रज़ा : जैसा मैंने देखा (६ ) : अखिलेश



मूर्धन्य चित्रकार सैयद हैदर रज़ा पर अखिलेश द्वारा लिखे जा रहे ‘रज़ा : जैसा मैंने देखा’ का नवीनतम अंश प्रस्तुत है. अपनी पहली पत्नी से तलाक़ के बाद रज़ा ने फ़्रांसीसी चित्रकार जानीन से विवाह कर लिया. इस मेल ने उनकी चित्रकला और उनके जीवन को बहुत प्रभावित किया. अखिलेश ने बहुत ही खूबसूरती से नेपथ्य के इस अंश के रंगों को उभारा है.

आइये पढ़ते हैं. 


रज़ा : जैसा मैंने देखा (6 )

दृश्य का अभ्यास और स्मृतियों का संसार                                              

अखिलेश 


ज़ा का जानीन से ब्याह उनके जीवन में नया मोड़ ले आया. रज़ा के साथ जानीन अपने पैतृक गांव गोर्बियो कई बार गयीं थीं. पर इस बार सब कुछ बदला हुआ था. रज़ा के लिए भी यह अब गांव भर न था, उनकी ससुराल भी थी. जहाँ जानीन के माता-पिता का घर ही न था बल्कि वहाँ के कब्रिस्तान में उनकी परिवार की कब्र भी थी. यूरोप में कब्र का होना एक गम्भीर मसला है. दफ़नाने के लिए जमीन अब कम पड़ रही है इसलिए नए-नए नियम बन रहे हैं. कुछ इतने कठोर हैं कि पुश्तैनी कब्र न होने से दफ़नाना मुश्किल हो सकता है या सार्वजनिक कब्र में ही स्थान मिलेगा जिसके नियम अलग हैं.  अनजान या लावारिस मृतकों के लिए सार्वजनिक कब्र का इस्तेमाल होता है. 


अब रज़ा के जीवन में गोर्बियो का विशेष स्थान बन चुका था. एक कारण यही था कि दक्षिणी फ्रांस की पहाड़ियों पर स्थित यह गांव चारों तरफ़ से घने पेड़ों से घिरा था, सात किलोमीटर दूर समुद्र का उजला मोरपंखी नीला फैला था. आधे घण्टे की दूरी पर दूसरे देश इटली की सीमा थी. पहाड़ी पर बसे इस गांव में रात का एकान्‍त इस कदर गहरा था कि सन्नाटे में आप अपने दिल की धड़कन सुन सकते थे. रज़ा के लिए यह अपने बचपन में लौटना था. रज़ा कितने भी आधुनिक हो जाएं, वे भीतर से अपनी जड़ों से जुड़े हुए कलाकार ही रहे. उनको यहाँ का मौसम, यहाँ का माहौल और ठहरी दिनचर्या अपने बचपन में ले गयी. दिन की उजली धूप उनके काम करने के लिए उपयुक्त थी और नजदीक ही नीस और मोनाको जैसे शहर भी थे, जहाँ चित्रकला के लिए जो भी चाहिए, उसकी दुकानें और सप्ताहांत की सांस्कृतिक शामें गुजारने के लिए भरपूर गुंजाइश. रज़ा के लिए यह अपने में लौटना था. 

ये वही दिन थे जब रज़ा भारतीय ढंग से दृश्य चित्रण छोड़कर उसमें सेजां का कंस्ट्रक्शन देख-ढूंढ रहे थे. इनमें से उल्लेखनीय चित्र 'ला फोर्ज' का जिक्र करना उचित ही होगा. यह चित्र रज़ा की रंग-पैलेट में आये बदलाव की तरफ़ ध्यान दिलाता है. यह वक़्त है रंगों के वितान में चहलकदमी का और रंग के चमकदार पक्ष से अपना सम्बन्ध बनाने का. यहाँ रज़ा कुशलता से लेमन येलो का इस्तेमाल करते हैं. लेमन येलो साधारण रंग नहीं है और न ही उसका इस्तेमाल आम तौर पर कलाकार करते हैं, यह रंग अपने स्वभाव में इतना कच्चा है कि इसे इस्तेमाल करना दुनिया भर के चित्रकारों के लिए चुनौती है. यदि विश्व कला जगत के अनेक प्रसिद्ध कलाकारों को देखें तो किसी ने भी इसका इस्तेमाल नहीं किया है. हिन्दुस्तानी कलाकारों में सिर्फ तीन उदाहरण मिलते हैं- हुसैन, स्वामीनाथन और रज़ा.  

इन तीनों चित्रकारों ने भी सिर्फ एक ही कलाकृति में इस रंग का इस्तेमाल किया है. यह एक मुश्किल रंग है और इसका कच्चापन इसे और मुश्किल बनाता है. रज़ा ने इस चित्र में बहुत ही कौशल से इसका इस्तेमाल किया है. चित्र के दाहिने हिस्से में वो दृश्य है जो किसी भट्टी के भीतर पिघलते अयस्क का हो सकता है. उस पिघलती धातु के बदलते रूप इस चित्र में रूप के आकार को स्थिर नहीं होने देते हैं. इसमें पिघलने की गति चित्रित है. यह चित्र किसी भट्टी का नहीं है बल्कि रज़ा के भीतर चल रहे बदलाव का भी है. पुराने से दूर जाते हुए भी उसके साथ बँधे रहना और नए को आत्मसात करते हुए भी उससे सम्बन्ध का नया पुल बनाने का संघर्ष इस चित्र की जान है. इसमें रज़ा के बचपन में देखे जंगल भी है और नए जगत की अनजान राह भी.


चित्रों में रंग अभी रज़ा के रंग नहीं हुए हैं और पिछले रंग सम्बन्ध भी नहीं टूटे हैं. रज़ा के लिए सब कुछ तेजी से घट रहा था और यात्राएँ निर्बाध जारी थीं. सूजा से मिलने लन्दन जाना हो या यूरोप के अन्य देशों का भीतरी भ्रमण सब कुछ इस नए से परिचय में सहायक हो रहा था. अब उनके साथ जानीन भी थी जो खुद एक बेहतर चित्रकार और मिक्स-मिडिया में काम करने वाली उत्सुक और मेहनती महिला थीं. रज़ा का देशप्रेम उन्हें अक्सर भारत ले आता रहा है.  देश के रंग उन्हें उकसाते रहे और फ्रांस की संरचना उन्हें बहलाती रही. अभी इस संरचना का उद्दाम ज्वार आना बाकी था.

उनके चित्रों में स्थानीयता और सार्वभौम दोनों का संगम होना शुरू हुआ था. इस चित्र में संरचना के स्तर पर भले ही हमें यह ढीला-ढाला लगे किन्तु इसमें रंग-संरचना का आवेग स्पष्ट नज़र आ रहा है.  रंग उन्हें ललकारते नज़र आते हैं और रज़ा एक कुशल योद्धा की तरह उन्हें आत्मसमर्पण करने को मजबूर कर दे रहे हैं.  रज़ा रंग का नया व्याकरण खोज रहे थे.  अपना व्याकरण बना रहे थे. उनके रंग-आकार अब न भारतीय थे ने फ्रांसीसी. वे चित्र की भूमि पर अपना दृश्य थे. रज़ा एक समृद्ध भारतीय रंग-परम्परा के वाहक थे, जिनमें मालवा-मिनिएचर की प्रमुखता साफ़ दिखाई देती है. रज़ा के पास अपना अनुभव था और संवेदनायें साहित्य की.  रज़ा जिस परिवार से आते हैं वहाँ उनके पिता ने तो परवरिश पर पूरा ध्यान रखा ही किन्तु आसपास का माहौल भी उन्हें प्रेरित करता रहा, भारतीय संस्कृति को समझने और उससे नाता जोड़ने के लिए.

फ्रांस आकर नयी सभ्यता और आचार-विचार से तारतम्य बैठाना रज़ा के लिए आसान रहा. वे भाषा जानते थे अतः मुश्किल भी न थी कि वे अजनबी बने रहें. जानीन के साथ ने अब वो झिझक दूर कर दी थी जिसके अभाव में उन्हें परायी सभ्यता से सम्बन्ध बनाने में ज्यादा समय लगता. रज़ा के लिए चित्र एक सशक्त माध्यम था इन दोनों सभ्यताओं को पास लाने और एक मजबूत पुल बनाने के लिए.  रज़ा की वैयक्तिक प्रतिभा और वैचारिक दृढ़ता इन सब में मदद करने वाली थी.


 

 मृणाल पांडे लिखती हैं-         

"अपनी उन्मत्त कला ऊर्जा से दमकते रज़ा के चित्रफलकों का हमारी रंग-संवेदना पर तात्कालिक असर तो एक हर्षपूर्ण अचंभे का होता है, कि कैसे यह सम्भव हुआ होगा? परिचित रंगों के यह अपरिचित आयाम कहाँ छुपे रहे होंगे अब तक ? पर चैन से बैठ कर सोचने के बाद लगता है कि उनकी सारी असाधारणता के बावजूद उनका संयोजन कितना अपरिहार्य था. रंगों के फलकबद्ध संसार में वे रंगकार सिर्फ उसी माध्यम से गढ़े जा सकते थे, अन्य किसी कारण से नहीं. और उस चित्र-धरातल पर वे उसी प्रकार आ सकते थे, और किसी रूप में नहीं.  हर बेहतरीन कलाकृति की तरह रज़ा की कला का मुहावरा एक साथ अद्वितीय भी है और सार्वभौम भी.  बात विरोधाभासी लग सकती है, पर कला के उस संसार के परिप्रेक्ष्य में जहाँ तर्क निरन्तर तर्कातीत से टकराता है, सत्य हमेशा विरोधाभासी ही प्रतीत होता है. रज़ा के चित्रों को हम चाहे जिस तरह देखें, हम पायेंगे कि मूर्त से अमूर्त होने की पूरी जैविक प्रक्रिया बहुत सुथराई और सहजता से उनमें अभिव्यक्त हुई है और ज्यों-ज्यों  प्रौढ़ होती गई है, ब्राह्य अलकरणों, यात्रा में उपादानों के प्रति मोह खुद-ब-खुद पीछे छूटता चला गया है. पर इकहरे होते जाने की इस दुस्साध्य और जोखिम से  भरी-पूरी उनके रंगाकारों की ऊर्जा बरकरार रही है, चाहे वह फीकी आब से दमकता धूमिल सूर्य का ज्यामितीय आकार हो, या पगलाए नीले सैलाबों का हहराता अमूर्त्त उफान.  हर कहीं उनकी कला ऊर्जा के दुर्घष आवेग में एक सुनिश्चित दिशा है, जो पिछले इस्पात सी कलाकार की माध्यमगत पकड़ का दृढ़ अहसास दर्शक को निरंतर देती जाती है."   

प्रसिद्ध कला समीक्षक रुडी वान लेडन ने उस समय के रज़ा पर लिखा-

"फ्रांस की रात में भारतीय ध्वनियाँ उग रही थीं. धीमे-धीमे रज़ा ने अपने कला जीवन की शुरुआत रंगीन सैरों से की. कुछ प्राकृतिक और कुछ शहरों के सैर, जिनके मृदुल आकार और गतिमान रंग, उस स्थान विशेष की आत्मा को अपने भीतर पूरी तरह समो हुए हैं.  इनमें प्रकृति को चितेरे की आँख ने पूरी गहराई से देखा और बेहद प्यार से उकेरा है."  

पचास के पैरिस ने कलाकार को शिल्प सम्बन्धी तकनीकी जानकारी तो दी, पर उसके कलात्मक पक्ष को अछूता ही छोड़ा. रज़ा ने कभी अपने को अमूर्तन का चितेरा नहीं माना. क्योंकि उनके लिए अपना कैनवास उतना ही असल था जितना खिड़की से दिखता कोई दृश्य. रज़ा की कुछ चित्र कृतियों में चार आयत हैं या चार टीकों, जिनमें रंग मानों अपनी सम्पूर्ण आदिम ऊर्जा समेत कला के दायरे में यूँ मढ दिए गए हैं, ज्यों तराशे हुए झलमलाते नगीने हों.  धूसर और भूरे रंग भी एक विचित्र लौ देने लगते हैं.  बार-बार इस सबके ऊपर ऊर्जा से धड़कता हुआ एक काला आकार उगता है. कृष्ण, सूर्य-प्रकृति का रहस्यपूर्ण विराट चक्र, जहाँ से नए खगोलपिण्ड फूटने वाले हैं. यही वह बिन्दु है जो चरम एकाग्रता का द्योतक है, जिस पर एक बूढ़े शिक्षक ने छह साल के हठीले बच्चे का भटकता ध्यान केन्द्रित कराया था. और यही बिन्दु एक ध्रुव तारे की तरह इस चित्रकार को प्रकृति और पुरुष के रहस्यमय सम्बन्धों की दुनिया के बीच राह बताता रहा है.


रज़ा के लिए यह दुविधा नहीं थी कि दृश्य का होना नहीं था. उन्हें यह अभ्यास था कि और अब वे दृश्य कल्पनाओं में बसने लगे थे. जिनमें उनका बचपन था, अँधेरा था, बनैली रातें थी, मायावी छवियाँ थीं, जंगली जानवर थे, डरावनी छवियाँ थीं. साथ ही यात्राओं की अनजान जगहें, नया समुद्री रंग, नए लोग, भाषा की स्मृति, यह सब भी रज़ा के चित्रों के कोनों से झाँकते नज़र आते हैं. रज़ा का स्थिर होना इन रंगों की रंगतें बढ़ा रहा था. वे धूसर रंग भी लगाते तो उनकी चमक दर्शक को आकर्षित करती.

जॉक लसानिया लिखते है-

"मुझे ऐसा लगता है कि अपने अतीत की प्रेत-बाधाओं से मुक्ति पा लेने के साथ ही अब रज़ा अपने चित्रों के उग्र और दुर्दांत वस्तु सामग्री के उपयोग की बाध्यता से भी मुक्ति पा चुके हैं.  अब उनके चित्रों में एक प्रसन्न प्रवाह है, एक निखारी हुई शांति और लाघव है. अब उनकी तूलिका का खंडित स्पर्श भी उस तरह से अलग-अलग न रहकर धीरे-धीरे चित्र फलक के समूचे प्रसार में अग्रसर होता चलता है. जब वे उसे अप्रत्याशित धरातलों के सहारे नियंत्रित और अनुशासित करते हैं. पहले जहाँ उनकी रंग-योजना गेरुई या भूरे रंगों की सीमा में क़ैद रहती थी, वहाँ अब बीच-बीच में हरे और नारंगी रंगों के सुकुमार स्पर्श झाँकने लगे हैं.  उनके ताल-मेल अब पहले से अधिक मूल्यवान हो गए हैं."

इस तरह रज़ा में स्थायी परिवर्तन आ रहा था और वे अपनी खोज के पहले पायदान पर चढ़ चुके थे.  रज़ा चित्रों में मुखर और रंगीन हो रहे थे.

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क्रमश : 
महीने के पहले और तीसरे शनिवार को 
 (सामग्री संयोजन कला समीक्षक राकेश श्रीमाल)       

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  1. रविन्द्र व्यास21 नव॰ 2020, 11:59:00 am

    Bahut pyara karara gadya.

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  2. विनय कुमार21 नव॰ 2020, 5:30:00 pm

    यह शृंखला मैं फ़ॉलो कर रहा हूँ। अखिलेश जी की दृष्टि से रज़ा को देखना उनके जीवन को ही नहीं कला के अंतरंग को भी देखना है। यह अंश मुझे नीस और French Riviera Day Trip की याद दिला गया। Provence की पर्फ़्यूमरी और Aze के मीडीवल मकान। गलियों में आर्ट गैलरी !
    यह अंश रज़ा के जीवन और चित्र दोनों के रंगों में बदलाव की कहानी कहता है।

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  3. क्या लाजवाब लिखा है..अखिलेश ने.������ रंगों की बात.. कलाकार के जीवन में आते पल.. नव दिन.. फिर भी अपनी जडों के सार्थक होने का एहसास.... कितना कुछ कहती यह बात... धन्यवाद इस सुलेख के लिए.

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