भुलाने के लिए लिखना: सुभाष गाताडे


राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर सुभाष गाताडे के धारदार लेखन से हिंदी समाज सुपरिचित है. इधर वह स्मृतियों पर आधारित संवेदनशील गद्य लिख रहें हैं जिसे समालोचन लगातार प्रकाशित कर रहा है. सुभाष गाताडे परिबद्ध कार्यकर्ता भी हैं उनके अनुभव में वह लोक है जो कभी फैक्ट्री बंद हो जाने पर सड़क पर आ जाता है तो मेन होल में काम करते हुए वे सफाई कर्मी हैं जिनमें अधिकतर ४५ वर्ष से पहले ही दम तोड़ देते हैं, जेलों में सिसकते बे-गुनाह युवा हैं.

सरोकार और साहित्य की यह अनूठी प्रस्तुति आपके लिए.




भुलाने के लिए लिखना
सुभाष गाताडे
 

ऐसा नहीं है कि हम युवा वयस्कों के लिए यहां श्रद्धांजलि पेश कर रहे हैं, ... मैंने इतने सारे युवाओं का खून बहते देखा है कि मैं अब उसी में डूब रहा हूं और सांस नहीं ले पा रहा हूं. मैं अधिक से अधिक यही कर सकता हूं कि अपनी कलम उठाउं और कुछ लेखों को लिख डालूं, जिससे कुछ और बदकिस्मत सांस ले सकूं. यह कैसी दुनिया है ? रात इतनी लंबी है, रास्ता इतना लंबा है कि मैं खामोश रहूं. लेकिन अगर आज मैं आज ऐसा नहीं करता तो एक समय आएगा जब लोग उन्हें याद करेंगे और उनके बारे में बात करेंगे.’’

लु शुन, 25 सितम्बर 1881 - 19 अक्तूबर 1936,चीन के महान लेखकभुलाने के लिए ही लिखा गया

(Lu Xun, Written for the Sake of Forgetting, P 234, Selected Works of Lu Xun, Vol III, Beijing)





कई बार शब्द अपने समय के पराजय बोध से उबरने या उबारने का काम बखूबी करते हैं.

वे कभी आप के आंसुओं को- जो अब सूख गए हैं- जुबां देते हैं; वे कभी ढाल भी बन जाते हैं ताकि हम अपनी समूची बेबसी को उनके कंधों पर रख कर बेसुध कहीं गिर पड़ें. गुलज़ार की उस नज्म़ की तरह जिसमें अपनी नज़्म को आवाज़ देते कहते हैं कि दिन भर की लंबी थकान के बाद वे जब हांफ जाते हैं तो उनकी नन्हीं सी नज्म़ उनके पास आकर कहती है कि आ अपना बोझ मेरे सीने पर रख दे.

आप से इस गुफ्तगू में मैं इस बार इसी तरह शब्दों को आपस में जोड़ते हुए परोसने वाला हूं.

मुझे मालूम नहीं कि सेलिब्रिटी कहलाने वाले लोगों की जिंदगियों में झांकने में मशगूल इस समय में नामालूम लोगों पर बात करना कितना वाजिब होगा !

और बेहद बेतरतीब सी लगनेवाली इन बातों को, उन किस्सों को- जिनका जिक्र भी कहीं आप को नहीं मिलेगा- आप किस नज़रिये से देखेंगे.

मेरी गुजारिश है कि आप चाहें तो यहीं रूक सकते हैं और चाहें तो इस एकालाप को पढ़ने की बोरियत से बच भी सकते हैं.

बहरहाल

 


१.

भारत: एक मौत

 

नहीं मैं यहां उस भारत की बात नहीं कर रहा हूं जिसके सुजलाम सुफलाम होने की कामना हम अपने राष्ट्रगान में अक्सर करते रहते हैं. 

यह भारत नामक एक कामगार की बात है. 

ईमानदारी की बात है कि मैं कभी भारत नामक लगभग पचास साल उम्र के उस श्रमिक से मिला नहीं था. 

मुझे इतना ही पता है कि जहां तक उसकी मौत थी वह बेहद अमानवीय परिस्थितियों में हुई थी, जिसे टाला जा सकता था. 

भारत ने अपनी अंतिम सांस हिमाचल प्रदेश के किसी बददी नामक स्थान पर मुल्क के सबसे बड़े धन्नासेठों में से एक ही फैक्टरी के गेट पर जाड़े के दिनों में ली थी जहां वह मुआवजे के इंतज़ार में अपने साथियों के साथ खुले आसमान के नीचे पड़ा था ताकि कभी तो किवाड़ खुले और मुआवजे के चंद सिक्कों की बरसात हो. 

न किवाड खुला, न मुआवजा मिला, बस मौत ने दबे पांव आकर भारत को चूम लिया. 

जैसा मैंने पहले ही कहा कि मैं भारत से तो नहीं मिला था, लेकिन उनके चंद साथियों से, ऐसे लोग जो भारत की तरह ही दिल्ली की फैक्ट्रियों में काम करते थे, मिला था. उनके साथ धरनों- प्रदर्शनों में शामिल हुआ था, उनकी ट्रेड यूनियन के नेता हरिद्वार दुबेजी से मिला था- जो खुद कुछ सालों के अंदर कैंसर की गंभीर बीमारी से हमसे विदा हुए थे- पी के शाही थे, जिन्होंने पूरी जिन्दगी श्रमिकों के आंदोलन में लगा दी, और भी कई संगवारी.

इतना वक्त़ गुजर गया कि अब वे नाम भी स्मृतियों के कपाट से विलुप्त हो गए हैं. 

वह वर्ष 1996 का साल था जब प्रदूषण फैलाने के नाम पर राजधानी दिल्ली के 168 कारखानों को बंद कर दिया गया था, इन्हीं में से एक मिल में भारत काम करता था. 

आला अदालत के अपने तर्क थेगंगा के प्रदूषण का मामला अदालत के सामने उपस्थित हुआ तब अदालत ने दिल्ली के मास्टर प्लान का हवाला देते हुए फैक्ट्रियों को अलग जगह ले जाने का फरमान सुनाया था. प्रदूषण को काबू में करना जरूरी था, और हमेशा जरूरी रहेगा, लेकिन मजदूरों की बात करें तो उनकी किस्मत को प्रभावित करने वाले, उनकी समूची जिंदगी को उलट पलट कर देने वाले इस फैसले ने उन्हें एक तरह से दोहरी सज़ा झेलनी पड़ी. जब कारखाने चल रहे थे तो उसी प्रदूषण को वह भी झेलते रहे थे और आज उसी प्रदूषण का हवाला देते हुए कारखानों को बंद किया जा रहा था या दूसरे स्थानों पर विस्थापित किया जा रहा था, जिसमें उनका पक्ष अनसुना रह गया था. 

बहरहाल, लगभग पचास हजार श्रमिकों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले इस निर्णय ने दिल्ली के इनसाफ़ पसंद लोगों, समूहों को भी उद्वेलित किया था और अपने इस आक्रोश को जुबां देने के लिए उनमें से कइयों ने एक बैठक की थी, जिसने एक साझा मुहिम का आकार ग्रहण किया गया था. 

12 दिसम्बर (1996) की वह शाम मुझे अभी भी याद रह गयी है. कॉन्स्टिट्यूशन क्लब की लॉन में तमाम लोग एकत्रित थे, कई प्रभावित कामगारों, उनके नेताओं से और दिल्ली के तमाम हमखयाल लोगों, समूहों से उन दिनों पहली बार मिलने का मौका मिला था. लंबे समय से ट्रेड यूनियन आंदोलन में सक्रिय रहे पी के शाहीजी के बुलावे पर सभी एकत्रित हुए थे.

कुछ किया जाना चाहिए इस पर सभी सहमत थे. 

इसी मुहिम के दौरान जनता तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हम लोगों ने तरह-तरह के तरीके अपनाए थे. अपने इन साझा प्रयासों के लिए हम लोगों ने एक नाम भी तय किया था: दिल्ली जनवादी अधिकार मंच.

जनसभाएं, छोटी बड़ी बैठकें, पुस्तिका प्रकाशनधरना, जनसुनवाई ... साझा सरगर्मी का वह ऐसा दौर था कि कई नए दोस्त, संगवारी, सहयात्री बने, लेखक, कलाकार, एक्टिविस्ट. इस दौरान जो संबंध बने, रिश्ते बने, उनकी स्निग्धता इतने लंबे अंतराल के बाद भी कायम है, इनमें से कई मित्र घर भी आते थे. 

बाबा अर्थात पिताजी के लिए- जो सत्तर साल की उम्र पहले ही पार कर चुके थे- यह सभी आत्मीय उनके भी अपने थे- जैसे मैं था या अंजलि थी. हम लोग कुछ बात करते रहते थे और वह अचानक चाय बना कर हाजिर होते थे. आम तौर पर परिवारों में जैसा वातावरण रहता है, उससे अलग इस वातावरण को देख कर बाकियों को भी बहुत अच्छा लगता था. 

उन दिनों एक एलआईजी फलैट में निवास था, बिटिया उर्मि चार पांच साल की थी, इस मुहिम से जुड़ने में हम लोगों के जुड़ने से उसकी अलग तरह की चांदी हुई थी, उसकी मौसियों और चाचाओं की तादाद में अचानक बढ़ोतरी हुई थी. उसका सीधा फार्मुला था, कोई महिला साथी घर पहुंचे तो मौसी और पुरुष साथी पहुंचे तो चाचा. और सभी उससे वैसे ही प्यार करते थे, जैसे किसी छोटे बच्चे से किया जाता है, लिहाजा सगे रिश्तेदार क्या होते हैं, इसका उसे लंबे समय तक कोई एहसास ही नहीं था. 

अभी दो साल पहले उससे ऐसी ही कोई गपशप हो रही थी तो उसने उन दिनों के सहपाठियों का एक अनुभव बताया था, जो उसकी नर्सरी में साथ पढ़ते थे, जब अपनी हमउम्र रीतिका से बात करते हुए उसने अपने इन तमाम मौसियों और चाचाओं को जिक्र किया था और रीतिका उसे पूछे जा रही थी, लेकिन सगे रिश्तेदार कौन हैं ? 

कभी-कभी मंच की इस बैठक में मैं उसे भी ले जाता था. खाने पीने की बचपन से शौकीन उसके लिए एक टिफिन में थोड़ा नाश्ता भी रख लेता था और कोई कॉपी पेंसिल ताकि अगर बोरियत महसूस हो तो वह उसी में व्यस्त रहे. 

मंच से जिन लोगों से जुड़ाव बना उनमें से एक शांताजी भी थीं, अपना नाम शांता तूफानी बताती थी, उम्र 70 से पार थीं अलबत्ता उनका उत्साह किसी युवक से कम नहीं रहता था. साझा मुहिम के तहत जारी धरनों, सभाओं के लिए बसों के धक्के खाते दूर-दूर से पहुंच जाती थी. 1997 का मई दिवस हम लोगों ने ओखला इंडस्टियल एरिया में मनाया था, सभा चल रही थी और उत्पाती तत्वों को दूर रखने के लिए शांताजी अपने हाथों की छड़ी लिए तैनात थीं. 

मयूर विहार में वह अपनी बेटी के साथ रहती थीं.

दिल्ली के रोहिणी इलाके में- जहां मेरी रिहायश थी- साझा मुहिम के तहत एक कार्यक्रम हम लोगों ने रखा था, कार्यक्रम खतम होते-होते रात के आठ बज गए थे. हम लोगों ने जोर दिया कि शांताजी रात को घर में रहिए और कल सुबह मयूर विहार जाइएगा, लेकिन शांताजी- जिन्हें सबलोग प्यार से ‘माताजी’ भी बोलते थे- कहां माननेवाली थीं. लगभग रात साढ़ेआठ बजे उन्होंने बस पकड़ी, मेरे खयाल से रात ग्यारह बजे के आसपास उनका फोन आया :

‘सुभाष, मैं पहुंच गयी हूं. रुकना चाहती थी मैं लेकिन सुबह ग्यारह बजे एक दूसरे धरने पर जाना था, तो इसलिए चल दी. वैसे रास्ते में मैं बस में बैठे लोगों को पर्चा बांटती रही और समझाती रही.’ 

आला अदालत का फैसला था, कामगारों के तकदीर पर पहले ही मुहर लग गयी थी. 

हम सभी लोग इस पागल उम्मीद में सरगर्म थे कि क्या पता कहीं से कोई पत्ता खड़के और कुछ चमत्कार हो जाए. 

साझा मुहिम का आगाज़ हुआ तभी अधिकतर लोगों के लिए यह साफ था कि हम एक लोहे की एक विशालकाय ऊंची दीवार के समक्ष खड़े हैं और जिसको लांघने की हसरत पाले हैं. 

भारत की मौत की ख़बर पी के शाही जी ने हर सोमवार शाम होने वाली उस बैठक में दी थी, जब उस साझा मुहिम से जुड़े लोग कॉन्स्टिटयुशन क्लब के लॉन में एकत्रित थे. 

यह तो साफ है कि भारत की इस असामयिक मौत के लिए प्रत्यक्ष तौर पर जिम्मेदार प्रबंधन में से किसी पर एक अदद मुकदमा भी दर्ज नहीं हुआ था. न अदालत के फैसले की तौहीन करने के लिए उनसे जवाब तलब किया गया था कि फैसले के मुताबिक मुआवजे की रकम अदा क्यों नहीं की गयी. 

बात आयी गयी हो गयी थी. 

इन्हीं बंद पड़ी मिलों की दीवारों पर हम लोगों ने एक भित्ति चित्र (मुराल) भी बनाया था, जिन दिनों मुल्क में श्रमिक आंदोलनउरूज पर था तो कोलकाता में या अन्य शहरों में ऐसे मुराल बना करते थे..

दो तीन साल बाद फिर उसी चौराहे से गुजरना हुआ, मुराल तो छोड़ दें, उस दीवार का भी नामोनिशान नहीं था, फैक्टरी कब की जमींदोज हो चुकी थी और एक बड़ा मॉल और आसपास अन्य चमकती दुकानें और पार्किंग के लिए अच्छी खासी जगह बनी थी. 

अगर कैलेण्डर के बदलते पन्नों और सालों पर गौर करूं तो भारत को गुजरे भी जल्द ही 25 साल पूरे हो जाएंगे. 

दिल्ली अब बहुत बदल चुकी है. 

भारत और उसके हमनवाओं के लिए हालात और संगीन हो चुके हैं. 

कहा जा रहा है कि मुल्क को अगर विकास के रास्ते पर डालना है तो यह निहायत जरूरी है. 

बददी में खुले आसमान के नीचे भारत नामक उस कामगार की मौत मुझे एक रूपक के तौर पर दिखती है, जो बार-बार मौजूं लगता है. 

दिल्ली की सरहदों पर जाड़े के दिनों में धरना दे रहे किसानों की मौत की जब ख़बरें मीडिया बेहद निर्विकार ढंग से पेश करता था तो मेरी आंखों के सामने कभी न देखे उस कामगार भारत की मौत का मंज़र नमूदार होता रहता था. 

इतनी अनगिनत मौतें जिनसे बचा जा सकता था.. आज भी बचा जा सकता है. 

यह व्यवस्था ऐसी मशीन लगती है जिसे निरंतर मनुष्य की धधकती जिंदगियों की आहुति चाहिए.. 

कब तक चलेगा यह सिलसिला ? 

कितने जन इस अग्नि में स्वाहा होंगे ? 



२.

यह सुहाना मौसम’

 



तब मैं छोटा था. हम लोग इलाहाबाद के एक निम्न मध्यवर्गीय मोहल्ले में रहते थे. हल्का-हल्का याद है कि किस तरह गली में बढ़ता कचरा देख मेरे परिवार के बुजुर्गों और पड़ोसियों का गुस्सा बढ़ता जा रहा था. अरे! भाग गई होगी किसी के साथ. हर परिवार से हर महीने दो या तीन रुपए पानेवाली या कभी कभार बासी रोटी और गंधाती सब्जी पानेवाली चालीस साल की सफाई कर्मचारी फुलपतिया के मोहल्ले की सफाई के लिए तीन दिन तक न आने से गोया आसमान टूट पड़ा था.’ 

दिल्ली के एक सभागार के बाहर पेशे से पत्रकार मित्र एवं बेहद आत्मीय संजय प्रताप ने यह किस्सा सुनाया था. बता रहे थे कि चौथे दिन जब वह लौटी तब पता चला कि चार रोज पहले उसका दामाद सीवर में काम करते-करते मर गया था. सभी जानते थे कि कुछ महीने पहले ही उसकी बेटी की शादी हुई थी, जो खुद कभी-कभी मां का हाथ बंटाने के लिए साथ आती थी. 

निश्चित तौर पर इलाहाबाद की फुलपतिया इधर दिल्ली के समयपुर बादली धनवंती को जानती नहीं होगी, लेकिन दोनों के दुख एकसे ही थे, फुलपतिया ने अपने दामाद को खोया था तो धनवंती ने अपने लाडले बेटे अजय को इसी तरह सीवर में खोया था. 

उस दोपहर को जब मैं और मेरा दोस्त रमेश समयपुर बादली की उस बस्ती में पता लगाते पहुंचे थे तो धनवंतीदेवी को अचानक लगा था कि कि अजय ही लौटा है, जिसे गुजरे कुछ माह बीत चुका था, और वह शायद उसी वक्त़ घर लौटता था. न चाहते हुए ही हम अपराधबोध से ग्रसित हुए थे. 

धनवंती के साथ उसके पति भी उस झुग्गीनुमा घर में थे, जो कहीं चौकीदारी का काम करते थे. 

बता रही थीं कि किस तरह अजय को- जिसे इस काम का अभ्यास नहीं था- ठेकेदार ने बुला लिया था और सीवर में उतरने को कहा था.  जहरीली गैस से थोड़ी ही देर में अजय बेसुद हो गया था, जिसे किसी तरह बाहर निकाला गया था; लेकिन तब तक उसके प्राण पखेरू उड़ चुके थे. अजय को बचाने के प्रयास में आला, जिसे ठेकेदार ने अजय के साथ भेजा था, गटर में उतरा था. कुछ ही पलों में उन दोनों युवाओं ने दम तोड़ दिया था. 

धनवंती ने हमे उसकी एक ब्लैक एण्ड व्हाईट तस्वीर भी दिखाई और कागज का एक टुकडा जिस पर पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ रपट दर्ज की थी. ठेकेदार घटना के बाद फरार हो गया था. 

बात आयी गयी हो गयी थी. 

बता रही थीं कि लाश उठाने को हम तैयार नहीं थे, मगर पुलिसवालों ने उस वक्त़ चिरौरी की, कहा कि आप को इनसाफ़ दिलाएंगे और अब उसके बाद किसी का कोई पता नहीं है. 

उन दिनों हम लोग सीवर में मौतों को लेकर जन-जागृति के काम में लगे थे. 

वह 2004 का वर्ष था जब अख़बारों में सीवर में होने वाली मौतों को लेकर कुछ समाचार छपे. इन ख़बरों से विचलित हम लोगों ने कुछ करना चाहा. 

वह एक साझा प्रयास था, छात्र युवा संगठन भी थे, अन्य प्रगतिशील संगठन भी थे, जिसके साथ दलित मुक्ति के लिए हरियाणा में सक्रिय कुछ लोग भी जुड़े थे. इनमें मंगतराम सहोत्रा भी शामिल थे, जो तब तक सरकारी महकमे से रिटायर हो चुके थे अलबत्ता दलितों-वंचितों में नयी चेतना फैलाने के लिए सक्रिय रहते थे, अपना एक टेबलॉयड किस्म का अख़बार भी निकालते थे, ‘झुंझलाहट’ शीर्षक से. (पिछले ही साल कोविड की महामारी ने उन्हें भी निगल लिया.) 

इसकी पहली बैठक हमारे घर पर ही हुई थी.  

लगभग बीस पचीस मित्र, सहमना लोग एकत्रित थे. सहोत्राजी अपने कुछ युवा मित्रों के साथ करनाल से वहां पहुंचे थे.  

सबसे पहला कदम था, इन मौतों से जुड़े तथ्यों को संग्रहीत करना, गटर कामगार अर्थात सीवर मजदूरों की काम करने की परिस्थितियों के बारे में जानना, इस क्षेत्र में पहले से कार्यरत लोगों, संगठनों से मुलाकात करना. 

दूसरा कदम था, इस मुद्दे को लेकर सिविल सोसाइटी अर्थात आम नागरिकों के बीच प्रचार अभियान चलाना ताकि उन्हें इस बात के प्रति संवेदनशील बनाया जा सके कि एक जनतंत्र में ऐसी मौतों की क्यों इजाजत नहीं दी जा सकती, और उन्हें यह भी समझाना कि किस तरह पश्चिमी मुल्कों में ऐसी मौतों के बारे में अपवादस्वरूप ही सुना जाता है, उन्होंने किस तरह इस समस्या पर काबू किया है.  

इस मुहिम की परिणति दिल्ली में एक विशाल जनसभा में हुई, जिसमें अजय के माता पिता के अलावा कुछ अन्य पीड़ित परिवार भी आए थे.  

पिछले दिनों मेरी निगाह अचानक उस हैण्डबिल पर गयी, जो उन दिनों हम लोगों ने बांटा था. ‘शहर के सीवर या मौत के कुएं’ शीर्षक उस पर्चें की शुरूआत उन्हीं दिनों- 12 जून 2004 को समयपुर बादली नामक दिल्ली के इलाके में- सीवर सफाई करते हुई आला और अजय की मौत से होती है. 

यकीन मानिये, मैं जब उस पर्चे को फिर पढ़ रहा था, तो मुझे लगा कि जहां तक इस मसले का ताल्लुक था, हमारी समझदारी बेहद प्रारम्भिक किस्म की थी. आधिकारिक तौर पर भले ही सीवर या गटर सफाई में कुछ सौ लोग हर साल मरते हों, लेकिन अनआफिशियली देखें तो संख्या कई गुना ज्यादा है. हम लोगों के इस प्रतीकात्मक अभियान के महज तीन साल बाद ‘तहलका’ में पत्रकार सिरियावन आनंद ने इस मसले पर एक स्टोरी की थी (2007) जिसमें उन्होंने इस मसले पर विस्तार से रौशनी डाली थी. 

एक विचलित करनेवाला तथ्य यह भी है कि हर साल गटर सफाई में प्रत्यक्ष मरनेवाले सैकड़ों, हजारों लोगों के अलावा इससे निकलनेवाली जहरीली गैसों से मरनेवालों में तमाम अन्य कामगार भी शामिल होते हैं. दरअसल सीवर में काम करनेवाले अधिकतर मजदूर रिटायरमेण्ट के पहले ही मरते हैं. मैनहोल में काम करनेवाले कामगार की औसत जीवनसीमा 45 साल होती है. 

इस मसले पर आयोजित सभा में एक वक्ता ने इस बात पर जोर दिया था कि समस्या फण्ड की कमी या टेक्नोलोजी नहीं है. उसका कहना था कि अगर उपग्रहों  को आसमान में छोड़ने के लिए टेक्नोलोजी का इस्तेमाल किया जा सकता है तो उसे कूड़ा और गन्दगी को हटाने के लिए क्यों नहीं किया जा सकता. डेनेज और सीवरेज के लिए हजारों करोड़ रुपए के आवण्टन का विवरण देते हुए उसमें प्रश्न पूछा गया था कि आखिर इतना सारा पैसा ऐसे पाइपों या नालियों को बिछाने के लिए क्यों खर्च होता है, जो एक तरह से लोगों को मारने के लिए बने हों ? 

क्या इसकी वजह यही है इसके लिए डिस्पोजेबल लेबर उपस्थित है ? याद रहे कि इस ‘पेशे’ में मुब्तिला अधिकतर लोग दलित जातियों से आते हैं, जिनकी मौतें हमेशा किसी स्टैटिस्टिक्स का ही हिस्सा बनने तक सीमित रहती हैं. 

आप कह सकते हैं कि एक विशाल अंतराल मौजूद है  ‘लगभग अदृश्य दिखने वाले सीवर कामगार’ जो अधिकतर मामलों में किसी दलित जाति से जुड़ा होता है और हमारे समाज के प्रबुद्ध एवं मुखर तबके के बीच.

इस अंतराल को, इस दूरी को हम रेडियो मिर्ची से जुड़े टेलीविजन कमर्शियल को लेकर उनकी प्रतिक्रिया में देख सकते हैं, जो संयोग से उन दिनों काफी चर्चित हुआ था. 

वह विज्ञापन दरअसल दो साल तक चलता रहा, जिसकी शुरूआत एक गीत से होती है, जिसकी आवाज़ मैनहोल से आ रही है. 

''ये सुहाना मौसम, ये खुला आसमां, खो गए हम यहां, खो गए हम यहां'' 

दर्शक देख रहे थे कि पान चबाता सफारी सूट पहना आदमी बहुत उत्सुकता से देख रहा है कि मैनहोल में काम कर रहा आदमी इतना खुश क्यों है कि वह गाए जा रहा है. अचानक कैमरा मैनहोल कामगार की पैण्ट और चप्पल की तरफ घुमाता है, जो मैनहोल के कवर के पास रखी है और  फिर टैगलाइन नमूदार हो जाती है ‘‘मिरची सुननेवाले ...हमेशा खुश.’’ एक अग्रणी गायक द्वारा कल्पित यह विज्ञापन, दर्शकों या मानवाधिकार समूहों की तरफ से किसी विरोध के बिना दो साल तक चलता रहा था. 

अभी बमुश्किल पांच साल पहले ‘स्टॉप किलिंग अस’ शीर्षक से देश के अलग अलग भागों से निकली ‘भीम यात्रा’ दिल्ली पहुंची थी, जिसका फोकस सीवर और सेप्टिक टैंक में मरनेवाले कामगारों पर था. इसकी पहल सफाई कामगार आंदोलन में सक्रिय बेजवाड़ा विल्सन एवं उनके करीबियों ने की थी. 

इसके समापन पर आयोजित सभा में मैं जंतर मंतर पहुंचा था. 

देश के अलग अलग भागों से आए पीड़ित वहां थे, जो इसी बात की ताईद कर रहे थे कि जाति-वर्ण- और अन्य जन्मना विभेदों में बंटे हमारे समाज में ऐसी त्रासदियां हर जगह हो रही हैं.

मंच पर ऐसे ही पीड़ित या उनके परिवारवाले मौजूद थे. 

इनमें सुनयना (उम्र 9 साल) थी, जो अपने दादा दादी के साथ लखनऊ में रहती है, जिसके पिता ऐसे ही दुर्घटना में मर गए थे और मां पिता के अचानक गुजरने के सदमे से गुजर गयी थी, मंच पर 13 साल का राहुल था जो तमिलनाडु से वहां पहुंचा था और जिसने महज एक सप्ताह पहले अपने पिता को इसी तरह गटर में खोया था. मंच पर भी उसे आंसू रोकना मुश्किल हो रहा था. 

इस सभा में 34 साल की पिंकी भी शामिल थी, जो दो बच्चों की मां थी और वाराणसी से वहां पहुंची थी. उसने अपने पति को इसी तरह गटर में तीन साल पहले खोया था. अपने भाषण में इस बात पर वह जोर दे रही थी कि वह वहां मुआवजे के लिए नहीं आयी है, वह अब उस कारवां का हिस्सा है जिसका मानना है कि ऐसी त्रासदियां किसी को भी झेलनी न पड़े. 

निश्चित ही पिंकी के जज्बात काबिले तारीफ थे, जो अपनी दोनों संतानों को अपने माता पिता के घर छोड आयी थी. 

लेकिन 21 वीं सदी की तीसरी दहाई की शुरूआत में ऐसी मौतों की ख़बरें आना क्या किसी सभ्य समाज की निशानी है? 

कभी इस पहलू पर विचार क्यों नहीं होता कि ऐसी त्रासदियां के मामले में यह मुल्क अव्वल नंबर पर क्यों है और जिन पश्चिमी मुल्कों को हम सुबह शाम कोसते रहते हैं, उन्होंने आखिर इस समस्या से कैसे निजात पा ली ? 

इन पंक्तियों को लिख रहा हूं और समयपुर बादली से चंद किलोमीटर दूर जहांगीरपुरी से ऐसी ही एक त्रासदी ने दस्तक दी है. 





एक पिता का ख़त कलमजीवी के नाम  


जिस तरह मैं भारत से नहीं मिला था, और आला तथा अजय से भी मेरा परिचय नहीं था, वही बात नवतेज (बदला हुआ नाम) पर भी लागू होती है. 

नवतेज की ख़बर जब मिली तो वह बेपटरी हो चुकी जिन्दगी को किसी तरह संवारने में लगा था, अपनी युवावस्था के कई साल जेल की कालकोठरी में बीता कर कुछ वक्त़ पहले ही बाहर आया था. यह सज़ा उसे एक ऐसे अपराध के लिए भुगतनी पड़ी थी जो उसने किया भी नहीं था. पंजाब में उठी उग्रवादी आंदोलन की लहर का खामियाजा उसके जैसे नौजवानों का भी झेलना पड़ा था. 

उसकी आपबीती का किस्सा सुनाते हुए उसके वालिद सरदार बलवंत सिंह ने जम्मू से लिखा था. 

बहुत कम मौके आते हैं जब किसी अजनबी का ख़त पढ़ कर मन उदास हो गया था. 

कुछ अरसा बीत गया था, लेकिन उन्हें यह साफ नहीं था कि आखिर किसके इशारे पर नवतेज को पकड़ा गया था, पढ़ाई में अव्वल और खेलकूद में भी काफी आगे रहनेवाले नवतेज पर किसकी नज़र लग गयी थी ?

उन्होंने लिखा था कि क्या उसे न्याय दिलाने के लिए मैं उनकी मदद कर सकता हूं. क्या वे लोग जिन्होंने उसकी संतान को फंसाया था, उन पर कोई कार्रवाई हो सकती है, उनका पता लगाया जा सकता है ?

मुझे यह नहीं मालूम कि उन्हें मेरा पता कहां से मिला था ? मुमकिन है कश्मीर टाईम्स नामक अख़बार से मिला हो, जिसमें मेरे लेख कभी-कभी शाया हुआ करते हैं. 

मेरी हिम्मत तक नहीं हुई कि अपनी संतान को न्याय दिलाने के लिए बेचैन उस पिता को मैं कोई आश्वासन दे दूं. 

एक कलमजीवी आखिर क्या कर सकता है भला ....... 

वह वर्ष 2008 का साल था, जब मैंने अख़बार में एक समाचार पढ़ा था आफताब आलम अंसारी नामक कोलकाता की पॉवर कंपनी में काम करनेवाले एक इलेक्टिशियन का, जिसे ‘खतरनाक आतंकवादी’ के तौर पर पकड़ा गया था, लेकिन एक काबिल जज के चलते- जो सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त था- जिसने थोड़ी ही बातचीत में समझ लिया था कि इस युवक को फंसाया गया है, उसे बाइज्जत रिहा किया गया था और पुलिस को (सूबा यूपी) लताड पड़ी थी. किसी अख़बार ने अदालती कार्रवाई का ब्यौरा पेश करते हुए न्यायाधीश महोदय और पुलिस के बीच चली वार्ता का विवरण पेश किया था, जो सुनने में हास्यास्पद लग सकता है, लेकिन पुलिस की कार्यप्रणाली को उजागर कर रहा था:

जज : मेरे टेबिल पर रखे गए पेपर्स के मुताबिक इस अभियुक्त का नाम मुख्त़ार नहीं है. उसका असली नाम क्या है ?

आफिसर : वह वास्तव में आफताब आलम अंसारी है

जज : इसका मतलब एक गलत व्यक्ति को पकड़ा गया है, यह भूल कैसे हुई ?

आफिसर खामोश रहा.

न्यायाधीश : अगर वह मुख्तार नहीं है न ही राजू है, तो आप ने अपनी याचिका में साफ क्यों नहीं लिखा?

 

बहरहाल आफताब बेदाग छूट गया था. 

ख़बर इतनी विचलित करनेवाली थी कि मुझसे रहा नहीं गया था और मैंने उस प्रसंग पर लिखा था. ‘हाउ टू कार्व आउट ए टेररिस्ट एंड से इट वर्क्स’ अर्थात ‘एक आतंकवादी को कैसे गढ़ा जाता है ..’

वही केस था जब मैंने पहली बार मोहम्मद शोएबसाब का नाम सुना, पेशे वकील शोएबसाब ने कभी समाजवादी आंदोलन से अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन की शुरूआत की थी. बाद में पता चला ऐसे केस लड़ना जहां शेष समाज ने पहले ही आतंकी घोषित किया हो, बेहद जोखिम का काम होता है. कई बार खुद बारएसोसिएशन ही प्रस्ताव पारित करती हैं कि वह फलां केस नहीं लड़ेगी और एक तरह से संविधान विरोधी आचरण करती हैं. 

आप कल्पना करें उस निरपराध व्यक्ति की तथा उसके आत्मीय जनों की कितनी दुर्गति होती होगी, जिसे खाना पूर्ति के नाम पर पुलिसवाले गिरफ्तार कर लें, थर्ड डिग्री यातनाएं देकर उससे कबूली दिलवाएं कि उसी ने कहीं बम रखा था .. और ‘देशभक्ति की दुहाई देते हुए’ उसका केस छूने को कोई तैयार न हो. 

एक बार ख़बर छपी कि किस तरह पूर्वी उत्तर प्रदेश की एक अदालत में वह वहीं के वकीलों के हमलों का शिकार हुए थे, जिन्होंने यह निर्णय लिया था कि जिस भी व्यक्ति का नाम आतंकवाद के केस में दर्ज हो, उसका केस नहीं लड़ना है. वैसे यह हमला कोई पहला हमला नहीं था. 

अख़बार से हुआ परिचय बाद में वास्तविक परिचय में भी बदला था, फर्जी मुकदमों में शामिल दिखा कर जेलों में ठूंसे गए लोगों को रिहा करने की मांग का लेकर लखनऊ में कोई प्रोग्राम रखा गया था, और लखनऊ रुकना पड़ा था तो आयोजकों ने उन्हीं के घर में इंतज़ाम किया था. चाय पीने के बाद उन्होंने वहां पर पहले से बैठे एक शख्स से परिचय कराया था,

यह गुलजार के पिता हैं, कालीन के व्यापारी हैं, श्रीनगर से आए है.’

गुलजार उस कश्मीरी युवक का नाम था जिसे आफताब की तरह नकली आरोपों में जेल में बंद किया गया था और इस प्रसंग को भी कई साल बीत चुके थे. अदालत की हर तारीख पर वह श्रीनगर से लखनऊ पहुंचते, और अदालत की अगली तारीख लेकर लौट जाते थे. दो साल पहले एक दिन अचानक एक ख़बर पर नज़र पड़ीगुलजार को बाइज्जत बरी किया गया. 

चंद माह पहले किन्हीं विष्णु तिवारी की ख़बर एक टीवी प्रोग्राम में सुनायी दीजो इसी तरह फर्जी मुकदमे में फंसाये जाने के बाद अपनी जिंदगी के लगभग दो दशक तक सलाखों के पीछे गुजार कर बाहर आए थे.

नवतेज, आफताब, गुलजार, विष्णु तिवारी और ... अंतहीन से लगनेवाली यह फेहरिस्त, गोया काफ्का का ‘द ट्रायल’ उपन्यास को आप अपनी आंखों के सामने नमूदार होते देख रहे हो.

साहित्य के जानकारों ने इस उपन्यास को जरूर पढ़ा होगा. 

उपन्यास किन्हीं जोसेफ के के इर्दगिर्द घूमता है, जो किसी बैंक में मुख्य कैशियर है, जिसे उसकी तीसवीं सालगिरह पर दो अनपहचाने लोगों द्वारा अचिन्हित अपराध के लिए गिरफ्तार किया जाता है. उपन्यास उसकी उन तमाम कोशिशों पर केन्द्रित है जिसमें वह उस पर लगे आरोपों का पता करने की कोशिश करता रहता है, जो कभी स्पष्ट नहीं होते, उसके उन बदहवास प्रयासों की बात करता है जहां वह उन आरोपों से मुक्त होने की कोशिश करता है. उपन्यास की शुरुआती पंक्तियां हैं :

कोई न कोई ज़रूर जोसेफ के बारे में झूठी सूचनाएं दे रहा होगा, वह जानता था कि उसने कोई गलत काम नहीं किया है लेकिन एक अलसुबह उसे गिरफ्तार किया गया.’ 

आज जब कागज़ काले करने बैठा हूं तो यही विचार मन में आ रहा है कि भारत के आत्मीय जन इन दिनों किस हालात में गुजारा कर रहे है !, क्या नवतेज अब सेटल हो गया होगा ? क्या उसके वालिद उसकी इस तरक्की से खुश होंगे ? आफताब इन दिनों क्या कर रहा होगा, और गुलजार के पिता क्या अंतहीन सी लगनेवाली उन यात्राओं के बारे में सोचते भी होंगे, जो उन्होंने श्रीनगर से लखनऊ की थी, ताकि उनके अपने लाड़ले को फिर एक बार गले लगा सकें , उसे सलाखों से बाहर निकालूं.

 


दिल की वीरानी का क्या मज़कूर है
ये नगर सौ मर्तबा लूटा गया 

मीर  

 

यह सवाल मुझे अक्सर परेशान करता है कि और आखिर निरपराध लोगों की जिंदगियां बरबाद करना यहां इतना आसान क्यों हैं ?

इतनी असम्पृक्तता, बेरुखी इस समाज में इतनी गहराई से क्यों जड़ जमाए हुए है? 

एक महान  सांस्कृतिक विरासत का दावा करनेवाले , अपने आप को विश्व गुरु समझने वाले इस समाज में मनुष्य से मनुष्य की दूरी इतनी क्यों है, जो एक तरह से मनुष्यों के बड़े हिस्से को अमनुष्य साबित करने में गौरवान्वित महसूस करती है. 

मेरे एक बेहद आत्मीय जो प्रखर मार्क्सवादी विचारक भी हैं एक बहुत मार्के की बात कहते हैं; उनका कहना है कि मनुष्य ऐसा प्राणी है कि उसे हर चीज़, हर स्थिति की आदत लगती है; हमारे समाज को भी अँधेरे में रहने की आदत लग गयी है, इसी अँधेरे में रहते हुए उसका काम चल रहा हैऐसे समाज में रौशनी का आगमन भी उन्हें असहज कर देता है. 

हमारे समाज के प्रबुद्ध और मुखर लोगों के बहुलांश का चिंतन इस कदर सत्ता एवं प्रतिष्ठा के अलमबरदारों के साथ इतना कदमताल कैसे करता है? 

वह गलत को गलत कहने के हक़ में क्यों नहीं खड़ा रहता है? 

अख़बारों, मीडिया में नेपाल के दुर्गा प्रसाद तिमसिना की ख़बर छपी है, जिसने बिना किसी औपचारिक सज़ा के भारत के जेलों में 40 साल गुजार दिए. समाचार के मुताबिक फिलवक्त़ साठ साल के उस शख्स की बौद्धिक उम्र 9 साल मात्र है, जिसे हत्या के आरोप में पकड़ा गया था. गनीमत थी कि उसके साथ कुछ साल जेल में बिताये एक व्यक्ति ने सामाजिक संगठनों से संपर्क किया, इसकी ख़बर भी जगह-जगह छपी और कोलकाता उच्च अदालत ने उसे रिहा करने का आदेश दिया. 

दुर्गा प्रसाद नेपाल के अपने गांव पहुंच गया है. 

आखिर चालीस साल में किसी जेल के अधिकारी, कर्मचारी को यह खयाल क्यों नहीं आया कि मानसिक तौर पर विशेष स्थिति वाले उस शख्स के मुकदमे का क्या हुआ ? 

अब जेल अधिकारियों, कर्मचारियों को क्या दोष दिया जाए, वह भी इसी समाज का प्रॉडक्ट हैं, वह और कैसा व्यवहार करेंगे ? 

बददी में खुले आसमान के नीचे जाड़े में कालकवलित हुआ भारत, शहर सफाई के नाम पर आए दिन होने वाले शहीद, युवावस्था के अहम सालों को जेल की सलाखों के पीछे गुजारने वाला नवतेज, असहमति का साहस रखने वाले बुद्धिजीवियों, युवा कार्यकर्ताओं को जेल की सलाखों के पीछे भेजने का जारी सिलसिला. 

टुकड़े-टुकड़े में नज़र आने वाली यह त्रासदियां हमसे कुछ कहती हैं ? 

क्या हम इनके पीछे निहित व्यवस्था के तर्क और समाज की धमनियों में रचे बसे संरचनात्मक हिंसाचार की शिनाख्त कर पा रहे हैं. 

त्रासदियों भरी ऐसी अंधेरी रात की सुबह आखिर कब होगी ?

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सुभाष गाताडे
पता : एच 4पुसा अपार्टमेंट्स
सेक्टर 15रोहिणी, दिल्ली 110089

मोबाइल : 9711894180/subhash.gatade@gmail.com

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  1. आपके लेखन को पहले भी पसंद करती आयी हूँ । बहुत दिन बाद पढ़ा । फिर वही सुकून या बेचैनी भर गई जो पहले के लेखों को पढ़ने के बाद मिलती थी

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  2. लेख में वास्तविकता के साथ समाज विज्ञान का प्रयास सिद्धांत की दुनिया को मूल्यांकन करने का आवाह्न करता है.कानून, न्याय और लोकतंत्र के खेल में उलझ जाता है.मज़दूर , बहुत मार्मिक और नये शोध निमंत्रण के साथ लिखा गया लेख .लेखक के कलम को सलाम

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  3. दया शंकर शरण3 जून 2021, 9:56:00 am

    सुभाष जी अपने लेखों से एक संवेदनासिक्त वृतांत और वृतचित्र निर्मित करते हैं। इनमें हाशिए के लोग और उनकी जिंदगी की व्यथा के कई रूप और आयामों से हमारा सबका पड़ता है। यह उस उपेक्षित समाज की विरल अनुभवात्मक अभिव्यक्ति है। उनकी प्रतिबद्धता को सलाम !

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  4. बहुत ही सुन्दर लेख

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  5. "भुलाने के लिए लिखना
    -सुभाष गाताडे" जैसे विचारों से रूबरू कराने के लिए आभार आपका ...

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  6. बेचैन कर देने वाला आलेख है. "यह सवाल मुझे अक्सर परेशान करता है कि और आखिर निरपराध लोगों की जिंदगियां बरबाद करना यहां इतना आसान क्यों हैं ?" इस सवाल ने असहज कर दिया है.

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  7. सुभाष जी का लंबा संघर्षशील जीवन रहा है जिसमें ऐसे वृत्तान्तों की श्रृंखलाएं बिखरी हैं। इनका मार्मिक अंकन और संचयन मूल्यवान है।

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  8. सादर नमन आपकी विचारधारा और सोच को .. काश ! हम चाँद-मंगल तक की उड़ान की जगह समाज में शत्-प्रतिशत मंगल ला पाते ...

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