यह कविता मैंने गणेश पाण्डेय द्वारा संपादित ‘यात्रा’-७ अंक में पढ़ी. शहतूत का कीड़ा रेशम
नहीं पैदा करता – वह तो अपना प्राकृतिक कार्य करता है, पर इस कर्म को मनुष्य ने
अपने लिए उपयोगी पाया और शुरू हो गया यातना और हत्या का अंतहीन सिलसिला. नील कमल
ने इस लम्बी कविता में बहुत ही सधे ढंग से समाज में निरीह पर किसी न किसी ने रूप
में प्रभु वर्ग के लिए उपयोगी वर्गो के मूक दमन की ओर संकेत किया है. इस कविता में
अजन्मे शिशुओं की हत्याओं पर कवि का शोक और
शोषण – तन्त्र पर समझ भरा आक्रोश कविता में अजब सा गूंज पैदा करता है जो
देर तक पाठकों के मन में गूंजता रहता है.
इस वर्ष
नील कमल का नया कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ है. यह कविता भी इस संग्रह में है.
शहतूत के बगीचों से
लम्बी कविता :
ककून
(नील कमल)
शहतूत के बगीचों से
वे उठा लाए हैं हमें अजन्मा
और उबाल रहे हैं हमारी ज़िन्दगियाँ
देखो देखो,
वे हत्यारे
जिनके चेहरों पर चमक सिक्कों की
लकदक जिनकी पोशाकें नफासत वाली
देखो, वे हमें
मारने आए हैं
आवाज़ें जिनकी रेशमी मुलायम
शहद जैसी मीठी तासीर वाली
शहतूत के बगीचों में आओ, ओ कवियों
उठाओ हमें किसी एक पत्ती से
अपने कान तक ले जाओ,
आहिस्ता
सुनो कभी न थमने वाला शोकगीत !
शहतूत के पेड़ ही थे हमारे घर
उन्होंने उगाए शहतूत के जंगल
हमारी भूख के हथियार से किया
हमारा ही शिकार,
ओ सरकार
भूख ही रहा हमारा अपराध
उत्तर दिशा में, हिमालय
पार
एक रानी पी रही थी चाय
अपने शाही बगीचे में
तभी एक गोल सी चीज़
आ गिरी चाय के कप में
रानी को आता गुस्सा
इससे पहले ही चाय के कप में
तैरने लगी कोई चमकदार सुनहरी चीज़
रेशा-रेशा हो फैल गई वह, चमक बन
रानी की आँखों में
जारी हुआ फरमान
पता करो कहाँ से आई
वह गोल सी चीज़,
आख़िर कहाँ से
हाय, उसी दिन
पहचान लिए गए
हमारे घर,
जो थे वहीं
शहतूत के पेड़ों पर
हद तो यह कि एक खूबसूरत स्त्री ने
अपने बालों में छुपा ही लिया हमें
और निकल पड़ी वह सरहद पार
रानी के कप में गिरी गोल सी चीज़
जानी गई दुनिया भर में
“ककून” के नाम से
बीज के भीतर
जैसे सोता है वृक्ष
सोये थे हम ककून में
उसे फोड़ कर निकलना था
हमें उड़ना था खुली हवा में
हाय, मारे गए
हम अजन्मे !
रेशा-रेशा हुए हम,
ओ सभ्य लोगों
और रेशम कहलाए,
सुनहरे-चमकदार
शहतूत की पत्तियाँ खाईं हमने और
उन्हें बदल दिया इस धरती के
सबसे मुलायम धागों में
उन धागों से
बुने गए,
ओ लोगों
दुनिया के सबसे गर्म और
आरामदायक स्कार्फ,
कमीज़ें और साड़ियाँ
कितने ककून मारे गए
तब बना उसके गले का स्कार्फ
क्या वह लड़की जानती है
हमारी हत्याओं के बारे में
क्या उसे पता भी है
शहतूत की पत्तियों के बारे में
किसी रईस आदमी के तन पर
सजी एक आधे बांह की कमीज़
जब हजारों की तादाद में मारे गए हम
किसी प्रेमिका को जन्मदिन पर
उसके प्रेमी ने उपहार में दी
जो बेशकीमती साड़ी उसके लिए
कई हज़ार ककून नहीं बढ़ा सके
अगला कदम ज़िन्दगी की ओर
टूटी हमारी साँसों की डोर
तो सबसे हल्की पतंगों ने
छुए नभ के छोर
सबसे हल्की डोर
हमारी साँसों से बनी है
पत्तियाँ शहतूत की
हरी-हरी पतंगें ही तो हैं,
हमारी देह में उड़ती हुई पतंगें !
क्या रेशम पहनने वालों ने
देखी होंगी पत्तियाँ शहतूत की,
क्या उन्हें मालूम है
अथाह रसीलापन है इसमें
यही पत्तियाँ रहीं आसरा
हमारे लिए,
क्षुधा के निमित्त !
क्षुधार्त जीवन इस पृथ्वी पर
सबसे बड़ा अभिशाप
भूख नाम न सही किसी व्याधि का
शायद किसी दैत्य का ही नाम हो
हर युग में जिसे मारना रहा असंभव
वह
मर-मर कर अमर रहा
युगों-युगों तक अपराजेय इसी पृथ्वी पर
हत्यारों,
क्या तुम बना सकते हो
चित्र शहतूत की एक पत्ती का ?
न सही रंग कोई रेखाचित्र ही आँक दो
और बाद इसके
आसमान के कैनवास पर उसे टाँक दो
अपने बच्चों से कहो
किसी दिन वे उठाएँ पेंसिल
और ड्राइंग की कॉपी में
बनाएँ पेड़ एक शहतूत का
एक-न-एक-दिन वे ज़रूर पढ़ेंगे
अपनी किताबों में,
रेशम के कीड़ों के बारे में
तब वे बचाना चाहेंगे पेड़ शहतूत के
जिन बच्चों ने नहीं देखे
शहतूत के पेड़ों पर ककून
वे कैसे समझ पाएंगे
मिस शालिनी माथुर की
गुलाबी-नीली साड़ियाँ
किन धागों से बुनी गईं
पिछली सर्दियों में
क्लास के सबसे शर्मीले
लड़के जॉन कंचन टप्पो ने
बगल में बैठने वाली गुमसुम
लड़की साइकिया मोनांज़ा को
क्रिसमिस के दिन जो गुड़िया दी उपहार
उसकी फ्रॉक भी निकली रेशम की !
इस रेशम-रेशम दुनिया की
खुरदुरी कहानी हैं हम,
ओ प्रेमियों
हमारे जीवन-चक्र के साथ यह कैसा कुचक्र
जॉन कंचन टप्पो ने
पढ़ा है अपनी किताब में
पढ़ा है साइकिया मोनांज़ा ने
कि हुआ करता है कीड़ा एक
रेशम का,
जो पाया जाता है
शहतूत के पेड़ों पर
शहतूत की डाल पर
चलती है लीला
रेशम कीट लार्वा की
जिसकी भूख है राक्षसी
चाट जाता है जो
शहतूत की पत्तियाँ
और अपनी देह से अब
तैयार करता है एक धागा
लपेटता चला जाता है खुद को
अपने ही धागों में
जुलाहों के इतिहास में
कहीं ज़िक्र तक नहीं उनका
जो खुद अपनी ही देह से
कातते सूत,
सुनहरे-मुलायम
यह तसर
यह मूँगा
यह एरी
एक से बढ़ कर एक
ये अद्भुत अनुपम धागे
यह देह-धरे का दण्ड ?
हाँ, देह-धरे
का दण्ड ही तो
कि इस धागे के पीछे भागे
कितने ही आमिर-उमराव
भागे राजा-मंत्री-सैनिक
गंधर्व-किन्नर-अप्सराएँ सब
राजा-परजा सबके सपनों में
रहा चमकता धागा वह एक सुनहरा !
मरना होगा,
मरना ही होगा
रेशमकीट उन लार्वों को
यही उनके देह-धरे का दण्ड
आखिर सुनहरे मृगछाल के लिए
भागे थे प्रभु स्वयं इसी धरा पर
यह तो मामूली कीट अतिसाधारण
खूब खाए पत्ते शहतूत के
छक कर चूसे रस और अब
कात रहे हैं पृथ्वी पर उपलब्ध
सबसे मुलायम-चमकदार सूत
कि बना रहे कब्र अपने ही लिए
कैसा अद्भुत यह घर रेशम का
इसी घर में बनने थे पंख
इसी घेरे में रची जानी थीं आँखें
इसी गोल रेशमी अंडे के भीतर से
फोड़ कर कवच,
तोड़ कर धागे
संवरना था एक जीवन को
पूरा होना था एक चक्र
जीवन-चक्र एक रेशम कीट का !
रहीं अवरुद्ध हमारी आवाज़ें
क्योंकि देश का अर्थ बाज़ार
लगता है कभी-कभी कि देश
बड़ी सी मण्डी है रेशमी इच्छाओं की
एक बहुत बड़ा पेड़ शहतूत का यह देश
जिसके नागरिक ककून करोड़ों में
उतना ही बढ़ने दिया जाएगा इन्हें
की मण्डी में आता रहे रेशम
प्रभुओं के लिए
कौन हैं,
कौन हैं ये प्रभु
जिनके लिए बिना पूरा जीवन जिए
मर जाते हैं हम,
कि मार दिए जाते हैं
मुट्ठी भर प्रभुओं के तन पर रेशम का मतलब
करोड़ों नागरिक ककूनों कि असमय मृत्यु
स्कूलों में मारे जाते शिशु-ककून
कॉलेजों में मारे जाते युवा-ककून
घरों में दम तोड़ती स्त्री-ककून
दफ्तरों कारखानों में
मृत्यु का वरण करते
मजदूर-ककून !
नियति उन सबकी एक
जीवन उन सबका एक
मृत्यु उन सबकी एक
मुट्ठी भर रेशमी ज़िंदगियों के लिए
करोड़ों के खिलाफ यह कैसा एका
नहीं नहीं यह नहीं चलेगा
प्रभुओं का यह दुर्ग ढहेगा
शहतूतों के पेड़ उगेंगे
रेशम वाले फूल खिलेंगे
लेकिन यह सब कौन करेगा ?
पीठ पर जमी
जिद्दी-मैल सी चिपकी
रेशमी इच्छाएँ
मरेंगी
हाँ मरेंगी अंततः क्योंकि
धैर्य हमारा चुक रहा है
शहतूत के पेड़ों पर
काते जा रहे सूत से
इस बार नहीं बनेंगे
स्कार्फ,
कमीज़ें और साड़ियाँ
करोड़ों ककून चटकेंगे एक साथ
बिखर जाएंगे रेशा-रेशा हवाओं में
रस्सियाँ बहुत मजबूत मोटी रेशम वाली
होंगी तैयार और निकल पड़ेंगी गर्दनों की तलाश
में ...
__________
__________
नील कमल
(जन्म 15 अगस्त 1968 (वाराणसी ,
उत्तर प्रदेश))
कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक, गोरखपुर
विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर (प्राणि-विज्ञान)
कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ एवं स्वतन्त्र लेख हिन्दी की महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिकाओं में
प्रकाशित, हिन्दी के अतिरिक्त बांग्ला में भी लेखन, कुछ
कविताएँ व लेख बांग्ला की साहित्यक पत्रिकाओं में भी प्रकाशित.
दो कविता संग्रह "हाथ सुंदर लगते हैं" २०१०
में तथा
“यह पेड़ों के कपड़े बदलने का समय है” २०१४ में प्रकाशित
सम्प्रति
पश्चिम बंगाल सरकार के एक विभाग में कार्यरत
२४४,
बाँसद्रोणी प्लेस (मुक्त-धारा नर्सरी के.जी. स्कूल के निकट), कोलकाता-700070.
यह कविता यात्रा 7 की उपलब्धि तो है ही, निश्चय ही नील कमल की एक शानदार कविता है। चकित करने वाला भरोसा है इस कवि में। यह नील का मजबूत भरोसा नही तो और क्या है कि वे अपनी इस कविता के लिए किसी नामी-गिरामी पत्रिका की जगह असहमतिमूलक पत्रिका यात्रा को चुनते हैं। धन्यवाद नील यात्रा को चुनने के लिए। धन्यवाद तो अरुण को भी कविता को देखने की अपनी बहुत प्यारी आँख के लिए।
जवाब देंहटाएंयह मेरी पसंदीदा कविता है जो नील कमल के दूसरे कविता संग्रह यह पेड़ों के कपड़े बदले का समय है में संकलित है। संग्रह पढ़ रहा हूं... जल्दी ही उसपर कुछ लिखने का मन है। बधाई अरूण दा और नील कमल जी को....
जवाब देंहटाएंककून के बहाने असवेदनशील तंत्र और समाज की व्यापक पड़ताल करने वाली कविता है यह. यात्रा में इसे पड़कर बेहद अच्छा लगा था.
जवाब देंहटाएंकवि, संपादक और मॉडरेटर को बधाई.
जैसे एक विलाप... एक शोक गीत...जिसके भीतर गुस्से की चिंगारियां इंतज़ार में हैं.
जवाब देंहटाएंमुझे भी यह कविता पसंद आई.कवि को बधाई और कामनाये .
जवाब देंहटाएंमैंने भी ’यात्रा’ में ही पढी है नील कमल जी को बधाई इस लम्बी लेकिन बहुत ही अच्छी- पैनी कविता के लिए
जवाब देंहटाएंगहरी बात, प्रकृति की।
जवाब देंहटाएंनीलकमल जी आपकी कविता ने उद्वेलित किया। इसे कई बार पढ़ा और एक भूली हुई कविता बार-बार लौटकर आती रही।
जवाब देंहटाएंइन पंक्तियों पर मैं ठहरी रही -
शहतूत के बगीचों में आओ, ओ कवियों
उठाओ हमें किसी एक पत्ती से
अपने कान तक ले जाओ, आहिस्ता
सुनो कभी न थमने वाला शोकगीत !
धीमा शोकगीत और कवि के कान एक ऐसा वातावरण रचते हैं जहाँ से पाठक इतनी आसानी से लौट नहीं सकता। वह पूरी तरह कविता की गिरफ्त में हो जाता है।
इस कविता के साथ मैं डगलस की एक कविता को भी याद कर रही हूँ। शहतूत के कीड़ों के पंख हैं या शहतूत के धारीधार पत्ते ! मौसम कैसे दोनों को एक कर देता है, पत्तों में बंद उनकी आत्माएं कैसे बाहर को धकेली जा रही हैं !
श्रमजीवी पीढ़ियों पर डगलस की एक लम्बी सांकेतिक कविता है जो शहतूत के पत्तों पर पलने वाले रेशम के कीड़ों को शताब्दियों से संदूकों में बंद देख आहत है। डगलस इन कीड़ों को आदिम जातियों में बदलते देखते हैं जिनकी पीड़ा भी उतनी ही आदिम है जितने वे कीड़े! कवि को लगता है कि एक दिन उनकी तन्द्रा टूटेगी और वे आज़ाद होंगे पर इस लगने से पहले ही उनकी सुरक्षा में तैनात कितने हाथ उनकी तरफ तूफ़ान की तरह लपकते हैं , पुरातन आवाज़ों से घिरे रेशम के ये कीड़े रात के मंगल गीतों से पहले ही नरक कुंड में गिर जाते हैं। अपनी जगहों पर मरते हुए वे अब भी किसी आह्लाद में एक दूसरे की तरफ बढ़ते हैं। एक सफ़ेद कीड़ा रेंगता है दूसरे कीड़े की तरफ ,खुद में सुरक्षित ,प्यार में दूसरे की देह से लिपटता हुआ, मृत्यु की देहर पर जीवन की टीस का संगीत लिए। उनके पंख बज उठते हैं और मरते हुए वे सोचते हैं कि ये स्वप्न है उड़ान का।
तीन वर्ष पहले जबलपुर में एक यात्रा के दौरान मैंने रेशम बनने की पूरी प्रक्रिया को समझा था. उस समय मन में जो पीड़ा उभरी थी वह इस मार्मिक कविता ने फिर हरी कर दी. संसार में खूबसूरती के पीछे जो यातना छिपी है वह दबी रह जाती है और सिर्फ आवरण पर प्रतिक्रिया की जाती है. ऐसे में यह कविता सच्चाई का जो ताना बाना बुनती है उससे मुक्त हो पाना मुश्किल है. कवि नीलकमल को बधाई और यात्रा, आ गणेश जी और अरुण जी को शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंबहुत अर्थवान कविता..... वाह नीलकमल...
जवाब देंहटाएंपीड़ा का महाकाव्य और करुणा का संगीत....बहुत ही मर्मस्पर्शी.... हार्दिक बधाई....किताब पढ़ने की व्याकुलता है...
जवाब देंहटाएंपीठ पर जमी
जवाब देंहटाएंजिद्दी-मैल सी चिपकी
रेशमी इच्छाएँ मरेंगी
हाँ मरेंगी अंततः क्योंकि
धैर्य हमारा चुक रहा है
शहतूत के पेड़ों पर
काते जा रहे सूत से
इस बार नहीं बनेंगे
बहुत अच्छी कविता है नील कमल की। बहुत बहुत बधाई।
कविता पसन्द आई मुझे बहुत।
जवाब देंहटाएंसादर,
प्रांजल धर
nilkamal ki kavita kkun me savendna ka marm vykt hua he .kavita pasand ai
जवाब देंहटाएंशहतूत के पेड़ों पर
जवाब देंहटाएंकाते जा रहे सूत से
इस बार नहीं बनेंगे
बहुत अच्छी कविता है नील कमल की। बहुत बहुत बधाई।
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