साहित्य के भविष्य पर आयोजित बहसतलब -२ की अगली कड़ी में कवि - संपादक गिरिराज किराडू का आलेख. कविता की पहुंच और उसकी लोकप्रियता पर गिरिराज ने कुछ दिलचस्प आकड़े एकत्र किए हैं, इसके साथ ही अनेक आयोजनों के उनके अनुभव भी यहाँ है. यहाँ विचारों और तथ्यों के साथ लेखक साहित्य के प्रति अपनी गहरी ज़िम्मेदारी के साथ आया है. बहस को आधार देता आलेख .
एक विपात्र के नोट्स :
कविता और उसके
समाज के बारे में बात करना सीखने की तैयारी के सिलसिले में
गिरिराज किराडू
(मैं इस पर अभी मुकम्मल ढंग से,
मोहन दा की तरह, कुछ कह नहीं पाया हूँ. वैसा हुनर कहाँ! हो सकता है फिर आऊँ लौट के)
फरवरी २०११ में बोधिसत्व और अशोक कुमार
पाण्डेय के साथ 'कविता समय' की शुरुआत करते हुए जो वक्तव्य मैंने ड्राफ्ट किया था
उसे याद करना ठीक रहेगा:
"पूरी दुनिया के साहित्य और समाज में कविता की जगह न सिर्फ कम हुई है उसके बारे में यह मिथ भी तेजी से फैला है कि वह इस बदली हुई दुनिया को व्यक्त करने, उसे बदलने के लिए अनुपयुक्त और भयावह रूप से अपर्याप्त है. खुद साहित्य और प्रकाशन की दुनिया के भीतर कथा साहित्य को अभूतपूर्व विश्वव्यापी केन्द्रीयता पिछले दो दशकों से मिली है. एक अरसे तक कविता-केन्द्रित रहे हिंदी परिदृश्य में भी कविता के सामने प्रकाशन और पठन की चुनौतियाँ कुछ इस तरह और इस कदर दरपेश हैं कि हिंदी कविता से जुड़ा हर दूसरा व्यक्ति उसके बारे में अनवरत ‘संकट की भाषा’ में बात करता हुआ नज़र आता है. लेकिन मुख्यधारा प्रकाशन द्वारा प्रस्तुत और बहुत हद तक उसके द्वारा नियंत्रित इस ‘चित्रण’ के बरक्स ब्लॉग, कविता पाठों और अन्य वैकल्पिक मंचों पर कविता की लोकप्रियता, अपरिहार्यता और असर हमें विवश करता है कि हम इस बहुप्रचारित ‘संकट’ की एक खरी और निर्मम पड़ताल करें और यह जानने कि कोशिश करें कि यह कितना वास्तविक है और कितना बाज़ार द्वारा नियंत्रित एक मिथ. और यदि यह साहित्य के बाज़ार की एक ‘वास्तविकता’ है तो भी न सिर्फ इसका प्रतिकार किया जाना बल्कि उस प्रतिकार के लिए जगह बनाना, उसकी नित नयी विधियाँ और अवसर खोजना और उन्हें क्रियान्वित करना कविता से जुड़े हर कार्यकर्ता का - पाठक, कवि और आलोचक – का साहित्यिक, सामाजिक और राज(नैतिक) कर्त्तव्य है."
कविता के इस सार्वभौमिक (सार्वभौमिक
क्यूंकि यह कहना तथ्यपरक नहीं होगा कि दुनिया भर में ऐसी 'गत' केवल हिंदी कविता की
हुई है, अगर हुई है) 'संकट' पर बात करने वाले न हम पहले थे न कोई और.
तब हमने, असद ज़ैदी के सुझाने पर,
जेरेमी स्माल का यह मज़मून भी पोस्ट किया था जिसमें बहुत साफ़ नज़र से यह पहचान थी कि
Poetry, as it exists today, is a spontaneous,
self-organizing and utterly unprofitable source of culture that exists in the
gap between production and capitalist appropriation...
२
'कविता समय' के दो वार्षिक आयोजन हो
चुके हैं. उसमें ९० से अधिक कवियों, आलोचकों के साथ १०० के करीब गैर-प्रतिभागियों
ने भी हिस्सेदारी की होगी. उसके बाद दिल्ली में सत्यानन्द निरुपम, प्रभात रंजन और
आशुतोष कुमार के संयोजन में 'कवि के साथ' शुरू हुआ. इसके हर दूसरे महीने होने वाले
कविता-पाठों
में १४ कवियों ने हिस्सा लिया है. उसमें
आये कुल श्रोताओं का कोई व्यवस्थित आंकड़ा मेरे पास नहीं, मैं जिस (पांचवें ) में
आमंत्रित था उसमें ४०-५० लोग होंगे. इन दोनों आयोजनों से पूर्व बनारस हिन्दू
विश्वविद्यालय में छात्रों के एक-दिवसीय
आयोजन में दिन भर मैराथन कविता पाठ हुआ था और एक बड़ा हॉल पूरा भरा था दिन
भर. इन तीनों आयोजनों में कविता केंद्रित होने के अतिरिक्त एक प्रमुख समानता यह है
कि इन तीनों में प्रतिभागी अपने खर्चे से आये. बी.एच.यू. के आयोजन (वे इतने सफल
आयोजन को दुहरा नहीं पाए यह दुखद है) और कविता समय में स्थानीय मेजबानी पूर्णतः
आयोजकों की थी. 'कवि के साथ' में चाय-वाय का भी इंतजाम नहीं रहता. मैं जानबूझकर
वैचारिक को व्यावहारिक में 'रिड्यूस' कर रहा हूँ, मुआफ करें. दिल्ली में मिथिलेश
श्रीवास्तव के कार्यक्रम भी इसी मॉडल पर आयोजित होते रहे हैं. सईद अय्यूब ने मुझे
जिस कार्यक्रम में जयपुर में आमंत्रित किया था उसमें प्रतिभागियों का यात्रा व्यय
और आतिथ्य उन्होंने मैनेज किया था (मैं भाग नहीं ले सका था हालाँकि नानी के देहांत
के कारण) - उनके दिल्ली के कविता आयोजनों की अर्थव्यवस्था का मुझे अंदाज़ा नहीं[i].
यह सब हो चुकने के बाद 'समालोचन' ने
यह बहस शुरू की है. लेकिन एक 'सामान्य' परिप्रेक्ष्य में, स्पेसिफिक हुए बिना. मुझे
लगता है कविता की समाज में व्याप्ति और उसकी पहुँच के बारे में विचार करते हुए
हमें ऐसे मुक्त, अवाँ-गार्द प्रयासों को एक प्रस्थान बिन्दु बनाना चाहिए (और हो
सके तो ऐसे ही पुराने, ऐतिहासिक प्रयासों के अध्ययन को भी, जैसे रघुवीर सहाय
दिल्ली में एक अनौपचारिक 'कविता केन्द्र' संचालित करते थे). क्यूंकि कविता और
साहित्य की समाज में व्याप्ति का संकट इस कारण भी है कि ऐसे प्रयत्न एक बड़ी
सामूहिकता बनने की कोशिश नहीं करते बावजूद इसके कि कमोबेश वही पढ़ने सुनने वाले इन
तमाम अलग अलग ठिकानों पर पाए जाते हैं. एक बहुत छोटी-सी कोशिश यह है कि कविता समय
की वेब साईट कविता-केंद्रित दूसरे ठिकानों का भी पता देती है. मसलन आप वहाँ से
'कवि के साथ' के फेसबुक पेज पर जा सकते हैं या कविता कोश, पोएट्री इंटरनेश्नल वेब,
तहलका पोएट्री, अनुनाद, पढ़ते पढ़ते जैसे ठिकानों पर भी.
३
'कविता कोश' पर कवियों के होम पेज
पर हुए विजिट्स की संख्या का रैंडम सर्वे कुछ दिलचस्प संकेत करता है.
कवि विजिट्स
महादेवी
८३९५२
अज्ञेय ४३९०३
कबीर ७५००१
मिर्ज़ा ग़ालिब ८९३९३
अशोक चक्रधर ६०८७२
मुक्तिबोध २०८१३
अरूण देव २४६३
ओम प्रकाश वाल्मीकि २२१७
कुंवर नारायण ११८६१
अल्लामा इकबाल ३०१३९
अशोक वाजपेयी १३५८०
असद ज़ैदी ६८५२
अदम गोंडवी ३५४९९
मीरां ६०१८०
अनुज लुगुन १९६८
निदा फाजली ६६५७३
अनामिका १६०७४
नागार्जुन ३७६०८
अरुण कमल ११६४१
गगन गिल ४४९४
पंकज चतुर्वेदी ५६२६
दिनकर १६५६६९
नीलेश रघुवंशी २६५०
फैज़ ६०८६३
मीर ३४७९४
शमशेर ११८९९
मंगलेश डबराल ६७०८
व्योमेश शुक्ल २३६४
अशोक कुमार पाण्डेय ३९३०
अष्टभुजा शुक्ल ५४१८
केदारनाथ सिंह १५४००
लीना मल्होत्रा ५७१
धर्मवीर भारती २४१३८
केदारनाथ अग्रवाल २१०७७
इस साईट पर जो संख्याएँ हैं उनको तय
करने वाले कारकों के बारे में सोचते हुए कई अटकलें दिमाग में आती हैं - यह मुख्यतः
शहरी मध्यवर्ग का क्षेत्र है इसे भारतीय बल्कि उत्तर-भारतीय समाज का प्रतिनिधि
किसी भी रूप में नहीं माना जा सकता (यह और बात है कि मैं जहाँ रहता हूँ वहाँ से
'हंस' जैसी पत्रिका, हार्ड कॉपी, लेने के लिए भी मुझे १००-१५० किलोमीटर चलना पड़
सकता है), भक्त कवियों और शायरों के पेज अधिक लोगों ने विजिट किये ही होंगे, स्कूल
कॉलेज के सिलेबस में शामिल कवियों के यहाँ विजिट्स ज्यादा होंगे ही, जो मीडिया में
या ऐसी ही लोकप्रियता/वर्चस्व की जगहों में काम काम करते हैं उनके भी विजिटर
ज्यादा होंगे ही, जो हर वक्त इंटरनेट पर 'सक्रिय' रहते हैं उनके भी नम्बर्स ज्यादा
होंगे ही, 'प्रतिबद्ध' कवियों के पाठक अधिक होने चाहिए आदि आदि लेकिन इन अनुमानों
से विचलन भी खूब है. इंटरनेट पर नहीं दिखने वाले पंकज चतुर्वेदी और अष्टभुजा शुक्ल
के पेज अरूण देव या अशोक कुमार पाण्डेय जैसे सक्रिय नेट-नागरिकों से ज्यादा लोगों
ने देखे हैं, अशोक वाजपेयी और अरुण कमल के पृष्ठों पर विजिटर संख्या असद ज़ैदी और
मंगलेश डबराल के पृष्ठों की मिली-जुली संख्या जितनी या अधिक है. अनामिका इन चारों
से अधिक लोकप्रिय मालूम पड़ती हैं और कुल मिलाकर इन पाँचों की कोई प्रभावी
नेट-सक्रियता नहीं है. अदम गोंडवी की लोकप्रियता केदारनाथ सिंह से दुगुनी से भी
ज्यादा है, अज्ञेय से कम है लेकिन नागार्जुन के लगभग बराबर. मुक्तिबोध का पृष्ठ
अज्ञेय के पृष्ठ से आधी बार विजिट किया गया है, और शमशेर का मुक्तिबोध से आधी बार.
दिनकर का पेज ग़ालिब से लगभग दुगुनी बार और फैज़ से चार गुनी बार विजिट किया गया है.
कबीर, मीरां और तुलसी मिलकर दिनकर से अधिक हो पाते हैं.
ये संख्याएँ एक स्तर पर हिंदी की
कैननाइजिंग मशीनरी की सफलता को प्रतिबिंबित करती हैं और दूसरे स्तर पर उसके साथ कई
तरह के तनावों को भी.
४
आप भारत भूषण अग्रवाल से पुरस्कुत
कवि हैं। फिर आपने कविता लिखना छोड़ क्यों दिया?
हिंदी में बहुत सारे कवि हैं जो
अच्छी कविताएं लिख रहे हैं। ऐसे में मेरे कविता लिखना छोड़ने से कोई खास फर्क नहीं
पड़ता।
राजेंद्र धोड़पकर को लगा मेरे कविता करने से कुछ सार्थक नहीं हो रहा है. उन्होंने मानो घोषणा
करके कविता लिखना छोड़ दिया. उनकी यह कविता पढ़िये:
मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता था
मैं एक विस्मृत आदमी होना चाहता था
पहले मेरी बहुत लोगों से पहचान थी,
मैंने उनसे स्मृतियाँ पाई कविताएँ
लिखीं
कविताएँ लिखीं और विद्वज्जनों की
सभा में यश लूटा
मेरे अंदर एक विराट चट्टान थी जिसके
आसपास पेड़ों पर
बहुत बन्दर रहते थे
जो फल खाया करते थे
मैं जब विद्वज्जनों की सभा से बाहर
निकला तो
हवा में जहर फैला हुआ था
सारे बन्दर उससे मारे गए,
मैं
बहुत उदास हुआ
और अकेला चट्टान पर बैठा रहा
पेड़ों से हरे पत्ते और आकाश से
पारदर्शी
पत्ते मुझ पर झरते रहे
मैंने कहा- मैं एक विस्मृत आदमी
होना चाहता हूं
जब बन्दर ही नहीं रहे तो सारे
परिश्रम का क्या अर्थ है
मैं पत्तों से पूरा ढका दो कल्पों
तक बैठा रहा चट्टान पर
तपती धूप में
किसी समय हवा से नई और स्मृतियाँ
गायब हो गईं
किसी युग में पेड़ भी कट गए
एक दिन एक तितली मेरे कंधे पर आकर
बैठ गई
उसने कहा- सारे युद्ध समाप्त हो गए
हैं
सारी विशाल इमारतें और मोटरकार आधी
धंसी पड़ी हैं जमीन में
सारे अखंड जीव नष्ट हो गए हैं
हवा से नमी और स्मृतियाँ गायब हो
चुकी हैं
पीड़ा से ऐंठता मैं पहुंचा बाहर
विद्वज्जनों की सभा में पहुंचा
वहां बिना सिर और पंखों वाले लोग
बैठे थे
मेरा बटोरा हुआ यश दरियों पर बिखरा
पड़ा था
मैंने कहा- मैं एक विस्मृत आदमी
होना चाहता था
लेकिन मैं-
लेकिन कोई फायदा नहीं था
उन लोगों के पास कोई स्मृति नहीं
थी.
जानकीपुल
से
५
हिंदी के साहित्यिक समाज पर जिस एक
सरंचना का प्रभाव बहुत गहरा रहा है वह है (संयुक्त) परिवार. (इस अंतर्दृष्टि के
लिए गगन गिल का शुक्रिया, उनके किसी आत्म-कथ्य या लेख में यह पढ़ा था स्रोत याद
नहीं) उत्तर भारतीय परिवारों में जो
सर्वाइवल की लड़ाईयाँ, ज़मीन-जायदाद की रंजिशें, पितृहन्ता-भ्रातृहंता आवेश और
शक्तिहीन के दमन की तरकीबें और साजिशें पायी जाती हैं उनका असर हिंदी साहित्यिक
स्फेयर की सरंचना पर गहरा रहा है. जिसे हम गुटबाजी आदि कहते हैं उसे इसी का फलन
माना जा सकता है.
क्यूंकि कविता इस संयुक्त परिवार की
सबसे पुरानी, 'अपनी' विरासत (शॉर्ट स्टोरी और नॉवेल उपनिवेशीकरण के साथ आये) थी
इसको लेकर घर में भारी झगरा रहा है. और यही हिंदी साहित्य और आलोचना के बहुत समय
तक कविता-केंद्रित रहने का एक प्रमुख कारण भी होना चाहिए.
६
हिन्दी समाज की तरह हिन्दी साहित्य में भी व्यक्ति का, व्यक्तिमत्ता का वास्तविक सम्मान बहुत कम है कुछ इस हद तक कि कभी कभी लगता है यहाँ व्यक्ति है नहीं जबकि बिना व्यक्ति के (उसी पारिभाषिक अर्थ में जिसमें समाज विज्ञानों में यह पद काम मे लाया जाता है) ना तो ‘लोकतंत्र’ (ये शै भी हिन्दी में वैसे किसे चाहिये?) संभव है ना ‘सभ्यता-समीक्षा’ जैसा कोई उपक्रम। यह तब बहुत विडंबनात्मक भी लगता है जब हम किसी लेखक की प्रशंसा ‘अपना मुहावरा पा लेने’, ‘अपना वैशिष्ट्य अर्जित कर लेने’ आदि के आधार पर करते हैं। यूँ भी किसी लेखक के महत्व प्रतिपादन के लिये जो विशेषण हिन्दी में लगातार, लगभग आदतन काम में लिये जाते हैं – “महत्वपूर्ण” कवि, “सबसे महत्वपूर्ण” कहानी संग्रह, “बड़ा” कवि, हिन्दी के “शीर्ष-स्थानीय” लेखक, “शीर्षस्थ” उपन्यासकार आदि – वे श्रेष्ठता के साथ साथ ‘विशिष्टता’ के संवेग से भी नियमित हैं। एक तरफ होमोजिनिटी उत्पन्न करने वाला तंत्र और दूसरी तरफ विशिष्टता, श्रेष्ठता की प्रत्याशा। व्यक्तिमत्ता के नकार और उसके रहैट्रिकल स्वीकार के बीच उसका सहज अर्थ कि वह ‘विशिष्ट’ नहीं ‘भिन्न’ है, कि अगर 700 करोड़ मनुष्य हैं तो 700 करोड़ व्यक्तिमत्ताएँ हैं कहीं ओझल हो गया है।
भारतीय समाज में 'मेरिट' उससे कहीं
ज्यादा जटिल एक कंस्ट्रक्ट है जैसा अमेरिकी और योरोपीय समाजों में रहा है. हिंदी
का साहित्य समाज अपनी तमाम यूटोपियन सद्कामना के बावजूद मेरिटोक्रेटिक समाज रहता
आया है, इसका सवर्ण अवाँ-गार्द सामूहिकता के वाग्जाल के बीच 'अति विशिष्ट', 'भीड़
से अलग' स्वरों की बाट जोहता रहा है.
संयुक्त परिवार के असर, मेरिटोक्रेटिक छद्म और मध्यवर्गीय कामनाओं ने [आप
एक कवि का बायो डाटा देखें वह मध्यवर्गीय मानकों पर उपलब्धियों का एक सूची पत्र
होता है, गगन गिल के ही बायो डाटा में जितने देशों की यात्रा करने का ज़िक्र होता
था हम लोग अपने दोस्तों घर वालों से कहते थे देखिये ये भी हिंदी कवि है हम कोई
फालतू काम में नहीं लगे हैं :-)] ने साहित्य के क्षेत्र को लगभग 'रीयल स्टेट' रूपक
में बदल लिया है. 'श्रीमान का हिंदी साहित्य में एक महत्वपूर्ण अति विशिष्ट
'स्थान' है पढकर लगता है आह प्राइम लोकेशन !लगता है मरीन ड्राइव पर सी-व्यू फ्लोर
ले लिया है या उन्होंने अपने लिए एक 'ख़ास जगह' बना ली है से लगता है चलो इनके नाम
भी प्लॉट आवंटित हो गया है. (बस श्रीमान से 'साहित्य से होने वाली आय' के अंतर्गत
प्रविष्टि करने के लिए मत कहिये आप तो जानते ही हैं प्रकाशकों से भी हमारे तो
पारिवारिक सम्बन्ध रहे - ना हमने हिसाब माँगा न उन्होंने दिया. आखिर संबंधों का
ग्रेस भी कोई चीज़ होती है कि नहीं! )
अगर १२० करोड़ के देश में १०००-२००० लोग
कवि के रूप में अपने को देखना चाहने लगें तो तो समूची शाविनिस्टिक शक्ति और विश्वामित्री
बड़बड़ाहट उन् 'जाहिलों', 'मीडियाकरों' और 'हुडुकचुल्लुओं' को साहित्य के पवित्र
प्रदेश से बाहर करने पर आमादा हो उठती है. पिछले दिनों 'फेसबुक कवियों' और ख़ासकर
इस माध्यम में सक्रिय स्त्री कवियों को लेकर 'निजी बातचीत' में जो झुंझलाहट और
बेरहमी देखने को मिली वह भी काफी शिक्षाप्रद थी.
यह और बात है कि एक दूसरे के लिखे
में 'मानवीय नियति का विराट दर्शन', 'एक वृहत्तर वैश्विक दृष्टि', 'सम्पूर्ण
मानवता की सच्ची स्वाधीनता का स्वप्न', 'संसार के समस्त उत्पीड़ितों की वाणी' आदि
देखना हमारे लिए दैनिक है.
७
आह
मुक्तिबोध!
[i] [तकरीबन इसी अवधि में मैंने
साहित्य अकादमी और दूरदर्शन के साथ-साथ स्वतन्त्र लेकिन समृद्ध अंग्रेजी पत्रिका 'आलमोस्ट
आयलैंड' के सालाना अंतर्राष्ट्रीय आयोजन
में [उन्होंने मुझे जयपुर से दिल्ली आने जाने का भी हवाई टिकट दिया था ताकि मैं अपने
साले की शादी और उनका आयोजन दोनों अटैंड कर सकूं :-)] भी कविता पाठ किया है और 'केवल
किराये'
वाले सी.एस. डी. एस. के आयोजन में
भी. जेब से पैसा खर्च करके बनारस ग्वालियर जयपुर हैबिटेट में पाठ से जो सुख मिला
वह अन्य किसी आयोजन में नहीं. २००० में मेरे पहले सार्वजनिक पाठ - भारत भवन - से
भी नहीं. कारण बहुत सीधा है - इन आयोजनों में साहिब लोगों ने कुछ भी तय नहीं किया
था,
इनकी गति और मुक्ति दोनों का सीधा
सम्बन्ध इनके अर्थशास्त्र से है]
________________________________
पढ़ कर आनंद आया। गिरिराज किराड़ू अपने वाक्संयम से पाठक को थपकियॉं देकर सुला देते हैं, जैसे मंद मंद बहती बयार में थकान मिट जाए। पढ़ कर विश्रांति का अनुभव होता है। हमेंशा कुछ कहने को नही होता। इस तरह अवाक् हूँ।
जवाब देंहटाएंरोचक. व्यावहारिक अनुभवों और आधारित, निष्कर्ष निकालने की हडबडाहट के बिना, हालांकि रास्तों के कुछेक संकेत तो हैं ही. सबसे बड़ी बात यह कि बड़बोलेपन और फ़तवेबजी से दूर. गिरि संक्षिप्तीकरण की कला जानते हैं.
जवाब देंहटाएंकाफी बेलाग बातें हैं जो किसी भी विमर्श की पूर्वशर्त होती हैं । आशा की जानी चाहिए कि इससे उन लद्धड़ विश्लेषणों से राहत मिलेगी जो बिना किन्हीं रचनागत और परिवेशगत तथ्यात्मक आधारों के बस अपनी शाश्वत गा-गा या अशीर्वादी मुद्रा में मगन रहते हैं । कविता के बारे में भावोच्छ्वासों और विचारोच्छवासों से अधिक इस तरह के व्यावहारिक आकलनों की जरूरत है । ये किसी भी बात को ठोस आधार देने की तरफ ले जाएंगे ।
जवाब देंहटाएं'आशा के विपरीत'(!) कई अहम बातें इस परचे में उठा दी गयीं हैं.
जवाब देंहटाएंहिंदी साहित्य एक सयुंक्त परिवार है .एक टिपिकल उत्तर-भारतीय पितरिसत्ताक संयुक्त परिवार .
'कविता कोष' नेट्जनपद में लोकप्रियता जांचने की 'ठीक ठिकाने की ' कसौटी है .
'लोकप्रियता ' की चिंता अगर हिंस्र यशलिप्सा की देन है , तो विस्मृत हो जाने की इच्छा एक मानवीय इच्छा है .
गिरिराज ने बहुत-सी बातें यहां एक कवि के तौर पर साफ कर दी हैं और इस पूरी टिप्पणी से जो बात मुझ तक आई है वह यह कि समकालीन हिंदी कविता एक ऐसा मैदानी खेल है, जिसमें कोई रैफरी नहीं है, खेल के कोई सर्वाभौमिक और अनिवार्य नियम नहीं हैं... कोई कैसे खेल रहा है और क्यों, इसे लेकर कोई चिंता नहीं है... खुला खेल फर्रुखाबादी क्या होता है, उसका एक दिलचस्प बिंब... मीरा-कबीर-ग़ालिब से लेकर अज्ञेय-लगुन-अनामिका तक की नेट-हिट्स प्रसार संख्या का मजेदार निरुपण... पता नहीं कविता के खेल का यह मैदान कितना बड़ा है, जबकि शहरों में एक किमी वाकवे का पार्क तक मिलना मुश्किल है, हिंदी कविता के खिलाड़ी खेले जा रहे हैं... तुलसी तो कह गये हैं, 'काहू तात मम पेलि'... नेट पर कविता पेलने वाले...अफसोस कम ना होंगे...
जवाब देंहटाएंgiriraaj ji ka ye aalekh ek naye tarah ka kaam hai,ab hava men teer chalana mushkil hoga aur hamare aalochakon ko yeh sab seekhna hee hoga..ek achhe aur suchintit aalekh ke liye meri badhai len
जवाब देंहटाएंगिरिराज का आलेख सुव्यवस्थित आलेख है. कुलमिलाकर साहित्य से बाहर के पाठक के लिए भी खिड़कियाँ खोल रहा है ..राहत मिली. देखने -समझने के लिए काफी कुछ. शुक्रिया समालोचन
जवाब देंहटाएंकविता कोश में भिन्न कवियों को पढ़ने वालों की संख्या कविता के बारे में एक नया संकेत है।
जवाब देंहटाएंगिरिराज के पास अपनी सारगर्भित बात कहने का एक सलीका है, वह नितान्त नया और अपनी तरह से अर्जित किया हुआ, जो एक पारदर्शी इन्सान की पहचान देता है। बावजूद उनके इस विनम्र बयान कि वे 'वैचारिक को व्यावहारिक में रिड्सूस'करके बात कर रहे हैं, उन्होंने अच्छे वैचारकि विचारणीय बिन्दु दिये हैं। यद्यपि 'कविताकोश' या किन्ही और कविता साइट्स के 'दर्शकीय' आंकड़ों की प्रस्तुति और उनके संक्षिप्त विवेचन से तो कोई निष्कर्ष निकालना असंगत ही होगा, जिसके लिए उन्होंने कहा भी है "यह मुख्यतः शहरी मध्यवर्ग का क्षेत्र है इसे भारतीय बल्कि उत्तर-भारतीय समाज का प्रतिनिधि किसी भी रूप में नहीं माना जा सकता" बल्कि यह एक स्तर पर तमाशबीनों का शगल भी हो सकता है, क्योंकि मेरा अपना मानना है कि कविता (बल्कि साहित्य) के संजीदा पाठक-श्रोता-दर्शकों का बहुत बड़ा हिस्सा किसी भी सर्वेक्षण-सूची से अक्सर बाहर ही छूट जाता है, जो कि उसका सही ग्रहणकर्ता है। बहरहाल, कविता पर केन्द्रित यह चर्चा एक दिलचस्प मोड़ की ओर बढ रही है, पहली फुरसत में अपनी पूरी बात के साथ शामिल होने की कोशिश में हूं। तब तक बहस जारी रहे, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।
जवाब देंहटाएंकविता कोष के सहारे अगर 'सेंसस' नहीं हो सकता तो 'सैम्पल सर्वे' तो हो ही सकता है. याद कीजिए रचना समय के विशेषांक में तो नरेश जी ने एक विश्विद्यालय के कुछ छात्रों में सर्वे कराके निष्कर्ष प्राप्त कर लिए थे. पहले कविता समय में 'संकट' के सवाल पर सोचते हुए हमने तमाम ब्लाग्स और कविता कोष के आंकड़े खंगाले थे और पाया था कि 'लोकप्रियता' को 'बिकने' के बराबर में नहीं रखा जा सकता, खासकर तब जब बेचने का पूरा धंधा ही हिन्दी में नान=प्रोफेशनल है. कोई दिल पे हाथ रख के ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि उसकी किताब कितनी बिकी है, यह परम गोपनीय आंकड़ा सिर्फ और सिर्फ प्रकाशक के पास होता है. इस लेख में मुझे कुछ अधूरा लगा तो बस बदलते समाज के साथ कविता का रिश्ता और लगातार हाशिए पर जाती हमारी भाषा के बरक्स कविता के 'भविष्य' पर थोड़ी बातचीत...वह होती तो बात मुकम्मल होती.
जवाब देंहटाएंरोचक .. व सबसे अलग.. तुरंत दिमाग में घुस गया .. सब आंकडो सहित..
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख है कविता से इतर या कविता के पीछे के परिदृश्य को समझने में मेरे बहुत काम आयेगा |समालोचन और गिरिराज जी के प्रति आभारी हूँ |
जवाब देंहटाएंबंद खिडकियों वाले कवि का हवामहल सरीखा बहसतलब...
जवाब देंहटाएंकविता कोष पर का कविताओं का चयन भी आवाजाही को प्रभावित करता है . उस की पहुँच भी खास तरह की है . अतः यह लोकप्रियता नापनी की कोई वस्तुनिष्ठ कसौटी नहीं है . लेकिन हिंदी कविताओं की सब से बड़ी और सब से लोकप्रिय साइट होने के नाते यह एक मोटा अंदाजा मुहैया करती है .आंकड़ों को देख कर अनुमान होता है की यह अंदाजा कुच्छ ''ठीक ठिकाने ''का जरूर है .
जवाब देंहटाएंइन "ठीक ठिकाने" के आंकड़ों अनुसार अशोक चक्रधर के सामने तो अज्ञेय (43903) और मुक्तिबोध (20813) सरीखे कवि भी बहुत फिसड़डी ही साबित हुए न ?
जवाब देंहटाएंदेखिए नंद जी, यह यंत्रचालित तथ्य है। इसमें शक नहीं कि नेट पर मौजूद तमाम जनसंख्या ऐसी है जो चक्रधर के व्यंग्य को पसंद करती है। तो वे व्यंग्य कवि तो हैं ही।उनकेपाठक ही नहीं श्रोताओं की संख्या लाखों में है। वे जैसे भी हैं। पर इससे वे मुक्तिबोध से ऊपर तो नहीं हो जाते। और वे ऐसा दावा भी नहींकरते कि वे इन ऑंकड़ों और जनबल पर मुक्तिबोध या अज्ञेय से ऊपर हो गए हैं। हमेशा संजीदा काव्य के पाठक कम हुआ करते हैं। अब क्या बताऊँ कि मेरे जनपद में हिंदी का पीजी कालेज का अध्यापक केदारनाथ सिंह का नाम अव्वल तो जानता नहीं, जानता भी है तो उनके संग्रहों, कविताओं से पूर्णत: अपरिचित है। यह वही जनपद है जहॉं से देवीप्रसाद मिश्र जैसे कवि आते हैं। तो इस आकलन की कुछ कोटियॉं होनी चाहिए। इनमें से हास्य व्यंग्य कवियों को, गजलकारों को, गीतकारों को अलग रखें तब देखें कि इन कवियों का सेंसेक्स क्या है?
जवाब देंहटाएंयह सच है कि वेब माध्यमों में किसे कितना ज्यादा देखा, पढ़ा जा रहा है(सराहा नहीं) इसका अनुमान निश्चित ही होता है, जैसे कि एटीम पर कितने हिट्स होते हैं, उससे पता चलता है कि कितने ग्राहक एटीएम पर पूछताछ या लेन देन के लिए आए। भले ही,बैलेंस जॉंचने के लिए। लेखकों, कवियों के मामले में भी ऐसा ही है। कोई शक नहीं कि लोकप्रियता के चलते भी ऐसा होता है। जो साहित्यिक समाज में जितना ज्यादा लोकप्रिय है---लोकप्रियता के चालू अर्थ में, उसके विजिटर्स भी उतने ही ज्यादा होंगे। अब कुमार विश्वास मंच पर लोकप्रिय है तो उसके पाठक विजिटर्स नेट पर भी उतने ही ज्यादा होंगे ही, यह मानकर चलिए और नेट के पाठक सभी तरह के लोग हैं। विभिन्न व्यवसायों से जुड़े पेशेवर लोग,लेखक, पाठक, शोधक,छात्र-छात्राएं आदि इत्यादि।
जवाब देंहटाएंपर यह प्रणाली कोई नीर क्षीर विवेक संपन्न नही है। केवल इसके आधार पर लोकप्रियता और स्तरीयता का निर्धारण नहीं किया जा सकता।
सभी मित्रों को नमस्कार! कविता कोश में जब भी कोई पन्ना विज़िट किया जाता है तो पेज-व्यू की संख्या एक बढ़ जाती है। कविता कोश इस बात को ट्रैक नहीं करता कि पन्ना किसने विज़िट किया। सो, यह ठीक है कि यदि कोई कवि अपना ही पन्ना सौ बार विज़िट करेगा तो पेज-व्यू की संख्या सौ बढ़ जाएगी (हालांकि इस बदलाव को पन्ने पर दिखने में कुछ समय लग सकता है।
जवाब देंहटाएंकविता कोश में पेज-व्यू की संख्या केवल इतना बताती है कि कविता कोश में अमुक पन्ना कितनी बार देखा गया। इससे कवि की लोकप्रियता का हल्का-सा अंदाज़ा होता है लेकिन इस संख्या के आधार पर दो कवियों की लोकप्रियता की तुलना करना बिल्कुल ग़लत होगा। इस समय कुमार विश्वास का पन्ना पेज-व्यू के मामले में दसवें स्थान पर है और तुलसीदास जी का स्थान 44वां है। हम इससे यह तो नहीं मान सकते कि कुमार विश्वास तुलसीदास से अधिक लोकप्रिय हैं!
चूंकि यह चर्चा लम्बी हो चुकी है और मैंने सभी संदेश नहीं पढ़े हैं इसलिए मैं पूरे विषय को अच्छी तरह से तो नहीं समझा हूँ लेकिन इसका थोड़ा अंदाज़ा मुझे हुआ है। मेरे विचार में कविताओं और कवियों की तुलना नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह पूरी तरह से व्यक्तिगत पसंद का मसला है। आंकड़े झूठ नहीं बोलते –हाँ लेकिन आंकड़ों के बनने को कई कारक प्रभावित करते हैं। इनमें से अनेक कारक आप लोग अपने संदेशों में गिनवा चुके हैं। ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने कविता कोश में अपनी पेज-व्यू संख्या बढ़ाने के लिए बाकायदा योजनाएँ बनाई और उन पर अमल की कोशिश भी की। इसीलिए मैं कविता कोश में सबसे अधिक देखे गए पन्नों की सूची वेबसाइट पर नियमित-रूप से जारी नहीं करता; वरना तो कविता कोश कविता पढ़ने की जगह कम और प्रसिद्धि-युद्ध का मैदान अधिक हो जाएगा।
जवाब देंहटाएंगिरिराज किराडू को चाहिए कि कविता का लक्ष्य ,आयोजन और उसकी सफलता को वे पहले स्पष्ट करें. बनारस के जिस आयोजन को वह सफल बता रहे है उसके संदर्भ में उन्हें चाहिए कि वह खुद की उस टिप्पणी को यहां दुहराएं जिसे उन्होंने अपने कविता –पाठ के ठीक पहले कहा था. उस वक्त वहां सीटियां बजायी जा रही थीं. इससे यह साफ हो सकेगा कि भीड़ और समकालीन हिंदी कविता के श्रोता की साफ पहचान की जा सके. यदि वे भीड़ को ही पैमाना मानते हैं तो भी यहां यह स्पष्ट होना चाहिए. ताकि हम जान सकें कि कविता की सफलता के मायने क्या बदल रहे हैं? इस संदर्भ में चाहकर भी कवि ज्ञानेन्द्रपति के बयान को आयोजन की सफलता के प्रमाण स्वरूप नहीं देखा जा सकता है. वह विनम्रता से अपनी बात रखने-कहने वाले कवि है. वे अध्य़क्ष थे. और अध्यक्षीय भाषण की परंपरा अपने यहां राष्ट्रपति के अभिभाषण की तरह रहती है. दूसरे बी.एच.यू. के उस कार्यक्रम से जुड़े दूसरे पहलुओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए. कि क्यूं एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय समकालीन कविता के आयोजन में आर्थिक सहयोग नहीं करता है? यह सवाल मेरी दृष्टि में किसी विश्वविद्यालय में कविता की( अब चूंकि यहां कविता का ही केवल संदर्भ है) हैसियत को स्पष्ट करेगा. यह कार्यक्रम शोध छात्रों के चंदे पर आयोजित था. जहां तक मेरी जानकारी है. यदि ले –देकर किसी भी तरीके से इसे सफल आयोजन मान भी लें तो इसके साथ ही फिर यह भी मान लेना चाहिए कि हिंदी कविता के बचे रहने के लिए बनारस का सांस्कृतिक माहौल सबसे मुफीद है. और हमने एक जगह अंतत: खोज ली है. कविता की सफलता के बारे में यह अखबारी रिपोर्टों की अतिश्योक्ति से अधिक कुछ नहीं है. इस तरह चाहें तो हम सब कहकर खुश हो सकते है कि श्रोता अंत तक डटे रहे
जवाब देंहटाएंसोमप्रभ जी,आपकी बाते अनुभवगम्य होंगी, मानता हूँ। आपको जानता नहीं । भई बीएयचू के छात्र उत्साही हैं,वे यदा कदा ऐसा आयोजन करते हैं। कवियों को बुलाते हैं। ज्ञानेन्द्पति तो शहर के ही हैं।सुजन, कोई शक नहीं। पर सुनने वालों में,जब विभाग के अध्यापकों की भूमिका आयोजकों की हो तो, विभाग के सौ-पचास छात्र तो रहेंगे ही, पर वहॉं कविता का कोई इतना अनुकूल और आदर्श वातावरण बन चुका हे, ऐसा नही हे। साल भर रहने को आए पुन: बनारस में।ज्ञानेन्द्रपति को छोड़ कर कोई सच्चा कवि न मिला। वीएचयू में हैं आशीष जी,श्रीप्रकाश जी,चंद्रकला त्रिपाठी जी,रामाज्ञा शशिधर---बस हो गया। उनके योग्य शिष्यों में अनुज लूगून हैं,रविशंकर हैं,और भी एकाधिक होंगे। हॉं कविता की समझ रखने वाले आलोचक अवधेश प्रधान जी एवं अन्य अध्यापकों में डॉ.कृष्णमोहन हैं, डॉ. सदानंद शाही, वशिष्ठ अनूप है। और यह भी तब है जब कुछ नए लोग विश्वविद्यालय से जुड़े हैं। पर इतना ही कविता के प्रशस्त वातावरण के लिए जरूरी नही है। इलाहाबाद के एजी आफिस के बाहर चायघरों में इससे बेहतर महफिल जम जाती है। काफी हाउस तो एक समय गुलजार रहता ही था। एजी आफिस के तो आधे से अधिक एकाउंटैंट्स या तो कवि हैं या काव्य रसिक। यश मालवीय,हरिश्चंद्र पांडेय, एहतराम इस्लाम और शिवकुटीलाल वर्मा इसी आफिस के हैं। इसलिए यह कहना कि कोई विश्वविद्यालय कविता को प्रमोट कर रहा है,गलत है। कुछ लोग होते हैं,शहर में,कस्बों में जो कविता और साहित्यिक बतकहियों का वातावरण गुलजार रखते हैं। बाकी तो इवेंट मैंनेजमेंट हैं। वीटो है तो छात्र तो रहेंगे ही। कहां जाऍंगे आखिर। अरे भारत भवन के सभागार में ही कितने श्रोता होते हैं, जो होते हैं,वे लेखक,कवि ही होते है--एक-दूसरे को सुनने के लिए।वहॉं भी अब क्या वातावरण बचा हे, यह हाल की राजेश जोशी,कुमार अम्बुज और नीलेश के खत-अभियान से जान ही चुके होंगे।तथापि मैं कहता हूँ कि हर शहर में एक ज्ञानेन्द्रपति जैसा व्याक्ति हो तो कविता का माहौल बन सकता है।वह अपनी सृजनपीठ पर हैं सृजनरत अनवरत। पटना में यह वातावरण है और विश्वविद्यालय के बाहर है। अरुण कमल के कुछ शिष्य हैं। शहंशाह आलम हैं, योगेन्द्र कृष्णा हैं,राकेश रंजन हैं, राजकुमार राजन हैं, कुछ दिनों पहले तक प्रेमरंजन थे,उनके भाई शरद हैं, शिवदयाल हैं,प्रेमकिरन हैं। तो वातावरण व्यक्तियों से बनता हैं। वे जहॉं उठते बैठते हैं, वातावरण रच देते हैं। बनारस में ही लेखकों की अड़डेबाजी का एक वातावरण पप्पू की चाय की दूकान के इर्द गिर्द बना। इसका लाभ भी हुआ। अनेक ठीहे बने पनपे। जबकि लखनऊ में यह वातावरण नही है,यानी लेखकों की आपस की बैठकी से भी जो वातावरण निर्मित हो सकता है,उसका अभाव है। पर फिर भी कोइ्र अखिलेश या नरेशसक्सेना या वीरेन्द्र यादव के यहां चला जाए तो लगेगा यह कोई कविता या साहित्य को छोटा मोटा द्वीप है। पर बाहर बैठने के ठीहे बंद हो गए। किराए बढ़ गए। आवाजाहियॉं बंद हो गयीं। सब कुछ प्रयोजनमूलक हो चला है, प्रयोजनमूलक हिंदी की तरह। उसमं भी लोगों का हाथ तंग है।
जवाब देंहटाएंतथापि मैं कहता हूँ कि हर शहर में एक ज्ञानेन्द्रपति जैसा व्याक्ति हो तो कविता का माहौल बन सकता है।वह अपनी सृजनपीठ पर हैं सृजनरत अनवरत। पटना में यह वातावरण है और विश्वविद्यालय के बाहर है। अरुण कमल के कुछ शिष्य हैं। शहंशाह आलम हैं, योगेन्द्र कृष्णा हैं,राकेश रंजन हैं, राजकुमार राजन हैं, कुछ दिनों पहले तक प्रेमरंजन थे,उनके भाई शरद हैं, शिवदयाल हैं,प्रेमकिरन हैं। तो वातावरण व्यक्तियों से बनता हैं। वे जहॉं उठते बैठते हैं, वातावरण रच देते हैं। बनारस में ही लेखकों की अड़डेबाजी का एक वातावरण पप्पू की चाय की दूकान के इर्द गिर्द बना। इसका लाभ भी हुआ। अनेक ठीहे बने पनपे। जबकि लखनऊ में यह वातावरण नही है,यानी लेखकों की आपस की बैठकी से भी जो वातावरण निर्मित हो सकता है,उसका अभाव है। पर फिर भी कोइ्र अखिलेश या नरेशसक्सेना या वीरेन्द्र यादव के यहां चला जाए तो लगेगा यह कोई कविता या साहित्य को छोटा मोटा द्वीप है। पर बाहर बैठने के ठीहे बंद हो गए। किराए बढ़ गए। आवाजाहियॉं बंद हो गयीं। सब कुछ प्रयोजनमूलक हो चला है, प्रयोजनमूलक हिंदी की तरह। उसमं भी लोगों का हाथ तंग है।
जवाब देंहटाएंतो अंतत: यही कहूँगा कि इसमें गिरिराज जी का भी दोष नही है।वे संजीदा व्यक्ति हैं,कल्पनाशील। वे पता नही,विवि में हैं कि नहीं, मैं उनसे सुपरिचित नहीं, नही होंगे तब भी एक वातावरण प्रतिलिपि से उन्होंने रचा है। यही क्या कम है। जयपुर में यह वातावरण प्रेमचंद गांधी रच रहे हैं। हेमंत शेष ने रचा है,विजेन्द्र ने ऋतुराज ने रचा है,दिल्ली मे प्रभात रंजन रच रहे हैं,मिथिलेश श्रीवास्तव रच रहे हैं, आशुतोष जी रच रहे हैं, कहीं दूर कोने में बैठी अपर्णा मनोज रच रही हैं, एक लड़का मनोज पटेल अनुवाद के जरिए अपनी विरल छटा ही बिखेर रहा है। दरभंगा में मनोज झा एक साथ अनुवाद रोजी रोटी ओर कविता के काम में लगे हैं। एक छोटे शहर से अरुण देव यह वातावरण रच रहे हैं, ग्वालियर में अशोक कुमार पांडेय रच रहे हैं, उत्तराखंड में शिरीष मौर्य लगे हैं, हल्द्वानी में अशोक कुमार पांडेय जमे डटे हैं--अपनी परियोजनाओं और 'कबाड़खाना' के साथ। गीत तो जहॉं होते हैं, जमा कर रखते ही हैं। कुछ पत्रिकाऍं--तद्भव, वसुधा,रचना समय,कथन, तनाव,समकालीन भारतीय साहित्य, साखी, दस्तावेज,कृति ओर,अक्सर, साक्षात्कार, पूर्वग्रह और आलोचना आदि यह वातावरण निर्मित कर रही हैं। एक वक्त् था,पहल के जरिए ज्ञानरंजन ने बड़ा काम किया। उनकी महफिलों में लोग अपने खर्च से जाते थे। वह शख्स हमेंशा नेपथ्य में रहता था,मंच पर नहीं। पर मजमा असाधारण होता था। कोई भी वातावरण लोगों से बनता है, कवियों से बनता है, गुणग्राहक काव्यहरसिकों से बनता है। अब हम इतने ' कठिन काव्य के प्रेत' बन जाऍं तो भला कौन हमारी महफिल में आएगा। अरे महफिल तो वो हो कि जिसमें भूल से भी आने वाला यह कह कर जाए सोमप्रभ जी, कि
''तेरी महफिल में आकर सोचता हूँ
न आता तो बड़ा नुकसान होता।''
-- पर इसी महफिल का तो अभाव है। इसी गुणग्राहकता का तो रोना है। किसके पास फुरसत है अपना कामकाज छोड़ कर कविता वबिता के लफड़े में पड़े----उसके लिए टीवी पर शैलेश लोढ़ा हैं तो---बहुत खूब ! वाले। यह वातावरण चल रहा है। हॉं हम आप और चंद बलागर कविता का वातावरण थोड़ा सा ही सही बना और बचा सकते हैं इन्ही नेट माध्यॉमों से। पर यह भी कहीं होहल्ला होकर न रह जाए। पर यह माध्यम व्यापक लोक तक कैसे जाएगा । यह तो अभी शहरी मध्यमवर्ग का खिलौना है जो अभी 70 फीसदी लोगों तक पहुँचा ही नहीं। तो फिर लौटिए उसी जमीनी हकीकत पर। हर व्यक्तिव दो चार पेड़ लगाए यह तो हमसे हो न सका। धरती उजाड़ हो चली है। फिर चंद कविता रसिक और कवि भला क्या कर सकते हैं ---ऐसे कवि जो अपसंस्कृति के खिलाफ लिखते बोलते हैं---उन्हें कोन तरजीह देगा----सबके सब तो कुमार विश्वास, अशोक चक्रधर, जेमिनी हरियाणवी, हरिओम पँवार, सुरेन्द्रर शर्मा और पापुलर मेरठी के दीवाने हैं।
आपकी बात से मिला-जुला स्वर उभर रहा है. पर यह स्पष्ट है कि आप कविता को लेकर काफी हद तक सकारात्मक है. मैं नहीं हूं . उसके पीछे अनेक कारण है. एक तो मैं यह साफ कर दूं कि कविता ही अन्तत : सब कर लेगी या कर सकती है. में इस मान्यता का नहीं हूं. उसमें सब कुछ को विश्लेषित कर सकने की ताकत है भी नहीं .पर कविता एक विधा के तौर पर कुछ जरुरी चीजें करती होगी. (यह भी एकदम ठीक-ठीक आंक पाना कठिन है. )पर यह इस पर निर्भर है कि उसे किस तरह इस्तेमाल किया गया. आप इसे नोटिस करिए कि सर्वाधिक घटनाओं के काल में और त्रासदियों के वकत कविता की चुप्पी और उसका बोलना दोनों ही नाटकीय है बल्कि ढोंग है. जिस सामूहिकता के उल्लेख से आपने कविता के पक्ष में माहौल खड़ा किया है उस सामूहिकता का कहीं अस्तित्व नहीं है. समकालीन कविता के सारे एजेंडे खारिज हो गए है. सांस्कृतिक मोर्चों पर हम विफल हुए हैं. सर्वाधिक घटनाओं के काल में कविता कोई घटना है ही नहीं. पत्रिकाएं छप रही है. संग्रह निकल रहे है.बधाईयां आदि. सारी हलचल और प्रतिरोध अवास्तविक है. बहुत कुछ इसमें छद्म है. इसे आपके उल्लिखित नामों के संदर्भ में न देखें. वैसे मुझे कोई हर्ज नहीं है.पर इससे बहस की दिशा व्यक्तियों की ओर जाने लगती है. उनमें से कुछ को क्रेडिट दिया भी जाना चाहिए .पर इससे कुछ होना जाना नहीं है. सबके सब कविता के लिए , कविता में नैतिकता और कविता के विस्तार के लिए काम कर रहे हों .इसे मान लेने से बहुत सारी अराजक छवियां इकठ्ठे आ खड़ी होती है. आप जानते है कि सच हम कहते भर नहीं है पर सच से हम सब वाकिफ होते हैं.
जवाब देंहटाएंकवियों की घुड़दौड़ चल रही है. सब कुछ साफ-साफ सुनाई-दिखाई दे रहा है. हिंदी कविता को एक रेस-कोर्स घोषित कर देना चाहिए. फिर भी कविता के पक्ष में आप ही की कही बात सही ठहरे तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है.
(समय की कमी में यह लिखा है .हो सकता है कि बहुत व्यवस्थित तरीके से बात न कह सका हूं.
ओम सर,यह प्रयोजनमूलक हिंदी वाला उदाहरण बहुत लाजवाब है .आप बनारस में हैं इसलिए जानते हैं. यह यहां बहुत से लोगों के लिए स्पष्ट नहीं होगा. पर लोकप्रिय उदाहरण हिंदी का ही है. वह अकैदमिक भ्रष्ठाचार को और उसके प्रतिनिधि चेहरों को सही से व्यक्त करता है.किसी भी भाषा में इससे बढिया उदाहरण नही होगा कोई. पर यह हिंदी-प्रयोजनमूलक हिंदी तक सीमित मसला नही हैं. अकादमियों की क्या हालत है यह पढने वाले जानते हैं. अधिकांश नियुक्तियां ,साक्षात्कार सब निश्चित रहते हैं. यह सब हम सुनते रहते हैं. यह सब मिल-जुल कर समाज को गढता है कभी अकैदमिक भ्रष्ठाचार पर कोई राष्ट्रीय बहस आयोजित हो तो पता चलेगा कि महान लोगों से पीड़ित लोगों की संख्या अपार है. इससे पता चलता है कि हम किस तरफ बढ रहे है. अच्छी कविता कोई भी लिख सकता है. हर किसी को बाध्य भी नहीं किया जा सकता है कि नहीं तुम इसी तरह दिखो. तुम इसी तरह लिखो. पर लिखना एक दक्षता की बात है. कोई नैतिक हो या न हो. उसे पढा भी जाना चाहिए.वह अच्छी हो तो कहा भी जाना चाहिए. पर इससे जो स्वीकार्यता कवि को मिलनी शुरू होती है तो उसका क्या करेंगें.वह उस पर सबसे बुरा असर पाठक पर डालती है. वह तो किसी कस्बे में बैठा है या गांव में है . पाठक के लिए किताब ही सब कुछ होता है . मैं खुद एक छोटे से कस्बे में पला –बढा हूं .एक वक्त तक सब ठीक लगता था. पाठक पूरे जतन से पढता है.वह जितना समझ सकता है समझता है. उसके लायक चीज हो ,वह उससे कनेक्ट होती हो तो वह जुड़ता है. और वह सच में चीजों को भावुकता से देख रहा है. उसे भेद के भीतर के भेद पता भी नहीं हैं. फिर उसका अपना जीवन है और वह उसमें लगा हुआ है. उसे कवियो और लेखकों के प्रोफाइल पता करने की बीमारी भी नहीं है.वह फ्लैप पढकर संतुष्ट रहता है. मेरा अनुभव उतना तो नहीं है पर लोगों से यदा-कदा की मुलाकातों में जो सुना है वह यही होता है आम तौर पर कि उसके पास अमुक का सारा कारनामा है. पर सार्वजनिक कोई नहीं करता है. पाठक साहित्य के खेमेबाजी को पूरा भले ही न समझता हो पर जिस दिन उसका भरोसा टूटता है वह दिन साहित्यिक दुनिया के लिए सबसे बुरा दिन होता है. वह दिन कोई एक दिन नहीं है. हर रोज यह हो रहा है
जवाब देंहटाएंसोमप्रभ। आपकी बातें पुन: ध्यातव्य हैं। किस समय नक्काल नहीं होते, किस समय धूर्तताऍं नहीं होतीं, चालबाजियॉं नहीं चलतीं, सिफारिशें, संपर्कवाद कब नहीं थे,पर इसी में कुछ अच्छा भी रचा जा रहा है। जो लोग संवेदनशील हैं वे जानते हैं क्या सोना है, क्या चॉंदी है और क्या टीन है। लोग अपनी पसंद का पढ़ते हैं। किसी पर दबाव नहीं कि वह क्या पढ़े। साहित्य की दुनिया जैसी दिखती है, वैसी नहीं है तो ताज्जुब नहीं। बाकी दुनिया भी तो वैसी ही है। कविता के अंबार में मुझे भी जो रुचता है वही पढ़ता हूँ। जानता हूँ कहॉं कविता है, कहॉं झाग है। नेट पर भी पड़ोसभाव की लीलाऍं हैं। घूम फिर कर कुछ घराने बन गए हैं जहॉं सभी की आवाजाही है, सभी का स्वीकार है, अपनी बात फैलानेके लिए हमने मित्र संख्याऍं बढ़ा ली हैं, कि लोग जानें। मुहल्ले में भले नहीं जानते। मुहल्ले की ग़मी में हम शरीक नहींहोते, नेट पर तुरन्त श्रद्धांजलियॉ लिए सन्नद्ध रहते हैं। किन्तु दुनिया इन्हीं लोगोंसे बनी है। इसे ऐसे ही चलना है। जिसे केंद्र में होना चाहिए वह हाशिए पर होता है या डाल दिया जाता है। जिसपे है इल्जाम खेमों की अवज्ञा का/ उसकी सीढ़ी पर लगाई गयी काई है। चीटियॉं आई थीं जो हक़ मॉंगने उनको/देके बहलाया गया कुल्फी मलाई है। यह माहौल है। शालीनता केवल भंगिमाओं में है, सेलेबल, आचरण और कार्यकलाप में नहीं। हम दुहरी नैतिकताओं के मारे हैं। अदम को भी कहना पड़ा था: चोरी न करें....../ चूल्हे पे क्या उसूल पकाऍंगे शाम को? बुभिक्षित: किं न करोति पापम्। पर यहॉ तो सारा पाप भरे पेट वाला कर रहा है, वही दूसरों के पेट पर लात मार रहा है।कविता कोई कमाऊ चीज नहीं है। यह खाते पीते अघाते लोगों को ज्यादा शोभा देती है। अकिंचन को कौन पूछता है। किताबें आती हैं, लोकार्पित होती हैं, यह सब इस सेक्टर की गतिविधियॉं है। चार आदमी न हों तो आपको कंधा देने वाले न मिलें। इसलिए लाख गाली दे लें,कवियों को आलोचक भी चाहिए। बिना आलोचक के काम नहीं चलता। इसलिए कि पढ़ने वाला हो तब तो आपकी ऐंठ चले भी, नहीं तो मान लिया प्रेमचंद गॉंधी की कविता अरुण देव ने पसंद कर ली, अरुण देव की प्रभात रंजन और अर्पणा मनोज ने, गिरिराज किराड़ू की शिरीष और अशोक पांडेय(ग्वालियर वाले) ने, व्योमेश की अनुराग वत्स और सिद्धांत मोहन तिवारी ने, लीना की अशोक पांडेय ने या विलोमत:। कुछ की मोहन श्रोत्रिय ने, नंद भारद्वाज ने। ले दे कर यही संसार है। यही कसौटियॉं हैं। इनसे भी द्रोह कर लें तो साधो, ये कवि कहॉं जाऍं। और रिश्ते ,फिर कहता हूँ, प्रयोजनमूलक हिंदी की तरह ही प्रयोजनमूलक हो चुके हैं। एक कवि मुम्बई के एक अखबार में यह बयान देता है कि आलोचक क्या खाकर लिखेगा ? यानी ठीकरा आलोचक पर। पाठक क्या खाकर पढ़ेगा, उसकी चिंता नहीं है। सोमप्रभ: हर प्रतिभा एक सी नहीं होती। ईंट के भट्ठे से निकली ईंटें भी कुछ अव्वल कुछ दोयम कुछ सोयम दर्जे की होती हैं। कविता या साहित्य में भी कुछ अव्वल, कुछ मझोले कुछ साधारण स्तर के लोग हैं। प्रकृति की यह लीला है। इन्हें कभी सुनकर अच्छा लगता है, कभी इन्हें सहना पड़ता है। अपनी राह खुद तलाशनी पड़ती है। यह ऐसा क्षेत्र है कि यहॉं आपको इसलाह देने के लिए तरह तरह के हकीम बैठे हैं। सत्ता के वर्चस्व का लाभ लेने या देने वालों की पुजौती चल रही है। वह सैक्रेड काउ है। आप उन्हें नाराज नही कर सकते।
जवाब देंहटाएंकविता अपने एजेंडे खो चुकी है, उसके सारे आंदोलन पस्त पड़े हैं, सारे रथी आहत हैं और अपने अपने शिविरों में श्लथ हैं उनकी सत्ता व्यवस्था में कोई सुनवाईनहींहै। वे जितना भी मानवीय हों,उनकी मनुष्यों को कोई जरूरत नही है, ऐसा आपके कहने का आशय है। यह कुछ हद तक सच भी हो सकता है। नक्सलवादी सहानुभूति हासिल करने वाले क्रांतिकारी कवियों का हश्रहमदेख चुकेहैं। आपातकाल को अनुशासनपर्वकहने वाले शब्दकर्मियोंकाभी। इसलिए प्रोफाइल पर न जाऍ, रचना को ही कसौटी मानें। अखबारोंमें कालम हथिया कर बैठने वालों पर कटाक्ष करते हुए ज्ञानेन्द्रपति ने कहा था, कालम से ज्यादा ताकतवर कलम होती है। इसलिए केवल अपनी कलम, अंतर्दृष्टि और प्रतिभा पर भरोसा करें। जब मुनव्वर राणा रायबरेली से कलकत्ता गए थे तो बाप ट्रक ड्राइवर थे, कभी कभी घर आते थे, खुद राणा ने दुश्वारियॉं झेलीं, बीकाम किया, बाद में ट्रक खरीदे, ट्रांसपोर्ट कायम किया, पर वाली आसी के शिष्य थे, गजलों में मन रमता था, कौन था उनके पीछे। आज उनके पीछेकौन नही है। तो सोमप्रभ, फिराक गोरखुपरी का कहना है: लेने से ताजोतख्त मिलता है/ मॉंगे से भीख तक नहीं मिलती। इस दुनिया में हैं तो आपका होना आपकी कलम से ही सिद्ध होगा,इतर संसाधनों से नहीं।इसलिए सब कुछ खराब है, सब त्याज्य है, ऐसा कहने और सोचने के बजाय यह भी देखिए कि बहुत कुछ अच्छा भी है, कुछ स्वीकार्य भी है। भविष्य के साहित्य की चिंता करने का काम यदि ये युवा कवि नहीं करेंगे तो कौन करेगा। या साहित्य के भविष्य को लेकर कोई विमर्श न हो तो हम लिख काहे के लिए रहे हैं? इसीलिए कि शायद हमारी सभ्यता और संस्कृति की बेहतरी के लिए यह जरूरी है। मुक्तिबोध ने कहा था, ये दुनिया जैसी भी हो इससे बेहतर चाहिए, इसे साफ करने के लिए एक मेहतर चाहिए। ये चर्चाऍ, ये विमर्श, ये चिंताऍं ये सब इसलिए हैं कि धुंध कुछ छँटे। पर्यावरण साफ हो। कालिदास ने क्यों लिखा, तुलसी ने क्यों, क्यों गालिब ने, क्यों फिराक ने, क्यों मुक्तिबोध ने क्यों श्ामशेर ने, इसीलिए कि यह दुनिया कुछ बेहतर हो। सब कुछ तो कविता नहीं कर सकती, कुछ काम दूसरों का भी है, वे करें। कवि और लेखक सामाजिक पर्यावरण को अपने लेखन से शुद्ध कर रहे हैं। बतर्ज: अपना पैगाम मुहब्बत है जहॉं तक पहुँचे। कहा है न केदारनाथ सिंह जी ने, कि जहॉं तक देखो अंत:करण में कचरा ही कचरा दिखाई देता है। इसे दूर करने के लिए चलाना है सुदीर्घ एक स्वच्छता अभियान। यह सब उसी स्वच्छता अभियान का हिस्सा है। और अरुण देव तो केदारनाथ सिंह के पट्ट शिष्य हैं। वे यह कर रहे हैं तो इस नैमित्तिक भाव से ही।
जवाब देंहटाएंयह बडी अच्छी पोस्ट है पढ कर मन अघा गया और इस पोस्ट का अत्यंत रोचक विश्लेषंण विभिन्न टीका कार साहित्यप्रेमी बंधुओं ने किया जिससे बहुत ज्ञान वर्धन हुआ पर ध्यान से सोचने पर ऎसा लगा कि वास्तविक स्थिति राजेन्द्र घोडपरकर जी की कविता ने व्यक्त कर दिया है इस स्थिति मे भी सकारात्मक काम करना है चाहे दीया जलाने जैसा ही क्यो न हो क्योकि हम विवश है टुकडो ट्कडो मे बंटे है नेतृत्व परक वीरत्व नही है हममे हम प्रयोजन मूलक हिन्दी भाषा को प्रधान पहली अनिवार्य राष्ट्रभाषा नही बना सकते लंबी बहसें चला सकते है । शुक्रिया अच्छा लगा साकार कुछ देखकर ।
जवाब देंहटाएंकविता पर आसन्न संकट की चर्चाएँ बहुत नियमित ढंग से की जाती हैं, की जानी भी चाहिएँ किन्तु बहुधा यह संकट पाठकों के कम होते चले जाने या अच्छी कविता की समझ न होने के खतरों के आसपास और इर्दगिर्द ही रहता है। क्या यह विचारणीय नहीं कि वास्तव में पाठक के पास कविता का संस्कार विलुप्त हो गया है अथवा कोई अन्य कारक हैं जो आलोचना को बाध्य करते हैं कि वह बार यह दुहराए कि पाठक अगंभीर है, या है ही नहीं, या कम हैं या यह, या वह।
जवाब देंहटाएंपठनीयता का जो संकट हिन्दी समाज में खड़ा हुआ है उसके पीछे मूलतः मुझे लेखकों, आलोचकों और प्रकाशकों की मनोवृत्ति ही दोषी दिखाई देती है, न कि समाज की अध्ययन के प्रति विरक्ति या दूसरे सौ वे कारण जो चर्चाकारों द्वारा गिनाए जाते हैं, मसलन पुस्तकें महँगी होना, पुस्तकों के युग का लद जाना, विरक्ति होना या रुचिहीनता, या यह या वह। हिन्दी अध्ययन अध्यापन, लेखन या इस से जुड़े क्षेत्र में अधिकांशतः समाज का वही वर्ग आ रहा है जो कहीं और के लायक नहीं है और झक मार का एक क्षेत्र अपनाने की बाध्यता के चलते उसे हिन्दी ही चुननी पड़ी क्योंकि यह क्षेत्र सरलतम है। ऐसे में 90 प्रतिशत लोग कुंठित, स्वार्थी, अनुदार, मनोरुग्ण और जाने क्या क्या होते हैं। ऐसे में वे भला क्या तो लेखन को देंगे और क्या इसे समृद्ध करेंगे। उल्टे इन लोगों ने एक नई तरह का व्यभिचार साहित्य में खड़ा कर दिया है। परंतु जुगाड़ू तंत्र में इनके विरुद्ध बोलने का साहस कौन करे से पहले यह समस्या है कि इनके आकलन की योग्यता भी कितनों में है।
कौन है वह पाठकवर्ग जिसके दिशाभ्रम पर हम रोते कलपते हैं ? पाठक वर्ग यदि लेखकसमाज से इतर वर्ग का प्राणी है तो वह सदा से ऐसा ही है और ऐसा ही था। शायद आज से अधिक अपठ और कम सचेत भी। किन्तु किस काल की कविता और आलोचना ने इसे `इतर वर्ग' या स्वयं को `इतर वर्ग' के रूप में काटा ? यही पाठक वर्ग जब `लोक' और `लोक मानस' बन कर आता है तो इसकी पक्षधरता के तर्क देने वाली बिरादरी मुखर हो उठती है।
अस्तु ! विषय लंबा है। कुल मिला कर यह कि कविता एक महनीय संस्कार है, कुछ इतना संश्लिष्ट कि कर्त्ता का पूरा पता दे देती है बजाय इसके कि पाठक का पूरा पता दे। यदि आज यह संस्कार छीज रहा है तो उत्तरदायित्व भी इसी क्रम से सिर माथे लेना होगा।
विचारणीय लेख के लिए साधुवाद !
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