रज़ा : जैसा मैंने देखा (१०) : अखिलेश


सैयद हैदर रज़ा की कला और शख़्सियत पर आधारित अखिलेश का यह स्तम्भ ‘रज़ा: जैसा मैंने देखा’ धीरे-धीरे अपनी सम्पूर्णता की तरफ बढ़ रहा है. किसी मूर्धन्य चित्रकार को समझने का यह हिंदी में दुर्लभ उद्यम है.

अखिलेश जितने बड़े चित्रकार हैं उतने ही शानदार लेखक भी. इस दसवें भाग में फ़्रांस में अपने प्रवास और रज़ा और उनकी पत्नी जानीन के साथ अपने बिताये समय को उन्होंने बड़ी ही खूबसूरती और आत्मीयता से उकेरा है.

फ्रांस की आबोहवा, रज़ा-जानीन की मेहमाननवाजी और फिर रज़ा के अकेलेपन को यहाँ पढ़ा जा सकता है. 


 

रज़ा : जैसा मैंने देखा (१०) 
सफेद वाइन की पारदर्शिता और जानीन का चले जाना                               
अखिलेश              


 

न्नीस सौ सत्तानवे को पहली बार मैं फ़्रांस गया. रज़ा साहेब के निमन्त्रण पर, बल्कि उनकी पत्नी जानीन के निमन्त्रण पर. मैं अमेरिका से लौट रहा था. टॉसन विश्वविद्यालय, मैरीलैंड ने मुझे तीन माह के लिए आमन्त्रित किया था. जिसमें भारतीय समकालीन कला पर मेरा व्याख्यान था और भारतीय चित्रकारों की एक प्रदर्शनी मैंने वहाँ के लिए संयोजित की थी. अमेरिका की ऊबा देने वाली नकली चमक से उखड़ा मन बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं था इस फ्रांस की यात्रा को लेकर. मैं जल्दी से जल्दी भारत पहुँचना चाहता था. यहाँ रज़ा साहेब के साथ दस दिन रहने का और उनके साथ बात करने का मौका मिलेगा, यही बस एक कारण था जो मुझे एयरपोर्ट पर उतरने के बाद टैक्सी में रज़ा साहेब के घर लिए जा रहा था. रिऊ द शारोन पर जब मैं टैक्सी से उतरा, तो उस प्राचीन इमारत की तरफ़ देखा,  उसकी खिड़की पर रज़ा साहेब का मुसकुराता, स्वागत करता चेहरा दिखाई दिया. मुझे आश्चर्य भी हुआ इतनी सुबह रज़ा साहेब उठकर तैयार थे और मेरा इंतज़ार कर रहे थे. रज़ा साहेब जिस ईमारत में रहते हैं वो पंद्रहवीं शताब्दी में ईसाई धर्म में दीक्षित नन के लिए सराय जैसी इमारत थी. जिसमें अलग-अलग कमरे हुआ करते थे. जिसमें नन रहा करती होंगी. रज़ा साहेब का घर पहली मंजिल पर ही था. पुरानी इमारत की समय-समय पर मरम्मत होती रही और बहुत ज्यादा फेर-बदल न करते हुए उसमें पुरानापन सीढ़ियों से लेकर दीवारों और उसकी खिड़कियों पर फैला हुआ था. सीढ़ियां चढ़ते हुए लकड़ी की सीढ़ियाँ आवाज़ करती थीं. 

पहली मंजिल के दरवाजे को खोलने के पहले ही रज़ा साहेब ने दरवाज़ा खोला और मुझे गले लगा लिया. मैंने उन्हें प्रणाम किया और उनके घर में हम दाख़िल हुए. अन्दर जानीन थी. मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा. जब मैंने देखा, सामने दीवार पर मेरा चित्र टंगा था. मुझे याद है यह चित्र रज़ा साहेब ने दिल्ली की एक प्रदर्शनी से ख़रीदा था. इसके साथ दो चित्र और खरीदे थे जो कागज़ पर थे. औपचारिकता की जगह नहीं बची थी.  मेरे मन से अमेरिकी अवसाद हवा हो गया था. जानीन ने बतलाया कॉफ़ी तैयार है. हम लोग उनके शयन-कक्ष जिससे जुड़ा ही रसोईघर था, उसमें खिड़की किनारे रखी एक मेज की दोनों तरफ़ बैठे. जानीन ने कॉफ़ी लाकर मेज पर रख दी. वे सामने ही बिस्तर पर तकिये का सहारा लेकर बैठ गयीं. हम कॉफ़ी पी रहे थे और रज़ा ने संक्षेप में ही अमेरिका की यात्रा के बारे पूछा. इसके बाद वे मुझे पास के घर में ले गए, जहाँ मेरे ठहरने का प्रबन्ध था. रज़ा ने बताया कि पहले एक कमरा ख़रीदा था फिर दूसरा और फिर तीसरा जो उनका घर है. जिसमें एक शयनकक्ष और रसोईघर है. दूसरा बीच का कमरा है, जहाँ खाने की मेज है. मेहमानों के लिए है तीसरा कमरा जो रज़ा का स्टूडियो है. यह घर जो दो कमरों का है, जानीन के माता-पिता का था. अब उनकी मृत्यु के बाद जानीन  के स्टूडियो के उपयोग में आता है. घर में ही जानीन की एचिंग मशीन रखी थी. एक तरफ़ दीवार से टिके बहुत से चित्र रखे थे. जिनमें ज्यादातर रज़ा के ख़रीदे हुए चित्र थे, जो उन्होंने समय-समय पर भारतीय चित्रकारों से ख़रीदे थे. कुछ चित्र उनके भी थे और कुछ जानीन के. रज़ा बड़े उत्साह से दिखाने लगे. वहाँ राजेन्द्र धवन, प्रभाकर कोल्टे, लक्ष्मण श्रेष्ठा, सतीश पाञ्चाल, योगेन्द्र त्रिपाठी, सीमा, दो चित्र मेरे भी, जोगेन चौधरी, तैयब मेहता, जरीना, कृष्णा-रेड्डी और कुछ अनजान कलाकारों के भी काम थे. जिनका नाम रज़ा ख़ुद भूल चुके थे.

रज़ा ने पूरा घर दिखाया. मेरे लिए सोने की जगह दिखलाई. जिस पर बाघ प्रिन्ट की चादर डाली गई थी. रज़ा ने कहा जानीन ने खुद यह कमरा ख़ासतौर पर तुम्हारे लिए तैयार किया. यह कमरा उनके पिता का शयनकक्ष था. कमरे की एक खिड़की बाहर सड़क की तरफ़ खुलती थी. वहाँ रेक में बहुत सी फ़्रांसीसी भाषा की पुस्तकें रखी हुई थीं. इसके बाद उन्होंने रसोई घर और स्नानघर दिखलाया और तैयार होकर मुझे बारह बजे तक आने का समय दिया. मुझे छोड़कर रज़ा चले गए और मैं अपना सूटकेस खोलने फ़ैलाने में लग गया. 

दोपहर जब मैं पहुँचा रज़ा स्टूडियो में काम कर रहे थे और जानीन रसोईघर में थीं.  मैं बैठा उन्हें काम करते देखता रहा. उनके स्टूडियो का जायज़ा लेता रहा.  एक तरफ़ दो बड़े रैक थे, जिनमें किताबें भरी हुई थीं. उसी के नीचे खुले खाने में बहुत से प्रिन्ट रखे हुए हैं. सामने की तरफ़ एक अलमारी थी, जिसमें कोई पल्ले नहीं थे. उनके खानों में बहुत सी छोटी-मोटी अनेक मूर्तियाँ रखी हैं. मैंने ध्यान से देखा, उसमें   गणेश, बाल-गोपाल, कृष्ण, शिवलिंग, क्रास पर टंगे ईसा-मसीह, कलश, उनके गुरु मोहन कुलकर्णी का छायाचित्र, कई तरह की तावीज, मालाएँ, चूड़ियाँ, जीसस का फोटो, ताज़ा फूल, दो नारियल, कई तरह की जली हुई मोमबत्तियाँ, मरियम और शिशु जीसस की लकड़ी की नक्काशी की हुई एक छोटी सी मूर्ति, हिंदूइज़्म, ईसाईयत, इस्लाम, गीता-प्रवचन बाइबिल, कुरान, रामचरितमानस, तुलसीदास के दोहे की पुस्तक, कुछ और पुस्तकें, कुछ कागज़, कई कैटलॉग, एक छोटी सी फ्रेम में पुराना कोई चित्र, कुछ कलम आदि रखे हुए थे.



एक शीशी में मण्डला से लायी गई मिट्टी, माँ का फोटो, अपने शिक्षक का फोटो, नीचे तीन-चार बोतलों में वर्धा, दमोह, शान्तिनिकेतन से लायी गई मिट्टी, एक बड़ा सा शंख, हनुमान की मूर्ति, कुछ मूर्तियाँ, अल्मारी के खानों से लटकी अनेक मालाएँ, पूरी अल्मारी भरी हुई अनेक यादों से जो उनका बीता हुआ समय था, जिसे बाद में उन्होंने करीने से समेट रखा था. अलमारी के पास वाली दीवार पर एक लकड़ी की पुरानी मूर्ति टंगी थी. बायीं तरफ दरवाजे पर अमृता शेरगिल का फोटोग्राफ लगा था जो किसी भारतीय प्रदर्शनी का पोस्टर था. उसी के पास दीवार पर  मिनिएचर का एक पन्ना खूबसूरत ढंग से फ्रेम किया टंगा था. उसी के नीचे जानीन का एक कोलाज. रज़ा का छोटा सा चित्र. पूरे स्टूडियो का माहौल चित्रमय और उनकी सुरुचि से बिखरा हुआ सा जमा था और दीवार से टिका रज़ा का अभी-अभी पूरा किया हुआ एक बड़ा चित्र रखा था. रज़ा चित्र में डूबे थे. मैं उनके स्टूडियो में रखे चित्रों को देख रहा था. एक तरफ़ रैक में बहुत से कागज़, फाइल, फैक्स मशीन, फिल्मों के कैसेट्स, फिल्म रोल, कैमरा, ट्रायपॉड, लैम्प और कई तरह की चीज़ें थीं जो दिख भी रही थीं और जिसे उस वक्त देख पाना सम्भव नहीं था. रज़ा को जानीन ने आकर फ्रेंच में कुछ कहा और रज़ा ने अपने हाथ का ब्रश आहिस्ता से धोया फिर उसी बर्तन में छोड़ उठ खड़े हुए. वे बोले, चलिए ड्राइवर आ गया है.

हम लोग नीचे आये. वहाँ कार खड़ी थी. और रज़ा ने मुझे बैठने का इशारा किया. हम दोनों कार में बैठे- रज़ा ने उन्हें कुछ कहा और कार चल पड़ी. रज़ा ने कहा आप पहली बार पेरिस आये हैं मैं आपको थोड़ा पेरिस दिखा देता हूँ. थोड़ा देख लेते हैं. आप शहर को जान जायेंगे. उस दिन सबसे पहले हम लोग रज़ा जिस स्कूल एकोल द बोज़ार में पढ़ते थे, वहाँ गए फिर लूव्र, म्यूजे डोरसे, शांजे-लिज़े, मोमात्र, मैं पेरिस देख रहा था कार चल रही थी. रज़ा साहेब हर जगह के बारे में बताते जा रहे थे. आपको यहाँ आना है, यहाँ कल हम लोग आएंगे, ये देखिये रौदां का शिल्प. हम लोग लगातार कार में चल रहे थे. किसी भी जगह उतर कर नहीं गए और रज़ा लगातार कल या बाद में आने की बात कर रहे थे. वे चाहते थे पेरिस की एक झलक मुझे मिल जाए और मैं शहर में अजनबी सा न महसूस करूँ.

मोमात्र में एक रेस्तराँ में रुके और रज़ा साहेब ने कहा यहाँ कुछ खा लिया जाये. पहले मैं यहीं रहता था. पिकासो, शागाल और बहुत से कलाकारों के स्टूडियो यहीं थे. हम लोग रेस्तराँ के बाहर एक मेज पर बैठ गए. पेरिस के रेस्तराँ की यह बात मुझे अजीब लगी कि सभी लोग सड़क की तरफ़ मुंह करके बैठे थे. रज़ा साहेब ने पूछा अन्दर बैठना चाहेंगे या बाहर ? मुझे बाहर अच्छा लग रहा था, सो हम लोग बाहर बैठे. थोड़ी ही देर में बैरा हम दोनों के सामने बियर रख गया. वो इतना ज्यादा व्यस्त था कि उसके पास सुनने के लिए भी समय न था. किसी तरह उसे समय मिला. हमारा खाना आर्डर हुआ रज़ा साहेब ने सिगरेट निकाल कर मुझे ऑफर की और एक खुद जला ली. रज़ा साहेब लगातार बात कर रहे थे. मुझे बता रहे थे और मैं जो भी पूछ रहा था उससे बात बढ़ रही थी. ऐसा नहीं लग रहा था कि खाना खाने का काम ख़त्म करना है और घूमना शुरू करना है. इत्मीनान से बैठे हम दोनों सिगरेट बीयर पीते हुए समय को पी रहे थे. खाना आया. हम लोगों ने खाया और अब थोड़े सुरूर के साथ कार में बैठे थे. रज़ा ने ड्राइवर से कुछ पूछा, कुछ कहा और हम लोग फिर चल पड़े. दिन भर कार से पेरिस के सभी महत्वपूर्ण जगहों, नॉत्र-दोम, पोम्पेदू सेंटर, पाले द वसाई, पिकासो म्यूजियम, डाली म्यूजियम, पेरिस म्यूजियम ऑफ़ मॉडर्न आर्ट, पाले द तोक्यो, ग्रैंड पैलेस, मोला-रुज़, रिउ द रिवोली, बस्ती ओपेरा दिखाया और शाम के लगभग सात बजे तक हम घर लौटे.

मैं अपने कमरे में चला गया. रज़ा साहेब ने नौ बजे आने का कहा. वहाँ मैंने रखी किताबें देखना शुरू की, जिसमें ज्यादातर फ्रेंच किताबें थीं. कुछ साहित्य, कुछ वास्तुशास्त्र, चित्रकला, कैटलॉग्स, इतिहास, अन्य देशों पर किताबें आदि अनेक पुस्तकें देखते हुए मुझे समय का ध्यान नहीं रहा और दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी. रज़ा साहेब का चिंतित स्वर सुना और घण्टी बजी. मैंने दरवाजा खोला. रज़ा साहेब चिन्तित से बोले आप सो गए थे क्या? दस बज रहे हैं आप नहीं आये तो मुझे चिन्ता हुई. मैं चकरा गया दस बजे हैं और मुझे पता न चला, आसमान में रोशनी शाम के छह बजे सी है. हम दोनों उनके घर गए. खाने की मेज पर जानीन ने स्वागत किया. रज़ा साहेब ने बढ़िया वाइन की बोतल निकाली और तीन गिलास भरे. जो टेबल पर रखे थे. मेज पर नया मेजपोश बिछा था. कई तरह की प्लेट, छुरी-काँटे रखे हैं. रज़ा साहेब ने बतलाया आज जानीन ने विशेष फ्रेंच ढंग का भोजन तैयार किया है. ख़ास तुम्हारे लिए.

फ्रेंच डिनर प्रसिद्द भी हैं घण्टों चलने के लिए. उसका अन्दाजा होने वाला था. जानीन ने कई तरह के पकवान बनाये हुए थे और वे एक के बाद एक रसोईघर से ला रही थीं. रज़ा साहेब और मैं बातों में लगे थे. वे भी बीच-बीच में इसमें हिस्सा लेती थीं और इस तरह वाइन और खाना और बातें चलती रही इस बीच रज़ा ने कहा मैं एक कविता सुनाना चाहता हूँ और उन्होंने जानीन को लक्ष्य करते हुए अज्ञेय की यह कविता सुनाई जो उन्हें कण्ठस्थ थी. बीच में वे जाकर स्टूडियो से अपनी डायरी 'ढाई आखर' ले आये, जिसमें यह कविता लिखी हुई थी मगर उन्होंने उसे खोलने की जरूरत नहीं समझी. जब वे सुना रहे थे उनकी आँखों में थोड़ी शरारत और थोड़ी सी हरारत चमक रही थी. उन्होंने जानीन को फ्रेंच में अनुवाद भी कर के सुनाया और शायद ये कविता कई बार सुना चुके थे कि जानीन बीच-बीच में कुछ शब्द ठीक भी करती रहीं. कविता है : 

जब आवे दिन
तब देह बुझे या टूटे, इन
आँखों को
हँसते रहने देना.
 
हाथों ने बहुत अनर्थ किये
पग ठौर-कुठौर चले,
मन के
आगे भी खोटे लक्ष्य रहे
वाणी ने (जाने-अनजाने) सौ झूठ कहे पर आँखों ने
हार
दुःख
अवसान
मृत्यु का
अंधकार भी देखा तो
सच-सच देखा

                   

शाम बहुत शालीन और स्वादिष्ट होती जा रही थी. रज़ा ने बतलाया कि अब जो पकवान आने वाला है उसके साथ वाइट वाइन ही पी जाती है अतः ये ग्लास खत्म कीजिये. फिर उन्होंने वे ग्लास ले जाकर अन्दर रख दिए. मेज पर रखे दूसरे ग्लास में सफ़ेद वाइन डाली गयी. खिड़की के बाहर का उजाला फैला हुआ था. रात के ग्यारह बज रहे होंगे और मुझे लग नहीं रहा था कि इतनी देर हो चुकी है. लज़ीज खाने के बाद जानीन चीज़ लेकर आयीं. वे कई तरह के थे. जानीन ने बतलाया ये फ़्रांसिसी खाने का सबसे महत्वपूर्ण भाग है और उन्होंने उन चीज़ के बारे में बतलाना शुरू किया, ये नॉरमैंडी का चीज़ है जो बहुत ही स्वादिष्ट होता है इसके लिए जो दूध इस्तेमाल किया जाता है उनकी गायें जमीन पर घास नहीं चरती वे पहाड़ों पर रहती हैं बारह सौ फिट ऊपर.

'कॉमते' पूर्वी फ्रांस में ही होता है. फ्रांस के अलग-अलग प्रान्त में बनने वाले चीज़ दिए गए, 'कमेमबेर' 'रुफोर' 'ब्री' और सबसे आख़िर में ब्लू चीज़ जो फ्रांस और स्विट्ज़रलैंड की सीमा पर बनाया जाता है जिसे बाहर के ज्यादा लोग पसन्द नहीं करते हैं इसमें बैक्टीरिया होते हैं यह एक तरह का जिन्दा चीज़ है. मुझे सबसे स्वादिष्ट वही लगा और यह जानकर जानीन को ख़ुशी हुई. उन्होंने एक के बाद एक सभी चीज़ मुझे खिलाये और ब्लू चीज़ दोबारा दिया. यह मेरे लिए भी नया था. इसके पहले मैंने चीज़ खाये नहीं थे. हमारे यहाँ पनीर जो मिलता है वह अलग किस्म का ताज़ा पनीर होता है और उसका चलन वहाँ न था. ब्लू चीज़ वाकई बहुत स्वादिष्ट है यह मैंने उस रात जाना. 

शाम का समापन रज़ा ने कोन्याक से किया उसके लिए अलग छोटे ग्लास निकले गए. एक ही बार में उसे पीना था. यह भी मैंने पहली बार पिया. और दो बार पिया. कोन्याक वही है जिसे हम one for the road के नाम से जानते हैं. निर्मल जी की कहानियों में कोन्याक पढ़ने को मिला था इसके पहले वैन गॉग की जीवनी Lust for Life में उसे कॉगनेक ही पढ़ता रहा था उसकी स्पेलिंग Cognac के कारण.

उस शाम रज़ा ने एक बात और कही और यह भी कहा इसे याद रखियेगा. वे बोले आप पेरिस आयें हैं और यहाँ कई लोगों से मुलाक़ात भी होगी और वे लोग आपको रात खाने पर आमंत्रित भी करेंगे. आप ध्यान रखियेगा कि यदि उन्होंने शाम को आठ बजे बुलाया है तब आप कोशिश कर आठ बजे ही पहुँचिएगा और यदि देरी हो रही है तब उन्हें फ़ोन कर दीजिये कि आप सवा आठ बजे तक आएंगे. यदि साढ़े आठ बजे आप पहुँचे तो यह जरूर बताएँ कि ट्रैफिक के कारण देरी हुई और इससे ज्यादा देर हो रही है तब मत जाइये. दूसरे दिन फ़ोन कर माफ़ी माँग लीजिये. यहाँ हिंदुस्तान से लोग आते हैं और समय का ध्यान नहीं रखते. जैसे आज आप भूल गए थे नौ बजे आना. खुद के बोले शब्दों पर भरोसा कीजिये और उसका पालन कीजियेगा. यह मेरे लिए बड़ी सीख थी. इस बात पर कभी ध्यान नहीं गया था.  

दूसरे दिन मैं तैयार होकर आया. हम लोगों ने नाश्ता किया और रज़ा बोले आपको मैं मेट्रो में कैसे चलना है यह बतला देता हूँ. उन्होंने बताया यहाँ इस कटोरे में मेट्रो के सिक्के रखे हैं, वहाँ एक कटोरे में बहुत से प्लास्टिक के हरे रंग के सिक्के रखे थे, उन्होंने कहा आप जब बाहर जायें ये सिक्के साथ ले जाया करें और उन्होंने कुछ सिक्के ख़ुद लिए कुछ मैंने अपनी जेब में डाल लिए. रिउ द शारोन स्टेशन पास ही था, रज़ा साहेब ने बतलाया कैसे सिक्का रखकर अन्दर आना है. वहाँ लगे नक़्शे को पढ़कर किस प्लेटफार्म पर जाना है और इस तरह हम लोग मेट्रो में उनके कॉलेज गए. जिसमें एक स्टेशन पर कैसे मेट्रो बदलना है, दूसरे पर पहुँच कर सवार होना है, इस विस्तार के साथ बतलाया कि मैं कुछ ही दिनों में मेट्रो सवारी का विशेषज्ञ हो गया था. उस दिन हम लोग मेट्रो से कई जगह गए और हर बार रज़ा साहेब ने मेट्रो-मैप पढ़ने और दिशा जानने का तरीका बतलाया. इस तरह उनका कॉलेज, लूव्र, शांजे-लीज़े, गारे द नोर्द, और पूर्वी स्टेशन तक गए. रज़ा ने इन यात्राओं में मेट्रो बदलने, मेट्रो-मैप पढ़ने और प्लेटफार्म तक पहुँचने के संकेत पढ़ने में मुझे पारंगत कर दिया था. दिन भर का सफ़र किया और वापस आये. रज़ा थक भी चुके थे और मेरे मन में घूमने का उत्साह बचा हुआ था. 

पेरिस में आये मुझे तीन दिन हो चुके थे और मैं अब अपनी मर्जी से घूम रहा था. रात का खाना हम लोग साथ खाते थे और रज़ा दिन भर क्या किया सुनते-बतलाते रहते. जानीन तरह-तरह के फ़्रांसीसी भोजन तैयार करती थी और अमेरिका जहाँ का खान-पान मुझे बिलकुल ही पसन्द नहीं आया था और जो एक उदासीन मुल्क लगा मुझे, जिसमें सब एक दूसरे से उदासीन अपने न जाने कौन-कौन से काम में लगे रहते थे जिसमें व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का महत्व था, निजत्व को कोई छू नहीं सकता था और सब कुछ एक जैसा दिखाई देता था. उसके बरक्स लज़ीज फ़्रांसीसी भोजन वाकई लुभा लेने वाला था. चीज़ के प्रति मेरी रुचि देख जानीन के चीज़ खजाने में कई और नए चीज़ आ चुके थे और खाने के बाद वो खाने से ज्यादा रुचि से जानीन मुझे परसती थीं. लूव्र में कर्मचारियों ने हड़ताल कर दी थी इस कारण लूव्र बंद है और मैं देख न सका. जानकर जानीन रोज़ टेलीविजन पर खबरें लगा लेती थीं और ताज़ा जानकारी सुनाती रहती थीं. रज़ा भी मजाक किया करते थे. चौथे दिन सुबह नाश्ते के बाद जब मैं चलने लगा तब रज़ा ने कहा आज शाम जल्दी आ जाना हम लोग बाहर खाना खाने चलेंगे. उस दिन मैंने पोम्पेदू संग्रहालय देखा और शाम जल्दी ही वापस लौट आया. रज़ा अपने स्टूडियो में काम कर रहे थे मैंने उन्हें बताया कि मैं आ चुका हूँ. रज़ा ने कहा शाम आठ बजे तैयार हो जाना. हाँ आप शाम को क्या पहनेंगे ? मैंने पूछा कुर्ता और चूड़ीदार चलेगा ? वे बोले हाँ दिखा दीजियेगा. मैं अपने फ्लैट में आ गया और घड़ी देखते हुए वहाँ रखे दुर्लभ कैटलॉग देखता रहा. रज़ा साहेब के लिए कहीं भी जाने के लिए पहनने वाली पोशाक का चुनाव करना एक वैचारिक प्रक्रिया से गुजरना होता है. कुछ भी पहन कर नहीं जाया जा सकता या बिना सोचे समझे कपड़ों का चुनाव नहीं कर सकते. यह बाक़ायदा देख-समझ कर किया जाने वाला काम है. शाम को मैंने उनकी पसन्द का कुरता, जैकेट और चूड़ीदार पहनकर दरवाज़ा खटखटाया उम्मीद के विपरीत रज़ा साहेब अपने सूट-बूट में तैयार थे, उन्होंने दरवाजा खोला मुझे अन्दर आने दिया फिर देख कर बोले हाँ ये बढ़िया है.

यह सब तैयारी और उनका उत्साह देखकर मैंने पूछ लिया कि कहाँ जाना है ? इस बीच जानीन भी तैयार होकर आ गयीं थीं. उन्होंने जवाब दिया 'इन्दिरा.' इन्दिरा एक भारतीय रेस्तराँ हैं शांजे-लिज़े पर. यह वो रेस्तराँ है जो रज़ा को बहुत पसन्द है और अपने भारतीय मित्र के आने पर वे वहाँ ले जाना पसन्द करते हैं. मैंने अपने विदेशों के अकल्पनीय ढंग से बुरे भारतीय रेस्तराँ-अनुभव से कहा ये भारतीय नहीं होगा. रज़ा साहेब का चौंकना स्वाभाविक था वे पिछले चालीस साल से वहाँ जा रहे हैं और उसकी विश्वसनीयता पर संदेह उनके लिए नया था. वे बोले आप कभी गए हैं वहाँ, आपको कैसे पता ?  मैंने कहा मैं अपने अनुभव से बोल रहा हूँ ज्यादातर भारत के नाम पर चलने वाले रेस्तराँ पाकिस्तानी या श्रीलंका के चलते हैं जिनकी रेस्तराँ का नाम भारतीय होता है किन्तु उन्हें भारत के भोजन के बारे में कोई अन्दाजा नहीं होता. वे अक्सर भारतीय नामों वाले रेस्तराँ होते हैं और आप देखिएगा मैं दो चीज़ आर्डर करूँगा और वे दोनों ही नहीं होंगी. ये रज़ा साहेब के लिए नया उद्घाटन था. वे बच्चों से उत्साहित हो गए मानों कोई नयी पहेली हल करने को मिल गयी हो. हम-लोग रेस्तराँ पहुँचे वहाँ बोर्ड पर लिखा था 'इन्द्र' न जाने क्यों फ़्रांसीसी उसे इन्दिरा कहते थे. खूब बड़ा सा रेस्तराँ था जिसकी साज-सज्जा ये हिन्दुस्तानी हो सकता है मान कर उपलब्ध चीज़ों से किया गया था.

कुछ सिनेमा के पुराने पोस्टर भी थे. कुछ बेतरतीब सी राजा रवि वर्मा वाली शैली की निहायत ही दोयम दर्जे के चित्र थे. हमारे खाने का आर्डर लेने आये बैरा से मैंने अरहर की दाल लाने को कहा उसने मना कर दिया, ये हमारे पास नहीं है. मैंने रज़ा साहेब को देखकर कहा एक चीज़ हो गयी है अब दूसरी आर्डर करता हूँ दूसरा मैंने उसे कुछ हरी मिर्च देने को कहा उसके लिए भी उसने इंकार कर दिया. रज़ा साहेब का चेहरा बुझ सा गया. चूँकि रज़ा साहेब यहाँ अक्सर आते रहे हैं और वे भारत से आने वाले हर ख़ास मेहमान को शौक से यहाँ लाते रहे हैं इसलिए भी और रज़ा एक चित्रकार हैं इस कारण भी रेस्तराँ का मालिक उनका प्रशंसक था और वो हर बार उनके आने पर स्वागत करता रहा था. रज़ा उनके विशेष मेहमान होते थे. आज भी वो फूलों का गुच्छा लेकर रज़ा साहेब से मिलने आया और बड़े ख़ुलूस से मिला.

रज़ा साहेब ने मेरा परिचय करवाया और उसने तत्परता से हाथ मिलाकर ख़ुशी जाहिर की. मैंने पूछा आप हिन्दुस्तान में कहाँ से हैं ? उसने कहा मैं हिन्दुस्तान नहीं पाकिस्तान के पेशावर से हूँ. यह सुनकर रज़ा साहेब का मन उखड़ गया. वे उसके बाद कभी वापस नहीं गए इस रेस्तराँ में. लौटते में उन्होंने कहा मुझे कभी अहसास नहीं हुआ.

रजा बहुत ही शाइस्ता शख़्स हैं. बेहद संकोची और अपनी बात के लिए  बेइन्तहा जिद्दी. उनके लिए पाकिस्तान न जाना एक मुश्किल फ़ैसला था मगर उन्होंने लिया. उनके बड़े भाई, जो दिल्ली में कम्युनिस्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य थे और जिन्हें रज़ा बहुत सम्मान दिया करते थे घर सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे और संस्कृत के विद्वान, के कहने पर भी रज़ा ने पाकिस्तान न जाने का अपना फ़ैसला नहीं बदला. उन्हीं के कहने पर घर के सभी भाई-बहन हिन्दुस्तान छोड़ रहे थे. यहाँ तक की उनकी पत्नी ने भी पाकिस्तान जाने की जिद की तो जाने दिया मगर उसके बाद उन्होंने वर्षों अपने भाई-बहनों से कोई सम्पर्क नहीं किया न मिले. उन्हें दुःख था कि वे लोग क्यों चले गए और वर्षों बाद जब उनके छोटे भाई ने मिलने की कोशिश की तब वे उन्हें किसी रेस्तराँ में मिले सिर्फ़ आधे घण्टे के लिए. यही भाई बाद में अफ्रीका जाकर बस गए. उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी जब रज़ा से मिलने आयीं तो उन्होंने गोर्बियो में अच्छे से स्वागत किया और दोपहर के खाने की मेज पर साफ़-साफ़ कह दिया वे उनसे विवाह नहीं कर सकते. रज़ा का पूरा परिवार पाकिस्तान चला गया था उनके सभी भाई-बहन सिर्फ़ वे नहीं गए. और उन्हें पाकिस्तान से ज्यादा मोह भी नहीं रहा.



दूसरे दिन में जब स्टूडियो में पहुँचा मैंने देखा रज़ा नया कैनवास शुरू कर रहे हैं. मेरे आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब मैंने देखा उन्होंने काले रंग से काम शुरू किया. अठहत्तर में उनकी प्रदर्शनी देखते हुए मैंने उनके चित्रों से ही यह जाना था कि रज़ा काले रंग से काम शुरू करते हैं, आज उसे होते देख रहा था, उत्तेजना में मैंने रज़ा साहेब से यह कहा. उन्होंने कहा यदि चित्र ध्यान से देखें तो वे अपने बारे में और कलाकार के बारे में भी बता सकते हैं. उन्हें ख़ुशी हुई कि मैंने इतने ध्यान से चित्र देखे थे. मैं पेरिस की यात्रा पर निकल पड़ा. लूव्र लगभग हर दिन जाता था मोनालिसा देखने की इच्छा थी किन्तु हड़ताल खींचती चली जा रही थी. दूसरे संग्रहालय देखना और बेकार सड़कों पर घूमना भी जारी रहा साथ ही रिउ द रिवोली पर विंडो शॉपिंग भी.

रज़ा से शाम को रोज़ खाने पर दिन भर की बात हुआ करती थी. जानीन भी सुझाया करती थीं क्या करना चाहिए दूसरे दिन और टेलीविज़न पर खबरें सुनकर बताया करती कि हड़ताल कब ख़त्म हो सकती है. वे लोग अपनी तनख्वाह बढ़ाने के लिए हड़ताल किये हुए थे और इसमें कोई कम्युनिस्ट शामिल नहीं था. एक दिन रज़ा साहेब ने मजाक भी किया कि वे लोग कह रहे हैं कि अखिलेश को मोनालिसा नहीं देखने देना है इसलिए हमने हड़ताल की है जब वो चला जायेगा तब लूव्र खुल जायेगा. इसका जवाब जो मैंने दिया उसे सुनकर जानीन को बहुत मजा आया, मैंने कहा रज़ा साहेब वो ये कह रहे हैं कि अखिलेश ने यदि मोनालिसा देख ली वो दोबारा फ्रांस नहीं आएगा, हम चाहते हैं दूसरी बार में वो मोनालिसा देखे. इस तरह के हँसी-मजाक और स्नेह के दिन जल्दी ही गुजर गए और मेरे लौटने का दिन आ गया. रज़ा साहेब मुझे आर्ट मटेरियल की दूकान लेकर गए जहाँ से वे अपने लिए सामग्री खरीदते थे और कहा आपको जो भी पसन्द आये लीजियेगा. लौटने पर जानीन मुझे बाज़ार लेकर गयीं और अपनी पसन्द के दो इत्र खरीदे, एक मेरे लिए दूसरा अनु के लिए. फिर कुछ शर्ट खरीदीं. मेरे मना करने के बावजूद. और शाम का भोजन उनके घर के पास वाली एक फ्रेंच रेस्तराँ में करने गए.

दो हज़ार दो रज़ा के लिए मुश्किल साल था. उनकी पत्नी जानीन को कैंसर हुआ था जिसका इलाज लम्बे समय से चल रहा था और आखिर में बढ़ते दर्द के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ा. रज़ा साहेब को सिर्फ एक घण्टे के लिए शाम को मिलने की सुविधा थी. जिसमें भी जानीन दवाइयों के असर से लगभग बेसुध रहती थीं. उनकी याददाश्त कमजोर हो चुकी थी और रज़ा रोज़ एक घण्टे उनके पास नियमित रूप से जाकर बैठा करते थे. उम्मीद की जगह न थी. दुआओं का सहारा भी एक दिन पूरा हुआ. उनका फ़ोन आया. मैं उन दिनों हैदराबाद में था. अनु से बात हुई. उसने बताया कि मैं बाहर गया हुआ हूँ. रज़ा ने अनु से ही बात की. उन्होंने बतलाया जानीन के गुजर जाने की ख़बर के बारे में. मैं अकेला घर में अपनी कुर्सी पर बैठा हूँ और अभी-अभी जानीन के देहान्त की ख़बर अस्पताल ने मुझे दी. मैं अकेला हूँ और समझ नहीं पा रहा हूँ, मैंने सबसे पहले अशोक (अशोक वाजपेयी) को फ़ोन किया था, वे शायद व्यस्त हैं बात नहीं हो पायी. अखिलेश से बात करना चाहता था वो भी नहीं है. अजीब इत्तेफ़ाक़ है मेरे प्रिय पास नहीं हैं. अनु ने मुझे हैदराबाद फ़ोन कर सूचना दी रज़ा साहेब तुमसे बात करना चाहते हैं. मैंने तत्काल फ़ोन लगाया और उनसे बात की. उनकी आवाज़ में दर्द और अकेलापन था. बात करते-करते वे रो पड़े और थोड़ी देर रोते हुए ही कुछ फ्रेंच में बोल रहे थे, कुछ हिन्दी, कुछ अंग्रेजी में और धीरे-धीरे खुद को सम्हाला और कहा माफ़ी चाहता हूँ कुछ गला ख़राब है, कुछ मौसम ख़राब हुआ इधर पेरिस में. मेरी तबीयत भी ठीक नहीं है. जानीन को लेकर गोर्बियो जाना है उसकी तैयारी करना है. मेरे पास सांत्वना के शब्द नहीं थे. दिमाग ने कुछ काम करना बंद कर दिया था. रज़ा को इस तरह देखा न था और जो भी सूझा, बोल सका था बोला. रज़ा ही बतला रहे थे.

जानीन से तिरालिस साल का सम्बन्ध समाप्त हुआ था और यह सिर्फ सम्बन्ध ही नहीं था रज़ा की रीढ़ भी थी जिसके बल पर रज़ा को बाकी चिन्ता कभी नहीं करनी पड़ी. जिसके कारण रज़ा को पेरिस का अपरिचित संसार भी अपना लगता था. इस घटना के कुछ महीने बाद रज़ा का फ़ोन आया और बहुत ही टूटी हुई आवाज़ में कहा मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा हूँ, अभी रामकुमार आये थे चार दिनों के लिए हम साथ थे वे कल चले गए. आप आ सकते हैं पेरिस कुछ दिन मेरे साथ रहने के लिए ? उसके बाद दो हज़ार दस तक हर वर्ष मैं गर्मियों के तीन-चार महीने रज़ा के साथ बिताने के लिए फ्रांस में होता था. 

जानीन की मृत्यु के बाद रज़ा पेरिस में गुम गए. वे उस बालक की तरह थे जो इस दुनिया से सम्बन्ध बैठाने में अपने को अक्षम पाता है. रज़ा पेरिस में अब अकेले की तरह महसूस करते थे. वे लगभग अपने को भूल कर कोशिश कर रहे थे चित्रों में ध्यान लगाने की और वे भटक भी रहे थे. उनके घर में खाना बनाने और साफ़-सफाई के लिए पोलिश महिला सप्ताह में तीन दिन आया करती थी. वो इक्कठा सारा काम कर दिया करती. 

यह वो समय था जब रज़ा बिंदु पर एकाग्र हुए अनेक चित्र सिर्फ बिंदु को लेकर ही बनाये. बल्कि यह कहना भी ठीक होगा कि इसके बाद के रज़ा बिंदू पर ही एकाग्र हुए 'बिंदू', 'जल-बिंदु', 'आवर्तन', 'तिर्यक', 'सत्यमेव जयते', 'नाद-बिंदु', 'नील-श्याम', 'बिंदु-पंचतत्व', आदि अनेक चित्र बनाये और इसमें से कई चित्रों को बार-बार बनाया. रज़ा के लिए अब सारा संसार इस एक बिंदु में सिमट आया था. वे कहते भी रहे कि बिंदु शून्य था, सूर्य बन गया, प्रकाश में अनेक रंग दिखे, नए जीवन का प्रारम्भ हुआ. रज़ा के लिए बिंदु अब प्राण-बिंदु बन गया.     




क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       


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  1. अखिलेश जी का यह कला जगत के शीर्ष सर हेदर रहा पर बहुत दिलचस्प है।सब मै सारे दस भाग पढूंगा।आभार।साधुवाद।

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  2. अमरेंद्र कुमार शर्मा16 जन॰ 2021, 3:36:00 pm

    एक सांस में पढ़ गया । एक चित्रकार की भीतरी दुनिया का उद्घाटन अखिलेश जी ने बड़ी ही बारीकी से किया है । अखिलेश जी की एक पेंटिंग मेरे कमरे में भी लगी है इस आत्मीय संस्मरण के लिए शुक्रिया ।

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  3. बहुत ही मार्मिक दिलचस्प अखिलेश जी। रज़ा के व्यक्तित्व के अनेक पक्षों को उद्घाटित करता हुआ। उनकी मेहमान नवाज़ी उनके उत्साह को दर्शाता हुआ यह आलेख पेरिस परिक्रमा भी करवाता है। शहर की सांस्कृतिक झलक भी यहां मौजूद है। यह समाप्ति की ओर है - यह जानकर अफसोस हुआ। उनकी पत्नी के जाने का पढ़ कर थोड़ा अवसाद भी। कुल मिलाकर एक अच्छा आलेख।इसके लिए मेरी बधाई स्वीकार करें। - - हरिमोहन शर्मा

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