साहित्य के भविष्य को लेकर बहसतलब आयोजन - २ में हिंदी कविता की दशा और दिशा पर वरिष्ठ लेखक और कवि मोहन श्रोत्रिय का आलेख, जो कविता की पहुंच की सीमा को समझते हुए, उसके विस्तार की आवश्यकता को महसूस करते हुए यह नहीं भूलता की कविता के किसी सरलीकृत फार्मूले के क्या ज़ोखिम हैं. उम्मीद के साथ बहस की अगली कड़ी.
कविता तो रहेगी
मुझे नहीं लगता कि कोई ऐसा दिन आने वाला है जब
कविता पढ़ी नहीं जाएगी. और इसलिए कविता लिखी भी जाती रहेगी, और भाषा भी बची रहेगी.
इसके उलट की कल्पना करना अकारण चिंतित होना है, और उस चिंता
को बढा-चढ़ाकर बयान करना भी है. मौजूदा दृश्यपटल कितना भी असंतोषजनक हो, इस निष्कर्ष तक स्वाभाविक रूप से नहीं ले जाता कि कविता पढ़ा जाना बंद
होने वाला है, और कविता लिखा जाना भी. भाषा के बारे में ऐसा
निष्कर्ष तो इसलिए भी आधारहीन है, क्योंकि भाषा अन्य विधाओं
में भी अभिव्यक्ति का माध्यम बनी ही रहनी है. चिंतन और सामाजिक व्यवहार भाषा के
माध्यम के बगैर स्वप्नातीत है.
कविता के सरल और सहज संप्रेषणीय होने का यह आशय क़तई नहीं होना चाहिए कि पाठक को कभी भी शब्दकोश का सहारा लेना ही न पड़े. अंग्रेज़ी में वर्ड्सवर्थ काव्यभाषा और जनभाषा के ऐक्य के पक्षधर थे, पर उनकी कविता का हर शब्द हर पाठक को समझ आजाता हो, ऐसा तो नहीं है. भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियां हैं :
कविता का जन्म सामूहिक श्रम के साथ जुड़ा होने का कारण, इसके (कविता के) साथ
मनुष्य का रिश्ता सुनने-सुनाने वाला रहा है. कथा का भी, क्योंकि
उसका जन्म सामूहिक विश्राम से जुड़ा है. हम लोगों का साहित्यिक संस्कार वाचिक
परंपरा से जुड़ा है. वहीं से बना-बिगड़ा भी है. कविता अनौपचारिक पठन-पाठन की चीज़
कब रही हमारी भाषा में, इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए.
शैक्षिक पाठ्यक्रमों के माध्यम से बना कविता से जुड़ाव कहीं न कहीं पाठ्यक्रम के
स्वरूप और चरित्र से नियमित-निर्धारित भी रहा है. कविता के रूप को लेकर जो आग्रह
अधिकांश कविता पाठकों के दिखते हैं, जब-तब. उसके पीछे यही
तथ्य प्रमुख कारक की भूमिका निभाता है. इन पाठ्यक्रमों से असंपृक्त व्यक्ति घर में
कविता के नाम पर यदि कुछ पढते रहे हैं, हिंदी प्रदेश में,
तो वह रामचरित मानस है, और उसे कविता के रूप
में नहीं बल्कि धर्मग्रंथ के रूप में पढ़ा जाता है.
छंद को कविता की अनिवार्य पहचान के रूप में लोक-चेतना में स्थापित कर
दिया जाना कविता की घटती लोकप्रियता का एक प्रमुख कारण रहा है. दुनिया भर की तमाम
भाषाओँ में कविता का रूप बदला है, पर मुझे याद नहीं पड़ता कि कहीं भी छंद को कविता की प्रमुख कसौटी के रूप
में रेखांकित किया गया हो. यहां तो विधिवत हिंदी साहित्य के अध्येता रहे लोग भी
इतने आग्रह के साथ इस बात को रखते हैं कि इसकी अनुपस्थिति मात्र के आधार पर वे उसे
न-कविता घोषित करने में एक पल भी नहीं खोना चाहते. इसे कुछ कवियों-आलोचकों की
दुरभिसंधि के रूप में धिक्कारने में भी कोई समय नहीं गंवाते. मुक्तिबोध-अज्ञेय तक
को इस आधार पर कवि के रूप में ख़ारिज कर देने वालों का कोई टोटा नहीं है. मुझे
लगता है कि कविता के इतिहास, और अपने समय के साथ उसके
संबंधों के निरूपण में कहीं न कहीं गहरी चूक हुई है. छंद के चले जाने से कविता के
याद रखे जाने में होने वाली आसानी कम हुई हो, इतना भर कह
दिया जाना तो समझ में आता है, केवल आसानी से याद रखे जाने की
कसौटी को कविता की परिभाषा और पहचान के साथ नाभि-नाल संबद्ध कर देने के कुचक्र ने
भी गडबड की है. छंद की जगह लय पर इतना ही आग्रह रहा होता तो शायद इतना बुरा नहीं
होता.
सुनकर चीज़ें बेहतर ढंग से और आसानी से समझ आती हैं, ऐसा कुछ लोगों का मानना
है. मंच से कविता सुनते थे तो ज़ाहिर है, शब्दों के अतिरिक्त
भी बहुत कुछ संप्रेषित होता था. जवानी के दिन थे स्मरण-क्षमता भी ज़बरदस्त थी,
इतनी कि आज पचास साल बाद भी वे कविताएं याद हैं, सुनाई जा सकती हैं, और लगभग वैसे ही जैसे कवियों के
मुंह से सुनी थीं. पढ़ने, और पढ़कर समझने में हमें अन्य
माध्यमों से वह मदद नहीं मिलती, इसलिए परीक्षा के आतंक की
वजह से या तो रटनी पड़ती है या हम आसानी से उसे अपठनीय घोषित कर देते हैं.
हमारी प्रकाशन-वितरण व्यवस्था के चलते कविता को संभाव्य पाठक तक
पहुंचाया ही कहां जाता है? पत्रिकाओं का प्रसार भी यदि अधिकांशतः साहित्यकारों के बीच ही है, तो यह माध्यम भी नए पाठक निर्मित करने में उतनी बड़ी भूमिका नहीं निभाता
जैसा कि हम सामान्यतया कहते-सुनते हैं.
कविता की नए लोगों तक पहुंच दो तरीकों से ही बनाई जा सकती है :
१.
कविता पाठ के अधिकाधिक कार्यक्रम इस तरह आयोजित करके, कि कविता को संभाव्य पाठकों के बीच ले जाना सुनिश्चित किया जा सके. कविता को श्रोता तक ले जाने से एक नए मंच का गठन भी होगा, और प्रचलित मंचों की विकृतियों से भी बचा जा सकेगा (दिल्ली में आयोजित कविता-पाठ कार्यक्रमों पर की गई टीप से ही बहस की यह “भूमिका” भी निकली है.).
२.
पुस्तक प्रकाशन को अधिक लोकतांत्रिक और सह्कारितापूर्ण (बंगाल और केरल के अनुभवों से ज़रूरी सीख लेकर) बनाने के संगठित लेखकीय प्रयासों को मूर्त रूप देकर कर कविता के पाठकों की संख्या में बढ़ोतरी सुनिश्चित की जा सकती है.
कविता के सरल और सहज संप्रेषणीय होने का यह आशय क़तई नहीं होना चाहिए कि पाठक को कभी भी शब्दकोश का सहारा लेना ही न पड़े. अंग्रेज़ी में वर्ड्सवर्थ काव्यभाषा और जनभाषा के ऐक्य के पक्षधर थे, पर उनकी कविता का हर शब्द हर पाठक को समझ आजाता हो, ऐसा तो नहीं है. भवानी प्रसाद मिश्र की पंक्तियां हैं :
जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख
और उसके बाद भी हम से बड़ा तू दिख!
क्या इसका यह अर्थ यह लगा लिया जाए कि उन्होंने जो कुछ भी लिखा वह
इतना सरल था कि पाठक को किसी भी शब्द का अर्थ किसी से पूछना ही नहीं पड़ता था? पूछने की बात इसलिए कह
रहा हूं कि आम हिंदी पाठक शब्दकोश देखने की ज़हमत उठाना ही नहीं चाहता. उर्दू का
सामान्य ज्ञान न रखने वाला पाठक उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय कविता गीत फ़रोश के शीर्षक
का अर्थ ही कैसे समझता? पढ़ते वक़्त तो शीर्षक पर ही अटक
जाता. सुनने से तो पहली पंक्ति में ही अर्थ स्पष्ट हो जाता है. कविता का काम
मनुष्य की चेतना को विकसित करना भी तो होता ही है. सरलता का अर्थ यही होना चाहिए
कि कवि जान-बूझ कर ऐसे शब्दों के प्रयोग से बचे जो सहज-ग्रहण की प्रक्रिया को
बाधित करते हैं. कविता में बिंबों/रूपकों का सहारा भी तो लिया ही जाएगा. क्या
कितनी ही बार यह नहीं होता है कि सारे शब्दों का अर्थ पता है,पर पंक्ति का अर्थ संप्रेषित नहीं होता. तो इसके लिए क्या पाठक को कोई
अतिरिक्त प्रयास नहीं करना चाहिए? या ऐसा करने से उसे क्यों
कतराना चाहिए? अर्थशास्त्र के सिद्धांतों, दार्शनिक स्थापनाओं, भौतिकशास्त्र के अथवा प्रकृति
विज्ञान के सिद्धांतों और नियमों को समझने के लिए तो सिर खपाने को तैयार पर
कवि/कविता से यह मांग कि सब कुछ सीधा-सरल परोसो तर्कसंगत नहीं है. यह बात पाठकों
तक पहुंचाई जानी चाहिए, बिना अपनी कविता को लेकर क्षमा-याचना
की मुद्रा अपनाए हुए.
कविकर्म कोई निष्प्रयोजन कर्म नहीं है. कविता-सृजन एक महत्वपूर्ण
सामाजिक / सांस्कृतिक कर्म है तो उसके सामाजिक सरोकार भी होंगे ही. इन सरोकारों की
खुली अभिव्यक्ति भी पाठकों से कवि/कविता की निकटता और जुड़ाव को सुनिश्चित करने
में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है. ऐसा होने पर अतिरिक्त कलावादी आग्रहों से
भी मुक्ति पाई जा सकती है. यह कोई छिपी हुई बात नहीं है की कलात्मकता पर अतिरिक्त
आग्रह कथ्य/अंतर्वस्तु की कमी/कमज़ोरी को ढंकने के इरादे से भी होता है. आज का
सामाजिक यथार्थ पहले की तुलना में जटिलतर बनता जा रहा है, समाज की विकृतियां भी
चुनौती बन कर सामने खड़ी हैं. ज़ाहिर है, कवि अपने समय के
सवालों से सीधी मुठभेड़ से बच नहीं सकता, और समय के सवालों
से जूझने का सीधा असर यह भी बनता है कि उन सवालों से रोज़मर्रा ज़िंदगी में जूझने
वाले लोगों के बीच कवि की प्रमाणिकता ही नहीं बढ़ती, अपनापा
भी बढ़ता है. कवि उन्हें अपना आदमी लगेगा तो उसके लिखे हुए में उनकी दिलचस्पी भी
बढ़ेगी ही. लोक से जुड़ने का मतलब यह भी है ही कि यहां-वहां कवि की अभिव्यक्ति में
वे लोकोक्तियां-मुहावरे भी जगह पाएंगे जो पाठक से उसे और घनिष्ठ रूप से जोड़
देंगे.
कविता लिखने का कोई फॉरम्युला न तो पहले था, और न अब प्रस्तावित किया
जा सकता है. ज़रूरत के मुताबिक कविता कभी बयान की शक्ल भी ले सकती है, और कभी पोस्टर पर लिखी इबारत की भी. इससे कवि की हेठी नहीं, कवि की सजगता का ही पता चलता है. श्रम के सौंदर्यशास्त्र और संपन्नता के
सौंदर्यशास्त्र में कोई फ़र्क़ तो होता ही होगा. जन पक्षधरता से कोई भी सजग कवि
कैसे बचा रह सकता है?
कविता के पाठक बढ़ें, यह सबके लिए खुशी की बात होगी, और इसके लिए अभियान
चलाने में खुद कवियों का हित भी निहित है. जब तक यह आदर्श स्थिति नहीं आजाती है,
यह निष्कर्ष निकालना तो फिर भी सही नहीं होगा कि कविता का पढ़ा जाना
बंद हो जाएगा, और लिखा जाना भी, तो
भाषा भी खत्म हो जाएगी.
कविता पंक्तियां याद रखी जा सकें, बहुत कविता पंक्तियां याद रखी जा सकें,बहुत अच्छा पर यह एक मात्र कसौटी नहीं हो सकती, कविता
की शक्ति-सामर्थ्य की.
मोहन श्रोत्रिय
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बहसतलब -२ :
कविता के विभिन्न संदर्भों पर गंभीर विमर्श। जहां तक कविता का अस्तित्व बचाने या इसे लोकप्रियता के नए आयाम देने के लिए छंद की जरूरत पर जोर देने की बात है, इसके अनेक आग्रह-दुराग्रह हो सकते हैं। हैं भी, जिन पर सविस्तार बात हो सकती है, होनी भी चाहिए, किंतु इसे अनिवार्य भला कोई कैसे बता सकता है.. जबकि हमारे यहां काव्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों तक ने यहां तक स्वीकार किया है कि कविता तो एक इकलौते शब्द तक में अपने चरम रूप में विद्यमान हो सकती है। याद कीजिए, यह ( कविता ) फूटी भी है तो किसी ताल-लयबद्ध निर्झर या संगीत-शिखर से नहीं बल्कि गहन वन में क्रौंच-वध देख आदिकवि के हृदय पर पहुंचे एक जबरदस्त आघात से... क्या यह प्रतीकात्मक घटना-संदर्भ भी अंतत: यही पुष्ट करने के लिए काफी नहीं है कि कविता के लिए संवेदना के अलावा दूसरा कोई तत्व अनिवार्य कदापि नहीं है! मोहन जी के बाकी सुझाव भी समीचिन और विचारणीय है। इस पोस्ट के लिए उनका और 'समालोचन' का आभार..
जवाब देंहटाएंबहुत से सवालों के जवाब इस लेख में आ गये हैं, जिनसे मेरी सहमति है। फिर भी एक बड़ा सवाल अभी बचा रह जाता है कि जिस व्यापक समाज की चिंता कविता करती है, उसमें कविता की कितनी चिंता है... अभी तो इतना है कि कुछ हजार लोगों के बीच ही साहित्य का पूरा खेला चल रहा है। बहरहाल, मोहन श्रोत्रिय जी ने जिस आशावादी दृष्टिकोण से अपनी बात रखी है, वही हमें बेहतरी का रास्ता दिखायेगा।
जवाब देंहटाएंमोहनदा की आख़िरी पंक्ति से संकेत ग्रहण करते हुए . लोकप्रियता कविता की कसौटी नहीं हो सकती. कम से कम कविता की लोकप्रियता सलमान खान की फिल्मों जैसी तो नहीं हो सकती . इसलिए लोकप्रियता की चर्चा करनी भी हो तो पहले तय करना पडेगा कि कविता की लोकप्रियता की कसौटियां क्या होंगी ? ग़ालिब अधिक लोकप्रिय हैं या तुलसी ?अनुज लुगुन अधिक लोकप्रिय हैं या अरुण देव ? मेरी समझ से तो ऐसी कोई कसौटी हो ही नहीं सकती , जिस से इसे किसी भरोसेलायक हद तक तय किया जा सके .
जवाब देंहटाएंआखिर कविता की लोकप्रियता की चिंता क्यों ? अगर समाज को कविता नहीं चाहिए तो उसे ज़बरिया पिलायेंगे ?''उत्पत्स्यतेस्ति मम कोपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुलाच पृथ्वी' के संकल्प के साथ भी तो कविता लिखी गयी है. या यह कि 'आगे के कवि रीझिहें तो कविताई , न तो राधा गोविन्द सुमिरन को बहानो है .
जीव जैसे बिना आक्सीज़न के नहीं रह सकता , वैसे ही समाज बिना कविता के .वह तो अपना कबीर , ग़ालिब , मुक्तिबोध , अदम कहीं न कहीं से ले आएगा .वह उन कवियों को घास डालने कभी नहीं जाएगा , जो ,अशोक वाजपेयी की तरह ,मानते हैं कि ''हिंदी समाज एक कविता- विरोधी समाज है .'' हिंदी समाज समरूप नहीं है. सवाल यही है कि आप 'किस ' हिंदी समाज के बाशिंदे हैं .
कवियों के काम की सब से बुनियादी बात निराला ने बतायी थी . भाषा की कठिनाई से कविता का लोगों तक पहुंचना नहीं रुकता . वह रुकता है कविता में भावों की गहराई की कमी से .
jo kavita jan ko chhuegi, wohi rahegee. mera prativaad un kavion se hai, jo jan ke liye kavita likhte hain, jinhen jan hi nahin parh (samajh) pata. kavita main pathniyata pahala tattva hona chahiye. jo kaam kar ke ye hasya kavi janta ko bewakoof bana rahe hain, vaisa hi jan kavion ko apni bhasha sahaj, pathniya bana kar janta tak pahunchna hi hoga. adarsh vidya mandir khol khol kar hindu dharma ke thekedaron ne ek achchhi khasi fouj khari kar li, ham communists ya jan se jude log kai dashakon tak satta ke paas rahane ke bawajood nai peerhi ko koi jan sanskar nahin de paye. kya haimen sharminda nahin hona chahiye. apni pustakon ko chhapwane, roos ki yatra karne ya malaidar sarkari tabkon main ghusne ki bajay agar ham bhi jan tak jate, to aaj desh aisa to na hota jaisa aaj hai.
जवाब देंहटाएंदेखिए,माध्यम की भी अपनी सीमाऍंहोतीहैं। नरेश सक्सेना के संग्रह का एक संस्करण बिक सकता है,वह भी एक साल में नहीं, चार-पॉंच साल में एक हजार बमुश्किल क्योंकि उसकी कीमत 90रुपये है। यह भी गरीब हिंदी पाठक के लिए मुश्किल है।वहीं शायरी एक दूसरा माध्यम है---यानी मीर औरगालिब वाली नहीं, तनिक आसान लफ्जों वाली लोकप्रिय शायरी। उसकी एक हजार प्रतियॉं एक पुस्तक मेले में बिक जाती हैं। तो माध्यम माध्यम का फर्कभी है। हिंदी कविता के आज पाठक उतने नहीं रहे जितने मैथिलीशरण गुप्त या प्रसाद या बच्चन के जमाने में रहे हैं। फिर भी कविता का सोता बह रहा है। वाणी प्रकाशन फख्र से कहता है कि उसने मुनव्व्र राना की किताबोंकी एक लाख प्रतियॉं बेचीं। बेशक वे लोकप्रिय और संजीदा शायर भीहैं। उनकी शायरी मनोरंजनवादी नहींहै। वह दिल को छूतीहै। अदम गोंडवी को ले लें। एक हीं किताब हेरफेर करके उन्होंने दो जगह से छपवाई। धरती की सतह पर के तीसरे संस्करण के नए संस्करण में जब किताबघर प्रकाशन ने अनुज प्रकाशन प्रतापगढ़ के साथ हाथ लगाया तो पिछले ही विश्व पुस्तक मेले व पटना पुस्तक मेले में उसकी 800 प्रतियां बिक गयीं। अदम जनता के शायर हैं,उनकी शायरी दुष्यंत की तरह नेताओं, बुद्धिजीवियों, कार्यकर्ताओं सबके काम आती है। इसलिए माध्यम का फर्क होता है। राधाकृष्ण को एक जमाने में कई कवियों के संग्रह पेपरबैक में रैप करबेचने पड़े । सालों वे संस्करण खत्म होने का इंतजार करते रहे। इसलिए हिंदी कविता कोई हाट केक नहीं है, मुनव्वर राणा, वसीम बरेलवी की शायरी नही है। लोग काउंटर पर आकर शायरी की ऐसी किताबें खरीदते हैं बशर्ते उसकी कीमत उचित रखी गयी हो। हिंदी के कविता संग्रह के संस्करणअब300 के होते हैं। 150 प्रतियॉं निकल जाऍं तो लागत निकल आती है,पर उसी का संकट है। वह भी निकलना मुश्किल होता जा रहा है। प्रकाशक और लेखक दोनों के सामने मुश्किल है। हिंदी कविता का आज का जो भी परिदृश्य है, कहने में हिचक नहीं कि उसमें अनेक रंगतें खिली हैं, पर इस माध्यम का संकट यह है कि यह शायरी की तरह नही बिक सकती । हम इसे अपनी ओर से पहुँचाने का प्रयास भी नही करते। हमने जो कुछ भी लिख दिया उसे अमिट मान लिया और प्रकाशक के हाथो देकर निश्चिंत हो गए। न कविता जनता तक पहुँच रही है, न प्रकाशक की लागत वसूल हो रही है। पर हॉं, कुछ भी मोहन श्रोत्रिय की तरह यकीन तो मुझे भी हे कि कविता रहेगी क्योंकि सृष्टि के आदिकाल से वह इसी तरह चलती बहती आई है। कविता की सदानीरा सूखने वाली नही है । यह हर युग में अपने समानधर्माओं को खोज लेगी।
जवाब देंहटाएंहमें लोकपियता से गुरेज नही होना चाहिए। लोक कविता की दावेदारी हिंदी में कम नही है। पर उस लोक की कविता का कोई पुछत्तर नही हे। क्योंकि उसमें लोकतत्व हैं ही नहीं। बिना लोकतत्वों की पहचान के आप लोककवि का दर्जा भले पा लें जेसे एक जमाने में राष्ट्रकवि होने की दावेदारी रखी जाती थी, पर लोक आपको पहचानेगा नहीं। बच्चन ने साइकिल पर मधुशाला बेची, पढ़ते थे मस्ती से, गातेथे, रचते थे, नागार्जुनने यही किया। अपनी किताबें बेचीं,लोगों तक पहुंचाईं। उनकी कविता लोक तकपहुंची कयोंकि लोकतत्वों की उन्हें बखूबी पहचान थी। किसे क्या चाहिए। उन्हें मालूम था। आज इतने मुद्दे हैं किन्तु कविता क्या कर पा रही है। ले दे कर वही दुष्यंत, वही धूमिल, वही अदम,पाश, बल्लीसिंह चीमा,नरेन्द्र सिंह नेगी---अरे भई इसके बाद कोन। कौन यह बीड़ा उठाएगा कि उसे लोग पहचानें कहे देखिए वो जो माथे पर साफा बांधे है वही अदम है, और जिनके बेतरतीब दाढ़ी है बूढ़े से --वो नागार्जुन हैं और वो गठीला सा सांवला जवान---वो धूमिल है---क्याकविता लिखता और पढ़ता है साब। एक संक्रमण की तरह हिंदी कविता फैले इसके लिए वे क्या कर रहे हैं।तो श्रोत्रिय जी, आज की कविता वातानुकूलित वातावरण की उपज है। यह मशरूम की तरह उगाई जा रही है। बड़ी नाजुक--कमल ककड़ी सी-- धूप की ऑंच बर्दाश्त नही कर पाती-। आज की कविता का एक सच यह भी है। और फिर भी यकीन है कि ''.....................कविता तो रहेगी !''
जवाब देंहटाएंशायरी और हिंदी कविता के मिज़ाज के फ़र्क़ को देखें और ध्यान में रखें तो कई टाली जा सकने वाली तुलनाओं से बचा जा सकता है @ओम निश्चल...आपकी कल की टिप्पणियां कविता के स्वभाव, उसकी पहुंच और सीमाओं के संबंध में महत्वपूर्ण थीं. प्रकाशन पूरी कहानी का सिर्फ़ एक पक्ष है. मेरे और आपके इस यक़ीन के( कि "पर हॉं, कुछ भी मोहन श्रोत्रिय की तरह यकीन तो मुझे भी हे कि कविता रहेगी क्योंकि सृष्टि के आदिकाल से वह इसी तरह चलती बहती आई है। कविता की सदानीरा सूखने वाली नही है । यह हर युग में अपने समानधर्माओं को खोज लेगी।") जो आधार हैं, अनेक कठिनाइयों के बावजूद, वे उम्मीद के दीए की लौ को तेज़ करती रहें, इस पर आमीन कहें.
जवाब देंहटाएं"भाषा की कठिनाई से कविता का लोगों तक पहुंचना नहीं रुकता . वह रुकता है कविता में भावों की गहराई की कमी से ." निराला को उद्धृत करके, बहुत पते की बात कह दी है, आशुतोष ने. मैं संकेत ही दे सका था इसके. "भाव" की गहराई अर्जित होती है उस जन से "समानुभूति" से,और जुड़ाव जो निरंतर संघर्षरत है, अनेक स्तरों पर.
जवाब देंहटाएंपर केवल यकीन ही नहीं, हमें अपने ओजारों की परख हर वक्त करनी चाहिए कि क्या वे असर कर रहे हैं या नहीं। सूचनाओं के इस त्वरित संचार के युग में यदि हमारी कविता उन्ही सूचनाओं जानकारियों को उलीचेगी तो उसे पाठक खारिज कर देगा। कविता को हर वक्त अपने समय से बहुत आगे चलना होता है। और आज तो निश्चय ही क्योंकि सूचनाओं की गति सत्वर है। कविता की लोकप्रियता को हम फिल्मी गीतोंकी लोकप्रियता से नहीं, कविता की अन्य विधाओं से तुलना तो कर ही सकते है। अरे कम से कम अपने पूर्वजों निराला, प्रसाद,पंत,दिनकर,बच्चन, नागार्जुन, धूमिल, दुष्यंत, जैसी लोकप्रियता से तो कर ही सकते हैं। तब किताबें कम बिकती थीं पर इन कवियों की अपार लोकप्रियता थी। क्या ये हिंदी कविता के आनंद बख्शी हैं जिनसे तुलना की बात मैं कर रहा हूँ। हिंदी कविता में क्या नही है--कितने छंद, कितनी शैलियॉं, कितनी तरह के कवियों का संसार गुलजार है----हम उनसे सीख क्यों नही लेते। आशुतोष जी। हम अपनी खानकाह में बैठ कर कविता के पाठकों की बाट न जोहें जरा बाहर की आबोहवा में घुलें मिलें भी। यहॉं तो हम एक अशोक चक्रधर के सामने ही परास्त हो कर बैठ जाते हैं। अरे वो अपने फन का माहिर है आप अपने फन के । इसमें प्रतिद्वंद्विता कैसी। आप खोजें मिल कर ऐसे कवियों की कोई काट। क्योंकि प्रतिमानों के नाम पर आपके पास क्या कुछ नही है?
जवाब देंहटाएंबहुत सही लिखा है सर आपने
जवाब देंहटाएंकविता की लोकप्रियता का सीधा संबंध उसके पठन से है, पाठकों से है. कितना पढ़ रहे हैं लोग..खासकर हिंदी कविता.
जवाब देंहटाएंबाज़ार से लेकर या नेटवर्क के ज़रिये. देखिये जब हम विदेशी भाषाओँ की कविताएँ तलाशने बैठते हैं तो हर website थोड़े से abstract के बाद paid subscription की बात करती है..शेल्फ यानी बिक्री. लोग खरीद रहे हैं क्योंकि वे पढ़ रहे हैं. कविता की विधा कम पढ़ी जा रही है,लेकिन भारतीय भाषाओं की अपेक्षा ये आंकड़ा कई आगे है. यहाँ भारतीय भाषाओँ की कितनी साइट्स हैं जो आपको बाज़ार में खींचती हैं... और यदि वे खींचेंगी तो कितनी पढ़ी जायेंगी? कितना पाठक मिलेगा उन्हें? इसका कारण क्या एक प्रगतिशील देश की मजबूरी मान लिया जाए? एक गरीब देश की विपन्नता?
ऐसा नहीं है कि कविता चुक गई है. बहुत गहरा संकट आन पड़ा उस पर. बहुत जटिल समय है. समय कब जटिल नहीं था..कविताएँ लिखी जाती रहीं. उन निराशा के दिनों में जब हम स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे.. तब औज़ार और हथियार की तरह कविताएँ या गीत लिखे गए..पढ़ने से अधिक वे गाये गए..बिकने से अधिक वे याद किये गए ..उनका पुनर्पाठ हुआ..कविता ही एकमात्र ऐसी विधा है जो बार-बार के पुनर्पाठ के बाद भी निसत्व नहीं होती.
स्वतंत्रता के बाद कविता का स्वर भी बदला....बाज़ार अभी भी लोकप्रियता से नहीं जुड़ा था. पर लेखक को बाहर आने के लिए बाज़ार जरुरी है , ये भी एक कटु सच है. "क्या भूलूं क्या याद करूँ में" हरिवंश जी अपनी विपदा सुनाते हैं ..मधुशाला जब तक लोग जान नहीं रहे थे वे उसकी प्रतियाँ लिए घूमते रहे.. गाँधी के एक भाषण में मधुशाला का अंश सुनाने का मौका मिला और किताब के दिन भी बदल गए ..तो ये स्थिति कितनी बदली है? बेहतर तो नहीं हुई है. कवि लिख रहा है ख़ास वर्ग के लिए --यानी पाठक वर्ग के लिए..मितव्ययी पाठक के लिए!
पढ़ना अपनेआप में एक वातावरण है..वह बन नहीं पा रहा. किसी भी विधा के लिए नहीं. तो कवि कवि को सुना रहा है. सुन रहा है. आयोजक भी क्या करें?
अनुनाद पर इन्हीं दिनों लेख पढ़ा था..शाश्वत कविता, कला.. आज के संदर्भों में.. कि शाश्वत के नाम पर जो कविता कलावादी ला रहे हैं वे डिपार्टमेंटल स्टोर के किसी शो पीस जैसी है...तो इस पर सोचने के बाद लगा कि क्या ऐसी कविता सही मायनों में शाश्वत हो जानी है? अभी भी मंथन है इसे लेकर. निष्कर्ष शायद इस बहस में कहीं मिल जाए. कविता का वह कौनसा तत्व है जो उसे शाश्वत बनाता है ..क्या कविता ऐसा ग्लोरिफिकेशन चाहती है?
अंत में ..आयोजकों और कविओं पर ..सीधे -सीधे बात बजट पर रूकती है. भाई असमर्थ हैं. पैसा नहीं.. कोई स्पोंसर करेगा क्या? लेखक अपना रुपया खर्च करके कहाँ तक जाए? फिर न रुकने का ठौर.. है बड़ी मुश्किल..
लोकप्रियता.. कविता ही लोकप्रिय बनाती है..और जो अन्य ज़रियों से लोकप्रियता मिल भी गई तो स्थाई नहीं होती.
अगर सरकारी खरीद की दलाली बंद हो जाये तो तो कुछ ही सालों के अन्दर क्रांतिकारी तरीके से पाठकों की बढ़ोत्तरी देखने को मिल सकती है क्योंकि तब प्रकाशक मजबूरी बस वो सारे तरीके अपनाएगा जिससे आम पाठक उसकी किताबों को खरीदे | आशुतोष जी की बात पूर्णतया इस मत को पुष्ट करती है कि- अगर जसम , जो कि पेशेवर प्रकाशक नहीं है , विद्रोही की कविता पुस्तक , खुद छाप कर दो महीने में खुद एक हज़ार बेच लेता है , तो हम डेढ़ सौ तीन सौ की बात कैसे मंजूर कर लें |
जवाब देंहटाएंविचारणीय आलेख
जवाब देंहटाएंएक सार्थक लेख ..यह बहस और आगे बढनी चाहिए
जवाब देंहटाएंबहुत संतुलित और सारगर्भित आलेख ..कवि के रूप में कविता को लेकर जितना आशावादी हुआ जा सकता है वह निश्चय ही इस अभिव्यक्ति में प्रदर्शित हुआ है ......लेकिन बात अगर सिर्फ आशा पर टिकी रहती तो आज साहित्य और कविता के पाठकों की कोई कमी नहीं होती ,आज साहित्य जो लिखते है कमोबेश पाठक भी उसके वही हैं ,आम जनता का जुड़ाव उससे नहीं के बराबर है ..आखिर क्यों है ऐसा ?आखिर कविता जैसी प्राचीन और सर्वकालिक विधा जिसमे आदि से आजतक एक से एक बेशकीमती रचनाएं भरी हैं को जनता का समर्थन और साहचर्य क्यों नहीं मिल पाया ,इस पर गंभीरता से सोचने की जरुरत है ..निश्चय ही कविता और साहित्य कभी नहीं खत्म नहीं होगी और होनी भी नहीं चाहिए लेकिन वाह अपनी शाखें फैलाकर और भी लोगो को अपनी तरफ खींचे बात तो तब असरदार होगी .....
जवाब देंहटाएंभइया,आशुतोष,आप तो प्रोफेसर हैं, कविता की नब्ज समझते हैं। निराला को भी समझते हैं ओर गालिब को भी। हम तो बैंक में काम करने वाले लोग हैं। कविता से अनुराग अध्यापकों के जरिए ही विकसित हुआ । पर निराला ने क्या नही किया। रामकी शक्तिपूजा लिखी, तो सरोज स्मृति भी, गीत भी लिखे तो गजलें भी। तमाम छंद माध्यम अपनाए उन्होंने। निराला ने अपने को निराले ढंग से रचा है तब निराला बने हैं। ऐसी मस्ती अब भला ज्ञानेन्द्रपति जैसे कुछ कवियों को छोड़ कर किसके पास बची है। इसलिए माध्यम की सीमा की बात मैंने पहले ही कह दी कि कविता शायरी नही हो सकती। उसे अपने 300 संस्करणों या हद से हद 1000 तक के संस्करणों वाली किताबों पर ही भरोसा करना होगा। हॉं कवि अपनी परंपरा के कवियों का अनुसरण करे तो इससे ज्यादा संस्करणों वाला कवि भी बन सकता है। आप को जब दो पंक्तियों में किसी बड़े सार को समाहित करना होता हैतो गालिब की शरण में जाते हैं। मीर की शरण में जाते हैं। तुलसी की शरण में जाते हैं। तुलसी ने अपने को बदला तब कहीं जाकर मानस लिखी उन्होंने। हम अपनी भाषा की कुलीनता के कवच में आबद्ध रहते हुए यह सब सुनने समझने को तेयार ही नही हैं तो यही हश्र होना है और कुछ खुशफहमियों और कुछ गलतफहमियों में जीना है। पर क्या हे कि हम भी इसी गली के आशिक हैं तो अपना भी यही हश्र है:
जवाब देंहटाएंजीना यहौं मरना यहां
इसके सिवा जाना कहां......
यह बहस किसी सिरे तभी चढेगी , जब घुल मिल गए तीन मुद्दों को साफ़ साफ़ अलग किया जाए .१.कविता की 'लोकप्रियता' २, कविता -पुस्तकों की बिक्री , ३ कवि की सेलेबता (celebrity status). तीनो अलग अलग मुद्दे हैं ., खास कर हिंदी समाज में . हिंदी प्रकाशन की मुख्य धारा भ्रष्टाचार और चोरी में गर्क है . इसने हिंदी पुस्तकों का बाज़ार खडा नहीं होने दिया है . अगर जसम , जो कि पेशेवर प्रकाशक नहीं है , विद्रोही की कविता पुस्तक , खुद छाप कर दो महीने में खुद एक हज़ार बेच लेता है , तो हम डेढ़ सौ तीन सौ की बात कैसे मंजूर कर लें . सेलेबता की बात यह है कि कबीर ग़ालिब के साथ जीने मरने वाले लोग भी उन्हें किसी चौराहे पर साक्षात देख कर वैसे टूटे नहीं पड़ेंगे , जैसे लोग उस प्रतिभा शून्य अभिनेता अभिषेक बच्चन पर टूटे पड़ते हैं . हिंदी / उर्दू का कवि बंगाली मराठी असमिया तमिल मलयालम के कवियों की तरह सेलेब नहीं हो सकता . इस के गहरे सांस्कृतिक - ऐतिहासिक कारण है .
जवाब देंहटाएंइसमें भला कौन संदेह करगी कि गज़ल सब से अधिक लोकप्रिय काव्य रूप है , लेकिन आप किस गज़ल को बचाना चाहेंगे ? राणा की ममतामयी गज़ल या यगाना की तल्ख़ तिलमिलाती गज़ल ?
रूचिया या टेस्ट डेवलप किये जाते है .जिनका आधार बचपन होता है यानी घर में माहोल ओर पाठ्यक्रम यानी हमारा एडुकेशन सिस्टम .हिंदी उसमे गायब होती जा रही है .माध्यम वर्गीय परिवार अनुशासन के चलते अपने बच्चो को कोंवेन्ट में भेज रहा है .हिंदी एक क्लास तक आते आते ऑप्शनल हो जाती है फिर करियर में आगे बढ़ने के लिए लगभग अनुपोगी . जाहिर है फिर हमेशा जटिल रहेगी . दूसरी बात हिंदी की "रीच " कम है , इसके प्रकाशकों -लेखको में जहाँ मार्केटिंग को लेकर एक संकोच ओर आग्रह की कमी है वही जोखिम लेने का माद्दा भी कम है .दूसरी बात हिंदी के अच्छे लेखको के लेखो को इंटरनेट जैसे टूल पर डालना जरूरी है जिससे उनकी रीच बढ़ेगी ओर पाठको में दिलचस्पी भी कई किताबे अनुलब्धता की वजह से भी अपठनीय रह जाती है .
जवाब देंहटाएं--"इसमें भला कौन संदेह करगी कि गज़ल सब से अधिक लोकप्रिय काव्य रूप है , लेकिन आप किस गज़ल को बचाना चाहेंगे ? राणा की ममतामयी गज़ल या यगाना की तल्ख़ तिलमिलाती गज़ल ? "----आशुतोष का सवाल वाजिब है। पर दुख है कि उनके इस सवाल में उनका मंतव्य भी छिपा है। हम यह पूछें कि निराला की सरोज स्मृति बचाना चाहेंगे कि राम की शक्तिपूजा या वह तोड़ती पत्थर। या किनारा वो हमसे किए जा रहे हैं। क्या बचाना चाहेंगे? राणा ने मॉ पर मकबूल ग़जल़े लिखी हैं और मन से लिखी हैं। वह ममतामयी है तो क्या बुरा है। उन पर यह आरोप शायरीदॉं लोगों के खित्ते से भी है। पर इस फ्लेवर से अलग भी शायरी उन्होंने की है। एक बातचीत में उनका फलसफा यह था कि :
जवाब देंहटाएंवाकिफ़ नहीं तो उसके लबों को कँवल न लिख।
अल्फाज़ को खिजाब लगा कर ग़ज़ल न लिख।
उन्होंने ही लिखा:
भटकती है हबस दिन रात सोने की दुकानों में
गरीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है।
उन्होंने ही लिखा:
हुकूमत का हर एक ईनाम है बंदूकसाजी पर
मुझे कैसे मिलेगा? मैं तो बैसाखी बनाता हूँ।
उनकी शायरी भले ही मीर और गालिब या यागाना चंगेजी के बगल न बिठाई जा सके। पर यह मनोविलास की शायरी कतई नही है। इसका समाज के मिजाज और सुख दुख से रिश्ता है। समाज में मैं भी रहता हूँ और यह समाज निरे हिंदी वार्ता विभागो, हिंदी विभागों से जुडे मित्रों, कवियों, शायरों या लेखकों का ही नहीं है, एक मिश्रित समाज है जहॉं अच्छी बात की क्रद करने वाले आपको आपकी शख्सियत से ही पहचानते हैं। हम यागाना को बचाना जरूर चाहेंगे पर शायरी कि खिदमत मे लगे और जनता के सुख से वाबस्ता राणा को भी क्योंकि शायरी को जिन लोगों ने इश्क के दैरो हरम से निकाल कर आम आदमी तक पहुँचाया है, उसमें मुनव्वर राणा भी हैं और यह भी कि शायरी उनका पेशा नही है, उनकी शख्सियत की पहचान है, धंधा तो वह ट्रांसपोर्ट का करते हैं और ग़ज़लों से मुहब्बत के चलते उसका नाम भी आखिरकार ग़ज़ल ट्रांसपोर्ट रखते हैं। आज राणा के शेर लाखों लोगों की जुबान पर हैं, यगाना को लोग भूल चुके हैं। मैं अव्वल इस ‘’भूलने के विरुद्ध’’ हूँ।
लेकिन फिर कहता हूँ, शायरी में तल्खी भी बचे और रिश्तों के अहसासात भी। शायरी और कविता में वह सब आए जिसकी समाज को जरूरत है। मनुष्य को जरूरत है। ‘’मै कविता और शायरी में उन समस्त गुणों का आवाहन करता हूँ जो बर्बरता की तरफ जाती व्यवस्था और मनुष्यता के कदम वापस खींच सकें।‘’
कविता की लोकप्रियता का सीधा संबंध उसके पठन से है, पाठकों से है. कितना पढ़ रहे हैं लोग..खासकर हिंदी कविता.
जवाब देंहटाएंबाज़ार से लेकर या नेटवर्क के ज़रिये. देखिये जब हम विदेशी भाषाओँ की कविताएँ तलाशने बैठते हैं तो हर website थोड़े से abstract के बाद paid subscription की बात करती है..शेल्फ यानी बिक्री. लोग खरीद रहे हैं क्योंकि वे पढ़ रहे हैं. कविता की विधा कम पढ़ी जा रही है,लेकिन भारतीय भाषाओं की अपेक्षा ये आंकड़ा कई आगे है. यहाँ भारतीय भाषाओँ की कितनी साइट्स हैं जो आपको बाज़ार में खींचती हैं... और यदि वे खींचेंगी तो कितनी पढ़ी जायेंगी? कितना पाठक मिलेगा उन्हें? इसका कारण क्या एक प्रगतिशील देश की मजबूरी मान लिया जाए? एक गरीब देश की विपन्नता?
ऐसा नहीं है कि कविता चुक गई है. बहुत गहरा संकट आन पड़ा उस पर. बहुत जटिल समय है. समय कब जटिल नहीं था..कविताएँ लिखी जाती रहीं. उन निराशा के दिनों में जब हम स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे.. तब औज़ार और हथियार की तरह कविताएँ या गीत लिखे गए..पढ़ने से अधिक वे गाये गए..बिकने से अधिक वे याद किये गए ..उनका पुनर्पाठ हुआ..कविता ही एकमात्र ऐसी विधा है जो बार-बार के पुनर्पाठ के बाद भी निसत्व नहीं होती.
स्वतंत्रता के बाद कविता का स्वर भी बदला....बाज़ार अभी भी लोकप्रियता से नहीं जुड़ा था. पर लेखक को बाहर आने के लिए बाज़ार जरुरी है , ये भी एक कटु सच है. "क्या भूलूं क्या याद करूँ में" हरिवंश जी अपनी विपदा सुनाते हैं ..मधुशाला जब तक लोग जान नहीं रहे थे वे उसकी प्रतियाँ लिए घूमते रहे.. गाँधी के एक भाषण में मधुशाला का अंश सुनाने का मौका मिला और किताब के दिन भी बदल गए ..तो ये स्थिति कितनी बदली है? बेहतर तो नहीं हुई है. कवि लिख रहा है ख़ास वर्ग के लिए --यानी पाठक वर्ग के लिए..मितव्ययी पाठक के लिए!
पढ़ना अपनेआप में एक वातावरण है..वह बन नहीं पा रहा. किसी भी विधा के लिए नहीं. तो कवि कवि को सुना रहा है. सुन रहा है. आयोजक भी क्या करें?
अनुनाद पर इन्हीं दिनों लेख पढ़ा था..शाश्वत कविता, कला.. आज के संदर्भों में.. कि शाश्वत के नाम पर जो कविता कलावादी ला रहे हैं वे डिपार्टमेंटल स्टोर के किसी शो पीस जैसी है...तो इस पर सोचने के बाद लगा कि क्या ऐसी कविता सही मायनों में शाश्वत हो जानी है? अभी भी मंथन है इसे लेकर. निष्कर्ष शायद इस बहस में कहीं मिल जाए. कविता का वह कौनसा तत्व है जो उसे शाश्वत बनाता है ..क्या कविता ऐसा ग्लोरिफिकेशन चाहती है?
अंत में ..आयोजकों और कविओं पर ..सीधे -सीधे बात बजट पर रूकती है. भाई असमर्थ हैं. पैसा नहीं.. कोई स्पोंसर करेगा क्या? लेखक अपना रुपया खर्च करके कहाँ तक जाए? फिर न रुकने का ठौर.. है बड़ी मुश्किल..
लोकप्रियता.. कविता ही लोकप्रिय बनाती है..और जो अन्य ज़रियों से लोकप्रियता मिल भी गई तो स्थाई नहीं होती.
अगर सरकारी खरीद की दलाली बंद हो जाये तो तो कुछ ही सालों के अन्दर क्रांतिकारी तरीके से पाठकों की बढ़ोत्तरी देखने को मिल सकती है क्योंकि तब प्रकाशक मजबूरी बस वो सारे तरीके अपनाएगा जिससे आम पाठक उसकी किताबों को खरीदे | आशुतोष जी की बात पूर्णतया इस मत को पुष्ट करती है कि- अगर जसम , जो कि पेशेवर प्रकाशक नहीं है , विद्रोही की कविता पुस्तक , खुद छाप कर दो महीने में खुद एक हज़ार बेच लेता है , तो हम डेढ़ सौ तीन सौ की बात कैसे मंजूर कर लें |
जवाब देंहटाएंअपर्णा, आपके सुचिंतन को मेरी प्रणति। याद है कि एक कथालोचिका से कहना पड़ा था कि आलोचना की भाषा को भी बदलिए तभी लोग पढ़ेंगे—यह शुष्क आलोचना नहीं। इसे शायद एक वही पढ़े जिस पर लिखा गया है दूसरे वह जो मजबूरी में शोध के अखाड़े में उतर पड़ा है। एक महिला कथाकार से कहा कि भई लिखती कहानियॉ और उपन्यास हो पर कवियों को भी पढ़ती हो। जरा केदारनाथ जी को पढ लो, कुंवर जी को पढ़ो, सच्चिदानंदन जी को पढ़ो, कुसुमाग्रज को पढ़ो, देखो कि तुम्हारी कहानी कला कितनी ऊर्जा पा सकती है। भाषा में उतराया झाग कुछ कम होगा। शब्द शब्द का वजन होगा। नाम न लूँगा लेकिन आज उस कथाकार ने एक ऊँचाई हासिल की है और यह भी कि उसमें अच्छे कवियों के प्रति कृतज्ञता भी है। स्वीकार भी है। मधुशाला की बात आपने की है, मैं लिख चुका हूँ। मुझे अपनेजमाने के मेले ठेलों की याद है 10 पैसे में लोककवियों की पुस्तिकाऍं खरीदते थे और घर आ कर बॉंचते थे। कालेज में एक हिंदी अध्यापक के लेक्चर सुनने के लिए दूसरी कक्षाओं से विद्यार्थी आ धमकते थे। आज अध्यापकों की यह कड़ी टूट सी रही है। वह हिंदी का अध्यापक कैसा जिसे सुनकर लोग एक बार ठिठक न जाऍं। कविता एक संस्कार है, जिसे जगाना पड़ता है। अब जगाने वाले नहीं रहे बल्कि कविता का भूत भगाने वाले ज्यादा हैं। हमने संस्कार जगाने वाली कविता से अपना नाता ही तोड़ लिया है। बच्चों के लिए भी हम वैसी कविताऍं लिख रहे हैं जैसी बड़ों के लिए---कौन बच्चा पढ़ेगा। पाठ्यक्रम समितियों में कविता के कितने पेशेवर लोग सम्बद्ध हैं। वे कैसी कविता प्रस्तावित कर रहे हैं? अपने मित्रों की ? अरे भाई आपकी कविता मैंने पाठ्यक्रम में लगवा दी है। यह तिकड़म चल रही है। बड़े बोल नहीं लेकिन कोई कारणनहींकि कविता आपकी शख्सियत से बोलती हो तोपास बैठने वाला दो दिन में कविता का मुरीद बन सकता है। आखिरकार जब शिवमंगल सिंह सुमन बोलते थे तो लगता था कविता मुँह से शेफाली की तरह झर रही है। अब कहॉ है वह वातावरण। अभी कुछ दिन पहले अपने शहर के कवि व्योमेश से मैंने कहा कि तुमने जो कविता कव्वाली छंद में लिखी है वह मुझे बहुत पोटेंसियल पोएम लगी। मैने गाकर सुनाया और कहा कि इस कविता से लोगों में कविता का रस जगाया जा सकता है। वह कविता है: ‘और तुम हो कि मुकदमा लिखाए देती हो।‘ जाहिर है यह बात व्योमेश को पसंद बेशक़ न आए पर मेरा मानना यही है। आप भी इसे कव्वाली की तरह गुनगुनाकर देखें, कितना जीवन है इस कविता में। पर दिक्कत यह है कि हम जीवन के छंद से तो भटक चुके ही हैं, कविता के छंद से दूर जा छिटके हैं और अपनी ही कविता में अनायास आए छंद की पहचान नही कर पा रहे। सो सब अब पाठ्य पाठ्य है, सुपाठ्य बेशक न हो। पाठ बल और पाठ्यबल में फासला बढ़ा है, बढ़ता जा रहा है, यह विडंबना है। kuchh kahen Aprna ji, Shrotriya ji ?
जवाब देंहटाएंओम जी अध्यापकों की वह कड़ी रही नहीं..बाकी कोर्स ने भी बहुत कुछ नुकसान पहुँचाया. आज NCERT की वसंत (कोर्स बी)उठा कर देखिये. बच्चे हिंदी लेखकों से अधिक अनुवादकों के नाम से परिचित हो रहे हैं. किताबों में कविता हाशिये पर है. कहानियां जो हैं उनमें भी अनुवादक बाज़ी मार गए. कुछ एक लेख हैं. कई सालों से कक्षा आठ में हजारी प्रसाद जी का "क्यों निराश हुआ जाए" पढ़ाया जा रहा है , जिसका अधिकतर अध्यापक कुपाठ्य करते आ रहे हैं. बच्चे हजारीप्रसाद जी के नाम से ही डरते हैं. आठवी पास होते ही NCERT का बच्चा नौंवी के बच्चे से सलाह पाता है - हिंदी मत लेना. ढेर सारा कोर्स. ग्रामर. रटना..और बड़े मुश्किल लेख.. समझ ही नहीं आता कि क्या हो रहा है...इसकी जड़ में टीचर है.
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद जी का नाम बच्चे नहीं जान रहे. तो औरों से उनका परिचय नहीं ही है. कई सालों से कुछ बंधी-बंधाई कहानियां पढ़ते आ रहे हैं. अध्यापकों को भी कोर्स में कुछ चेलेंजिंग नज़र नहीं आता. पढ़ाने के नाम पर कोर्स खत्म करवाया जाता है और प्रोजेक्ट्स में पाठ को दोहरा दिया जाता है. प्रोजेक्ट्स भी वे जो नेट पर मिल जाएँ. क्यों खरीदें बच्चे किताबें जब उनमें आप कुछ इन्कल्केट ही नहीं कर रहे.
बतौर पाठक और अपने बच्चों की परेशानियाँ देखते हुए यहाँ अपनी बात कही है. इसलिए यहाँ आलोचना नहीं बस अपनी चिंता है ..तो भाषा में भी वही चिंता है.यहाँ गुजरात में बच्चे तीसरी भाषा के रूप में संस्कृत , गुजराती या कोई विदेशी भाषा लेना पसंद करते हैं. हिंदी के टीचर्स बाकायदा invite करते हैं.. भाई हिंदी लो..हिंदुस्तान की भाषा है..जल्दी समझ आएगी.. व्याकरण पढ़े बच्चे कहते हैं ..सर राष्ट्र भाषा नहीं बनी अभी तक! गुजराती सारु छे.. एक पण भणवानु सरस ..
कल अनुनाद पर देवीप्रसाद मिश्र की एक कविता पढ़ी जो इस बहस में मुझे प्रासंगिक लगी..
जवाब देंहटाएंलोकार्पण : १ :
मंडी हॉउस और श्रीराम सेंटर के आसपास - इनके बीच में कहीं - किताब का लोकार्पण होने वाला था जबकि लोक को पता ही नहीं था कविता की कोई किताब भी आई है. अध्यक्ष ने अपने बोलने का नम्बर आने तक किताब पलट ली, आई. पी. एस. कवि को मुक्तिबोध बताकर मुक्ति पा ली और ग्रन्थ का लोकार्पण कर दिया – और ग्रन्थ था कि लोक में पहुंचने के बजाय राम मोहन लाइबेरी में पहुंच गया.
देवी प्रसाद मिश्र की ‘जलसा’ में प्रकाशित और अब ‘अनुनाद’ पर पुनर्प्रस्तुत जिस कविता(लोकार्पण-1) का जिक्र अरुण देव जी ने किया है, वह लाजवाब है। पूरी की पूरी संरचना गद्यमय है पर उसकी तरतीब इतनी सुगठित है कि पढते ही याद हो जाए--- और मंतव्य बहुत मारक है। हिंदी कविता इसी तरह लोक यात्रा करती रही है। लोकेषणा में आकंठ डूबे हुए कवियों को लोक-लोक बहुत सताता है। वे दिल्ली में बैठकर हिंदी कविता की कसौटियॉं तय करते हैं या कभी यह कह कर जैसे एक विस्फोट करते हैं कि कविता तो कस्बों में ही लिखी जा रही है। लोक की कविता का लोकार्पण जब तक राजधानियों में होता रहेगा, लोक का रिश्ता उससे ‘अपने अपने अजनबी’ जैसा ही होगा। याद रहे देवीप्रसाद ने ‘तद्भव’(संपादक:अखिलेश) में एक कार्टून में एक पुलिस अधिकारी को लक्ष्य कर कहा था कि ‘पुलिस में आपका दर्जा भले ही आईजी का हो, कवियों में आपका दर्जा सिपाही से ज्यादा नही है।‘ऐसे ही पुलिस अधिकारियों को समारोहों में अगवा बड़े आलोचक मुक्तिबोध या धूमिल बता कर कविता की मुक्ति यानी अंत्येष्टि कर देते हैं। ऐसे सुलभ आलोचकों, लोकार्पकों का क्या कहना? आज प्रकाशक को लाइब्रेरियों में पुस्तक की खपत की चिंता है, लोक की नहीं, कवियों को पुरस्कार और अकादमियों और अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, मैनेजर पांडेय इत्यादि की चिंता है, लोक की नहीं, तो कविता लोक तक पहुँचेगी कैसे ? लोक कवियों के हिस्से का पुरस्कार लोग वैसे हजम कर जाते हैं जैसे पशुओं का चारा राजनेता। हमारी लोकभाषाओं में एक से एक ऐसे हीरा कवि हैं कि सुनिये तो आत्मा थर्रा उठे। पर उन लोक कवियों को कौन पूछता है आज के जमाने में। यह तो ऐसे लोगों का जमाना है जिनकी प्रवृत्ति पर अरुण कमल का यह कथन सटीक बैठता है: सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार।
जवाब देंहटाएंआलेख के साथ जो विमर्श चल रहा है उसे पढ़ कर काफी अच्छा लगा..मुझे लगता है कि कविता की लोकयात्रा का अर्थ है उन आम जन को साहित्य से जोड़ना जो साहित्य नही रचते.. अभी तो जितने भी कार्यक्रम मैंने अटेंड किये हैं उनमे सिर्फ वही लोग शामिल रहे जोकिसी न किसी विधा में स्वयम लिखते हैं..या हिंदी साहित्य के छात्र हैं.. सिर्फ आकाशवाणी के एक कार्यक्रम में क्लास ४ के लोगो को श्रोताओं की तरह बुलाकर बिठा लिया गया था क्योंकि तालियाँ चाहिए थी..उनमे से जब किसी ने कहा कि कविता अच्छी लगी तो मुझे लगा कि आम जन तक पहुँच सकती है कविता..और कविता का सम्प्रेषण आम जन तक संभव है..
जवाब देंहटाएंसमस्या यह नहीं है कि कविता रहेगी या नहीं रहेगी । समस्या यह है कि चालीस करोड़ हिंदी बोलने वालों के बीच हम दो-चार-दस हजार पर बात कर रहे होते हैं और उसी में तमाम मारधाड़ हो रही होती है । इस दुखद स्थिति के लिए न कविता जिम्मेदार है और न ही लोक । आदर्श स्थिति तो यही होगी कि जीवन के लिए कविता या कोई भी कला वैसे ही जरूरी हो जाय जैसे साँस, जैसे भोजन-पानी । उन कारणों पर बहस होनी चाहिए जो ऐसा नहीं होने दे रहे और जीवन को आधा-अधूरा बने रहने पर मजबूर किए हैं । बहस का रुख उस तरफ करते ही बातें आपसी तू-तू मैं-मैं से दूर अपराध के असली मुकाम की तलाश की तरफ ले जाएंगी….
जवाब देंहटाएंजैसा मोहन श्रोत्रीय सर ने कहा.. सहकारिता से प्रयोजन सिद्ध हो सकता है. क्या साहित्य और कला में जैसे पुराने समय में गिल्ड्स होते थे , वैसे गिल्ड्स नहीं बनाये जा सकते जो कविता के लिए स्वस्थ वातावरण प्रदान करें.
जवाब देंहटाएंहिंदी कविता को नृत्य -संगीत और चित्र ,स्थापत्य से जोड़ते हुए क्या आयोजन नहीं किये जा सकते.
जैसे नुक्कड़ नाटक होते हैं, क्या कविता प्रेमी सड़कों पर आकर कविता नहीं कर सकते.
कविता के पोस्टर्स .. बच्चों से बनवाइए..प्रभात फेरियां (अनामिका जी का सुझाव था कि आप लोग करिए.)
बाल साहित्य पर विशेष बल. नेट पर ऐसी कोई पत्रिका है या नहीं ..
जब तक वातावरण नहीं बनायेंगे तब तक नहीं होगा..
घरों में हो.. स्कूलों में ..समाज में
इतने आयोजन सोसायटी में होते हैं.. सभी उत्सव, लेकिन कविता का कोई उत्सव नहीं..
बहुत पहले की बात है कि पिकासो से किसी महिला ने कहा था कि पिकासो साहब आप के चित्र समझ नहीं आते. तब पिकासो ने उस महिला से कहा कि youare not supposed to understand them. ऐसे ही अलबर्ट आईन्स्टाईन से एक महिला ने कहा कि आप की यह Theory of Relativity आखिर है क्या. आईन्स्टाईन ने सोचा इस फैशनेबल महिला को अब Theory of Relativity क्या समझाना. उन्होंने उस महिला से केवल यही कहा कि जब आप अपने प्रेमी की प्रतीक्षा करती हैं तो एक एक क्षण भी एक एक सदी सा लगता है और जब प्रेमी आ जाता है तो पूरी सदी भी उसके साथ बिताई हुई क्षण भर लगती होगी. यही तो है Theory of Relativity. दरअसल कविता का भी यही हाल है. दिल्ली में ही अजीत कौर की चित्र वीथिका में चले जाइए. अनेकों चित्र हमें समझ ही नहीं आते और हम उनके अर्थ उल जलूल ही निकलते हैं. अच्छी और उत्कृष्ट कविता को हर व्यक्ति द्वारा समझा जाना अनिवार्य नहीं है और ना ही यह बात कविता की महत्ता को घटाती है कि कविता पढ़ता कौन है. उत्कृष्ट चित्र चित्रकार ही समझते हैं और उस पर चर्चा करते हैं. अज्ञेय की कविता समझने वाले उस समय जितने थे आज अनामिका आदि की कविता पढ़ने वाले उसकी तुलना में बहुत कम होंगे. इस से न अनामिका की कविता कम स्तर या निरर्थक हो गई ना अरुण देव की या आज के किसी भी कवि की. कविता सीमित लोगों के एक क्लब सी हो गई है यह तथ्य हम भले ही स्वीकार कर लें परंतु इस से कविता अनावश्यक हो गई ऐसा समझना बिल्कुल गलत होगा. मुझे तो आम समाज में ऐसे ऐसे महानुभाव भी मिले कि 'मुंशी प्रेमचंद के बाद अगर कोई काम का लेखक पैदा हुआ है तो वह सा'ब गुलशन नंदा है!' स्पष्ट कि ऐसा बकने वाले ने ना कभी मुंशी प्रेमचंद को पढ़ा होगा ना गुलशन नंदा को. केवल सुनी सुनाई हांकता होगा. बहरहाल, साहित्य कोई कॉमेडी फिल्म नहीं है जिसे पढ़ कर हंसा जा सके ना ही चलताऊ संवेदना का स्रोत है. साहित्य गंभीरतम रचनाकारों की अनमोल अमर संपत्ति है जिसे उन सीमित गंभीरतम रचनाकारों तक ही सीमित देख हमें अपार संतोष कर लेना चाहिए. प्रेमचंद सहजवाला
जवाब देंहटाएंकविता की प्रकृति, उसकी ऐतिहासिक भूमिका और मनुष्य के मन पर बने रहने वाले असर को बेहतर ढंग से रेखांकित करता हुआ एक सार्थक और बेहद यथार्थपरक विवेचन। बधाई।
जवाब देंहटाएंकविता की सार्थकता उन्हीं भावों को पाठक के मन में उत्पन्न करना है जो लिखने के पहले कवि के मन में थे।
जवाब देंहटाएंप्रिय अरुण जी, कई दिनों से टुकड़े-टुकड़े में बहस जैसा कुछ देख रहा हूँ। सिर्फ दो बातें। पहली बात यह कि आदरणीय श्रोत्रिय जी ने ‘कविता तो रहेगी’ लेख में थोड़े में बहुत मूल्यवान कहा है। इसके लिए उन्हें बधाई। एक लेखक को ऐसे ही सधैर्य, सतर्क और संतुलित ढ़ग से अपनी बात कहनी चाहिए। श्रोत्रिय जी प्रायः अपनी बात ऐसे ही कहते हैं। दूसरी बात यह कि भाई निश्चल जी ने कई टुकड़े में अनावश्यक श्रम करके काफी कुछ कहा है। वे आलोचक हैं। आलोचक को तो कवियों और कविता को समझाने का पूरा हक है। उन्हें चाहिए था कि अपनी बात को व्यवस्थित ढ़ंग से एक छोटे से लेख में साफ-साफ कहते कि वे कवियों और कविता से चाहते क्या हैं ? बहरहाल, भाई निश्चल जी को श्रम करने के लिए बहुत बधाई। हिंदी के कई दिग्गजों ने लेख लिखें हैं। आज के आलोचक को भी सचमुच हम जैसे कविता के असंख्य छोटे-मोटे कार्यकर्ताओं को रास्ता दिखाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंआदरणीय पांडेय जी के टुकड़े टुकड़े वाले टुकड़े को पढ़कर ‘खंड खंड पाखंड पर्व’ की याद आ गयी। मेरे पास कहने को वाकई कुछ न था। यह ‘तुमको गुनगुनाता देख मैं भी गुनगुनाऊँगा’ की पैदावार थी, किन्तु इस ‘अनावश्यक श्रम’ से भी यदि कुछ आवश्यक और ‘काफी कुछ’ निकल सका तो यह भी बहुत है। यह भी कितने तोष की बात है, इसे साहित्य के गुणग्राहक ही बता सकते हैं। एक शायर के शब्दों में:
जवाब देंहटाएंहमें तो खूब है मालूम अपनी कमजोरी
भले ही कोई हमें देवता कहे तो कहे।
मैं किसी भी कविता में तल्खी, चीख, प्रार्थना इत्यादि सुनने की इच्छा के बजाय जीवन की मस्ती के तत्व ढूढ़ता हूँ। पढ़कर गाकर ठोक बजाकर देखता हूँ कि मेरे काम की है या नहीं। वह गद्य है, पद्य है या चम्पू---जो कुछ भी है, उससे ही जीवन में कलरव भरने का काम करता हूँ।
रही बात श्रम करने की, तो कलम के मजदूरों को श्रम करना ही चाहिए।
श्रोतिय जी का लेख जहाँ नैराश्य से लड़ने के लिए पर्याप्त लगता हैं वहीं लेख पर हुए चर्चा का एक एक शब्द मूल्यवान है|
जवाब देंहटाएंमैं श्री ओम् निश्चल जी के इस कथन से खुद को जुड़ा हुआ पाता हूँ "मैं किसी भी कविता में तल्खी, चीख, प्रार्थना इत्यादि सुनने की इच्छा के बजाय जीवन की मस्ती के तत्व ढूँढता हूँ" साथ ही जुड़ा हुआ पाता हूँ खुद को 'अपर्णा मनोज' जी की चिंताओं से भी|
सुश्री लीना मल्होत्रा जी की तरह ही मेरा भी अनुभव यही है कि कविगोष्ठियों और काव्यसम्मेलनों में शिरकत करने वाले लोग वही होते हैं जो स्वयं किसी न किसी तरह लेखन से जुड़े होते हैं आम आदमी (मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं आम पाठक क्यों नहीं कह पाया )पूरी तरह से इन आयोजनों से दूर है ... इधर 'सोशल मीडिया'की वजह से कुछ सुगबुगाहट जरूर है मगर वह इतनी भर कि आज शहरी पाठक को आसानी से घर बैठे और 'फ़ोकट'में कविता पढ़ने को मिल रही है और हम खुश हैं कि हम जन तक पहुँच रहे हैं |
बहस बहुत अच्छी चल रही है मेरी सबसे बड़ी चिंता हिंदी साहित्य में फ़ैली हुई गुटबाज़ी है शायद कोई इस पर भी कुछ बोले |
प्रसिद्द कवियत्री विस्साव शिबोर्श्का कहती हैं... ऐ वाणी तू मुझसे खफा न हो... मैंने तुझसे चट्टानों से भरी शब्द लिए और ताउम्र उसे घिसती रही इस कोशिश में की वे परों से हलके लगे... नोवेल विजेता इस कवियत्री की कविता पांचवी पास बच्चा भी पढ़ और समझ सकता है जैसे तुलसी का रामचरित मानस और कबीर के दोहे..
जवाब देंहटाएंअभी इस शृंखला का पहला लेख (गिरिराज जी वाला) पढ़ा व सभी टिप्पणियाँ भी। एक अनायास-सी आई टीप भी वहाँ दी। तुरंत ही यहाँ आई तो यहाँ भी टिप्पणियों में लंबा विमर्श देखने को मिला। लेख व लेख के नीचे टिप्पणियों में चल रहे विमर्श को पढ़ कर असमंजस में हूँ कि कहीं विमर्श के बहाव में न बह जाए यह रेखांकित करना कि श्रोत्रिय जी का लेख पठनीय व विचारणीय तो है ही, साथ ही आश्वस्ति भी देता है ( जिसके छीजने का यद्यपि कोई कारण नहीं होना चाहिए था किन्तु एक चलन की मानिंद लोग चिंतित रहते आए है )।
जवाब देंहटाएंइसमें कोई दो राय नहीं होनी चाहिएँ कि जब तक मनुष्य और उसकी संवेदना बनी रहेगी, तब तक कविता बनी रहेगी। भले ही लोग कविता की पुस्तकों की बिक्री के कम होने को कविता के मर जाने या मरने की ओर जाने का नाम देते रहें। कविता इन सारे आँकड़ों और जमा घटा से बेहद अलग चीज है, जब आलोचना को इसकी पुष्टि हो जाएगी, वह दिन हिन्दी साहित्य के निकट भविष्य में शीघ्र तो नहीं आएगा किन्तु असंभव भी नहीं है।
पाठकों के कम होने का रोना और पुस्तकों की बिक्री कम होना या आयोजन न होना किसी साहित्यसमाज के काव्यसंस्कार के अंतिम प्रतिदर्श नहीं होते।
अलमतिविस्तरेण !
बंधुओं कविता पढ़ी जा रही है कि नहीं। कितनी लोकप्रिय है। इसके चाहनेवाले और दिवाने खत्म हो गए। इन प्रश्नों को उठाने और उस पर बहस करने से कभी भी कुछ हाथ नहीं लगेगा। क्योंकि कविता कोई उत्पाद नहीं है, जो उसके ऊपर बहस करके कमियों की सूची बनाकर, उनके अनुसार आप सुधार कर, नयी-नयी कविता पैदा कर देंगे और उसे हाथों हाथ ले लिया जाएगा। कविता कभी भी अपने समय में लोकप्रिय नहीं रही है। क्या तुलसी का राम चरितमानस जो कि हर घर में नहीं तो दूसरे- तीसरे घर में जरूर मैजूद है, और उसकी चौपाईयों को तो उत्तर-प्रदेश के गांवों में दैनिक जीवन में प्रयोग होते हुए, अपने कानों से सुना हूँ। लेकिन क्या यह रामचरित मानस जब लिखा जा रहा था या लिखकर पूरा हुआ था तब भी इतना लोकप्रिय रहा होगा। मुझे शक है क्योंकि उस समय को पढ़ने-लिखने की क्षमता तो सिर्फ कुछ चुनिंदे लोगो में हुआ करती थी। भविष्य में समय ने इस को पल्लवित किया। यही संयोग आप सभी बड़ी रचनाओं के साथ देख सकतें हैं। हमारे समय की सबसे महत्वपूर्ण कविता - अधेरे में, को आज कितनी लोकप्रियता मिली है। क्या लोकप्रिय न होने से इस कविता का कोई कद छोटा हो गया, या मुक्तिबोध कविता के दायरे से बाहर हो गए। मोहन जी की बात से मैं सहमत हूँ। कविता कभी खत्म नहीं होगी। कविता पाठकों की किसी एक पीढ़ी या काल के लिए सृजित नहीं होती है। इसका वितान बहुत बड़ा होता है। दरअसल हमारा समय बाजार युग है। इस समय में सार्थकता को उत्पाद के तात्कालीन मूल्य और लोक स्वीकृति के आधार पर तय की जाती है। इस स्थीती में कला भी दो विभागों में विभाजित दिखाई देती है। एक वह जो इस बाजार की जी हजूरी करती है। इस तरह की कला की जीभ लटकती रहती है, लार टपकता रहता, पूंछ हिलती रहती है और बाजार उसे पुचकारता रहता है। बाजारयुग में बाजार जिसे पुचकारेगा वह लोकप्रिय तो होगा ही। कला का दूसरा स्वरूप मानवीय मूल्यों के साथ खड़ा है। जहाँ संस्कृति, भाषा और समाज का एक सशक्त घरातल है, लेकिन यह धरातल बाजार के चकमक से चौंधियाए हुए लोगों को नहीं दिखाई देता है। कविता चूँकि सदैव जिम्मेदार रही है, इसलिए दूसरे स्वरूप में ही ज्यादा सार्थक तरीक से उपलब्ध है। अतः यह बाजार के तौर- तरीकों के न केवल विरूध है, बल्की हस्तक्षेप है। फिर आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि कविता लोकप्रिय होगी। जब तक समाज है, संस्कृति है और भाषा है तब तक यह खत्म नहीं होगी, क्योंकि ऊर्जा यहीं से ग्रहण करती है। जब समाज,संस्कृति और भाषा नही होंगे, तब लोकप्रिय और अलोकप्रिय बनानेवाले लोग कहाँ होंगे। यह आकलन कठिन नहीं है। इसलिए बजाए कविता के बचने और मरने के हमें यह देखना होगा, इसको खोलनेवाला औजार कैसा है, वह क्या कर रहा है। वस्तुतः आलोचनाशास्त्र के मृत्यु की सम्भावना है। आलोचना की समस्या है, यह- न कि कविता की। हिन्दी आलोचना में सत्तात्मकता ने जो तबाही की है, उसकी खुरचन ही हाथ लगेगी जब हम कविता के बचने और मरने पर बात करेंगे।
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