बटरोही : हम तीन थोकदार (आठ )





शैलेश मटियानी बीहड़ अनुभव के कथाकार थे, ख़ासकर पहाड़ के दुर्गम और अलक्षित जीवन और संवेदना के. आंचलिकता में वह रेणु के समानांतर थे. लेखन भी उनका विस्तृत था. उनका खुद का जीवन अत्यन्त संघर्षमय था, सामाजिक और आर्थिक दोनों स्तरों पर.

शैलेश ने एक कहानी लिखी थी माई/माता. इसके कई ड्राफ्ट मिलते हैं. यह योगिनी स्त्री के विषय में है. बाद में उनपर दक्षिणपंथी राजनीति का समर्थक होने के भी आरोप लगे.   

हम तीन थोकदार का यह आठवां हिस्सा है, वरिष्ठ लेखक बटरोही ने इसमें शैलेश की विडम्बना पर ध्यान खींचा है और उनके कथा-साहित्य में थोकदार स्त्रियों की उपस्थिति को भी रेखांकित किया है. उनकी माई/माता कहानी के दो ड्राफ्ट के कुछ हिस्से दिए जा रहें हैं. उनकी एक असंकलित कहानी ‘दुरगुली’ का भी एक अंश है. हमेशा की तरह विचारोत्तेजक और दिलचस्प.


प्रस्तुत है. 


हम तीन थोकदार (आठ)
थोकदार-पुत्री योगिनी, शैलेश मटियानी और योगी का अयोध्या-उत्सव                                      

बटरोही 


ख्यान के इस हिस्से के तीन किरदार हैं- एक, हिंदी साहित्य के अनूठे कथाकार शैलेश मटियानी; दूसरी, उनके द्वारा अनेक बार लिखी गयी कहानी ‘माता’ की नायिका थोकदार-पुत्री योगिनी पारबती माई और तीसरा, पांच अगस्त को अयोध्या में राम जन्मभूमि के रूप में निर्मित हो रहे मिथकीय मंदिर के भूमि-पूजन के मेजबान योगी आदित्यनाथ.

पाँचवें-छठे दशक में पहाड़ी जीवन को लेकर लिखी गई कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से उभरे शैलेश मटियानी ने पहाड़ी लेखकों की एक समृद्ध परम्परा को जन्म दिया. उन्होंने वह काम कर दिखाया जो उनसे पहले हिंदी साहित्य में जोर-शोर से प्रकट हुए अनेक बहु-चर्चित रचनाकार भी नहीं कर सके थे... चंद्रधर शर्मा गुलेरी, सुमित्रानंदन पन्त, इलाचंद्र जोशी, रमाप्रसाद  घिल्डियाल पहाड़ी, गोविन्दवल्लभ पन्त, लोकरत्न पन्त गुमानी आदि. मगर वही मटियानी दो-तीन दशकों की अपनी लेखन-यात्रा के बाद अपनी जड़ों का पुनर्लेखन करते नजर आते हैं. क्या कारण हो सकता था इसके पीछे?

पहाड़ों में रहने वाला थोकदारी समाज सबसे पहले मटियानी की कहानियों और उपन्यासों के माध्यम से ही सामने आया. कठिन पहाड़ी धरती पर खेती-बाड़ी करके जीवन-यापन करने वाला यह समाज सदियों तक प्रकृति के साथ अपनी कंडीशनिंग के बाद संसार के दूसरे पहाड़ी समाजों की तरह भोले, सहज-विश्वासी और संवेदनशील भारतीय समाज के रूप में उभरा. भिन्न प्रकार के पारिस्थितिक तालमेल के कारण वह अपनी भौगोलिक और राष्ट्रीय सीमाओं का हिस्सा  होते हुए एक अलग एथनिक समूह की तरह दिखाई देने लगा. कहने की आवश्यकता नहीं है कि इस समाज का एक भिन्न सांस्कृतिक चरित्र उभरा जो सामाजिक सरोकारों में शेष समाज का अंग होते हुए भी भावनात्मक बुनावट में एक स्वायत्त समाज की तरह दिखाई देता है. अतीत में अनेक नामों से पुकारे जाने वाले इस समाज की कृषि-व्यवस्था का पिछली अर्ध-सहस्राब्दी के चंद-शासकों ने नया ढांचा तैयार किया जिसमें भू-स्वामियों की नयी संज्ञा थोकदारसामने आई. नए शासकों के आने के बाद पुराने शब्द बदले, पुराने से मुक्त होकर नए का दामन थामा गया और एक वक़्त ऐसा आया जब लोग पुराने संबोधनों का प्रयोग करने में असुविधा महसूस करने लगे. ‘थोकदार’ शब्द अतीत की निरर्थक लीक को घसीटने वाला शब्द-भर रह गया.

शैलेश मटियानी ने अपने उपन्यासों और कहानियों के माध्यम से इस पुराने संबोधन को अपनी वास्तविक गरिमा के साथ दुबारा प्रतिष्ठित किया. साठ के दशक में प्रकाशित उनके कहानी-संग्रहों में संकलित दर्जनों कहानियों में इस खेतिहर समाज का विस्तार से चित्रण है. उनका पारिवारिक और सामाजिक संगठन, कठिन पहाड़ी अर्थ-व्यवस्था के बीच खुद के अस्तित्व को परम्परागत मूल्यों के साथ बचाए रखते हुए उसे संस्कृति की नई धारा का हिस्सा बनाने की जद्दोजहद. मगर अपने लेखन की लगभग दो दशक की यात्रा तय करने के बाद खुद शैलेश मटियानी अपनी इस सांस्कृतिक पहचान का पुनर्लेखन करते दिखाई देते हैं. जिस समाज-तंत्र और उसकी जीवंत भाषा का उन्होंने अपने अद्वितीय लेखन के जरिये अन्वेषण किया था, वो सब तेजी से अतीत बनता चला गया.





शैलेश मटियानी की अंतिम कहानी ‘उपरांत’ के बारे में लिखते हुए (२००४ ई.) हमारे दौर के सबसे चर्चित-प्रबुद्ध लेखक राजेन्द्र यादव उसकी तुलना परस्पर विरोधी दो ऐतिहासिक घटनाओं के साथ करते हैं. उनके अनुसार,
“उनकी ‘उपरांत’ कहानी भा. ज. पा. की राजनीति, बाबरी मस्जिद ध्वंस को हिंदुत्व की विजय के रूप में स्वीकारने और कुम्भ को परम धार्मिक आयोजन मानने की आस्था के बावजूद अपने वितान में मुझे तोलस्तोय के ‘डैथ ऑफ़ इवान इलिच’ की याद दिलाती है. हाँ, यहाँ वे सारे धार्मिक रीति-रिवाज, कर्मकांड और पाप-पुण्य भरे पड़े हैं जो ‘इवान इलिच’ में नहीं हैं- वहां मृत्यु से सीधा साक्षात्कार है, इसलिए वह (‘इवान इलिच’) बहुत बड़ी कहानी है.”

एक बड़े लेखक की सोच में आये इस अंतर्विरोधी फर्क को रेखांकित करते हुए राजेंद्रजी सवाल उठाते हैं कि जिन दारुण और नारकीय स्थितियों में मटियानी रहते आये थे (जिसमें थोकदारी पहाड़ी समाज के अलावा बम्बई की सांस्कृतिक तलछट पर रहने वाला नारकीय परिवेश शामिल था) वहां उन्हें सुरक्षा भी चाहिए थी और सम्मान भी. इसके लिए उनके पास न साधन थे, न औपचारिक शिक्षा. सब कुछ खुद ही अर्जित करना था. परंपरागत रूप से जो मूल्य, आदर्श और मिथक मिले थे उनके लिए प्रश्नहीन स्वीकृति थी. हथियार सिर्फ दो ही थे– प्रचंड प्रतिभा और कलम– दूसरे शब्दों में अपने खौलते अनुभव को उत्कृष्ट कहानियों में रूपांतरित कर सकने की लेखकीय दृष्टि. 

"जिस वर्ण-व्यवस्था, सामाजिक अन्याय और सांस्कृतिक वर्चस्व ने उन्हें जिन्दगी के चालीस लेखकीय वर्षों तक लगातार लतियाया और दुत्कारा उसकी ब्राह्मणवादी सामाजिक बुनावट का विश्लेषण करने की बजाय वे अंततः उसी का समर्थन करने लगे. यह अपनी संवेदना और संघर्ष के साथ विश्वासघात था... 

दरअसल उनकी जमीन वही थी जहाँ से वे निकल भागे थे- यानी वंचितों और दलितों की संघर्ष भरी दुनिया. यहाँ मुझे फुटपाथों और घूरे से उठे हुए तीन लेखकों का अनायास ही ध्यान आ रहा है- गोर्की, जैकलन्दन और ज्यां जेने.

इस यातना और संघर्ष से जुड़कर शायद मटियानी भी दूसरे गोर्की हो सकते थे, हॉवर्ड फ़ास्ट या स्टीनबेक हो सकते थे... जैकलन्दन और ज्यां जेने हो सकते थे."

(शैलेश मटियानी आस्था और संघर्ष: ‘सम्पूर्ण कहानियां’ भाग एक, पृष्ठ २९)


यह तब है जब राजेन्द्र यादव शैलेश मटियानी को हिंदी में आंचलिक लेखन का पहला कथाकार मानते हैं:

“हिंदी में आंचलिकता का आगमन तो सन ५४-५५ में रेणु के ‘मैला आंचल’ के साथ हुआ - मगर मटियानी सन ५१-५२ से ही अपने पहाड़ी अंचल वहां की बोली-बानी, चरित्र और कथानकों को वैसे ही रूपरंग-गंध-स्वरों के साथ पकड़ रहे थे. खौलते अनुभवों के साथ उनके पास कहानी कहने की कला, लोककथाओं को गूंथने का मुहावरा कहीं भी रेणु से कम नहीं है; बल्कि रेणु में जहाँ कलात्मक तराश (सोफिस्टीकेशन) और मध्यवर्गीय रूमानियत को रास आने वाली सौन्दर्य-चेतना है वहां मटियानी में जमीनी ऊर्जा और चरित्रों की बीहड़ जीवन्तता है. रेणु अज्ञेय से लेकर निर्मल वर्मा तक के पसंदीदा लेखक हैं. उनके पास कोई डिग्री थी या नहीं, मुझे नहीं मालूम लेकिन बहु-पठित और बाकायदा प्रशिक्षित लेखक हैं. उधर मटियानी की अशिक्षा ही उन्हें जीवन और जमीन की ऊर्जा से जोड़ती है. शिल्प और भाषा के प्रयोग भी मटियानी में कम नहीं हैं. देखा और भोगा हुआ जीवन तो है ही. उनके पात्र अस्तित्व से जूझते खुरदरे लोग हैं – रेणु में भावना और रोमानियत अधिक है.” 

अपने लेखन में खुद के परिवेश और समाज की भाषा का उन्होंने जो पुनर्सृजन किया, उसकी तुलना के लिए हिंदी में तो फ़िलहाल कोई दूसरा लेखक मौजूद नहीं है. हिंदी की लगभग उपेक्षित बोली ‘कुमाऊनी’ को हिंदी के जातीय चरित्र के साथ जोड़ते हुए उन्होंने जो ढांचा तैयार किया, दुर्भाग्य से उसका विस्तार नहीं हो पाया. मजेदार बात यह है कि मटियानी ने अपने परवर्ती लेखन में उसे महत्व नहीं दिया. किस हिंदी लेखक में अपनी भाषा का यह जातीय तेवर दिखाई देता है:
(वही, पृ.३०-३१)





लगभग ढाई सौ कहानियों, तीस उपन्यासों, ढाई-तीन सौ से अधिक वैचारिक लेखों और दर्जनों बाल-साहित्य से जुड़ी किताबों के लेखक अद्भुत शैलीकार मटियानी की ओर हिंदी संसार का ध्यान आज तक ठीक से नहीं गया है. उनकी शुरुआत लोक-गाथा लेखक और समाज के हाशिये के लोगों को उनकी पहचान प्रदान करने वाले संवेदनशील रचनाकार के रूप में हुई थी. हिंदी लेखन में यह एक अप्रत्याशित और अभूतपूर्व रचनात्मक प्रस्थान था.१९६२ से ६६ तक की अवधि में एक साथ चार लोक-गाथात्मक उपन्यासों – ‘बेला हुई अबेर’, ‘मुख सरोवर के हंस’, ‘चौथी मुट्ठी’, ‘एक मूठ सरसों’ और लगभग इसी अवधि में बम्बई के हाशिये के लोगों से जुड़े उपन्यासों ‘बोरीबली से बोरीबंदर तक’,कबूतरखाना’, ‘किस्सा नर्मदाबेन गंगूबाई’ और दर्जनों कहानियां उनकी अतुलनीय मेधा की गवाह हैं.

ए हो, कथा के भंवरो,
कथा की इस पावन-बेला रमौलिया लोकवाद्य ‘हुडुक’ पर हाथ मारता है, कि गढ़ी चम्पावत नगरी में –खड्गधारी, छत्रधारी राजा कालीचंद जिस दिन रानी डोटियाली (नेपाली) की डोली लाए – काला कव्वा बायां उड़ गया, कि काना ब्राह्मण सामने आ गया.

रानी डोटियाली को नौ लाख की तल्ली-मल्ली डोटी घोड़ी धाप, एड़ी चाप लगाकर, राजा कालीचंद अपने बाएं बैठने वाली बनाके लाए थे, कि गढ़ी चम्पावत में कालीचंद के मनोराज्य में रूपाली रानी डोटियाली का राज्य होगा. बात सच थी.

छत्रधारी, खड्गधारी राजा कालीचंद, कि उसकी सात रानियाँ और जो थीं, सैन से उठने-बैठने, आने-जाने वाली थीं, कि उनके लिए या आकाश में इंद्र का वज्र ही कड़कता था, या महलों में राजा कालीचंद का कंठ ही.

पर रानी रूपाली, डोटियाली के सामने तो, एक-दो ही दिन में, राजा कालीचंद फूल का भंवर, सिर का चंवर हो गया था, कि रानी डोटियाली के न बुलाए ही पास आए और लाख लगाए से, परे न जाए.

ए हो, रानी रूपाली के रसीले बैन, कटीले सैनों का क्या कहना, कि नौ लाख सिरों का स्वामी, दो छोटे-छोटे चरणों का दास बन गया. जिसकी म्यानधरी तलवार देखकर ही, दुश्मन अपने सिर को अपनी गर्दन पर नहीं पाते थे, वह खड्गधारी, धनुर्धारी राजा कालीचंद – पलक उठाए से उठने, पलक गिराए से बैठने लगा. 

(मुख सरोवर के हंस: पृ. १२-१३)

हिंदी में अपने ढंग के पहले उपन्यास ‘मुख सरोवर के हंस’ के बारे में मनोहरश्याम जोशी ने लिखा, 
‘ठेठ उत्तरांचल ठाठ में लिखा हुआ शैलेश का उपन्यास ‘मुख सरोवर का हंस’ हिंदी में आंचलिक उपन्यास का एक ‘क्लासिक’ है.’ शायद इसीलिए नागार्जुन ने उन्हें एक पत्र में लिखा, ‘तुम्हारे अन्दर हिंदुस्तान का गोर्की अंगड़ाइयाँ ले रहा है. कितना जहर पिया है तुमने!’

अपने समय के प्रखर विचारक वीरेंद्र कुमार जैन ने तो यहाँ तक लिख दिया, 
‘तुम समकालीन हिंदी साहित्य के सबसे बड़े जीवित लेखक हो. जैनेन्द्र, अज्ञेय और नवीनतम प्रतिभाएं, जो चर्चित हैं, सब तुम्हारे जीवन सर्जन-राकात्य साहित्य के समक्ष छोटे पड़ जाते हैं.’



मटियानी की कहानियां : योगिनी माई की करुण चीत्कार

साठ के दशक के आरंभिक दिनों में शैलेश मटियानी ने एक कहानी लिखी ‘माई’. आज यह कहानी उपलब्ध नहीं है. इसका पहला ड्राफ्ट उन्होंने अल्मोड़ा में लिखा था जो बाद में भिन्न पाठ और अलग-अलग शीर्षकों में मिलती है. २००४ में उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र ने सम्पूर्ण २३१ कहानियों को पांच खण्डों में सम्पादित किया तो इस कहानी का पहला ड्राफ्ट वहां भी अनुपलब्ध है. अलबत्ता उसी कहानी के दो भिन्न पाठ ‘माता-१’ (खंड १-१९६६) और ‘माता-२’ (खंड ४-१९८९,९२) नाम से उपलब्ध हैं. इस कहानी की छवि उनकी अनेक दूसरी कहानियों में भी महसूस होती है मगर वहां शीर्षक और कथ्य एकदम अलग हैं. यहाँ तक कि उनकी दोनों अंतिम कहानियां ‘नदी किनारे का गाँव’ और ‘उपरांत’ में भी इस कहानी की गूँज बहुत साफ सुनाई देती है. पहचाना जा सकता है कि इस कहानी को जब-जब उन्होंने लिखा वो संतुष्ट नहीं हुए और पुनर्लेखन करते हुए संशोधन करते रहे. अपने अंतिम दिनों में जब वो गहरे अवसाद में थे, उन्होंने फिर से इस विषय को उठाया और ७७ पृष्ठों की ‘नदी किनारे का गाँव’ और ४९ पृष्ठों की ‘उपरांत’ कहानियां लिखीं. 

विक्षिप्तता के दौर में लिखी इन कहानियों पर टिप्पणी करते हुए राजेन्द्र यादव ने लिखा कि ‘उपरांत’ को पढ़कर उन्हें तोलस्तोय की कहानी ‘डेथ ऑफ़ इवान इलिच’ की याद आई जब कि ‘नदी किनारे का गाँव’ को पढ़कर डॉ. विद्यानिवास मिश्र को लगा, ‘मानो मृत्यु से पहले पूरे पहाड़ का परिदृश्य अत्यंत स्पष्ट रूप से उनकी आँखों में प्रतिभासित हुआ और उसे उन्होंने अपने रचनात्मक ऊर्जा से अद्भुत संवार दिया है... इस कहानी में मिथकों,रीति-रिवाजों और पहाड़ी जीवन की अपनी विशेषताओं का अद्भुत संगुम्फन है.’




आख्यान का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए सिर्फ ‘माता’ कहानी की चर्चा. जैसा कि मैंने शुरू में संकेत किया, ‘माता’ कहानी ‘माई’ का ही भिन्न पाठ के रूप में विस्तार है और मूल कहानी अब उपलब्ध नहीं है. लगता है, बार-बार लिखे जाने के क्रम में वह खो गयी. मुझे उस कहानी की याद है लेकिन यह याद नहीं है कि वह किस पत्रिका में कब प्रकाशित हुई थी. सन ६२-६५ के बीच हम कई दोस्तों ने उस कहानी का सामूहिक पाठ किया है और उसने हमें रुलाया है. संभव है कि उस कहानी को भावुक या नोस्तेल्जिक प्रभाव से मुक्त करने के लिए ही उन्होंने उसे दुबारा-दुबारा लिखा हो. कहानी के जरिये वह अपने समाज के वैचारिक सरोकारों को झकझोरना चाहते थे, अतीत-मोह में भटकना नहीं. यह बात सही हो सकती है लेकिन बाद में लिखे गए पाठों को समझने के लिए मूल पाठ की जरूरत तो है ही. इसलिए फ़िलहाल हमें उपलब्ध पाठों से ही काम चलाना पड़ेगा.

‘माई’ या ‘माता’ कहानी का स्वर समझने के लिए उत्तराखंड में गुरू गोरखनाथ और नाथ सम्प्रदाय के परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों पड़े उसके प्रभाव को समझना जरूरी है. स्त्रियाँ यहाँ समाजार्थिकी की धुरी रही हैं इसलिए रह-रह कर उन्हें पुरुष प्रधान ब्राह्मणवादी अहम् से टकराना पड़ता रहा है. ज्यादातर वे इसकी शिकार होती हैं, मगर कभी-कभी अपने लिए सुरक्षा का आभासी-कोना भी तलाश लेती रही हैं. ऐसा ही एक कोना है ‘माता’ या योगिनी का. एक बार पुरुष समाज के सामने आँखें तरेरने के बाद अपवाद-स्वरूप वो भले ही खुद को मुक्त अनुभव करती हों, सामाजिक मर्यादा के बने-बनाये ढांचे के सामने उन्हें अंततः घुटने टेकने ही पड़ते हैं; अपने ही आततायी को सुरक्षित कोना प्रदान करने के लिए. ऐसा नहीं है कि ‘माता’ इस बात से बेखबर रही हों कि पुरुष और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के बीच छद्म सुरक्षा का कोना तलाश कर उन्हें अपनी अपेक्षित ठौर मिल जाती रही हो, सुरक्षा की आड़ में लिप्सा के द्वार हमेशा के लिए बंद हो जाते रहे हों; वह इतनी नादान भी नहीं थी कि यह न समझती हो, एक बार विद्रोह अर्थ उसके लिए कालापानी की सजा से भी बड़े नारकीय दरवाजे का वरण भी है. फिर भी युवा लड़कियां जाने क्यों इस नरक को उस नरक से अधिक सुरक्षित समझती थीं और योगिनी बनकर स्थानीय नदियों के संगम पर बने शिवालयों में एकांत शव-साधना के रास्ते का वरण करती थी.

असुरक्षा के ये कोने अनेक तरह के थे. जंगल और नदी तटों के एकांत के अलावा अपने ही घर में पारिवार जनों की लिप्सा का शिकार बनने के बाद, जिसमें ज्यादातर उम्रदराज पुरुष होते थे, उनकी सम्मानजनक छवि बचाने के लिए उन्हें योगिनी का जामा पहनाकर घर की चौखट से बाहर कर दिया जाता था. सिर मुंडा, कानों में काठ के कुंडल पहना, उनके हाथ में कमंडल थमा श्मशान घाट के मंदिर के साथ बनी धर्मशालाओं में भेज दिया जाता था जहाँ से वो भिक्षा की तलाश में आस-पास के गाँवों में भटकती थीं और बीमार लोगों का आध्यात्मिक उपचार करते हुए पुण्य कमाती थी. वो संसार-माता कहलाती थीं सब लोग उनके बच्चे थे. योगिनियों के लिए भी वही नियम थे जो योगियों के लिए; अपना पेट भरने से एक जून से अधिक अधिक कच्चे अनाज का संग्रह नहीं कर सकती थी, ढीला वस्त्र पहनती थी और वासना की आग शांत करने के लिए सारी देह में राख मलकर बाहर निकलती थी.   

शैलेश मटियानी की ‘माता’ गुरू गोरखनाथ सम्प्रदाय के वैचारिक पक्ष से जन्मी ‘योगी’ की स्त्रीलिंग ‘योगिनी’ नहीं है, वह मुक्त रूप में फैली असीम प्रकृति के स्वाभाविक अंगों के साथ सीधे जूझती मानवी है, जिसे सहारा देने के लिए कहीं कोई नहीं है. स्वयं ही निर्णय लेती है और खुद ही उसके लिए उत्तरदायी है. असीम प्रकृति और उसके अंग क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर उसके लिए पंचतत्त्व नहीं, कोरी धरती, बाढ़ लाता पानी, दावाग्नि, सूना आकाश और मुर्दाघाट का हू-हू करता तूफान था. उसके लिए कोई पुरुष नहीं है, कोई शिव नहीं, लेकिन न चाहकर भी उसे पुरुष के अंक में बैठा दिया जाता है और यह भ्रम दिया जाता है कि शिव उसका एकमात्र कवच है. ठीक उसी तरह जैसे उसके न चाहते भी पुरुष उसकी गोद में आ बैठता है.

शायद इसीलिए यह अनायास नहीं है कि मटियानी की योगिनी ‘माता’ का सुखांत इस रूप में होता है कि वह खुद ही अपने लिए ‘पति’ तलाशती है भले ही वह सीलन और गंदगी से भरे कमरे की रोग-शय्या में आखिरी सांसें लेता शिव मंदिर का पुजारी हो, जिससे उसकी स्वस्थ संतान जन्म लेती है (माता-१); या फिर जिस थोकदार के बेटे के साथ उसके पिता ने उसका सम्बन्ध अस्वीकार कर दिया था, दस साल बाद उसी थोकदार को अपना धर्म-पिता बनाने के बाद उसके हाथों अपना पाणिग्रहण करवाना हो. (माता-२) दोनों ही जगहों पर योगिनी पारबती नाथपंथी योग को धता बताती हुई खुद के लिए स्त्रीत्व का अपना अलग रास्ता निर्मित करती है.


कहानी : ‘माता’-एक (१९६२)

चौदह वर्षों की कन्या थी, तब घर-गृहस्थी में पांव पड़े थे. उन्नीसवां लग गया था, लोगों के देखने को देह तरुणा गई थी, मगर मन के शूल-संतापों ने अलकनंदा की लहर-जैसी उछलती आत्मा को ऐसा बैरागी बना दिया था कि जिस घर-गृहस्थी में कपास की तरह फूलने, बेरी की तरह फैलने का सपना देखा था, उसी को आखिर त्यागना पड़ा. पति को नारी के लिए परमेश्वर कहा गया है. भगवती माता के लिए वही परमेश्वर ऐसे ठोस पाथर का बना हुआ निकला कि आंसुओं से अभिषेक करते-करते भगवती थम गई, मगर पति के नाम का पाथर नहीं पसीजा. जिस छाती में घर-गृहस्थी के सपनों का सुख केले के चौड़े पत्तों जैसा फूट रहा था, उसी पर दो-दो सौतों के घुटनों की चौकी ऐसी बैठी कि आधी रात को एक पुरानी धोती लपेटकर बनवास लेना पड़ा.

फिर दो-चार बरस मायावी संसार के चलते-फिरते पाथरों के बीच और कट गए. ठौर-ठौर दुखियारी देह के लिए आधार ढूंढती थकी मगर रोग-शोक और संतापों के अलावा और कोई सुख मिला नहीं. आखिर एक दिन बैरागी चित्त में यही विवेक फूटा कि – भगवती, संसार के चलते-फिरते पाथरों की संगति में तुझ अभागिनी के लिए सुख कहाँ, लली! पापी संसार की माया-ममता तेरी आत्मा के चारों कोनों से आकाशबेल-जैसी लिपटी हुई है. इस बंदिश से तुझे तभी मुक्ति मिलेगी, जब साक्षात् परमेश्वर के चरणों में चित्त लगाएगी.

बस, उस दिन का और यह आज का दिन है.

जैसे दिन-रात जलाभिषेक होते रहने पर भी शिवलिंग कोरे-का-कोरा और थिरायमान का थिरायमान ही रह जाता है, वैसे ही संसार-सागर के ज्वार-भाटों के बीच भगवती माता का चित्त भी एकदम कोरा, एकदम थिरायमान ही रहने का अभ्यस्त हो गया. चित्त की हरेक चोट जिन सरोवरों में घन की चोट खाकर पानी की सतह पर तड़पती मछली जैसी लोट लेती है और व्यथा को पिंडाकार बना-बना कर संसारी चोले को पिघलाती रहती, उनका सारा जल ही सूख गया. सूखे तालाब जैसी पुतलियाँ निस्तेज हो गयीं. राग-अनुराग के हंसों का डेरा ही उजड़ गया. हे शक्तेश्वर शंकर महराज, ऐसा अखंड विराग उपजा कि लगातार तेरह-चौदह वर्षों तक काया-कंठी सन्यासी चोले की भभूत-परतों के नीचे दबी रही. संसार-सागर के सारे रोग-शोकों से चित्त मुक्त रहा. सब भगवत्कृपा!...

सन्यासी चोला धारण करने के बाद नारी संसार-माता हो जाती है, मनुष्य-मात्र उसकी संतान हो जाती है, ऐसा हरिद्वार में दीक्षा-गुरू ने कहा था. मगर संसार-माता बनने वाली सन्यासिनी किसी एक बालक की माता बनने के बराबर भी संसार-सुख नहीं पा सकती, इतना ज्ञान पुरुष के चित्त में कहाँ होता है? नारी और नदी का जैसा चलायमान चित्त पुरुष का कहाँ होता है भला?

हे गुरू, सत्त वचन देना! सन्यासी चोले को पवित्र रखना! बैरागी काया-कंठी को थिरायमान रखना... आत्मा असमंजस और अज्ञान से छटपटा उठी, तो भगवती माता ने दीक्षा गुरू का ध्यान किया, मगर फिर भी, आँखों में, स्मृति में, गोपिका पंतानी का बालक ही खेलता रहा...

मायके की धरती की मोह-माया ही तो खींच लायी. गाँव-गाँव डोलती भगवती माता तिलाड़ी तक पहुँच गयी थी. खासतिलाड़ी से बमणतिलाड़ी का भिक्षा पंथ पूरा करके, ब्राह्मण टोले के पास की गुरुस्थली में विश्राम करना चाहती थी. आखिरी घर गंगाधर पन्त का रह गया था. गोपिका पंतानी अपने छोटे-से बालक को छाती से लगाये घर की देहरी पर बैठी थी. भगवती माता ने पुकारा, ‘भिक्षा माई!’

‘द, माई, भिक्षा कैसे दूँ? यह बानर तो लोथ छोड़ता ही नहीं है. जरा-सी छाती छुड़ाई नहीं कि बिलखने लगता है.’ गोपिका पंतानी बोली थी.

‘माई, लाओ, थोड़ी देर मैं बिलमा दूंगी बालक का हिया.’ भगवती माता के मुँह से निकल पड़ा था और भभूत की परतों से ढंपी आत्मा संताप से कसमसा उठी थी कि – हे प्रभो, सन्यासिनों को बाल-गोपालों की ममता से बचाना चाहिए अपने मन को. ममता से मोह उपजता है और सतगुरु का सच्चा पंथ छूट जाता है. पंथ भ्रष्ट आत्मा फिर नित्य दिसा-विदिसा अपने मोहों का प्रायश्चित खोजती भटकती रहती है... मगर गोपिका पंतानी ने बालक को आगे बढ़ा दिया तो फिर ‘अब नहीं पकड़ती हूँ’ कैसे कहती भगवती माता?

प्रभो, संसारी चित्त चलायमान हो गया था, उसी का दंड दिया है तुमने. जैसे गीले गुड़ की भेली से चिपकी हुई शहद की मक्खी का डंक कभी-कभी गुड़ से चिपक कर टूट जाता है, ठीक ऐसे ही वह बेशरम छौनाछाती से चिपक गया, तो जैसे अभी तक उसके पतले-पतले अधर भगवती माता की छाती से चिपके रह गए हैं. दूध की बान ढला हुआ बालक ठहरा. कब गेरुआ कुरती उठाकर बंजर छाती से दूध पाने के लिए होंठों और जीभ की संगति से मिठियाता चपाचप पीता चला गया, भगवती माता को इस बात की सुध ही नहीं रही. उसे तो लगा कि लगातार तेरह वर्षों से जमी भभूत की भुरभुरी परतों को कुरेदता ही चला जा रहा है. और उसे यह भी लगा कि सन्यासी कंठी का पाथर-चोला पसीज रहा है और कहीं आत्मा की बहुत गहरी, कोमल परत में दरार आ गई है...

निंदियाए बालक को लौटते हुए, भगवती माता बोली थी, ‘द, माई, बालक को भगवन का अंश बता रखा है. जरा-सी ममता मिली नहीं कि पलक मूँद लेता है. मूरत की तरह. जहाँ तक छाती के अमरित के सुख का सवाल है, मुझ जनम बाँझ जोग्याणी की बंजर छाती से इस छौने को क्या मिलता! चलती हूँ माई! जीता रहे हजार बरस तेरा बालक. जै सदगुरु!’

इतना कहकर भगवती माता चलने लगी तो पीठ पीछे से तभी-तभी आई देवरानी से बोलती गोपिका पंतानी की आवाज सुनाई दी थी, ‘द वे सेवंती, बताने को तो अपने को जनम ब्रह्मचारिणी बताती हैं आजकल की जोग्याणियाँ, मगर छातियाँ इनकी नागरी भैंस के थनों की तरह चूती हैं. देख तो जरा, इस छोरे के मुँह में कितना झाग भर गया है. पहले ये जोग्याणियाँ पाप को भरती हैं. फिर अपने दिखावे के चोले का भरम रखने को एक पाप और करती हैं. मगर छाती का दूध तो परमेश्वर की देन है, वह कहाँ सुखाये से सूखता है! दूसरों के बालकों को खेल लगाने के बहाने अपना भार घटाती हैं.’


कहानी : ‘माता’-दो (१९९२)

“मिहलगाँव अपने पूरे वितान में उमड़ आया स्मृति में, तो एक लम्बे अरसे के बाद पारबती आज फिर से व्याकुलता की बाढ़ में खड़ी ही रह गयी, अपने स्नान को स्वयं ही जल उत्पन्न करती प्रतिमा जैसी.
माना कि शारदा नदी के जिस पश्चिम वाले छोर, घाटी से लगभग सवा-डेढ़ मील की ऊंचाई पर पारबती इस समय खड़ी है, यहाँ से मायका, यानी मिहलगाँव नहीं दिखाई पड़ सकता. क्योंकि वह तो इधर पूरब में है – पडियारकोट की अर्धचन्द्राकार की ऊंची पहाड़ियों की श्रृंखला के उस पार – लेकिन चित्त से तो वहां तक भी साफ दिखाई पड़ने लगता है, जहाँ तक कि आँखों की पहुँच नहीं.   

सैमधार से ऊपर को मिहलगाँव के बिष्टों की बड़ी बाखली एक क़तार में दिखाई पड़ती है, जैसे पहले सीधी रेखा खींचकर, तब उस पर एक-एक करके मकान बनाये गए हों और पहले ही कुछ ऐसा तय कर लिया गया हो कि चौमास की धूप में मिर्चियाँ सुखाई गयी हों, तो सबकी छतें रंगीन दिखाई पड़नी चाहिए...

कुछ क्षणों को वह भगवान नांदेश्वर के मंदिर की ओर एकटक देखती रह गई. उसे एकाएक ही हुआ कि मिहलगाँव को लेकर उसे एकाएक ऐसी स्मृति क्यों हुई होगी कि वह मायके का गाँव है? मायका तो तब होगा, जब कहीं ससुराल का अस्तित्व हो? सन्यासिनी को ससुराल ही नहीं, तो फिर मायका भी कहाँ होगा? घर भी नहीं कह सकती. कह नहीं सकती, लेकिन भीतर तो घर बीते दस सालों के उजाड़ में और ज्यादा गूंजता गया है. नेपथ्य में सब कुछ मौजूद है और जैसे माँ-बाबू आज भी पुकार रहे हों – पारबती! पारबती! पारबती!

उसे हुआ कि पूरी शक्ति से चिल्ला उठे! यह सारा जगत ही उसे सिर्फ एक सूना जंगल बनकर रह जाय. आधे जंगल को वह यही चीत्कार करती पार कर जाय कि – कहाँ हो?

उसे हुआ कि बाँहों को दूर तक फैलाती, पुकारती चली जाय – इजा...! बाबू!... और उसका पुकारना पक्षियों के झुण्ड की भांति, एक-के-बाद-एक, मिहलगाँव की दिशा में उड़ता ही चला जाय. ठीक वैसे ही, जैसे कि जोग का अंधड़ उसे दस साल तक पच्छिम में उड़ाता ही चला गया और अचानक पूरब को हुआ है रुख, तो लगता है कि सारी दिशाएं समाप्त हो चुकीं.

उसे सचमुच आधा जंगल दौड़ते-चीखते पार कर चुके होने की सी भ्रान्ति हुई और वैसी ही थकान. उसने सोचा था, आधे को चुपचाप देखती रहेगी. उस भविष्य की तरह, जो अभी भी जाने कहाँ तक है. और जाने कब तक.

वह पूरब की ही तरफ एकटक देखती रही. उसे अचानक ही लगा कि यह भी, शायद, सिर्फ कल तक को है. कल सुबह मंदिर में होगी. वहां से आगे जाना नहीं है.

नहीं, अब वह स्थान पांवों से नहीं, बल्कि सिर्फ चित्त से जाने को रह गया है. जोगन के रूप में वहां जाना ठीक नहीं.

उसे लगा, जैसे अब कहीं कुच्छ नहीं इस समय. सिर्फ वह है, और है वह जीवन, जिसकी सारी दिशाएं बंद जान पड़ती हैं. अब उसे पहली बार अनुभव हुआ कि अगर दिशाएं बंद होंगी, तो कुछ भी खुला नहीं रह जायेगा...

खुद अनुमान लगाओ, तो फिर दूसरों को कैसे रोको? कैसे अपेक्षा करो कि उसे तो ऐसा सोचना चाहिए था? देखना चाहिए था कि एक अकेली औरत अगर इस रात को भीषण रूप से डरावनी हो जाने वाली शमशान भूमि में डेरा डालने को तैयार है तो आखिर कौन-सा जीवन लाया होगा उसे इधर? किस हाहाकार ने ला पटका होगा इसे यहाँ कि अब यही होता है कि नहीं, क्योंकि कोई ठिकाना नहीं कि कब कौन-सा और कैसा स्थान सामने होगा.

छब्बीस की उम्र और जोगन का वेश – जड़ों समेत उखड़कर खुले में हो जाना और कोई सम्बन्ध, किसी आदमी क्या, वस्तु तक से अनुभव नहीं होना... सिर्फ यही चीत्कार कि – तुम्हारा स्त्री जीवन हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो चुका... अब तुम स्त्री के रूप में किसी को नहीं पुकार सकोगी – पशु-पक्षियों और नदी-जंगल-पृथिवी-आकाश तक को नहीं. क्योंकि जोगन सिर्फ गुरू गोरखनाथ को पुकार सकती है – अलख निरंजन का जप कर सकती है – लेकिन इनको जोगन स्त्री नहीं, स्त्री जोगन हुआ करती है.

उन दिनों थोकदार जी, उनकी बहुओं, बेटों अथवा अन्य श्रोताओं के सामने स्वामी जी का प्रवचन की लय को और तीव्र करते ही चले जाना – और इस बात पर एक नहीं बल्कि अनेक भांति से जोर देना कि परम सत्य तो एक ही है... लगातार वेद-वेदान्तों के दृष्टान्त देना. उनको आज के विज्ञान से भी संगत बताना. मध्यमा, बैखरी, पारमिता और प्रज्ञा – जाने कितनी तरह की भाषावली की बातें करना!...



अपनी जड़ों को ख़ारिज करने के खतरे

तीस साल के अन्तराल में लिखी गयी एक ही शीर्षक की इन कहानियों में शैलेश मटियानी की हताशा अपनी जड़ों से कटकर ऐसी छद्म दुनिया में प्रवेश का संकेत है जो उनके साहित्य से ही नहीं, अपने क्षेत्र की विराट सांस्कृतिक परम्परा के साथ भी विश्वासघात है, जिसके आधार पर उन्होंने पिछली सदी के पचास के दशक में एक बड़े लेखक के रूप में आरम्भ किया था. यही नहीं, जिसकी ओर हिंदी के तमाम विचारशील लोगों ने उम्मीद भरी आँखों से उनकी ओर देखा था. ‘माता-१’ में वह जिस तरह पहाड़ी स्त्री के बहाने स्त्री-अस्मिता के व्यापक सवालों से जूझते हुए हिंदी समाज के कानों में कभी न बुझने वाली जलती हुई चीख फूंकते हैं, ‘माता-२’ में खुद ही उसे अपने ही स्पष्टीकरणों के वायु-मंडल में बिला देते हैं. यह सब उनके द्वारा अर्जित अपनी ही आस्थाओं से पलायन है, जहाँ वो खुद से धोखा करते दिखाई देते है. ऐसा करने के लिए क्यों विवश हुए मटियानी?
(शैलेश मटियानी और बटरोही)

मुझे इस बात के संकेत उनके इलाहाबाद प्रवास के दिनों में ही दिखाई दिए थे, जब वो अपनी आरंभिक कहानियों का पुनर्लेखन करने लगे थे. १९६४ में उन्होंने स्थायी रूप से इलाहाबाद में बसने का निर्णय लिया था और अपनी अकूत रचनात्मक ऊर्जा के चलते वो जल्दी ही वहां के साहित्यिक समाज के अंग बन गए. १९६६ में मैं अपने शोध के सिलसिले में प्रयाग गया और आरम्भ के कुछ महीनों तक उनके साथ ही रहा. वह उनकी रचनात्मकता का सबसे उर्वर दौर था. उनकी अधिकांश कालजयी कहानियां और उपन्यास उन्हीं दिनों लिखे गए.

इलाहाबाद में ही वो भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त प्रसिद्ध कवि-उपन्यासकार नरेश मेहता के संपर्क में आये और उनसे बेतरह प्रभावित हुए. उनकी औपचारिक शिक्षा स्कूली स्तर की ही थी हालाँकि लोक जीवन के संपर्क से उन्हें पढ़े-लिखे लोगों से कहीं अधिक ज्ञान प्राप्त था. मानवीय विडम्बनाओं और जीवन-मृत्यु सम्बन्धी मसलों को लेकर उन्होंने खूब लिखा था, मगर उसका आधार लोक था. नरेशजी वेद-पुराणों और भारतीय दर्शन के प्रकांड विद्वान थे और वह मटियानी के साथ चर्चा के दौरान उन्हें पुरोहितों के कर्मकांड के पीछे निहित वास्तविक दर्शन के बारे में बताते थे. शैलेशजी वैदिक मन्त्रों और उनकी व्याख्याओं को आतंक के रूप में सुनते थे और यहीं से उनके मन में अपने परिवेश और खुद के ज्ञान को लेकर हीनता बोध का अहसास होने लगा.

इसी दौरान जब उन्होंने आजीविका के लिए ‘विकल्प’ का प्रकाशन शुरू किया, आर्थिक संसाधन जुटाने के लिए उन्हें खूब यात्राएं करनी पड़ी थीं, जिनमें उनका बड़ा पड़ाव दिल्ली होता था. दिल्ली में उनकी अनेक मुलाकातें अपने प्रिय लेखक जैनेन्द्र कुमार जी से हुईं और वो उनसे एक समर्पित भक्त की तरह प्रभावित हुए. सातवें-आठवें दशक के बाद के उनके गद्य लेखन में जैनेंद्रजी की तरह छोटे-छोटे वाक्य और दार्शनिकता का जो पुट दिखाई देता है, उसके पीछे जैनेन्द्र जी का ही प्रभाव है. धीरे-धीरे वो अपनी जड़ों से कटने लगे थे और इस प्रक्रिया में अपनी पुरानी कहानियों का पुनर्लेखन करने लगे थे. उन दिनों वो मुझे अपनी ऐसी कहानियों को पढ़ने के लिए देते थे और मैं हमेशा इस बात पर अपना विरोध प्रकट करता था. मैं बार-बार उनसे कहता कि प्रत्येक रचना जिस क्षण जन्म लेती है, उसके साथ उसका अपना एक संसार रूप धारण करता है जिसे ठीक उसी रूप में दुबारा नहीं पाया जा सकता. मगर वो मुझसे कभी संतुष्ट नहीं हुए और इस क्रम में उन्होंने अपनी अनेक महत्वपूर्ण कहानियों का कबाड़ा कर डाला. ‘माता’ कहानी उसका एक उदाहरण है, जिसका मूल ड्राफ्ट आज तक अनुपलब्ध है. दूसरा ड्राफ्ट (‘माता’-२) काफी हद तक मूल के निकट है मगर तीसरा (‘माता’-३) तो एकदम अलग और भटका हुआ है.

कहानियों के पुनर्लेखन के पीछे उनकी एक और मजबूरी थी. वो पूरी तरह से लेखन पर आश्रित थे. घर में छह लोगों के परिवार का भरण-पोषण और खुद के तथा बच्चों के महंगे शौक. वो कभी भी बच्चों के मामले में समझौता नहीं करते थे, क़र्ज़ लेकर उनकी हर मांग को ऐसे पूरा करते थे कि परिवार को इसका अहसास न हो. पत्रिकाएं और प्रकाशक ही उनकी आजीविका के एकमात्र आधार थे. इसके लिए रचनाएँ चाहिए थी. रचनात्मक लेखन की मशीनी अभिव्यक्ति संभव नहीं है, मगर पैसा चाहिए था. अनुवाद या दूसरे कौशलों की उन्हें जानकारी नहीं थी, इसलिए भी वो पुरानी कहानियों को दुबारा-तिबारा लिखते थे. वो चौबीस घंटे लेखन की दुनिया में जीते थे इसलिए हाथ में वो महारथ हासिल था कि कुछ भी लिखते वो लेखन की मर्यादा के अन्दर तो होता ही था, मगर मौलिक और प्रतिलिपि में फर्क तो होता ही है.

मटियानीजी  की अंतिम दोनों कहानियों (‘नदी किनारे का गाँव’ और उपरांत’) पर टिप्पणी करते हुए राजेन्द्र यादव ने मानो मेरी बात का समर्थन करते हुए कितनी सच भविष्यवाणी की है:

“संपन्न परिवार मटियानी का व्यक्तिगत सपना जरूर है, मगर निश्चय ही यह उनका संसार नहीं है. जिन्दगी भर वे जिस दुनिया के रोग-शोक, शोषण-संघर्ष की कहानियां लिखते रहे – ये दोनों लम्बी कहानियां उनसे पलायन और पराजय की आत्म-स्वीकृतियां हैं. चूंकि यह जमीन उनकी अपनी नहीं है इसलिए बार-बार दुहरा-दुहरा कर उन्हें अपने-आपको और पाठक को आश्वस्त करना पड़ता है कि वे उस परिवेश और मानसिकता को जानते हैं. ये दयनीय ‘पैरानोइया’ की कहानियां हैं. बेटे की मृत्यु से उबरने की नहीं – स्वयं धीरे-धीरे उसी लोक में उतरते चले जाने की कहानियां हैं. मुझे इनमें अपनी असमर्थता को लेकर पैदा होने वाले अपराध बोध की गंध भी आती है और सांस्कृतिक प्रतिशोध की भी... यह संसार को पाने की छटपटाहट है जो उन्हें कभी नहीं मिला... कलियुग में आकंठ धंसे आदमी द्वारा देखा गया सतयुग का सपना... संयुक्त परिवार का यह बंधा रूप अखंडित राष्ट्र का एक छोटा घटक है. जिसे हिंदुत्व प्रेरित टीवी सीरियल बार-बार परोस रहे हैं. यह अतीत की वापसी की आकांक्षा है.” 
(राजेन्द्र यादव: शैलेश मटियानी की सम्पूर्ण कहानियां भाग एक, पृष्ठ १७, प्रकाशन वर्ष : २००४)

पांच अगस्त को अयोध्या में संपन्न भूमि-पूजन के मेजबान इस आख्यान के सह-नायक के बारे में भी मुझे इसी टिप्पणी को दुहराने का मन कर रहा है. हमारी उपेक्षित धरती से उभरे ये दोनों ही महानायक जिस छोटी-सी उम्र में भारतीय सांस्कृतिक रंगमच में अपने-अपने क्षेत्र में छा गए, वह इतिहास की छोटी उपलब्धि नहीं है, मगर कहा नहीं जा सकता कि आने वाले वक़्त में वे किस करवट खुद को व्यवस्थित करेंगे! फ़िलहाल तो उम्मीद-भरी आँखों से देखना ही हमारी विवशता है.

पांच अगस्त के अयोध्या-उत्सव के मेजबान अपने कथा-नायक की भूमिका को लेकर मेरे मन में उनके प्रति सम्पूर्ण सम्मान के बावजूद वही आशंका जन्म ले रही है जो ‘माता-एक’ की भगवती और ‘माता-दो’ की पारबती के मन में उपजी थी. हालाँकि ये सवाल एक स्त्री के कुछ हद तक निजी सवाल हो सकते हैं कि क्या वह पुरुष की तरह अकेले जीवन का निर्वाह नहीं कर सकती? यह बात भी यहाँ विचारणीय है कि इस कहानी का परिवेश आज से लगभग अस्सी साल पहले का पहाड़ी परिवेश है; निश्चय ही आज एक औरत अकेले जीवन का चयन कर सकती है कर ही रही है. ‘माता’ शीर्षक दोनों कहानियों की नायिकाएं क्रमशः भगवती और पारबती जोग को त्यागकर अपने लिए पति का चुनाव करती हैं, यद्यपि उनके ये ‘पति’ उनकी अपनी रचना हैं, समाज या परिवार के द्वारा थोपे या सुझाये हुए नहीं. एक तरह से वे खुद पर आरोपित ‘पुरुषों’ का अपनी मर्जी से कायाकल्प करके उन्हें खुद को स्वीकार करने के लिए मजबूर करती दिखाई देती हैं. यह स्त्री का पलायन नहीं, उसकी विजय है.

अपने कथानायक योगी के बारे में सामने आ रही इन आशंकाओं से मैं इसलिए सहमत नहीं हो पा रहा हूँ कि नाथ संप्रदाय का कनफटा जोगी होने के कारण उन्हें राजपाठ से कोई मतलब नहीं होना चाहिए या एक जून से अधिक का भोजन घर पर नहीं रखना चाहिए. इन हजारों सालों की यात्रा में आदमी ने अपनी रुचियों और विश्वासों को बनाये रखते हुए खुद को और अपने समाज को बदला है. आज भी बदल रहा है. मेरी निजी रुचियों से वो बातें मेल नहीं खा सकती है, मगर उन्हें बदलना तो है ही. जरूरी नहीं कि वह जीतेंगे ही, मैं भी जीत सकता हूँ, हो सकता है तब, जब मैं इस दुनिया में न रहूँ. मगर दोनों अपनी हार नहीं मानेंगे और शक्ति-परीक्षण ऐसे ही चलता रहेगा. अलबत्ता, इनमें से किसी एक पक्ष की विजय या पराजय का निर्णय लेने का अधिकार निश्चय ही मुझे या उन्हें नहीं है.      
(क्रमशः)
             
शैलेश मटियानी की असंकलित कहानियां  

यह बात आज तक एक रहस्य बनी हुई है कि मटियानी ने अपनी आरंभिक ४७ कहानियों को किसी भी संग्रह में शामिल क्यों नहीं किया ? ये सभी कहानियां उच्च वर्णों के द्वारा दलितों के शोषण की बेहद मार्मिक कहानियां हैं. इनमें से कुछ का उन्होंने पुनर्लेखन भी किया है हालाँकि उनमें से कई में पात्रों के नाम और शीर्षक भी बदले हैं, जिससे पता लगा पाना कठिन है कि उनमें कौन-सी मूल कहानी है और कौन बाद की. ऐसी अधिकांश कहानियां १९६० से ६५-६६ तक की प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं. इन्हीं में एक मार्मिक कहानी ‘दुरगुली’ का एक अंश यहाँ प्रस्तुत है:
दुरगुली - शैलेश मटियानी
(प्रकाशित – ‘रागरंग’, मासिक, जनवरी, १९६२)

घर पहुंचकर जरा विश्राम किया ही था दुरगुली ने, कि जजमानों के यहाँ से वृत्ति करके लौटे हुए चन्द्रबल्लभ गुरू उसके कमरे में पहुँच गए. वृत्ति में मिला हुआ हलुवा और पूरियों का ढेर उन्होंने कमलुवा-नरुवा को थमा दिया और खुद एक घड़ी रात तक दुरगुली के कमरे में ही रहे. दुरगुली का मन सवेरे से ही दुखी था, सो उसने टालने का प्रयत्न किया था, कि ‘हो गया हो गुरू! अब जरा मुझ अभागिनी को भी विश्राम करने दोगे या नहीं? अरे, तुम ठाकुरों-बामुणों में तो धरम-ईमान नाम की कोई चीज ही बाकी नहीं रही. हजार किस्म के कुकरम भी करते हो , ऊपर से गालियां भी देते हो.’

मगर चन्द्रबल्लभ गुरू जहाँ जल्दी-जल्दी जजमान के घर का पूजा-पाठ निबटाकर लौट आये थे, तो दुरगुली के यहाँ से टलने के लिए थोड़े ही आये थे. कमलुवा-नरुवा हलुवा-पूरी लेकर बाहर चले गए थे.
कुछ तन टूटा, कुछ मन के संताप ने धुना. रात भर दुरगुली को ठीक से नींद नहीं आई थी. जाते-जाते चन्द्रबल्लभ गुरू कह गए थे, कि कल हरियाला त्यौहार है, खीर-भात के लिए धान कूटने आना.

सामर्थ्य तो नहीं थी और न इच्छा ही, मगर एक बैकर (आधा सेर) चावलों का लोभ दुरगुली को खींच ही ले गया. कभी आड़े समय के लिए थोड़ा-बहुत अन्न घर में रहना ही चाहिए, नहीं तो बालकों का भूख से बिलबिलाना मुँह काटने को दौड़ता है.

धूप अभी सिर्फ ऊंची चोटियों पर ही झलक रही थी, कि गोपुली मूसल लिए चन्द्रबल्लभ गुरू के घर के आँगन में पहुंची. चन्द्रबल्लभ जी की घरवाली पदमावती बौराणज्यू (बहूरानीजी) से धान निकाल मांगने को आगे बढ़ ही रही थी कि मूसल से टकरा कर, तुलसी के कनस्तर के पास रखी तांबे की कलशी लुढ़क पड़ी और बौराणज्यू बिना आवाज दिए ही बाहर निकल आईं.

कुछ देर उन्होंने तुलसी के कनस्तर के पास लुढ़की हुई ताँबे की कलशी को देखा, कुछ देर दुरगुली को देखती रही और फिर एकदम बौखलाकर बोलीं – “बस हो गई आज तुलसी मैया की पूजा-परतिष्ठा! सबेरे-सबेरे न मालूम कहाँ से चुड़ैल जैसी आ पहुँची यह डुमणी रे, इसने भरी-भराई पवित्तर जल की कलशी को ठोकर मारकर दूर फैंक दिया. हे भगवान, अशुद्ध जल के छींटे तुलसी मैया के कनस्तर में भी पड़ गए होंगे... क्यों वे डुमणी, आँखों में अंधकार हो गया है क्या तेरे, जो तांबे की कलशी को ठोकर मार दी? हत्तेरी, कमीन जात का.”

दुरगुली एकदम खिसिया गई. अपराध तो उससे हो ही गया था. एक तो ब्राह्मणों के घर की कलशी ठहरी, उस पर से पूजा के लिए भरा हुआ पानी ठहरा. हाथ जोड़कर बोली, “बौराणज्यू हो, मुझ पापिनी से कसूर तो हो ही गया है, मगर तुम देवी-स्वरूपा नारी ठहरीं, तुम मुझे माफ़ तो कर ही सकती हो. भगवान कसम, हो बौराणज्यू, जो मैंने जानबूझकर कलशी गिराई होगी, तो मेरी उमर मेरे लिए न रहे. मूसल नीचे रख रही थी कि बौराणज्यू से धान निकाल मांगूंगी. अलबलाट में मूसल से टक्कर लग गई...”

“द, तेरा यह लम्बा मूसल तेरे ही हाड़ जलाने में लग जाये!” कहते हुए पदमावती बौराणज्यू ने पहले तो दुरगुली के मूसल को, घृणापूर्वक उठाकर नीचे खेत में फैंक दिया, फिर और जोर से चिल्लाई, “एक तो डुमणी ने मेरी तुलसी मैया को भ्रष्ट कर दिया, ऊपर से बड़ी सफाई जैसी दे रही है. चल डुमणी निकल मेरे घर के पटांगण में से. ले जा अपने उस मूसल को नीचे से उठा करके. तुझ जैसी कमीनी से इस त्यौहार-पर्व के दिन कौन अपने घर का अन्न अपवित्तर कराएगा?”

दुरगुली चुपचाप खिसकने ही लगी थी कि अन्दर से, जनेऊ हाथ में लपेटे हुए, चन्द्रबल्लभ गुरू बाहर को निकले – “क्यों हो कमलाकर की इजा, क्या हल्ला-गुल्ला हो रहा है?”

कमलाकर की माँ पदमावती बौराणज्यू ने, दुरगुली के प्रति फिर से अपनी गालियों को दुहराते हुए बताया कि ‘मैं जरा गोकुल धूप लेने को अन्दर गई थी, इतने में इस दुरगुली डुमणी ने नहा-धोकर पवित्तर जल से भरी हुई कलशी को ठोकर मार के, एकदम अशुद्ध पानी तुलसी मैया के कनस्तर में भी छलका दिया है. तुमने मुँह लगा रक्खा है इस नीच जात को!’ पदमावती बौराणज्यू के इस सीधे आक्षेप से, चन्द्रबल्लभ गुरू एकदम अटपटा जैसे गए और जनेऊ को अँगुलियों में सरकाते हुए बोले, “अरे, कमलाकर की इजा, तू भी कैसी पागलपने की बात करती है? भला मैं क्यों मुँह लगाऊंगा इसको? मुझको क्या लेना-देना हो रहा है इससे? सबेरे-सबेरे आ के तुलसी मैया के कनस्तर को अपवित्र कर गई डुमणी. असल में जब से ‘सुराज’ हो गया है, इनकी आँखें एकदम आकाश चढ़ गई हैं. अब यह दुरगुली डुमणी क्या ठीक से देखकर...”

पदमावती बौराणज्यू की गलियां सुनकर, चुपचाप चली जा रही थी दुरगुली, मगर चन्द्रबल्लभ गुरू की बातें सुनीं तो एकदम पीछे को लौट आई. पदमावती बौराणज्यू ने जो कुछ कहा था, कोई बात नहीं थी, मगर चन्द्रबल्लभ गुरू की बातें सुन करके दुरगुली का कलेजा दुःख और आक्रोश से एकदम तिलमिला उठा.

चन्द्रबल्लभ गुरू अन्दर की ओर खिसकना ही चाहते थे कि दुरगुली आँगन में पहुँच गई, “क्यों हो गुरू, मुझको डुमणी-डुमणी तो तुम इस बिमलकोट के ठाकुर-पंडित बहुत बेर कहते हो. कुतिया की तरह अपनी घरवालियों के सामने दुतकारते हो, मेरी छाया भी छू गई तो तुम्हारे घर का अन्न अशुद्ध हो जाता है. तुम्हारी तुलसी मैया का कनस्तर अपवित्तर हो जाता है? द, आग लग जाये तुम जैसे ठाकुरों-पंडितों के घर के अन्यायी अन्न में और बकौल फूल जाये तुम्हारी तुलसी मैया के कनस्तर में... और समय तो तुम लोग डुमणी-डुमणी कहकर एकदम छि-छी जैसी करते हो, मगर उस समय तुम लोगों की पंडिताई-ठकुराई कहाँ मसान घाट में पहुँच जाती है, जिस समय दुरगुली के आंचल में अपना-अपना मुँह घुसाकर, मेरी देबुली की लझोड़ी हुई जूठी छातियों में ही अपने थोलों (होठों) को घिसते हो?... और उस समय कहाँ जाती है तुम लोगों की ऊंची जात, जिस समय तुम लोग मेरे थोलों की चुसकियाँ लेते, मेरा थूक भी चाट जाते हो! और उस समय...”

दुरगुली को चीखते चिल्लाते सुन कर, पास-पड़ौस के लोग भी एकत्र होने लग गए थे. चन्द्रबल्लभ गुरू तो एकदम अन्दर को भागे ही, पदमावती बौराणज्यू भी अन्दर खिसक गईं कि “द, इस कमीनी डुमणी से अपना फजीता कौन कराएगा?”         

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  1. नवीन कुमार नैथानी16 अग॰ 2020, 9:23:00 am

    मझे लगता है कि पहाड़ के जीवन को अगर किसी एक कहानी के माध्यम से जानना हो तो आप बेखटके मटियानी जी की कहानी नदी किनारे का गांव देख सकते हैं।पहली बार यह कहानी आकार में छपी थीं। बटरोही जी की यह सीरीज कई दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है।जड़ों की खोज,लेखकीय आत्मसंघर्ष और कथा की निरंतरता इसे पठनीय बनाती है।समालोचन के महत्वपूर्ण काम की एक जरूरी कड़ी।

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  2. माता-01 तथा माता-02 की चर्चा करते हुए बटरोही जी ने न सिर्फ मटियानी जी बल्कि हमारे समाज के सांस्कृतिक तथा वैचारिक उहापोह की ओर संकेत किया है।

    मटियानी जी की वैचारिकी को जानने-समझने के लिए उनकी एक महत्वपूर्ण किताब है 'राष्ट्रीयता की चुनौतियां'। इसे पढ़ते हुए लगता है कि उनकी रुचि किसी एक पक्ष के साथ खड़े होने के बजाय सत्य को जानने में थी। वे सतत शंकालु तथा प्रश्नाकुल थे।

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  3. आपने मटियानी जी और योगी के बीच जो कंट्रास्ट खड़ा किया है, वह अद्भुत है। यह सवाल मेरे मन में भी था कि योगी होने के बाद यह सत्ता क्यों। मुझे लगता है कि आगे आने वाले प्रसंगों में कभी इस पर और लिखें। दुरगुली का अंश प्रभावित करता है।
    आप यह मानते हैं कि नरेश मेहता तथा जैनेन्द्र जी के प्रभाव से मटियानी जी में यह परिवर्तन आया हो सकता है। इससे तो एक बात निकल कर आती है कि लेखक के लिए पढ़ा-लिखा होना बेहद ज़रूरी है अगर वह कबीर जीवन शैली की परंपरा का न हो तो। अगली किस्त का इंतज़ार रहेगा।

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    1. यहाँ पर मामला पढ़े-लिखे होने का नहीं, लोक की अपेक्षा शास्त्र को महत्व देने का है. रचनात्मकता लोक से ही धार पाती है.

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  4. शिव किशोर तिवारी16 अग॰ 2020, 3:34:00 pm

    बटरोही जी शैलेश जी के निकट थे। उनसे कुछ ज्यादा उम्मीद थी।
    राजेन्द्र यादव के फतवे तो हम कहीं भी पढ़ लेते।
    इस आलेख का उद्देश्य मटियानी को हिन्दी के उपेक्षित अंधेरे कोने से निकालना है या थोड़ा और अंदर की ओर धकेल देना?

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  5. शिवकिशोर जी, हिंदी में मटियानीजी की जो उपेक्षा हुई है यह आलेख उस कोण से नहीं लिखा गया है. मैंने इसमें उन अंतर्विरोधों को दर्ज करने की कोशिश की है, जिनके तहत उन्होंने अपनी वह जमीन ही त्याग दी जिसके जरिये उन्होंने पहली बार पहाड़ी जीवन को संसार के सामने चित्रित किया. सिर्फ परिवेश रेखांकित कर देना साहित्य तो नहीं होता; यह काम सुमित्रानंदन पन्त और दूसरे लोगों ने किया ही है, मगर वह तो प्रकृति का बाहरी रूप है. मटियानीजी ने अपनी सारी आरंभिक रचनाओं, कहानियों और उपन्यासों में, अपने परिवेश को जिस सम्पूर्णता और जीवन्तता में व्यक्त किया वह हिंदी के लिए अभूतपूर्व घटना थी. यह बात मैंने विस्तार से कही है कि पहाड़ की हर आने वाली पीढ़ी को उन्होंने प्रभावित और प्रेरित किया. अपनी भाषा और संस्कृति का जो जीवंत मुहावरा उन्होंने गढ़ा उसका विस्तार उनके बाद के लेखन में नहीं दिखाई देता. उन्होंने अपने ही विश्वासों और मान्यताओं का बाद के दिनों में विरोध शुरू कर दिया. जिन ४७ कहानियों का मैंने अपने आलेख में जिक्र किया है (उनमें से एक कहानी 'दुरगुली' का अंश भी संलग्न किया है) उन्हें अपने किसी भी संग्रह में न देने के पीछे क्या कारण हो सकता है जब कि उन्हें अधिक-से-अधिक किताबों की जरूरत थी. इन ४७ कहानियों में उन्होंने अपने इलाके के सवर्णों की जिस तरह पोल खोली है, वह तेवर बाद के दिनों में उनमें गायब हो गया था. राजेन्द्र यादव को कोट करने का मतलब पिष्टपेषण नहीं है, यह बात उनके अलावा गिरिराजजी, गोविंद मिश्र आदि सभी महत्वपूर्ण लोगों ने कही है कि जितनी कहानियां हमारे दौर में अकेले शैलेश मटियानी के पास हैं, किसी दूसरे कथाकार के पास नहीं हैं. मेरे आलेख का मुख्य स्वर उन्हें उनका देय प्रदान करना नहीं है. ऐसा करने वाला मैं कौन होता हूँ. मेरी पीड़ा उनके द्वारा उस पक्ष को अधूरा छोड़ देने को लेकर है जिसे हिंदी में ओन्होने सबसे पहले उठाया था और जिसे सिर्फ वही उठा सकते थे. 'इब्बू मलंग', 'रहमतुल्ला', 'प्यास', 'हारा हुआ', 'मैमूद' जैसी जिन्दगी की धडकनों से सीधे जुड़ी कहानियां लिखने वाला लेखक हताशा और पलायन की जमीन को मूल्य के रूप में कैसे अपना सकता है? दक्षिण पंथ की ओर यह झुकाव उन्हें अपनी जमीन से ही काट ले गया.

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  6. हमेशा की तरह आज भी थोकदार की बेसब्री से प्रतीक्षा रहती थी । एक सांस में पढ़ गयी । मटियानी जी पर्व तीय संस्कृति पर लिखने वाले लेखकों में अग्रणी थे।निस्संदेह आंचलिक लेखकों में भी जटिल जीवन के व्याख्याता भी । बटरोही जी उनके उपन्यासों पर प्रकाश डालने के लिए धन्यवाद । हालांकि रामजनम भूमि का मुद्दा मेरी समझ से परे है ।

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  7. ज्ञान पंत17 अग॰ 2020, 8:22:00 am

    मटियानी जी ने प्रतिरोध की जो कहाँनियाँ लिखीं हैं ..... उनसे ही उनकी पहचान बनती है । मैं टिप्पणी नहीं कर सकता लेकिन ....... लेकिन वे निश्चित रुप से " साहित्य की राजनीति " का शिकार हुए होंगे क्योंकि राजनीति का साहित्य , लिखना क्या , समझते भी नहीं थे और न ही उन्होंने कोशिश की । कोशिश की होती तो वे भी कहीं न कहीं " 5 स्टार " वाले होते । ...... हल्द्वानी में जब बीमार थे तो दर्शनों का सौभाग्य मिला ...... पढ़ना , अब सीख रहा हूँ । नमन , आपकी लेखनी को ....

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  8. मटियानी जी के तेवर में परिवर्तन को लेकर आलेख का मूल स्वर प्रकट होता है, यह कोई बहुत असंभव परिणति भी नहीं लगनी चाहिए।एक विस्फोटक प्रतिभाशाली लेखक अपने परवेश के तमाम पांखडों का उद्घाटन शुरूआती आदर्शवादी दौर में जिस व्याकुलता से करता है,उसी तेवर की उम्मीद उससे जीवन के तमाम थपेड़े खाने के बाद भी करना कितना संगत असंगत है,यह हमारे नैतिक आग्रह की क्षुधा हो सकती है,पर नियति की वैचारिकी का क्या कहा जाय।मटियानी जी की विवशता आखिरी दौर में कितनी दयनीय हो गई थी,सर्वविदित है।एक सामान्य इंसान जैसी, विवशता,आस्थावान व्यक्ति जैसी सहजता।बहुत सचेत से सायास विचारक का चोला जैसे उतार फैंका हो उन्होंने,यूं भी वह कथाकार के रुप में विचार से अधिक संवेदना शिल्पी व परिवेश के अप्रतिम चितेरे रहे, उसी मनोभूमि में सामाजिक विरुपताओं व पाखंडों का अद्भुत चित्रण अनुभव खंड के एक दौर में कर सके।बाद में तो परिवेश छूट जाने पर उसी अनुभव का दोहराव सभी करते हैं।वैचारिक पक्ष के आग्रह से मटियानी जी मूल्यांकन अब कितना अर्थवान है,कितना नहीं?

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  9. बहुत दिनों से इच्छा थी कि शैलेश जी के बारे में क़ायदे की जानकारी मिले। वह आज पूरी हुई। हालांकि संकेत कई जगह हैं, लेकिन यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि शैलेश जी के लेखन में दाहिना मोड़ कब आया। आख़िर संघर्षों में तपा हुआ ऐसा विलक्षण रचनाकार 'संस्कृतिकरण' के प्रभाव में कैसे आ गया!

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