बटरोही : हम तीन थोकदार (तीन)













वरिष्ठ कथाकार बटरोही के आख्यान ‘हम तीन थोकदार’ की यह तीसरी क़िस्त है. लॉक डाउन से होते हुए बचपन, आस पड़ोस और फिर तीन थोकेदार जो अब धीरे-धीरे अपना व्यक्तित्व पाने की ओर अग्रसर हैं. एक ऐसी कथा जिसमें पूरा इतिहास धड़कता है.
प्रस्तुत है.




हम तीन थोकदार (तीन)

पूर्व-कथा के रूप में लेखक की ओर से दो शब्द
बटरोही




जिन्दगी का बूमरैंग देखना आकर्षक तो लगता है, मगर खिझाने और परेशान करने वाला ज्यादा होता है...

पिछले तीन दिनों के तनाव के बाद जब मैं ‘हम तीन थोकदार’ की तीसरी किश्त का दूसरा-तीसरा ड्राफ्ट नए सिरे से लिख रहा था, सिर्फ यही दो वाक्य लिख पाया. उसके बाद फिर से बेचैनी ने घेर लिया. मानो मैं सवालों के अदृश्य षड्यंत्रकारी घेरो के बीच फंस गया हूँ जहाँ बंद गली के आखिरी मुहाने के अलावा कुछ भी नहीं बचा हो. कह सकते हैं कि मैं अभिमन्यु की तरह के चक्रव्यूहों से घिर गया था; मगर मेरे लिए तो यह उपमा एक गाली होगी... तो क्या मैं एकलव्य की तरह अकेला पड़ गया हूँ? नहीं, एकलव्य भी तो उसी ब्राह्मणवादी सोच के कवच के रूप में जन्मा चरित्र है, वह कैसे मेरी उलझन का प्रतीक बन सकता है?

तो क्या मैं कोई नया प्रतीक गढ़ूं? कब तक हम लोग नए-नए प्रतीक गढ़ते रहेंगे? मुझसे पहले कितने ही लोग अपने कवच के रूप में प्रतीक गढ़ चुके हैं? क्या मैं उन प्रतीकों से काम नहीं चला सकता? जिन असंख्य लोगों ने अतीत में अपने-अपने स्तर पर प्रतीक गढ़े, क्या वे लोग मेरे दुश्मन थे?

बहस खड़ी करूंगा तो फिर उसी अंधी गली में पहुँच जाऊँगा. नहीं, यह मैं नहीं चाहता. सीधे मुद्दे पर आता हूँ. पिछली दो किश्तों में मैंने अपने पक्ष को भरपूर विनय के साथ आपके सामने रखा. यही सोचकर कि लोग उदारता के साथ उन पर सोचेंगे. कई लोगों की समझ में शायद सन्दर्भ ही आया ही नहीं इसलिए आगे बढ़ गए. जो लोग मेरे प्रति सम्मान का भाव रखते थे, कमेन्ट बॉक्स में एक प्रश्नचिह्न डाल गए. कोरोना समय के इस दुर्भाग्यपूर्ण दौर में एक साथ अनेक बहसें चल रही हैं, हर बहस का सूत्रधार अपने पक्ष को एकमात्र सच मानते हुए बहस में शामिल होना चाहता है. इन लाखों-करोड़ों बहसों में से सिर्फ हाल की बहसों को उठाकर देख लीजिये... नेहरू और सावरकर; पटेल, भगत सिंह, गाँधी, गोडसे, भारत, पाकिस्तान... ये तो राजनीतिक चरित्र हैं, जो नई बहसें भारी-भरकम गोहों के डायनासौरी फनों के साथ सीधे आँख में आँख डालकर मासूम सवालों के तीर छोड़ रहे हैं, उन्हें आप कैसे डील करेंगे? कुछ पुराने चेहरे: तोगड़िया, आडवाणी, गाँधी परिवार, मोदी, सुनील दत्त, अमिताभ बच्चन, गुलज़ार...और फिर उसी क्रम में नए चेहरे: अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, शक्तिकांत दास, रंजन गोगोई, अनुराग ठाकुर, अनुपम खेर, अक्षय कुमार, नसीरुद्दीन शाह, संविद पात्रा, रवीश कुमार, दाहिने-बाएं खड़े नए-नए बिहार, गुजरात, जेएनयू और साईनबाग... और इनमें से जन्म ले रहे तमाम असुविधाजनक चेहरे...

यह तो खैर लम्बी लिस्ट है, मैं सिर्फ एक नाम पर ठहर जाता हूँ: योगी आदित्यनाथ उर्फ़ अजय सिंह बिष्ट पर. इसलिए कि वो मेरे आख्यान ‘हम तीन थोकदार’ के कथानायक हैं. अगर मुझे मालूम होता कि उनका चेहरा लोगों को इस कदर उलझन में डाल देगा तो शायद मैं उन्हें अपनी कहानी का नायक बनाता ही नहीं; हालाँकि ऐसे भी काम नहीं चलता क्योंकि वो न होते तो कहानी आगे बढ़ती ही कैसे? मैं कैसे समझाऊँ कि आख्यान में वो न तो कथा-चरित्र हैं और न आभासी चेहरे. वह उसी तरह का एक वास्तविक चेहरा है, जैसे इस आख्यान का लेखक लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ या उसके उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ का नायक कल्याण सिंह बिष्ट उर्फ़ कलुवा थोकदार.

गड़बड़ शायद तब हो जाती है जब स्थानीय और राष्ट्रीय चेहरों की छवियाँ और उनकी महत्वाकांक्षाएं आपस में टकराने लगती हैं. हम लोग किसी चेहरे को या तो उसकी स्थानीय छवि के रूप में स्वीकार करने के आदी होते हैं या सार्वजनिक. ऐसा भी तो हो सकता है कि इन दोनों छवियों को एक और तार जोड़ रहा हो सकता है जिसका किसी स्थानीय या राष्ट्रीय छवि से कोई लेना-देना ही न हो!
मैं इसे एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करता हूँ.

वर्ष 1961 में जब मैं पहली बार अल्मोड़ा में शैलेश मटियानी से मिला, वो इतने बेचैन थे, मानो गुस्से-से फुफकारता हुआ कोई बहौड़िया (किशोर नर बछड़ा). अल्मोड़ा की एक ब्राह्मण युवती के साथ उनका प्रेम-सम्बन्ध चल रहा था और सारा शहर एक स्वर में उनके पीछे पड़ गया था. उन पर आरोप था कि वो हमारी क्षेत्रीय संस्कृति को दूषित करने में लगे हैं (जुआरी का बेटा और बूचड़ का भतीजा, पन्त-इलाचन्द्र की बराबरी करने निकला है!... ऐसे लेखक को फ़ौरन शहर से बाहर निकाल दिया जाना चाहिए.) उन दिनों मैं मटियानी जी से बे-तरह प्रभावित था, इसलिए उनका पक्ष लेकर लोगों से झगड़ने, बहस करने लगा. कुछ दिनों बाद मैंने देखा, लोग मुझे भी उन्हीं नजरों से देखने लगे जैसे मटियानी जी को. हालत यह हो गयी थी कि साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों के इतने संपन्न शहर में उनके सिर्फ एक दोस्त बचे थे, पानू खोलिया. (मैं तो नैनीताल से उनसे मिलने अल्मोड़ा गया हुआ था.) उन्हीं के साथ वो कभी-कभार शहर में घूमते दिखाई देते थे क्योंकि शहर के कई लोग इस ताक में रहते थे कि वो अकेले दिखें तो उन्हें सबक सिखाया जाए. हालत यह हो गई थी कि अल्मोड़ा के कुछ साहित्य-प्रेमी उन दिनों रामपुरी चाकू और लाठियां लेकर घूमने लगे थे.

उन्हीं दिनों, या उसी के कुछ समय बाद, एक और प्रेम प्रसंग शहर में चर्चित हुआ, मोहन उप्रेती और नईमा खान का. उसका भी विरोध कम नहीं हुआ, मगर अंतर-धार्मिक मुद्दा होने के बावजूद शहर के बुद्धिजीवियों का बड़ा वर्ग उप्रेती-नईमा के साथ खड़ा था. दोनों ने अपने अल्मोड़ा के साथियों के साथ मिलकर अभूतपूर्व ऐतिहासिक काम किये, यही कारण है कि आज यह जोड़ी कुमाऊँ की सांस्कृतिक उपलब्धियों की पहचान के रूप में पूरे देश में जानी जाती है. दूसरी ओर शैलेश मटियानी को दुबारा अल्मोड़ा में घुसने नहीं दिया गया और उनके साथ जुड़ा ‘संस्कृति-द्रोही’ का ठप्पा कभी मिट नहीं पाया.

क्या यह सही नहीं है कि मोहन उप्रेती और शैलेश मटियानी की सांस्कृतिक प्रतिभा में से किसी को उन्नीस नहीं कहा जा सकता. शायद राष्ट्रीय स्तर पर मटियानी कहीं अधिक जाने जाते हैं. और क्या यह भी सच नहीं है कि अगर अपने युवा काल में शैलेश मटियानी को हिंदी समाज का सहारा मिल गया होता तो वह अपने अंतिम दिनों में मानसिक परेशानी (विक्षिप्तता!) के शिकार न हुए होते और अपनी उस बहु-प्रतीक्षित रचना को लिख सके होते, जिसकी चर्चा वो हमेशा अपने मित्रों से किया करते थे.

(ऐसा नहीं है कि इस आख्यान का पाठकों ने स्वागत नहीं किया; बहुत बड़ी संख्या में लोगों ने न सिर्फ पिछली दो किश्तों को पसंद किया, अपने बहुमूल्य सुझाव भी भेजे. विशेष रूप से आख्यान-लेखक इन सहृदय पाठकों का आभारी है : अरुण देव, मनोज सहाय, स्वप्निल श्रीवास्तव, किरण अग्रवाल, दिवा भट्ट, हरि मृदुल, सुभाष पन्त, अरुण कुकसाल, रेनू अग्रवाल, रवि रंजन, यादवेन्द्र, सुधा पन्त, एसपी लाल, मिताली मुखर्जी, शिल्पा रोंघे आदि.)

‘भै भुखो, मैं सिती’
नोस्टाल्जिया नहीं, सचमुच के दिन

‘भै भुखो, मैं सिती’ (भाई भूखा था, मैं सोई रह गई) कुमाऊँ की प्रसिद्ध लोक-कथा है, जो पहाड़ी भाई-बहिनों के अन्तरंग प्रेम के रूप में सदियों से सुनाई जाती रही है. धर्मवीर भारती के चर्चित यात्रा-वृतांत ‘ठेले पर हिमालय’ की प्रेरणा यही लोक-कथा है. इसमें उन्होंने हिमालय क्षेत्र के लोगों के साथ वहां की प्रकृति और शेष प्राणियों के संबंधों के आत्मीय चित्र प्रस्तुत किये हैं.
लोक-कथा सिर्फ इतनी है कि नव-वर्ष के उपलक्ष्य में कई ऊंची-नीची पहाड़ियों को पार करने के बाद हर साल की तरह अपनी बहिन के लिए पकवानों का उपहार लेकर भाई उसके ससुराल पहुंचता है. भाई को जब पता चला कि दिन-भर की थकी-मादी बहिन सोई हुई है, वह उसके सिरहाने पकवानों का टोकरा रखकर लौट जाता है. सुबह उठने के बाद जब बहिन को वास्तविकता मालूम पड़ती है, भाई से भेंट न हो पाने के दुख, अवसाद और अपराध बोध के कारण उसके प्राण चल बसते हैं और वह पक्षी बनकर शिखरों, वनों, घाटियों में बेचैन भटकती हुई अपनी व्यथा का बखान करती रहती है.
उत्तराखंड में इस प्रथा को ‘भिटौली’ कहते हैं.


(छोटा-सा ब्रेक : लॉक डाउन डायरी)
27 मई, 2020, नैनीताल का मेरा घर : माउंट रोज, तल्लीताल 

करीब सात महीनों के बाद फतेहपुर के अपने शीतकालीन आवास में फंसा रहने के बाद रविवार 24 मई को अपनी निजी कार से नैनीताल पहुँचा. अपने ही घर से मुक्त होने और फिर खुद के ही घर में घुसने के लिए सरकारी नियमों का मुहताज होना पड़ा. वहां के दरवाजों पर ताला लगाने और यहाँ के दरवाजों का ताला खोलने तक की पूरी अवधि भर सरकारी नियमों की दहशत भरी उबाऊ प्रक्रिया से गुजरना एकदम नया अनुभव था, खासकर इस उम्र में.

कथाकार अमित श्रीवास्तव हल्द्वानी में पुलिस अधीक्षक हैं. सरल, कलाप्रेमी और संवेदनशील. पग-पग पर आ रही परेशानियों के बीच जब कोई रास्ता नहीं सूझा तो सोचा उनके साथ परिचय का फायदा उठाया जाय. फोन से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि जिले के अन्दर एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए अब परमिट की जरूरत नहीं है. ‘आप अपनी गाड़ी से जा सकते हैं, ड्राईवर के अलावा एक और जन’. उन्होंने कहा. मैंने बताया कि मुझे और मेरी पत्नी को गाड़ी चलानी नहीं आती, इसलिए ड्राइवर को मिलाकर तीन लोगों को इजाजत देनी होगी. हम दोनों सत्तर से ऊपर की उम्र के सीनियर सिटिजन हैं, सरकार को हम जैसे लोगों की परेशानियों के बारे में सोचना चाहिए. कुछ देर के लिए वह मौन रहे, मानो समस्या पर मंथन कर रहे हों. ‘ऊपर से ऐसे ही नियम बताये गए हैं,’ उन्होंने कहा. लगा, उन्हें खुद ही अपनी प्रतिक्रिया से संतोष नहीं हुआ; अगले दिन अख़बार में पढ़ा कि फोर व्हीलर में तीन लोग यात्रा कर सकते हैं. हमारे लिए इतना पर्याप्त था.

अब एक नई समस्या आ खड़ी हुई. फतेहपुर से ही एक ड्राईवर की व्यवस्था की. वह हमें नैनीताल तक छोड़ देगा. लेकिन लौटेगा कैसे? लॉक डाउन के कारण सरकारी बसें बंद थीं, टैक्सी वाले पूरी गाड़ी बुक कराकर आ-जा रहे थे मगर सिर्फ एक सवारी लेकर. यह संभव नहीं था कि ड्राईवर को पूरी गाड़ी का किराया देकर वापस भेजता; अंततः तय हुआ कि वह हमें नैनीताल के घर छोड़कर हमारी ही कार से फतेहपुर लौटेगा और कार को हमारे फार्म हाउस के गैरेज में डालकर अपने घर चला जाएगा. हालाँकि ड्राईवर ने अतिरिक्त पैसा लिया, पेट्रोल भी दुगुना खर्च हुआ मगर रास्ता निकल ही आया. कार और घर की चाभी बगल में भाभी जी को सौंपकर हम लोगों ने एकबारगी चैन की साँस ली.


तीसरे दिन पडौसी ‘आशा वर्कर’ ने कॉल बेल बजायी और बताया कि हमें बीडी पांडे हॉस्पिटल में रिपोर्ट करनी होगी, हमारे स्वास्थ्य की जाँच होगी और चौदह दिन तक घर पर ही क्वारंटाइन में रहना होगा. समस्या खड़ी हुई कि तल्लीताल के घर से मल्लीताल के अस्पताल तक कैसे जाएँ; गाड़ी तो फतेहपुर वापस जा चुकी थी, टैक्सी चल नहीं रही थी. तीखी धूप में हांफते हुए अस्पताल की चढ़ाई चढ़ना और लौटते हुए फिर घर तक की चढ़ाई... यह सब नई मुसीबत ओढ़ना भी हो सकता था. ‘आशा वर्कर’ से जिरह करना फिजूल था, वह क्या कर सकती थी? उसने सूचना दे दी थी, हमारा नाम, उम्र और मोबाइल नंबर नोट कर लिया था, अब आगे का रास्ता हमें खुद ही खोजना था... स्थानीय पत्रकार खबर की ताक में घर के इर्दगिर्द मंडरा ही रहे थे, बटरोही जी और पुलिस अधीक्षक को एक साथ घेरने का मौका उनके लिए ख़बरों के इस अकाल-दौर में छोटा-मोटा आकर्षण नहीं था.

बहरहाल, यह मेरा सिरदर्द था जिसे थोकदारों की कहानी के बीच घसीटना किसी भी रूप में ठीक नहीं था. जाँच के बाद अगर मामला पॉजिटिव रहा तो क्वारनटीन के बाद की स्थिति अख़बार वाले पूरी ईमानदारी और वस्तुनिष्ठता के साथ समाज को बता ही देंगे. उस झोला छाप ज्योतिषी की भविष्यवाणी के सत्य होने की स्थिति में मेरे न रहने पर भी या अस्पताल के कोरोना वारियर्स की कोशिशों से मुझे अगर पुनर्जीवन प्राप्त हो गया तो मुझे शासन-प्रशासन का आभारी तो होना ही पड़ेगा. फ़िलहाल मुझे आख्यान की तीसरी किश्त लिखनी है.

(ब्रेक के बाद)
अपनी ही ज़िन्दगी की शुरुआत

75 साल पहले जब परत-दर-परत चंद्राकार बिछी पहाड़ियों के बीच मौजूद अपने पत्थर-छाये घर के आँगन में मैं खुद के अस्तित्व को तलाशने की कोशिश कर रहा था, नक्षत्रों के झुण्ड की तरह कितने तो बिम्ब मन के अन्दर भर जाते थे और मैं बिना रोक-टोक अपने मन के संसार से बाहरी संसार के बीच वायु की गति से दौड़ा करता था. माँ की कोख में अनाम सोया हुआ मैं अपने बूते आकार धारण करता चला गया और माँ ने जिस पल मुझे यह संसार सौंपा, तब भी मैं उसे आँख भर नहीं देख पाया था. शरीर की आँखों से मैंने उसे उस दिन देखा जब मुझे भरपेट दूध पिलाकर उसने घर के कामों को निबटाने के लिए बाहर की दुनिया में प्रवेश किया. वह मुझे बड़ी-सी टोकरी में बिछे रुई-कपड़ों के गद्दे पर सुला जाती और मेरी उपस्थिति को भूलकर दूसरे लोगों की चिंता करने लगती. अपने संसार के बीच रहते हुए मुझे हर पल माँ की उपस्थिति का अहसास रहता और लगता, उसकी उपस्थिति के बिना मेरा कोई अस्तित्व नहीं है.
(युवा बिष्ट)

इस संसार में मेरे आगमन के दो साल बाद जब एक दिन माँ ‘ग्वाल्देमें’ की पश्चिमी पहाड़ी पर घास काट रही थी, तीखे ढलान वाली पहाड़ी पर से उसका पाँव फिसला था और वह सैकड़ों फुट नीचे बह रही बरसाती नदी में गिर पड़ी थी. मैं अपने बिछौने पर से ही माँ को लुढ़कते हुए देख पा रहा था. उसकी देह को पहाड़ी की ढलान पर खड़े इकलौते सेमल के पेड़ ने रोक लिया था और वह त्रिशंकु की तरह धरती और आकाश के बीच अटकी हुई थी. औरतें जब माँ की खबर देने गाँव की ओर लौट रही थीं, औरतों में से ही किसी के मुंह से मैंने अज्ञात व्यक्ति के लिए संबोधित यह गाली सुनी कि ऐसे घरवाले को भला कैसे माफ़ किया जा सकता है, जो पेट के बच्चे के साथ उसे ‘हत्यारी शिला’ पर घास काटने भेजता है. माँ उस वक़्त जिन्दा थी, मगर वो औरतें ऐसे रो रही थीं मानो माँ की देह से उसके प्राण नीचे घाटी में छिटक कर आर-पार बिखर गए हों.

हो सकता है कि माँ के प्राण उस वक़्त देह से बाहर न निकले हों, शायद इसी अनुमान के कारण  गाँव के पुरुष अपनी जान को जोखिम में डालकर सेमल के पेड़ पर लटकी माँ की देह को ग्वाल्देमें के शिखर तक जीता-जागता ले आए थे. मगर माँ के प्राण तो मुझ पर अटके थे, इसलिए वह जीवित थी. अपनी आँखों से मेरे और मेरी आँखों से खुद को दर्शन देने के बाद गाँव से बीस मील दूर शहर अल्मोड़ा तक जब गाँव के लोग माँ को चारपाई पर लिटाये हुए ले जा रहे थे, रास्ते में ही उसके प्राण-पखेरू उड़ गए. उसके बाद माँ अपनी सम्पूर्ण चेतना के साथ मेरी स्मृति में आ बसी थीं और हम दोनों एकाकार हो गए थे.

फतेहपुर में पिताजी की ‘बिशन कुटी’    
फतेहपुर का घर ‘बिशन कुटी’ मैंने बुदापैश्त से लौटने के बाद 2003 में पिताजी की स्मृति में बनवाया था हालाँकि इसकी बुनियाद 1997 में विदेश जाने से पहले डाल गया था. सच तो यह है कि इस घर को मैं माँ की स्मृति को ही समर्पित करना चाहता था, मगर ऐसा नहीं हो सका. बड़े भाई ने पांच साल पहले अपना मकान बनाया और उसका नाम माँ की स्मृति में ‘माधवी विला’ रख दिया था. हल्द्वानी में ही स्थायी रूप से रह रही मेरी दीदी ने सुझाया कि मैं अपने घर का नाम पिताजी की स्मृति में रखूँ ताकि माता-पिता दोनों की स्मृति हम लोगों के साथ हमेशा बनी रहे.

पिताजी के प्रति मेरे मन में अतिरिक्त भावुक लगाव कभी नहीं रहा; नोस्टाल्जिया भी नहीं, अलबत्ता मन में कहीं यह बात दबी हुई थी कि दो साल की उम्र में माँ की मृत्यु होने के बाद उन्होंने दूसरे थोकदारों की तरह शादी नहीं की थी और लम्बे समय तक शायद मेरे भविष्य के बारे में सोचते रहे थे. संभव है, उस उम्र में मैंने सोचा हो कि वो मेरी आगामी जिंदगी में माँ की भूमिका भी निभाएंगे, कुछ सालों तक उन्होंने निभाई भी, लेकिन मुझे वह ज्यादा समय तक अपने साथ नहीं रख सके. गाँव के स्कूल से छठी क्लास पास करने के बाद वो मुझे एक दिन अपनी विधवा बहन के पास नैनीताल छोड़ गए, यह कहकर कि मैं उनके घरेलू कामों में हाथ बंटा दूंगा, जिसकी एवज में वो मुझे दिन के खाली वक़्त में स्कूल भेज कर पढ़ा देंगी. नैनीताल में मैंने दोनों काम अपनी सामर्थ्य-भर निभाए, इस रूप में पिताजी की दोनों इच्छाएं पूरी हुई. इसके बाद पिताजी के साथ मेरा संपर्क टूटता चला गया. कभी-कभी मैं नैनीताल से उनको चिट्ठी लिख देता, जो शुरू-शुरू में मेरी पढ़ाई की प्रगति को लेकर होते थे; दो-एक चिट्ठियों में बुआजी की मेरे प्रति बेरुखी का भी जिक्र था, अपने हमउम्र बच्चों को प्राप्त सुख-भोगों का जिक्र करते हुए उन्हें खुद के लिए भी प्राप्त करने की लालसा-भरी इच्छा होती, मगर पिताजी की ओर से पत्रों का कभी कोई उत्तर नहीं आया तो मेरे पत्रों का सिलसिला भी भंग हो गया.

इसके बावजूद जिंदगी जीने का सिलसिला असंभव घटनाओं के बीच पूरी ताकत के साथ सफलता प्राप्त करने के सपनों की जद्दोजहद के साथ जारी रहा. इसी क्रम में नयी सहस्राब्दी के पहले दिन जब मैं बुदापैश्त से लन्दन होता हुआ एयर इंडिया की फ्लाइट संख्या ए. आई. 142 से नई दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतरा, ठीक उसी पल मुझे अहसास हुआ कि पिताजी या बुआजी ने मेरे प्रति जो भी व्यवहार किया हो, वे लोग न होते तो दुनिया के एक बड़े हिस्से का चक्कर लगाने के बाद मैं आज इस जगह खड़ा न होता. बिना अतिरिक्त रूप से भावुक या नोस्टाल्जिक हुए मुझे लगा, मुझे इन दोनों का ऋणी होना चाहिए और मैंने निर्णय लिया कि फतेहपुर के घर का नाम अपने स्वर्गीय पिता ठाकुर बिशन सिंह बिष्ट की स्मृति में ‘बिशन कुटी’ रखूँगा और नैनीताल पहुँचने से पहले ही मैंने संगमरमर की नाम-पट्टी तैयार करवाई जिसे बाद में स्व-घोषित मुहूर्त पर दीवार पर चिपका दिया.


जिम कॉर्बेट ने बसाई छोटी हल्द्वानी
भारत की आज़ादी के ठीक एक दशक के बाद 100 रुपए बीघा के हिसाब से खरीदी गई जमीन तब पिताजी को बहुत महँगी लगी थी. नैनीताल के दक्षिणी छोर से लगी तराई-भाबर की यह जमीन तब पहाड़ियों के लिए साक्षात् नरक-जैसी थी. सांप-कीड़ों, मच्छरों और हिंसक जंगली जानवरों के आतंक से घबराये पहाड़ियों को यहाँ किसी भी कीमत पर बसना मंजूर नहीं था हालाँकि उन्हें खुली छूट दी गई थी कि वो जितनी चाहें जमीन पर कब्ज़ा कर लें, उनके नाम पट्टा लिख दिया जायेगा. इन प्रलोभनों के बावजूद कोई पहाड़ी वहाँ नहीं बसा.

यह वो दौर था जब पश्चिमी पाकिस्तान से भारत में प्रवेश कर चुके विस्थापितों के रेले को उस वक़्त के गृहमंत्री पंडित गोविंदबल्लभ पन्त ने यह सोचकर नैनीताल की तराई में जबरन बसाया था कि जिन्दा रहेंगे तो तराई आबाद हो जाएगी, वरना आज़ादी के बाद पैदा हुए सबसे बड़े शरणार्थी संकट से मुक्ति तो मिल ही जाएगी. देखिए, आदमी के अस्तित्व की जिजीविषा क्या- कुछ नहीं कर दिखाती! विस्थापितों ने देखते-देखते इसे उत्तराखंड का ही नहीं, देश का सबसे आकर्षक और खुशहाल इलाका बना डाला.

नैनीताल के अंग्रेज प्रकृति-प्रेमी जिम कॉर्बेट ने, जो खुद को पहाड़ी ही मानते थे, हल्द्वानी के पास कालाढूंगी में अपना घर बनाकर पहाड़ियों को आकर्षित करने के लिए बगल में ही ‘नई हल्द्वानी’ नाम से एक गाँव बसाया लेकिन फिर भी पहाड़ के लोगों की हिम्मत नहीं हुई. ऐसा नहीं है कि तराई-भाबर के इस इलाके में तब कोई रहता नहीं था, यहाँ के स्थानीय आदिवासी थारू, बुक्सा, गुज्जर और रुहेले किसान यहाँ सदियों से रह रहे थे लेकिन पहाड़ों के बंद समाज के रहवासी थोकदारों की बाहर निकलने की हिम्मत नहीं हुई और वे लोग अपने सीढ़ीदार पहाड़ी खेतों के एकांत में ही दुबके रह गए. दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई, मगर उन्हें तो देश की रफ़्तार का हिस्सा नहीं बनना था, सो एक बार ठिठके तो हमेशा के लिए ठिठके ही रह गए.

जिन दिनों पिताजी ने फतेहपुर में जमीन खरीदी, फतेहपुर या हल्द्वानी में कोई ‘बनभूलपुरा’ नहीं था और न तराई की जमीन में हिंदुस्तान-पाकिस्तान के आज जैसे रिश्ते विकसित हुए थे. यह बात तो हमने एकदम हाल में, लॉक डाउन का दूसरा चरण शुरू होने के बाद, एक विस्फ़ोट की तरह सुनी थी कि हमारे गाँव में एक-एक ‘बनभूलपुरा’, ‘जमाती’ और ‘साईन बाग’ घुस आए हैं और उन्होंने सारे शासन-प्रशासन की रातों की नींद हराम कर रखी है. गाँव वाले नहीं जानते थे कि उन्हें ये लोग क्या तकलीफ दे रहे हैं, मगर कोई कष्ट न होते हुए भी शासन-प्रशासन के लोग बार-बार उनकी तकलीफों की खुद ही रूपरेखा बनाकर मीडिया को सौंप रहे थे, इसलिए गाँव वालों को भी धीरे-धीरे महसूस होने लगा था कि वे तकलीफ में हैं.


सुल्ताना डाकू की प्रेमिका से जमीन का सौदा 
फतेहपुर में बसने के बाद हमारे परिवार का सम्बन्ध तराई की एक और चर्चित हस्ती सुल्ताना डाकू के साथ स्थापित हुआ. जिस दबंग औरत से पिताजी ने जमीन खरीदी थी उसे लोग ‘पधानी’ के नाम से पुकारते थे. तब वह एक बीहड़ इलाका था, जहाँ घुसने में अच्छे-अच्छे लोगों की हवा निकलती थी. वह औरत वहां शान से रहती थी. उसकी वीरता और दबंगई के अनेक किस्से लोगों के बीच प्रचलित थे, जिनमें सबसे लोकप्रिय यह था कि वह सुल्ताना डाकू की सबसे विश्वस्त प्रेमिका थी. हालाँकि सुल्ताना के बारे में कहा जाता था कि वह रुपया-पैसा या औरतों को नहीं, सिर्फ अनाज लूटता था, इसके बावजूद लोगों को यह भरोसा था कि इस बीहड़ इलाके में कहीं-न-कहीं सोना-जवाहरात दबा हुआ हो सकता है. जल्दी ही ऐसी बातें अफवाह साबित हुई क्योंकि ज्यों-ज्यों जंगल काटकर खेत तराशे गए, किसी को खुदाई में कोई दौलत नहीं मिली.

अब तो हल्द्वानी और फतेहपुर महानगर के दो पड़ौसी मुहल्ले बनने की राह में हैं, इसलिए भी सरकार से लेकर भू-माफिया और आम आदमी तक इस इलाके को ललचाई नज़र से देखने लगे हैं. बेशक, माँ की यादें इस इलाके के साथ जुड़ी हुई नहीं हैं, मगर मेरी उस बहन का घर हल्द्वानी में ही है, जिसने मेरे फार्म-हाउस का नाम पिताजी की स्मृति में रखने का सुझाव दिया था. बहन का उल्लेख यहाँ इसलिए जरूरी है क्योंकि लोग बताते थे कि मेरी माँ की शक्ल हू-ब-हू उससे मिलती थी. इसे यों भी कह सकते हैं कि मेरी स्मृति में माँ की छवि बहन के रूप में है. यह उल्लेख इसलिए भी जरूरी है कि इस आख्यान के तीनों कथा-नायकों से जुड़ी इस कड़ी का सम्बन्ध उनकी बहनों के साथ है.


थोकदारों की जिंदगी में आई औरतें चिड़िया बन जाती थीं  
मुझे नहीं मालूम कि मुझसे बिछुड़ने के बाद माँ को किस चिड़िया की योनि मिली, अलबत्ता मेरी स्मृति में उसकी छवि स्त्री की करुणा और स्नेह की प्रतीक किसी मणि की तरह है. माँ के न रहने के बाद उसकी जगह मुझसे सात-आठ साल बड़ी बहन ने ले ली थी, जो इन दिनों बयासी साल की एक कमजोर बूढी औरत है और हल्द्वानी में ही रहती है. बचपन में उसने मुझे पक्षियों से जुड़ी अनेक लोक-कथाएं सुनाई थीं जो मेरे मन में सारी जिंदगी पहाड़ी स्त्री के पक्षी-मिथक के रूप में मौजूद रहीं. इसी से मेरे मन में बैठा यह विश्वास मजबूत होता चला गया कि पहाड़ी औरतें संसार से विदा लेने के बाद पक्षी की योनि ग्रहण करती हैं.

जीतेजी पक्षी का मिथक बन चुकी अपनी बहन को लेकर मैंने प्री-ग्रेजुएशन के दिनों में कॉलेज-मैगज़ीन के लिए एक कहानी लिखी थी, ‘घुघूती-बासूती’, जिसे वर्ष 1962-63 की कहानी प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला था. यह भी मजेदार संयोग है कि उन्हीं दिनों मैंने गढ़वाल क्षेत्र के मशहूर कथाकार राधाकृष्ण कुकरेती की एक कहानी ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ पढ़ी जो पहाड़ी स्त्री के कठिन संघर्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति है. शायद पहाड़ी जीवन के इस पक्ष को लेकर लिखी गयी पहली हिंदी कहानी. इस कहानी में  पपीहे की तरह के एक पक्षी ‘चोळ’ का जिक्र था जो पहाड़ों में गर्मियों की आहट के साथ ही ‘स्वर्ग भैया, पानी दो, पानी दो’ की टेर लगाता हुआ इस शिखर से उस शिखर तक उड़ता हुआ आकाश से पानी की भिक्षा मांगता रहता है.  

आगे बढ़ने से पहले इस आख्यान के दूसरे कथा-नायक पौड़ी-गढ़वाल के पंचूर गाँव के अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ के जीवन में घटित स्त्री-पक्षी प्रसंग के बारे में बता दूँ.


5 जून 1972 को उत्तराखण्ड के पौड़ी गढ़वाल जिले में स्थित यमकेश्वर तहसील के पंचुर गाँव के एक मध्यवर्गीय गढ़वाली राजपूत परिवार में जन्मे अजय सिंह बिष्ट के पिताजी का नाम आनन्द सिंह बिष्ट था जो एक फॉरेस्ट रेंजर थे. इनकी माँ का नाम श्रीमती सावित्री देवी है. अपने माता-पिता के सात बच्चों में तीन बड़ी बहनों व एक बड़े भाई के बाद अजय पांचवें हैं एवं इनसे और दो छोटे भाई हैं.
 
(शशि पयाल) 
अजय की बड़ी बहन शशि का प्रभाव उन पर सबसे अधिक पड़ा. शशि पौड़ी के कोठार गांव की रहने वाली हैं और तीर्थ नगरी ऋषिकेश में चाय की दुकानें चलाती हैं. उन्हें सादगी में रहना काफी पसंद है. शादी के बाद से ही शशि एकदम साधारण जीवन बिता रही हैं. उनकी एक दुकान नीलकंठ मंदिर के पास है और दूसरी चाय की दुकान भुवनेश्वरी मंदिर के पास. इन दोनों दुकानों में चाय, पकौड़ी और प्रसाद मिलता है. शशि देवी के पति पूरन सिंह पयाल पूर्व ग्राम प्रधान रह चुके हैं. इसके अलावा नीलकंठ मंदिर के पास उन का एक लॉज भी है. शशि देवी कहती हैं कि वो अपने भाई से बेहद प्यार करती हैं. उनके अनुसार, जब उन्हें पता चला कि उनका भाई योगी बन गया है, वो हर साधु में अपने भाई की शक्ल देखती हैं. उनकी शादी के बाद ही उनके भाई अजय घर छोड़कर चले गए थे. सांसद बनने से लेकर अब तक उनकी कोई बात नहीं हो पाई है. शशि देवी का कहना है कि वो अपने भाई से उत्तराखंड का भला चाहती हैं. भले ही उनका भाई उनके लिए कुछ करें या नहीं, लेकिन पहाड़ की जनता के लिए कुछ भला जरूर करें.
(अजय सिंह बिष्ट) 

बहन श्रीमती शशि पयाल कहती हैं कि उन्होंने भाई को छुटपन में स्कूल से लाने और ले जाने का काम किया है. पिछले 27 सालों से वह अपने भाई से नहीं मिल पाई हैं. बचपन की कुछ बातों को याद करते हुए बहन शशि बताती हैं, ‘बचपन में रक्षाबंधन के त्यौहार के दिन भाई हमेशा उनसे यही कहा करते थे कि ‘अभी तो फिलहाल मैं कुछ नहीं कमा रहा हूं, लेकिन जब बड़ा हो जाऊंगा तो तुम्हें खूब सारे उपहार दूंगा.’  

इसके अलावा योगी आदित्यनाथ के छोटे भाई शैलेंद्र मोहन बिष्ट भारतीय सेना में 'सूबेदार' हैं. शैलेंद्र मोहन बिष्ट चीन से सटी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनात हैं. शैलेंद्र मोहन गढ़वाल स्काउट यूनिट में माणा बॉर्डर पर तैनात हैं. माणा बॉर्डर चीन के साथ लगा हुआ है. ये वही रास्ता है, जहां से चीन की सेना ने कई बार घुसपैठ करने की नाकाम कोशिश की है. भारतीय सेना ने बार-बार चीन के सैनिकों को करारा जवाब दिया है. इसी गढ़वाल राइफल में सूबेदार हैं शैलेंद्र मोहन बिष्ट. गढ़वाल स्काउट यूनिट स्थानीय लोगों को पहाड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए सैनिकों के रूप में तैयार करती है. बॉर्डर के दूसरी तरफ चीन की सेना द्वारा घुसपैठ के बढ़ते खतरों के की वजह से माणा की सीमा का काफी सामरिक महत्व है. सूबेदार शैलेंद्र मोहन अपने बड़े भाई योगी आदित्यनाथ को बेहद पसंद करते हैं. (साभार: राज्य समीक्षा रिपोर्ट, उत्तराखंड)

हमारे तीसरे कथा-नायक कल्याण सिंह बिष्ट का स्त्री-पक्ष थोड़ा अलग तरह का है. अल्मोड़ा-चमोली जिले की सीमा पर बसे तलचट्टी गाँव का थोकदार कल्याण सिंह को बचपन के दिनों में ‘कलुआ थोकदार’ के नाम से जाना जाता था. दरअसल वह एक आभासी चरित्र है : 1988 में प्रकाशित मेरे उपन्यास ‘थोकदार किसी की नहीं सुनता’ का नायक. आभासी चरित्र है इसलिए उसका कोई स्त्री-पक्ष नहीं है क्योंकि उसकी न कोई बहन है, न प्रेमिका और न पत्नी. लेकिन हाँ, उपन्यास में एक स्त्री-चरित्र जरूर है ‘कुंतुली’, जो थोकदार के हलवाहे शिल्पकार भंगिरुआ की सात साल की बेटी है. कुंतुली इतनी भोली है कि जब उसके पिता उसी के हम-उम्र मालिक-थोकदारज्यू को आठ-दस मील की चढ़ाई तक पीठ में ढोकर कुल देवता के मंदिर तक ले जा रहे होते हैं, वह सबके सामने जिद करती है कि वह भी देवता को समर्पित होने वाले पशु-बलि का उत्सव देखने मंदिर तक जाएगी; मगर यह संभव नहीं हो पाता.

जवान होने पर कुंतुली उसके गाँव में पहाड़-वासियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति पर शोध-कार्य करने के लिए आए एक सवर्ण शोध छात्र नितिन पन्त की हवस का शिकार बन जाती है और सवर्णों के मिथक ‘सिंह-वाहिनी’ के सामानांतर दलितों के मिथक ‘महिष-वाहिनी’ के रूप में अपने प्रेमी से बदला लेती है.

इस प्रकार उपन्यास में स्त्री-पक्ष तीन रूपों में सामने आता है: पुरोहितों की सिंहवाहिनी, थोकदारों की पक्षीवाहिनी और दलितों की महिषवाहिनी के रूप में. ये तीनों पक्ष यह बताते हैं कि सदियों से स्त्री सिर्फ पुरुषों की वाहिनी रही है जिसका अपना निजी व्यक्तित्व कभी विकसित नहीं हो पाया. वह अपनी छवि कभी सिंह में, कभी पक्षी में और कभी भैंस की योनि में तलाशती रही, मगर अर्थहीन भटकन के सिवा कुछ भी उसके हाथ नहीं लगा.


सबसे पहले थोकदारों का स्त्री-पक्षी आयाम, जिसके तीन पक्षों की जानकारी पाठकों को मिल चुकी है. घुघुती, कफुवा, न्योली, चोळ, और वे अनगिनत पक्षी जो पहाड़ी वनांचलों में पूरे वर्ष बेचैन भटकते रहते हैं. जाने कब से पहाड़ी स्त्री ने उनकी आवाज को अपना स्वर बनाकर अपने सन्देश चारों दिशाओं में भेजे हैं, मगर आज तक वह आवाज उसके समाज की आवाज नहीं बन पाई है.  मजेदार बात यह है कि आज भी समाज उसकी आवाज को नोस्टेल्जिया की तरह याद करता है, जहाँ औरत देवी है, माँ है, संरक्षण देने वाली बहन है; और है भोग का जरिया. अपने वास्तविक दुखों पर स्मृतियों का मरहम लगाकर वह खुद की तकलीफों को नहीं, परिजनों को कष्टों से मुक्ति दिलाती रही है.

वर्ष 1961-64 के दौरान, जब मैं नैनीताल कॉलेज में पढ़ रहा था, दीदी के जीवन में ऐसा संकट आ पड़ा जिसके निदान का रास्ता किसी की समझ में नहीं आ पा रहा था. ऐसी परिस्थिति में जैसा कि होता है, अंधविश्वासों का सहारा लिया जाता है, दीदी के परिजनों ने भी वही रास्ता अपनाया. दीदी ने दो-तीन शिशुओं को जन्म दिया, लेकिन कोई जीवित नहीं रह पाया. प्यारे-से आत्मीय शिशु, जिन्हें मैंने भी अपनी गोद में खिलाया था. उन सभी शिशुओं की परवरिश उसी आत्मीयता के साथ की गयी, जैसी दीदी ने मेरी की थी. मगर सब कुछ एक अभिशाप की तरह सामने आता चला गया, मानो सब कुछ पूर्व-निर्धारित हो.

हमारा परिवार बहुत पहले इसी तरह के संकट से गुजर चुका था. तब मेरा जन्म नहीं हुआ था, पिताजी की पहली संतान के रूप में हमारा बड़ा भाई था पूरन. बताते हैं कि आठ-दस सालों का, सपनीली और शांत आँखों वाला वह बच्चा घर की पहली संतान होने के कारण सबका दुलारा था. एक दिन किसी बात पर उसका झगड़ा किसी हम-उम्र बच्चे से हुआ तो उसकी शिकायत भाई ने पिताजी से की. गुस्सैल पिताजी ने अपनी ओर से दो-चार हाथ अपनी ओर से और जमाकर, यह कहकर उसे घर से बाहर कर दिया कि उसका भी तो कुछ कसूर रहा होगा. जाड़ों के ठिठुरन भरे दिन थे, भावुक भाई उस कड़ाके की सर्दी में घर के नीचे वाले खेत पर पड़ी शिला पर उदास बैठा रहा. घर के लोग समझे कि वह घर में ही कहीं छिपा होगा, किसी ने उनकी खबर नहीं ली. आधी रात को पिताजी का गुस्सा जब शांत हुआ, उसकी तलाश हुई. नीचे के खेत में भाई पथरीली मेड़ के किनारे अकेला शांत बैठा था. उठाकर देखा तो बर्फीली ठण्ड से वह अचेत था और जब तक कुछ उपचार करते वह प्राण त्याग चुका था. मुझे नहीं मालूम कि हमारे उस सबसे बड़े भाई को मृत्यु के बाद कौन-सी योनि मिली, मगर परिवार के लोगों ने बताया कि उसके बाद पिताजी किसी से भी ऊँची आवाज में नहीं बोलते थे.

(बटरोही की दीदी- धना बोरा

दीदी की संतानों की कहानी अलग थी; करुणा और संताप से भरी, जिसके लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता था. मानो कोई अज्ञात शक्ति डरावना खेल खेल रही हो. सभी लोग परेशान थे, अपनी ओर से कोई रास्ता खोज रहे थे, मगर लाचार थे. एकमात्र रास्ता नज़र आ रहा था कि किसी तांत्रिक या डंगरिये (देवता का अवतार ग्रहण करने वाला) की शरण में जाएँ. देवता का आवाहन किया गया, जिसने बताया कि इस अदृश्य शाप की छाया को मिटाने के लिए दीदी के आगामी नवजात शिशु को पन्याण (बर्तन मलने वाली जगह) में छोड़ दिया जाए, जिसे कोई सधवा स्त्री उठाकर अपना बच्चा स्वीकार कर ले. बाद में दीदी उस स्त्री से अपनी ही संतान को खरीद ले.

इस बार की संतान को दीदी ने इसी रिवाज के अनुसार अपनाया. चूंकि वह बच्ची पन्याण में मिली थी, इसलिए उनका नाम पनुली रक्खा गया जिसका संस्कृतीकरण ‘पुष्पा’ बना दिया गया. दीदी ने पुष्पा को भी उन्हीं पक्षी-गीतों को गाते और लोक-कथाओं को सुनाते हुए बड़ा किया, जिनके संस्कार उसने कभी मुझमें डाले थे.

गीत की कड़ियाँ मुक्त स्नेह को छलकाते हुए फालतू किस्म की तुकबंदी द्वारा निर्मित होती थीं, जिसमें शब्दावली का नहीं, भावनाओं के ज्वार का महत्व था. पीठ के बल लेटी हुई माएँ और बहनें अपनी संतान को पावों की कुर्सी पर बैठाकर पक्षी के-से मधुर कंठ से गातीं:

घुघूती-बासूती
को खालो, दूध-भाती...

अगली पंक्तियाँ पात्र और देश-काल-परिस्थिति के अनुसार रची जाती थीं, जिन पर किसी किस्म के छंद या व्याकरण के नियम लागू नहीं होते थे. यह प्रसंग मैंने अपनी पहली कहानी के रूप में कलमबद्ध किया था और बारहवीं कक्षा के मुझ छात्र को स्नातक-स्नातकोत्तर विद्यार्थियों की प्रतिस्पर्धा में पहला पुरस्कार मिला था. यह कहानी मेरे किसी संग्रह में संकलित नहीं है, मगर मेरी साहित्यिक आधारशिला का पहला पत्थर यही बनी.


‘काफल पाक्को, मेंल नि चाक्खो’
ये कथाएं भोली-भाली बेटियों की करुणा में से उपजी व्यथाएँ हैं और दर्जनों गझिन पेड़ों से भरी पहाड़ियों से घिरे अपने ससुराल के गाँव में अपने भाई के स्नेह को याद करने वाली अन्तरंग भावनाएं हैं. सीमित उपज वाले खेतों-वनों में अपनी शक्ति का सर्वस्व झोंक देने वाली इन भावुक-सरल युवतियों के पारदर्शी मन में से उपजी ये कथाएँ उन्ही की अज्ञात पहचान की तरह एक दिन नराई या खुद (नौस्टल्जिया) बनकर आकाश-पृथ्वी, नदी-वनांचल के बीच खो जाती हैं:

काट्न्या-काट्न्या पल्युं ऊंछो, चौमासी को बन..
बग्न्या पाणी थामी जां छ, नी थामीनो मन...
(कितना ही काटिए, बरसात के मौसम में वनस्पतियाँ काटते-काटते ही अंकुरित हो आती हैं, बहता हुआ पानी भी एक समय के बाद थम जाता है; अगर नहीं थमता है तो आदमी का मन!)

मेरे दूसरे कथा-नायक अजय सिंह बिष्ट के गाँव के बारे बताते हुए उन्हीं के गाँव के राधाकृष्ण कुकरेती अपनी कहानी ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ (1962) में लिखते हैं:

“मेरा गाँव न तो पहाड़ की चोटी पर बसा हुआ है और न एकदम घाटी में. बांज, बुरांस से ढकी पहाड़ की चोटियाँ, जिन पर जाड़ों में बर्फ पड़ जाती है, काफी दूर ऊपर रह जाती हैं, और तंग, गहरी घाटी भी काफी ऊपर ढलुवा धरती पर सीढ़ीनुमा खेतों के बीच मेरा गाँव बसा हुआ है. उस ढलुवा धरती पर कब गाँव बसा, अब गाँव के बुजुर्ग भी नहीं बता पाते. शायद शुरू में गाँव में सिर्फ चार-पांच ही परिवार थे, लेकिन आज तो वह बीस-पच्चीस परिवारों का भरा-पूरा-सा गाँव है."

“गाँव के आस-पास बंजर जमीन काफी थी, जैसे-जैसे आबादी बढ़ती गई, बंजर धरती को सब्बल और गैंतियों से गाँव के लोग खेती योग्य बनाते गए, वह जमीन पहले बिलकुल ढलुवां थी और गाँव के पशुओं के चरने लायक घास ही वहां उगती थी, लेकिन जब आबादी बढ़ने लगी तो इन्सान के मजबूत हाथों ने उस बंजर धरती पर सब्बल और गैंतियों की चोट की तो सीढ़ीनुमा खेत बन गए और उन खेतों में गेहूं, जौ, कोदो और झंगोरा की फसल लहलहाने लगी, गाँव वालों को अनाज की विशेष दिक्कत न होती. फिर घाटी में नदी के किनारे की क्यारियों में बरसाती धान भी गुजारे लायक हो जाता. जाड़ा शुरू होते ही गाँव के नौजवान मेहनत-मजदूरी के लिए किसी ठेकेदार के साथ कटान के जंगलों में चले जाते और फिर वसंत शुरू होते ही फसल बोने के लिए चले आते."

“लेकिन जब एकाएक मुझे अपने गाँव में पानी के अभाव की याद आती है तो मेरा गला सूखने लगता है और उभरी हुई भावनाएं किसी अनजाने-से बोझ दब जाती हैं क्योंकि पानी के अभाव में मेरे गाँव के निवासी हमेशा से रोते आए हैं. पानी का चश्मा डेढ़-दो मील की उतराई पर है, जहाँ से गाँव चढ़ने के लिए सीधी चढ़ाई लगती है, फिर भी उस चश्मे पर सिर्फ अंगुल-भर पानी आता है और आधे घंटे से पहले एक बर्तन नहीं भर पाता. गर्मियां शुरू होते ही पानी और भी कम होने लगता है और जैसे-जैसे चश्मे का पानी घटता जाता है, गाँव की औरतों का खून भी घटता जाता है क्योंकि पानी और घास-लकड़ी ढोने की जिम्मेदारी तो सिर्फ औरतों की ही होती है; मर्द तो खेतों में हल लगा लेते हैं या दिन भर ढोर-डंगरों को चुगा लिया और रात को गोठ में सो गए."

“पानी के अभाव में गाँव की औरतें तो रोती ही हैं, लेकिन उस अभिशाप के शिकार नौजवान लड़के भी होते हैं. पानी की दिक्कत की वजह से आस-पास के गाँव वाले मेरे गाँव में लड़की देने को तैयार नहीं होते और बुजुर्ग लोग बड़ी उम्र तक भी अपने जवान लड़कों की शादियाँ नहीं कर पाते. गाँव का पुरोहित या बुजुर्ग जब किसी दूसरे गाँव में बहू ढूंढने जाते हैं, तो हर आदमी का एक ही जवाब होता है कि साहब! लड़की देने में तो इनकार नहीं, लेकिन आपके गाँव में पानी नहीं और औरतें जिंदगी भर पानी के लिए तरसती हैं. लड़कियां अपने माँ-बाप को मन-ही-मन गालियाँ देती रहती हैं कि निरपाणी का गाँव ही रह गया था हमारे लिए! किसी औरत का मासूम बच्चा मर जाए, तो उस सदमे को कुछ महीनों बाद भूल जाती है, क्योंकि फिर उसे अपनी गोद हरी होने की उम्मीद हो जाती है, लेकिन पानी का दुःख वह कभी नहीं भूल पाती. और तब बड़ी मुश्किल से मेरे गाँव के नौजवानों की शादियाँ दूर कहीं ऐसे इलाके में हो पाती हैं, जहाँ मेरे गाँव की पानी की बदनामी की चर्चा न हो या वह किसी भी हालत में अपनी बेटी का ब्याह करना चाहता हो. मेरे गाँव में नौजवानों की शादियों की समस्या पानी की समस्या से जुड़ी हुई है."

“...फिर गर्मियों का मौसम आ गया और गाँव में पानी का अकाल शुरू हो गया. खेतों से गहूं, जौ की फसल खलिहानों में आने लगी. हर खलिहान में फसल की मंड़ाई के लिए बैलों की जोड़ियाँ रेटने लगीं. बैलों को रिटाने वाली औरतें-मर्द वक़्त काटने के लिए इधर-उधर के किस्से शुरू कर देते हैं और तभी चोळी (चातक) पक्षी असमान में मंडराते हुए अपने कातर स्वर में ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ की रट लगाए पंख फड़फड़ाता दृष्टिगोचर होता, तो बूढ़ी औरतें अपनी बहू-बेटियों को चोळी पक्षी की कहानी सुनाने लगतीं कि हमारे ही गाँव जैसा एक गाँव था, जहाँ पानी की बहुत तंगी थी. एक दिन एक औरत ने अपनी बेटी और बहू को खलिहान से थके-प्यासे बैल सौंपते हुए कहा कि बैल बहुत प्यासे हैं और जो बैलों को नदी से जल्दी पानी पिलाकर लाएगी, उसे खाने को खीर दूँगी और जो देर से लाएगी उसे छछेड़ा मिलेगा. दोनों ननद-भावज बैलों को लेकर नदी के रास्ते रवाना हुईं. बहू तो बैलों को नदी ले गई, लेकिन ननद अपनी वाली बैलों की जोड़ी को रास्ते से ही वापस ले आई और माँ से कह दिया कि बैलों को नदी से पानी पिलाकर ले आई है, ताकि उसे खाने को खीर मिल सके. उसे खीर तो मिल गई लेकिन दूसरी सुबह तक प्यासे बैल मर गए. बैल मरते समय उसे शाप दे गए कि जन्म-जन्मांतरों तक भी वह पानी के लिए तरसती रहेगी."

“बैलों की मौत के सदमे से वह लड़की काफी दिनों तक परेशान रही और फिर एक दिन अचानक दम तोड़ गई. दूसरे जन्म में उसे चोळी (चातक) पक्षी की योनि मिली, जो आसमान में पंख फडफडाते हुए बारिश की बिनती करती रहती है – ‘सरग ददा पाणि-पाणि’ क्योंकि आसमान से गिरती जो बूँदें उसके मुंह में गिर जाती हैं, वह गले से उतार लेती है, वरना नदी और तालाब की तरफ जब भी अपनी प्यासी निगाहें फैलाती है, तो पानी उसे बिलकुल लाल नज़र आता है, गाढ़े खून की तरह, और किसी ने आज तक उसे नदी या तालाब का पानी पीते नहीं देखा.”

(‘सरग ददा पाणि-पाणि’, कहानी-संग्रह, लेखक राधाकृष्ण कुकरेती, दूसरा परिवर्धित संस्करण, 1985, हिमवंत प्रकाशन, नया जमाना प्रेस, 15-ए, कचहरी रोड, देहरादून.)
(क्रमशः)

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  1. यादों के गलियारों में ज्यों ज्यों बढ़ता गया आँखे धुंधलाती गयी, अक्षर उड़ते रहे, भाव घुलते रहे और मन धुलता गया.

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  2. हम तीन थोकदार’ की यह तीसरी किश्त सब से पहले पढ़ी हैं आख्यान कब शुरू और कब खत्म पता ही नहीं चला. बेहतरीन...,

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  3. Pratibha Bisht Adhikari3 जून 2020, 9:53:00 am

    बहुत सुंदर !
    माँ का मार्मिक चित्रण भी है l

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  4. bahut dilchasp aur marmik collage-rachntmakta ka bejod namunai badhai

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  5. नेपाली जनजीवनसँग मेल खाने कथा

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  6. शिव किशोर तिवारी4 जून 2020, 4:38:00 pm

    'हम तीन थोकदार' अन्ततः कुछ आत्मकथात्मक होगा ऐसा लग रहा है। तीन कथाओं का बेतरतीब ढंग से बुनाव शिल्पगत प्रयोग के रूप में मान रहा हूँ । अभी तो शुरूआत ही है। योगी आदित्य नाथ कैसे इस त्रिसूत्री यज्ञोपवीत में फ़िट होंगे अभी ठीक अनुमान नहीं लग रहा है।
    बटरोही जी के बयान के क्या कहने! जिस तटस्थता से वे अंतिम साल की बात कह गये वह विचलित करने वाला है। शतायु हों ।

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