मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा: कुमार अम्बुज


साहित्य अपने काल में धंस कर लिखा जाता है और अगर उसमें दम होगा तो वह अपने काल को पार करके कालजयी बनेगा. 

जैसा समय है उसमें अगर आपमें सत्ताओं और संस्थाओं को लेकर संशय नहीं है तो आप अपना विवेक और संवेदनशीलता दोनों खो बैठे हैं.

कुमार अम्बुज की ख्याति कवि की है पर यह कहानी मैं समझता हूँ हिंदी की कुछ महत्वपूर्ण कहानियों में एक मानी जायेगी.

समकालीन धूर्तता और उससे पैदा हुई आम हताशा को समझने के लिए यह कहानी हज़ार लेखों और वक्तव्यों पर भारी है. 

प्रस्तुत है.



मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा                                         

कुमार अम्बुज



 



मैं हर शहर, हर जगह जहाँ जाता हूँ, पूछता हूँ क्या यह शहर, यह जगह बेनीपुरा है. वही मेरा जन्म-स्थान है. सभी जगहों पर कहा जाता है कि नहीं, यह बेनीपुरा नहीं. यह एक शहर है लेकिन यहाँ कोई पैदा नहीं हुआ. यहाँ सभी लोग किसी न किसी दूसरी जगह से आए हैं. यहाँ सभी निवासी विस्थापित हैं. हमने सुना जरूर है कि सबके जन्म-स्थान खत्म हो गए हैं. नक्शों में भी नहीं बचे. नक्शे बदल चुके हैं. जगहों के परिचित नाम गायब हैं. नये नाम इस तरह रखे गए हैं कि पुराने याद न आ सकें. नये का उच्चारण ऐसा है कि उसे सीखने में पुराना विस्मृत हो जाता है. भूगोल और इतिहास एक साथ नष्ट हो रहे हैं. 

लेकिन ऐसा नहीं हो सकता.

लगता है लोग झूठ बोलते हैं. इधर हर कोई झूठ बोलता है. इसलिए मेरा किसी पर कोई विश्वास नहीं बचा है. जो सच बोलता है उसे खुद पता नहीं कि वह सच बोल रहा है. वह सच भी किसी के झूठ को सच मानकर बोल रहा होता है. सीधे-सादे, भावप्रवण, घबराए और सच्चे आदमी से हर कोई झूठ बोलता है. यह सब इतना अधिक हो चुका है कि अब मुझे किसी पर भरोसा नहीं रहा. यह बात गुस्से या हताशा में नहीं कह रहा हूँ. स्वीकार भाव से और नये जमाने में रहने की, सामंजस्य बैठाने, अपने को अद्यतन करने की कोशिश करते हुए कह कर रहा हूँ. हालाँकि इसका अर्थ भी वही है कि मुझे किसी पर विश्वास नहीं रहा. मेरे पास इस सदी में होने का यही प्रमाण है. 

एक स्त्री से पूछता हूँ, क्या तुम्हारा नाम दुलारी है. फिर सब स्त्रियों से पूछता हूँ कि उनमें कोई दुलारी है. हर स्त्री कहती है, वह दुलारी नहीं है. वे कहती हैं कि यहाँ दूर-दूर तक कोई दुलारी नहीं है. जैसे वे उन सब स्त्रियों को जानती हैं जो सब दूर रहती हैं और दुलारी नहीं हैं. पुरुषों से पूछता हूँ कि उनमें कोई प्रकाश है. हर कोई कहता है कि नहीं. फिर वे समूहगान में कहते हैं कि उनमें कोई भी प्रकाश नहीं है. एक वक्त था जब हर दूसरे तीसरे आदमी के नाम में प्रकाश मिल जाता था. अब कहीं कोई दुलारी नहीं है, कोई प्रकाश नहीं है. कोई जगह नहीं है जो मेरी जन्म स्थली हो. सारे नाम गायब हैं, जिनसे दुनिया की याद रहती थी. नामों को इस तरह मिटाया गया कि वे जगहें, वे आदमी ही मिट जाएँ जिनके कि वे नाम थे. अब मैं आदमियों और जगहों पर ही नहीं, अन्य चीज़ों पर भी विश्वास नहीं कर पाता, जिन पर कल शाम तक करता चला आता था और भूल चुका था कि इन पर कभी अविश्वास भी करना पड़ सकता है. 

इसी अविश्वास के सिलसिले में, मैं बैंक गया.

मैंने अपनी सावधि जमा रसीदें और बचत खाते की पासबुक मैनेजर के सामने, टेबल पर पटक दी. लीजिए, ये तमाम रसीदें हैं. तेईस हजार पासबुक में हैं. जीवन भर की बचत और नौकरी में जवानी नष्ट करने का मुआवजा. मुझे इसी वक्त सारे रुपये दो. बैंकों पर मेरा कोई भरोसा नहीं रहा. इस मैनेजर पर भी कोई भरोसा नहीं था हालाँकि वह अच्छा आदमी लग रहा था लेकिन अच्छे आदमी और भरोसे के आदमी में जमीन-आसमान का अंतर हो सकता है. बल्कि होता ही है. मैनेजर ने मुझे पहले घूरा. फिर कुछ सोचकर सामने बैठाया, नींबू-पानी ऑफर किया, और मुझसे अजीबो-गरीब बातें कहीं:

‘‘सर, लगता है आपका मन ठीक नहीं है. बैंक ही सबसे अधिक विश्वसनीय हैं. जो बैंक पर विश्वास नहीं कर सकता, वह भला फिर किस पर करेगा. करोड़ों लोगों के पैसे बैंकों में जमा हैं. लगता है आपको कोई सदमा लगा है. आप किसी दुष्प्रचार के शॉक में हैं. वैसे इनके मैच्युअर होने में सात साल बाकी हैं, अभी तोड़कर पैसा लेंगे तो ब्याज का काफी नुकसान होगा. पिछले तीन सालों में हर महीने दिए ब्याज में से वसूली होगी. आगे ब्याज दरें कम होंगी, आपकी इन जमाराशियों पर अच्छा खासा ब्याज चालू है. आप समझदार आदमी हैं. अपना अहित क्यों करना चाहते हैं. बुढ़ापा कैसे कटेगा. आप मेरे पिता समान हैं. मैं आपको ये सब एफ डी नहीं तोड़ने दूँगा.’’ 

उसके इस अंतिम वाक्य से समझा जा सकता है कि मैनेजर कतई भरोसे का आदमी नहीं. यह मुझे बाप बनाने तैयार है लेकिन पैसा देने तैयार नहीं है. इस पर भला कैसे विश्वास किया जा सकता है. मैंने जोर देकर कहा कि नहीं, मुझे मेरे सारे रुपये चाहिए. नक़द  चाहिए. मैनेजर ने कठोरता से कहा कि नहीं, नक़द  पैसे नहीं मिल सकते. आपके बचत खाते में जाएंगे. उसमें से आप निकाल सकते हैं. एक बार में नक़द  राशि निकालने के लिए नियम है, सीमाएँ हैं. शादी, बीमारी, मृत्यु हो तो अलग बात है वरना पैसे नक़द  नहीं दिए जा सकते हैं. ऐसे तो हर कोई पैसे निकाल लेगा. अराजकता फैल जाएगी. बैंक डूब जाएंगे. रिजर्व बैंक और आयकर विभाग ने सोच-समझकर नियम बनाए हैं. मुझे पहले ही आशंका थी कि यह आदमी और यह बैंक ठीक नहीं है. यह पैसे न देने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकता है. बात रिजर्व बैंक और आयकर विभाग तक पहुँच गई है. अब तय है कि रिजर्व बैंक का भी विश्वास नहीं किया जा सकता. जो संस्थाएँ मिलकर पूरी ताकत यह नियम बनाने में लगा दें कि आदमी अपना पैसा नक़द  न ले सके, उन पर कोई कैसे विश्वास कर सकता है. 

मेरे चेहरे पर आक्रोशमयी असहायता झलक आई होगी. शायद इसलिए उसने कुछ चिंताजनक नरमी से कहा, या पूछा या ताना दिया- ‘अंकल, इतने सारे पैसे आप बैंक में नहीं रखेंगे, तो फिर कहाँ रखेंगे. शेयर बाजार में लगाएंगे या तीन पत्ती खेलेंगे.’ 

आखिर मुझे कहना पड़ा कि आप शेयर बाजार का नाम मत लो. उसका हिंदी अनुवाद रसातल है. तीन पत्ती का मैं रेडिकल रूप से विरोधी हूँ. लेकिन आपको इससे क्या कि मैं अपने पैसे का क्या करूँगा. नाली में फेकूँगा. मैंने उसे यह नहीं बताया कि दरअसल, वे रुपये मैं उस पलंग के अंदर बने बॉक्स में रखूँगा, जिस पर मैं सोता हूँ. दीमक और कीड़ों के खिलाफ मैंने पूरे पलंग का ट्रीटमेंट करा लिया है. स्पष्ट कर दूँ कि उस ट्रीटमेंट पर भी मेरा भरोसा नहीं है, मगर मैं रोज सुबह उठकर जाँच तो कर सकता हूँ और जरूरत पड़ने पर पैसे के रक्षा हेतु कदम उठा सकता हूँ. ब्याज गया भाड़ में, अविश्वास इतना पुख्ता और साफ-सुथरा है कि ये बैंक आपकी मूल राशि गायब कर सकते हैं. कह देंगे कि आपकी जमारााशि के खिलाफ जिन्हें कर्ज दिया था, वे सब बेईमान निकले. और नया जमाना है कि बेईमानों की सजा उन्हें मिलती है जो बेईमान नहीं हो सके. पिछले महीने ही इसका बिल संसद में ध्वनिमत से पारित हुआ है.

थक-हारकर मुझे बिना पैसे लिए बैंक से वापस आना पड़ा. क्योंकि निर्णायक बात की तरह मैनेजर ने बताया कि इन रसीदों पर पत्नी का नाम संयुक्त रूप से दर्ज है. भुगतान के लिए आपको इनके दस्तखत लाना पड़ेंगे, बल्कि उन्हें यहाँ बैंक में लाएँ तो अच्छा क्योंकि स्त्रियों के दस्तखत अक्सर गलत हो जाते हैं, वे भूल जाती हैं कि उन्होंने किस तरह से हस्ताक्षर किए थे. तभी आगे कार्रवाई हो सकती है. कार्रवाई यानी नक़द  देने की नहीं, पैसों को बचत खाते में ट्रांसफर करने की. मैं कोई साइको नहीं हूँ कि मुझे यों ही अविश्वास होता चला जा रहा है. आप खुद देख रहे हैं कि मेरा पैसा मुझे नहीं दिया जा रहा है. रिजर्व बैंक, आयकर विभाग, इन दो की सीधी साँठगाँठ, मिलीभगत की तस्दीक मैनेजर ने ही कर दी है. मेरे शक के दायरे में ये पहले से ही थे. मुझे मैनेजर की यह बात भी शक के दायरे में लगी कि वह मेरी पत्नी को बैंक बुलाना चाहता है. हस्ताक्षर लो, कौन मना करता है. मगर नहीं. इनके दिमाग में कितनी चालें हैं, कौन समझ सकता है. मैं अविश्वासी लोगों से ही नहीं, अविश्वासी संस्थाओं से भी घिर चुका हूँ. 

दुर्दिन ये हैं कि अब मैं पत्नी पर भी विश्वास नहीं कर पाता. इस मामले में वह बैंक से अधिक अविश्वसनीय है. उसके दस्तखत लेने से कहीं अधिक आसान है कि मैं गवर्नर के दस्तखत ले आऊँ. हालाँकि गवर्नर खुद सार्वजनिक रूप से अविश्वसनीय हो चुके हैं. उनके हस्ताक्षर रातों-रात संदिग्ध बता दिए जाते हैं. अचानक कह दिया जाता है कि अब ये दस्तखत मान्य नहीं रहेंगे. जहाँ, जिन कागजों पर भी उन्होंने हस्ताक्षर किए हैं, वचन दिए है, वे सब एक झटके के साथ पतझर में सूखकर गिर गए जर्जर पीले पत्तों में बदल जाते हैं. मैनेजर के पास दस बहाने थे कि वह पैसा नहीं देगा, पत्नी के पास कम से कम पंद्रह बहाने होंगे. सबसे बड़ा तो यही कि जैसे ही कहूँगा कि बैंक से पैसे निकालकर घर में रखना है, वह बेहोश हो जाएगी. सच में या अभिनय में, ऐसा कुछ विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता. लेकिन तय है कि दस्तखत नहीं करेगी. नहीं, उस पर यह विश्वास नहीं किया जा सकता.



 

(दो)

लेकिन मैं नकारात्मक व्यक्ति नहीं हूँ. तार्किक हूँ. औचित्य वगैरह समझता हूँ. इसलिए कुछ चीजों पर अभी मेरा विश्वास कायम है. जैसे मुझे मेरे अचानक कहीं मार दिए जाने या मर जाने का विश्वास है. दर्शन भी यही कहता है कि कोई भी, कहीं भी, किसी भी क्षण मर सकता है. इसमें किसी तरह के अविश्वास की गुंजाइश नहीं. जब आप जीवन में विश्वास करने लगते हैं, ठीक उसी समय आपको मार दिया जाता है. कई बार आपके मरने का समाचार प्रसारित कर दिया जाता है. आप खुद उसे पढ़ते हैं. प्रिंट में, सोशल मीडिया पर, टीवी स्क्रीन के नीचे चल रही पट्टी पर. आपको अपने मरने पर भरोसा करना पड़ता है. जीवित रहने की इच्छा बलबती रहती है मगर जीवित रहने पर से विश्वास उठ जाता है. आप हर क्षण प्रमाणित नहीं कर सकते कि आप जीवित हैं. लोगों पर भी यकीन नहीं रहा कि वे आसानी से विश्वास कर लेंगे. 

कहानी उतनी लंबी हो जाएगी कि उसकी रस्सी बनाकर पृथ्वी के चार चक्कर लगाए जा सकें, यदि मैं हर चीज पूरे विवरण के साथ बताने लग जाऊँ कि किस-किस तरह सभी चीजों पर से मेरा विश्वास उठता चला गया है. समझ लें कि यह अचानक नहीं हुआ है. कि यह अविश्वास मनुष्य द्वारा ऐतिहासिक रूप से अर्जित है. कि मनुष्य प्रजाति के लिए काफी हद तक आनुवांशिक है. विवेकसम्मत और वैज्ञानिक है. तब आप खुद ही कह उठेंगे कि हाँ, साहब, आप सही कह रहे हैं, इन पर कोई समझदार आदमी विश्वास नहीं कर सकता. 

ऐसा नहीं है कि चीजों पर मेरा कभी विश्वास ही नहीं रहा. कई चीजों पर, कई लोगों पर तीन साल पहले, सात या दस साल पहले, अनेक पर पंद्रह, पच्चीस, पचास या सत्तर साल पहले बहुत विश्वास था. लेकिन बिछुड़े सभी बारी-बारी की तर्ज पर विश्वास का यह संकट इधर गहराता ही जा रहा है. मैंने ईश्वर तक पर वर्षों विश्वास किया.

हाथ क्या आया- वही अविश्वास. 

आगे बढ़ने से पहले एक टूटी हुई, बिखरी हुई, संक्षिप्त सूची दूँ:

गाय. कचहरी. शेयर बाजार. सांसद. दवाई. ट्रेन. संपादक. ज्योतिषी. ब्लड रिपोर्ट. पुजारी. दूध. पानी. वोल्टेज. मोबाईल. एंटीवायरस. जिलाधीश. पुलिस स्टेशन. टमाटर.  वकील. क्रिकेट. याददाश्त. सैनेटाईजर. नल की टोंटी. क्लर्क. ए टी एम. धनवान. अभिनेता. गेंद. कुत्ता. गूगल. अदरक. रिश्तेदार. पड़ोसी. विधायक. अखबार. एंकर. चश्मा.  पहलवान. अस्पताल. भिखारी. नगर पालिका. विधायक. बीमा कंपनी. वैद्य. हेलमेट. सचिव. एक्स-रे. मोटर-साइकिल. जिगरी दोस्त. धर्मस्थल. कोषाध्यक्ष. सरपंच. स्कूल. एक बार फिर कचहरी.....

सोचिए, हज़ारों जीवित-अजीवित चीजें एकदम या धीरे-धीरे याद आएँगी, जिन पर आप रोज एकदम इस तरह विश्वास करते आए हैं मानो उन पर कभी पक्का विश्वास नहीं रहा. सोचना पड़ता है कि वे सिर्फ हैं या आपके लिए हैं. इसी बात में सारा मर्म छिपा है. जिन्होंने विश्वास किया उन्होंने ही विश्वासघात सहा. आप महज किसी अंधविश्वास की तरह उन पर विश्वास कर सकते हैं. वक्त के साथ यह विकल्प भी खत्म हो रहा है. जैसे कंपनी की एक के साथ एक मुफ्त या एक्सचेंज की योजना थी. अब नहीं है. 

मेरे जैसे आम आदमी के लिए, जिसकी बुद्धिमत्ता केवल विश्वास करने तक में ही सीमित थी, सबसे कष्टकारी उद्घाटन यह हुआ है कि यदि किसी को भरोसे में कुछ दे दिया है या किसी ने आपसे सरेआम ले लिया है तो वह वापस नहीं देगा. चाहे उसने वचन पत्र दिया हो, कार्पोरेट की ग्यारंटी दी हो या संसदीय कार्यवाही के रिकॉर्ड में ही दर्ज कर लिया हो. वापस देने से मना कोई नहीं करेगा लेकिन देगा नहीं. बैंक का उदाहरण विस्तार से दे चुका हूँ. चाहें तो बैंक जाकर आजमा लें. लेकिन आप आसानी से मानेंगे नहीं. इसलिए एक और आपबीती सुनाता हूँ- 

मैं चार बच्चों का पिता हुआ. दो बेटियाँ, जिन्हें जिन घरों में दिया, वे वापस नहीं आईं. (वह एक अलग कहानी है.) और दो बेटे. एक था एक है. दोनों सेना में. बड़ा, जेट विमान से आक्रमण करनेवाला अधिकारी. छोटा, थल सेना में मध्यम श्रेणी का अधिकारी. जिसकी पोस्टिंग्स का कभी पता नहीं चलता. गोपनीयता, सम्मान और नैतिक दबाबों के कारण पदनाम नहीं बता सकता. एक क्षणिक गर्वीले युद्ध में वायुसेना का अधिकारी बेटा वीरगति को प्राप्त हुआ. मर गया. काल कलवित हो गया. हम पर वज्रपात हो गया. जो भी कह लें, वह नहीं रहा. झंझट मिटाने के लिए कहने तैयार हूँ कि हाँ भाई, वह शहीद हो गया. अन्य किसी बेहतर अभिव्यक्ति की अनुमति नहीं है. मैं बासठ बरस का और साठ की मेरी पत्नी, हम घबरा गए. अकेले और अवसादग्रस्त हो गए. बच्चे के न रहने से बूढ़े अनाथ हो जाते हैं. हम अनाथ हो गए. तब मैंने कोशिश की कि अपने दूसरे बेटे को सेना से वापस ले आऊँ, उसे सिविलियन बना लूूँ . वह घर में, आँखों के सामने रहेगा तो शायद रोशनी बनी रहेगी. सबका जीवन मिल-जुलकर कट जाएगा. गुहार लगाई कि सरकार, मेरा एक बच्चा आपके लिए बलिदान दे चुका है, अब दूसरे बच्चे को हम हमारे पास, घर बुलाना चाहते हैं. बदले में बातचीत, समझाइश और पत्राचार से जो कुछ हासिल हुआ, उसका सारांशः 

‘‘नौ साल बाद विचार हो सकता है. अभी लंबा टर्म बाकी है. वह देश की अमानत है. आप अमानत में खयानत नहीं डाल सकते. किसी के मरने पर भी नियमों का उल्लंघन संभव नहीं. यह एक अनुशासित संस्था है. आप लिख रहे हैं कि वह सरकार पर न्यौछावर हो गया. यह एकदम आपत्तिजनक है. शायद दुख में आपने गलत शब्द का इस्तेमाल कर दिया. उसने देश के लिए बलिदान दिया है. सरकार अनिश्चित है. देश अमर है. शहीद की संचित निधि जितनी मिली है और जो पेंशन हो सकती है, उस पर गर्व होना चाहिए. गर्व नहीं तो देशद्रोह है. राष्ट्र ने प्रशिक्षण पर व्यय किया है, उसे इंसान से सैनिक बनाया है, उस खर्च का दश प्रतिशत भी आप नहीं चुका सकते. आपके इस बेटे पर भी पूरे राष्ट्र ने निवेश किया है. आप किस हैसियत से अपना बेटा वापस माँग सकते हैं. यह आपका बेटा है लेकिन कागज में है, जीवन में नहीं है. वह देश की संपत्ति है. अब यह आपके अधिकार में नहीं. हमारे अधिकार में नहीं. राष्ट्रप्रमुख कुछ कर सकते हैं लेकिन केवल उनके अख्तियार में नहीं है. यह आपका भावुक और कायराना आवेदन है. हमारे पास सेवा शर्तों पर सहमति के हस्ताक्षर हैं. वैसे आपको क्या अधिकार है कि एक वयस्क व्यक्ति की तरफ़ से आप कोई आवेदन दें. आपकी इस हरकत से आपका बच्चा भावुक हो सकता है, बहक सकता है. खुद भी घर जाने की ज़िद कर सकता है. तब हमारे पास कोर्ट मार्शल का तरीका बचेगा. आप गंभीरता समझिए. आप पर दुष्प्रेरणा का मुकदमा चल सकता है. हम आपकी भावनाएँ समझते हैं लेकिन आप इतने बहादुर बच्चों के जन्मदाता होकर अनुशासन और कर्तव्य भूल रहे हैं. देश और देशवासी आपके साथ हैं, आप अकेले नहीं हैं. आप अपने कैंसर से मत डरिये, आप उसे हरा देंगे. देश के सारे बेटे आपके बेटे हैं. हमें आपके ऊपर अभिमान है. विश्वास करें, वैसे वह इतना वीर है कि कोई उसका बाल बाँका नहीं कर सकता. वह मार सकता है, मर नहीं सकता. भरोसा रखें.’’ 

फिर वही विश्वास. फिर वही भरोसा.

आप समझ गए होंगे कि मेरा बेटा मुझे वापस नहीं मिला. देश भर के युवाओं को मेरा बेटा बनाना चाहते हैं लेकिन मेरा बेटा मुझे नहीं देना सकते. रूल इज रूल. जैसे बैंक मुझे मुझे पिता मान सकता है लेकिन पैसा नहीं देगा. ये कहते हैं कि नौ बरस बाद विचार होगा. डॉक्टर कहता है कि प्रोस्टेट कैंसर के मद्देनजर मेरे पास तीन-चार साल बचे हैं. बाकी चीजें मैं सहन कर लूँ लेकिन उनकी निष्कर्षात्मक बात को नहीं पचा सकताः ‘भरोसा रखें’. अरे, भरोसे की खूँटे से ही बाँधकर यह सब हुआ. भरोसा ही तो उखड़ गया है. कई नियम थे जिनके शब्दों को पढ़कर लगता था कि मेरे पक्ष में हैं मगर हर जगह नियमों की व्याख्याएँ मेरे खिलाफ थीं. मनमाने अपवाद थे. इसलिए विश्वास हुआ कि जो कुछ भी अपना वापस लेना चाहता हूँ, वह नहीं मिल सकता. यह अविश्वास कोई दुस्वप्न नहीं है, नग्न यथार्थ है. जिंदगी का हासिल है.

 


 

(तीन)

धीरे-धीरे मुझे मेरी इस पुश्तैनी डेढ़ एकड़ जमीन पर भी विश्वास नहीं रहा. पहले इससे बीस क्विंटल फसल लेता था. अब छह क्विंटल हाथ में आती है. मिट्टी में काले रंग के अलावा काली मिट्टी का कोई दूसरा गुण नहीं रह गया. जामुन के पेड़ से जामुन ही मिलेंगे, यह भरोसा भी नष्ट हो चुका है. जो घर से बाहर जा रहा है, भरोसा नहीं कि वह शाम तक वापस आएगा. बल्कि यह अविश्वास ही निश्चित है, बाकी सब अनिश्चित है. पहले यह दस-पंद्रह प्रतिशत था, अब बढ़कर एक सौ प्रतिशत हो चुका है. आप जिरह मत कीजिए, पिंच्यानवें प्रतिशत मान लीजिए. 

पड़ोस में रहनेवाले मेरे पुराने दोस्त शिरोड़कर जी का ही वाकिया लें. वही शिरोड़कर जी, जो मेरे साथ शतरंज खेलते थे और कभी-कभार जिनके साथ मैं घर पर ही फिल्में देखता था. वे तीन दिन पहले रात में पलंग से अचानक गिर गए. आज अस्पताल से वापस आए. सफेद पालीथीन में पैक. जैसे ही एम्बुलैंस जमीन पर रखकर गई, पालीथीन में हरकत हुई. वे ज़िंदा निकले. लेकिन मैं विश्वास नहीं करता कि वे ज़िंदा हैं. वे खुद भी विश्वास नहीं करते. धीरे-धीरे पूरा मोहल्ला विश्वास करने लगा है कि ये शिरोड़करजी नहीं, शिरोड़करजी का पुतला है. अब वे मेरे साथ शतरंज नहीं खेलते. जब मैं उनसे शतरंज खेलने का कहता हूँ तो वे बर्गमैन की फिल्म याद करते हैं और उठकर चल देते हैं. कहते हैं पूरा पैसा इलाज में लग गया. विश्वास करो, यही सच्ची मृत्यु है. ग़रीब आदमी जीवित प्रेत हो जाता है. मैं उनकी बात पर विश्वास नहीं करता. मरे हुए आदमी की बात पर क्या भरोसा करना. असल में आदमी जब तक खुद इस तरह नहीं मर जाता, वह विश्वास कर भी नहीं सकता. 

कहना यह है कि ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता चला जाता है, उतना ही विश्वास का संकट गहरा जाता है. अब वैश्विक सभ्यता, विकास के अंतिम कगार पर है, यानी ‘कृत्रिम बुद्धिमत्ता’ चलन में है. किंआश्चर्यम् कि मनुष्य भी बुद्धिमानी के लिए यंत्रों की तरफ टुकुर-टुकुर देखते हैं. मनुष्यों का मनुष्यों के प्रति, मनुष्यों द्वारा बनाई नैतिकताओं, समाजिकताओं और संस्थाओं पर विश्वास नहीं रह गया है. विकास की कीमत नानाप्रकार चुकाना पड़ती है. 

फिर भी मैंने और तमाम तरह की कोशिशें और हरकतें कीं ताकि कुछ यकीन कायम रह सकें. मगर निराशा ही हाथ लगी. चाहने पर भी हासिल कुछ नहीं हुआ. जैसे, गली के मंदिर के लिए दी गईं एक डम्पर ईंटें और रेत वापस चाहता था क्योंकि उस जगह पार्षद ने डेयरी बना ली थी. जीवन की नाकुछ सफलताओं को वापस करके, अपनी असफलताएँ चाहता था. मैं और अधिक अपना जीवन नहीं उजाड़ना चाहता था. जो नारे लगाए थे, वे भी वापस लेना चाहता था, जिनके लिए नारे लगाए थे, वे उनके लिए नारे लगा रहे थे जिनके खिलाफ मुझसे नारे लगवाए गए थे. लाईब्रैरी में दी गई अपनी किताबें वापस लेना चाहता था क्योंकि लाईब्रैरी तोड़कर वहाँ मॉल बनाया जा रहा था. लेकिन पता चला कि वे पहले ही रद्दी में बेची जा चुकी हैं. इनमें से मैं कुछ भी वापस प्राप्त नहीं कर सका. बुक-मार्कर तक नहीं. 

अब कहीं अधिक विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि आपको अपना कुछ वापस नहीं मिल सकता. जो विश्वास मुझे अपने जन्म से पहले और बाद में दिए गए, वे भी नहीं. ज्यादातर 1965 में, कुछ 1972, 1975 ,1992 में और बाकी 2002 में छीन लिए गए. क्रम जारी है. उसी थाली में अनगिन छेद किए गए जिसमें एक साथ खाना खाया था. अब मैं विश्वास की थाली बजाता हूँ तो उसमें से चलनी बजाये जाने जितनी आवाज भी नहीं निकलती.

कभी-कभार बस खकार निकलती है. 

हालात यहाँ तक आ गई है कि गाँव-शहर में, दिन में, रात में, धुँधलके में, धूप में, बारिश में, किसी से रास्ता पूछो तो वह ऐसा रास्ता बताता है कि जहाँ जाना चाहते हैं, वहाँ कभी पहुँच नहीं सकते. लेकिन मैं उम्मीद और ज़िद में चलता जाता हूँ. तमाम लोगों ने विश्वास तोड़ा  परंतु आशा को मैंने आहत होने के बाद भी जीवित रखा है. यह विश्वास के निर्जन होने की कहानी है, आशा के उजड़ने की नहीं. अभी भी कुछ एकदम नयी चीजें हैं, एकदम नये मनुष्य हैं जो मुझे उतना विश्वास देते हैं कि प्राणवायु मिलती रहे. जैसे घास के ये सफेद-बैंगनी फूल जो कल खिलने को थे और आज खिल गए हैं. जैसे ये बच्चे जो किलक रहे हैं. आप रास्ता गलत बताते हैं तब मैं चिड़ियों को, बादलों को, खुरों-पंजों के निशानों और तारों को देखते हुए और अपने चलते रहने से, देर-सबेर सही जगह पहुँच जाता हूँ. इन पक्षियों, जानवरों, तारों, बच्चों, मेघों और घास के फूलों पर अभी भरोसा बना हुआ है. ये कुछ अंतिम भरोसे हैं. जैसे यह एक अनजान आदमी, जिससे मैंने पानी माँगा तो उसने पीने का पानी ही दिया. शीतोष्ण और प्यास बुझानेवाला. मुश्किल यह है कि लोग इनका विश्वास भी तोड़ देते हैं. जिनका नाम विश्वास है, वे भी विश्वास तोड़ देते हैं. 

न्युरौन्स खत्म होते हैं तो नये बन जाते हैं लेकिन दिमाग की एक उम्र आती है जब न्युरौन्स नष्ट होते हैं तो वापस नये उतने नहीं बनते. विश्वासों का भी ऐसा दुष्चक्र बन गया है. मेरे पिछले बीस साल विश्वास टूटने, खोने और खत्म होते चले जाने की कहानी है. लोगों को मेरी यह कहानी कहानी नहीं लगती. लोगों के भी तो अपने अविश्वास हैं. सबको परंपरागत, पुरातन और झूठी कहानियाँ ही कहानियाँ लगती हैं. 

ठीक है, आप मत कीजिए विश्वास.

आप पर से मेरा विश्वास भी तो उठ चुका है. कि जिस तरह आप रह रहे हैं, जैसा जीवन जी रहे हैं, मजे में खा-पी-सो रहे हैं और जिस हाल में पड़े-पड़े खुश हैं, उसमें आप इस दुनिया की कोई नयी कहानी न तो लिख सकते हैं और न बना सकते हैं.

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कुमार अंबुज
(जन्म : 13 अप्रैल1957ग्राम मँगवारगुना, मध्य प्रदेश)

कविता-संग्रह-‘किवाड़’, ‘क्रूरता’, ‘अनन्तिम’, ‘अतिक्रमण’, ‘अमीरी रेखा’ और कहानी-संग्रह- ‘इच्छाएँ’ और वैचारिक लेखों की दो पुस्तिकाएँ-‘मनुष्य का अवकाश’ तथा ‘क्षीण सम्भावना की कौंध’ आदि प्रकाशित.

कविताओं के लिए मध्य प्रदेश साहित्य अकादेमी का माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कारभारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कारश्रीकान्त वर्मा पुरस्कारगिरिजाकुमार माथुर सम्मानकेदार सम्मान और वागीश्वरी पुरस्कार आदि प्राप्त.
kumarambujbpl@gmail.com /9424474678

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आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. आज के भारतीय नागरिक का इससे अधिक प्रामाणिक और मार्मिक बयान संभव नहीं। पहलू में अगर अब भी है तो आपका दिल टूट जाएगा। दिल के टूट जाने से अधिक समकालीनता भी अब संभव नहीं। टूटा हुआ दिल अधिक प्रतिबद्ध होता है, ऐसे ही दिल से लिखी यह कहानी ऐसे ही दिलों के किवाड़ खटखटाती है।

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  2. एक सांस में पढ़ ली जाने वाली कहानी ।इसका महत्व इस बात में है कि यह कहानी न होकर सच अधिक लगती है । कहानी के झूठ और जीवन के सच की सीमाओं का जिस तरह अतिक्रमण इस पाठ में हुआ है, वह हमारे समय को आईना दिखाती है । पढ़ते हुए लगता है कि आप एक चौराहे पर खड़े हैं। हर दिशा को जाने वाले रास्ते में एक कहानी है। सारी कहानियां लौटकर उसी चौराहे पर मिल जाती हैं। लेकिन लेखक के ही शब्दों में कहें तो ‘यह विश्वास के निर्जन होने की कहानी है, आशा के उजड़ने की नहीं’. अभी भी वह यकीन न करने की चेतना को बचाये हुए है। और इसी बचे हुए ने उसके भीतर उम्मीद या आशा को पूरी तरह नष्ट नहीं किया। इस उम्मीद या आशा के नष्ट न होने का प्रमाण यह भी तो है कि यह कहानी लिखी गयी है। निराशा को चिन्हना भी आशा को बचाये रखने की कोशिश ही है। इस पाठ के लिए कुमार अम्बुज और अरुण देव दोनों का आभार।

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  3. अरुण कमल14 मई 2021, 9:54:00 am

    हमारे समय की सर्वाधिक विश्वसनीय कथा जो हमारा आत्मविश्वास हमें वापिस देती है।पूँजीवाद के भाव-जगत का तड़तड़ा देने वाला खाका।लेकिन वे लोग भी हैं अंबुज के पास-दूर जो मनुष्य पर मनुष्य के विश्वास को फिर से बहाल करने का संघर्ष कर रहे हैं।ईद मुबारक!

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  4. दयाशंकर शरण14 मई 2021, 10:12:00 am

    कहानी जी जा रही जिंदगी का आख्यान तो है हीं,यह एक दृष्टि से हमारे समय और सभ्यता की समीक्षा और थोड़ी तल्खी से कहा जाय तो पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी है।आज जो मरघट का सन्नाटा हमारी आँखों के आगे पसरा हुआ है और व्यवस्था जिस तरह से मूक और संवेदनहीन बनी हुई है,उसे महसूसकर कहानी कोई आदर्श नहीं बघार सकती,मर्सिया और स्यापा हीं कर सकती है। यह काल सिर्फ विश्वास के गहराते संकट का साक्षीभर नहीं ,बल्कि मनुष्य जाति के साँस्कृतिक क्षरण और तमाम मूल्यों के अवसान का मृत्युलेख भी है। अम्बुज जी एवं समालोचन को साधुवाद !

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  5. यह एक यथार्थवादी कहानी है जो आपको सोचने के लिए मजबूर कर देती है कि सच में सब कितना अविश्वशनीय है।

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  6. अविश्वास की सबसे विश्वसनीय कथा। अद्भुत कथा लिखी है भाई कुमार अंबुज ने

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  7. कितना खूबसूरत सच। एक सांस में पढ़ गया।

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  8. विसंगतियों को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करती कहानी . हालाँकि इसे कहानी कहना पूरी तरह से ठीक नहीं होगा . यह व्यंग्य के निकट है, इसमें करुणा और आक्रोश के साथ आज का समय बजता सुनाई देता है . हम सारे इन्हीं अविश्वासों में जीते हैं और इसी को दुनियादारी कहते, कभी स्वयं को मूढ़ समझते समझौता करते चलते हैं . लेकिन कहानी जैसे याद दिलाती है और हमें अपने कई अविश्वास छल की तरह याद आते हैं . अम्बुज जी के पास जो दृष्टि है वो बहुत गहन है . और जिस मारक रूप में वे व्यक्त होते हैं वह सार्थक है . सेल्यूट .

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  9. इस कठोर समय में कहानी के किरदार की तमाम चीजों पर ज़ाहिर की जाने वाली अविश्वसनीय भाव के साथ स्वयं को जुड़ता हुआ पा रहा हूं। ये किरदार जैसे इस समय के सबसे निरीह मनुष्यों का प्रतिनिधित्व कर रहा है। अवांतर लग रहे संवाद में इतनी सच्चाई और दर्द छुपा हुआ है कि मनुष्य अगर टटोले तो ये फफोले उनके सीने का भी हिस्सा महसूस होगा। अद्यतन की कहानियों में इतने गहरे संताप को शायद ही ढूंढ पाया हूं। ये एक कमाल की कहानी है सर। सैल्युट 🙏

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  10. ग़रीब आदमी जीवित प्रेत हो जाता है. मैं उनकी बात पर विश्वास नहीं करता. मरे हुए आदमी की बात पर क्या भरोसा करना. असल में आदमी जब तक खुद इस तरह नहीं मर जाता, वह विश्वास कर भी नहीं सकता.

    यह अविश्वसनीय समय में भरोसा ढूंढती कथा है। यह कहानी लगातार गलते जा रहे भरोसे के संबंधों का आख्यान है। इस कहानी सबसे विश्वसनीय कहानी कहना होगा क्योंकि यह अविश्वास के दौर में आपको भरोसे को पहचानना सिखाती है। अद्भुत कुमार जी को बधाई।

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  11. कुमार अम्बुज को पढ़ना अपने समय को पढ़ना है । काव्यात्मक सघनता से लिखी यह कहानी सरकार, समाज, बैंक, फ़ौज़, पत्नी, दोस्त से भरोसा उठ जाने की नहीं, ख़ुद से भरोसा उठ जाने की दारुण कथा है । मनुष्य के अकेले पड़ते जाने की दास्तान । मेरा मानना है कि अब साहित्यिक विधाओं से भी भरोसा उठ गया है । कविता अब कहानी है कहानी अब निबंध है निबंध अब रिपोर्ताज़ है । यह भविष्य का साहित्य है । कुमार अम्बुज की यह लिखत क्या है कहा नहीं जा सकता लेकिन हमारे समय का एक दस्तावेज़ है । कुमार अम्बुज और समालोचन का आभार इसे पढ़वाने के लिए !

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  12. एक अलग तरह की कहानी , आज के वक़्त बेहद मौजूं  !

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  13. राकेश मिश्रा14 मई 2021, 3:46:00 pm

    अच्छी कहानी है । फ़ैंटसी और तथ्यों के मेल से रोचक बन पड़ी है । संवादों की अनुपस्थिति से पूरी कहानी एक साँस में कही गयी प्रतीत होती है । हार्दिक बधाई

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  14. विश्वास एक सामाजिक प्रत्यय है। आज सामाजिकता का इतनी तेजी से क्षरण हुआ है कि सबने अपने को अपने तक सीमित कर लिया है। हमारे समाज में कोई एक संस्था नहीं बची है कि यह मानें के वो अपना काम सही-सही कर रही है या उसे करने दिया जा रहा है। एक अदृश्य कब्जा है। इस सबसे मिल कर ऐसा वातावरण बनता जा रहा है हैं कि कोई किसी पर विश्वास नहीं कर सकता। उसी की अभिव्यक्ति इस कहानी में दिखाई देती है। इस रचना के लिए अंबुज भाई और अरुण देव दोनों बधाई के पात्र हैं। - - हरिमोहन शर्मा ।

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  15. राकेश बिहारी14 मई 2021, 7:53:00 pm

    विश्वास की सुनियोजित हत्या और अविश्वास की ताजपोशी की विश्वसनीय कथा.

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  16. पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता रहा कि जैसे कहानी नहीं अपना भोगा अनुभव लिखता जा रहा हूं. विश्वास अविश्वास के ऐसे बिंदु पर खड़ा है इंसान कि, उसे अनगिनत रास्ते ही रास्ते दिख रहे हैं. कौन उसकी मंजिल तक जाता उसे कुछ समझ नहीं आ रहा है. मगर आशा की किरण धुंधली ही सही, उसे दिख अब भी रही है तो मंजिल तक जाने वाले रास्ते की शिनाख्त की कोशिश में अब भी लगा हुआ है.
    हाँ यह कहानी कितनी कहानी इस बिन्दु पर कृष्ण कल्पित जी की टिप्पणी पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए. पाठक को यदि कहानी दस्तावेज होने का एहसास कराने लगे तो उसे किस खाँचे में रखा जाए यह भी देखा जाना चाहिए....
    मगर इन सब से पहले यह कि यह चाहे जिस खाँचे में रखी जाए इसकी पठनीयता पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगाया जा सकता.
    कुमार अंबुज जी को बधाई
    और अरुण देव जी को धन्यवाद.

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  17. नरेश गोस्वामी15 मई 2021, 7:38:00 am

    राज्य/सरकारों के मनुष्य-विरोधी फ़ैसलों का हालिया और ऐतिहासिक आर्काइव तैयार करती कहानी।
    बहुत द्वंद्वात्मक भी है। मसलन, उदासी बहुत स्याह है लेकिन कहीं उम्मीद के फ़ाहे भी उड़ रहे हैं। और यह उम्मीद युक्ति की तरह नहीं आती।

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  18. कुमार अम्बुज लेखन के सिद्धहस्त हैं। उनको पढ़ना भी उतना ही श्रेष्ठ है।

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  19. रवि रंजन15 मई 2021, 2:44:00 pm

    कुमार अम्बुज की इस रचना का बीज उनकी नागरिक पराभव कविता में निहित है।
    सामान्य जीवन जीने के लिए अपने आस पास के लोगों और स्थायी कही जाने वाली संस्थाओं के कायदे कानूनों पर विश्वास ज़रूरी है। किंतु, इस पोस्ट ट्रूथ के युग में आम आदमी को इतनी फ़ज़ीहत झेलनी पड़ती है कि कालांतर में उसका विश्वास डगमगा जाता है और अंततः उसका आत्मविश्वास भी क्षीण हो जाता है।
    लेखक ने इस तेज़ाबी यथार्थ को रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। साधुवाद।

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  20. कथाकार ने जो यथार्थ- कथा गढ़ी है वह निहायत समकालीन जीवन - व्यवस्था पर पैनी नज़र रखे बिना असंभव है। इस तेज जीवन - व्यवस्था में चीजें इतनी तेजी से बदल रही हैं या बदली जा रही हैं कि चीज़ो से जुड़े यथार्थ को पकड़ना करीब करीब मुश्किल है। इसे पकड़ने के लिए एक सजगता और सावधानी चाहिए, एक पैनी दृष्टि चाहिए जो कि कथाकार में बिल्कुल है अन्यथा इस अकहानी को कहानी बनाना संभव नहीं था। उन्हें बहुत-बहुत बधाई और संपादक भी इतनी अच्छी रचना पोस्ट करने के लिए बधाई के पात्र हैं ।

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  21. सुन्दर रचना पदधति !

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  22. सभी का आभार, जिन्होंने अपनी राय, विचार लिखे हैं। ये शब्द मेरे काम आएँगें। अरुण देव Arun Dev और समालोचन को धन्यवाद!

    कृष्ण कल्पित जी ने विधा संबंधी महत्वपूर्ण बिंदु छुआ है- ‘‘अब साहित्यिक विधाओं से भी भरोसा उठ गया है। कविता अब कहानी है। कहानी अब निबंध है, निबंध अब रिपोर्ताज हैं।"

    इन शब्दों से उत्प्रेरित मेरे विचार (#जो #आक्षेप #या #उत्तर #कतई #नहीं #हैं), कृष्ण कल्पित जी Krishna Kalpit के बयान के करीब हैं। कि विधागत अकादेमिक निर्णय व्यर्थ हैं। परिभाषाएँ प्रहसन हैं। सभी संभव विधाएँ एक साथ रहना चाहती हैं। वे अपने वाष्पकणों और अपनी कामनाओं के साथ एक-दूसरे में घुल जाना चाहती हैं। वे अपने सारतत्व में एक साथ रहना चाहती हैं। वे अपनी सुगंध और अणुता में साथ रहना चाहती हैं। वे अपनी-अपनी अधिकता, न्यूनता, प्रगल्भता में भी साथ रहना चाहती हैं। और ऐसा करते हुए वे एक-दूसरे का अतिक्रमण करना चाहती हैं।

    सिनेमा या पेंटिंग में भी कविता और कथा निवास करती है। रोजनामचे और आत्मकथाएँ रहती हैं। शब्दों में भी सिनेमा और संगीत रहता है। कलाओं के विशाल भवन में कोई दरवाजे बंद नहीं हैं। सारी विधाएँ साथ रहकर एक-दूसरे पर बढ़त भी लेना चाहती हैं। कि जैसी मैं हूँ, उसके अलावा जो हो सकती हूँ, वह भी हो सकूँ। यह असंभव के करीब का समीकरण है। यह अप्रमेय है और असंतुलित है लेकिन सर्जना है। यह दुर्लभ है, कठिन है। दूर तक असाध्य है। इसलिए यह रचनाकारों की आकांक्षा का विषय है। यह उनके लिए असफलता, दुर्वचन और उपहास आमंत्रित करने का भी रास्ता है।

    और यह भी हमेशा हुआ है कि प्रतिमान नष्ट हो जाते हैं। अपनी निर्मिति के क्षण से ही उनमें दीमक लग चुकी होती है।

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  23. कहानी मनुष्य के डर ,संशय, अविश्वास ,त्रास को रचनात्मक स्तर सामने रखती। इन्हे पैदा करने वाली परिस्थितियां कहानी में नहीं है लेकिन उन परिस्थितियों की भयावहता, आक्रामकता , क्रुरता कहानी में अत: सलिला की तरह मौजूद है। कहानी मनुष्य के अंर्तमन को गहरे जाकर उद्वेलित करती है। मुक्तिबोध की कविताओं की तरह। कहानी कहानी के प्रचलित शिल्प से अलग हटकर संवेदनात्मक स्तर गहरे उतरती है जो कि कुमार अंबुज जी की कहानियों की खूबी है।

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  24. कुमार अम्बुज की यह कहानी हमारे समय का एक जीवंत दस्तावेज है.कहानी के प्रचलित फॉर्म से अलग.अलग शिल्प और कथानक के साथ यह कहानी विश्वास के टूटने के साथ एक नए विश्वास के कायम होने की कहानी भी कहती है

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  25. वाह. अद्भुत. ऐसी कहानी जिसमें कविता का आनंद है. प्रिय कवि का गद्य संभवतः पहली बार पढ़ा. अरुण भाई का आभार इसे हम तक पहुँचाने के लिए.

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  26. एक एक प्रसंग हथौड़े की तरह चोट करता है,अपने होने पर सवाल पूछता है। जिनपर हमने विश्वास किया वे हंस हंस कर हमारा विश्वास तोड़ते रहे और हमें इस बहाली तक पहुंचा दिया। हमारे समय को परिभाषित करने वाली और लंबे समय तक haunt करने वाली कहानी।
    यादवेन्द्र

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  27. Laxman Singh Bisht Batrohi20 मई 2021, 8:26:00 pm

    सचमुच एक यादगार कहानी. यथार्थ के मिथकीय संसार में ले जाकर हमें अपना अकेलापन सौंपती हुई.

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  28. कृष्ण कल्पित ने चाहे कह दिया हो कि विधा भी अब भरोसे के लायक नहीं पर कवि की लिखी कहानी में कवितापन ही गल्प के विस्तार को बांधे रखता है. एक सांस में पढ़ ली जाने वाली कहानी प्रायः भाव में कविता ही होती है, भूमि में कोई विवरण ( संदर्भित रचना की भाव-भूमि ).
    कहानीकार को किसी भी शै, तंजीम या शख़्स पर जब भरोसा नहीं रहा तो resultantly एक अंधेरा, एक नाउम्मीदी चहुं ओर पसर गई. ऐसे में उसे रोशनी दिखाई दी तो सिर्फ़ घास पर खिले बैंगनी फूलों, खुरों के निशान और मेघ की छायाओं से. इस तरह घनघोर स्याही में रतिक उजाले की आशा कवि ही इस कहन में ला सका, अन्यथा कहानी अधूरी रह जाती.
    बधाई, कुमार अंबुज को बढ़िया कहानी रचने के लिए और आभार अरुण देव - समालोचन, का पढ़वाने के लिए.

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  29. यह बात महत्वपूर्ण नहीं है कि यह कहानी है या नहीं है।खाँचे पहले से बने हों और रचना उसके शिल्प में गढ़ दी जाय!ऐसा शिल्पक कर सकते हैं एक रचनाकार नहीं। वह विधाओं की बंदिशों को तोड़ते हुए अपने सोच-संवेदन को व्यक्त करता है। कहने भर को विश्वास और अविश्वास की एक दूरबीन है जिसके सहारे लेखक अपने समय-समाज की जटिलता को हू ब हू रखने की कोशिश करता है। एक तरह की एक्स-रे रपट।जो ऊपर से देखने में लगती एकदम सीधी -साधी है लेकिन बस थोड़े से बालू उकेरते ही एक मार्मिक पैथास आपके भीतर उतर जाता है। अंबुज की यही खूबी है जो उनको औरों से हिगराती है।

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  30. एक नए शिल्प की आहट,,एक नई कहानी के जन्म का संकेत।पोस्ट ट्रुथ का इलाका।भावुकता और यथार्थ बोध के सम्मिश्रण से बना भारतीय मानस।विश्वास के लायक कुछ बचा नहीं।विश्वास भी ढह चुके हैं।२०२१की अबतक की सर्वश्रेष्ठ कहानी के लिए कवि और कहानिकार कुमार अंबुज को साधुवाद।

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