मोहन कुमार डहेरिया की कविताएँ


कविता में जो जीवन देखते हैं और उसे बदलने का सपना रखते हैं, मोहन कुमार डहेरिया उसी परम्परा के कवि हैं. मोहन की कविताएँ सामाजिक विडम्बनाओं की शिनाख्त करती हैं और जहाँ जरूरी है वहां चोट भी, उनमें विचलित करने का आवश्यक काव्य-तत्त्व भरपूर है.

कवि मोहन डहेरिया की चर्चा न जाने क्यों नहीं होती है?

उनकी कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं. देखें.   

 

मोहन कुमार डहेरिया की कविताएँ


 

 


१.

काशवाणी में कविता पाठ                        

 

कहा जब आकाशवाणी के उद्घोषक ने

बिल्कुल सपाट है कविता पाठ में आपकी आवाज़

आश्चर्य और विस्मय से भर गया मैं

आवाज़ में की उतार चढ़ाव लाने की कोशिश

तो लगा

पथरीला हो चुका मेरा कंठ खोकर लचीलापन

भूल चुका उसके अंदर का जादूगर अपनी कला

 

ऐसे कैसे हो सकता है

पहले तो ऐसी नहीं थी मेरी आवाज़

कितने-कितने रंग थे उसमें

गुस्से में आती उसमें बिजली के कड़कने की आवाज़

देख दूसरों के दुःख दिए के तेल में भीगी बाती सी हो जाती

छोड़ती सांत्वना का प्रकाश

भूत प्रेतों के जिक्र में विस्मय से भर जाती

शरारत में देखते बनता उसका खिलंदड़ापन

ज़ाहिर है

उत्सुकता, जोश, हर्ष तथा ग्लानि जैसे भावों की

हुआ करती उसमें सहज आवाजाही

कहा फिर उद्घोषक ने

आप कोशिश तो कीजिए

मनुष्य की आवाज़ ही तो है

कोई पहाड़ तो नहीं कि हिले- ही नहीं                      

किया मैंने फिर प्रयत्न

हो गया पर पसीना- पसीना

बिफरकर अब बोला उदघोषक

एकदम गद्यात्मक है आपकी आवाज़

श्रोताओं को अपनी लहरों में उछालने- डुबाने में अक्षम

लगा संभव नहीं अब मेरे लिए

आवाज़ के पेड़ों पर चिड़ियों सा फुदकना

 

निकला अंततः वहाँ से होकर लज्जित, अपमानित

कुढ़ता- बुदबुदाता

अरे ! किसने छीन ली मेरी आवाज की पद्यात्मकता

इतना चट्टानी कैसे हो गया मेरी आत्मा का हारमोनियम.

 




२.

कविताओं का मेरे अंदर आना

                           

काट ही रहा होता हूँ बेटी के जन्म दिन का केक

गिन रहा होता हूँ नोट

स्वीकारता प्रमोशन की बधाइयाँ

कौंधती तभी मेरे अंदर कविताएं

कहती हुई शरारत से स्टेचू

अचानक कहीं खो गए देख उड़ाते बच्चे मजाक

डॉक्टर को दिखाओ कहती जलभुनकर पत्नी

 

अक्सर होता है मेरे साथ

कहीं भी घुमड़ जाती मेरे अंदर कविताएं

वक्त-बेवक्त

कई बार की जबकि लिखने की कोशिश

एक शब्द भी नहीं लिख पाया

दबोच लिया जैसे किसी रेगिस्तान ने

भर गई पेन के अंदर रेत

सोचता हूँ कहाँ चली जाती मेरे अंदर से कविता 

खा तो नहीं जाती उन्हें मेरी दैत्यनुमा नौकरी

रेंगने तो नहीं लगी स्वयं की ग्लानि की नाली में कीड़ों सा

पाठकीय आक्सीजन की कमी भी 

कर सकती मृतप्राय उन्हें  

झुलस सकती अपने आशावाद की लपटों में

क्षत-विक्षत कर सकते है उन्हें फूहड़ तानों के भालें

शायद रहती हो मुझमें ही

मेरी धुंध भरी काव्य दृष्टि न पहचान पाती हों उन्हें

 

ले ही रहा होता हूँ बतौर मुख्य अतिथि गुलदस्ते

उठा होता है नाचने के लिए पैर 

दहकता रात्रि में पत्नी संग प्रेमालाप में शरीर

कि फट पड़ते मेरे ऊपर कविताओं के बादल

कह रहे हों जैसे

मात्र इतने नहीं हैं एक मनुष्य के काम

सिर्फ इतनी ही नहीं एक कवि की जिम्मेदारी.

 

 

३.

एक माँ का एकालाप

                 

मत झांक आसमान से हसरतों से अपने घर को ओ मेरी गुड़िया

माना कि जन्मदिन आज तेरा

लड़कियों के रहने के काबिल अभी भी नहीं यह देश

 

अभी भी

पुलिस थाने के सामने से गुजरते समय

सत्यमेव जयते के बोर्ड को देख पड़ जाता तेरे भाई पर विक्षिप्तता का दौरा

कॉपी में तेरी लिखाई को घूरते घंटों तेरे पिता

जैसे अक्षरों के बीच से निकलकर कूद पड़ेगी तू उनकी गोद में

न यहाँ लौटने की सोच

लड़कियों के रहने के काबिल नहीं अभी भी यह देश

 

अभी भी गुड्डा-गड्डियों का खेल खेलते-खेलते

आँखों में फेविकोल उड़ेल देता गुड्डे की भूमिका निभाता लड़का

हाथों को दबा देता पत्थरों के नीचे

अचानक हो अंधी तथा आवाक

भयानक यातना से चीखने लगती सचमुच की गुड़िया

कि लाल सुर्ख गर्म सलाख में कैसे तबदील हो गया उसका प्यारा गुड्डा

लड़कियों के रहने के काबिल नहीं अभी भी यह देश

 

अभी भी

लड़कियों से बलात्कार के बाद जन प्रतिनिधि फरमाते

लड़कों का तो खून ही गर्म

गलती का होना स्वाभाविक

हमारी संस्कृति में लक्ष्मण रेखा भी तो कोई चीज है

उसे लांघा ही क्यों

तो कहते धर्मगुरु

ली होती हमसे दीक्षा,  बंधवाया होता धागा

किया होता अभिमंत्रित गुरुमंत्र का पाठ

छूते ही भस्म हो जाते असुरे

नहीं मेरी मुनिया लड़कियों के रहने काबिल नहीं अभी भी यह देश

 

अभी भी

हर बलात्कार के बाद महिला अधिकार आयोग की अध्यक्षा

एयरपोर्ट पर देती फोटोग्राफर को फेशनेबिल कैप में तरह-तरह के पोज

कहती खिलखिलाकर हँसते हुए पत्रकारों से

और कितना बोर करोगे पूछपूछकर, कुछ जाँचफाँच भी करने दो

दूर कहीं जेल में पहुँचती यह कूट भाषा

गूँज उठती सारी बैरकें अपराधियों के हिंसक अट्टाहासों से

लड़कियों के रहने के काबिल नहीं अभी भी यह देश

 

अभी भी

सिहर उठता उस वीभत्स दृश्य को याद करके

तेरे जननांग से दारू की बोतलों के टुकड़े, कीलें और गिट्टी निकालने वाला डॉक्टर

रात भर बर्राता दुःस्वप्न में और चीख मारकर उठ जाता अक्सर

अपनी दुधमुंही बच्ची को फिर सीने से लगा लेता कसकर

मेरी लाडो न

लड़कियों के रहने के काबिल नहीं अभी भी यह देश

 

मैं जानती हूँ बेटी

दम घुटता होगा अंतरिक्ष के विराट सुनसान में तेरा

काटे नहीं कटता होगा समय

याद आता होगा अपना कॉलेज, मोबाइल और चुलबुली सहेलियां

पर अभी भी

इस जंगलनुमा देश में शिकारी कुत्ते दौड़ादौड़ाकर कर रहे बेटियों का सामूहिक आखेट

न्यायनुमा गेंद से मस्त होकर खेल रहे वकील और न्यायाधीश

चल रही बुद्धिजीवियों के बीच नूरा कुश्ती

हर त्रासदी पर दूरदर्शन पर पढ़ता देश का सबसे सम्मानित व्यक्ति हृदय विदारक शोक संदेश

सुनाई देती जिसकी प्रतिध्वनि हम माताओं को यों

कहा हो राष्ट्रीय स्वांग के बाद जैसे कैमरामैन से फुसफुसाकर

प्रसंगानुकूल तो पहने थे मैंने कपड़े

अच्छे से उभरे न चेहरे पर दुःख और तकलीफ के भाव

अगर संतुष्ट न हो तो इससे भी बेहतरीन शॉट दे सकता हूँ

 

जा मेरी गुड़िया लौट जा उसी दुनिया में वापस

लड़कियों के रहने के काबिल नहीं अभी भी यह देश.

 

 

(Photo by Magali Tarouca)


४)

बूढ़ा

 

ये कैसा बूढ़ा है

उफनतीहती आँखों में  बाढ़ के जल सी पुरानी तारीख़ें

किसी नाग के फन की छाया में रहती स्मृतियाँ

याद करता बीता हुआ समय

टटोलता मानों पीठ का कूबड़

 

ये कैसा बूढ़ा है

बैठा रहता  हमेशा खाट पर नंगे बदन

कहता आने जाने वालों से

जरा पीठ तो खुजा दे रे

बीड़ी तो ला दे

 

ये कैसा बूढ़ा है

हर वक़्त खाँसता थूकता बलगम

ढूँढता अखबारों में

गंजापन से मुक्ति के उपाय

कामशक्ति बढ़ाने की दवाएं

 

अरे बूढ़ों की तो रही है एक शानदार परंपरा

एक ने तो अपनी पीठ को ही एम्बुलेन्स में बदल दिया

बीस गाँवों के मरीजों के अस्पताल पहुँचने का वही अब सहारा

एक ने की नदी की हाड़ तोड़ जनूनी परिक्रमा

उकेरे विलक्षण चित्र

रचे मार्मिक आख्यान

एक के पैरो में है स्टील राड़

पहनता फिर भी तीस किलो की चौसठ गांठों वाली पोशाक

कि जीवित रहे कथकली नृत्य

एक बूढ़ा ऐसा भी रहा है

आधी रात में भी जंगलों में निकल पड़ता

विलुप्त होती प्रजाति की किसी तितली की क्षीण सी पुकार पर

बताते हैं उसकी शव यात्रा में

प्रकृति ने दिखाई अद्भुत आतिशबाजी

परिंदों ने किया था अविसनीय रुदन

 

ये कैसा बूढ़ा है

बुढ़ापा इसके चेहरे पर है अलौकिक प्रकाश चक्र सा

धरती पर पैर नहीं चरण कमल रखता

करता सूक्तियों की भाषा में बातें

बनाता मनुष्यों के जीवन संघर्षों को और कठिन

 

उफ !ये कैसा बूढ़ा है

अक्सर खड़ा रहता है अपने ही घर के सामने

पूछता हर किसी से

कौन सी सुरंग ठीक रहेगी

इस घर के मर्म तक पहुँचने के लिए.

 




५)

समाधि

                    

पूछा गया जब धर्मगुरु से

गरीब किसान की जमीन अपने आश्रम के लिए हथियाने के बारे में

छटपटा उठा वह भीषण आध्यात्मिक कष्ट से

व्यस्त हो जैसे किसी देवता की प्राण प्रतिष्ठा में और आ गए बीच में राक्षस

पूछा गया जब धर्मगुरु से

मठ का महंत बनने के लिए क्यों करवाई प्रतिद्वंद्वी साधु की हत्या

बजाने लगा जोर- जोर से शंख

अखंड जोत सी जलने लगी उसकी आँखें

आ गया तांडव नृत्य की मुद्रा में शरीर

सत्य के पक्ष में मानों उसके पास यही पुख्ता प्रमाण

पूछा गया जब धर्मगुरु से

क्या खाता था वह कामशक्ति बढ़ाने वाली जड़ी- बूटियाँ

और दीक्षा देने के बहाने किया उसने नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार

कहा उसने

काम वासना को वर्षों पहले कुचल डाला ब्रह्मचर्य के मूसल से

बची नहीं वीर्य की एक भी बूँद तपस्या के तप से

इसके बाद विश्व के कल्याणार्थ

किसी महान धर्म ध्वजा सा लहराने लगा अपनी जटाओं को

तब कहा किसी ने काफी प्रमाण है पुलिस के पास उसके खिलाफ

संभावना उसके गिरफ्तार होने की

सुनते ही चौंका वह और अचानक समाधि में चला गया

बुरी तरह आहत जैसे इन तुच्छ मानवीय सवालों से

और रही नहीं रुचि इस मृत्युलोक में

 

बाद में पता चला

समाधि के अंदर था कोई गुप्त रास्ता

जिससे होकर विदेश में जा बसा धर्मगुरु. 

 

__

मोहन कुमार डहेरिया
1 जुलाई 1958, छिंदवाड़ा (मप्र)

 

कहाँ होगी हमारी जगह’, उनका बोलना’, न लौटे कोई इस तरह’, इस घर में रहना एक कला है’.  कविता संग्रह प्रकाशित.

 

कविताओं के उड़िया एवं मराठी में अनुवाद हुए हैं.

सुदीप बनर्जी स्समृति म्मान, शशिन सम्मान आदि से सम्मानित.


पता: नई पहाड़े कॉलोनी, जवाहर वार्ड, गुलाबरा छिंदवाड़ा

छिंदवाड़ा  (मप्र) 480001/ mohankumardeheria@gmail.com 

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  1. हिन्दी कविता की दुनिया भी विचित्र है । यहाँ कुकवियों को माथे पर बिठाया जाता है और सुकवियों को किनारे किया जाता है । मोहन कुमार डहेरिया सुकवि हैं इसीलिए उपेक्षित हैं । डहेरिया इस तरह हरिश्चंद्र पांडेय और नरेंद्र जैन की परम्परा के कवि हैं । इतनी सुंदर कविताएँ पढ़वाने के लिए समालोचन का आभार ।

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  2. मंजुला बिष्ट14 अप्रैल 2021, 1:31:00 pm

    मैं इन कविताओं को सेव कर रही हूँ...
    आकाशवाणी में कविता पाठ,एक माँ का एकालाप...हर कविता मानवता के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करने के बाद भी कितने आराम से दृश्य से बाहर हो जाती है,लेक़िन अपने पीछे अथाह बेचैनियाँ छोड़कर।
    मोहन जी को हार्दिक बधाई... असीम शुभकामनाएं!��
    समालोचन पर इन कविताओं को स्थान देकर हमें पढ़वाने के लिए अरुण जी का बहुत आभार!

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  3. दया शंकर शरण14 अप्रैल 2021, 1:34:00 pm

    मनुष्य की संवेदना का छरण तेजी से हो रहा है।इस बात की गवाही और तस्दीक़ हमारे समय की कविताएँ भी देती हैं। आदमी के भीतर का राम अब रावण में बदल रहा है। एक पेशेवर यांत्रिकता हम पर हावी है।क्रूरता अपने चरम पर है।ऐसे में शोक कविताएँ हीं लिखी जा सकती हैं। समालोचन पर इन कविताओं के लिए कवि को साधुवाद!

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  4. राकेश मिश्रा14 अप्रैल 2021, 1:36:00 pm

    बेहतरीन कविताएँ हैं । साधुवाद मोहन जी और समालोचन को ,,, बहुत सुन्दर प्रस्तुति है ।

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  5. अपनी परंपरा के नायाब और अनूठे कवि। उनकी कविताओं का मुरीद हूं।

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  6. बहुत खूब लिखा है सर आपने। दिल को छू गयी आपकी कविता आभार।

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  7. पहले भी पढ़ता रहा हूँ मोहन जी। आकाशवाणी में कविता पाठ और बूढ़ा - ग़ज़ब! ‘बूढ़ा’ दो बार पढ़ चुका - इस कविता के मर्म की सुरंग आख़िरी पंक्ति !

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  8. "आकाशवाणी में कवितापाठ", "बूढ़ा", बहुत बढ़िया कविताएँ हैं।

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  9. मोहन जी की कविताओं का मुहावरा बहुत अदभुत है....उनकी कविताओं की हर पँक्ति नयी विवेचना करती है।...समालोचना के मंच पर उनकी उपस्थिति हेतु आपको साधुवाद अरुण जी

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  10. बहुत प्रभावशाली कविताएं

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  11. बहुत सुन्दर कविताएँ। 'सिर्फ़ इतनी ही नहीं कवि की ज़िम्मेदारी'....तो कवि ने अपने समय-समाज के सच को बेहद सरल मुहावरों में उजागर किया है। मन के हारमोनियम पर जबरन साधी जा रही Harmony से मोहभंग होता है इन कविताओं को पढ़कर ।

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