाने तक पहुँचना ही पड़ता है. बगैर किसी मुहाने तक पहुँचे, कोई भी कृति न तो तार्किक परिणति पा सकती है और न ही कलात्मक परिणति. हाँ, भले ही जीवन में ‘औपन्यासिक’ प्रवाह न हो पर ‘प्रवाह’ तो वहाँ भी रचना होता है. रही बात द्वन्द्व और दुविधा की –संजीव के मुताबिक जीवनीपरक उपन्यास में जिसकी कोई गुंजाइश नहीं होती–तो कहना होगा कि द्वन्द्व और दुविधा कमजोरी नहीं अपितु चुनौती होती है. द्वन्द्व और दुविधा कृ ति की श्रेष्ठता का एक पक्ष भी होती है. देखना होता है कि कृतिकार ने द्वन्द्व और दुविधा कितनी रचनात्मकता के साथ, कृ ति में रचाया-बसाया है.

७.
बकौल संजीव, उपन्यास-लेखन भी जीवनीपरक उपन्यास लेखन की अपेक्षा सरल होता है, क्योंकि यहाँ भी तथ्यों से बँधकर नहीं रहना पड़ता. अव्वल तो यह है कि उपन्यास में, जीवनीपरक उपन्यास के नायक के जीवन से सम्बद्ध ऐतिहासिक तथ्य भले नहीं होता, परन्तु यहाँ भी उस उपन्यास का अपना तथ्य तो होता ही है. भले ही इस तथ्य की रचना उपन्यासकार अपने विवेक, दृष्टिकोण और कला-कौशल के जरिये करता हो. उपन्यासकार इस ‘तथ्य’ को कलात्मकता की मार्फत विश्वसनीय और तार्किक दिखने लायक संरचना गढ़ता है. उपन्यास की संरचना और अन्तर्वस्तु दोनों मिलकर एक तथ्य ही निर्मित करते हैं, भले ही भिन्न प्रकार के; और गरचे वे ‘ऐतिहासिक तथ्य’ न होते हों.

इसलिए जोर देकर कहा जा रहा है कि संजीव की, जीवनी की बाबत धारणा, न तो तार्किक है और न वाजिब ही. बहरहाल, ‘सूत्रधार’ का मूल्यांकन करें तो कहना होगा कि भोजपुरी इलाके के सांस्कृतिक नायक भिखारी ठाकुर के जीवन के बारे में मौजूद तथ्य, किस्से और किंवदन्तियों के बारे में शोध कर, उपन्यासकार ने जो औपन्यासिक तथ्य सृजित किया है, वह खालिस संजीव का है. इस ‘तथ्य’ की रचना में संजीव का दृष्टिकोण हावी है, न कि भिखारी ठाकुर का जीवन. इस आलेख के पहले हिस्से में, अर्ज किया जा चुका है कि अतीत के किसी भी देश-काल की रचना फोटोग्राफर द्वारा ली गयी तस्वीर सरीखी नहीं होती, बल्कि यह चित्रकार द्वारा निर्मित चित्र जैसा होता है. इसलिए महत्त्वपूर्ण यह देखना होता है कि कलाकार ने चित्र बनाने के लिए किन-किन रंगों का सहारा लिया है. ‘सूत्रधार’ में भिखारी ठाकुर का जीवन रचने के लिए संजीव ने जो रंग भरा है, उस पर समकालीन अस्मितावादी विमर्श का गहरा असर दिखता है. लिहाजा यह कहना होगा कि ‘सूत्रधार’ के भिखारी ठाकुर का देश-काल बहुत हद तक विश्वसनीय होने के बावजूद इसके नायक, भिखारी ठाकुर, के चरित्र का विकास जिस दिशा में दिखाया गया है, वह संजीव की वैचारिक दृष्टि का परिणाम है. इसमें निहित संजीव का वैचारिक नजरिया पिछले दशकों में, विकसित दलित-पिछड़ी जातियों के आन्दोलन के आलोक में निर्मित हुआ है.

भोजपुरी भाषी इलाके के सांस्कृतिक, नवजागरण के अग्रदूत भिखारी ठाकुर की शख्सियत को संजीव ने दलित-पिछड़ी जातियों का प्रतीक-पुरुष बनाने की कोशिश की है. संजीव के इस कलात्मक प्रयास से ‘दलित-पिछड़ी राजनीति को एक मजबूत प्रतीक तो मिल गया परन्तु भिखारी ठाकुर का व्यापक दाय और उनकी बहुमुखी शख्सियत का दायरा सिमट गया.

इस लिहाज से, संजीव का सूत्रधार सफल भी है और असफल भी. सफल इस अर्थ में, कि जिस राजनीतिक इरादे और अस्मितापरक विमर्शों का ‘सूत्रधार’ संजीव ने रचा है, उससे दलित-पिछड़ी जाति-अस्मिता के लिए एक ‘सांस्कृतिक’ प्रतीक की सर्जनात्मक-औपन्यासिक निर्मिति सामने आयी है. प्रतीक-निर्माण के इस दौर में, अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय रहे पुरखों को कतर-ब्योंत कर, काट-छाँट कर, अपने-अपने वैचारिक नजरिये के उपयुक्त सृजित करने की परम्परा पल्लवित पुष्पित हो रही है. इस प्रक्रिया में पुरखों के देश-काल और चरित्र को, अपने वैचारिक-विमर्श के औचित्य के  अनुकूल गढ़ा जा रहा है. जाहिर है इतिहास के उस दौर और पूर्वज के व्यक्तित्व का जो पहलू, ऐसे रचनाकारों के वैचारिक दृष्टिकोण के लिहाज से ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ और वर्तमान के अनुकूल नहीं होते, उसे या तो नजरअन्दाज किया जाता है अथवा ऐसे कील-काँटों को खराद कर, रुचिकर बनाने की हिकमत की जाती है. अलबत्ता संजीव एक मँजे हुए रचनाकार हैं, लिहाजा उनकी कलात्मकता ‘सूत्रधार’ को विश्वसनीय मनवाने की सफल कोशिश करती है. इस मायने में ‘सूत्रधार’ सफल कृति है.

यह उपन्यास असफल इस अर्थ में है कि एक ऐसा व्यक्ति, जिसने व्यक्तिगत संघर्ष के जरिये, अपनी कला को स्थापित किया, लोगों के बीच स्वीकृति पायी और परिणामस्वरूप उस जमाने में, भोजपुरी भाषियों का सांस्कृतिक अगुआ बना– उसकी शख्सियत को संजीव ने महदूद करने की रचनात्मक कोशिश की है. दरअसल, संजीव की अवधारणात्मक समझ – कि उपन्यास में द्वन्द्व और दुविधा की गुंजाइश नहीं होती – का नतीजा है कि इन्होंने भिखारी ठाकुर के बहुस्तरीय और बहुआयामी संघर्ष को एकस्तरीय और एकायामी बनाकर बेहद सँकरा कर दिया है. यह संजीव की तंगनजरी का प्रमाण है और परिणाम भी.

भिखारी ठाकुर के सर्जनात्मक संघर्ष का नतीजा है कि नाच शुरू करने से पहले जिन द्विज लोगों के नजर से वे महज ‘नाई’ हैं; नाच प्रतिष्ठित होने के बाद वे महज ‘नाई’ नहीं रहते. नाच यानी कला की स्वीकृति और प्रतिष्ठा के पश्चात भिखारी ठाकुर भी स्वीकृत होते हैं और प्रतिष्ठित भी. सोचने लायक बात है कि अपने सबल्टर्न स्वर की अभिव्यक्ति के साथ भिखारी ठाकुर ने अपनी कलात्मकता को विस्तारित किया था, उसका दर्शक क्या सिर्फ कथित पिछड़ी और दलित जमात के लोग थे. भिखारी ठाकुर के गाँव-जवार की अगर सभी द्विज आबादी, भिखारी और नाच दोनों के विरुद्ध ही होती तो; न तो द्विज जाति से आने वाले कलाकार उनकी मंडली में शामिल होते और न ही द्विज दर्शक मिलते. सवाल यह भी उठता है कि भिखारी ठाकुर के नाच की लोकप्रियता दूर-दराज के इलाके तक फै ली, तो क्या इसमें सिर्फ गैर द्विज स्वीकृति ही थी? अलबत्ता ध्यान देने लायक तथ्य यह भी है कि भिखारी ठाकुर के ‘नाच’ में जो गीत गाये जाते थे वे उनके दर्शकों के जरिये– क्योंकि कैसेट उद्योग का आविर्भाव नहीं हुआ था– मुँहा-मुँही प्रचारित-प्रसारित हो गये थे. भिखारी के ये गीत पर्याप्त लोकप्रिय भी हो गये थे. संजीव के ‘सूत्रधार’ में भी इसकी कुछ बानगी मिलती है. स्त्रियाँ शादी-विवाह के मौके पर ‘गाली गाते’ में, इन गीतों को  भी गाती थीं. ‘बभना के पोथी जरे’ गीत सिर्फ गैर द्विज जाति तक सीमित नहीं थे. अलबत्ता ये द्विज जाति - (ब्राह्मण जाति में भी) - में भी गाये जाते थे. भिखारी के ऐसे गीत ब्राह्मण जाति की शादी में भी महिलाएँ गाती थीं, इससे जटिल प्रत्यय निर्मित होता है. संजीव के यहाँ ऐसी असुविधाजनक जटिलताएँ सिरे से गायब है. भिखारी की कला में जिन मूल्यों का विरोध था, उन मूल्यों में रचे-बसे लोग भी उनके दर्शक और श्रोता बन गये; रूपान्तरण की ऐसी तमाम जटिल प्रक्रिया संजीव के ‘सूत्रधार’ में अन सुलझी-अनखुली  रह जाती है.

संजीव ने उस दौर के तनावों को बेहद सतह से समझा है. संजीव के ‘शोध’ की यह सीमा है और समस्या भी. दरअसल ‘शोध’ का मतलब महज तथ्यों को जमा करना नहीं होता. भिखारी ठाकुर ने जिस तरकीब से उस दौर के तनावों में अपना ‘नाच’ स्थापित किया था, उसमें एक अहम बात थी – भिखारी ठाकुर के नाच में अभिव्यक्त आवाज और उनके व्यक्तित्व की फाँक. उनके नाच में जिन समस्याओं को अभिव्यक्ति मिलती थी और इस अभिव्यक्ति में जो पक्ष लिये जाते थे, इसमें वे जिस तरीके से प्रतिपक्ष रचते थे; इसके रचयिता भिखारी का व्यवहार अपने विपक्ष के प्रति वैसा ही नहीं रहता था, जैसा ‘नाच’ के दरम्यान होता था. भिखारी की कला और उनके व्यक्तित्व की फ ाँक उनकी खूबसूरती है. इसे समझाने के लिए दूसरे शब्दों में कहें, भिखारी ठाकुर के नाच में अभिव्यक्त स्वर, ज्यादातर, पीड़ा को अभिव्यक्ति प्रदान कर उसका अहसास कराने, प्रतिपक्ष रचने का सुन्दर रचनात्मक प्रयास था. व्यथा की कलात्मक अभिव्यक्ति एक बड़ी वजह थी कि दर्शक  उसमें रस-विभोर होकर, इस तरह शामिल हो जाते थे कि खुद उस पीड़ा का पक्ष बन; उसके ‘अन्य’ का मजाक उड़ाने लगते थे. यह भिखारी की कला का अनोखापन था कि दर्शक सिर्फ आनन्द लेने वाले, मनोरंजन ग्रहण करने वाले नहीं रह जाते थे. यहीं दर्शक का व्यक्तित्वान्तरण होता था, भले ही अल्पकालीन. भिखारी का नाच दर्शक के चित्त, मानस और काल में अपनी जगह कायम करता था. यह खालिस भिखारी का अनूठापन था. संजीव अपनी सृजनात्मकता की परिधि में, इस अनूठापन को  समेटने में असफल रहे हैं.


८.
प्रश्न उठता है, संजीव की असफलता की वजहें क्या हैं? संजीव-सरीखा दृष्टि सम्पन्न रचनाकार कैसे चूक गया है? संजीव ने भोजपुरी इलाके में घूम-घूमकर भिखारी ठाकुर के जीवन के बारे में ‘सारा लोहा’ जुटा लिया, परन्तु अपनी ‘धार’ देने, भिखारी ठाकुर के जीवन से इस उपन्यास में ‘सान’ चढ़ाने में, सफल क्यों नहीं हो पाये? भिखारी ठाकुर के जीवन पर संजीव ने कहानी नहीं लिखी है, उपन्यास रचा है; इसलिए यह तर्क भी नहीं दिया जा सकता कि कहानी के कलेवर में सारे आयाम गुम्फित नहीं हो पाये हैं. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में जो औपन्यासिक वितान खड़ा किया है, उसमें भिखारी ठाकुर के अनोखेपन के तमाम आयाम सहेजे जा सकते थे, जो ‘सूत्रधार’ में नहीं हो सका. इसके कारण क्या हैं? ‘सूत्रधार’ में अनुस्यूत प्रसंगों का जिक्र कर, इस कारण के बारे में नतीजा निकाला जाएगा. ये दोनों प्रसंग ‘सूत्रधार’, भिखारी ठाकुर के जीवनारम्भ से लिए जा रहे हैं; क्योंकि शुरुआती कोण विकास की दिशा का संकेत बखूबी दे देते हैं.

पहला प्रसंग है, बालक भिखारी का नामकरण. बकौल संजीव, ‘‘यूँ तो कितने अच्छे-अच्छे नाम हैं, लेकिन वे बड़ी जात वालों को शोभते हैं, फिर नाम पर कौन सिर खपाता.’’ संजीव ने यहाँ दो मुद्दा रचा है. एक, अच्छे-अच्छे नाम तो हैं, परन्तु वे बड़ी जाति वालों को शोभा देते हैं. दो, नामकरण पर सिर कौन खपाता? यहाँ कथाकार ने जिन दो पहलुओं को उभारा है, उसमें से पहला पहलू उपन्यास के विकास का दिशा-सूचक है. नाम की सामाजिकता के अनेक आयाम, इसमें गुम हो गये हैं. इस बाबत संजीव के पहले ‘तथ्य’ पर विश्वास क रें तो भिखारी ठाकुर के माता-पिता के नाम के साथ इस तथ्य और तर्क  की संगति कै से बैठायी जाएगी? भिखारी के माता-पिता तो भिखारी से एक-पीढ़ी पहले के हैं; लिहाजा और पीछे के वक्त में, शिवकली देवी और दलसिंगार ठाकुर के नाम साबित करते हैं कि अच्छे नाम सिर्फ बड़ी जाति वालों को ही नहीं शोभते? दलसिंगार ठाकुर और शिवकली देवी, दोनों भिन्न-भिन्न परिवार में पैदा हुए थे और उस दौर के लिहाज से, दोनों के नाम, तथाकथित निम्न जाति में पैदा होने के बावजूद शोभा देते हैं. तो आगामी बीस-तीस साल में समाज आगे जाने के बजाय क्या पीछे चला गया? क्या जाति की कट्टरता लचीली होने के बजाय दृढ़ हो गयी, कि दलसिंगार ठाकुर-शिवकली देवी दम्पति को बच्चा का नाम भिखारी रखना पड़ा. दरअसल उस दौर के नामकरण की इतनी सरल और सपाट निर्मित संजीव ने ‘सूत्रधार’ में ‘धार’ देने के लिए की है, जो उस देश-काल की अधूरी समझ का परिणाम है अथवा समकालीन अस्मितापरक विमर्श के लिहाज से उस दौर में अनुकूल जमीन बनाने की कवायद.

इसमें कई दफे यह भी दिखता है कि ‘सिर खपाकर’ ही, शिशु के परिवार वाले, भिखारी-सरीखा नाम रखते हैं; इस नामकरण में कथित ऊँची और निम्न जाति की बंदिश और दीवार कम नहीं करती. ऐसे मामलों में, मान्यताएँ और लोक-विश्वास, द्विज-गैर द्विज, सवर्ण-अवर्ण सबको अपनी जद में रखते हैं.
इसीलिए इतिहास के उस दौर के जब भिखारी ठाकुर पैदा हुए थे, समाज की समझ रखने वाला कोई व्यक्ति संजीव की इस समझ से इत्तेफाक नहीं रख सकता.
दूसरा प्रसंग है, यज्ञ का. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में दिखाया है कि गाँव में एक यज्ञ हो रहा था. किशोर भिखारी के ‘गौर-वर्ण’, ‘सुन्दर व्यक्तित्व’ को देखकर पुरोहित ने इन्हें ब्राह्मण-पुत्र समझ लिया और यज्ञ के लिए अल्पना बनाने का आदेश दिया. अल्पना बनाने लगे भिखारी, तभी एक दूसरे पुरोहित का आगमन हुआ. इस पुरोहित ने भिखारी को अल्पना बनाते देख, इनके बारे में पूछा. बकौल संजीव, इस पुरोहित की ‘‘आवाज में इतनी घृणा थी कि भिखारी के हाथ-पाँव ठंडे हो गये, कलेजा काँपने लगा?’’ यह पुरोहित भिखारी को पहचानता था. जिस पंडित ने भिखारी को अल्पना बनाने के लिए कहा था, उससे कहा कि ‘आपको ब्राह्मण नहीं भेटाया, जो नाई के लडक़े से जग्गशाला भरस्ट करवा रहे है.’’ इसके बाद पुरोहित ने गंगा-जल से यज्ञशाला ‘शुद्ध’ करवाया.

यह प्रसंग, कथाकार संजीव के शोध और इस शोध से अर्जित ज्ञान दोनों पर, सवाल खड़ा करने के लिए प्रेरित करता है. अव्वल तो यह है कि नाई जाति ‘अछूत’ कभी नहीं रही. पूजा-पाठ, यज्ञ या कोई भी धार्मिक प्रयोजन हो, नाई हमेशा पुरोहित का सहयोगी रहा है. बगैर नाई के, कई विधान तो सम्पूर्ण नहीं माने जाते. नाई की मौजूदगी अनेक मौके पर, ब्राह्मण की तरह शुभ मानी जाती रही है. यज्ञ के दरम्यान पुरोहित मन्त्रोच्चारण करता है और उसके अनुरूप नाई यजमान से तमाम विधियों का पालन करवाता है.

काबिले गौर यह भी है कि यज्ञ-प्रयोजन या पूजा-विधान में निर्मित संरचना में ब्राह्मण के साथ नाई को, प्रदत्त पहचान के आधार पर ही, वैधता हासिल है. इस वैधता के कारण, यज्ञ में ब्राह्मण के साथ-साथ नाई की समान भागीदारी होती है और यज्ञ से प्राप्त दान-दक्षिण में हिस्सेदारी भी. अलबत्ता इस हिस्सेदारी में पुरोहित का अनुपात ज्यादा होता है और नाई का कम; पर शेयरिंग दोनों की होती है. यजमान के लिए तो पुरोहित और नाई, दोनों दक्षिणा ऐंठने वाले होते हैं. कथाकार संजीव ने नाई की भागीदारी और हिस्सेदारी दोनों को भुलाने के साथ-साथ, नाई को ‘अछूत’ तक बना दिया है.

असल में, संजीव की यह भूल नहीं है; सायास सृजन है. ऐसे ही औपन्यासिक तथ्यों की रचना संजीव ने ‘सूत्रधार’ में की है. इसका पता चलता है एक दूसरे प्रसंग से. संजीव ने ‘सूत्रधार’ में एक स्कूल का चित्रण किया है, जहाँ शिक्षक और अन्य विद्यार्थी भिखारी को ‘टहलुआ’ समझते हैं. बालक भिखारी अपने दोस्त घुलटेन दुसाध से कहते हैं– ‘‘नान्ह जाति के अलग से पाठशाला होखे के चाहीं.’’ इस पर इनके दोस्त का जवाब है, ‘‘ओकरा में पंडीजी ना, नान्हे जाति के मास्टर.’’

‘सूत्रधार’ में संजीव ने यज्ञ वाले प्रसंग में जो सायास ‘ऐतिहासिक भूल’ की है, उसकी वजह यही है.
इस उपन्यास की मार्फत संजीव ने पिछड़ी और दलित जातियों को मिलाकर एक पहचान बनाने की कोशिश की है. यह पहचान है– नान्ह जाति. संजीव ने ‘नान्ह जाति’ की कैटेगरी को विस्तृत और मजबूत बनाने के  लिए इसमें तथ्यात्मक कलाकारी की है. मजेदार यह है कि हिन्दू समाज में जिन जातियों के साथ छुआछूत बरतने का घिनौना चलन कायम था, उनके साथ संजीव ने नाई जाति को भी मिला दिया है. यह है, सूत्रधार की दिशा. इस नये गठबंधन के लिए संजीव ने एक भाषा के नायक– शख्सियत का चरित्र इस रूप में गढ़ा है कि वे महज ‘नान्ह’ जाति के प्रतीक पुरुष की मूर्ति में सिमट जाएँ.

‘सूत्रधार’ शीर्षक कई अर्थों को व्यंजित करता है. अनेक मायने समाहित हैं इस शब्द में. भिखारी ठाकुर के चरित्र को अगर सही दिशा में संजीव रचते तो वे तमाम अर्थ व्यंजित भी होते ‘सूत्रधार’ में. परन्तु यह विडम्बना है कि एक महत्वपूर्ण कथाकार ने सांस्कृतिक नवजागरण के एक देसी ‘सूत्रधार’ को सीमित बना दिया है. इसलिए कहना होगा कि अपने राजनीतिक एजेंडे में संजीव सफल हुए हैं, पर ‘सूत्रधार’ असफल हो गया है.

सूत्रधार के पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ में कथाकार संजीव ने भारतीय समाज की जटिलता को चित्रित करने की दिशा में कुछ कदम बढ़ाया था. यह कहने का आधार यह है कि इस उपन्यास से पहले संजीव ‘वर्ग-संघर्ष’ की अपनी समझ से परिचालित होते रहे हैं, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ उपन्यास में उन्होंने वर्ग के साथ-साथ भारतीय समाज की सच्चाई, जाति के रिश्ते की जटिलता को चित्रित कर दो कदम आगे बढ़ाया था. कहना होगा कि ‘सूत्रधार’ में संजीव चार कदम पीछे चले गये. बावजूद इसके ‘सूत्रधार’ में संजीव की किस्सागोई उनके पूर्ववर्ती उपन्यास से आगे गयी है. यही उनका हासिल है. इस परिपक्व किस्सागोई के साथ संजीव ने भिखारी ठाकुर के चरित्र को इकहरा नहीं बनाया होता, उस दौर की जटिलताओं, तनावों, द्वन्द्व और दुविधा को भी इस उपन्यास में बुना होता तो ‘सूत्रधार’ हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों की श्रेणी में शुमार हो जाता.
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जे.एन,यू और दिल्ली विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त कर राजीव रंजन गिरि फिलहाल अंतिम जन पत्रिका का संपादन कर रहे हैं.कई संपादित पुस्तकें, पत्रिकाओं के संपादन का अनुभव है.
संविधान- सभा और भाषा- विमर्श, सामन्ती जमाने में भक्ति आन्दोलन, १८५७ : विरासत से ज़िरह, अथ - साहित्य : पाठ और प्रसंग आदि कृतियाँ प्रकाशित

सम्पर्क–
दूसरी मंजिल, सी 1/3, डीएलएफ अंकुर विहार,
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  1. संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ पर राजीव रंजन गिरि का यह आलोचनात्मक आलेख बेहद अच्छा है आलेख को जैसे जैसे पढ़ते जाते है उपन्यास के विषय की गहराई का बोध होता जाता है . उपन्यास में कई ऐसे पहलू जिस पर इतनी विस्तारपूर्र्वक और नवीनता की साथ सोचा गया . इसके लिए कथाकार को बहुत बहुत बधाई .

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  2. सूत्रधार पर राजीव की समीक्षा अच्छी है । सम्भव है उपन्यास में कुछ चीजें पकड़ से छूट गई हो । लेकिन यह क्या कम है कि संजीव ने भिखारी ठाकुर के मिथक को पुंर्जीवित कर दिया है । हिंदी में इस तरह के बहुत कम काम हुये है ।

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  3. सूत्रधार पर राजीव रंजन जी की समीक्षा बहुत अच्छी और संतुलित है। बड़ी बारीकी से उन्होंने इसके हर पहलू पर गौर किया है। बहुत बधाई के पात्र हैं राजीव जी।

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  4. बहुत ही सु्न्दर लेख है। बधाई समालोचन को और राजीव रंजन गिरि जी को भी। लेख पढ़कर ज्ञानवर्द्धन हुआ।
    सादर,
    प्रांजल धर

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  5. यह उपन्यास मैंने पढ़ा है। लेकिन राजीव भाई से इस बात से सहमत नहीं कि संजीव ने भिखारी ठाकुर के पात्र को एकहरा बनाया है और उसमे तत्कालीन समय और समाज की जटिलता और द्वन्द नहीं है। संजीव ने "किसनगढ़ के अहेरी" उपन्यास को फिर से लिखा है जो "अहेर" नाम से ज्योतिपर्व प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। संजीव ही ऐसे उपन्यासकार हैं जो अपने एक उपन्यास को फिर से लिख सकते हैं अधिक व्यापक रूप से और उसके वितान को और विस्तृत कर। यह उपन्यास "अहेर" के पुनर्पाठ से हिंदी उपन्यास और समृद्ध होगा।

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  6. इसमें कोई दो राय नहीं कि 'सूत्रधार' के माध्यम से संजीव ने पहली बार भिखारी ठाकुर जैसे चरित्र को इतने बढ़िया किस्सागोई वाले अंदाज में हम सबके सामने रखा. छोटी-छोटी कुछ तथ्यात्मक भूलें, जो कि उपन्यास के चरित्र को सशक्त बनाने के क्रम में संजीव ने रखी होंगी, जरुर दिखाई पड़ती हैं. हो सकता है कि इसके मूल में उनका भिखारी ठाकुर के जमीन के लिए बाहरी होना रहा हो, फिर भी ये तथ्यात्मक गलतियाँ कहानी में बाधा उत्पन्न करती नहीं दिखाई पड़तीं. दुनिया की सभी महत्वपूर्ण कृतियों में किन्तु-परन्तु आसानी से निकाला जा सकता है फिर भी राजीव की इस बात से मैं सहमत हूँ कि 'कुछ जटिलताओं, तनावों, द्वन्द्व और दुविधा को भी इस उपन्यास में बुना गया होता तो ‘सूत्रधार’ हिन्दी के श्रेष्ठ उपन्यासों की श्रेणी में शुमार हो जाता.' लेकिन राजीव भी यहीं चूक जाते हैं. यह बात तब और मजबूत दिखाई पड़ती जब कुछ उदाहरणों के हवाले से कही गयीं होती. बावजूद इसके इस आलेख में राजीव का प्रयास सराहनीय है और उनकी आलोचकीय क्षमता और परिश्रम स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ता है. राजीव को इस बेहतर आलेख के लिए बधाई.

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  7. अनीश अंकुर26 अग॰ 2014, 6:37:00 pm

    बेहद विचारोततेजक आलेख ।राजीव रंजन गिरि का ये आलेख संजीव के उपन्यास की गहरी विवेचना करने के साथ पाठक को रचना कै माध्यम से नये आयाम भी उदघाटित करता है।

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  8. डाॅ. लक्ष्मी पाण्डेय - डी. लिट्.
    राजीव रंजन गिरि द्वारा की गई ’सूत्रधार ’ की समीक्षा अपने आप में परिपूर्ण है। इसके द्वारा महत्वपूर्ण कवि भिखारी ठाकुर के जीवन, व्यक्तित्व एवं कृतित्व का परिचय तो मिला ही , संजीव जी का कथ्य, षैली, भाषा और संपूर्ण षिल्प भी प्रकाषित हुआ। राजीव जी समर्थ और सषक्त समीक्षक हैं । उनकी समीक्षा दृष्टि अत्यंत व्यापक, गहन और सूक्ष्मान्वेषी है। चूंकि वे बहु-पठ हैं इसलिए कथा का बहुस्तरीय पाठ कर उसकी पंक्ति-पंक्ति को खंगाल डालते हैं, तथा उसके इतिहास/अतीत और वर्तमान की पड़ताल कर उसकी वर्तमान और भविष्य में प्रासंगिकता और अर्थवत्ता को स्पष्ट कर देते हैं । इस दलित विमर्ष की धूम के बीच यह उपन्यास एक काल विषेष के सामाजिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है। राजीव जी जैसे समर्थ समीक्षक के द्वारा सूत्रधार की ईमानदार और न्यायपूर्ण समीक्षा होना स्वाभाविक है। राजीव जी एवं संजीव जी दोनो को बधाई, षुभकामनाएँ।

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  9. Anand Pandey राजीव रंजन गिरि दृष्टि संपन्न आलोचक हैं। इन्होंने 'सूत्रधार' की जय-जयकार वाली आलोचना-परम्परा से अपने को भिन्न स्थापित किया है। उचित ही आपने संजीव की जाति -व्यवस्था की सपाट समझदारी को विखंडित किया है। 'सूत्रधार' के नायक भिखारी ठाकुर पिछड़ी जाति से थे लेकिन अछूत नहीं थे। संजीव ने अपनी जाति की अवैज्ञानिक और पॉलिटिकली -करेक्ट' समझदारी से जिस भिखारी ठाकुर को रचा है, वह प्रामाणिकता से ज़रा दूर ही है। आपने संजीव की कलात्मक सफलता के साथ-साथ उनकी समस्याओं पर भी प्रकाश डाला है। एक सुन्दर लेख के लिए बधाई।

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  10. सूत्रधार पर राजीव रंजन गिरी ने जिस साहस के साथ अपनी पड़ताल की है उसके लिए उन्हें धन्यवाद दिए बगैर नहीं रहा जा सकता। असल में आज की हिंदी आलोचना महिमा पुराण से ज्यादा और कुछ नहीं रह गई है। ऐसे में यदि कोई सच लिखने का साहस करता हो तो उसकी सराहना की जानी चाहिए।
    संजीव जिस तरह के लेखक हैं और जिस सोच के साथ वे लिख रहे हैं उसकी बानगी उनकी रचना सूत्रधार है जिसमें लोक नाट्य को शिखर तक पहुंचाने वाला और अपने लिए एक नया फलक तैयार करने वाले कलाकार भिखारी ठाकुर को कृत्रिम द्वंद्व में जिस तरह से कथाकार ने पहुंचाया है उससे संजीव को चाहे जो लाभ मिला हो भिखारी ठाकुर को नुकसान ही पहुंचा है। संजीव का भिखारी भोजपुरी अंचल का महानायक भिखारी ठाकुर कतई नहीं है। संजीव अपनी रौ (हालांकि उनका दावा है कि उन्होंने शोधोपरांत रचना की है) में यह भूल जाते हैं जिस समय उनका भिखारी स्कूल पढ़ने जाता है उस समय स्कूल तक तथाकथित सवर्णों के बच्चे भी नहीं पहुंच पाते थे। इसका कारण यह था कि मैकाले की शिक्षा पद्धति लागू होने के कुछ ही वर्ष बाद भिखारी ठाकुर हुए थे। यह वह दौर था जब सवर्णों के रसूखदार (जो शासकों के साथ सत्ता सुख भोगते थे और इस श्रेणी में गिनती के पिछड़े भी आते थे) मौलवी उर्दू पढ़ते थे या फिर कायस्थ शिक्षक से कैथी सीखते थे। शिक्षा का उद्देश्य उस समय नौकरी पाना नहीं था। हां पंडितों या द्विजों के लिए पोथी बांच लेना अनिवार्य था क्योंकि इसी के दम पर उनका बाजार टिका था। समाज अपनी जरूरत के हिसाब से शिक्षा को बांटे हुए था। एक बड़ा तबका शिक्षा से व्यवस्थागत कमी के कारण महरूम था। इस कमी के पीछे जाति व्यवस्था को दोष देना अस्मितावादी अतिरेक होगा, इतिहास की छिछली जानकारी या फिर उसका गलत निरूपण होगा। संजीव यहां चूकते हैं। वे अपने समय की समस्या और द्वंद्व में भिखारी का ला खड़ा करते हैं।
    दूसरा यह कि भिखारी ठाकुर के लीजेंड बनने में उनकी जाति के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। इस बात को आलोचक राजीव पकड़ लेते हैं। यह सच है कि नाई की हैसियत ब्राह्मण से कम तो है लेकिन नगण्य नहीं। बिना नाई के पंडितजी एक कदम आगे नहीं चल पाएं। इस सामाजिक हैसियत ने भिखारी को स्वीकृति पाने में आसानी दिलाई होगी, लेकिन उनका द्वंद्व उस कला के लिए है जिसके प्रति समाज का नजरिया भिन्न रहा है। इसी नजरिए के कारण कई लोक नृत्य, गायन शैली, नृत्य शैली का लोप हो गया।
    यहां एक और बात ध्यान देने के लायक है। भिखारी अपने नाटकों जिसे उन्होंने तमाशा का नाम दिया था, में जिन कुप्रथाओं, कुरीतियों का विरोध किया, जिसकी पीड़ा को दर्शाया वे सभी उस समय की सभ्रांत मानी जाने वाली जातियों को ही डंस रही थी। बेटी बेचने की प्रथा केवल और केवल उन्हीं जातियों में थी जहां स्त्रियों का श्रम मूल्य शून्य था और वे सिर्फ संतान पैदा करने के काम में लाई जाती थीं। ऐसे में उन जातियों में जहां श्रम मूल्य था वहां स्त्रियां अपेक्षाकृत ज्यादा आजाद थीं। ऐसे वर्गों में स्त्रियों को पुरुष को त्यागने का अधिकार हासिल था। फिर सवाल यह उठ खड़ा होता है कि भिखारी को उस वर्ग का समर्थन कैसे मिला होगा? यही द्वंद्व शोध का विषय होना चाहिए था, जिसे संजीव ने नजरअंदाज कर दिया और अस्मितावादियों की सहानुभूति बटोरने के लिए एक ऐसा कृत्रिम मिथक पुरुष खड़ा कर लिया जिसका असल के भिखारी ठाकुर से कहीं से कोई वास्ता नहीं दिखता है।
    एक अच्छी और बेहतरीन आलोचना के लिए राजीवजी को पुनश्च बधाई।

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  11. जबरदस्‍त विश्‍ललेष्‍ाण्‍ा...

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  12. राजीव भाई,
    'सूत्रधार' का इतना सुंदर आलोचनात्‍मक विश्‍लेषण करने के लिए बहुत-बहुत बधाई। आपने संजीव के इस जीवनीपरक उपन्‍यास की ऐसी गहन पड़ताल की है कि एक बार पिफर से उपन्‍यास को पढ़ने का मन करने लगा है। हमलोगों ने तो बजाब्‍ता इस उपन्‍यास पर पटना में एक गोष्‍ठी भी आयोजित कराई थी। शायद कहानीकार नरेन की 'संवेदना' संस्‍था के माध्‍यम से। भिखारी ठाकुर पर लिखे संजीव के इस उपन्‍यास को पढ़कर मैं इस उत्‍साह में आ गया था कि लेखकों से कहने लगा था कि जितने भी बहुजन नायक/नायिका हुए हैं सब पर 'सूत्रधार' की तरह लिखा जाना चाहिए। खैर। इतना बढि़या और लंबा आलोचनात्‍मक विश्‍लेषण के लिए आपको एक बार फिर से बधाई।

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  13. I have read your comprehensive review of Sanjeev's book. It touches on all sides of Bhikhari Thakur's rise and growing popularity. During my younger days he was very popular in the film Videshia, people could get a glimpse of him.
    I read Sanjeev's book 'Sutadhar' years ago. His book "Jangal Yehan se Shuru Hota Hai', did not appeal to me because it failed to analyze the prevailing agrarian system in north and western areas of Champaran. In our part, there are very few people who have more than 100 acres of land but in West Champaran district, the rich people invented ways and means to evade land reforms. You may find such people in almost every village. It was these inequalities that gave rise to unruliness, kidnapping, etc. Then nearness of Nepal and U.P. helped this lawlessness.

    Hope, you are all right.

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  14. बेह्द अच्छा विशेल्षण , सामाजिक द्वन्द्व को पकड्ने या प्रस्तुत करने के चुनाव के कारण लेखक की असफलता को सटीक पकडा है राजीव भाई ने . मगध में यज्ञ वेदियां नाई ही बनाते हैं, पंडितों के निर्देश के साथ . अल्पना भी उनकी ही होती है , वेदियों पर , अब कुछ पंडित भी बनाने लगे हैं , लेकिन नाई तब भी हेल्प करते हैं.

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  15. Excellent write-up, Rajiv. bahut bareeki se aur satarkata se is upanyas ke bahane tumne ek bade phalak ka chitran kiya hai. yah upanyas ki visheshtaon ke sath sath aapke samjh ki gaharayee ko bhi darshata hai. Bahut khoob.

    Main sahitya ka vidyarthi nahi, ye to tum jante ho par do baaton ki ore dhyan gaya.

    Ek jab tumne do baar camera aur painting ko do virodhabhasi drishtikon ka udaharan bataya hai. Bhav ye hai ki camera yantrik / mechanical hai, jabki painting rachnatmak / creative. camera bhi yantrik nahi hota, wah bhi satya ko, yahan tak ki pristhabhumi aur vishaya ko apne vichar (photographer ke point of view) ke mutabik darshata hai. isliye camera banam painting ek saralikrit aur convenient juxtaposition hai jo tumhare paine vishleshan ke tewar mein fit nahi baithta.

    Doosari baat, meri yah bhi janane ki ichchha hai (maine upanyas nahi padha hai) ki jis desh-kaal ka zikra tum bar bar karte ho uske mutabik bharat ki azadi ki ladai ki koi pratidhwani Bhikhari Thakur ki rachnaon mein kahin milti hain ya nahi. Unke rachna kaal mein desh mein Gandhi se lekar Bhagat singh ki dhoom machi thi. wo kahin bhikhari thakur ke rachna sansar ka hissa bane? Agar nahi hai to kyon?

    Ant mein ek bahut hi behtareen aalochna ke liye anek badhaiyaan...

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  16. Bhai RAJEEV JI,
    Sutradhar ki samiksha padhi. Maine Sutradhar ko nahi pdha hai lekin Aapki samiksha padh kar ab padhne ka man kar raha hai kyonki apki samiksha upanyas ko parat-dar-parat kholti hai Ek adhbhut alochnatmak Vishleshan ke liye Dheron Badhaiyan................
    BOKARO (JH)

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  17. एक बेहतरीन प्रयास और बेहद विचारोत्तेजक लेख |
    प्रियम अंकित

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  18. सर, आपका पूरा लेख पढ़ लिया , एक बात जो जचि वह है "भोजपुरी भाषी इलाके के सांस्कृतिक, नवजागरण के अग्रदूत भिखारी ठाकुर की शख्सियत को संजीव ने दलित-पिछड़ी जातियों का प्रतीक-पुरुष बनाने की कोशिश की है. संजीव के इस कलात्मक प्रयास से ‘दलित-पिछड़ी राजनीति को एक मजबूत प्रतीक तो मिल गया परन्तु भिखारी ठाकुर का व्यापक दाय और उनकी बहुमुखी शख्सियत का दायरा सिमट गया.". लेकिन , उपन्यास के 'अंडरटोन' के बावजूद ,बहुत कुछ उसमे है जिसपर आपका ध्यान जाना चाहिए था। नाउ जाति दलित नहीं है , आपको भी पता है , दलितों की चेतना से जोड़ कर संजीव ने जो गलती की उसे आपने दूसरी तरह से देखा और ठीक ही देखा। भिखारी ठाकुर का रचना कर्म पिछड़ों का घोषणापत्र नहीं है परन्तु उस रचन कर्म में जो त्रास है , करुणा की अभिव्यक्ति है-जिसे कई जगहों पर लेखक ने इंगित भी किया है - आप चर्चा करते तो और अच्छा लगता। भिखारी संजीव के कलम से बड़े थे , यह कहना सचमुच आपका साहसिक कदम है , मुझे जचा भी। बधाई।

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  19. ...बहुत साहस और बारीकी से लिखी गई समीक्षा। बल्कि समीक्षा क्या, एक खुला आलोचनात्मक विमर्श और एक नई तरह की पहल। हालाँकि कहीं-कहीं मेरा वैचारिक मतभेद भी है राजीव से। मुझे कई मायनो में 'सूत्रधार' कहीं एक बड़ी रचना लगती है और संजीव का सर्वश्रेष्ठ भी। उसमें किस्सागोई का कमाल और एक बड़े उपन्यास की तमाम खूबियाँ ही नहीं, एक तरह का महाकाव्यात्मक रस भी है। जैसे 'मानस का हंस' नागर जी की सर्वोपलब्धि है, वैसे ही संजीव का 'सूत्रधार' भी उनकी सर्वोत्तम उपलब्धि है जिसे लाँघ पाना किसी के भी बस की बात नहीं। खुद संजीव के लिए भी।
    फिर भी इतने साहस, बारीकी और खुलेपन से लिखी गई समीक्षा के लिए बधााई। आज के वक्त में ऐसा करने वाले सूरमा अधिक नहीं।
    सस्नेह, प्रकाश मनु

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  20. Sanjeev ke upanyas "sutradhar" ke madhyam se rajeev ranjan giri ne bhartiya samajik vyavastha ki vichitra jatilta ko focus kiya hai.rajeev ji ki alochnatmak najar bayan karati hai ki kis prakar se ucch jaitya nimn jatiyo ke shishsn ke liye naye naye raste aur bahane talash kartii hain.banagi dekhiye-"Purohit ji ne gangajal ka chidkaw kar mantra se yagya sthal ko pavitra kiya" bahut hasyadpad lagata hai.nimn jati hone ke karan hasiye par rakhe gaye bhikhari thakur jaisi pratibhavon se parichay karane ka sahasik karya rajeev ne bakhubi kiya hai.rajeev ji ki antardristi gahrai ka bodh karati hai lekin sankoch ke sath kahna chahunga yaha par ve kuch chijo ko najarandaz karte hain.bhikahari thakur ka daur tatha vartan daur ki tulana rajeev ko avashya karani chahiye thi kya aaj ke dalit lekhak ya chintak khuli hawa me saans le pa rahe hain ya fir usi damghotu hawa me saans le rahe hain fir bhi rajeev ji vastavik badhai ke hakdar hain.bahut bahut subhkamnaye

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  21. वाजिदा तबस्सुम9 अक्तू॰ 2014, 7:01:00 pm

    नमस्कार
    संजीव रचित सूत्रधार की समीक्षा, भिखारी ठाकुर की जाति, आर्थिक और सामाजिक समस्यों को उपन्यास में उजागर किया गया है, बहुत तारीफे-ऐ - काबिल है। राजीव रंजन गिरि ने बहुत ही गहराई से इस उपंन्यास का आलोचनात्मक अध्ययन किया है, इस लेख को पढ़कर लगता है , कि आज के इस आधुनिक समाज में यह करेक्टर हमारे इर्द - गिर्द घूमते है , फिर से कहूँगी की यह बहुत सुन्दर लेख है। इस तरह के काम की आज बहुत आवशयकता है। आशा है कई आगे भी इस प्रकार के लेख आते रहेंगे। और समाज की समस्यों से युवाओं को भी अवगत कराते रहेंगे।

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  22. विकास नारायण राय21 अक्तू॰ 2014, 7:53:00 pm


    संजीव के भिखारी ठाकुर पर आपकी लिखी समीक्षा रचना और रचनाकार के साथ-साथ परिवेश के हर पक्ष को भी समेटती है| बहुत अच्छी लगी|

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  23. डॉ. सुनील कुमार पाठक21 अक्तू॰ 2014, 8:11:00 pm

    राजीव रंजन गिरि की समीक्षा ‘हीरा भोजपुरी का हेराया बाजार में’ निश्चय ही, राजीव जी ने संजीव के बहुचर्चित उपन्यास ‘सूत्रधार’ की विस्तारपूर्वक और निश्पक्ष रूप से समीक्षा प्रस्तुत की है . भोजपुरी का हीरा हेरा नहीं सकता, न उसकी चमक फीकी पड़ सकती है, बस जरूरत है संजीव जी या राजीव जी जैसी पारखी -नजर की.
    अपनी समीक्षा में राजीव जी ने न तो कोई दबंगई दिखाई है, न ही अचानक चर्चा में आ जाने के लिए उनमें कोई हड़बड़ी दीखती है. यहाँ कोई गड़बड़ झाला नहीं, जो कुछ है साफ-सूथरे अंदाज में बिल्कुल बेबाकी के साथ. रचनाकार कितना भी बड़ा हो, लेकिन कुछ खास मंशा के साथ अगर वह ज्यादती करने पर उतारू हो बैठे, तो फिर उसके इरादों को समझने-समझाने के उद्यम तो होने ही चाहिए न ! राजीव ने बड़ी निस्संगता के साथ यह प्रयास किया है . वे संजीव जी के इरादों को समझाने के लिए पूरी गहराई में उतरते हैं, उसकी परत-दर-परत पड़ताल करते हैं, फिर सबके सामने लाते हैं वह सच, जो एक सुधी समीक्षक का पहला मकसद होता है और उसके लेखन का वाजि़ब तकाजा भी. आइए, राजीव रंजन जी की समीक्षा की कुछ पंक्तियों को पहले देखें -

    संजीव के पक्ष में कुछ बातें-
    क. ‘‘मिथ बन गये भिखारी ठाकुर के जीवन को ‘सूत्रधार’ में जो गति एवं आकार प्रदान किया है, वह बेहतर किस्सागोई एवं खास वैचारिक दृष्टि का नमूना है .’’

    ख. ‘‘उन्नीसवीं सदी के भारतीय गाँवों में व्याप्त व्यभिचार, भेद-भाव, आन्तरिक उपनिवेश एवं शोशणमूलक व्यवस्था का दस्तावेज है - ‘सूत्रधार’ . ‘सूत्रधार’ में न सिर्फ भिखरिया से राय बहादुर भिखारी ठाकुर के जीवन - संघर्श को समझा जा सकता है, अपितु तत्कालीन भारतीय गावों की जटिलताओं को भी देखा - परखा जा सकता है.’’

    संजीव से असहमति की कुछ बातें -
    क. ‘‘भोजपुरी भाषी इलाके के सांस्कृतिक नवजागरण के अग्रदूत भिखारी ठाकुर की शख्सियत को, संजीव ने दलित-पिछड़ी जातियों का प्रतीक पुरुष बनाने की कोशिश की है . संजीव के इस कलात्मक प्रयास से दलित- पिछड़ी राजनीति को एक मजबूत प्रतीक तो मिल गया, परन्तु भिखारी ठाकुर का व्यापक दाय और उनकी बहुमुखी शख्सियत का दायरा सिमट गया .’’

    ख. ‘‘यह उपन्यास असफल इस अर्थ में है कि एक ऐसा व्यक्ति, जिसने व्यक्तिगत संघर्श के जरिये, अपनी कला को स्थापित किया, लोगों के बीच स्वीकृति पायी और परिणामस्वरूप उस जमाने में, भोजपुरी भाशियों का सांस्कृतिक अगुआ बना, उसकी शख्सियत को संजीव ने महदूद करने की रचनात्मक कोशिश की है . दरअसल, संजीव की अवधारणात्मक समझ - की उपन्यास में द्वन्द्व और दुविधा की गुंजाइश नहीं होती - का नतीजा है कि इन्होंने भिखारी ठाकुर के बहुस्तरीय और बहुआयामी संघर्ष को, एकस्तरीय और एकायामी बनाकर बेहद सँकरा कर दिया है . यह संजीव की तंगनजरी का प्रमाण है और परिणाम भी .’’
    ग. ‘‘बहरहाल ‘सूत्रधार’ का मूल्यांकन करें तो कहना होगा कि भोजपुरी इलाके के सांस्कृतिक नायक भिखारी ठाकुर के जीवन के बारे में मौजूद तथ्य, किस्से और किंवदन्तियों के बारे में शोध कर, उपन्यासकार ने जो औपन्यासिक तथ्य सृजित किया है, वह खालिस संजीव का है . इस ‘तथ्य’ की रचना में संजीव का दृष्टिकोण हावी है, न कि भिखारी ठाकुर का जीवन .’’

    घ. ‘‘यह भिखारी की कला का अनोखापन था कि दर्शक’ सिर्फ आनन्द लेने वाले, मनोरंजन ग्रहण करने वाले नहीं रह जाते थे . यहीं दर्शक का व्यक्तित्वान्तरण होता था, भले ही अल्पकालीन . भिखारी का नाच दर्शक के चित्त, मानस और काल में अपनी जगह कायम करता था . यह खालिस भिखारी का अनूठापन था . संजीव अपनी सृजनात्मकता की परिधि में, इस अनूठापन को समेटने में असफल रहे हैं .’’
    ड़ ‘‘सूत्रधार’ षीर्शक कई अर्थो को व्यंजित करता है . अनेक मायने समाहित हैं इस श’ब्द में . भिखारी ठाकुर के चरित्र को अगर सही दिषा में संजीव रचते तो, वे तमाम अर्थ व्यंजित भी होते ‘सूत्रधार’ में . परन्तु यह विडम्बना है कि एक महत्वपूर्ण कथाकार ने सांस्कृतिक नवजागरण के एक देषी ‘सूत्रधार’ को सीमित बना दिया है . इसलिए कहना होगा कि अपने राजनीतिक ऐजेंडे में संजीव सफल हुए हैं, परन्तु ‘सूत्रधार’ असफल हो गया है .’’

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  24. डॉ. सुनील कुमार पाठक21 अक्तू॰ 2014, 8:12:00 pm

    यज्ञशाला में नाई के अल्पना बनाने वाली घटना पर पुरोहित की आपत्ति कि ‘‘ आपको कोई ब्राह्मण नहीं भेटाया, जो नाई के लड़के से जग्गशाला भरश्ट करवा रहे.’’ जैसे कथन - संजीव जी की भोजपुरी संस्कृति के प्रति अनभिज्ञता को ही प्रकट करते हैं . राजीव ने ठीक ही लिखा है - ‘‘ यजमान के लिए तो पुरोहित और नाई दोनों दक्षिणा ऐंठनेवाले होते हैं . ’’ यहाँ नाई को भोजपुरी समाज में ‘अछूत’ बतानेवाले संजीव की समझ और जानकारी पर तरस ही आती है, पर राजीव ने संजीव के एजेन्डे को मुकम्मल तौर पर साफ कर रख दिया है - ’’असल में, संजीव की यह भूल नहीं, सायास सृजन है .’’
    युवा समीक्षक राजीव की यह समीक्षा निश्चय ही एक साहसी और छद्मभेदी समीक्षा है . लगता है, वे गाली सुनने को पूरी तरह तैयार होकर मैदान में उतरे हैं . संजीव ने भिखारी ठाकुर को जिस नजरिये से देखा- परखा है, वही उनका अभीष्ट भी रहा है . हम इससे इतर उनसे उम्मीद भी नहीं कर सकते, चूँकि उन्होंने तो अपने मनचाहे ‘भिखारी’ को ही रचा है, राजीव रंजन या किसी और को अगर यह नहीं रूचता - पचता तो इसमें संजीव का क्या कसूर ! उनका झंडा उठाने वाले किसी भी तरह की लड़ाई फतह करने को तैयार खड़े हैं . लेकिन अच्छा ही है, राजीव रंजन ने भी गोल-मटोल बात नहीं की है . जो कुछ कहा है साफ-साफ, किंतु-परंतु की मुद्रा उन्होंने अख्तियार नहीं की है . चिकनी-चुपटी बातों से शायद उन्हें परहेज है . एक युवा समीक्षक को उसकी यही मति और षक्ति ऊर्जावान और प्राणवान बनाती है . मैं जानता हूँ राजीव जी की समीक्षा भी अंततः वर्चस्ववादी विचारांे की उपज मान ली जाएगी, पर निडरता बहुत बड़ीपूंजी होती है .
    राजीव ने ‘सूत्रधार’ में अस्मितावादी विमर्ष का गहरा रंग और असर देखा-परखा है . नव ब्राह्मणवादी और अस्मितावादी दर्शन से साहित्य का कितना भला होगा, यह तो भविश्य ही तय करेगा. फिलहाल तो आज का पूरा साहित्य इसी अस्मिता - बोध की परिक्रमा करता दिखता है . जबकि सच्चाई यह है कि व्यापक और स्वस्थ सामाजिक चिंतन का धरातल अभी तैयार होना बाकी है . भोजपुरी हीरे की चमक बाजार में उतरी नहीं है, इसीलिए उम्मीद अब भी बरकरार है .

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  25. Sutradhar ko aur padhne ki jarurat hai. Sanjiv se kai jagah mai bhi ashmat hu.lakin sutradhar ko samjhane ke liye 50 bars aur chahiye

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  26. राजीव जी,

    'सूत्रधार' पर आपका यह समीक्षात्मक आलेख 'हीरा भोजपुरी का हेराया बाज़ार में' न सिर्फ समीक्षा है बल्कि गहन शोध भी है. भिखारी ठाकुर पर आधारित इस उपन्यास को लिखने में लेखक ने विस्तृत अध्ययन और शोध किया होगा तब जाकर इसका सृजन हुआ होगा. किसी के जीवन पर उपन्यास लिखना निःसंदेह कठिन कार्य है. यह कितना प्रामाणिक है यह कहना तो संभव नहीं क्योंकि घटना क्रम में काल्पनिकता को शामिल किया गया होगा.

    कहानीकार संजीव ने भिखारी ठाकुर के जीवन के माध्यम से उस समय के सामजिक परिवेश का बहुत सटीक चित्रण किया है. जाति प्रथा तथा ब्राह्मणवाद का उदाहरण इसमें दिखता है. नाई जाति यूँ पिछड़ी जाति में है लेकिन समाज में उसका एक विशेष महत्व है जिसे लोग सम्मान भले न दें लेकिन सामान्य जीवन विशेषकर धार्मिक कार्यों में विशेष महत्व देते हैं । इस लिहाज से सूत्रधार के भिखारी ठाकुर को सिर्फ नाई मान कर नहीं बल्कि उन पिछड़ी जाति के प्रतीक के रूप में मानकर चलना चाहिए जिनके साथ अछूतों सा व्यवहार होता था.

    भिखारी ठाकुर का संघर्ष चाहे वो कला के लिए हो जीवन यापन के लिए या फिर सामाजिक समानता के लिए, यह आम जन के संघर्ष का द्योतक है. नाच गान को निम्न दृष्टि से देखे जाने के कारण अछूतों की तरह इनकी भी अपनी एक अलग पहचान (जाति) यानी कि नचनिया बजनिया बन गई जिसे लोग देखना तो पसंद करते हैं लेकिन सम्मान नहीं देते. सामजिक चेतना जगाने में भिखारी ठाकुर के कार्य अहम भूमिका निभाते हैं.

    इस उपन्यास की आलोचना, समीक्षा के लिए आपको बधाई.

    जेन्नी शबनम

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  27. सूत्रधार उपन्यास पर राजीव रंजन जी की आलोचनात्मक समीक्षा बहुत अच्छी और महत्वपूर्ण लगी। हिंदी के पुरोथा भिखारी ठाकुर के जीवनकाल पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने महत्वपूर्ण मुद्दों की तरफ हमारा ध्यानाकर्षण भी किया। भूमंडलीकरण सिर्फ पूंजी और अंग्रेजी का हो रहा कितनी सार्थक और सही बात कही राजीव जी ने। हमारी भाषा, बोली आचार विचार सब पर पश्चिमी जगत हावी है। खाना पीना तो सबसे बिगड़ा--- हुई पुरानी /दादी नानी की थाली/ फ्युजन फूड। यूँ भी कहां सकते----
    विश्व बाजार परंपराएँ पुरानी ले गया
    जीने कांग्रेस ढब खानदानी ले गया
    बहरहाल सूत्रधार की निष्पक्ष, विस्तृत और गहन समीक्षा के लिए राजीव जी को अनेकशः बधाई। ऐसे आलेख अपनी सांस्कृतिक विरासत की अक्षुण्णता एवं नव जागृति के लिए आवश्यक है। धन्यवाद

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  28. सूत्रधार की यह आलोचना अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण है. यह रचना के प्रति रोचकता पैदा करती है. यह आत्मकथ्यात्मक उपन्यास की कई बातों को उधेड़ते हुए विधा की ख़ास बातो को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करती है. यह एक शोधपरक आलोचना है जो सामजिक परिवेश का उचित चित्रण करती है. ऐसे ही जो राजीव जी ने आपत्ति प्रदर्शित की है वह भी उचित ही प्रतीत होती है कि नाई कभी भी अछूत नहीं माने गए हैं. और भिखारी जी का नाम भिखारी कैसे पड़ा,वह भी सामाजिक प्रसंग रोचक है. इसके साथ ही नचनियों की सामाजिक स्थिति का भी वर्णन बखूबी किया है. राजीव एक सशक्त आलोचक हैं. और उनकी आलोचना इसी प्रकार रोचकता उत्पन्न करती रहे

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  29. वंदना सहाय22 मई 2016, 8:29:00 am

    संजीव के उपन्यास 'सूत्रधार' पर राजीव रंजन द्वारा लिखा गया यह आलोचनात्मक आलेख एक बेहतरीन आलेख है, जिसका उद्देश्य महज दलित विमर्श में शामिल होना नहीं है। यह सूक्षांवेशी समीक्षा हमारा ज्ञानवर्धन कर, हमें उन सभी सामाजिक कुरीतियों और कुप्रथाओं से परिचय कराती है जो भिखारी ठाकुर से समय में फल-फूल रहे थे।

    हिन्दू समाज का अंतर्विरोध और दोगलापन खुल कर सामने आता है, जब यह बात उठती है कि भिखारी ठाकुर के छूने से यज्ञशाला 'भरस्ट' हो जाता है जबकि वहीं अन्य तथाकथित निम्न जाती के लोग दूसरा काम कर रहे थे।

    संजीव का 'नान्ह जात' और अछूत शब्दों में भेद न कर पाना, उनके अर्जित ज्ञान और शोध दोनों पर सवाल खड़ा करता है। ऐसा होने से भिखारी ठाकुर सिर्फ दलित और पिछड़ी जाति के 'प्रतीक पुरुष' के रूप तक ही सिमट के रह जाते हैं और इनका बहुमुखी व्यक्तित्व कहीं खो कर रह जाता है।

    कहीं भिखारी की पीड़ा-"तो क्या यूँ ही टहलुअई करते बीत जाएगी पूरी उमर"?

    तो कहीं जातिवाद का दंश झेलते बालक भिखारी ठाकुर-"नान्ह जाति के अलग से पाठशाला होखे के चाहीं", हमारे मर्म जो झकझोर जाता है।

    मैं राजीव जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ कि संजीव ने अपनी कथा के लिए जिस विषय को चुना उसे महानगरों के ड्राइंग-रूम में बैठ कर कतई नहीं लिखा जा सकता है।संजीव की किस्सागोई और कलात्मकता उनके उन इलाकों में भटकने के साहस को दर्शाती है।

    किन्तु किन कारणों से 'सूत्रधार' हिंदी के श्रेष्ठ उपन्यासों में शुमार नहीं हो पाया, यह बात ठीक से स्पष्ट नहीं हो पाई।

    भूमंडलीकरण का दौर, अंग्रेजी का बढ़ता वर्चस्व और हिंदी की खो रही मौलिकता- ऐसे में भारतीय भाषाओँ में उपेक्षित रही भोजपुरी की अस्मिता को 'सूत्रधार' ने निश्चित तौर पर रेखांकित और स्थापित किया है।

    राजीव जी का लेख हमारे सामने एक उम्मीद बन कर आता है। इनकी कलम की साफगोई और साहस की दाद देनी पड़ेगी।

    मेहनत और ईमानदारी से लिखने के लिए राजीव जी को पुनः बधाई।

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  30. उपन्यास लिखना मतलब एक-एक बिंदू का गहरा अध्ययन करना। ख़ुशी की बात है कि उसकी विवेचना भी हर बिंदू को ध्यान में रख कर की गई है। कई बार आलोचना करने वाला मोटी-मोटी बातें कह देता है, मतलब भाषा, भाव-बिंब पर चर्चा हो जाती है लेकिन क्या जिस सूत्र को पकड़कर उपन्यास चलता है वह सूत्र ही सही तरीके से पकड़ा गया है या नहीं इस पर ध्यान नहीं जाता। कुछ बातें जो राजीव जी ने कही उस पर अपनी सहमति लगाना चाहूँगी। जैसे लेखक संजीव के नाम के समाजशास्त्र पर राजीव जी का भिखारी ठाकुर के माता-पिता के नाम को अधोरेखित करना। आज भी कई बार गाँवों-कस्बों में, निरक्षर समाज में अंधविश्वास हावी होता है। यदि किसी परिवार में लगातार बच्चों की मौत हो रही हो तो आज भी नये जन्मे बच्चे का नाम दगड़ू, कचरा रखा जाता है, मैंने ख़ुद देखा है।
    दूसरी बात नाई समाज की। वह अस्पृश्य नहीं रहा है। बच्चे का मुंडन मामा की गोद में होता है, नाई उस्तरा फेरता है। द्विज परिवारों के संस्कार विधान में यदि नाई अस्पृश्य रहा होता तो उसका प्रवेश वहां वर्जित होता। मैं स्पृश्य-अस्पृश्य के विवाद में नहीं पड़ना चाहती, जो देखा है वह दोहरा रही हूँ, बस। जो पढ़ा है वह यह भी कि राजा-महाराजाओं का सबसे चहेता नाई होता था और उसे वो सारी बातें पता होती थी जो किसी और को नहीं होती थी, वहाँ से चली आ रही परंपरा गाँवों में रही कि नाई को सबके घर की हर बात पता होती थी। छूआछूत जहाँ हावी होता है वहाँ अस्पृश्य को घर में प्रवेश नहीं मिलता, घर में प्रवेश न हो तो घर के भेद भी पता नहीं चलते। केवल सरल तर्क दे रही हूँ।
    बहरहाल इस आलेख को पढ़कर उपन्यास पढ़ने की इच्छा जागृत होती है। यह इस लेख की सफलता है। लेखक द्वय को शुभकामनाओं के साथ,
    स्वरांगी साने

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  31. सर बहुत ही उम्दा लेख है.... आपने बहुत ही बारीकी से संजीव के उपन्यास सूत्रधार के बारे में विशलेषण किया ,और आपके इस लेख के माध्यम से भिखारी ठाकुर के जीवन और जीवनवृत के बारे में उल्लेख किया। शुक्रिया एवं आपको ढेर सारी शुभकामनायें ।

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  32. इस लेख के माध्यम से भिखारी ठाकुर के जीवन के सभी पहलू और तथाकथित निम्न जातियो को उनके अधिक परिश्रम के कारण ही और दमित किया जा रहा है इसका उल्लेख भी बेहतरीन तरीके से किया है। मज़ा आ गया ये लेख पढ़ कर।

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  33. राजीव रंजन जी ने 'संजीव' के उपन्यास 'सूत्रधार' की समीक्षा के जरिये भिखारी ठाकुर के उद्देश्य और उनकी पीड़ा को सामने ला दिया है. उन्होंने उपन्यास को ऐसे धरातल से पकड़ा है, जिसमें भोजपुरी भाषा के इस लोक-कलाकार की सारी व्यथा सामने आ गई है. ठाकुर के गुरूजी कैसे उसे छोटी जाति का मानकर उससे हाथ-पैर दबवाते हैं, जिससे वे स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं.राजीव रंजन जी की समीक्षा के बाद पाठक उपन्यास पढ़े बिना नहीं रह सकता.
    इतनी गहराई से समीक्षा लिखने के लिए धन्यवाद .

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  34. राजीव जी सर्वप्रथम आपका यह आलोचनात्मक आलेख इस अर्थ में सफल है कि यह पाठक में सूत्रधार उपन्यास को पढ़ने की तीव्र रूचि उत्पन्न करता है। मैं अभी अभी नरेंद्रपुर सीवान के परिवर्तन संस्था में हुए कथा शिविर में गई थी। जहाँ भिखारी ठाकुर की क्षेत्र में असीम लोकप्रियता से परिचय हुआ। वह वहां किवदंती पुरुष हैं और ऐसे पात्र के सम्बन्ध में लिखने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है जैसा कि अपने बताया कि संजीव Jई ने किया भी है। इस आलोचनात्मक आलेख की सबसे बड़ी खूबी लगी कि यह तार्किक और व्यापक दृष्टि कोण से लिख गया है।
    आलोचना का पहला भाग लेखक की दृष्टि से सूत्रधार का सार है जो कई नई दृष्टियों से संपन्न है। यह भिखारी ठाकुर जी की संवेदनशीलता के आयामों को भी खोलता है। उस काल में जब आधुनिक शिक्षा सहज उपलब्ध नहीं थी, समाज तरह तरह की कुरीतियों, आडम्बरों में जकड़ा हुआ था तब भी भिखारी ठाकुर जी की रचनाओं में कुरीतियों, व्यर्थ आडम्बरों का विरोध, स्त्री की स्वतंत्र अस्मिता का सम्मान अभिभूत करता है।
    राजीव जी ने सूत्रधार को जीवनीपरक उपन्यास की धारणाओं की कसौटी में जिन बिंदुओं पर कसा है वे तार्किक और वाजिब है। राजीव जी ने उपन्यास के विकास की दिशा तय करने के जिससूक्ष्म बिंदु को अपनी आलोचना में उल्लेख किया है वह उनकी सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। इसी से सम्बंधित भिखारी ठाकुर जी के नामकरण और यज्ञ की घटना के बहाने नाइ जाती को भीअस्पृश्य जातियों के समकक्ष रखने की त्रुटि भी बेहद तार्किक और प्रभावी तरीके से उभर कर आती है।
    बहरहाल राजीव जी का कथन कि उपन्यास एक स्तरीय और एक आयामी रह गया।
    ' संजीव जी ने नवजागरण के एक देसी ‘सूत्रधार’ को सीमित बना दिया है. इसलिए कहना होगा कि अपने राजनीतिक एजेंडे में संजीव सफल हुए हैं, पर ‘सूत्रधार’ असफल हो गया है.'
    राजीव जी के इस निष्कर्ष तक पहुचने के लिए जिन तथ्यों तर्कों का उपयोग किया है वे सभी प्रभावी और मान्य प्रतीत हुए हैं लेकिन वाकई में ऐसा है या नहीं इसकी तीव्र उत्सुकता जगाता याक आलेख अपने इस अर्थ में सर्वाधिक सफल है कि आलेख का पाठक सूत्रधार पढ़ने बेहद उत्सुक हो जाता है। इतनी गंभीर, गहन, तार्किक और सूक्ष्म दृष्टि से लिखी आलोचना के लिए हार्दिक बधाई और भविष्य के लिए कोटिशः शुभकामनाएं।

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  35. सबसे पहले तो किसी उपन्यास के ऊपर इतना विशद और गंभीर तथा संतुलित आलेख के लिए राजीव जी को बहुत बधाई।संजीव जी का सूत्रधार उपन्यास जब पहली बार पढ़ा था तो निराशा हुई थी।आज उसका विश्लेषण पढ़ ख़ुशी हो रही है।राजीव जी के अभिमत से सहमति है कि----

    सूत्रधार एक आंचलिक उपन्यास नहीं है।

    भिखारी ठाकुर की जीवनी में जो 'तथ्य'हैं उस पर उपन्यासकार का दृष्टिकोण हावी है न कि भिखारी ठाकुर का जीवन।

    सूत्रधार विमर्श की दृष्टि से सफल है जबकि भिखारी ठाकुर की जीवनी के रूप में असफल।

    राजीव जी जिस प्रकार इस उपन्यास के बारे में लिखा है:

    इस प्रकार का सांगोपांग विवेचन कम ही होता है।दरअसल संजीव जी यह उपन्यास मुझे अकादमिक ज्यादा लगता है उपन्यास कम।
    राजीव रंजन गिरी को इस सारगर्भित आलेख के लिए अनेकशः बधाई।

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  36. आपकी आलोचना से बहुत हद तक सहमत हूँ। संजीव मेरे प्रिय तो हैं ही वे हिंदी के महत्वपूर्ण कथाकार भी हैं। उपन्यास उन से नहीं सध पाता है। शोधपरकता रचनात्मक लेखन की जितनी बड़ी ताकत होती है, सध न पाये तो उससे बड़ी कमजोरी साबित हो जाती है, क्षतिकर।
    इस बात का उल्लेख जरूरी लगता है कि यह उपन्यास स्वतंत्र रूप से लिखा तो गया, लेकिन इसका लिखा जाना फेलोशिप की परियोजना के तहत हुआ था। इसके असर को भी आपकी आलोचना खोज सकती थी। दूसरी बात यह कि जिस समय यह उपन्यास लिखा गया है, उस समय का साहित्यक वातावरण कैसा था। संक्षेप में यह कि उस समय हंस के संपादक आदरणीय राजेंद्र यादव खुद तो 'न लिखने का कारण' ढूढ रहे थे और कथाकारों को सामाजिक इंजीनियरिंग का सूत्र बता रहे थे। दलित महिला के विमर्श को जोरदार तरीके से उठाते हुए असल में 'ओबीसी' के लिए जगह बना रहे थे। यह अपराध नहीं था। लेकिन इस सूत्र से उस बात के लिए भी नाजायज जगह बन जाती थी, जिनकी ओर आपने नामकरण और अल्पना प्रसंग में इशारा किया है। मुझे लगता है अधिकतर दलित लेखन और लेखक राजेंद्र यादव की सामाजिक इंजीनियरिंग से सहमत नहीं है। इस मामले में संजीव की कमलेश्वर से बनी रचनाकारीय दूरी की ऐतिहासिक, सामाजिक और साहित्यिक ब्यौरे भी संजीव और उनकी रचनात्मकता के परिप्रेक्ष्य को समझने और सूत्रधार की रचनापरक स्ट्रेटजी, इसे भूल चूक न समझें, को समझने में मदद मिल सकती है।

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  37. मार्मिक एवम शोधपरक आलोचना के लिए बधाई। प्रतीकों को जातियों में जब्त करने का काम आजकल खूब चल रहा। बौद्धिक- साहित्यकार इसका आरम्भ करते हैं। संजीव जैसे बड़े लेखक भी इस दृष्टि के शिकार हैं। हों भी क्यों न। यह ऐसा शार्ट कट है जिससे पाठक भी मिलता है और समुदाय विशेष का समर्थन भी। ज्यादातर विमर्श वाले यही करते हैं।

    आपने संजीव जैसे बड़े लेखक से विचारोतेजक जिरह कर साहस के साथ अपना पक्ष लिखा है, अब दुर्लभ होता जा रहा है। यह बात इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि इस निबन्ध के एक भाग में सूत्रधार की प्रशंसा भी है। आलोचना प्रशंसा या फतवेबाजी की दो श्रेणियों में विभक्त होती जा रही है, यह चिंताजनक है। आपने इन दोनों से बचते हुए सम्यक मूल्यांकन किया है।
    पर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए नायकों को लड़ाने वाले लोग इसे हजम न कर पाएंगे। मुबारकवाद।
    -- निशांत

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  38. यह धार बनी रहे। किसी बड़े नाम से बिना खौफ़ के लिखिए। बधाई लेखक और समालोचन।
    -- पंकज पाठक

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  39. बहुत ही ज्ञानवर्धक और सारगर्भित समीक्षा। भोजपुरी के साहित्य जगत में भिखारी ठाकुर का नाम बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है। अपने लोकगीत से उन्होंने समाज की कुरीतियों पर कठोर प्रहार किया। उनके नौटंकी नाटक मंडली की सजीवता का वर्णन सामान्यतया आज भी अपने बुजुर्गों से सुनने को मिलता है। भिखारी ठाकुर ने जिस प्रकार बेटी बेचवा ,विदेशिया ,विधवा विलाप, आदि का मंचन किया, वह मंचन वर्तमान के थिएटर व्यवस्था को चुनौती है।

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