vinod bhardwaj: photo by bharat tiwari |
प्रकाशक Copper Coin ने बड़े ही आकर्षक ढंग
से हिंदी के कवि विनोद भारद्वाज की कविताओं की
किताब – ‘होशियारपुर और अन्य कविताएँ’ इस वर्ष प्रकाशित की है. इसमें १०० से कुछ
अधिक ही कविताएँ हैं.
_
“विनोद भारद्वाज की यह
कविताएँ सबसे पहले अपनी बात अपने ढंग से कहने के धीरज और साहस का प्रतिफलन हैं और
अपने अलगपन में एकदम आकृष्ट करती हैं. कवि युवा हो या प्रौढ़, यदि उसके पास वाक़ई
कुछ अपने कहने को है- जो कि तभी संभव है जब कि उसका अनुभव भी निजी हो- तो वह ‘कवियों’
की भारी भीड़ और ‘युग’ के केन्द्रीय स्वर को परस्पर उसके हाल पर ही छोड़ता हुआ अपनी बात
सारी जोखिमें उठाते हुए कहेगा ही.”
विष्णु खरे
“विनोद भारद्वाज की
कविता में अनेक दुर्लभ प्रसंग हैं. मिसाल के लिए स्त्रियाँ हिरणों का शिकार करने
जंगल में आई हैं. स्त्रियों को देखकर हिरण भागते नहीं हैं. यह हिंदी में मार्मिक
मनोभाव की कविता है, हिंदी की दुर्लभ कविता. यह संवेदना का विस्तार करनेवाली कविता
है.”
आलोक धन्वा
“सिनेमाई दृश्य विधान
विनोद भारद्वाज की ख़ास खूबी रही है, लेकिन उनके विवरणों और चित्रों में नाटकीयता
के लिए कोई जगह नहीं है. इसकी जगह उन्होंने एक ऐसी वस्तुपरकता उपलब्ध की है जो
अनुभवों को एक तरह अतिभावुकता और संवेगों से बचाती है और दूसरी तरफ उन्हें उदासीन
और तटस्थ नहीं होने देती.”
मंगेलेश डबराल
(फ्लैफ से)
___________________________________
___________________________________
विनोद भारद्वाज की कविताएं
हवा(1982 में भारतभूषण अग्रवाल सम्मान से पुरस्कृत कविता)
शीरे की गंध में डूबा
एक गाँव
मिल का मनेजर खुश है कि चीनी के बोरों पर
सर रख कर वह ऊँघ सकता है
काम पर जाने को भागते
फटिहल कारडों को पंचिग मशीन में फँसाते लोग
मिल के उस शोर में भूल जाते हैं
रसोईघर में से आने वाली ढेरों शिकायतें कि बर्तनों पर
जमने वाली धूल
उनका रंग बदलती है
शीरे की गंध में डूबे
गाँव के लोग सूंघ नहीं पाते
मिल मनेजर के ख्याल में
यही बहुत है कि वे सुन लेते हैं.
झुलसे हुए खेतों की रोशनी में दिखते उस
रास्ते में साइकिल खींचता नौजवान
गुस्सा हो जाता है
कीचड़ में पहिया धँसा कर
बताता है एक आदमी की कहानी
पचास साल पहले मर चुके आदमी की कहानी
जो लड़ा था
उसने किए थे आंदोलन
हवा और शीरे की गंध में
उसके बाल उड़ते हैं
उसे पूरी उम्मीद है कि हवा की गंध को
वह थोडा बचा सकेगा
बहुत थोड़े से पेड़ों से टकरा कर
जो एक जले हुए गड्ढों वाले खेत में
गायब हो जाती है
एक धर्मात्मा की कृपा से
उस उजाड़ के पुराने मंदिर के
सूखे तालाब में
पत्थर के खंभों के पलस्तर की सीलन से टकरा कर
हवा उस नौजवान के सीने में
उतर जाती है
हवा जिस में बड़ी तेज़ गंध है शीरे की.
(गहरी सामाजिक टिप्पणी, असंदिग्ध प्रतिबद्धता, बहुआयामी दृष्टी तथा भाषा एवं
शिल्प पर विलक्षण नियन्त्रण. – विष्णु खरे )
हिरणों का शिकार करती स्त्रियां
अवध का एक पुराना मिनिएचर देखकर
क्या कहा
तुमने
शिकार भी
करती हैं स्त्रियां
घने और
बीहड़ जंगलों में जाती हैं
उनके
कोमल हाथों में धनुष होते हैं
बंदूकों
से वे अचूक निशाने लगाती हैं
वह एक
तस्वीर थी
पांच
औरतें थीं उसमें
और वे
हरे रसीले चमकीले जंगल में
हिरणों
का शिकार कर रही थीं
उनकी
पोशाकें सुंदर थीं
बहुत
सुंदर थीं उनकी पगड़ियां
उनके
पैरों पर शानदार डिज़ाइन वाले जूते थे
लेकिन
ज़रा हिम्मत तो देखिए
उन
कमबख़्त हिरणों की
वे अपनी
पूरी मस्ती में थे
हवा में
उछल रहे थे
हरी घास
की एक नई चमक को
अपनी
छलांग में पहचान रहे थे
देखो उस
गुलाबी पोशाक वाली सुंदरी को
वह कुछ
कह रही है दूसरी से
उसके
किसी निर्मम आदेश या
उसकी
ख़तरनाक बंदूक के प्रति
उदासीन
हैं ये हिरण
एक ने
बड़ी ज़ोर से छलांग लगाई
दूसरे ने
हरे रंग में अपना मुंह चमकाया
तीसरे ने
शायद धीरे-से कुछ गाया
पांच
स्त्रियां हैं इस जंगल में
शायद
इसीलिए हिरण आश्वस्त हैं
मुस्टंडे
मूंछों वाले महाराजा कहीं नज़र नहीं आ रहे
न ही
उनके हाथियों, शिकारियों और चमचों ने
सारे
जंगल को रौंद रखा है
यह एक
अलग तरह का दिन है
एक दूसरी
ही तरह का हरा रंग चमक रहा है
आज
स्त्रियां शिकार करने को निकली हैं
क्या ये
रानियां हैं?
ज़रूर ये
रानियां ही होंगी
कुछ उनकी
सेविकाएं होंगी और कुछ सखियां
बंदूक से
टकटकी बांधकर
वे उस
भव्य दृश्य को देख रही होंगी
क्या ये
सचमुच शिकारी औरतें हैं?
अवध के
किसी चित्रकार ने शायद नवाब के
मनोरंजन
के लिए
तस्वीर
बनाई हो
हो सकता
है उसने सच्चाई ही दिखाई हो
भरोसे से
कुछ कहा नहीं जा सकता
पर आपको
आख़िर शक़ क्यों हो रहा है जनाब?
स्त्रियां
बहुत बहादुरी के काम कर चुकी हैं
इस
रक्तरंजित इतिहास में
कितनी
अद्वितीय मिसालें मौजूद हैं
विदुषी, सुंदर और
बहादुर स्त्रियों की
वे जो भी
काम करती हैं
सलीके और
सुंदरता से करती हैं
लेकिन
हिरण कुछ और ही सोच रहे हैं
इस
अद्वितीय क्षण में वे कवियों की तरह हो गए हैं
उन्हें
विश्वास है स्त्रियां
स्त्रियों
की तरह शिकार करेंगी
एक कुशल
कोमलता और सुंदरता के साथ
और वे
निश्चिंत होकर
एक
शानदार, बहुत ऊंची और शायद
आख़िरी
छलांग हवा में लगाते हैं.
उदास आंखें
जब
तुम्हारी उदास आंखों को
देखता
हूं
तो लगता
है कि आज ईश्वर को किसी ने
परेशान
किया है
जब
तुम्हारी उदास आंखों को
देखता
हूं
तो अमृत
के किसी हौज में
कोई कंकड़
कहीं से उछलता है
आकर
गिरता है.
तुम्हारी
उदास आंखों में
दुनिया
भर की सुंदरता का दर्द है
भय है
नज़ाकत है
तुम्हारी उदास आंखों में
तुम रोने
के बाद
आईने में
जब देखती हो
तो माफ़
कर देती हो इस दुनिया को
तुम
चुपचाप एक कोने में
सिमटकर
बैठ जाती हो
जब
तुम्हारी उदास आंखों को देखता हूं
डरता हूं
कांपता
हूं
फिर
ईश्वर की तरह चाहता हूं
इन उदास
आंखों को
इन आंखों
के पीछे
कई सारी
आंखें हैं
क्षण भर
के लिए उदास
क्षण भर
के लिए बहुत पास
इन उदास
आंखों को देखता हूं
तो लगता
है कि
ईश्वर को
किसी ने गहरी नींद से
जगाया है
कि देखो
दुनिया
कितनी
उदास हो चुकी है.
युद्ध में एक प्रेम कविता
तुम एक
सपना देखती हो
एक क़िले
के खंडहरों से तुम्हें
शहर
कितना
सुंदर नज़र आता है
यह एक
प्राचीन नगर है
जिसे
बचाने के लिए जैसे तुम
बदहवास
भाग रही हो
सपने में
तुम देखती हो
एक कतार
में मुर्दे पड़े हैं
अचानक वे
उठ खड़े होते हैं
तुम एक
चीख़ के साथ
जागती हो
तुम्हारा
सुंदर पर डरा हुआ चेहरा
एक गीले
तौलिये में लिपटा हुआ
और चीज़ें
कहीं दूर भागती हुईं
एक मोर
दो मोर
किले की
ऊंची लंबी दीवार
पर
छलांगें लगाता हुआ
छोटा-सा
बंदर का बच्चा
यह
तौलिया मेरे आंसुओं से
भीगा हुआ
है
एक उदास
मुस्कान
तुम्हारे
चेहरे पर है
दुनिया
की सबसे बड़ी तोप
कभी चलाई
नहीं गई
वह सिर्फ़
एक बार
परीक्षण
के लिए
चली थी
इस तोप
पर बत्तखें बनी हैं
अपने में
नौ स्त्रियों को समाए एक भव्य
हाथी है
तुम अपने
गीले तौलिये से
इस तोप
को
धीरे-धीरे
चमकाती हो
देखने की
कोशिश करती हो
इसमें
कितनी कला है
कितनी
ताक़त
कितनी
मृत्यु
कितनी
राहत
इच्छा
इस लोटे
का भी एक सपना है
कभी-कभी
दिन में फ़ुरसत के वक़्त
जो इसे
देखने को मिल जाता है
रात को
इसे नींद नहीं आती
अजीब तरह
के खाने की गंध और न कही गई
बातों का
स्वाद लिए नक़ली दांतों का एक सेट
नल के
ठंडे पानी में इसमें डूबा रहता है
तड़के
सुबह का वक़्त इसे पसंद है
कुछ
ज़रूरी यादें, पेड़, जंगल, गन्ने के
खेत
दिमाग़
में घूम जाते हैं
इन दिनों
तो आंगन के एक कोने में पड़ा
यह
महाराजिन का इंतज़ार करता है
यह भी
कोई सपने का वक़्त है
पर लोटा
कमबख़्त एक सपना देखता है
कि उसे
ख़ूब चमकाया जाए
थोड़ा
वक़्त उसे भी दिया जाए
गिरने पर
उसकी जो यह आवाज़ है
कई जगहों
से जो वह पिचक गया है
उससे
मुंह न बिचकाया जाए
पर लोटा
तो आख़िर लोटा है
एक दिन
अपने कुछ इस तरह से गिरने के इंतज़ार में है
कि एक
अच्छी आवाज़ हो
अम्मा जी
गुड़ की गरम चाय उसमें
बेरहमी
से उंड़ेल न दें
उसका भी
एक सपना हो
न हो
सपना
एक पूरी
नींद तो हो.
टाइप करने वाली
उस लड़की
ने
सिर्फ़
टाइप किया
मेहनत से
साफ़-साफ़
शुद्ध
हमेशा
हिज्जों की पूरी हिफ़ाज़त के साथ
ज़्यादातर
जो उसने टाइप किया
अन्याय
के बारे में था
समाज में
औरत की हालत के
बारे में
था
ज़्यादातर
उसने टाइप किया
उसने
सिर्फ़ टाइप किया
रोटी के
अपने पीतल के
गोल
डिब्बे को खोलकर
जलते
हीटर की रोशनी और आंच में
धीरे-धीरे
अपने
खाने को खाने लायक बनाती थी
वह लड़की
उंगलियों
को चटकाते हुए वह लड़की
कांप
जाती थी किसी जगह आज
टाइप
करने को कहीं ‘प्रेम’ शब्द न
हो
ज़्यादातर
शब्द दूसरे थे
जिन्हें
हमेशा वह सही टाइप करती थी
अस्पताल
में ऑक्सीजन पर पड़ी रही
दस दिन
वह लड़की
किसी
लापरवाह व्यक्ति के बारे में कुछ बुदबुदाती
जमा जोड़
गुणा बड़बड़ाती
उस लड़की
की लाश पर उसकी बूढ़ी मां
चीख़ती
रही
सब के
सामने
उस लड़की
की कहानी
कभी किसी
ने टाइप नहीं की.
पीछा
कहां से निकलेंगी कविताएं; एक गेंद
कहीं से निकलती है
और बारिश-धुली सड़क पर लुढ़कती चली जाती है.
कहां से शुरू होंगी कविताएं.
कम-से-कम सिर्फ़ उस गेंद का पीछा नहीं करेंगी कविताएं.
गेंद पर से मोटर निकल जाएगी
मोटर का पीछा करेगी कविताएं.
नीले कनटोप में डोलता प्यारा बच्चा सड़क के एक
कोने से हाथ हिलाएगा. उसने सुनी नहीं अभी
कविताएं.
मोटर एक गुफा से निकलेगी
कविता भी कहीं से निकलनी चाहिए
वह देखो वहां से निकलेंगी कविताएं
गुफा में एक झपट्टा मारेंगी कविताएं
हाथापाई में निकलती चली जाएंगी
कविताएं
गेंद से अपना कोई रिश्ता बनाएंगी कविताएं
बारिश के कीचड़ में गेंद कुचली पड़ी थी
रंगीन रबड़ की बरसाती पहने लड़के
ने उसे देख लिया. न देखने पर भी उसके
निकलती कविताएं.
लेकिन क्या कविताएं गेंद की दोस्ती में भागीं?
आप कहेंगे शायद डोलता बच्चा देखकर वे जागीं
हाथापाई के बाद घायल कुछ कविताओं ने
उस बच्चे को बताया
नहीं, दरअसल, पीछा करती ही हैं कविताएं.
बच्चा एक चीज़ के साथ आगे बढ़ गया
बहादुर कविताओं की खोज में.
बहुत तेज़ भाग रही थी कविताएं.
शीला
सुना था कि वह ‘अच्छे घर’ की थी
लोअर मिडिल क्लास फ़ैमिली की
लेकिन पगली थी
दर्जा आठ की पढ़ाई छोड़कर
एक रिक्शेवाले के साथ भाग आई
कवि धूमिल को जब उसने पहली बार देखा
बड़ी ज़ोर से हंसी
क्या कहा आपने, बीवी जी, भैया के दोस्त हैं यह?
हम तो इन्हें चचा समझ रहे थे
सीढ़ियां चढ़ते हुए
धूमिल ने भी सुना
और फिर अपनी घनी मूछों में हंसे बड़ी ज़ोर से
अगले पंद्रह वर्षों में
शीला के घर कई लड़कियां और बाद में एक लड़का
पैदा हुआ
बरसों बाद अचानक वह फिर
हमारे घर आकर काम करने लगी
इस बार शीला ने कुछ नहीं कहा
हंसी भी नहीं भैया की किसी बात पर
और हां, बताया किसी ने
उसकी बड़ी लड़की का ब्याह भी हो चुका है
शीला, कहां है तुम्हारा रिक्शेवाला पति?
कहां है तुम्हारा घर?
क्या सचमुच तुम क्या किसी अच्छे भले घर को
छोड़कर चली आई थी?
शीला, बताओ, तुम्हें याद है धूमिल की?
एक कवि के हंसने की याद है तुम्हें कुछ?
क्या कहा, बाबूजी आपने?
शीला ने घबराकर देखा
फिर जैसे अपनी लड़कियों के लिए काम में लग गई
इस बार लौटा मैं जब छुट्टियों में अपने घर
मां ने बताया
शीला फिर भाग गई है
इस उम्र में
एक नए मर्द के साथ
रिक्शावाला आकर रोता रहा
घंटों उनके सामने
अगली गर्मियों तक उसे अपनी दूसरी लड़की का
ब्याह पक्का करना है
घर में मृत्यु
एक बहुत पुराने पतीले में
चावल भिगो दिए गए हैं
साबुत उड़द की दाल
अंगीठी की धीमी आंच में
देर से पक रही है
घर में सब जने
इकट्ठा हो गए हैं
नहाने-धोने के बाद
एक जगह पर बैठ गए हैं
पालथी मारकर
कुछ ऐसे कि जैसे पहले कभी
बैठे ही न थे
फ़र्श ठंडा है
दिन भर वहां बर्फ़ की
सिल्लियां पड़ी थीं
सब इंतज़ार में हैं
एक अजीब तरह के भोज का
सब चुप हैं
वे कुछ बोलना नहीं चाहते
आज तो सिर्फ़ पकेगी
साबुत उड़द की दाल
उसकी महक
ठंडे फ़र्श से टकराकर
ऊपर की ओर उठती है
और फिर
उसे ले जाती है
छोटे-से बच्चे के पास
जो दूर दिल्ली में बैठा है
साढ़े दस साल का गुक्की
पूछता है
पिता से
दादी के मरने पर
तुम बापू क्या रोए थे?
पिता के पास
कोई जवाब नहीं है
थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद
पिता पूछते हैं बेटे से
गुक्की, तुम बताओ
दादी के मरने की ख़बर सुनकर
तुम क्या रोए थे?
गुक्की चुप है
फिर कुछ सोचकर
वह कहता है पिता से
बापू, मैं अंदर से रोया था.
तुम रोए थे?
क्यों रोए थे गुक्की?
तुम तो हमेशा
दादी से लड़ते थे?
मैं रोया था बापू
भीतर से रोया था
फिर मुझे बाबा की याद आई
देखो कितने अच्छे हैं बाबा
भीतर से टूट चुके हैं
फिर भी भेजा उन्होंने मेरे लिए
दस का एक नोट
आइसक्रीम खाने के लिए
गुक्की चला जाता है
आइसक्रीम खाने
ठंडे फ़र्श के मोज़ैक के काले दाने
चमक रहे हैं
इस घर को मां ने
महीनों धूप में खड़े होकर
बनाया था
इस फ़र्श को
न जाने कितनी बार
उन्होंने ख़ुद चमकाया था
कभी-कभी पोचे में
वे देखती थीं अपना चेहरा
सब आज याद आ रहा है
साबुत गर्म उड़द की दाल को देखकर
इस चमकीले थाल में.
इस चमकीले थाल में.
______________________
अक्टूबर 1948 में जन्मे विनोद भारद्वाज ने लखनऊ विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान
में एम.ए. किया और पच्चीस साल टाइम्स ऑफ़ इंडिया
के धर्मयुग, दिनमान तथा नवभारत
टाइम्स जैसे हिंदी प्रकाशनों में पत्रकारिता की.
1967 से 1969 तक उन्होंने कविता और कला की चर्चित लघुपत्रिका आरम्भ का
नरेश सक्सेना और जयकृष्ण के सहयोग से संपादन किया.
प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय ने उन्हें पत्रकारिता में आने के लिए प्रेरित किया और दिनमान
में सहाय के संपादन में कई साल काम करना उनके लिए एक बड़ा और निर्णायक अनुभव साबित
हुआ. 1981 में विनोद को वर्ष की श्रेष्ठ कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल
स्मृति प्रतिष्ठित पुरस्कार और 1982 में श्रेष्ठ सर्जनात्मक लेखन के लिए संस्कृति पुरस्कार मिला. विनोद ने चालीस साल तक लगातार फिल्म और कला पर लिखा है, कलाकारों पर फिल्में
बनाई हैं और दूरदर्शन के लिए चेखोव की कहानी पर आधारित टेलीफिल्म दुखवा मैं
कासे कहूं और लघु धारावाहिक मछलीघर भी लिखा है.
कला और सिनेमा पर कई किताबों के अलावा 1980 में पहला कविता संग्रह, जलता मकान, छपा और 1990 में दूसरा संग्रह, होशियारपुर, छपा. बाद की कविताएं इस नए संग्रह, होशियारपुर और अन्य कविताएं, में पहले दोनों
संग्रहों सहित शामिल हैं. एक कहानी संग्रह, चितेरी, के अलावा सेप्पुकु और सच्चा
झूठ उपन्यास भी प्रकाशित हो चुके हैं. हार्पर कॉलिंस
ने सेप्पुकु का ब्रज शर्मा द्वारा किया अंग्रेज़ी अनुवाद छापा है. वे जल्द ही सच्चा झूठ का अंग्रेज़ी अनुवाद भी छाप रहे हैं. इन दिनों विनोद भारद्वाज इस उपन्यास त्रयी का अंतिम भाग लिख रहे
हैं. विनोद की कविताओं के अनुवाद अंग्रेज़ी, जर्मन, रूसी, पंजाबी, उर्दू, मराठी और बांग्ला
में हो चुके हैं. इन दिनों दिल्ली में रहकर आर्ट
क्यूरेटर के रूप में सक्रिय हैं.
आपने "हिरणों का शिकार करती स्त्रियाँ" को रेखांकित करके पोस्ट किया है तो उस पर ही कुछ लिखता हूँ। कथ्य यह प्रतीत हो रहा है - राजा शिकार करने आता है तो सफलता उसके पौरुष से जुड़ी आवश्यकता है। शिकार एक स्पोर्ट नहीं है मात्र। इसलिए तमाम लोग यह पक्का करने के लिए लगाए जाते हैं कि परिणाम राजा के पक्ष में ही जाय, बल्कि हिरणों के विरुद्ध यह स्पोर्ट जितना अनइक्वल बनाया जा सके। रानियों-राजकुमारियों के संबंध में ऐसी बाहरी बाध्यता नहीं है। संयोग या चांस का तत्त्व जितना शिकारियों के लिए है उतना ही हिरणों के लिए। इसलिए हिरणों के लिए भी यह खेल है। जैसे राजकन्याओं के लिए है। यह कविता पुरुष -स्त्री के ऐतिहासिक मनोविज्ञन के संदर्भ में कलाकृति को व्याख्यायित करती है।
जवाब देंहटाएंपरंतु कविता का शिल्प इसे लगभग डुबा ही डालता है। पहली 5 पंक्तियाँ कथ्य की ओर ले जाने के बजाय उससे दूर ले जाती हैं। बीच में कथ्य का सुंदर विस्तार हुआ है, पर आखिरी पंक्तियों में वह बिखर जाता है। कथ्य यह लगने लगता है - "हिरणों को मरने में इतराज नहीं है पर वे राजा के हाथ फूहड़ वध की जगह रानियों के हाथ सलीके की मौत पसंद करते हैं।" मुझे तो यह बड़ा वाहियात उपसंहार लगा।
विनोद जी की एकाध कविताएँ तो नजरो से गुजरी थी, यहाँ इतनी और इतनी अच्छी कविताएँ पढ़कर आह्लादित हूँ. इन कविताओं का असर धीरे धीरे होता है. विनोद जी गहरे मनोभावों और क्रियाओं के कवि हैं. उनकी आँखों से वह कुछ हम देख पाते हैं जो अक्सर छूट जाता है. ये बिलकुल जेनुइन कविताएँ हैं. किसी की नकल नहीं हैं. विष्णु जी से सहमत होने का मन करता है कि ये कविताएँ धीरज और साहस का प्रतिफलन है.
जवाब देंहटाएंअरुण भाई अच्छे से पेश किया है भाई आपने. बिल्ली वाली तस्वीर तो गजब है. आपको सलाम.
इन कविताओं को पढ़ते हुए दृश्य आँखों के आगे सजीव हो उठते हैं। भाषा एकदम सहज, बिल्कुल बोलचाल की, कविता गढ़ने का कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं दिखता और इसलिए इनका प्रभाव देर तक बना रहता है। हिरणों का शिकार करती स्त्रियां हो या उदास आँखें कवि की संवेदनशीलता पाठकों तक भी पहुँचती है और यही कविता की सार्थकता है।
जवाब देंहटाएंशीला कविता मैंने लिखी कई साल बाद थी पर कविता की कहानी तब की है जब १९६७ में मैं छात्र था और धूमिल अपने ट्रान्स्फ़र के सिलसिले में मेरे घर लखनऊ में रहा करते थे.मंगलेशजी ने जनसत्ता में इसे छापा था अस्सी के दशक में.मुझे आज भी यह कविता अपने नज़दीक लगती है.
जवाब देंहटाएंविनोद भारद्वाज हिंदी के उन कवियों में से हैं जो मूर्ख आलोचकों,मूर्ख प्राध्यापकों,मूर्ख संपादकों,मूर्ख पाठकों और इन सब के द्वारा पैदा किए जा रहे इन्हीं जैसे अन्य मूर्ख जंतुओं की तत्काल शनाख्त करवा देते हैं.विनोद आसानीपरस्ती,playing to the gallery और constituency-building के कवि नहीं हैं.वह लोकप्रियता और सराहना के सवाल को सीधे भाड़ में जाने देते हैं.कोई भी ज़िम्मेदार रचयिता अपनी सर्जनात्मक शर्तों और स्तर से गिरकर पाठकों का अपमान कैसे कर सकता है ? क्या माता-पिता ज़िन्दगी भर अपनी संतति के चूतड़ धोते रहें ? यदि विनोद के पास हिरणों का शिकार जैसे जटिल,अद्वितीय कविताएँ हैं तो टाइप करनेवाली लड़की जैसे बेहद मार्मिक रचनाएँ भी हैं.'हवा' सरीखी कविता भी सरलता से न सूझ पड़ती है न समझ आती है.पर्यावरण जैसे बहुआयामीय विषय पर,जिसमें राजनीति और पूँजीवाद लगातार मौजूद हैं,कविता की कल्पना आज से 35 वर्ष पहले बहुत कम की जा रही थी,फिर भी टाइप करने वाली लड़की जैसी near-perfect,flawless कविता यदि समय-सीमा में होती तो भारत भूषण पुरस्कार उसी को देना था.उसका अनुवाद 1984 में जर्मन में भी बहुत सराहा गया था.
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.