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के वरिष्ठ कथाकार बटरोही के ‘तीन थोकदार’ संस्कृति, राजनीति, साहित्य और समाज के अलग-अलग क्षेत्रों की यात्रा करते हुए अपने इस दसवें
हिस्से में प्रसिद्ध शिकारी जिम कॉर्बेट तक पहुंच गयें हैं. जिम अपने को नैनीताल
का पक्का बाशिंदा मानते थे और वहां के समाज में घुल गए थे. उनके रोमांचक शिकार कथाओं से हम
परिचित हैं लेकिन वहां की स्थानीयता को जिस लगाव और संवेदनशील ढंग से वह लिखते हैं
वह भी ऐतिहासिक महत्व का है. पहाड़ी समाज के लिए उनका महत्व स्थायी है.
हम
तीन थोकदार का यह बेहद दिलचस्प अंक आपके लिए.
हम तीन थोकदार (दस)
पनार घाटी का
थोकदार जिम कॉर्बेट
बटरोही
______________
उन्नीसवीं सदी के जिन हलचल भरे दिनों में पहाड़ का हर पढ़ा-लिखा नौजवान अंग्रेजी पढ़कर गाँवों से शहरों और कस्बों की ओर पलायन करता हुआ अंग्रेजी भाषा की कॉलोनी बनने में गर्व का अनुभव करता था, नैनीताल से पच्चीस किलोमीटर नीचे भाबर के इलाके कालाढूंगी में १८७५ ईस्वी में एक पहाड़ी अंग्रेज का जन्म हुआ, जिसका नाम था, जेम्स एडवर्ड कॉर्बेट. घर में ‘जिम’ नाम से पुकारा जाने वाला यह लड़का बारह भाई-बहनों में ग्यारहवे नंबर का था. पिता कालाढूंगी में पोस्ट-मास्टर थे, चार वर्ष का ही था कि पिता की मृत्यु हो गयी और घर की जिम्मेदारी सबसे बड़े भाई टॉम के सिर पर आ गई. सरकार ने टॉम को पिता की जगह नैनीताल का पोस्ट-मास्टर नियुक्त कर दिया और उसने १८८१ में नैनीताल की अयारपाटा पहाड़ी में परिवार के लिए एक खूबसूरत कॉटेज बनवाई: ‘गर्नी हाउस’. जिम कॉर्बेट का सारा बचपन नैनीताल-कालाढूंगी के बीच घने जंगलों, जंगली जानवरों और पहाड़ी आदिवासियों के बीच बीता. अपने हमउम्र बच्चों के साथ शरारतें करते, गाली-गलौज की भाषा सीखते हुए उसने कुमाऊनी सीखी और जिन्दगी भर खुद को पहाड़ी मानता रहा.
जिम पेशे से
जरूर शिकारी था मगर सिर्फ आदमखोर जंगली पशुओं को मारता था. वह एक समर्पित
प्रकृति-प्रेमी और अपने पर्यावरण को जूनून ही हद तक प्यार करने वाला अनोखा इन्सान
था.
आजादी के बाद
देश के बंटवारे के वक़्त जिम भरे मन से भारत छोड़कर कीनिया चले गए, जहाँ उनकी बाकी
की जिन्दगी बीती और वहीँ १९५५ में मृत्यु हो गई. जिम ताजिंदगी खुद को हिन्दुस्तानी
मानते रहे. कालाढूंगी के पास उन्होंने ‘छोटी हल्द्वानी’ नाम से एक गाँव बसाया जहाँ
के लोगों को नयी दुनिया से जोड़ते हुए लोक-कल्याण के अनेक यादगार काम शुरू किए और
पहाड़ी लोगों को आधुनिकता की मुख्यधारा के साथ जोड़ा.
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पनार घाटी के
अपने पैतृक इलाके से नौ वर्ष की अवस्था में १९५६ में, जब मैं नैनीताल आया,
अंग्रेजों की गमक चारों ओर महसूस की जा सकती थी. अंग्रेज शहर छोड़ चुके थे या छोड़ने
की तैयारी में थे. इसी दौरान हिन्दुस्तानी रईसों और मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे नौजवानों
की नई नस्ल ने खुद को तन-मन-धन से अंग्रेजों के स्थानापन्न के रूप में ढाल लिया था
और आधे हिन्दुस्तानी, आधे अंगरेज की छवि के साथ वे नए भारत का नेतृत्व करने के लिए
तैयार बैठे थे. ऐसे में नैनीताल में बचे-खुचे अंग्रेज अजीब-से सवालिया निगाहों से
देखे जा रहे थे. हिन्दुस्तानी लोग खुद भी अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को लेकर दुविधा
में थे. ऐसे में पहाड़ के थोकदारी (ग्रामीण) समाज को आकार देने में जिम कॉर्बेट ने
जिन्दगी भर जोखिम उठाकर जो काम किया, अगर न किया गया होता तो सारा पहाड़ आज वैसे ही
मध्यवर्गीय खोखलेपन के भीतर कैद होते जैसा कि यहाँ का सवर्ण-अंग्रेजीपरस्त समाज आज
के दिन भी कैद है.
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१९०७ में
ब्रिटिश हुकूमत ने जब जिम को चम्पावत के नरभक्षी को मारने के लिए देवीधुरा के डाक
बंगले में भेजा, इस यात्रा से उनको कुमाऊँ के पूर्ववर्ती इलाके की लगातार यात्रा
करने का मौका मिला जिसमें वो अनेक बार जिन्दगी और मौत के बीच झूलते रहे. यह बात
खुद जिम को भी मालूम नहीं थी कि यह यात्रा कुछ आदमखोर बाघों से सुदूर पहाड़ी गाँवों
में रहने वाले ग्रामवासियों को सुरक्षा और जीवनदान देने वाली ही नहीं, एक अपरिचित
लोक जीवन के महात्म्य को संसार के सामने उसकी खूबियों के साथ प्रस्तुत करने का आधार
भी बन जाएगी. अकेले जिम कॉर्बेट ने अपनी संस्मरणात्मक यात्रा-विवरणों के द्वारा
ग्रामीण पहाड़ी संस्कृति को जिस जीवन्तता और सहजता के साथ प्रस्तुत किया, वह काम भारत
के बड़बोले इतिहासकार भी नहीं कर पाए.
उनकी किताबें
‘मेरा हिंदुस्तान’ (My India)
‘कुमाऊँ के नरभक्षी’ (Man-Eaters of Kumaon)
‘दैवी शेर और कुमाऊँ के अन्य नरभक्षी’(The Temple Tiger and more Man-Eaters of Kumaon)
‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ’ (The Man-Eating Leopard of Rudraprayag),
जीती जागती कहानी जंगल की (Jungle-Lore)
आदि भारतीय ही नहीं, विश्व साहित्य की क्लासिक रचनाएँ हैं और भारतीय मनीषा की अपूर्व धरोहर.
उनकी किताबें
‘मेरा हिंदुस्तान’ (My India)
‘कुमाऊँ के नरभक्षी’ (Man-Eaters of Kumaon)
‘दैवी शेर और कुमाऊँ के अन्य नरभक्षी’(The Temple Tiger and more Man-Eaters of Kumaon)
‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर बाघ’ (The Man-Eating Leopard of Rudraprayag),
जीती जागती कहानी जंगल की (Jungle-Lore)
आदि भारतीय ही नहीं, विश्व साहित्य की क्लासिक रचनाएँ हैं और भारतीय मनीषा की अपूर्व धरोहर.
यहाँ पेश है
थोकदारी जिंदगी के अपूर्व जीवट से जुड़ी उनके संघर्ष के अंश: जिम कॉर्बेट की ज़बानी.
(एक)
‘मैं नैनीताल के पक्के वाशिंदों में से एक हूँ’
‘मेरा हिंदुस्तान’ में गाँवों की जिन्दगी और कामकाज की जो तस्वीरें मैंने शब्दों के जरिये उकेरने की कोशिश की है, वह हिंदुस्तान के उस बड़े हिस्से से ताल्लुक रखती हैं जिसे मैं अपने होश संभालने के बाद से जानता रहा हूँ और जहाँ मैंने काम किया है. तस्वीरें उकेरने की यह कोशिश उन सीधे-सादे लोगों की जिन्दगी, उनके तौर-तरीकों और उनके किरदारों से भी ताल्लुक रखती हैं जिनके बीच मैंने अपने सत्तर बरसों का बड़ा हिस्सा गुजारा है. अब हिंदुस्तान के नक़्शे पर एक निगाह डालें. अब कन्याकुमारी पर ऊँगली रखें जो कि हिंदुस्तान के सबसे दक्खनी किनारे पर है और अब आप अपनी निगाह सीधे ऊपर ले जाएँ जहाँ यूनाइटेड प्रोविन्सेस में गंगा के मैदान हिमालय की तराई में गड्डमगड्ड होते दिखाई देते हैं. यहाँ आपको एक हिल स्टेशन दिखाई देगा- नैनीताल. यूनाइटेड प्रोविन्सेस यानी संयुक्त प्रान्त की गर्मी की राजधानी. अप्रैल से नवम्बर तक नैनीताल, मैदानी गर्मी से छुटकारा पाने आये यूरोपियन लोगों और पैसे वाले हिन्दुस्तानियों से ठसाठस भरा रहता है. सर्दियों में यहाँ बहुत थोड़े ही वही लोग बचते हैं जो यहाँ के पक्के वाशिंदे हैं – अपनी ज्यादातर जिन्दगी में मैं इन्हीं पक्के वाशिंदों में से एक रहा हूँ.
बहुत-सी
पगडंडियों के अलावा एक पक्की सड़क के जरिये नैनीताल पहुंचा जा सकता है. इस पक्की
सड़क के बारे में हमें जो गुमान है वह ठीक ही है क्योंकि यह सड़क हिंदुस्तान की सबसे
बेहतरीन ढंग से डिजाइन की गई और सबसे बेहतरीन रखरखाव वाली पहाड़ी सड़क है. काठगोदाम
के रेलवे स्टेशन से शुरू होकर अपने बाईस मील के रास्ते में यह सड़क कई ऐसे जंगलों
को पार करती हुई चलती है जिनमें कभी-कभी शेर और बड़े-बड़े अजगर भी दिखाई देते हैं.
खूबसूरत इलाकों और आसान-सी चढ़ाइयों पर होते हुए यह सड़क ४५०० फीट की ऊंचाई पर
नैनीताल कब पहुँच जाती है मालूम ही नहीं चलता.
नैनीताल का
ब्यौरा सबसे अच्छे ढंग से एक ऐसी खुली घाटी के तौर पर दिया जा सकता है जो पूरब से
पश्चिम की तरफ तीन तरफ से पहाड़ियों से घिरी हुई है और इसमें सबसे ऊंची पहाड़ी है
चीना – ८५६९ फीट की ऊँचाई को छूते हुए. पक्की सड़क की तरफ घाटी खुली हुई है. इसी
घाटी में दो मील से कुछ ज्यादा घेरे वाली एक झील है जिसके ऊपरी सिरे पर एक
बारहमासी झरना है और निचले सिरे पर जहाँ पक्की सड़क ख़त्म होती है वहां हमेशा झील का
फालतू पानी बहता रहता है. घाटी के उपरले और निचले दोनों सिरों पर बाज़ार हैं और
चारों तरफ घने पेड़ों से भरी पहाड़ियों पर लोगों के मकान, गिरिजाघर, स्कूल, क्लब और
होटल दिखाई देते हैं. झील के किनारे पर बोट हाउस है, किसी खूबसूरत तस्वीर जैसा एक
मंदिर है और एक गुफा मंदिर है जिसका बूढ़ा पुजारी जिन्दगी भर से मेरा दोस्त है.
यह झील कैसे बनी, इस बारे में लोगों के अलग-अलग खयाल हैं. कुछ का कहना है कि यह झील बर्फीली नदियों से और जमीन के धसकने से बनी है और कुछ का मानना है कि यह झील किसी ज्वालामुखी के फूटने का नतीजा है. हिदू कथाओं के मुताबिक इस झील को बनाने का श्रेय तीन पौराणिक ऋषियों अत्रि, पुलस्त्य और पुलह को है. हिन्दुओं की पवित्र पुस्तक स्कन्दपुराण में बताया गया है कि ये तीनों ऋषि एक बार प्रायश्चित के लिए तीर्थ यात्रा करते हुए यहाँ चीना की चोटी पर आ पहुंचे थे और यहाँ उन्हें जोर की प्यास लग आई. अपनी प्यास बुझाने के लिए उन्हें जब पानी नहीं मिला तो उन्होंने जमीन में एक छेद किया और तिब्बत में मौजूद मानसरोवर झील का पानी इस छेद के जरिये खींच लिया. तीनों ऋषियों के यहाँ से जाने के बाद देवी नैनी यहाँ आई और झील में रहने लगी. वक़्त बीतने के साथ-साथ पानी के इर्द-गिर्द जंगल पैदा हो गए और पानी और हरियाली देखकर बड़ी तादाद में परिंदे और जानवर यहाँ आ गए और उन्होंने इस घाटी को अपना घर बना लिया. देवी के मंदिर के चार मील के दायरे में ही मैंने बाकी जानवरों के अलावा शेर, तन्दुए, भालू और सांभर देखे हैं और इसी इलाके में एक सौ अट्ठाईस किस्मों के परिंदों की पहचान की है.
यहाँ झील होने
की अफवाहें नए हुक्मरानों तक पहुंचीं. पहाड़ के लोग वैसे भी अपनी इस पवित्र झील का
अता-पता किसी बाहरी आदमी को नहीं देना चाहते थे लेकिन इन हुक्मरानों में से एक को
सन १८३९ में झील का पता लगाने का एक नया तरीका सूझा. इसने एक पहाड़ी आदमी के सिर पर
बहुत भारी पत्थर रखवा दिया और उसे कहा कि जब तक वह देवी नैनी की झील तक नहीं पहुँच
जाता तब तक यह पत्थर उसे ढोना पड़ेगा. कई दिनों तक वह पहाड़ियों में जान-बूझकर भटकने
के बाद यह आदमी पत्थर का बोझा ढोते-ढोते आख़िरकार टूट गया और अपने पीछे चल रही
सरकारी मुलाजिमों की टोली को उसने झील दिखा दी. जब मैं छोटा था, तब मुझे यह पत्थर
दिखाया गया था. इसक वजन करीब छः सौ पाउंड था. जिस पहाड़ी आदमी ने मुझे यह पत्थर
दिखाया उसने मुझसे कहा, ‘हाँ, यह पत्थर बड़ा जरूर है लेकिन तुम्हें यह भूलना नहीं
चाहिए कि उस ज़माने में हम पहाड़ी लोग भी बहुत मजबूत और ताकतवर हुआ करते थे.’
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आप एक बढ़िया-सी
दूरबीन ले लीजिए और मेरे साथ चलिए चीना पहाड़ी की चोटी पर. यहाँ से आपको नैनीताल के
आसपास के इलाके का नज़ारा वैसा ही दिखाई देगा जैसे आप किसी ऊंची उड़ती चिड़िया की
आँखों से देख रहे हों. सड़क एकदम सीधी चढ़ाई वाली है लेकिन यदि चिड़ियों, पेड़ों और
फूलों में आपकी दिलचस्पी है तो तीन मील की यह चढ़ाई आपको अखरेगी नहीं. ऊपर आकर यदि
आपको भी उन तीनों ऋषियों की तरह प्यास लगे तो मैं आपको स्फटिक के समान धौला और
चमकदार पानी का एक सोता बताऊँगा जहाँ आप अपनी प्यास बुझा सकते हैं. थोड़ा सुस्ताने
और अपना लंच करने के बाद अब हम उत्तर की तरफ मुड़ते हैं. आपके ठीक नीचे घने पेड़ों
से भरी जो घाटी है वह कोसी नदी तक फैली हुई है. नदी के पार एक-दूसरे के साथ चलती
पहाड़ियों की चोटियाँ हैं जिन पर यहाँ-वहाँ गाँव बसे हुए हैं. इन्हीं में से एक
चोटी पर अल्मोड़ा शहर है और दूसरी पर रानीखेत की छावनी. इन चोटियों के पार और
चोटियाँ हैं जिनमें सबसे ऊंची पहाड़ी ढूंगर बुकाल है लेकिन १४,२०० फीट ऊंची यह
पहाड़ी बर्फ से ढके हिमालय पर्वतों के सामने बौनी पड़ जाती है. यदि कौवे की उड़ान के
हिसाब से सोचें तो आपके उत्तर में साठ मील दूर त्रिशूल है और २३,४०६ फीट ऊँची इस
पहाड़ी के पूरब और पश्चिम में बर्फ के पहाड़ों की अटूट लकीर सैकड़ों मील लम्बाई में
है. जहाँ बर्फ निगाहों से ओझल होती है वहां त्रिशूल के पश्चिम की तरफ पहले तो
गंगोत्री वाले पहाड़ हैं, फिर बर्फ की नदियों और पहाड़ों के ऊपर केदारनाथ और
बद्रीनाथ के पवित्र स्थान हैं और स्मिथ की वजह से मशहूर माउंट कामेट परबत (२५,४४७
फिट) है.
त्रिशूल के पूरब की तरफ थोड़ा और पीछे आपको नंदादेवी पर्वत (२५,६८९ फीट) दिखाई देगा जो कि हिंदुस्तान में सबसे ऊँचा परबत है. उसके दाईं तरफ सामने नंदाकोट है – देवी पार्वती का बेदाग तकिया और थोड़ा आगे पूरब में पंचचूली की खूबसूरत चोटियाँ हैं. पंचचूली, मतलब पांच चूल्हे – तिब्बत में कैलास के रास्ते जाते पांडवों ने यहाँ खाना पकाया था. सूरज की पहली किरण के आने पर चीना और बीच की पहाड़ियां जब रात के अँधेरे के आगोश में ही होती हैं, तब बर्फीले परबतों का माथा गहरे रंग से बदलकर गुलाबी हो जाता है और जैसे ही असमान की सबसे करीबी चोटी को सूरज छूता है, यह गुलाबी रंग हौले-हौले चकाचौंध सफेदी में बदल जाता है.
दिन के वक़्त ये
पहाड़ शीतल और दूधिया दीखते हैं – चोटियों के पीछे बर्फीली धुंध की पीली परत नज़र
आती है. सूरज के डूबते वक़्त ये नजारा कुदरत के चितेरे के मन की उड़ान के मुताबिक
गुलाबी, सुनहरी या लाल रंग लिए होता है.
अब बर्फ के
पहाड़ों की तरफ आप पीठ कर लीजिए और चेहरा दक्षिण की तरफ. अपनी दूर निगाह की आखिरी
हद पर तीन शहर आपको दिखाई देंगे– बरेली, काशीपुर और मुरादाबाद. इन तीन शहरों में
काशीपुर हमारे सबसे नजदीक है और फिर यदि कौए की उड़ान से हम आसमानी दूरी मापें तो
यह हमसे पचास मील दूर है. ये तीनों शहर कलकत्ता और पंजाब को जोड़ने वाली रेलवे लाइन
के किनारे बसे हैं. रेलवे लाइन और इन पहाड़ियों के बीच की जमीन तीन किस्म की
पट्टियों में बंटी है. पहली पट्टी में खेती-किसानी होती है और यह करीब बीस मील
चौड़ी है. दूसरी पट्टी घास की है. करीब दस मील चौड़ी इस पट्टी को तराई कहा जाता है
और तीसरी पट्टी भी दस मील चौड़ी है जिसे भाबर कहा जाता है. भाबर पट्टी सीधे निचली
पहाड़ियों तक फैली हुई है. इस पट्टी में साफ किये गए जंगलों की उपजाऊ जमीन को
सींचने के लिए कई नदी-नाले हैं और इस पट्टी में छोटे-बड़े कई गाँव बसे हुए हैं.
इनमें से सबसे
नजदीकी गाँव कालाढूंगी सड़क के रस्ते नैनीताल से पंद्रह मील दूर है और इसी बस्ती के
ऊपरी सिरे पर हमारा गाँव है– छोटी हल्द्वानी, जो कि तीन मील लम्बी पत्थर की दीवार
से घिरा हुआ है. नैनीताल से कालाढूंगी आने वाली सड़क जहाँ पर निचली पहाड़ियों के
किनारे बनी सड़क से आ मिलती है– ठीक वहीँ मौजूद हमारी कॉटेज की छत पेड़ों के झुरमुट
से झांकती दिखाई देती है. यहाँ की निचली पहाड़ियों के करीब-करीब पूरे इलाके के
पत्थरों में लोहा है.
उत्तरी हिंदुस्तान में पहली बार लोहा कालाढूंगी में ही गलाया गया था. लोहा गलाने में लकड़ी का ईंधन इस्तेमाल किया गया था और कुमाऊँ के बेताज बादशाह सर हेनरी रैमसे को जब यह डर लगा कि भाबर के पूरे जंगल ही इन भट्टियों में झोंक दिए जाएँगे तो उन्होंने भट्टियाँ बंद करा दीं.
चीना पहाड़ी पर
जहाँ आप बैठे हैं वहां से लेकर कालाढूंगी तक निचली पहाड़ियों में साल के घने जंगल
हैं. इन पेड़ों की लकड़ी रेलवे स्लीपर बनने के काम आती है. पहाड़ी की सबसे नजदीकी
चोटी की नजदीकी परत के पास छोटी-सी झील-खुरपाताल है जिसके इर्द-गिर्द फैले खेतों
में हिंदुस्तान के सबसे उम्दा आलू पैदा होते हैं. अपनी दायीं तरफ, थोड़ा आगे आपको
सूरज की रौशनी में चमकती गंगा दिखाई देती है और बायीं तरफ यही रौशनी शारदा के पानी
पर चमकती दिखाई देती है. इन दोनों नदियों और और निचली पहाड़ियों से होकर इनके गुजरने
के बीच की दूरी करीब दो सौ मील है.
अब आप पूरब की
ओर मुड़ें. अब आपके सामने और बीच की दूरी में फैला जो इलाका दिखाई देता है उसे
पुराने गजेटियरों में ‘साठ झीलों वाला जिला’ कहा गया है. इनमें से बहुत-सी झीलें
गाद जमने से भर गई हैं. कुछ झीलें तो मेरे सामने ही भरकर ख़त्म हुई हैं और अब कुछ
मायने रखने वाली जो झीलें बची हैं वो हैं – नैनीताल, सातताल, भीमताल और
नौकुचिया ताल. नौकुचिया ताल के आगे आइसक्रीम के कोन जैसी जो पहाड़ी दिखाई दे रही है
वह है छोटा कैलास. इस पवित्र पहाड़ी पर किसी परिंदे या जानवर का शिकार यहाँ के
देवताओं को गवारा नहीं. लाम से छुट्टी पर लौटा एक सिपाही जिसने देवताओं की मर्जी
के खिलाफ इस पहाड़ी पर बकरी का शिकार किया था, यहाँ शिकार करने वाला आखिरी इन्सान
साबित हुआ था. पहाड़ी बकरी को अपना शिकार बनाने के बाद अपने दो साथियों के
देखते-देखते बगैर किसी जाहिर वजह के वह गिरा और हजार फुट गहरी खाई में समां गया.
छोटा कैलास के आगे काला आगर पहाड़ियां हैं जहाँ मैं चौगढ़ के आदमखोर की तलाश में दो
बरस तक घूमता रहा था. इन पहाड़ियों के बाद नेपाल के परबत आँखों से ओझल होते दीखते
हैं.
अब जरा पश्चिम
की ओर मुड़ें. लेकिन पहले यह जरूरी है कि आप कुछ सौ फीट नीचे उतर कर देवपाटा की
७९९१ फुट ऊंची और चीना से सटी हुई चोटी पर आ जाएँ. ठीक नीचे पेड़ों से भरपूर बीच की
तंग पट्टी वाली गहरी घाटी, चीना और देवपाटा के जोड़ से शुरू होती है और दाचुरी से
होती हुई कालाढूंगी तक चली जाती है. हिमालय की किसी भी घाटी के मुकाबले यहाँ कई
गुना ज्यादा पेड़-पौंधे, फल-फूल और परिंदे और जानवर हैं.
इस खूबसूरत
घाटी के आगे की पहाड़ियों की अटूट माला गंगा तक चली जाती है. गंगा का धूप में चमकता
पानी आप भी सौ मील दूर से भी देख सकते हैं. गंगा के उस तरफ शिवालिक की पहाड़ियां हैं– वो पहाड़ियां जो बुलंदी से खड़े हिमालय के जनम के पहले ही बूढ़ी हो चुकी थीं.
(साभार:
‘मेरा हिंदुस्तान’ हिंदी अनुवाद – संजीव दत्त)
(दो)
बाला सिंह के पेट में घुसा दैत्य और मौत का बुलावा
जो लोग हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में कभी न रहे हों उनके लिए यह कल्पना भी कर सकना मुश्किल है कि वहां के लोग दूर-दूर बसी हुई छोटी बस्तियों में अन्धविश्वास के घुटन भरे माहौल के बीच कैसे रहते हैं. ऊंचे पहाड़ों में रहने वाले सामान्य अशिक्षित लोगों के अंधविश्वासों; और नीचे कम ऊँचाई वाली जगहों में रहने वाले पढ़े-लिखे लोगों के विश्वासों को अलग करने वाली मान्यताओं को अलग करने वाली रेखा इतनी बारीक़ होती है कि पता लगा पाना मुश्किल है कि कहाँ वो शुरू होती है, कहाँ ख़त्म. इसलिए आप इस कहानी के उन पात्रों के भोलेपन पर हंसने के लिए मजबूर हों, जिनके बारे में मैं बताने जा रहा हूँ, मेरी गुजारिश है कि कुछ पल रुक जाएँ. मैं अपनी कहानी में वर्णित अन्धविश्वास और जिस आस्था-विश्वास के साथ आदमी के मन में उनका जन्म हुआ होता है, उनके बीच के अंतर को स्पष्ट करने की कोशिश करूँगा.
एक शाम हमने
त्रिशूल की तलहटी पर अपना शिविर डाला. हमें बताया गया कि हर साल ‘त्रिशूल के
दैत्य’ को आठ सौ बकरों की बलि चढ़ाई जाती है. हमारे साथ खूब जोशीले और हंसमुख पंद्रह
पहाड़ी आदमी थे जिनके साथ मैं शिकार खेलने जाया करता था. इनमें से एक का नाम बाला
सिंह था. वह गढ़वाली था और काफी समय से मेरे साथ अनेक अभियानों में गया था. टोली के
जाते समय वह इस बात पर गर्व महसूस करता था कि सबसे भारी सामान वह खुद ले जायेगा और
बाकी सामान को दूसरे लोगों में बांटकर गीत गाते हुए सबसे आगे चलता था. रात को सोने
से पहले मेरे आदमी हमेशा अलाव के चारों तरफ बैठकर गीतों के टुकड़े गाते थे. त्रिशूल
की तलहटी की उस पहली रात का गायन कार्यक्रम सामान्य की अपेक्षा काफी देर तक चलता
रहा. लोग तालियाँ बजा रहे थे, शोर मचा रहे थे और कनस्तर पीट रहे थे.
हम चाहते थे कि
इस जगह पर शिविर लगाने के बाद भरल और थार को ढूँढने जायेंगे. लेकिन जब हम अगली
सुबह नाश्ता करने बैठे तो हमें अपने आदमियों को तम्बू उखाड़ने की तैयारी करते देखकर
आश्चर्य हुआ. पूछने पर बताया गया कि यह जगह रहने लायक नहीं है क्योंकि यहाँ नमी है
और पीने का पानी खराब है. ईंधन प्राप्त करना मुश्किल है और सबसे अच्छी बात यह है
कि दो मील दूर एक बेहतर जगह है.
मेरे साथ सामान
उठाने के लिए छह गढ़वाली थे जब कि मैंने देखा, सामान की पांच पोटलियाँ बनाई जा रही
थीं. देखा, बाला सिंह अपने सिर और कन्धों पर कम्बल ओढ़े अलाव के पास अलग बैठा था.
नाश्ता करने के बाद मैं उसके पास गया और मैंने पाया कि अन्य सभी आदमियों ने काम
करना बंद कर दिया और मुझे बहुत ध्यान से देखने लगे. बाला सिंह ने मुझे आते हुए
देखा लेकिन मेरा अभिवादन करने की कोशिश नहीं की. मेरे लिए यह अजीब बात थी कि वह
मेरी हर बात का जवाब यह कहकर दे रहा था कि वह बीमार नहीं है. उस दिन हमने अपनी दो
मील की यात्रा ख़ामोशी से तय की. बाला सिंह सबसे पीछे चल रहा था और उसकी चाल ऐसी थी
मानो वह नींद में चल रहा हो या नशे में हो.
अब यह साफ हो
गया था कि बाला सिंह के साथ जो कुछ भी घटित हुआ था वह दूसरे चौदह लोगों पर असर डाल
रहा था, क्योंकि वे लोग अपने काम स्वाभाविक उत्साह के बिना कर रहे थे. इसके अलावा
सबके चेहरों पर तनाव और भयग्रस्त होने का भाव था. जिस वक़्त चौदह पौंड का वह तंबू
लगाया जा रहा था, जिसमें रॉबर्ट और मैं रहते थे, मैंने अपने विश्वस्त गढ़वाली सेवक
मोती सिंह से पूछा कि बाला सिंह के साथ क्या गड़बड़ है? अनेक बहकाने और टालने वाले
उत्तरों के बाद, अंततः मैंने मोती सिंह से सारी बात जान ली. मालूम हुआ कि पिछली
रात जब हम अलाव के चारों ओर बैठकर गा रहे थे, मोती सिंह ने कहा, उसी वक़्त ‘त्रिशूल
का दैत्य’ मोती सिंह के मुँह के अन्दर घुस गया था और उसने उसे निगल लिया. मोती
सिंह ने आगे बताया कि उन्होंने बाला सिंह के पेट के अन्दर से दैत्य को बाहर खदेड़ने
के लिए बहुत शोर मचाया और कनस्तर पीटे मगर वो ऐसा नहीं कर सके. हताश होकर उसने बताया
कि अब कुछ नहीं किया जा सकता.
बाला सिंह सबसे
अलग बैठा था और उसका सिर अभी भी कम्बल से ढका हुआ था. वह इतनी दूरी पर बैठा कि
दूसरे लोगों को नहीं सुन सकता था. इसलिए मैंने उसके पास जाकर पूछा कि वह मुझे
बताये, पिछली रात को क्या हुआ था. काफी देर तक बाला सिंह मुझे व्यथित आँखों से
देखता रहा और फिर निराशाजनक स्वर में उसने कहा कि अब यह बात किस काम की है साहिब,
कि मैं आपको बताऊँ कि कल रात को क्या घटा था? क्योंकि आप मुझ पर विश्वास नहीं
करेंगे. ‘क्या मैंने कभी तुम पर अविश्वास किया है?’ मैंने पूछा तो उसने कहा,
‘नहीं, आपने कभी भी मुझ पर अविश्वास नहीं किया है, लेकिन यह ऐसा मामला है जिसे आप
समझ नहीं सकेंगे.’ मैंने कहा कि चाहे मैं इसे समझ सकूं या नहीं, मैं चाहता हूँ कि
तुम मुझे ठीक-ठीक बताओ कि बात क्या हुई थी?
एक लम्बी ख़ामोशी के बाद बाला सिंह बोला, बहुत अच्छा साहिब, मैं आपको बताऊँगा कि क्या हुआ था. आपको मालूम है कि हमारे पहाड़ी गीतों में यह प्रथा है कि एक आदमी गीत की एक लाइन गाता है और दूसरे उपस्थित लोग उसे दुहराते हुए उसके साथ गाते हैं... पिछली रात जब मैं अपने एक गाने की लाइन गा रहा था, तभी ‘त्रिशूल का दैत्य’ उछल कर मेरे मुँह में घुस आया. मैंने उसे बाहर निकाल फैंकने की बहुत कोशिश की लेकिन वह मेरे गले से फिसलता हुआ मेरे पेट में पहुँच गया. दूसरे लोगों ने दैत्य के साथ मेरी लड़ाई को देखा. ‘क्योंकि आग बहुत तेजी से जल रही थी और उन्होंने शोर मचाकर और कनस्तर पीटकर उसे भागने का प्रयास भी किया लेकिन दैत्य नहीं निकला.’ बाला सिंह ने सुबकते हुए कहा.
‘अब वह दैत्य
कहाँ है?’ मैंने पूछा तो अपने पेट के गड्ढे पर हाथ रखकर बाला सिंह बहुत विश्वास के
साथ बोला कि वह यहाँ है साहिब... और मैं उसे हिलते-डुलते हुए महसूस कर सकता हूँ.
रॉबर्ट ने वह
दिन हमारे शिविर के पश्चिमी इलाकों का निरीक्षण करते हुए बिताया था और एक थार को
मारा था जो बड़ी संख्या में वहां मौजूद थे. रात को भोजन करने के बाद हम देर रात तक
बैठे और घटना पर पुनर्विचार करते रहे.
हमने इस शिकार
की योजना कई महीने पहले बनाई थी और इसकी उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करते रहे थे. इस
स्थल तक पहुँचने में रॉबर्ट को सात दिन और मुझे दस दिन की पैदल यात्रा करनी पड़ी थी
और अब हमारे आगमन की रात्रि को ही बाला सिंह ने ‘त्रिशूल के दैत्य’ को निगल लिया
था. इस विषय पर हमारे व्याक्तिगत विचार क्या थे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता था,
परन्तु जिस बात का असर पड़ता था वह यह थी कि शिविर के प्रत्येक आदमी को विश्वास था
कि बाला सिंह के पेट में एक दैत्य था जिससे वे भयभीत थे और उसका साथ छोड़ रहे थे.
इन हालातों में एक महीने तक शिकार जारी रखना संभव नहीं था और रॉबर्ट बहुत अनिच्छा
से मेरे इस विचार से सहमत हो गया कि मेरे लिए करने के लिए एक ही बात हो सकती है कि
मैं बाला सिंह को लेकर नैनीताल लौट जाऊं जब कि वह अकेले ही शिकार जारी रखेगा.
इसलिए अगली सुबह मैंने अपना सामान समेटा और रॉबर्ट के साथ जल्दी ही नाश्ता करने के
बाद अपनी दस दिनों की नैनीताल को वापसी की यात्रा पर चल पड़ा.
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बाला सिंह तीस
वर्ष की उम्र का एक आदर्श जवान था जिसने नैनीताल को जिन्दगी की खुशियों से भरपूर
होते हुए छोड़ा था. अब वह चुचाप लौट रहा था. उसकी आँखों में हताशा थी और जीवन के
प्रति सारी दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी थी. मेरी बहनों ने, जिनमें से एक चिकित्सक रह
चुकी थी, उसके लिए वह सब कुछ किया जो वे कर सकती थीं. उसके दूर और निकट के सभी
मित्र उससे मिलने आये परन्तु वह अपने घर के दरवाजे पर चुपचाप बैठा रहता था और तब
तक नहीं बोलता था जब तक कि उससे बातचीत न की जाए. नैनीताल के सिविल सर्जन कर्नल
कुक, जो कि अनुभवी चिकित्सक थे तथा हमारे परिवार के घनिष्ठ मित्र थे, मेरे अनुरोध
पर बाला सिंह को देखने आए. एक लम्बी और कठिन जाँच करने के बाद उनका निर्णय था कि
बाला सिंह पूर्ण स्वस्थ स्थिति में है और वे उस आदमी की इस उदासी के बारे में कोई
कारण नहीं बता सकते.
कुछ दिनों बाद
मेरे दिमाग में एक विचार कौंधा. उस समय नैनीताल में एक प्रसिद्ध भारतीय डॉक्टर
रहता था और मैंने सोचा कि यदि मैं उनसे बाला सिंह की जाँच करवाऊं और उनके द्वारा
जाँच करने के बाद उन्हें दैत्य के बारे में बताऊँ और उनसे अनुरोध करूं कि वह बाला
सिंह को आश्वस्त करें कि उसके पेट में कोई दैत्य नहीं है तो इस तरह वह उसके कष्ट
से मुक्ति दिला देगा; क्योंकि एक हिन्दू होने के अलावा डॉक्टर एक पहाड़ी व्यक्ति भी
था. परन्तु मेरी दिमागी सूझ-बूझ कोई काम नहीं आई. जैसे ही इस डॉक्टर ने बीमार आदमी
पर नजर डाली, वह कुछ शंकित हो गया प्रतीत होता था क्योंकि कुछ तर्कपूर्ण सवालों के
जवाब में उसे बाला सिंह से पता चला कि ‘त्रिशूल का दैत्य’ उसके पेट में था तो वह
उसके पास से शीघ्रता से हट गया और मेरी ओर मुड़ते हुए कहा कि, मुझे खेद है कि मैं
इस आदमी के लिए कुछ नहीं कर सकता.
नैनीताल में
बाला सिंह के गाँव के दो आदमी रहते थे. अगले दिन मैंने उनको बुलाया. उन्हें मालूम
था कि बाला सिंह के साथ क्या गलत हुआ है क्योंकि वे उसे देखने अनेक बार आ चुके थे
और मेरे अनुरोध पर वे उसे उसके घर ले जाने को सहमत हो गए. अगली सुबह मार्ग का
यात्रा-खर्च दिए जाने के बाद तीनों आदमी अपनी आठ दिनों की यात्रा पर निकल पड़े. तीन
सप्ताह बाद दोनों आदमी लौटे और अपनी खबर मुझे सुनाई.
बाला सिंह ने
वह यात्रा बिना किसी कठिनाई के पूरी की. उसके घर में आगमन की रात में, जब उसके
रिश्तेदार और मित्र उसे घेरे हुए थे, उसने अचानक ही घोषणा की कि दैत्य चाहता है कि
उसे त्रिशूल जाने के लिए आजाद कर दिया जाय और इसका एक ही उपाय है जिसके द्वारा
इसको पूरा किया जा सकता है. वह ये है कि मैं मर जाऊं. मुझे सूचना देने वालों ने
बताया कि इतना कहकर बाला सिंह चुपचाप लेट गया और मर गया. ‘अगली सुबह हमने उसकी
अंत्येष्टि करने में सहायता की.’
मैं आश्वस्त
हूँ कि अन्धविश्वास एक मानसिक रोग है, उसी तरह जैसे खसरा एक व्यक्ति या एक समुदाय
पर संक्रमण कर देता है परन्तु दूसरों को निरापद छोड़ देता है. मैं इस कारण से कोई
श्रेय लेने का दावा नहीं करता हूँ कि हिमालय के ऊपरी क्षेत्रों में रहते समय मैं
उस प्रकार के विषाणु से संक्रमित नहीं हुआ हूँ जिसके कारण बाला सिंह मरा था.
परन्तु यद्यपि मैं दावा करता हूँ कि मैं अन्धविश्वासी नहीं हूँ, किन्तु मैं उस
अनुभव के बारे में कोई भी स्पष्टीकरण नहीं दे सकता हूँ जिसको मैंने एक डाक बंगले
में चम्पावत के शेर का शिकार करते समय महसूस किया था और वह चीख जिसको मैंने वीरान
थाक के गाँव की ओर से आते हुए सुना था और न ही मैं अपनी बार-बार की उन असफलताओं के
बारे में कोई स्पष्टीकरण दे सकता हूँ जब मैं अपने जीवन के सबसे रोचक शेर के
शिकारों में से एक में व्यस्त था.
(साभार:
दैवी शेर और कुमाऊँ के अन्य नरभक्षी)
(जिम कॉर्बेट ने अपनी किताब ‘दैवी शेर और कुमाऊँ के अन्य नरभक्षी’ में देवीधुरा के दैवी शेर के किस्से का रोमांचक विवरण दिया है और उसने स्वीकार किया है कि कलकत्ता से खरीदी गयी नयी-महँगी बंदूक के होते हुए भी वह चार-पांच बार गोली दागने के बावजूद देवी के शेर का बाल भी बांका नहीं कर पाए. अपने सटीक और अचूक निशाने को लेकर जिम संसार भर में प्रसिद्ध थे.)
(तीन)
पनार घाटी में कॉर्बेट: 10 सितम्बर, 1910
१९०७ में जब मैं चम्पावत के नरभक्षी का शिकार कर रहा था, मैंने एक नरभक्षी बाघ के बारे में सुना जो अल्मोड़ा जिले की पूर्वी सीमा पर गाँव वालों को आतंकित कर रहा था. यह बाघ अनेक नामों से जाना जाता था और इसके बारे में ‘हाउस ऑफ़ कॉमन्स’ में सवाल पूछे गए थे. इसने चार सौ मानव हत्याएं की थीं और मैंने इसका नाम ‘पनार का नरभक्षी’ रक्खा था.
सरकारी
दस्तावेजों में सन १९०५ से पहले नरभक्षियों का कोई जिक्र नहीं किया गया है. ऐसा
लगता है कि चम्पावत के शेर और पनार के बाघ के आगमन से पहले कुमाऊँ में नरभक्षी
अज्ञात थे. इसलिए जब इन दोनों जानवरों ने कुल ८३६ मानव मारकर अपनी उपस्थिति दर्ज
की थी तो सरकार के सामने मुश्किल स्थिति पैदा हो गयी थी क्योंकि उसके पास कोई ऐसा
तंत्र नहीं था जिससे इस हालात से निबटा जा सके. अंततः सरकार को शिकारियों से की
जाने वाली व्यक्तिगत अपील पर ही निर्भर रहना पड़ा था.
चम्पावत के शेर
को मारने के बाद जब मैं अपने घर नैनीताल लौटा तो मुझे सरकार ने पनार के बाघ को मारने
का दायित्व सौंपा. उस समय मैं अपने जीवन निर्वाह के लिए कठिन संघर्ष कर रहा था
इसलिए काफी वक़्त बाद ही मैं इस काम को हाथ में ले सका. जब मैं अल्मोड़ा जिले के उस
दूरस्थ क्षेत्र के लिए प्रस्थान करने ही वाला था, जिसमें बाघ सक्रिय था, तभी मुझे
नैनीताल के डिप्टी कमिश्नर बर्थोड से एक जरूरी अनुरोध प्राप्त हुआ जिसमें मुझसे
मुक्तेश्वर के लोगों की मदद करने के लिए जाने को कहा गया था. उस नरभक्षी शेर को
मारने के बाद ही मैं पनार के बाघ को मारने गया.
चूंकि मैं उस
विस्तृत क्षेत्र में पहले नहीं गया था, इसलिए अल्मोड़ा होते हुए गया ताकि मैं
अल्मोड़ा के डिप्टी कमिश्नर स्टीफे से बाघ के बारे में सब कुछ जान सकूँ. उन्होंने
कृपापूर्वक मुझे दोपहर के भोजन पर आमंत्रित किया, मुझे मानचित्र उपलब्ध कराये और
विदाई की शुभकामनायें देते हुए एक छोटा-सा झटका दिया कि क्या मैंने सारे खतरों के बारे
में सोच-विचार कर लिया है? यह भी कि अपनी वसीयत बनाने के बाद क्या मैं उनका सामना
करने के लिए तैयार हूँ?
मेरे पास उपलब्ध नक्शों से पता चला कि प्रभावित क्षेत्र में पहुँचने के लिए दो मार्ग थे, एक पनुवानौला होते हुए पिथौरागढ़ की सड़क से और दूसरा लमगड़ा होते हुए देवीधुरा की सड़क से. मैंने बाद के रास्ते का चुनाव किया और दोपहर के भोजन के बाद, वसीयत की बात के बावजूद, पूरे मन से निकल पड़ा. मेरे साथ एक नौकर और चार आदमी सामान लेकर चल रहे थे. हमने चौदह मील का कठिन मार्ग तय कर लिया था, परन्तु स्वस्थ और जवान होने के कारण हम लोग रात्रि-विश्राम से पहले दूसरा लम्बा मार्ग तय करने के लिए तैयार थे.
जिस वक़्त
पूर्णमासी के चंद्रमा का उदय हो रहा था हम एक छोटे-निर्जन इकलौते मकान में पहुंचे.
दीवारों पर घसीट कर लिखी गयी लिखावटों और जमीन पर पड़े कागज के कटे-फटे टुकड़ों से
जान गए कि इस भवन को स्कूल के रूप में इस्तेमाल किया जाता होगा. मेरे पास कोई तंबू
नहीं था और क्योंकि भवन का दरवाजा ताले से बंद था इसलिय मैंने आँगन में ही अपने
आदमियों के साथ रात बिताने का निर्णय लिया. यह एक सुरक्षित कदम था क्योंकि हम
नरभक्षी की शिकारगाह से अभी कई मील दूर थे. लगभग बीस वर्गफुट का यह आँगन आम रास्ते
से सटा हुआ था और तीनों तरफ दो फुट ऊंची एक दीवार से घिरा हुआ था.
पाठशाला के
पीछे के जंगल में जलने की लकड़ी प्रचुर मात्रा में थी और मेरे आदमियों ने शीघ्र ही
आँगन के एक कोने में मेरे नौकर के लिए आग जला दी थी. मैं बंद दरवाजे से पीठ टिकाकर
बैठा हुआ धूम्रपान कर रहा था और मेरे नौकर ने बकरे की टांग को सड़क के नजदीक स्थित
नीची दीवार पर रखा ही था और वह आग की तरफ ध्यान देने के लिए मुड़ा कि मैंने एक बाघ
के सिर को उस दीवार के ऊपर उस स्थान पर देखा जहाँ बकरे की टांग रखी थी. सम्मोहित होकर
मैं चुपचाप बैठा हुआ उसे देखता रहा क्योंकि बाघ का मुख मेरी तरफ था और जब नौकर
वहां से कुछ फुट दूर हटा तो बाघ ने मांस को पकड़ा और सड़क की दूसरी ओर ऊपर जंगल में
भाग गया. मांस को एक बड़े कागज में लपेटकर रखा गया था जो उससे चिपक गया था. और जब
मेरे नौकर ने कागज की सरसराहट सुनी तो उसने देखा और सोचा कि कोई कुत्ता उसे लेकर
भाग रहा है. अतः वह आगे की ओर चिल्लाते हुए भागा लेकिन जब उसकी समझ में आया कि
उसका पाला एक बाघ से पड़ा है, उसने दिशा बदली और मेरी तरफ और भी तेज गति से दौड़ा.
अगली सुबह
जल्दी यात्रा आरम्भ करके हम भोजन के लिए लमगड़ा में रुके और शाम को डोल के
डाक-बंगले में पहुँच गए जो नरभक्षी के प्रभावित क्षेत्र की सीमा पर था. अगली सुबह
अपने आदमियों को डाक बंगले में छोड़ कर मैं नरभक्षी के बारे में जानकारी लेने के
लिए निकल पड़ा. एक गाँव से दूसरे गाँव जाते हुए और उन्हें जोड़ने वाली पगडंडियों पर
बाघ के पगचिह्नों को देखते हुए मैं देर शाम को एक सुनसान जगह पर स्थित एक बस्ती के
पास पहुंचा जहाँ पत्थरों से बनी छत वाला सिर्फ एक घर था. उसके आस-पास कुछ एकड़ जोती
हुई भूमि थी और मकान झाड़ियों से घिरा हुआ था. इस घर की तरफ जाती हुई पगडण्डी पर
मैंने एक बड़े नर बाघ के पगचिह्न देखे.
मकान के नजदीक
पहुंचने पर उस मकान के संकरे छज्जे से एक आदमी बाहर निकला और लकड़ी की बनी सीढ़ियों
से उतर कर आँगन को पार करके मुझसे मिलने आया. करीब बाईस साल का वह जवान आदमी बहुत
तकलीफ में लगता था. दरअसल हुआ यह था कि पिछली रात को वह और उसकी पत्नी उस घर के
अकेले कमरे में फर्श पर सोये हुए थे. दरवाजा खुला हुआ था क्योंकि यह अप्रैल का
महिना था और बहुत गर्मी थी. नरभक्षी छज्जे में चढ़ा और उसकी पत्नी के गले को पकड़ कर
सिर की तरफ से खींच कर कमरे से बाहर ले जाने लगा. एक घुटी हुई चीख के साथ उस महिला
ने अपनी एक बांह अपने पति के ऊपर डाली जो कि पल भर में ही समझ गया कि क्या हुआ है.
उसने पत्नी की बांह को अपने एक हाथ से पकड़ा और दूसरे हाथ से दरवाजे की चौखट को आड़
लगाने के लिए पकड़े रक्खा. एक झटका मार कर
अपनी पत्नी को बाघ की जकड़ से छुड़ा लिया और दरवाजा बंद कर दिया. बाकी सारी रात वह
आदमी और उसकी पत्नी कमरे के एक कोने में दुबके रहे जबकि बाघ दरवाजे को कुरेद कर
तोड़ने की कोशिश करता रहा. उस बंद गर्म कमरे में महिला के घाव विषाक्त होने आरम्भ
हो गए थे और सुबह होते-होते उसकी पीड़ा और भय ने उसे बेहोश कर दिया था.
पूरे दिन भर वह
आदमी अपनी पत्नी के पास ही रहा. वह इतना भयभीत था कि अपनी पत्नी को छोड़कर नहीं जा
सकता था, क्योंकि उसे डर था कि कहीं बाघ लौटकर उसे उठा न जाए और न ही उसमें इतना
साहस था कि वह एक मील के घने जंगल को पार कर अपने सबसे निकटम पड़ौसी के पास जाये.
जब दिन अस्त हो ही रहा था और वह अभागा आदमी एक और डरावनी रात का सामना करने जा रहा
था, तभी उसने मुझे घर की तरफ आते देखा. और जब मैंने उसकी कहानी सुनी तो मुझे जरा
भी आश्चर्य नहीं हुआ कि क्यों वह दौड़ कर मेरी तरफ आया था और सुबकते हुए मेरे पैरों
पर गिर पड़ा था.
उस आदमी की पत्नी जो लगभग १८ वर्ष की युवती थी, उस समय अपनी पीठ के बल लेटी हुई थी, जब बाघ ने अपने दांत उसकी गरदन में गड़ा दिए थे. जब उसका आदमी उसकी बांह को पकड़ कर उसे वापस खींच रहा था तभी बाघ ने बेहतर पकड़ बनाने के लिए अपने एक पंजे के नाख़ून उसकी छाती में गड़ा दिए थे. अंतिम संघर्ष में नाखूनों ने मांस को चीर दिया था जिनसे चार गहरे जख्म हो गए थे. छोटे कमरे की गर्मी में, जिसमें केवल एक दरवाजा था और खिड़कियाँ नहीं थीं तथा जिसमें मक्खियों का झुण्ड भिन-भिना रहा था, उस लड़की के गले तथा छाती के सारे घाव पक गए थे. उसे इलाज की मदद मिले या न मिले, उसके बचने की उम्मीद नहीं के बराबर थी. अतः मदद की कोशिश करने के बजाय मैंने रात में उस आदमी के साथ रहने का ही निर्णय लिया.
उस आदमी ने मुझसे
कमरे में उसके और उसकी पत्नी के साथ रहने की प्रार्थना की परन्तु मेरे लिए ऐसा
करना संभव नहीं था, क्योंकि यद्यपि मैं गंध के प्रति अधिक संवेदनशील नहीं हूँ, तो
भी कमरे में गंध इतनी अधिक तेज थी कि मैं उसे सहन नहीं कर सकता था. अतः हम दोनों
ने मिलकर छज्जे के नीचे के आले के एक सिरे से जलने की लकड़ी हटाई और छोटी-सी ऐसी
जगह बनाई जहाँ मैं दीवार से पीठ टिका कर बैठ सकता था. अब रात खुलने वाली थी, अतः
नजदीक में स्थित एक पानी के स्रोत में नहा कर और पानी पीकर मैं, अपने कोने में बैठ
गया और उस आदमी को उसकी पत्नी के पास ऊपर जाने और कमरे का दरवाजा खुला रखने को
कहा. सीढ़ियों पर चढ़ते समय आदमी ने मुझसे कहा, ‘बाघ आपको जरूर मार डालेगा साहिब, और
तब मैं क्या करूँगा.’ मैंने उससे कहा, दरवाजा बंद कर देना और सुबह होने तक वहीं
रहना.
वह आदमी पिछली रात की चौकसी के बाद गहरी नींद में सोया था. मैंने अपना कोना छोड़ा तथा अपनी दुखती हुई हड्डियों को शांत किया. जो लोग सख्त जमीन पर घंटों बिना हिले-डुले बैठे रहे हों, यह बात केवल वही समझ सकते हैं कि हड्डियाँ कैसे दर्द करती हैं. अब वह आदमी सीढ़ियों से नीचे उतरा.
केवल कुछ
रसभरियों को खाने के सिवा मैंने चौबीस घंटे में कुछ भी नहीं खाया था और मेरे वहां
अधिक रुकने से कोई लाभप्रद उद्देश्य पूरा नहीं होता था; इसलिए मैंने उस आदमी को
अलविदा कहा और आठ मील दूर स्थित डोल डाक बंगले में अपने आदमियों से मिलने के लिए
निकल पड़ा ताकि मैं लड़की के लिए सहायता जुटा सकूं. मैं कुछ ही दूर गया था कि मुझे
मेरे आदमी मिल गए. मेरी लम्बी अनुपस्थिति से घबरा कर उन्होंने मेरा सामान बांधा
था, डाक बंगले के किराये का भुगतान किया और उसके बाद मुझे खोजने को निकल पड़े थे.
जब मैं उनसे
बात कर रहा था, तभी सड़क का वह ओवरसियर वहां आ पहुंचा, जिसका जिक्र मैंने अपनी
कहानी ‘दैवी शेर’ में किया था. वह एक मजबूत भोटिया खच्चर पर सवार था और अल्मोड़ा जा
रहा था. वह बड़ी ख़ुशी से मेरा पत्र स्टीफे तक पहुँचाने के लिए राजी हो गया और मेरा
पत्र पाते ही स्टीफे ने लड़की के लिए दवा भी भेज दी. लेकिन जब तक वह मदद मुझ तक
पहुंची, लड़की की पीड़ा का अंत हो चुका था.
⤊
हम धीरे-धीरे
चल रहे थे क्योंकि गाँव सैकड़ों वर्गमील के क्षेत्र में दूर-दूर तक छितरे बसे थे और
नरभक्षी के ठिकाने का कोई ज्ञान नहीं था. इसलिए प्रत्येक गाँव में पूछताछ के लिए
जाना आवश्यक था. सालम और रंगोड़ पट्टियों से गुजरने के बाद चौथे दिन की शाम को
चकाती पहुंचा जहाँ पर मुझे गाँव के मुखिया ने सूचना दी कि कुछ दिनों पहले पनार नदी
के पार सुनौली गाँव में एक आदमी मार डाला गया है. हाल ही में हुई भारी बारिश के कारण
पनार में बाढ़ आई हुई है और मुखिया ने मुझे अपने गाँव में ही ठहरने की सलाह दी.
बातचीत के
दौरान मुखिया की सलाह पर मैंने रात वहीँ रुकने का निर्णय लिया तो उसने कहा कि वह
ऊपर की मंजिल में मेरे और मेरे आदमियों के लिए दो कमरे खाली करवा देगा. जब मैं
उससे बातचीत कर रहा था, तभी मैंने ध्यान दिया था कि निचली मंजिल का सबसे आखिरी
कमरा खाली था, अतः मैंने उससे कहा कि मैं इसमें रहूँगा और उसे मेरे आदमियों के
रहने के लिए ऊपरी मंजिल में केवल एक कमरा ही खाली करना पड़ेगा. जिस कमरे को मैंने
रात बिताने के लिए चुना था उसमें कोई दरवाजा नहीं था, परन्तु इससे कोई फर्क नहीं
पड़ता था क्योंकि मुझे बताया गया था कि बाघ ने आखिरी शिकार नदी के उस पार किया था
और मुझे मालूम था कि नरभक्षी तब तक नदी को पार करने का प्रयत्न नहीं करेगा जब तक
उसमें बाढ़ आई हुई है.
कमरे में किसी
भी प्रकार की मेज-कुर्सी नहीं थी और जब मेरे आदमियों ने झाड़ू लगाकर घास-फूस और
कम्बल के टुकड़े बाहर कर दिए तो ऐसा करते हुए वे शिकायत कर रहे थे कि जो आदमी इसमें
रहा होगा वह बहुत गन्दा आदमी होगा, फिर उन्होंने मिट्टी के फर्श पर मेरी चटाई
बिछाई और मेरा बिस्तर लगा दिया. बिस्तर में बैठकर मैंने अपना रात का भोजन किया
जिसे मेरे नौकर ने आँगन में खुली आग में पकाया था. और क्योंकि मैं पिछले बारह
घंटों में बहुत पैदल चला था, जब तक मुझमें अपने पैरों में खड़े होने की सामर्थ्य
थी, अतः मुझे नींद आने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा.
अगली सुबह
सूर्य निकल ही रहा था, जिससे कमरे में प्रकाश भर गया. तभी कमरे में एक हलकी आवाज
सुनने के बाद मैंने अपनी आँखें खोलीं और अपने बिस्तर के पास फर्श पर एक आदमी को
बैठे देखा. उसकी उम्र लगभग पचास साल रही होगी और वह कुष्ठ रोग की अंतिम अवस्था में
था. यह देखकर कि मैं जाग गया था, इस अभागी जीवित-मृत्यु ने कहा कि उसे आशा थी कि
मैंने उसके कमरे में आराम से रात बितायी थी...
कुष्ठ, जो कि
पूरब में सबसे भयानक और सबसे संक्रामक रोग है, पूरे कुमाऊँ में व्याप्त है और
विशेषतया अल्मोड़ा जिले में तो बुरी हालत है. भाग्यवादी होने के कारण लोग इस रोग को
दैवी विपत्ति के रूप में देखते हैं और इसके पीड़ित को न तो अलग ही रहने देते हैं और
न ही संक्रमण से बचने के लिए उपाय ही करते हैं. इसलिए मुखिया ने यह जरूरी नहीं
समझा होगा कि मुझे सतर्क कर दे कि जो कमरा मैंने ठहरने के लिए चुना है, वह वर्षों
से एक कुष्ठ रोगी का निवास रहा है. उस सुबह मुझे कपड़े पहनने में ज्यादा वक्त नहीं
लगा होगा और जैसे ही हमारा मार्ग-दर्शक तैयार हुआ, हमने गाँव छोड़ दिया.
कुमाऊँ में
इधर-उधर जाते समय जैसा कि मैंने सदा किया था, मैं हमेशा कुष्ठ रोग से भयभीत होकर
आता-जाता था और मैंने स्वयं को इससे ज्यादा अस्वच्छ कभी भी नहीं महसूस किया था,
जितना कि मुझे उस गरीब अभागे के कमरे में एक रात ठहरने के बाद हुआ था. जैसे ही हम
पहली नदी में पहुंचे मैंने रुकने का आदेश दिया, जिससे मेरा नौकर मेरे लिए नाश्ता
बना सके और मेरे आदमी अपना भोजन खा सकें. फिर अपने आदमियों को मेरी चटाई को धोने
और मेरे बिस्तर को धूप में फ़ैलाने के लिए कहकर मैंने कार्बोलिक साबुन की एक टिकिया
उठाई और जलधारा के नीचे की ओर गया जहाँ पर चट्टान की बड़ी पट्टियों से घिरा हुआ
पानी का एक छोटा कुंड था.
उस कमरे में पहने हुए प्रत्येक कपड़े को उतारने के बाद मैंने उनको कुंड में धोया और उनको चट्टान की शिलाओं पर फ़ैलाने के बाद मैंने साबुन के शेष भाग से अपने शरीर को इस तरह साफ किया जैसा कि पहले कभी साफ नहीं किया होगा. दो घंटे बाद उन कपड़ों को पहने हुए, जो कि जोर से रगड़ने के कारण थोड़ा सिकुड़ गए थे, मैं अपने आदमियों के पास फिर स्वच्छ महसूस करते हुए लौटा और मुझे एक शिकारी की तरह नाश्ता करने की भूख लगी थी.
(क्रमशः)
उस कमरे में पहने हुए प्रत्येक कपड़े को उतारने के बाद मैंने उनको कुंड में धोया और उनको चट्टान की शिलाओं पर फ़ैलाने के बाद मैंने साबुन के शेष भाग से अपने शरीर को इस तरह साफ किया जैसा कि पहले कभी साफ नहीं किया होगा. दो घंटे बाद उन कपड़ों को पहने हुए, जो कि जोर से रगड़ने के कारण थोड़ा सिकुड़ गए थे, मैं अपने आदमियों के पास फिर स्वच्छ महसूस करते हुए लौटा और मुझे एक शिकारी की तरह नाश्ता करने की भूख लगी थी.
(क्रमशः)
बटरोही
9412084322
batrohi@gmail.com
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बहुत शानदार। बटरोही जी ने बड़ा काम किया है। मैं जिम कॉर्बेट का मुरीद रहा हूं। वे दुनिया के शीर्षस्थ शिकार लेखकों में रहे हैं, ये तो मालूम था। मैं ने उनकी एक ही किताब बढी थी-कुमायूं के नरभक्षी वाली। लेकिन बटरोही जी के विवरण से पता चलता है कि उनके लेखन को हम इतिहास और नृतत्वशास्त्र की तरह भी पढ सकते हैं। बधाई बटरोही जी, अब थोकदार की बाकी किस्तें भी पढता हूं। आभार अरुण जी, कैसा मूल्यवान आख्यान उपलब्ध कराया है!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
लीजिए, पढ़ डाला! जिम के साथ ख़ूब नापे जंगल और पहाड़। लक्ष्मण जी का जिम को 'पहाड़ी अंग्रेज' कहना और ख़ुद जिम का भी यही मानना राष्ट्रीयता के स्थापित विमर्श पर दुबारा सोचने की ताकीद करता है। यानी राष्ट्र उसका जो उसकी मिट्टी, हवा पानी में जन्मा और पनपा। जिम अपनी समस्त अंग्रेजियत के बावजूद थोकदार ही ठहरा।
जवाब देंहटाएंयह क़िस्त तो वाक़ई एक एक्सपीडिशन साबित हुई। पहाड़ की चढ़ाई, जंगल का डर, डाक बंगले का प्रागैतिहासिक समय जैसे शब्दों से बाहर छलक आया है।
लेकिन एक जिज्ञासा का समाधान करें : क्या पहाड़ के जंगल में शेर पाया जाता है? मेरी समझ में तो वह एक मैदानी जीव है।
आपने गौर किया होगा, पहाड़ में बाघ होते हैं और मैदानों में शेर. दोनों भिन्न प्रजातियाँ हैं मगर पहाड़ों में इन्हें 'शेर-बाघ' शब्द-युग्म के रूप में पुकारा जाता था/है.
जवाब देंहटाएंरोमांचकारी संग्रहणीय प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंपहाड़ों के बाघ का डर आज भी डराता है
It's amazing post about Jim corbett park. Thanks for sharing
जवाब देंहटाएंJim Corbett Resorts Packages | Jim Corbett Safari
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