बटरोही : हम तीन थोकदार (छह)


हिंदी के वरिष्ठ कथाकार-उपन्यासकार बटरोही इधर ‘हम तीन थोकदार’ शीर्षक से आख्यान लिख रहें हैं जिसे आप समालोचन पर क्रमश: पढ़ रहें हैं. इस आत्म और अस्मितामूलक श्रृंखला की इस कड़ी में भारतीय समाज में जाति का सवाल तीखा होकर प्रत्यक्ष हुआ है. साहित्य, समाज और राजनीति के जिन तीन प्रतिनिधि वास्तविक किरदारों को बटरोही लिख रहें हैं उनमें से उनका राजनीतिक पात्र पहले से प्रश्नों के घेरे में हैं.

यह सब पढ़ना और इसका आख्यान के शिल्प में विकसित होते देखना जहाँ दिलचस्प है वहीं अर्थ-गर्भित भी.
‘हम तीन थोकदार’ का छठा हिस्सा प्रस्तुत है.    



हम तीन थोकदार (छह)  
जोशी मनोहरादित्यनाथ जोगीबिष्ट                 
एक कौम की वसीयत जाति के नाम  

बटरोही



ख्यान की शुरुआत जाति-नाम से हुई थी, मगर जल्दी ही मामला अस्मिता की पहचान में सरक आया. ऐसा होना ही था क्योंकि जाति है ही ऐसी चीज, जिसका सम्बन्ध देह की सबसे संवेदनशील जगह नाक के साथ होता है. फिर भी सोचा नहीं था कि मामला इतनी जल्दी तूल पकड़ लेगा. चिंता की बात यह हो गई कि यह खलल भूपेन नामक ऐसे व्यक्ति ने डाला जिसका कोई जाति-नाम नहीं है. जाहिर है, यह पता नहीं लग पाया कि बहस जाति के पक्ष में जा रही है या विरोध में. क्या सचमुच विवाद की वजह जाति ही होती है!

पिछली बार जहाँ पर कहानी खत्म हुई थी, वह पैकों का संसार था; उत्तराखंड के पैकों का, जिन्हें कभी अतीत में ‘खस’ या ‘खसिया’ कहा जाता था, और बाद के दौर में ‘थोकदार’ कहा जाने लगा. इस बार जब आख्यान के तीसरे थोकदार अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ के बारे में लिखने की बारी आई तो पाठकों की नज़र आख्यान के बदले इस नए चरित्र पर केन्द्रित हो गई. चूंकि इस पात्र का वर्तमान परिचय अनेक तरह के सवालों और विवादों के साथ घिरा हुआ है, इसलिए उसके कथा-चरित्र बनने से पहले ही बहस खड़ी हो गयी. ऐसे में मुझे लगा, इस पात्र की एंट्री कुछ अलग ढंग से होनी ही चाहिए ताकि कोई ऐसा नुक्ता न बचा रह जाए जिसका फायदा उठाकर पाठकगण इस पात्र की तरह मुझे भी अगवा न कर लें.

अब, जब कि मामला गंभीर बन गया है, इसे हंसी में टालना मुसीबत का सबब बन सकता है. समस्या यह है कि इस विशिष्ट पात्र को पूरा भारत जानता है. बात सिर्फ साहित्य की होती तो टाला जा सकता था, मगर ऐसे समाज में जहाँ लोग साहित्य को लेकर तो पूरी तरह बेखबर हों मगर राजनीति में सिर से पांव तक डूबे हुए हों, इस तरह के नाजुक प्रकरण को उठाना खतरे से खाली नहीं हैं. एक गंभीर खतरा यहाँ और है. जो पात्र अपना मूल जाति-नाम त्यागकर दूसरी काया में प्रवेश कर चुका हो, उसे सही रूप में चीन्ह कर जनता की अदालत में खड़ा करना नए प्रकार का विवाद पैदा कर सकता है. ऐसे में मुझे लगा, इस विवादास्पद कथा-मंच पर उसकी पैरवी करने वाला व्यक्ति भी कोई मजबूत साहित्यिक अधिवक्ता होना चाहिए.

बार-बार सवाल उठाया जा रहा था कि एक कट्टर हिंदूवादी व्यक्ति को वाम रुझान वाले हिंदी लेखकों के बीच कैसे खड़ा किया जा सकता है. जब यह आख्यान गर्भ में ही था, मित्रों ने तभी से आख्यान लेखक को घेरना शुरू कर दिया था. शिकायतकर्ताओं को बार-बार याद दिलाया जा रहा था कि मित्रो, यह कथा-चरित्र कोई हाइ-फ़ाइ सीएम नहीं, पौड़ी-गढ़वाल की यमकेश्वर तहसील के पंचुर गाँव में मेरी जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि में पैदा हुआ वह बच्चा है जिसका और मेरा सरनेम संयोग से एक है. मगर हिंदी वाले इतनी आसानी से मानते कहाँ हैं? शायद इसीलिए मुझे अपनी सुरक्षा के लिए अपने क्षेत्र के सबसे ताकतवर साहित्यिक पैक मनोहरश्याम जोशी को अधिवक्ता के रूप में पाठकों की अदालत में लाना पड़ा.

अपने वकील के रूप में जोशीजी का नाम जोड़ना मुझे खुद भी अटपटा लग रहा था; इसलिए कि हिंदी में उनका जो कद है, उसके सामने मैं तो खड़ा होने की हिम्मत तक नहीं कर सकता. फिर सोचा, मैंने उनका नाम अपने साथ नहीं, अपने कथा-नायक के साथ जोड़ा है; शायद इस रूप में उनके नाम का इस्तेमाल मैं खुद पर पड़ रही आलोचना की बौछारों से बचने के लिए छाता की तरह कर सकूं. बड़े रचनाकार ऐसे ही तो आने वाली पीढ़ियों के सुरक्षा-कवच बनकर उन्हें संजीवनी देते हैं. उत्तराखंड के लेखकों के बीच उनसे ताकतवर पैक हिंदी में और कौन हो सकता है?

कुछ लोगों को इस मौके पर उनके ही समकालीन शैलेश मटियानी की याद आ रही होगी, इसलिए कि कुमाऊँ के पैकों को लेकर सबसे पहले उन्होंने ही उपन्यास लिखे हैं. पचास-साठ के दशक में लिखी गई पैक-गाथाओं - ‘मुख सरोवर के हंस’, ‘एक मूठ सरसों’, ‘बेला हुई अबेर’, ‘चौथी मुट्ठी’ और ‘उगते सूरज की किरण’ जैसी क्लासिक रचनाओं को कौन भूल सकता है. मटियानीजी के साथ पाकों का जाति-समीकरण तो फिट बैठता है, मगर यहाँ और तरह की जटिल समस्या है. इतने विशाल हिंदी प्रदेश के पाठकों की जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए शैलेश जी का कद छोटा तो नहीं है, मगर उनकी आवाज़ को आर से पार तक फैले इस समाज तक पहुँचाने के लिए जिस अनुवाद-भाषा की अनिवार्य जरूरत हो सकती है,वह इंग्लिश, उन्हें नहीं आती. और भारत में आपकी तब तक कोई पूछ नहीं है जब तक कि आप अंग्रेजी में पारंगत न हों. मूर्धन्य विद्वान वात्स्यायनजी के सही शिष्य जोशीजी का अंग्रेजी माध्यम वाले साहित्य में तो क्या, विज्ञान और कलाओं के दूसरे क्षेत्रों में भी भला कोई मुकाबला कर सकता है?

पाठकगण जरूर कयास लगा रहे होंगे कि ऐसा मैं मुख्य समस्या से उनका ध्यान हटाने के लिए जानबूझकर कर रहा हूँ. पिछली क़िस्त में मैंने एक बामणी को पैक कन्या बताकर ब्राह्मणों की सहानुभूति पाने के लिए जमीन तैयार की, अब ब्राह्मण-सुत जोशीजी को पैक उपाधि से विभूषित करके आसान समझौते का रास्ता निकाल लिया है. हमारे वामपंथी बंधु कहते हैं, ऐसा करके मैं खुद ही ब्राह्मणवाद की गिरफ्त में फंसने जा रहा हूँ!... मगर पाठक ऐसा कहकर एक बार फिर फतवा देने में जल्दबाजी कर रहे हैं. मैं अपने जिस पैक-अधिवक्ता मनोहरश्याम जोशी का जिक्र करने जा रहा हूँ, वह भले ‘ब्राह्मण-सुत’ हों, यहाँ वो ‘क्याप’ उपन्यास के नायक कस्तूरीकोट के आदिवासी डूम हैं. और डूम को तो सनातनी लोगों को पैक मानने में कोई ऐतराज नहीं है, जैसी कि मैंने पिछली क़िस्त में राजा शूद्रक को लेकर चली बहस में सिद्ध करने की कोशिश की. बहरहाल!

पहले मैं पाठकों को अपने अधिवक्ता की जन्मभूमि कस्तूरीकोट का परिचय दे दूँ. पाठक देखेंगे कि जोशीजी ने ‘क्याप’ में उत्तराखंड की जो सामाजिक संरचना चित्रित की है, हू-ब-हू वही है जो ‘हम तीन थोकदार’ की है. वही भौगोलिक स्थिति, वैसी ही जातिगत और आर्थिक संरचना और वैसे ही सामाजिक अंतर्विरोध.

अपनी जीवन-गाथा ‘क्याप’ में जोशीजी लिखते हैं, “हमारे प्रान्त की उत्तरी सीमा से थोड़ा इधर को एक अत्यंत दुर्गम क्षेत्र स्थित है, जो कभी रियासत कस्तूरीकोट के नाम से जाना जाता था और आज जिला वाल्मीकि नगर के नाम से पुकारा जाता है. कस्तूरीकोट इसलिए पुकारा जाता था कि यहाँ कभी कस्तूरी मृगों की भरमार थी. वाल्मीकि नगर इसलिए कहलाता है, यहाँ ऐसे लोगों की भरमार है जिन्हें बाहर से आये विजेताओं ने डूम यानी अछूत माना. उनसे थोड़े बेहतर दर्जे के लोगों को उन्होंने खसिया का दर्जा दिया.”

समाजशास्त्री युवा लेखक भूपेन की जानकारी के लिए कस्तूरीकोट की सामाजिक संरचना के बारे में ‘क्याप’ के हवाले से बताना अप्रासंगिक नहीं होगा, अधिवक्ता के अनुसार,
“ये आदिवासी, जिनकी संख्या बहुत ज्यादा थी, भोजन-पानी तो दूर, सवर्ण की छाया भी नहीं छू सकते थे. अगर किसी काम से उसे बुलाया जाता था तो घर के बाहर जहाँ वह बैठा रहता था, उस जगह को सोने का स्पर्श पाए पानी से धोना और फिर गोबर से लीपना होता था. फिर उस जगह पर और घर वालों पर गोमूत्र छिड़कना आवश्यक समझा जाता था. अगर कोई कमजोर नज़र वाला सवर्ण दूर से आते आदिवासी को अपना कोई बिरादर समझकर नमस्कार कर देता था तो यह आदिवासी के लिए भयंकर अपशकुन वाली बात मानी जाती थी और भयभीत आदिवासी फौरन अपने फटेहाल कपड़ों का एक हिस्सा फाड़कर आग में जलाकर श्रापमुक्ति पाता था. खसिया, जो कभी इलाके के स्वामी रहे होंगे, सवर्णों का पानी छू सकते थे, खाना नहीं. खसियों के लिए हम डूम अछूत थे. जहाँ तक बाहर से आये विजेताओं का सवाल है उनके लिए यहाँ के ब्राह्मण भी एक तरह से अछूत ही हैं और वे उनसे सम्बन्ध नहीं रखते.”

किस्सा आगे बढ़ाते हुए उपन्यास का नैरेटर कूर्मांचली लिखता है,
“सच तो यह है कि हमें अन्य इलाकों में प्रचलित संज्ञाओं बामण, खसिया और डूs से संबोधित न करके हामण, हसिया और हूम कहना पसंद करते थे. इसका औचित्य यह था कि उनकी बोली में ‘बामण-वामण’ या ‘डूs-वूम’ न कहकर ‘बामण-हामण’ और ‘डूs-हूम’ कहने का रिवाज था. विचित्र किन्तु सत्य कि विजेताओं के दिए हुए इस हिकारत भरे ‘हकार’ से मुक्ति पाने के लिए हम लोगों को बाकायदा राजदरबार में गुहार लगानी पड़ी थी. तब जाकर हम बामण, खसिया और डूs समझे जा सके सरकारी तौर पर. व्यवहार में बाहर वाले हमें हामण, हसिया और हूम ही पुकारते थे.”  

यहाँ पर विशेष रूप से ध्यान देने वाली बात यह है कि मेरे अधिवक्ता-लेखक के जिस साहित्यिक अवदान का मैं जिक्र कर रहा हूँ, यानी आत्म-कथात्मक शैली में लिखे गए डूs आख्यान ‘क्याप’ पर उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्य अकादमी सम्मान प्राप्त हो चुका है.

उम्मीद है, सहृदय पाठकगण अब जान चुके होंगे कि मैंने अपने चरित-नायक का जोशीजी में कायाकल्प करके क्यों ऐसा चित्र-विचित्र शीर्षक रचा है : जोशी मनोहरादित्यनाथ जोगीबिष्ट.

मैं जानता हूँ कि जोशीजी आज जीवित होते तो इस शीर्षक को पढ़कर अपनी सदाबहार भंगिमा, आँखें मूंदे ध्यानमग्न, बड़बड़ाते,
‘तुझे तो शर्म से डूब मर जाना चाहिए था थोकदार! कैसा खसिया है यार तू, अंग्रेजीपरस्त बामणों की गीदड़ भभकी से डर गया? मुझे देख, कस्तूरीकोट का हूम होते हुए भी हिंदी वालों की राम-मय पतित-पावन देली में चौपड़ मारे बैठा कैसे उन्हीं की छाती में मूंग दल रहा हूँ... ऐसी होती हैं पैकों की संतान!’



आख्यान की इस क़िस्त को लिखने के पीछे जोशीजी से जुड़ी एक और बात मेरे दिमाग में थी, जिसका जिक्र मैं कर देना चाहता हूँ. बात शायद २००९-१० के आसपास की होगी; जोशीजी का उपन्यास ‘क्याप’ प्रकाशित हुआ ही था और उसकी कुछ प्रतियाँ लेकर वो अल्मोड़ा आये थे. इस बीच ‘कसप’ की लोकप्रियता से उत्साहित जोशीजी के परिजनों/पाठकों ने अल्मोड़ा में बहुत बड़ी संख्या में उपस्थित होकर उनका शानदार स्वागत किया और ‘कसप’ के पात्रों और घटनाओं को लेकर उनके सामने सवालों की झड़ी लगा दी थी. कुछ लोगों को जोशीजी ने ‘क्याप’ की प्रति भेंट की और बताया कि फलां दिन वो बस से नैनीताल लौटेंगे, वे चाहें तो उस दिन इस उपन्यास पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं. शायद जोशीजी ने अपने किसी लेख में भी इस बात का जिक्र किया है.

अल्मोड़ा से वापसी के दिन जोशीजी ने नोटिस किया कि वे ही लोग, जिन्हें उन्होंने किताब भेंट की थी और जो उनके स्वागत में उमड़ पड़े थे, इस बीच उनसे नज़रें चुराने लगे थे. लम्बी-लम्बी बातें करने की इच्छा रखने वाले परिजन औपचारिक हाय-नमस्ते के बाद अपने काम में व्यस्त हो जाते थे. शुरू के दिन दिखे अपने प्रशंसकों की भीड़ के स्वागत से गदगद होकर ही जोशीजी ने तय किया था कि लौटती दफे बस से जायेंगे ताकि निश्चित समय और स्थान पर लोगों को मिलने में सुविधा हो. लेकिन यह देखकर हैरान रह गए कि कोई भी उन्हें विदा करने बस अड्डे पर नहीं था. तय समय से आधे घंटे पहले वह इसीलिए आये थे ताकि सबको अपनी बात कहने का मौका मिल जायेगा. बहुत देर तक जब कोई नहीं दिखाई दिया तो वह बस की खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गए. बस जब रवाना हो गयी, एक रिश्तेदार दौड़े-दौड़े आते दिखाई दिये. खिड़की से हाथ बाहर निकालकर ज्यों ही उन्होंने हिलाया, हांफते हुए वह सज्जन बोले, ‘माफ़ करना यार, आने में देर हो गयी.’ जोशीजी ने जब दूसरे परिचित के बारे में पूछा कि वो क्यों नहीं आए, भागती बस में उनके कानों पर पड़ा, ‘उनसे मेरी बात हुई थी. कह रहे थे, क्या अजीब-अजीब बातें लिख रहे हैं आजकल आप, ऐसी बातें भी साहित्य में लिखी जाती हैं क्या...’ आगे उन्होंने जो भी कहा होगा, जोशीजी सुन नहीं पाए.

उस दिन नैनीताल लौटने पर बस अड्डे पर ही मेरी उनसे भेंट हो गई. उतरे चेहरे और उखड़े मूड में उन्होंने मुझे यह किस्सा सुनाया. कुछ समय बाद जब ‘क्याप’ पर जोशीजी को साहित्य अकादमी सम्मान मिलने की बात मैंने उन्हीं मित्रों को बताई, वो इस बात से जरा भी प्रभावित नहीं हुए. कुछ लोगों ने कहा कि यह सम्मान उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था, लेकिन ‘क्याप’ पर तो कतई नहीं. ऐसा लगा, मानो वे लोग कह रहे हों, यह सम्मान उन्हें ‘कसप’ पर मिलना चाहिए था.





‘कसप’ को ही क्यों? हिंदी पाठक-वर्ग के सामने उठने वाला यह एक गंभीर और जरूरी सवाल है क्योंकि यह उपन्यास हिंदी समाज की स्मृतियों का ऐसा नोस्टाल्जिया प्रस्तुत करता है जो उसकी सबसे कमजोर नस है. और यह कमजोरी जोशीजी के समाज की ही नहीं पूरे भारतीय समाज की है, जो साहित्य में विमर्श और संघर्ष नहीं, केवल यथास्थिति का रूमान देखना चाहता है. बंगाल के नवजागरण के साथ उत्तर भारत के समाज में आई यह बौद्धिक लहर दो रूपों में उभरी. पहली बौद्धिक-राष्ट्रवाद के रूप में और दूसरी भावुकतावादी चेतना के रूप में. एक का प्रतिनिधित्व करते हैं टैगोर और दूसरे का शरतचन्द्र. उत्तराखंड से सामने आये पहले बड़े लेखक मनोहरश्याम जोशी में पहली बार यह दो प्रवृत्तियां उनके अपने ही दो उपन्यासों से सामने आई. शरत वाली भावुकता ‘कसप’ में और रवीन्द्र वाली बौद्धिकता ‘क्याप’ में.

‘कसप’ में उनके समाज का वह वस्तुनिष्ठ चेहरा नहीं है जो जोशीजी जैसे बड़े रचनाकार से अपेक्षित है और निश्चय ही जिसे उन्होंने ‘क्याप’ में उकेरने की कोशिश की है. मगर जोशीजी का पाठक तो छोड़िए, हिंदी के प्रबुद्ध समझे जाने वाले पाठक में भी इस प्रकार के आत्म-व्यंग्य को स्वीकार करने का साहस नहीं है. ‘कसप’ हलके मूड में लिखा गया उपन्यास है, जिसे जोशीजी के ही अनुसार, उन्होंने अपनी ‘पत्नी की फरमाइश पर एक प्रेम कहानी के तौर पर लिखा’ था. उपन्यास की समस्या भी एक परम्परावादी कुमाउनी ब्राह्मण परिवार के बीच चलने वाली आपसी नोंक-झोंक की है. बड़ी धोती वाले ब्राह्मण की बेटी का रिश्ता छोटी धोती वाले के साथ कैसे जोड़ा जा सकता है, भले ही वह लड़की का प्रेमी ही क्यों न हो. प्रेम-कहानी एक अवसाद के रूप में ख़त्म होती है जहाँ लड़का देवदास की तरह कुंवारा रहता है और लड़की कुलीन आइएएस पति से अपनी हमशक्ल बेटी पैदा करके पूर्व-प्रेमी की खिलंदड़ स्मृतियों के साथ हमेशा के लिए जुड़ जाती है. नए पनप रहे पढ़े-लिखे मध्यवर्गीय भारतीय युवा के सामने प्रेम का यह एकदम नया खेल था, जिसमें वह आसानी से अपने आने वाले समाज का अक्स देख सकता था. हिंदी का पाठक इस तरह के आभासी अंत का आदी रहा है जहाँ बौद्धिक शगल और हल्का-फुल्का मनोरंजन दोनों मिलकर पाठक को सपनों की मीठी दुनिया की सैर कराते हैं.

‘क्याप’ की स्थिति इसके उलट एक समाजशास्त्रीय विडंबना के रूप में है. कुलीन ब्राह्मण परिवार की सुन्दर, प्रतिभाशाली लड़की उत्तरा अपने ही इलाके के ‘डूम’ (अछूत) लड़के से प्रेम करती है और आखिरी वक़्त तक उसे निभाती है. उपन्यास, जैसा कि जोशीजी ही कर सकते हैं, समाज के जातिगत और सांस्कृतिक अंतर्विरोधों को बहुत बारीकी से चिह्नित करता है और पाठक को खुद का आईना दिखाता है. कहानी दो स्तरों पर आगे बढ़ती है, नायक-नायिका की प्रेम कथा और नए जन्म ले रहे राज्य उत्तराखंड के सामाजिक, राजनीतिक अंतर्विरोधों के बीच हाशिये में चला जा रहा आम पहाड़ी आदमी और उसकी लम्बी जीवंत सांस्कृतिक परम्परा. सदियों तक  अपनी जातीय अस्मिता की आत्ममुग्धता में डूबा पाठक कैसे ‘क्याप’ के जरिए अपनी जातीय स्मृति के क्रूर भंवर में डूब मरता है, इस निष्कर्ष को एकाएक पाकर पाठक हतप्रभ रह जाता है. इसके विपरीत ‘कसप’ नोस्टाल्जिया के रूप में अपने समाज को गुदगुदाता भर है, सिर्फ इतना-भर.

अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ के बारे में लिखते हुए उसके समाज, राजनीति और सामाजिक तंत्र का जिक्र होना जरूरी है और यह मात्र संयोग नहीं है कि इस चरित्र को समझने के लिए मनोहरश्याम जोशी के अलावा किसी अन्य की गवाही संभव नहीं है. पौड़ी जिले की यमकेश्वर तहसील और उसमें पंचुर जैसा निहायत पिछड़ा गाँव, जहाँ आज भी कुल-जमा बारह-चौदह घर बचे हुए हैं, इस सच्चाई के बावजूद कि इस गाँव में देश के सबसे बड़े प्रदेश का मुख्यमंत्री पैदा हुआ था. ऐसा भी नहीं है कि अजय इस गाँव में एक चमत्कार की तरह पैदा हुआ था, उसके पिता वन विभाग में फोरेस्टर थे जो रेंजर के रूप में रिटायर हुए थे. खेती-बाड़ी भी ठीक-ठाक थी, इतनी कि उन्हें थोकदार की श्रेणी में रक्खा जा सकता था. अपने क्षेत्र के सबसे बड़े शिक्षा-संस्थान एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय से वह विज्ञान के स्नातक थे और ऋषिकेश के कॉलेज से गणित में एम.एससी कर रहे थे. उस उम्र में हर युवा राजनीति में खुद का भविष्य तलाशता है, अजय को भी हिंदूवादी संगठन ने अपनी ओर आकर्षित किया और जाहिर है, इसके पीछे स्वाभाविक तर्क थे.
(पंचुर गाँव)

यमकेश्वर तहसील उत्तर दिशा में बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे विश्व प्रसिद्ध हिन्दू धामों, दक्षिण में देवभूमि के प्रवेश मार्ग से जुड़े हरिद्वार से और चारों ओर पांच प्रयागों से घिरा हुआ है. बौद्धों और सनातनी हिन्दुओं के संघर्ष की लम्बी परम्परा इस क्षेत्र में रही है. नवीं सदी के आरम्भ में चार धामों की परिकल्पना को साकार करने के लिए प्रयत्नशील हिन्दुओं के आदिगुरू शंकराचार्य ने, कहा जाता है कि यहाँ बौद्ध प्रतिमा के स्थान पर विष्णु की प्रतिमा स्थापित की थी. स्पष्ट है कि हिंदुत्व की लहर से पूर्व इस क्षेत्र में बौद्धों, सिद्धों, योगियों और नाथों की लम्बी परम्परा मौजूद थी जिसके विन्यास में अजय सिंह बिष्ट के पूर्वजों की भूमिका रही होगी. यह संयोग हो सकता है कि अजय बिष्ट के मामा महंत अवैद्यनाथ (१९२१-२०१४; पूर्व जाति-नाम ‘नेगी’) उनके जन्म से काफी पहले से ही हिन्दू महासभा की ओर से सांसद थे. अवैद्यनाथ पर आदित्यनाथ को अपनी गद्दी सौंपने को लेकर शुरू से ही अनेक आरोप लगाये गए. 
“अजय सिंह बिष्ट वाया गोरखनाथ पीठ योगी आदित्यनाथ बने. मगर इस पीठ में तो हजारों संन्यासी हैं. फिर महंत अवैद्यनाथ ने आदित्यनाथ को ही अपना उत्तराधिकारी क्यों चुना. पहले मठ की गद्दी का वारिस बनाया और फिर चार साल में ही लोकसभा की अपनी सीट दे दी. ये सिर्फ योग्य युवा के पक्ष में लिया फैसला था या इसमें रिश्तेदारी का भी एंगल था.”

शुरुआत करते हैं 23 साल पीछे से. साल 1994. ऋषिकेश का ललित मोहन शर्मा पीजी कॉलेज. यहीं पर मैथ्स में एमएससी कर रहे थे अजय. साथ में पिता आनंद सिंह का ट्रांसपोर्ट का काम भी संभाल रहे थे. साल 1986 में वन विभाग की नौकरी छोड़ने के बाद आनंद ने तीन बसें और एक ट्रक बना लिया था. सब ठीक चल रहा था. लेकिन फिर पिता को अजय की खोज खबर मिलनी बंद हो गई. कुछ महीनों बाद पता चला कि अजय गोरखपुर में है. और अब वह अजय नहीं रहा. योगी बन गया है. और उसे योगी बनाया है महंत अवैद्यनाथ ने. जो खुद आनंद के ममेरे भाई थे.

यह भी सिर्फ एक संयोग नहीं है कि सिद्धों, नाथों की परम्परा को पहली बार हिंदी में लाने वाले विख्यात विचारक पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल (१९०२) पौड़ी के ही थे जिन्हें ‘हिंदी काव्य में निर्गुण संप्रदाय’ पर शोध करने पर हिंदी के पहले डी. लिट्. होने का सौभाग्य मिला.


नाथ सम्प्रदाय: मध्ययुग में उत्पन्न इस सम्प्रदाय में बौद्धशैव तथा योग की परम्पराओं का समन्वय दिखायी देता है.  यह हठयोग की साधना पद्धति पर आधारित पंथ है.  शिव इस सम्प्रदाय के प्रथम गुरु एवं आराध्य हैं.  इसके अलावा इस सम्प्रदाय में अनेक गुरु हुए जिनमें गुरु मच्छिन्द्रनाथ /मत्स्येन्द्रनाथ तथा गुरु गोरखनाथ सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं.  नाथ सम्प्रदाय समस्त देश में बिखरा हुआ था.  गुरु गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया, अतः इसके संस्थापक गोरखनाथ माने जाते हैं.  भारत में नाथ सम्प्रदाय को सन्यासीयोगी, जोगी, नाथ, अवधूत, कौल, उपाध्याय (पश्चिम उत्तर प्रदेश में), आदि नामों से जाना जाता है.  इनके कुछ गुरुओं के शिष्य मुसलमान, जैन, सिख और बौद्ध धर्म के भी थे.  इस पंथ के लोगो को शिव का वंशज माना जाता है .  
नाथ सम्प्रदाय में किसी भी प्रकार का भेद-भाव आदि काल से नहीं रहा है.  इस संप्रदाय को किसी भी जाति, वर्ण व किसी भी उम्र में अपनाया जा सकता है.  सन्यासी का अर्थ काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि बुराईयों का त्याग कर समस्त संसार से मोह छोड़ कर शिव भक्ति में समाधि लगाकर लीन होना बताया जाता है.  प्राचीन काल में राजे -महाराजे भी अपना राज-पाठ छोड़ सन्यास इसीलिए लिया करते थे ताकि वे अपना बचा हुआ जीवन सांसारिक परेशानियों को त्याग कर साधुओं की तरह साधारण जीवन बितासकें.  

नाथ संप्रदाय को अपनाने के बाद 7 से 12 साल की कठोर तपस्या के बाद ही सन्यासी को दीक्षा दी जाती थी.  विशेष परिस्थितियों में गुरु के अनुसार कभी भी दीक्षा दी जा सकती है‍‌‍‍‍‍‍.  दीक्षा देने से पहले या बाद में दीक्षा पाने वाले को उम्र भर कठोर नियमों का पालन करना होता है.  वो कभी किसी राजा के दरबार में पद प्राप्त नहीं कर सकता, वो कभी किसी राज दरबार में या राज घराने में भोजन नहीं कर सकता परन्तु राज दरबार या राजा से भिक्षा जरूर प्राप्त कर सकता है.  उसे बिना सिले भगवा वस्त्र धारण करने होते हैं.  हर साँस के साथ मन में आदेश शब्द का जाप करना होता है/था और किसी अन्य नाथ का अभिवादन भी आदेश शब्द से ही करना होता है .  

सन्यासी योग व जड़ी-बूटी से किसी का रोग ठीक कर सकता है पर एवज में वो रोगी या उसके परिवार से भिक्षा में सिर्फ अनाज या भगवा वस्त्र ही ले सकता है.  वह रोग को ठीक करने की एवज में किसी भी प्रकार के आभूषण, मुद्रा आदि न ले सकता है और न इनका संचय कर सकता.  सांसारिक मोह को त्यागना पड़ता है.  दीक्षा देने के बाद सन्यासी, जोगी, बाबा के दोनों कानों में छेद किये जाते है और उनमें गुरु द्वारा ही कुण्डल डाले जाते हैं.  इन्हें धारण करने के बाद निकाला नहीं जा सकता.  बिना कुण्डल के किसी को योगी, जोगी, बाबा, सन्यासी नहीं माना जा सकता.  ऐसा सन्यासी जोगी जरूर होता है परन्तु उसे गुरु द्वारा दीक्षा नहीं दी गई होती.  इसलिए उन्हें अर्ध सन्यासी के रूप मे माना जाता है. 

अजय सिंह बिष्ट से आदित्य नाथ. अतीत, परम्परा, जातीय स्मृति, बदलता समाज और उसके अनुरूप बदलते मूल्य... हजारों वर्षों की सामाजिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल के बीच लौट-लौट आते जाति-नाम, सामाजिक प्रतिबन्ध और उसके बीच जन्म लेता हुआ आधुनिक मनुष्य... सवाल यह है कि अपनी पुरानी स्मृति से छिटक कर अलग होने के बाद आदमी अपने अतीत से क्या और कितना ग्रहण करे और किसका त्याग करे. क्या योग सामाजिक नियमों से जुड़े मार्ग में रुकावट पैदा करता है? योगी को क्या आज के समाज में भी सत्तावर्ग से वही दूरी बनाये रखनी चाहिए जो निरंकुश शासकों के युग में रक्खी जाती थी? योग एक जनतांत्रिक पथ है या हठवादी पंथ?

निश्चय ही आज तस्वीर पूरी तरह बदल चुकी है. बद्रीनाथ और केदारनाथ धाम न्यास बन चुके हैं. पांच प्रयागों के मंदिर भी धीरे-धीरे सार्वजनिक स्वामित्व का हिस्सा बन रहे हैं. प्रदेश सरकार उनकी मुख्य न्यासी बन चुकी है, जिसमें योगियों की साधना-प्रक्रिया और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों में बहुत फर्क आया है. लोग योगी की नयी भूमिका को स्वीकार करने लगे हैं और उनकी नयी प्रक्रिया के प्रति विश्वास भी पैदा हो रहा है. शंकाएं भी जन्म ले रही हैं, लेकिन दोनों के बीच एक आत्मीय समन्वय भी रूप ले रहा है.


इस बिंदु पर आकर मैं योगी आदित्यनाथ की छवि को मनोहरश्याम जोशी के उपन्यासों – ‘कसप’ और ‘क्याप’ के माध्यम से उत्तराखंड की जातीय बुनावट के बीच लिए चलता हूँ. बामण-हामण, खसिया-हसिया और डूs-हूम का उत्तराखंड. कुलीन बामण उर्बादत्तज्यू की बेटी उत्तरा अपने हूम ट्यूटर से शिक्षा के संस्कार प्राप्त करके (बीए में फर्स्ट क्लास फर्स्ट हासिल करने के बाद) अपने प्रेमी को पति के रूप में स्वीकार करना चाहती है लेकिन वहां भी दलित दूल्हे में वैसा ही अंतर्विरोधी सोच पैदा हो जाता है जो ‘कसप’ के ब्राह्मणों में दलित (छोटी धोती) पात्र देवी दत्त तिवारी उर्फ़ ‘देबिया टैक्सी’ के मन में पैदा होता है.

मैंने शुरू में ही ‘कसप’ और ‘क्याप’ के संवेदना-जनित अंतर को स्पष्ट करते हुए यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि एक ही प्रसंग किस तरह एक ही समाज के एक-दूसरे के विरोधी अंतर्विरोधों को व्यक्त करते हुए अपने ही समाज की पोल खोलने लगता है. एक समाज का सच नोस्टाल्जिया के रूप में अंतर्मन की गहराइयों में दबे सपनों की छद्म दुनिया में ले जाता है जब कि दूसरा वर्तमान के यथार्थ का साक्षात्कार करता हुआ स्मृतियों तथा यथार्थ की टकराहट के माध्यम से अपने समय के सवालों के दो-टूक जवाब चाहता है.

अपनी बात साफ करने के लिए दोनों उपन्यासों के प्रेम-प्रसंगों की बानगी पेश है. एक (‘कसप’) में ब्राह्मणवाद का सपनीला अतीत है, दूसरे (‘क्याप’) में जातिविहीन समाज का कसैला यथार्थ.


‘कसप’ का बामण प्रेम-प्रसंग:
“नायिका कोई उत्तर नहीं देती. वह अपनी गदोली छुड़ाना चाहती है. भीतर कर्नल साहब अपनी बहन को पुकार रहे हैं, लेकिन आम तौर पर दब्बू और डरपोक डी. डी. यहाँ नायक की भूमिका में गदोली कसकर थामे रहता है. और लो, हद हो गयी, उसे अपने होठों से छुआ बारम्बार ऐन फ़्रांसीसी अंदाज में, कहता जा रहा है खांटी फ्रांसीसी में, ‘जिलेम्बू-जिलेम्बू’ (मैं तुम्हें प्यार करता हूँ.)

“नायिका अकेली बैठी है. बतिया रही है अपने से. मैंने कुछ कहा क्या इन से? सादी की कोई बात की क्या? फिर? मैंने तो इतना ही कहा ठहरा, अभी मेरी सादी मत करो किसी से भी. इन्होंने कहा है, नहीं, तेरी सादी अभी करना जरूरी है बल. बदनामी से बचने के लिए. जब थोड़ी बदनामी में मेरी सादी उस तिलकपुरिये से करनी जरूरी हो जाने वाली हुई, तब पूरी बदनामी में मेरी सादी किससे होगी, बता तो?

“करो बल सादी की तैयारी. मैं हर चीज में हाँ-हाँ कहती जा रही. करो बल तैयारी. सादी तो होने ही वाली हुई. थोड़ी बदनामी वाली होती है या पूरी बदनामी वाली, यही देखना है.

“मैं जाऊँगी अगले हफ्ते गणनाथ, यहाँ आई लड़कियों के साथ. मैंने कह दिया है गुड़िया से – लिख दे, उस लाटे को, मिलना हो तो गणनाथ पहुँच जाये बीस तारीख को, किसी भी हालत में.”

‘क्याप’ का डूs-हूम प्रेम-प्रसंग:
“एड्वेंचरिज्म उर्फ़ जोखिमवाद को वामपंथी बुजर्गों ने बिना बात ही त्याज्य नहीं ठहरा दिया है. रणनीति की जरा-सी भूल अंत में टनों धूल चटा के रहती है. इसलिए सच्चा क्रन्तिकारी सोच-समझकर और फूंक-फूंक कर कदम बढ़ाता है. आखिर मैंने तो किसी डिम्ब और शुक्राणु को मुझे डूम पैदा करने के लिए नहीं उकसाया था कि जहाँ से भी गुजरूँ वहां ऐसी अपवित्रता वास करने लगे जिसे केवल गोमूत्र की बास ही दूर कर सकती हो....

“मैं तो अवसर का लाभ उठाकर उत्तरा से प्यारी-प्यारी बातें करने की जगह उसके बामण और अपने डूम होने का प्रसंग उठा बैठा. और यही कहता रहा कि जब मैं अछूत हूँ तब तुम मुझसे शादी करने की बात सोचती ही क्यों हो? उस बेचारी ने कहा - ‘मैं तुम्हें अछूत नहीं मानती हूँ.’ मैंने कहा, तुम्हारे बौज्यू मानते हैं, बौज्यू के बौज्यू मानते थे.’ मैं पीछे जाते-जाते मनु तक गया. उत्तरा ने मुझे टोका और बोली – ‘मैं मनु की नहीं जानती लेकिन मेरे बौज्यू तुम्हें अछूत नहीं मानते. अछूत तो वह होता है जिसकी छूत मानी जाती है. वे तो तुम्हें अपनी बैठक में बुला लेते हैं. तुम्हारे कंधे पर हाथ रखते हैं...

“इंटेलेक्चुअल कहाँ हार मान सकता था भला, बोला, ‘छूने से इसीलिए डरी ना कि मैं अछूत हूँ. अछूत न होता तो निडर होकर अच्छी तरह छूती.’ वह लजाकर मुस्कुराई फिर शोख स्वर में बोली, ‘डरने वाली तो इसलिए ठहरी कि तुम मर्द हो. जो भी होता होगा वह अच्छी तरह छूना-हूना वह तुम मर्दों का ही काम हुआ, नहीं?’ कुछ क्षण मैं अपनी जगह पर बैठे-बैठे कामोत्तेजना से भीतर-ही-भीतर कांपता रहा और उस कंप पर किसी तरह काबू पाते हुए यह सोचता रहा कि इसे निरुत्तर करने का कौन-सा अनूठा उपाय अपनाया जाय? उपाय मुझे सूझा. शीला चाय के साथ हमें दिल्ली से आया जो सोहन हलुवा दे गयी थी, उसकी एक टिकिया उठाकर मैं उत्तरा के बिलकुल पास आकर बैठ गया. मैंने उससे कहा, ‘इसे एक तरफ से तुम अपने दांतों से दबा लो, दूसरी ओर से मैं अपने दांतों से दबाऊंगा. हम मिलकर इसे खायेंगे.’ पहले वह मुँह ढांपकर हंसने लगी. मैंने गुस्सा होकर कहा, ‘इसका मतलब तुम मुझे अछूत मानती हो.’ उसने हँसना बंद कर दिया और सोहन हलुवे का एक सिरा अपने दांतों से दबा लिया. अब उसकी केवल आँखें हंस रही थीं. हँसते हुए मुझे चुनौती दे रही थीं. मैंने सोहन हलुवे का दूसरा सिरा अपने दांतों से दबा लिया. हमारे होंठ मिल गए. मैंने उसे बाँहों में ले लिया.

“तभी उर्बादत्तज्यू शीला के मम्मी-पापा के साथ आ गए. उत्तरा सोहन हलुवे का अपना सिरा छोड़कर भीतर भाग गयी, दूसरा सिरा मेरे मुँह में ही रह गया. उर्बादत्तज्यू ने न उत्तरा को पुकारकर वापस बुलाया और न मुझे ही डांटा-डपटा. उन्होंने ऐसा जताया मानो उन्होंने कुछ देखा ही न हो. मैं सहमा-सहमा-सा अपनी जगह से उठा और मैंने सोहन हलुवे की टिकिया अपनी जेब में डाल ली. तब मुझे पता नहीं था कि उत्तरा के प्रेम की, स्वयं उत्तरा की बस वही एक निशानी मेरे पास रह जानी है.”

मेरी शुरू से ही यह कोशिश रही कि अपने तीन विश्वासपात्रों को गाढ़ी दोस्ती के बंधन में बंधने के लिए प्रेरित करूं लेकिन मुझे इस बात से बहुत निराशा हुई कि सबमें आपस में  हमेशा ठनाठनी रहती है. इसके मूल में उनका जातिगत बैर था. पढ़ाई में होशियार बामण पढाई में फिसड्डी डूम-खसिया को कमअक्ल मानता था और लड़ने-भिड़ने में अव्वल डूम-खसिया लड़ने-भिड़ने में फिसड्डी बामण को कमजोर मानते थे...
“मुझसे ही शिक्षा लेकर वे मुझे समझाने लगे कि बामण हमारा वर्ग-शत्रु है. मैंने उन्हें फटकारा और याद दिलाया कि एक बामण ने ही मेरे कका को कम्युनिस्ट बनाया था वो बोले कि शायद इसीलिए भारत में कम्युनिज्म कुछ कर नहीं पाया क्योंकि उसके नेता बामण थे. तब तक जातिगत राजनीति को भी क्रांतिकारिता में शामिल कर लिया गया था इसलिए मैंने डूम-खसिया गठबंधन का अधिक विरोध नहीं किया...

“शहरी पत्रकारों को मैं दूर-दराज के गाँव-देहात ले गया. जो हम देहाती डूमों के लिए रोजमर्रा की कमरतोड़ और आत्मनिचोड़ कठिन जिन्दगी थी वह उनके लिए एक अदद ‘थ्रिल्लिंग एडवेंचर’ सिद्ध हुई. उन लोगों ने मुझसे उन देहातियों के बारे में कुछ उसी अंदाज़ में प्रश्न किये जिस अंदाज़ में योरोप के गोरे नृतत्वशास्त्री कभी काले-पीले-भूरे कबाइलियों के बीच जाकर अपने मार्ग-दर्शक से किया करते थे....

“अपने आश्रम की गतिविधियों का मैंने नई दिल्ली स्थित विदेशी मीडिया की मदद से काफी प्रचार-प्रसार करवाया. ‘मेक्रो’ और ‘ग्लोबल’ के नए दौर में संपन्न देशों के अपराधी मन में ‘माइक्रो’ और ‘एथनिक’ की इधर जो महिमा हो चली है उसका मैंने भरपूर फायदा उठाया और बताया कि आश्रम स्थानिक भाषा-संस्कृति-नृत्य-संगीत-कला-हस्तकौशल-रंगमंच आदि का पुनरुद्धार कर रहा है और गाँव वालों को एक साथ आधुनिक और आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दे रहा है... सनातनी भारतीयता में आधुनिक क्रांतिकारिता ढालने के इस अभियान में मैंने डाक्साब को, जो उन दिनों वेद-वेदांत पर क्रन्तिकारी भाष्य लिख-लिख कर नयी पीढ़ी के कागज़ी क्रांतिकारियों को अपनी क्रन्तिकारी गालियों के लिए एक उपयुक्त पात्र प्रदान करने लगे थे, अपने आश्रम में बुला और बसा लिया....”
  
(एक छोटा-सा ब्रेक)
इसी बीच खबर मिली कि कानपुर के रहने वाले राजनेताओं और पुलिस के मुँहलगे अपराधी विकास दुबे को ११ जुलाई को सुबह साढ़े छः बजे मुठभेड़ में मार गिराया गया. उत्तराखंड में कोरोना का कहर जारी है.     


एक और नाथ : लोक गायक नैन नाथ रावल के साथ बुदापैश्त की यात्रा
पिछली सहस्राब्दी के आखिरी महीने में अपने हंगेरियन विद्यार्थियों को मैंने अपने इलाके का परिचय देने के लिए मशहूर लोकगायक नैन नाथ रावल का यह कुमाऊनी गीत सुनाया :
ओ हिमुली पड़ो ह्यों
हिमाला डाना, ठंडो लागोलो क्ये?

वारा चांछे, पारा, चांछे दिल लागोलो क्ये?

ओ हिमुली
वारा भिड़ा चड़ी बासी
पार भिड़ा करौली

भरिया जोवन त्यर
तसी जै क्ये रौली
ओ हिमुली

ठंगरी में चड़ी बासी  हरिया रंगे
की
चाने छै
तौ हौसी
कसी चाने छै संगै की
ओ हिमुली

कुमू बै कुमाया ऐरौ
सोर बै सोर्याला

किले खिती गैछे सुवा
तसो मायाजाला

ओ हिमुली

(ओ हिमुली, पर्वत-शिखरों पर बर्फ पड़ चुकी है, क्या ठण्ड आरम्भ हो चुकी है? इस तरह तू आर-पार किसे तलाश रही है हिमुली, क्या तेरा दिल बेचैन है? शिखर के इस पार्श्व में मधुर आवाज वाली चिड़ी गा रही है और उस पार्श्व में कर्कश आवाज वाली करौली, ओ हिमुली, सोचो तो, तेरा भरा-पूरा यौवन क्या हमेशा ऐसा ही बना रहेगा?... लम्बूतरे सूखे उदास खंभे पर हरे रंग की चिड़िया गा रही है,तू ऐसे आशा भरे उत्साह के साथ किसे तलाश रही है हिमुली?... क्या इस एकांत में तुम्हें अपने साथी की तलाश है? देखो, काली-कुमाऊँ से कुमैयाँ आ चुका है और सोर से सोर्याल. ओ हिमुली, लेकिन तूने ऐसा मायाजाल क्यों फैला रक्खा है?...) 

मैंने विद्यार्थियों को गीत का अर्थ हिन्दी में समझाया तो एमए तीसरे वर्ष का छात्र हिदश गैरगेय बड़े उत्साह के साथ बोला,‘आपका इलाका स्केंडीनेविया से मिलता है।  पिछले साल मैं अपने पिताजी के साथ वहाँ गया था.’ उसके चेहरे के भावों से लग रहा था मानो कह रहा हो, वो हमारे इलाके जैसा ही है.

नैन नाथ रावल के द्वारा गाये गए लोकगीत के इन बिंबों ने मेरे विद्यार्थियों को उनके अनुभव जगत से कहीं दूर ले जाकर खड़ा कर दिया। एमए के तीसरे साल में पढ़ रहे इन बच्चों को मानो पहली बार अहसास हुआ कि जिंदगी के यथार्थ के समानान्तर एक और भी यथार्थ है, जो लगता तो वास्तविक है, मगर उसे कैसे छुआ जाए, इसे वे नहीं जानते। अनुभव के इसी छायाभास को महसूस करने के लिए दो छात्र हिदश गैरगेय और चाबा किश अपना अधिकांश वक़्त मेरे साथ बिताने लगे और हम लोग जल्दी ही दोस्त बन गए।
भारत लौटते हुए चाबा और गैरगेय मुझे हवाई अड्डे तक छोड़ने आये थे. उन्होंने कक्षा में पहली बार सुनी कविता की याद दिलाई. अपनी अटपटी, मगर प्यारी शैली में उन्होंने गीत की शुरुआती पंक्तियाँ दुहरायी- ‘ओ हिमुली...’ मुझे लगा उन लोगों ने मेरे द्वारा दी गयी शिक्षा की विरासत सम्हाल कर रख ली है.
(क्रमश :)


मोबाइल : 9412084322/batrohi@gmail.com  
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  1. Pratibha Bisht Adhikari15 जुल॰ 2020, 10:44:00 am

    �� बटरोही सर के आख्यान की यह वाली कड़ी बहुत ही कॉम्प्लिकेटेड है , पाठक सीधे- सीधे थोकदार आख्यान से अलग मोड में चला जाएगा या मेरी तरह चला गया है l
    बेचारे मटियानी जी आपके अधिवक्ता बन भी नहीं सकते थे !!
    कहाँ शैलेश जी और कहाँ खुर्राट मनोहर श्याम जोशी जी !!
    इस प्रसंग में निचली जाति अपने अंग का कपड़ा फाड़कर जलाने वाली बात अतिशयोक्ति लगती है , 64 kii born मैंने कभी यह बात अपने दादी लोग से नहीं सुनी हां हरिजन जातियों को लेकर वहाँ पर छुआछूत तो थी जैसा कि अन्य समाज में भी हैl
    आपके पाठकों को यह आख्यान पढ़ने के लिए ' कसप' और 'क्याप ' उपन्यास पढ़ने पढ़ेंगे!
    क्याप तो मैंने भी नहीं पढ़ा है, कसप उपन्यास सुंदर होते हुए भी , उसमें वर्णित कुछ पंक्तियां बेहद आपत्तिजनक हैl
    योगी जी को कम से कम आपने अपने समकक्ष थोकदार तो माना!!��
    वर्ना सो called बुद्धिज्म उनको साँप- नेवले वाला व्यक्ति मानते हैंl
    पिछले दिनों मेरे पतिदेव ने अपने विषय से इतर योगी जी को पढ़कर उनके बारे में एक किताब लिखी, किताब पेंटागन पब्लिकेशन से है l इसी संदर्भ में मैंने भी योगी की जीवनी और गोरखनाथ मंदिर में उनके आचार -विचार के बारे में जाना ,वह वहां दबी -कुचली प्रत्येक प्रकार की जातियों -धर्म वालों में बेहद लोकप्रिय थेl मुस्लिम भी उनको बहुत आदर देते थे l

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  2. हमेशा की तरह आज भी एक सांस में पढ़ गयी । इतना सजीव संसमरणातमक लेखन !! आभार । विशेषकर जातिवाद राजनेता का निजी जीवन और समाज शास्त्र की छुअन ने वास्तविक रूप रेखा प्रदान की है । बुदापैश्त का छात्र शिक्षक समपर्क बहुत रोचक लगा । अभिनन्दन

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  3. बहुत रोचक संस्मरण ।
    अद्भुत है अंदाजे बयां ।
    कथाएं एक दूसरे से गुंथी हुई है कि
    सांस नहीं लेने देती ।
    आप दोनों को साधुवाद ।

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  4. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक चर्चा मंच पर चर्चा - 3764 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  5. ज्ञान और अनुभव के कितने आसवों से मिलाकर बनी है यह अद्भुत संस्मरण श्रृंखला । वाह बटरोही जी, सहज सहज पकाया है बरसों में इसको कि इतना मधुर स्वाद बना है ।

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    उत्तर
    1. ठीक कहा है

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    2. धन्यवाद कर्ण सिंह चौहान जी, स्वप्निल श्रीवास्तव और मितालीजी आप लोगों की प्रतिक्रियाओं का हमेशा इंतज़ार रहेगा.

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  6. मंजुला बिष्ट15 जुल॰ 2020, 8:07:00 pm

    मुझे जब भी इसे पढ़ने का अवसर मिला है अपने क्षेत्र से सबंधित कई अनसुनी जानकारियां मिल रही हैं।आलेख के अंशों में राजनीतिक,सांस्कृतिक परिवेश में साहित्य बहुत सुंदर तरीके से प्रवेश करता है।

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    उत्तर
    1. धन्यवाद मंजुलाजी. आपकी राय से ताकत मिली.

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