कवि सूरदास के साहित्य में वात्सल्य
और श्रृंगार के साथ-साथ सगुण और निर्गुण के द्वंद्व का तीखा बोध है, इसके साथ ही उनके
काव्य-संसार में उनका समय भी बोलता है. वे अपने समाज से निरपेक्ष कवि नहीं हैं. प्रसिद्ध
आलोचक प्रो. मैनेजर पाण्डेय की पुस्तक ‘भक्तिकाल और सूरदास का काव्य’ में किसान
जीवन, गाँव
और शहर के द्वद्व तथा राजनीतिक अभिप्रायों आदि की पहचान की गयी है. ख़ुद सूर एक जगह
लिखते हैं-
‘हरि
हैं राजनीति पढ़ि आए.’ या
‘राजधर्म
सब भए सूर, जंह प्रजा न जाए सताए’ (भ्रमरगीत सार)
यह कितना समकालीन और प्रासंगिक है, ज़ाहिर है सूर को शासक वर्ग की खबर थी. आलोचक माधव हाड़ा ने अपने आलेख में इस विषय का विस्तार किया है.
प्रस्तुत है.
ऊधो! कोकिल कूजत कानन
सूरदास के भ्रमरगीत प्रसंग का पाठ–पुनर्पाठ
माधव हाड़ा
सूरदास की कविता पर विचार करते हुए हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रवींद्रनाथ की कविता ‘वैष्णव कविता’ की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की हैं, जिनका आशय है यह है कि “हम जो चीज़ देवता को दे सकते हैं वही अपने प्रिय को देते हैं और प्रियजन को दे सकते हैं वही देवता को देते हैं! और हम पाएँगे कहाँ? देवता को हम प्रिय कर देते हैं और प्रिय को देवता!”
(देवतारे याहा दिते पारि, दिइ ताईप्रिय जने, प्रिय जने याहा दिते पाईताई दिइ देवतारे आर पाबो कोथा?देवतारे प्रिय करि, प्रियेर देवता!)
आशय यह है कि जो
भी है वो ‘मानवीय’ और ‘पार्थिव’ की सीमा में है और जो ‘लोकोत्तर’ है वो भी अंततः ‘पार्थिव’ और ‘मानवीय’ का विस्तार है. सूरदास इस बात को ख़ूब अच्छी तरह जानते-समझते
थे. उन्होंने मध्यकाल में भ्रमरगीत प्रकरण की रचना कर दृढ़तापूर्वक मानवीय और पार्थिव का समर्थन किया और उससे भी आगे
जाकर अपार्थिव और लोकोत्तर की खिल्ली भी उड़ाई. विडंबना यह है कि अभी तक ‘सूरसागर’ के इस प्रकरण को इस लिहाज़ से पढ़ा-समझा नहीं गया
है.
हिन्दी के मध्यकालीन
चार बड़े संत-भक्त कवियों- तुलसी, सूरदास, जायसी और कबीर में से तीन पर विचार का प्रस्थान रामचन्द्र शुक्ल की आलोचना से
हुआ. उन्होंने तुलसी, जायसी और सूर की कविता पर विस्तार से विचार किया.
कबीर उनकी निगाह में नहीं चढ़े, लेकिन बाद में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उनकी
कविता की महिमा को प्रतिष्ठापित किया.
रामचन्द्र शुक्ल
ने तुलसी, जायसी और सूरदास की कविता पर विचार किया, लेकिन इनमें से तुलसी और जायसी की पहचान और मूल्यांकन का काम उन्होंने मनोयोग
और श्रम से किया. तुलसी में तो वे ऐसे रमे कि उनकी कविता का लोक संग्रह और उसमें जीवन
का विस्तार और वैविध्य उनकी साहित्य के मूल्यांकन की कसौटी ही बन गए. सूरदास पर
उन्होंने विचार किया, लेकिन उन्होंने उनको तुलसी की विशेषताओं की
कसौटी पर परखते हुए केवल शृंगार और वात्सल्य के सीमित सरोकारवाला कवि मान लिया.
रामचन्द्र शुक्ल
के वैदुष्य और वर्चस्व का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनका सूरदास विषयक यह प्रस्थान हिन्दी
आलोचना में रूढ़ि बन गया. परवर्ती आलोचना और उसमें भी ख़ास तौर पर अकादमिक आलोचना
में सूरदास की पहचान और समझ विरह, संयोग, वात्सल्य और वाग्विदग्धता जैसे सरलीकरणों में
होने लगी. अपने समय की ‘परिस्थिति से अनजान’ भक्ति-प्रेम में डूबे संत-भक्त कवि की आरम्भिक पहचान के कारण अपने समय की सगुण-निर्गुण
की वैचारिक उठापटक में चतुर और प्रभावकारी हस्तक्षेप और सगुण और पार्थिव की महिमा
के प्रतिष्ठापन का दस्तावेज़ होने के बावजूद भ्रमरगीत प्रकरण की सही पहचान और
मूल्यांकन नहीं हुआ.
जीवन के प्रति
अनुराग जगाने में वैष्णव कवियों की भूमिका से रामचंद्र शुक्ल सर्वथा अनजान नहीं थे.
‘भ्रमरगीत सार’ की भूमिका की शुरुआत में उन्होंने इस ओर संकेत करते हुए लिखा कि
“मनुष्यता के सौंदर्यपूर्ण और माधुर्यपूर्ण पक्ष को दिखाकर इन कृष्णोपासक वैष्णव कवियों ने जीवन के प्रति अनुराग जगाया, या कम से कम जीने की चाह बनी रहने दी”
पर वे इसके
विस्तार में नहीं गए. बाद में हजारीप्रसाद द्विवेदी का ध्यान भी इस ओर गया, लेकिन कबीर की अनदेखी करनेवालों को तो उन्होंने आड़े हाथों
लिया, लेकिन सूरदास की कविता पर नाक भौं सिकोड़नेवालों पर वे केवल उँगली उठाकर रह गए.
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने रामचंद्र शुक्ल की तरह सूरदास की कमियाँ तो नहीं गिनाई, लेकिन उन्होंने कबीर की तरह उनकी सराहना भी नहीं की. कारण साफ़
था- आख़िर सूरदास उनके प्रिय कवि कबीर का प्रतिपक्ष जो थे. सूरदास ने जमकर निर्गुण
की निंदा की है और हजारीप्रसाद द्विवेदी यह जानते थे कि निर्गुण उपासना से सूरदास का मतलब शायद कबीरदास
की साधना से है.
c. 1720-1730, courtesy: Harvard art museums |
2.
सूरदास की कविता का शृंगार और वात्सल्य लोकोत्तर
नहीं है. यह उनके निजी जीवन का ही उदात्त विस्तार है- यह साफ़-साफ़ उनके पार्थिव जीवन और ऐंद्रिक अनुभव से आया है.
रवींद्रनाथ के ही शब्दों में पूछें तो ‘और आता भी कहाँ से?’ विडंबना यह है कि सूरदास के वैयक्तिक जीवन को और उसमें भी ख़ास तौर पर उनके
दीक्षा पूर्व के वैयक्तिक जीवन को जानने का कोई साधन नहीं है. दरअसल सूरदास के ‘जन्मांध’ और बाल्यकाल से ही ‘गृहत्यागी संत-भक्त’ होने की लगभग मान्य
धारणाओं की अतिव्याप्ति में उनका वैयक्तिक मनुष्य जीवन अलक्ष्य रह गया- इसकी सही
मायने में पहचान ही नहीं हो पाई. उनकी रचनाओं में उनके पार्थिव जीवन और ऐंद्रिक
अनुभव के पर्याप्त संकेत हैं, लेकिन उनको एक ‘निरभिमानी भक्त
के अतिशयोक्तिपूर्ण उद्गार’ मानकर दरकिनार कर दिया गया.
सूरदास जन्मांध नहीं थे- अधिक संभावना यही है कि
वे जीवन के उत्तरार्ध में कभी अंधे हुए होंगे. सूरदास का जन्म 1478 ई. में हुआ और
वल्लभाचार्य ने 30-32 वर्ष की उम्र में 1510 ई. में उनको दीक्षा दी और उस समय तक वे अंधे नहीं थे. ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ की प्रामाणिकता को लेकर विवाद नहीं है और इसमें
स्पष्ट उल्लेख है कि सूरदास उस समय सनेत्र थे. वार्ता में एकाधिक जगहों पर उनके द्वारा
वल्लभाचार्य आदि के दर्शन करने का उल्लेख है. वार्ता में कहा गया है कि
“तब सूरदासजी अपने स्थलतें आयकें श्रीआचार्यजी श्रीमहाप्रभूनके दर्शन को आये तब श्रीआचार्यजी महाप्रभून कह्यौ जो सूर आवो बैठौ तब सूरदासजी श्रीआचार्यजी महाप्रभूनकौ दर्शन करिकें आगे आय बैठे.”
वार्ता के आरंभ में
एकाधिक बार ‘दर्शन’ शब्द आया है और
कहीं भी वार्ताकार ने सूरदास के जन्मांध होने का उल्लेख नहीं किया है. लगता है कि सूरदास जन्मांध नहीं थे, लेकिन बाद में भक्तों–आख्यानकारों ने उनकी वृद्धावस्था
के अंधेपन को उन्हें असामान्य कोटि का भक्त सिद्ध करने के लिए जन्म के अंधेपन में
बदल दिया.
श्रीनाथ भट्ट की ‘संस्कृतमणिमाला’ हरिराय की ‘भाव प्रकाश’ मियासिंह की ‘भक्ति विनोद’ और रघुराजसिंह
की ‘रामरसिकावली’ में सूरदास को जन्मांध माना गया है, लेकिन इनमें केवल श्रीनाथ
भट्ट ही उनके समकालीन थे और शेष सभी उनके परवर्ती हैं. सूरदास की रचनाओं के अंतःसाक्ष्यों
के आधार पर भी सूरदास को जन्मांध सिद्ध करने के प्रयास हुए हैं, लेकिन इन रचनाओं की प्रामाणिकता संदिग्ध है.
नागरी प्रचारिणी सभा के ‘सूरसागर’ में ये रचनाएँ सम्मिलित ही नहीं हैं. सूरदास
बाल्यकाल से ग्रहत्यागी संत-भक्त नहीं थे.
हरिराय के ‘भाव प्रकाश’ में कहा गया है
कि बाल्यकाल में उन्होंने घर छोड़ दिया, जबकि ‘चौराशी वैष्णवन की वार्ता’ में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है. ‘भावप्रकाश’ की रचना सूरदास के जीवन के सौ वर्ष बाद हुई और इसमें सूरदास के जीवन को भक्त
निर्माण के क्रमिक चरणों में ढाला गया. यह जनसाधारण में संत-भक्त की स्वीकार्यता
और मान्यता के लिए ज़रूरी था. सूरदास की रचनाओं में इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं
कि उन्होंने एक साधारण गृहस्थ का ‘माया के हाथ बिका हुआ’ जीवन जिया था.
उन्होंने कहा है कि
“माया के हाथ बिककर भग्वद्भजन नहीं किया, सदैव हिंसा, मद-ममता में भूला रहा, निंदा का आनंद लिया, साहिबी करते हुए सुरापान करते हुए सारा जीवन गँवा दिया, अखाद्य खाया और जो नही पीना चाहिए, वो पिया और तेल लगाकर वस्त्रों को अच्छी तरह धोकर तिलक बनाकर स्वामी बना.”
यह ध्यान देने वाली बात है कि ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में भी यह उल्लेख है कि दीक्षा से पूर्व सूरदास की हैसियत एक ऐसे स्वामी की थी, जिसके कई सेवक थे. वल्लभ संप्रदाय में दीक्षा की बाद के पारसोली और गोवर्धन के उनके जीवन के संबंध में यह निष्कर्ष निकालना ग़लत होगा कि वे जीवनविरत वैरागियों के जैसा दीनहीन जीवन व्यतीत करते थे. वल्ल्भ संप्रदाय में आग्रह कृष्णनुराग के साथ जीवन में राग, भोग और शृंगार का था. वार्ता ग्रंथों से लगता है कि स्वयं वल्लभाचार्य का जीवन बहुत वैभवपूर्ण था.
पार्थिव और मानवीय के वैभव पर भरोसा सूरदास को एकाएक
नहीं हुआ होगा. यह उनके जीवन में शुरुआती दिनों से ही रहा होगा और वल्लभाचार्य के
संपर्क में आने के बाद यह उनकी पुष्टि और समर्थन पाकर मजबूत हो गया होगा. ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार वल्लभाचार्य से दीक्षा से पूर्व के
जीवन में वे ‘हों हरि सब
पतितन को नायक’ और ‘प्रभू में सब पतितन को
टीकौ’ जैसे विनय के पद कहते थे.
वल्लभाचार्य ने पहली भेंट में ऐसे पद सुनकर उनसे
कहा कि ‘जो सूर है कें ऐसो काहे को
घिघियात है.’ उन्होंने सूर
को श्रीमदभागत के दशम स्कंध की अनुक्रमणिका सुनाई, जिससे वे भगवत्लीला का गायन करने लगे और इस तरह उनके
जीवन की दिशा बदल गई. सूर की कविता में जैसा जीवन का वैभव और सुंदरता है उससे लगता
है कि यह परिवर्तन इतना आकस्मिक नहीं रहा होगा. इसके कुछ लक्षण सूरदास में पहले ही
रहे होंगे, लेकिन लोक में निर्गुण और
निराकार को जैसा आग्रह और बोलबाला था, सूरदास भी इसके आग्रह में ‘अविगत गति कुछ
कहत न आवैं’ जैसे पद कहते थे, लेकिन वल्लभाचार्य ने
सूरदास की दुविधा ताड़ ली होगी. उनके आग्रह और आलंबन रूप में कृष्ण को पाकर सूरदास
जीवन से अनुराग के अपने प्रकृत स्वभाव पर लौट आए होंगे. बाद की सूरदास की रचनाओं
में उन्होंने अपने प्रिय कृष्ण को वो सब दिया है जो उनके अपने जीवन में सुंदर और
प्रिय है.
ऐंद्रिक और पार्थिव का जैसा आग्रह और समर्थन
सूरदास की कविता में है उससे यह तो साफ़ लगता है कि उन्हें लौकिक जीवन का व्यापक और
गहरा अनुभव था. उनकी कविता में प्रेम और दांपत्य जीवन के जो दैनंदिन ऐंद्रिक और पार्थिव
रूप मिलते हैं उनके अनुभव के बिना इनका उनकी कविता में होना संभव ही नहीं है.
रवींद्रनाथ उनकी कविता में प्रेम और उसके दुःख की अंतर्वृत्तियों की सघन और
ऐंद्रिक मौजूदगी पर अभिभूत और आश्चर्यचकित थे. उन्होंने सूरदास के किसी सुंदर
युवती के सौंदर्य पर मुग्ध-अभिभूत होकर उससे अपनी आँखें फोड़ देने के आग्रह करने
संबंधी जनश्रुति को आधार बनाकर ‘सूरदासेर
प्रार्थना’ नामक कविता में लिखा कि
“सच बताओ वैष्णव कवि, तुमने यह प्रेम चित्र कहाँ
पाया? यह विरह तप्त गान तुमने
कहाँ सीखा था? किसकी आँखें देखकर राधिका की आँसू भरी आँखें याद आ गई थीं? निर्जन वसंत रात्रि की
मिलन शय्या पर किसने तुम्हें भुजपाशों में बाँध रखा था; और अपने हृदय के अगाध समुद्र में मग्न कर रखा था? इतनी प्रेम कथा, राधिका की चित्त विदीर्ण
करने कर देनेवाली तीव्र व्याकुलता तुमने किसके मुँह और किसकी आँखों से चुरा ली थी? आज क्या इस संगीत पर उसका
(कुछ भी) अधिकार नहीं? क्या तुम उसीके नारी हृदय की संचित भाषा से उसी को सदा के लिए वंचित कर दोगे?"
Abhisarika Nayika -Heroine Running to Meet her Lover. |
3.
सूरदास के
भ्रमरगीत का महत्त्व केवल इसके विप्रलंभ श्रंगार और ‘वचन की भावप्रेरित वक्रता’ तक सीमित नहीं हैं, जैसाकि मान लिया
गया है. यह मध्यकालीन सगुण-निर्गुण विमर्श में सूरदास के प्रभावकारी हस्तक्षेप- लोकोत्तर
पर लोक के महत्त्व की प्रतिष्ठा- का दस्तावेज़ भी है. विडंबना यह है कि विद्वानों
ने इस रचना के इस पक्ष पर ध्यान ही नहीं दिया. रामचन्द्र शुक्ल ने सूरदास पर विचार
तो किया, लेकिन तुलसी को महान सिद्ध करने के लिए उनका ज़ोर
सूरदास की कविता के सकारात्मक पक्षों के बजाय नकारात्मक पक्षों को उभारने पर अधिक रहा.
तुलसीदास को ‘लोकगति का सूक्ष्म पर्यालोचक’ सिद्ध करने के
लिए उन्होंने सूरदास को ‘अपने भाव में मग्न’ और ‘अपने चारों ओर की परिस्थिति’ से अनजान मान लिया और कह दिया कि उनको मुख्यतः शृंगार
और वात्सल्य का कवि समझना चाहिए.
रामचन्द्र शुक्ल की यह धारणा सूरदास के परवर्ती अध्येताओं के लिए मार्गदर्शक बन गई. परवर्ती अध्येता हरबंशलाल शर्मा ने रामचन्द्र शुक्ल को लगभग दोहराते हुए लिखा कि
“सूरदास का उद्देश्य किसी दार्शनिक वादविवाद के झमेले में पड़ना नहीं था. वे भक्त थे और भगवान की प्रेमा भक्ति की महिमा की अनुभूति को ही अपनी रचनाओं में व्यक्त किया करते थे.”
हिन्दी की
अकादमिक और कुछ हद तक साहित्यिक आलोचना में भ्रमरगीत गोपियों के विरह और उनके
वाग्विदग्धता के लिए ख्यात हो गया.
सूरदास अपने समय
की परिस्थिति से अनजान और उससे तटस्थ नहीं थे, जैसा कि
रामचन्द्र शुक्ल ने माना है. उनका भ्रमरगीत अपने समय की वैचारिक उठापटक में चतुर और
अर्थपूर्ण हस्तक्षेप है. उनके समय में ज्ञान, योग और भक्ति का
संघर्ष चल रहा था. सबके अपने-अपने दावे थे और जनसाधारण दुविधा और भ्रम में था.
वेदान्तियों का ज़ोर अंतःकरण की शुद्धता और जप-तप पर था, तो नाथपंथी योग
का राग अलाप रहे थे. संत मत का ज़ोर निर्गुण और निराकार की उपासना था. ख़ास तौर पर
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इस समय नाथपंथियों की प्रभावी मौजूदगी का उल्लेख किया है.
उन्होंने लिखा है कि
“इस समय पूर्व
और उत्तर भारत में सबसे प्रबल संप्रदाय नाथपंथी योगियों का था. जनता का सारा ध्यान
इन अशास्त्रीय योगियों की ओर आकृष्ट था. ये लोग महायान बौद्ध धर्म के उत्तराधिकारी
थे. इन योगियों के परिवर्तित रूप में तथागत के स्थान पर शिव का अधिकार हो गया था, पर मूलतः ये बौद्ध थे. गोरखनाथ, मीननाथ अदि बड़े–बड़े साधकों ने इस साधना को खूब समृद्ध किया. कबीर, नानक, दादू, आदि संतों की
वाणियों पर इनका यथेष्ट प्रभाव था. इसी तरह धर्म और निरंजन मतवाद की छाप भी
परवर्ती साधकों पर है. ये लोग निर्गुण ब्रह्म के उपासक थे.”
निर्ग़ुण की यह
साधना कमोबेश कबीर की साधना जैसी थी. भ्रमरगीत में निर्गुण साधना के लिए जिस
शब्दावली का प्रयोग हुआ है, उसका प्रयोग कबीर ने बहुतायत से किया है. हजारीप्रसाद
द्विवेदी ने भी इसकी पुष्टि करते हुए लिखा है कि
“निर्गुण उपासना से सूरदास का मतलब शायद कबीरदास की साधना से है.”
भ्रमरगीत में भी
इस मतवाद के संबंध में विस्तार से बताया गया है. भ्रमरगीत अपने समय में ‘निर्गुण’ और ‘निराकार’ का चतुर प्रतिवाद था. सूरदास को जनसाधारण की रुचि और प्रवृत्ति की गहरी और
व्यापक समझ थी, इसलिए उन्होंने जनसाधारण के अपने तर्क से
निर्गुण का सशक्त प्रतिपक्ष भ्रमरगीत में खड़ा किया. भ्रमरगीत में कोई ज्ञान
मीमांसा नहीं है, उसमें निर्गुण और निराकार
के प्रतिवाद में जनसाधारण का अपना विवेक और तर्क है. सूरदास की इस समझ से
रामचन्द्र शुक्ल भी सर्वथा अनजान नहीं थे. उन्होनें दबे स्वर में यह स्वीकार करते
हुए लिखा कि “सूरदास जी अपने भाव-भजन और मन्दिर के नृत्यगीत में लीन रहते
थे, इन सब आदेशों पर दुबले नहीं रहते थे. पर निर्गुण की जो हवा बह रही थी, उसकी ओर उनके कान अवश्य थे.”
सूरदास अपने समय
की निर्गुण ज्ञान मीमांसा से अवगत थे और यह बख़ूबी जानते थे कि जनसाधारण के लिए
इसकी कोई उपयोगिता नहीं हैं. जनसाधारण से प्रेम में समर्पण, निष्ठा, अनन्यता की अपेक्षा की जा सकती है, लेकिन ब्रह्म की
ज्ञान मीमांसा और योग आदि उसके बस की बात नहीं है. यही एक तर्क अंतर्धारा की तरह
सम्पूर्ण भ्रमरगीत में है. गोपियाँ बार-बार यही दोहराती है कि-
‘ऊधो! जान्यो ज्ञान तिहारो’, ‘ऊधो! हम लायक सिख दीजै, ‘मधुकर! कौन गाँव की रीति’, ‘ऊधो! कहियो सबै सुहाती’, ‘मधुकर! जोग न होत संदेसन’, ए अलि! कहा जोग में नीको’, और ‘हम सों कहत कौन की बातें’.
उनके पास तो एक
सीधा और सरल मार्ग पहले से है- वे उद्धव से कहती हैं- ‘काहे को रोकत मारग सूधो.’ सूर का निर्गुण का प्रतिवाद चतुर प्रतिवाद है.
वे अपने प्रतिपक्षी को मौका तो देते हैं, लेकिन उसको
अपनी बात नहीं कहने देते. उसकी बात भी वे ख़ुद कहते हैं. सूरदास अपने उद्धव को मुखर
नहीं करते, उनके उद्धव लगभग मौन हैं, लेकिन उनका
मत-विश्वास गोपियों के प्रतिवाद में शामिल है. दरअसल गोपियाँ अपने खंडन में ही उसका
भी ज़िक्र कर देती हैं.
सूरदास के भ्रमरगीत में पार्थिव की महिमा के साथ ‘अपार्थिव’ और ‘लोकोत्तर’ का उपहास भी है. जीवन में जो भी सुंदर और प्रिय है, वह सब मिथ्या और असत्य है, इस धारणा की जनसाधारण में प्रतिक्रिया हुई. यह प्रतिक्रिया बहुत व्यापक और तीव्र थी और थी और इसने कई रूप लिए. इस प्रतिक्रिया की निरंतरता और व्यापकता का नतीज़ा यह हुआ कि इसको वैचारिक और दार्शनिक आधार देने की ज़रूरत महसूस हुई. यह बहुत मुश्किल काम था- कर्मफल और नियतिवाद ने लोकोत्तर की धारणा को बहुत मजबूत कर दिया था. इस धारणा के व्यापक दायरे के भीतर रहकर कई किंतु-परंतु के साथ रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, राधावल्ल्भाचार्य आदि ने इस प्रतिक्रिया को विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद आदि के रूप में दार्शनिक आधार दिया.
वैष्णव धर्म में इसी प्रतिक्रिया के दबाव में लोक के महत्त्व की प्रतिष्ठा के लिए लीला की धारणा भी अस्तित्व में आई. लीला का ईश्वर मनुष्य से अलग या ऊपर नहीं, उसका ही विस्तार था. धीरे-धीरे दर्शन में निर्गुण और निराकार के बरक्स सगुण और साकार की प्रतिष्ठा हो गई, लेकिन निर्गुण और निराकार का महत्त्व कम नहीं हुआ. ख़ास बात यह थी कि सूरदास ने भ्रमरगीत में इससे आगे बढ़कर निर्गुण और निराकार को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया. अपार्थिव और लोकोत्तर की खिल्ली उड़ाने और उसका मजाक बनाने में सूरदास ने जैसे अपनी समस्त वाग्विदग्धता झौंक दी. निर्गुण के प्रवक्ता उद्धव को गोपियों ने क्या-क्या नहीं कहा.
‘फाटक दैकर हाटक माँगत भोरै निपट सुधारी’, ‘आए जोग सिखाव पाँडे’, ‘आयो घोष बड़ो व्योपारी’, ‘मुकति आनि मंदे में मेली’, ‘ऊधो! जोग बिसरि जनि जाहु’,‘निर्गुन कौन देस को बासी?’,‘ऊधो! तुम अपनो जतन करौ’, ‘ऊधो! जोग जानौ कौन’, ‘ऊधो! साँच कहो हम आगे’, ऊधो! जोग सुन्यो
हम दुर्लभ’, ‘यह निर्गुण निर्मूल गाठरी अब किन करहु खरी’, और ‘नफा ज्ञान के यहाँ ले सबे वस्तु अकरी’ जैसी पंक्तियों-उक्तियों की भ्रमरगीत में भरमार है.
उपहास की हद तो यह है कि गोपियों ने उद्धव से यह भी कहा कि
“अच्छा हुआ तुम आए, तुम्हारी बातों से हमारा हँसी-मजाक हो गया.”
(ऊधो भली करी तुम आए. ये बातें
कहि-कहि या दुःख ब्रज के लोग हँसाए.)
सूरदास अपने समय
के प्रति सचेत थे और संसार में क्या हो रहा हैं, समाज किस दिशा
में जा रहा है’, इन बातों की ओर उनका ध्यान था. निर्गुण के बोलबाले
वाले माहौल में जिस तरह से वे पार्थिव के समर्थन में तनकर खड़े हुए उससे लगता है कि
उन्हें अपने समाज की भी चिंता थी. सूरदास के समय में लोकोत्तर की कामना और पार्थिव
के लिए हिकारत का भाव आम बात हो गई थी. मरणधर्मा, नश्वर, क्षणभंगुर, माटी में मिल जासी जैसे विशेषणों और उक्तियों का
इस्तेमाल लोग उपदेश-परामर्श में अक्सर करते थे. लोक के महत्व के इस क्षरण से
जनसाधारण में अकर्मण्यता और अनुत्तरदायित्व को प्रश्रय मिला.
लोग घर-बार और
गृहस्थ जीवन छोड़कर साधु-सन्यासी होने लगे और समाज में कर्महीन जोगी-बाबाओं की
संख्या बढ़ गई. भ्रमरगीत में मानवीय और पार्थिव के महत्त्व की फिर से प्रतिष्ठा हुई.
इसमें तर्क दर्शन और शास्त्र का नहीं, लोक का अपना था, इसलिए यह जनसाधारण की समझ में भी आया. ‘निर्गुण कौन
देश को बासी?’- गोपियों का यह सवाल लोक का अपना सवाल था. लोक किसी की भी पहचान देश से करता है.
देश मतलब, जो लोक के समय स्थान और संबंध की सीमा में हो.
जो देश में नहीं है, उसका होना उसकी समझ से बाहर
की चीज़ है. सूरदास ने कृष्ण के मुँह से ही कहलवाया कि ‘ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाही.....’ मतलब यह कि
भगवान कृष्ण भी देश में है. वे यमुना तट, कुंजों की छाया, गाय-बछड़े, ग्वाल-बाल के बीच में और उनके जैसे हैं. वे सीमातीत नहीं हैं, वे स्थान, समय और संबंध की सीमा में
हैं .
सूरदास का समय बहुत विचित्र था- निर्गुण की जो हवा चल रही थी जनसाधरण पर उसका असर था. जीवन के प्रति अनुराग और उसका आनंद लेने में ‘जगत मिथ्या’ की धारणा अंतर्बाधा बनती जा रही थी. हालत ऐसी थी कि जीवन न उगलते बनता था और न निगलते. ऐसे समय में भगवान को सूरदास ने देश, मतलब अपने समय, स्थान और संबंध के दायरे लाकर जीवन से प्रेम करना सिखाया. यही नहीं, उन्होंने जनसाधारण को अपने विवेक और समझ से निर्ग़ुण का प्रतिरोध करने के सीख भी दी. वे लोकोत्तर के बजाय पाँव जमाकर मजबूती से जीवन के साथ खड़े रहे. उन्होंने लोकोत्तर का भुलावा देकर जीवन से विमुख करनेवालों को गोपियों के शब्दों साफ़ कहा कि ‘ऊधो! कोकिल कूजत कानन. / तुम हमको उपदेश करत हो भस्म लगावन आनन..’ सूरदास ने ढोल बजाकर समाज सुधारने का दावा नहीं किया, वे किसी आदर्श के पीछे भी नहीं चले, लेकिन अपने समय में उन्होंने जिस तरह से जीवन में डूबकर उसका समर्थन किया, उनके समय में उस तरह से किसी दूसरे संत-भक्त कवि ने नहीं किया.
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आभार!
जवाब देंहटाएंसूरदास के भक्ति-काव्य को उस काल की सामाजिक-साँस्कृतिक परिस्थितियों के आलोक में समझने के लिए इस आलेख का एकबार पढ़ा जाना अत्यंत आवश्यक है। खासकर मेरे जैसे अल्पज्ञ के लिए जो इसे पढ़कर नि:संदेह कुछ समृद्ध हुआ है। बहुत हीं साफगोई से सिलसिलेवार सबकुछ रखा गया है। इसके लिए माधव हाड़ा जी और समालोचन को बधाई !
जवाब देंहटाएंआभार!
हटाएंशंकर हों या रामानुज अथवा कबीर हों या सूर सभी की अपनी सघन अनुभूतियाँ हैं तथा ज्ञान और भक्ति में उसका जीवन-विस्तार। ज्ञान अचिन्त्य नहीं है, वह भी मन-बुद्धि- शरीर सापेक्ष ही है और भक्ति पट का तो तंतु- वेम सब कुछ ही संसार है। जगत और जगदीश के बारे दोनों की दोनों की अपनी- अपनी समझ है। खुद का उनसे संबंध, राग- वैराग्य वे तय करते हैं। उन्होंने अपनी प्राथमिकताओं, सिद्धान्तों, मान्यताओं के अनुसार भरपूर आनन्द लूटा और लुटाया भी। नारद, सनकादि, शंकर, रामानुज, मध्व, विष्णुस्वामी, वल्लभ, निम्बार्क, तुलसी,
जवाब देंहटाएंरामानंद, सूर, कबीर, मीरां आदि हजारों नामी और गुमनाम संत भक्तों ने जो कुछ कहा या रचा वह सब अपने अभीष्ट के प्रति समर्पित- प्रेरित होकर ही किया है जो कालांतर में ज्ञानियों और भक्तों के बुद्धि और भाव को तृप्त करता रहा है। मुझे नहीं लगता उन्होंने भविष्य में संभावित हिंदी आलोचना के अखाड़ों या विद्वानों के लिए वह सब लिखा। ज्ञान और भक्ति दोनों का पर्यवसान योग में होता है। एक में रस झर रहा है तो दूसरे में बह रहा है। रसिक को रस चाहिए। कैलेण्डर पर बने घोड़े की सवारी नहीं की जा सकती है। अश्वशास्त्र पर चर्चा और घुड़सवारी दोनों में भारी अंतर है। ठंड लगने पर कंबल चाहिए दोनों को- भक्त को भी और संत को भी। प्रो. हाडा सुधी विद्वान् हैं जिन्हें सुन कर और पढ कर आनंद आता है। हिमालय वासी होने के बाद भाषा ज्यादा संस्कृतनिष्ठ हो गई है। पिनी हुई रजाई का सुख बेहतर होता है यदि इसे ओढा भी जाए तो।
प्रिय नीरज जी
हटाएंआपकी बात सही है। उससे कोई असहमति नहीं है, लेकिन पाठ-पुनः पाठ की परंपरा भी हमारी परंपरा का ही हिस्सा है। टीका, भाष्य, मीमांसा में जाकर अर्थ -आशय हर बदलता रहा है। जिसे आप अखाड़ा कह रहे हैं उसकी शरुआत भी हिंदी वालों ने नही की । यह तो बहुत पहले चले आ रहे है। वद-विवाद संवाद में ज़रूरत भी बहुत ई। भक्ति के सैद्धांतिकरण में भी असहमतियाँ बहुत मुखर रही है। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य , मध्वाचार्य आदि में असहमतियाँ थीं। भक्ति में प्रपत्ति वाला भाव भी धीरे-धीरे और बाद में जाकर शामिल किया गया। मीरां ने तमाम कोशिशों के बावजूद वल्लभ संप्रदाय में दीक्षा नहीं ली। सूरदास के मन में भी इसे लेकर जीवन के अंतिम समय तक दुविधा थी।
भाषा, कब कैसी हो, सचेत तो कभी रहा नहीं।
पहाड़वासी होने के संबंध में आपसे ज़्यादा कौन जानता है?
मीरां की कविता की एक पंक्ति है : "आंबा पाक्या क्ळहर केरी निंबूडा म्हारे देस। / उदपुर रा राणा कण पर छोड़्यो देस।"
सुन्दर प्रस्तुति
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हटाएंRoland Barthes's famous essay "The Death of the Author" (1967) concentrates on the rules of author and reader as arbitrary one. Everyone is free to interpret as one wants to. There's is no question to which school of thought the critic belongs to. Every critical idea is different from the other. Barthes's essential argument is that the author has no sovereignty over his own words (or images, sounds, etc.) that belong to the reader who interprets them. When we encounter a literary text, says Barthes, we need not ask ourselves what the author intended in his words but what the words themselves actually say. Text employ symbols which are deciphered by readers, and since function of the text is to be read, the author and process of writing is irrelevant.
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