बटरोही : हम तीन थोकदार (ग्यारह )


 

उत्तराखंड की संस्कृति, समाज और साहित्य पर आधारित वरिष्ठ कथाकार बटरोही का स्तम्भ ‘हम तीन थोकदार’ आप समालोचन पर पढ़ रहे हैं.  इस बीच महामारी कोरोना की चपेट में आकर बटरोही जी गम्भीर रूप से अस्वस्थ हो गए थे, स्वस्थ होते ही उन्होंने पहला कार्य इस श्रृंखला पर ही किया है. इसका यह ग्यारहवां भाग है. लोक-संस्कृति में व्यापत ‘काफल पाको’ के काफल और सुमित्रानंदन पंत आदि से संदर्भित यह अंश हमेशा की तरह दिलचस्प और विचारोत्तेजक है.

प्रस्तुत है. 


हम तीन थोकदार (ग्यारह)

ठेले पर हिमालय में काफल पका
आमा, मैंने नहीं चखा
(धर्मवीर भारती, अतुल पांडे और ‘काफल ट्री’ को याद करते हुए)
बटरोही


 

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वह १९७६ की शरद ऋतु थी और विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में मेरी पहली लम्बी यात्रा. मेरे हाथ में अपने कुलपति डॉ. डीडी पन्त का पत्र था जिसमें उन्होंने महाकवि सुमित्रानंदन पन्त से आग्रह किया था कि वो अगले महीने नैनीताल में आयोजित होने वाले विवि के पहले दीक्षांत समारोह में मुख्य अतिथि बनकर अपनी जन्मभूमि के नव-स्नातकों को संबोधित करें. सचमुच यह एक ऐतिहासिक अवसर था.

सब कुछ पहली बार संभव हो रहा था:  सदियों से ज्ञान की मुख्य धारा से कटे हमारे इलाके में एक विश्वविद्यालय स्थापित हुआ था जिसका पहला दीक्षांत समारोह आयोजित होना था. पहली बार हमारे इलाके के ही दूर-दराज के पिछड़े गाँव देवराड़ी पन्त में जन्मे, भारत के पहले नोबेल सम्मान प्राप्त सीबी रमण के शिष्य देवीदत्त पन्त इस विवि के पहले कुलपति नियुक्त हुए थे और उनकी इच्छा थी कि कार्यक्रम का उदघाटन इसी धरती की किसी ऐसी हस्ती से कराया जाए जिसने अपनी प्रतिभा के बल पर देश-विदेश में प्रसिद्धि पाई हो; ताकि युवा पीढ़ी को  अपने भावी जीवन को आदर्श सांचे में ढालने के लिए रचनात्मक और सकारात्मक प्रेरणा मिल सके.

इस समूचे इलाके में अपनी कविताओं के जरिये अमर हो चुके प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त को छोड़कर दूसरा कौन याद आ सकता था!

(फ़ोटो आभार : Lukasz Piech)

हम दो लोग लखनऊ एक्सप्रेस से यात्रा कर रहे थे: मैं और भौतिक विज्ञान विभाग के प्राध्यापक मेरे सहयोगी डॉ. अतुल पांडे. काठगोदाम से लखनऊ होते हुए इलाहाबाद तक. मुझसे करीब सात-आठ साल बड़े अतुल पांडे कुलपति डॉ. पन्त के प्रिय शिष्य तो थे ही, ज्ञान का खजाना भी थे. साहित्य और संस्कृति में रुचि रखने वाले हम लोग उन्हें ‘जीनियस’ कहते थे. अपने विषय के विद्यार्थियों के तो वह चहेते थे ही, साहित्य, विज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में प्रकाशित होने वाली नई-से-नई किताब की उन्हें जानकारी रहती थी और हमेशा उन किताबों पर बातें करते दिखाई देते थे. जाहिर है कि पूरी रात उनके साथ यात्रा करने का मौका मेरे लिए सौभाग्य से कम नहीं था; मुझे तो मानो खजाना मिल गया था.

रेल के दूसरे दर्जे में आमने-सामने की लोअर बर्थों पर लेटे हम लोगों ने उस रात समकालीन साहित्य और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही रचनाओं पर जी-भर कर बातें कीं: साहित्य, समकालीन राजनीति, दर्शन और युवा पीढ़ी की दशा-दिशा को लेकर. अतुल भौतिकी और खगोल के रहस्यमय अंतःकरण में गहराई से रुचि रखने वाले मेधावी विद्यार्थी थे और मैं हिंदी के समकालीन लेखन का हिस्सा, जिसे पाठक कुछ हद तक गंभीरता से लेने लगे थे. दोनों अपनी पसंद के संसारों का हिस्सा बनने के बाद इस यात्रा को लेकर खूब उत्साहित थे, ऊर्जा और भविष्य के अपने सपनों से भरे-पूरे. अनेक विषयों की चर्चा करते हुए मानो हम दोनों खुद के संसार को एक-दूसरे का हिस्सा बना डालने के लिए जी-जान से आतुर थे.  

हम लोग गंभीर चर्चा में डूबे हुए थे कि अतुल ने मानो बातचीत को हल्का पुट देते हुए कहा, ‘बटरोही जी, एक राज की बात बताऊँ आपको, मैं भी आधा थोकदार हूँ. थोकदारनी का दूध पीकर ही मैं इतना बड़ा हुआ हूँ.’

हालाँकि सन्दर्भ से मैं परिचित था मगर बात मुझे चौंका गई. हमारी बातचीत संतान पर पड़ने वाले माता-पिता के जेनेटिक प्रभावों को लेकर हो रही थी; उन प्रभावों पर, जिनके कारण संतान की शारीरिक छवि ही नहीं, मानसिक और सांस्कारिक बनावट भी माता-पिता से संतान में उतर आती है. अपने संस्कारों और स्वभाव का जिक्र करते हुए अतुल ने बताया, अनेक बार उसे लगता है कि उसके व्यक्तित्व में थोकदार का चरित्र हावी है. तर्क और भावना में से किसी एक को चुनने के द्वंद्व में उसके निर्णयों में भावुकता का पलड़ा भारी हो जाता है.    

बहुत संभव है, विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते अतुल बात के जिस सिरे को पकड़ कर बातें कर  रहा था, मैं उसे न पकड़ पाया होऊँ, मगर मेरे लिए यह बात हैरत में डालने वाली तो थी ही कि पाण्डेय का बेटा आधा थोकदार  कैसे हो सकता है? बात तब साफ हुई जब उसने अपनी बात विस्तार से बताई.

अपने बचपन के बारे में बताते हुए अतुल ने उस घर का जिक्र किया जहाँ उसका जन्म हुआ था. संयोग से यह वही घर था जो मेरी बुआ के मकान से सटा हुआ था जहाँ बाद के वर्षों में मेरा बचपन भी बीता था. अतुल के पिता सरकारी कर्मचारी थे जो बुआ के घर में किरायेदार थे. यह बात उस वक़्त लगभग पैतीस साल पुरानी थी –१९४० के आसपास की. उसने बताया, माँ-बाप की पहली संतान के रूप में जिस साल उसका जन्म हुआ, माँ की छाती का दूध सूख गया था. उन दिनों नैनीताल के निम्न-मध्यवर्गीय परिवारों में डिब्बे के दूध का प्रचलन नहीं था, न उसे पीना अच्छा समझा जाता था. संयोग से जिस दिन अतुल जन्मा उसी दिन बगल में रहने वाले खाती जी के परिवार में एक बेटे ने जन्म लिया था. रात भर अतुल जब भूख से बिलखता रहा, बगल के सटे कमरे  में सोयी हुई मिसेज खाती से नहीं रहा गया और उन्होंने अतुल को अपने पास लाने को कहा. उसी दिन से उनका एक दूध अपने बेटे के लिए और दूसरा अतुल के लिए सुरक्षित रख दिया गया. इस तरह अतुल की धमनियों में एक थोकदारनी के दूध का संस्कार दौड़ने लगा. इस मिलन ने एक जीनियस को जन्म दिया जो अतुल के अनुसार जैविक संरचना का एक दिव्य उदाहरण था.

योगी-मोदी युग की नई पीढ़ी के लिए, जिनके संस्कारों को अलग-अलग मजहबों के रूप में देखने का दबाव बढ़ता जा रहा है, आने वाले समय में यह बात अजूबा लगेगी मगर आज से आठ दशक पहले इस गंगा-जमुनी संस्कार ने न जाने कितने जीनियसों को जन्म दिया था.

कहीं यही तो कारण नहीं है कि आजादी के बाद की दूसरी-तीसरी पीढ़ी के बाद जन्म लेने वाले बच्चों में जीनियसों की संख्या आश्चर्यजनक ढंग से कम हुई है!

(फ़ोटो आभार : Lukasz Piech)

अब मैं आपको उस प्रसंग की ओर ले चलता हूँ जहाँ से मैंने इस संस्मरणात्मक किस्से की शुरुआत की थी. नैनीताल से इलाहाबाद तक की वह यात्रा, जिसका उद्देश्य कुमाऊँ विश्वविद्यालय के प्रथम दीक्षांत समारोह में व्याख्यान देने के लिए कुमाऊँ के पहले जीनियस रचनाकार सुमित्रानंदन पन्त को आमंत्रित करना था. इस किस्से का विषयांतर यह है कि जब हम महाकवि पन्त के पास पहुंचे, वो बीमार थे और नैनीताल तक की लम्बी यात्रा करने में असमर्थ थे. उन्होंने ही अपनी मित्र हिंदी साहित्य के छायावाद की चौथी स्तम्भ महादेवी वर्मा को दीक्षांत भाषण देने के लिए राजी किया था. कुमाऊँ विश्वविद्यालय का पहला ऐतिहासिक दीक्षांत व्याख्यान महादेवी वर्मा ने दिया. 

सुमित्रानन्दन पन्त का जन्म तत्कालीन अल्मोड़ा ज़िले के खूबसूरत गाँव कौसानी में 20 मई 1900 ई॰ को हुआ था. जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माँ सरस्वती देवी चल बसी थीं और उनका पालन-पोषण उनकी दादी ने किया. जाहिर है कि सात भाई-बहनों में सबसे छोटे गुसाई दत्त (कवि पन्त का वास्तविक नाम) की दादी इस स्थिति में नहीं रही होंगी कि वो उन्हें अपना दूध पिला सकतीं. पिता गंगादत्त कौसानी के चाय-बागानों में मैनेजर थे; कहा जाता है कि चाय-बागान के ही एक कर्मचारी धरम सिंह की बीवी खिमुली को भी उसी दिन बेटा हुआ था. पड़ौस के गाँव गरुड़ का धरम सिंह उन दिनों अपनी बीवी को कौसानी ले आया था जो गंगादत्त के घर पर घरेलू कामों में मदद करती थी. जिस दिन पन्त की माँ को  प्रसव पीड़ा हुई धरम सिंह के लिए संभव नहीं था कि उसे गाँव भेज पाता. लगभग एक ही घड़ी में  धरम सिंह के बेटे गुसाई सिंह और गंगा दत्त के बेटे गुसाई दत्त का जन्म हुआ और माँ की मृत्यु के बाद गुसाई दत्त की दादी ने उसे खिमुली की छाती से लगा दिया. खिमुली का एक दूध धरम सिंह के बेटे का और दूसरा गंगा दत्त के बेटे का. दोनों जुड़वां बेटों की तरह पलते रहे. पंडित का खून और थोकदार का दूध. खून और दूध के इस मिश्रण ने जन्म दिया भारतीय साहित्य में प्रकृति के अद्भुत चितेरे कवि सुमित्रानंदन पन्त को. हिंदी साहित्य के शेली और वर्ड्सवर्थ समझे जाने वाले कवि को. आँखें खोलने के बाद जिस रहस्यमय संसार को गुसाई की आँखों ने पहली बार देखा वह दिव्य वनस्पतियों के झुरमुटों से भरा कौसानी का जंगल था जहाँ के पक्षियों का ‘टी-वी, टुट- टुट’ स्वर पहली बार उसके कानों में पड़ा.

सुमित्रानंदन पंत  

कौसानी के इस जंगल को जिसने भी देखा, उसे यहाँ प्रकृति की अलग छवि दिखाई दी. उन्नीस सौ बीस के दशक में गांधीजी यहाँ पहुंचे तो उन्हें ऐसा रचनात्मक एकांत दिखाई दिया कि उन्होंने यहाँ अनासक्ति योग-दर्शन लिख डाला. पचास के दशक में ‘अंधा युग’, ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ और ‘मुनादी’ जैसी कालजयी रचनाओं के प्रणेता धर्मवीर भारती यहाँ पहुंचे तो बादलों के बीच झांकता क्षितिज उन्हें ‘ठेले पर (सजा) हिमालय’ लगा. इन्हीं हिम-शृंखलाओं की गोद में बसे पहाड़ी लोगों और काफल के वृक्षों के बीच अनेक लोक विश्वास और दर्द-भरी कथाएं प्रचलित हैं जिनमें से एक ‘काफल पाको, मेंल नि चाखो’ का भावपूर्ण उल्लेख भारती जी ने अपनी किताब ‘ठेले पर हिमालय’ में किया है.

लोक कथाओं के पात्रों की कोई जाति नहीं होती. जिसके मुंह से कथा फूटती है, कथा का चरित्र उसी की जाति में ढल जाता है. ‘काफल पाको’ की नायिका उस छोटी अबोध बच्ची की जाति भी पता नहीं क्या थी, इसकी जानकारी न लोक-गायक को थी, न धर्मवीर भारती को, न सुमित्रानंदन पन्त को और न मुझे. मोदी-योगी को भले ही उसकी जाति जानने में रुचि हो, हममें से किसी को नहीं है.

कौसानी जैसे ही किसी घने काफल-वन के किनारे बसे गाँव की रहने वाली थी वह अबोध बच्ची, जिसके साथ किसी भी सरल-भावुक पहाड़ी लड़की का नाम जोड़ा जा सकता है. वैसे तो इस उम्र में हर बच्ची किसी पर भी आसानी से भरोसा कर लेती है, पहाड़ी एकांत के बीच पली-बड़ी लड़कियां तो स्वभाव से ही हर अजनवी पर विश्वास कर लेती हैं. वह बच्ची भी एक आम अभावग्रस्त पहाड़ी परिवार के बीच पली लड़की थी, जिस परिवार में सिर्फ दो लोग थे, बूढ़ी दादी और वो खुद. किस्सागो ने इस बात का जिक्र नहीं किया है कि उसके माँ-बाप कौन थे और कहाँ थे. वो इस दुनिया में थे भी या नहीं? वे लोग अपनी बेसहारा बूढ़ी माँ और अबोध बच्ची को इस तरह छोड़ कर क्यों और कहाँ चले गए? अब मैं लोक के सुदूर अतीत में ये सारी जानकारी लेने कहाँ जाऊं?

मान लीजिए, उस बच्ची का नाम भागुली था और बुढ़िया का आमा. पहाड़ों में इस उम्र के लोगों के ये आम संबोधन हैं. भागुली शब्द की व्युत्पत्ति हम कहाँ ढूंढें? इससे जुड़े शब्द ‘भागा’, ‘भागी’ कुमाऊँ क्षेत्र में आम बोलचाल में खूब इस्तेमाल किये जाते हैं. इन शब्दों का सम्बन्ध भाग्य से हो सकता है और भागने से भी. शायद इसीलिए ये दोनों बातें पहाड़ी लड़की की नियति बन गई हैं. पता नहीं कब नियति एक पहाड़ी लड़की का भाग्य उसे क्या बना दे, कब उसे बिगाड़ दे. भागम-भाग भी पहाड़ी लड़की की शाश्वत नियति है. लगातार भागते रहना, बिना रुके, क्योंकि वह खुद नहीं जानती कि उसे किस जगह जाकर रुकना है. पहाड़ी लड़की के भाग्य की विडंबना यह है कि उसे यह अनथक दौड़ सीधे उठे पर्वतों की ऊंचाइयों में लगानी पड़ती है. पहाड़ के एक पार्श्व से दूसरी ओर की पहाड़ी का अंदाज़ लगाया भी नहीं जा सकता. हर लड़की की जिन्दगी का दूसरा पार्श्व उसके लिए हमेशा अनजान तो होता ही है. उसे वह जानना चाहे भी तो नहीं जन सकती; इसीलिए सहज विश्वासी होती है.

ऐसी ही सहज विश्वासी थी भागुली.

एक दिन भागुली के घर में कुछ भी खाने को नहीं था तो आमा जंगल से काफल तोड़ लाई. आमा को शाम के खाने की जुगत के लिए लकड़ी और साग लाने फिर जंगल जाना था, इसलिए वह काफल की टोकरी घर के आँगन में छोड़कर फिर से चली गई. दोपहर ढले जब आमा वापस आई तो देखा काफल की टोकरी आधी हो चुकी थी. असल में दिन भर की तेज धूप में काफल सूखकर सिकुड़ गए थे और आमा ने समझा, आधे काफल भागुली खा गई है. सुबह की भूखी-प्यासी आमा यह देखकर आग-बबूला हो गई और भागुली को पीटने लगी. भागुली कितना ही मना करती रही कि उसने काफल नहीं खाए हैं, मगर आमा नहीं मानी. वह लगातार उसे डंडे से पीटती रही. जब तक होश थे, भागुली चिल्लाती रही, आमा मैंने काफल नहीं खाए, मेरी बात पर भरोसा करो; मगर आमा का तो गुस्सा सातवें आसमान पर था. जब तक ताकत थी, उसे पीटती रही और थक गई तो भागुली को आँगन में ही छोड़कर खुद भी भूखी-प्यासी सो गई.

सबह उठी तो आमा ने देखा भागुली आँगन में उसी जगह पर सोई हुई है जहाँ उसे वह शाम को छोड़ गई थी. भागुली अपनी क्षीण आवाज में एक ही वाक्य दुहरा रही थी, ‘काफल पाक्को, मेंल नि चाक्खो’... (काफल पक गए हैं आमा, मैंने नहीं खाए)... भूख में वह लगातार बड़बड़ा रही थी, मुझे भूख लगी है आमा, काफल पक गए हैं, मुझे खाना दो. ‘काफल पक गए हैं आमा’ भागुली ने आखिरी बार कहा और प्राण त्याग दिए. भागुली की बगल में काफल से भरी टोकरी उसी तरह पड़ी थी जैसी वह कल दोपहर छोड़कर जंगल गई थी. अनुभवी आमा को यह समझते देर नहीं लगी कि दिन की धूप में कुम्हला गए काफल रात भर की ओस से फिर से ताज़ा हो उठे थे. आमा ने भागुली को सीने से लगाया और रोने लगी.मगर तब तक भागुली के प्राण-पखेरू अनंत आकाश में उड़ चुके थे. ‘कफू’ पक्षी के रूप में वह आकाश की प्रत्येक दिशा में भटकती एक ही बात रटती जा रही थी, काफल पक गए हैं आमा, मैंने नहीं खाए... यह कफू पक्षी आज भी हर साल वसंत ऋतु के आते ही अपनी आमा से क्षमादान की याचना करता है, पता नहीं उसकी आमा ने उसे माफ़ किया या नहीं! यह सिलसिला सदियों से ऐसे ही चला आ रहा है. रात भर की ओस में भीगकर हर सुबह काफल ताज़ा होते हैं, फिर दोपहर की धूप में कुम्हला जाते हैं. कफू पक्षी दसों दिशाओं में भटकती आमा से क्षमादान मांगता है - काफल पक गए हैं आमा, मैंने नहीं खाए, मुझे खाना दो... सारी दिशाएं भागुली के क्रंदन को चुपचाप सुनती रहती हैं और इसके साथ ही आमा के पश्चाताप को भी, जिसे सुनने वाला कोई नहीं बचा था. भागुली के क्रंदन के बीच कहीं पार्श्व में यदा-कदा आमा का रुदन सुनाई देता है: घुरु-घरु... घुरू-रू... चेली, कहाँ है तू? तुझे खोजते-खोजते मैं थक गई हूँ... अब तो तू मुझे माफ़ कर दे!

यह सिलसिला, आमा का रुदन और गरीबी, अभाव, भाग्य के सहारे चलती जिन्दगी, अनवरत पहाड़ी चट्टानों की चढ़ाई और अबोध बच्चियों के सहज विश्वास की उपेक्षा निरंतर जारी है. न जाने कब तक जारी रहेगा यह सिलसिला?


अपनी मातृभाषा कुमाऊनी में पन्त जी की एक कविता है: ‘बुरूंश’. इस कविता में उन्होंने बुरूंश को इसलिए सर्वश्रेष्ठ पुष्प कहा है क्योंकि यह उनकी प्रेमिका को पसंद है:

सारि दुनी में मेरि सू ज लै क्वे न्हा
मेरि सू कें रे त्योर फूल जै अत्ति भाँ

(सारे संसार में मेरी प्रिया जैसा भी कोई नहीं है; मेरी प्रेयसी को भी (ओ बुरूंश) तेरा फूल अत्यधिक पसंद है.)

पंतजी अब विश्व कवि हो चुके थे इसलिए उन्हें प्रौढ़ अवस्था में गरीबों का फल काफल नहीं, राजसी पुष्प बुरूंश याद आता है. बुरूंश भी इसलिए क्योंकि वह उनकी प्रेयसी का पसंदीदा फूल है. काफल तो भागुली का फल है जो कठिन परिश्रम के बाद भी उसके पास आते-आते हाथ से सरक जाता रहा है. वह युग-युगों तक उसे अपने अस्तित्व का हिस्सा बनाने, पेट की आग बुझाने के लिए निरंतर आमंत्रित करती रहती है, फिर भी कुछ हाथ नहीं आता...

भागुली का भाई गुसाई सिंह और महाकवि का बचपन गुसाई दत्त सगे भाई ही तो थे, मगर भाग्य दोनों के अलग-अलग लिख दिए गए. थोकदार पुत्री भागुली को काफल भी उपलब्ध न हो सका, चाय-बागानों के स्वामी गंगा दत्त के पुत्र को बुरूंश इसलिए विश्व का सर्वश्रेष्ठ पुष्प लगा क्योंकि वह प्रेयसी के माध्यम से उसे सहज उपलब्ध है. फिर भी महाकवि काफल जैसे जीवनदायी फलों को याद करने की कृपा करता है, हालाँकि अपने बूते पैदा हुए आस-पास फैले जंगली फलों वाले पेड़ों की तरह:

काफल कुसम्यारु छ, आरु छ आखोड़ छ,
हिसालु, किल्मोड़ त पिहल सुनुक तोड़ छ,
पै त्वी में जोवन छ, मस्ती छ, पागलपन छ,
फुली बुरूंश, त्योर जंगल में को जोड़ छ?

(काफल है, कुसम्यारू भी, आड़ू है, अखरोट भी; हिसालु-किल्मोड़ा तो पीले सोने के हार की तरह खिले हैं; मगर तुझमें तो यौवन है, मस्ती है, पागलपन है; फूले बुरूंश! सारे जंगल में तुम्हारी बराबरी का भला कौन है?)

यही तो विडंबना है पहाड़ों की. अपनी गोद में पाल-पोस कर ये जंगल अपनी संतानों को देश-संसार का नेतृत्व करने के लिए भेजते हैं जहाँ पहुँच कर वे अपनी धरती को कभी-कभार नौस्तेल्जिया के रूप में याद तो करते हैं मगर उसे अपनी प्रेयसी की दासी से अधिक महत्व नहीं देते. हम इसी में खुद को धन्य समझते हैं कि दास रूप में हमें अपनी विश्व-माता की सेवा का अवसर मिल रहा है.

(काफल)

महाकवि सुमित्रानंदन पन्त तो गुसाई दत्त के अपने पहाड़ी खोल से मुक्त होकर देश-दुनिया के प्यारे हो गए, यह बात अलग है कि उनके जुड़वां थोकदार पुत्र गुसाई सिंह और असमय काल का ग्रास बन गई भागुली का भाग्य आज तक जरा भी नहीं बदला.

इस किस्से के दूसरे जीनियस अतुल पांडे अपने क्षेत्र में ज्ञान के पहले केंद्र के विन्यास के लिए जी-जान से जुटे; उस केंद्र के प्रथम दीक्षांत समारोह में सदियों से उपेक्षित युवाओं के प्रेरक अपने धरती-पुत्र को आमंत्रित करने के लिए उन्होंने लम्बी यात्रा भी की, मगर इस बार भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया. जिंदगी के पांच दशक पूरे करने से पहले ही इस जीनियस को नियति ने हमसे छीन लिया और हम फिर से उतने ही हतभाग्य और अकेले हो गए. मानो अकेला रह जाना ही इन पर्वत-वासियों की नियति हो.


इसी बीच सामने आया अपनी क्षेत्रीय चेतना के साथ काफल के जंगल को अपनी अस्मिता के रूप में अन्तरंगता से याद करता रचनात्मक प्रयास ‘काफल ट्री’. किसी ज़माने में सांस्कृतिक कबाड़ख़ाने से हिंदी गद्य के अतुलनीय किस्से समेटता यह युवा ‘कबाड़ी’ अशोक पांडे पहाड़ के सांस्कृतिक ऊहापोह को उसकी ही स्लैंग भाषा और शर्तों पर उजागर करने लगा. हिंदी के कुंठाग्रस्त और घनघोर गुटबाज माहौल में काफल ट्री ऐसी उम्मीद का नाम है जो इस दुर्भाग्यपूर्ण दौर में हमें अपनी पहचान, अपनी भाषा और अपने सरोकार देकर जिन्दगी की उमंग और उत्साह के साथ हमें लौटा रहा है. यह पहला मौका है जब बिना दुराग्रहों के अपनी जमीन को महसूस करने का हमें मौका मिल रहा है.

हालाँकि खतरा यहाँ भी साफ महसूस हो रहा है. अतीत का हर टुकड़ा अनुकरणीय नहीं होता, जैसे हर नया ‘आधुनिक’ नहीं हो सकता. परंपरा में से अन्धविश्वास और नौस्तेल्जिया की बारीक़ परतों को छांट कर उसमें से अपने लिए जीवंत तत्वों को चीन्हना आसान नहीं होता. अस्तित्व को बचाये रखने से जुड़ी जीवन यात्रा में कई बार (बल्कि ज्यादातर) वे प्रसंग अधिक आकर्षक लगते हैं, जिन्हें हमारे पुरखे फालतू समझकर त्याग चुके होते हैं. वो देवता और नायक जो एक खास वक़्त की उपज होते हैं, दूसरे दौर में अनावश्यक और अवरोध पैदा करने वाले हो सकते है. परम्परा का विवेक यहीं पर काम आता है. हमारा हर पुरखा नायक नहीं हो सकता, ठीक उसी तरह कई बार अतीत में इतिहास को नुकसान पहुँचाने वाले पुरखे भी हमारे बड़े काम के हो सकते हैं. 

कल का खलनायक आज का नायक और कल का नायक आज का खलनायक भी हो सकता है. निश्चय ही इसके लिए परम्परा-बिद्ध सम्यक दृष्टि का होना जरूरी है. इसका मतलब यह कतई नहीं है कि काफल ट्री के पास यह नजरिया नहीं है, मगर अपने ही विश्वासों में से चयन का विवेक ही समर्थ इतिहास-दृष्टि को जन्म देता है. कई बार हम अतीत के नाम पर अन्धविश्वास परोसने लगते हैं और यह प्रक्रिया कहीं अधिक खतरनाक होती है. मुझे हमेशा लगा है कि अपनी पीढ़ी में एक जीनियस की मेधा को समेटे इस युवा ‘कबाड़ी’ के पास अपनी परंपरा से जुड़ा विवेक है, इसलिए इस आलेख के उपसंहार के साथ-साथ अपनी संस्कृति को लेकर मैं काफी हद तक आश्वस्त हूँ.(क्रमश :)

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बटरोही
9412084322
batrohi@gmail.com

हम तीन थोकदार को  यहाँ  पढ़ें'-

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  1. 'हम तीन थोकदार' शीर्षक से बटरोही जी का यह संस्मरण काफी रोचक है और साँस्कृतिक दृष्टि से मूल्यपरक भी। तीसरी कसम की महुआ घटवारिन की कथा जितनी हीं मर्मस्पर्शी है भागुली की कथा जो अब लोक कथाओं में रच-बस गई है। यह सही है कि मिथकीय चरित्रों की कोई जाति नहीं होती,वह कथा में जिस कंठ से फूटती है,उसकी जाति में हीं घुल-मिल जाती है। इस पूरे लेख में बस एक हीं बात थोड़ी असंगत लगी, मोदी-योगी..सांस्कृतिक पतन के कारणों को सिर्फ़ दो शब्दों में सीमित कर देना भी एक तरह का सरलीकरण है।

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  2. भूपेंद्र बिष्ट7 दिस॰ 2020, 9:46:00 pm

    सर, "हम तीन थोकदार" के ग्यारहवीं किश्त का पहला अंश जब जारी हुआ तो पता चला कि इस बीच आपके दुश्मनों की तबीयत कुछ नासाज़ रही. आशा करता हूं कि अब आप स्वस्थ होंगे.

    संस्मरणों की इस श्रृंखला में आप जिस तरह संदर्भों और प्रसंगों को दोबारा ज़िंदा करने के क्रम में पहाड़ों की भुला दी गई कुछ चीज़ों को भी आविष्कृत करते जा रहे हैं, वह सचमुच ठंडी पड़ चुकी राख़ में भी चिंगारी की मौजूदगी बताने जैसा काम है. यहां पाठकों को ' भागुलि ' के जिक्र भर से जो ऊष्मा मिल गई, वह आपकी सृजनात्मक चमक और चमत्कार से ही मुमकिन हुआ. आभार और प्रणाम.

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  3. नूतन डिमरी गैरोला15 दिस॰ 2020, 4:35:00 pm

    पूरा संस्मरण पढ़ा। उम्मीद है कि बटरोही जी अब पूर्ण स्वस्थ हो गए होंगे। वे post covid व्यायाम और केयर ले रहे होंगे।
    यह भागुली की कथा कहां पहाड़ की किस दिशा से आई यह मुझे ज्ञात नहीं लेकिन मैने माँ के मुंह से ये कथा और अन्य कथाएं बचपन मे सुनी हम उनसी सुना करते थे।

    थोकदार के रूप में पांडे जी और पंत जी गंगा जमुनी संस्कृति का एक अलग पर्याय जो बटरोही जी ने पेश किया वह कुछ अलग खास था और विचारणीय है। भाग्य और भागना भगुली से जुड़ा। पर जीनियस भी उस गंगा जमुनी संस्कृति की देन हो सकते है इस पर मनन कर रही हूं। बहुत अच्छा लेख है पहाड़ की खोई धरोहर को सामने लाये है बटरोही जी। अरुण जी व समालोचन को धन्यवाद।

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